राजा राममोहन राय ने शुद्ध एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर आधारित ब्रह्मसमाज की स्थापना की। ब्रह्मसमाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार उपनिषदों का अद्वैतवाद था।
भारत में धार्मिक और समाजिक आन्दोलनों के प्रवर्तक राजा राम मोहन राय का जन्म ई.1774 में बंगाल के राधानगर गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे आरम्भ से ही क्रांतिकारी विचारों के थे। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने एक पुस्तिका प्रकाशित करवाई जिसमें उन्होंने मूर्ति-पूजा का प्रबल विरोध किया। उनके परम्परावादी ब्राह्मण परिवार ने नाराज होकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया।
वे इधर-उधर भटकने लगे तथा इस दौरान उन्होंने संस्कृत, फारसी, बंगला, अरबी तथा अँग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन रंगपुर की कलेक्टरी में क्लर्क बन गये। अपनी प्रतिभा के बल पर वे शीघ्र ही जिले की दीवानगिरी के उच्च पद पर पहुँच गये। इसी बीच उन्होंने लेटिन, ग्रीक एवं हिब्रू भाषाएं सीखकर ईसाई धर्म का गहन अध्ययन किया। हिन्दू-धर्म-शास्त्रों, वेद, उपनिषद तथा वेदान्त आदि का अध्ययन वे पहले ही कर चुके थे।
राजा राममोहन राय द्वारा इसाई धर्म के आक्षेपों का जवाब
राजा राममोहन राय ईसाई धर्म की अच्छाइयों के प्रशंसक थे किंतु उन्होंने ईसा के देवत्व को उसी प्रकार अस्वीकार किया जिस प्रकार वे हिन्दू अवतारवाद को अस्वीकार करते थे। ई.1813 में जब ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू-धर्म पर आक्षेप करने आरम्भ किये तो राजा राममोहन राय ने उन आक्षेपों का उत्तर देना आरम्भ किया।
ई.1814 में 40 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया और कलकत्ता जाकर रहने लगे। ई.1820 में उन्होंने प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने न्यू टेस्टामेंट्स के नैतिक और दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारी कहानियों से अलग करने का प्रयास किया।
राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्मसमाज की स्थापना
20 अगस्त 1828 को राजा राममोहन राय ने शुद्ध एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर आधारित ब्रह्मसमाज की स्थापना की। ब्रह्मसमाज 19वीं शताब्दी का प्रथम धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन था तथा राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज की बुराईयों का दूर करने का प्रयत्न किया।
ब्रह्मसमाज का विभाजन
ई.1833 में राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को आगे बढ़ाया। केशवचन्द्र सेन ब्रह्मसमाज को ईसाई धर्म के सिद्धान्तों पर चलाना चाहते थे किन्तु देवेन्द्रनाथ टैगोर इससे सहमत नहीं थे। अतः ब्रह्मसमाज दो भागों में विभक्त हो गया-
(1.) देवेन्द्रनाथ का आदि ब्रह्मसमाज
(2.) केशवचन्द्र सेन का भारतीय ब्रह्मसमाज।
केशवचन्द्र ने अपने समाज के प्रचार हेतु देश का पर्यटन किया। इसके फलस्वरूप बम्बई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई। ई.1881 में भारतीय ब्रह्मसमाज में पुनः मतभेद उत्पन्न हो गए। केशवचन्द्र सेन के विरोधियों ने साधारण ब्रह्मसमाज स्थापित किया। केशवचन्द्र सेन ने नव विधान समाज की स्थापना की जिसमें हिन्दू, ईसाई, बौद्ध और मुस्लिम धार्मिक ग्रन्थों से भी अनेक बातें ली गई थीं। यद्यपि ब्रह्मसमाज विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया तथापि उसका मूल लक्ष्य हिन्दू समाज और धर्म का सुधार करना था।
ब्रह्मसमाज के प्रमुख सिद्धान्त
राजा राममोहन राय ने ब्रह्मसमाज के रूप में किसी नवीन सम्प्रदाय को खड़ा नहीं किया अपितु हिन्दू-धर्म की उच्च शिक्षाओं के तत्त्व से एक सामान्य पृष्ठभूमि तैयार की। ब्रह्मसमाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार उपनिषदों का अद्वैतवाद था। ब्रह्मसमाज की साप्ताहिक बैठकों में वेदों का पाठ होता था तथा उपनिषदों के बंगला अनुवाद का वाचन होता था।
ब्रह्मसमाज के सुधार कार्य
राममोहन राय के धार्मिक सुधार
ब्रह्मसमाज ने वेदों और उपनिषदों को आधार मानकर बताया कि ईश्वर एक है, समस्त धर्मों में सत्यता है, मूर्ति-पूजा और कर्मकाण्ड निरर्थक हैं तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। सर्वप्रथम ब्रह्मसमाज ने ही भारतीय समाज को तर्क के आधार पर धर्म की व्याख्या करने का विचार दिया।
धर्म की व्याख्या करते हुए, ईसाई धर्म के कर्मकाण्डों तथा ईसा मसीह के ईश्वरीय अवतार होने के दावे पर प्रबल आक्रमण किया तथा ईसाई धर्म-प्रचारकों से शास्त्रार्थ किया। इस कारण जो हिन्दू, ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे थे, वे धर्म-परिवर्तन करने से बच गए। राजा राममोहन राय ने हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध आदि समस्त धर्मों का गहन अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समस्त धर्मों में सत्य है किन्तु समस्त धर्मों में कर्मकाण्ड सम्मिलित हो गये हैं जिनको दूर करने की आवश्यकता है।
उन्होंने मुख्यतः हिन्दू-धर्म में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने लोगों का ध्यान उस निराकार, निर्विकार ब्रह्म की ओर आकृष्ट किया जिसका निरूपण वेदान्त में हुआ है। ब्रह्मसमाज समस्त धर्मों के प्रति सहिष्णु था। जब राजा राममोहन राय ने ब्रह्मसमाज के लिए भवन का निर्माण कराया, तब उसके ट्रस्ट के दस्तावेज में स्पष्ट किया गया कि ‘समस्त लोग बिना किसी भेदभाव के, शाश्वत सत्ता की उपासना के लिए इस भवन का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें किसी मूर्ति की स्थापना नहीं होगी, न इसमें कोई बलिदान होगा, न किसी धर्म की निन्दा की जायेगी। इसमें केवल ऐसे उपदेश दिये जायेंगे जिनसे समस्त धर्मों के बीच एकता तथा सद्भाव की वृद्धि हो।’
ब्रह्मसमाज पर आरोप लगाया जाता है कि उस पर ईसाई धर्म और सभ्यता का प्रभाव था किन्तु यह सत्य नहीं है। उसकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्राचीन भारतीय धर्म ग्रन्थ ही थे। ब्रह्मसमाज ने भारत के अन्य धर्मों में सुधार का मार्ग भी प्रशस्त किया।
राममोहन राय के सामाजिक सुधार
राजा राममोहन राय उच्च कोटि के समाज सुधारक थे। उस समय हिन्दू समाज में अनेक बुराईयां व्याप्त थीं। राजा राममोहन राय ने उन्हें दूर करने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी विधवा भाभी को सती होते देखकर इस अमानुषिक प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। इसके परिणाम स्वरूप लॉर्ड विलियम बैंटिक ने ई.1829 में सती-प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।
ब्रह्मसमाज ने बाल-विवाह, बहु-विवाह, जाति प्रथा, छुआछूत, नशा आदि कुरीतियों का विरोध किया तथा स्त्री-शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह आदि का समर्थन किया। उस समय भारतीय हिन्दू समाज में कन्या एवं वर विक्रय और कन्या-वध जैसी कुप्रथायें प्रचलित थीं।
ब्रह्मसमाज ने इन कुरीतियों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने समता का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए लाखों हिन्दुओं को ईसाई होने से रोका। ई.1822 और ई.1830 में दो प्रकाशनों द्वारा राजा राममोहन राय ने स्त्रियों के सामाजिक, कानूनी और सम्पत्ति के अधिकारों पर प्रकाश डाला। उनके मत में, स्त्री और पुरुष दोनों ही समान हैं।
इस प्रकार समाज सुधार के क्षेत्र में ब्रह्मसमाज का योगदान अद्वितीय है। हिन्दू समाज में कोई भी ऐसी कुरीति नहीं थी, जिस पर ब्रह्मसमाज ने प्रहार न किया हो। आधुनिक काल में जिन कुरीतियों का विरोध समस्त प्रबुद्ध भारतीयों ने किया है तथा जिन्हें आज भी भारत का शिक्षित वर्ग घृणा की दृष्टि से देखता है, उन कुरीतियों पर सर्वप्रथम ब्रह्मसमाज ने ही प्रहार किया था। स्वतंत्र भारत के संविधान में जिन सामाजिक कुरीतियों को असंवैधानिक घोषित किया गया है, उनके विरुद्ध भी सर्वप्रथम ब्रह्मसमाज ने ही संघर्ष किया था।
राममोहन राय के साहित्यिक सुधार
ब्रह्मसमाज ने साहित्यिक क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया। देवेन्द्रनाथ की तत्त्व बोधिनी सभा, केशवचंद्र सेन की संगत सभा और भारतीय समाज सुधार जैसी सभाएं ब्रह्मसमाज के विचारों का प्रचार करने में सहायक सिद्ध हुईं। राजा राममोहन राय ने बंगला, उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत और अँग्रेजी भाषा में पुस्तकों की रचना कर भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया।
उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया जो भारतीय साहित्यिक जगत् के लिए स्थायी योगदान है। राजा राममोहन राय और केशवचन्द्र सेन के लेखों और वक्तव्यों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। राजा राममोहन राय के अपील टू द क्रिश्चियन पब्लिक तथा दी डेस्टिनी ऑफ ह्यूमन लाइफ जैसे लेखों ने भारतीयों में नव-जागरण उत्पन्न किया।
राजा राममोहन राय ने संवाद कौमुदी नामक सर्वप्रथम बंगला साप्ताहिक पत्र निकाला। उन्होंने फारसी अखबार मिरातउल भी प्रकाशित किया। केशवचन्द्र सेन ने भारतीय ब्रह्मसमाज द्वारा तत्त्व कौमुदी, ब्रह्म पब्लिक ओपीनियन, संजीवनी आदि पत्र प्रकाशित किये। इन पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य के विकास में भारी योगदान दिया।
राममोहन राय के शैक्षणिक सुधार
राजा राममोहन राय ने अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक युग में प्रगति के लिए अँग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। वे चाहते थे कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा तथा ज्ञान की समस्त शाखाओं के शिक्षण की व्यवस्था हो। इसके लिए ब्रह्मसमाज ने विभिन्न स्थानों पर स्कूल और कॉलेज खोले। स्वयं राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में वेदान्त कॉलेज, इंगलिश स्कूल और हिन्दू कॉलेज की स्थापना की।
केशवचन्द्र सेन के भारतीय ब्रह्मसमाज ने ब्रह्म बालिका स्कूल तथा सिटी कॉलेज ऑफ कलकत्ता की नींव डाली। भारत के आधुनिकीकरण और समाज सुधार में इन शिक्षण संस्थाओं ने महान् योगदान दिया। हिन्दू कॉलेज ने भारतीय बौद्धिक जागरण में अग्रदूत का काम किया तथा युवा बंगाल आन्दोलन को जन्म दिया।
राममोहन राय के राष्ट्रीय सुधार
ब्रह्मसमाज ने राष्ट्रीयता की भावना के निर्माण में विपुल योगदान दिया। उसने प्राचीन भारतीय गौरव, सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान कराया, जिससे भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई। राजा राममोहन राय ने हिन्दू कानूनों में सुधार की वकालात की। स्त्रियों के सामाजिक और सम्पत्ति अधिकारों पर बल दिया।
भूमि-कर में कमी करने की मांग की और दमनकारी कृषि कानूनों के विरुद्ध एक प्रार्थना-पत्र इंग्लैण्ड भेजा। समाचार-पत्रों पर लगे प्रतिबन्धों के विरोध में सुप्रीम कोर्ट तथा किंग-इन-कौंसिल को आवेदन भेजे। राजा राममोहन राय ने सर्वप्रथम विचार-स्वतंत्रता का नारा बुलन्द किया। उन्होंने भारतीयों को शासन और सेवा में अधिक संख्या में भरती करने की मांग की।
उन्होंने इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स की प्रवर समिति को भारतीय शासन में सुधार हेतु सुझाव दिये। उन्होंने न्याय में जूरी प्रथा का समर्थन किया तथा न्यायपालिका को प्रशासन से अलग करने की मांग की। उन्होंने दीवानी तथा फौजदारी कानूनों का संग्रह तैयार करने की भी मांग की और फारसी के स्थान पर अँग्रेजी भाषा को न्यायालयों की भाषा बनाने पर बल दिया।
उन्होंने किसानों से ली जाने वाली मालगुजारी निश्चित करने की मांग की। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप ई.1835 में समाचार पत्रों पर से प्रतिबन्धों को हटाया गया। राजा राममोहन राय ने भारत के राजनीतिक नवजागरण में महान् योगदान दिया।
नये युग के अग्रदूत राजा राममोहन राय
राजा राममोहन राय अन्तर्राष्ट्रीयता के समर्थक थे। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने हेतु एक सुझाव प्रस्तुत किया जिसमें सम्बन्धित देशों की संसदों से एक-एक सदस्य लेकर अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस बनाने कर योजना थी। इस प्रकार राजा राममोहन राय राष्ट्रीयता एवं अन्तराष्ट्रीयता- दोनों के प्रबल समर्थक थे।
एडम ने लिखा है- ‘स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तर्रात्मा की सबसे जोरदार लगन थी और यह प्रबल भावना उनके धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि समस्त कार्यों में फूट-फूटकर निकल पड़ती थी।’ इसीलिए उन्हें नये युग का अग्रदूत कहा गया है।
मुख्य लेख : उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के समाज-सुधार आंदोलन
राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्मसमाज
केशवचन्द्र सेन का भारतीय ब्रह्मसमाज
आत्माराम पाण्डुरंग और प्रार्थना समाज
स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन