Sunday, December 8, 2024
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13. ऋषि कश्यप तथा उनकी पत्नियों दिति एवं अदिति की कथा!

हिन्दू धर्मग्रंथों में आए संदर्भों के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र मरीचि हुए। मरीचि के पुत्र प्रजापति कश्यप हुए। प्रजापति कश्यप ने प्रजापति दक्ष की 17 पुत्रियों से विवाह किया। इनमें दिति और अदिति भी थीं। इस कड़ी में हम दिति एवं अदिति की कथा की चर्चा करेंगे।

प्राचीन धर्म-ग्रंथों में कश्यप ऋषि का नाम बार-बार आया है। ये एक वैदिक ऋषि थे तथा इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती थी। हिन्दू धर्मग्रंथों की मान्यता है कि कश्यप के वंशजों ने ही मानव सृष्टि का प्रसार किया। कुछ हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार धरती पर निवास करने वाले समस्त जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप ऋषि से हुई।

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कश्यप ऋषि का उल्लेख केवल एक बार हुआ है। जबकि यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद में इनका उल्लेख कई बार हुआ है। अन्य वैदिक ग्रंथों, पुराणों एवं उपनिषदों में आए विवरणों में कश्यप ऋषि प्रमुख पात्र हैं। इन्हें सृष्टि में अत्यंत प्राचीन काल का बताया गया है तथा इन्हें परम धार्मिक एवं रहस्यात्मक दर्शाया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार कश्यप ऋषि ने ‘विश्व-कर्म-भौवन’ नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है।

महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति तथा वंशावली के वर्णन में कहा गया है कि ब्रह्माजी के सात मानस पुत्रों में से एक मरीचि थे जिन्होंने अपनी इच्छा से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया। भागवत पुराण तथा मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कश्यप ऋषि की की बारह पत्नियां थीं किंतु कुछ ग्रंथों में आए उल्लेख के अनुसार कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तानें उत्पन्न हुईं उसका विवरण इस प्रकार है-

कश्यप की पत्नी अदिति से आदित्य अर्थात् देवताओं ने जन्म लिया। दिति से दैत्यों ने जन्म लिया। दनु से दानव उत्पन्न हुए। काष्ठा से अश्व आदि पशु उत्पन्न हुए। अनिष्ठा से गन्धवों की उत्पत्ति हुई। सुरसा से राक्षस जन्मे। इला से वृक्षों ने जन्म लिया। मुनि से अप्सराएं उत्पन्न हुईं। क्रोधवशा से सर्प, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद अर्थात् हिंसक पशु, ताम्रा से श्येन अर्थात् गिद्ध, तिमि से यादोगण अर्थात् जल-जन्तु उत्पन्न हुए। कश्यप की पत्नी विनता से गरुड़जी और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पक्षी और यामिनी से शलभ अर्थात् कीड़े उत्पन्न हुए।

ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति के बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाए- अदितेः अपत्यं पुमान् आदित्यः। अदिति को देवमाता तथा आदित्यों को देवता कहा जाता है। संस्कृत भाषा में अदिति का अर्थ होता है ‘असीम’ अर्थात् जिसकी कोई सीमा न हो।

अदिति के बारह पुत्र हुए जिनके नाम मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, विवस्वान्, भग-आदित्य, इन्द्र, विष्णु, पर्जन्य, पूषा तथा त्वष्टा हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य भ्रमण करते हैं, वे अदिति के पुत्र हैं। अदिति के पुण्यबल से ही उसके पुत्रों को देवत्व प्राप्त हुआ। यह आख्यान इस ओर संकेत करता है कि विश्व की समस्त नियामक एवं निर्माणकारी शक्तियाँ एक ही माता से उत्पन्न हुई हैं जिसे ‘अदिति’ कहा गया है।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

पुराणों में कहा गया है कि अदिति का एक पुत्र गर्भ में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया परन्तु अदिति ने अपने तपोबल से उसे पुनर्जीवित कर दिया। उस पुत्र का नाम मार्तण्ड था। वह मार्तण्ड विश्व-कल्याण के लिए अन्तरिक्ष में गतिमान् है। हम उसे विवस्वान तथा सूर्य के नाम से भी जानते हैं।

इस आख्यान से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि यहाँ अदिति से आशय ‘ब्लैक होल’ जैसी उस अंतरिक्षीय रचना से है जिसमें खगोल-पिण्डों का निर्माण होता है तथा जिसे आकाश-गंगाओं की नर्सरी कहा जाता है। यह आख्यान यह सोचने के लिए विवश करता है कि जब सूर्य का निर्माण हो रहा था, तब कोई दुर्घटना हुई जिससे सूर्य का बनना रुक गया किंतु बाद में सूर्य का निर्माण फिर से आरम्भ हो गया और सूर्य सुरक्षित रूप से अस्तित्व में आ गया।

ऋग्वेद में अदिति को माता स्वीकारा गया है। मातृदेवी की स्तुति में ऋग्वेद में बीस मंत्र हैं। उन मन्त्रों में ‘अदितिर्द्याैः’ मन्त्र अदिति को माता के रूप में प्रदर्शित करता है जिसका अर्थ है- ‘यह मित्रावरुण, अर्यमन्, रुद्रों, आदित्यों इन्द्र आदि की माता हैं। इन्द्र और आदित्यों को शक्ति अदिति से ही प्राप्त होती है।’

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अथर्ववेद एवं वाजसनेयी-संहिता में अदिति के मातृत्व की ओर संकेत हुआ है। इस प्रकार उसका स्वाभाविक स्वत्व शिशुओं पर है। ऋग्वैदिक ऋषि अपने देवताओं सहित बार-बार अदिति की शरण में जाते हैं एवं अदिति से संकट निवारण करने एवं अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं। ‘अदिति’ अपने शाब्दिक अर्थ में व्यापकता, बंधनहीनता और स्वतंत्रता की द्योतक है। इसलिए ऋग्वेद में अदिति की शरण में जाने वाले ऋषि अपनी मुक्ति की कामना करते हैं।

कुछ अर्थों में अदिति को ‘गौ’ का पर्याय माना गया है। ऋग्वेद का एक प्रसिद्ध मंत्र इस प्रकार है- ‘मा गां अनागां अदिति वधिष्ट’ अर्थात् गाय रूपी अदिति को न मारो। इस मंत्र का सम्बन्ध गाय से है तथा इसी मंत्र का सम्बन्ध देवताओं की माता अदिति से है। इस मंत्र से स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति में अत्यंत प्राचीन काल से ही गाय को मनुष्य जीवन के लिए कितना महत्त्वपूर्ण माना गया! ऋग्वेद के इसी मंत्र के कारण हिन्दू आज तक ‘गौ-हत्या’ को घनघोर पाप मानते हैं।

इसी मातृदेवी की उपासना के लिए विभिन्न रूपों में बनाई गई, प्राचीन काल की लाखों मूर्तियां मिलती हैं। इन मूर्तियों को सिंधु नदी घाटी से लेकर मध्य एशिया अर्थात् ईरान एवं ईराक और भू-मध्य सागर के देशों अर्थात् असीरिया, तुर्की एवं अनेक यूरोपीय देशों में प्राप्त किया गया है। इन्हीं मातृदेवियों की पूजा इस्लाम के उदय से पहले अरब के रेगिस्तान में होती थी। उनकी मूर्तियां आज भी अरब देशों से खुदाई में प्राप्त होती हैं। इन्हें लात अथवा अल्लात, मनात, हुबल और उज्जा अल-उज्जा कहा जाता है।

इनमें से तीन देवियों की प्रतिमाएं एक ही पैनल पर प्राप्त होती हैं तथा एक देवी के समक्ष सिंह बैठा हुआ होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती एवं दुर्गा हैं तथा दुर्गा के चरणों के पास सिंह बैठा हुआ है। जब इस्लाम का उदय हुआ तो देवियों की इन प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया गया तथा उनकी पूजा बंद कर दी गई। इन्हें पूजने वालों को असभ्य और अंध-विश्वासी कहा गया।

इस विवेचना के पश्चात् हमएक बार फिर से पुराणों की ओर चलते हैं। जब अदिति के पुत्रों अर्थात् देवताओं को रहने के लिए स्वर्ग मिल गया तो दिति के पुत्रों अर्थात् दैत्यों ने देवताओं से स्वर्ग छीनना चाहा। इस पर देवों एवं दैत्यों में भयानक शत्रुता उत्पन्न हो गई तथा दैत्यों और देवों के बीच हजारों साल तक अनेक युद्ध हुए।

पौराणिक कथाओं के अनुसार स्वर्ग के देवगण ऋषियों द्वारा प्रदत्त यज्ञ-भाग एवं हविष्य पर जीवित रहते थे जबकि दैत्य मानव जाति को मारकर खाते थे। देवता सात्विक वृत्ति के होने के कारण, प्रायः दुष्ट दैत्यों से परास्त हो जाते थे। तब ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश देवताओं की सहायता किया करते थे।

चूंकि विष्णु भी अदिति के पुत्र थे, इसलिए दैत्य विष्णु से भी शत्रुता रखते थे। यही कारण था कि दैत्य, ब्रह्माजी एवं शिवजी को प्रसन्न करने के लिए घनघोर तपस्या करके उनसे वरदान पाते थे। दैत्यगण ब्रह्माजी एवं शिवजी से प्राप्त शक्ति का उपयोग भगवान श्रीहरि विष्णु, उनके भाइयों अर्थात् देवताओं, उनके भक्तों तथा ऋषियों-मुनियों के विरुद्ध किया करते थे। दैत्यकुल में प्रह्लाद, दैत्यराज विरोचन, दैत्यराज बली एवं राक्षसराज विभीषण आदि कुछ ही दैत्य हुए जो भगवान श्रीहरि विष्णु को भजते थे। त्रिजटा नामक राक्षसी भी भगवान की भक्त थी।

एक बार बहुत लम्बे समय तक हुए देव-दानव युद्ध में देव पराजित हो गए और वे स्वर्ग छोड़कर वनों में विचरण करने लगे। उनकी दुर्दशा को देखकर अदिति और कश्यप बड़े दुःखी हुए। तब नारद मुनि ने अदिति को सूर्याेपासना करने की सलाह दी। अदिति ने सूर्यदेव को प्रसन्न करने के लिए अनेक वर्षों तक घनघोर तपस्या की। सूर्यदेव अदिति के तप से प्रसन्न हुए तथा उन्होंने अदिति से वरदान मांगने को कहा।

अदिति ने कहा कि आप मेरे पुत्र के रूप में जन्म लें। कालान्तर में सूर्य का तेज अदिति के गर्भ में प्रतिष्ठित हुआ किन्तु एक बार अदिति और कश्यप में कलह हो गया। कश्यप ने क्रोधवश अदिति के गर्भस्थ शिशु को ‘मृत’ कह दिया। उसी समय अदिति के गर्भ से एक प्रकाश-पुंज बाहर आया। उसे देखकर कश्यप भयभीत हो गए और उन्होंने सूर्य से क्षमा-याचना की।

उसी समय एक आकाशवाणी हुई- ‘आप दोनों इस पुंज का प्रतिदिन पूजन करें। उचित समय होने पर इस पुंज से एक पुत्र-रत्न जन्म लेगा। वह आप दोनों की इच्छा को पूर्ण करके ब्रह्माण्ड में स्थित होगा।’

अदिति का यही पुत्र आदित्य, मार्तण्ड, विवस्वान, अंशुमाली तथा सूर्य कहलाया। जब आदित्य दैत्यों से युद्ध करने गए तो दैत्य आदित्य के तेज को देखकर युद्ध से पलायन करके पाताल-लोक में चले गए। आदित्य सूर्यदेव के रूप में ब्रह्माण्ड के मध्यभाग में स्थित हुए और ब्रह्माण्ड का संचालन करने लगे।

जिस प्रकार अदिति के पुत्र आदित्य कहलाते थे, उसी प्रकार दिति के पुत्र दैत्य कहलाते थे। जब दिति के पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने इन्द्र से स्वर्ग छीन लिया तब भगवान विष्णु ने दिति के पुत्रों को मारकर स्वर्ग पुनः दिति के पुत्रों को प्रदान किया। इस पर दिति ने अपने पति से ऐसा पुत्र देने की याचना की जो इन्द्र का नाश कर सके!

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