डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (14)
‘भारत जीवन’ साप्ताहिक समाचार पत्र सोहन प्रसाद मुदर्रिस के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन का नेतृत्व करता रहा। अन्य पत्र-पत्रिकओं ने भी इस आन्दोलन के समाचार प्रकाशित किए किंतु वे भारत जीवन की तरह मुखर नहीं हो सके। कलकत्ता का ‘उचित वक्ता’ अकेला ऐसा समाचार पत्र था जिसने सोहन प्रसाद मुदर्रिस के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन से असहमति व्यक्त की और सोहन प्रसाद की पुस्तक को इस योग्य नहीं माना कि उसके लिए आन्दोलन चलाया जाये।
अन्य पत्र-पत्रिकाओं की तरह उचित वक्ता ने भी आरम्भ में सोहन प्रसाद के पक्ष का समर्थन किया था, परंतु बाद में उसने यह समर्थन वापस ले लिया। 14 नवम्बर 1885 के अंक में उचित वक्ता के सम्पादक ने लिखा- ‘इस विषय में हम लोगों ने इस पुस्तक के बिना देखे जोर दिया था, परन्तु अब इस पुस्तक के देखने से साफ यही मालूम होता है कि यह झगड़ा वास्तव में हिन्दी का नहीं है और न ऐसा ही है कि हिन्दी के सम्पादक इसकी सहायता करने में बाध्य ही हैं।’ यह बात उचित वक्ता ने तब लिखी जब न्यायालय में अभियोग समाप्त हो चुका था तथा आंदोलन पूरी तरह समाप्त हो चुका था।
‘उचित वक्ता’ के विपरीत रुख से इस आंदोलन ने एक बार पुनः चर्चा प्राप्त कर ली। ‘भारत जीवन’ द्वारा उचित वक्ता की कड़ी आलोचना की गयी तथा उचित वक्ता के विरुद्ध ‘सत्यवक्ता’ के नाम से एक उत्तेजक टिप्पणी लिखी गई। भारत जीवन के 28 नवम्बर 1885 के अंक में यह टिप्पणी छपी जिसमें सत्यवक्ता ने लिखा-
‘उचित वक्ता का सम्पादकीय समस्त आर्य समाज के चित्त में क्लेश और दुःख देने वाला है। ये महाशय (उचित वक्ता के सम्पादक) ऐसी आलोचना करते हैं कि मानो उस ग्रन्थ (सोहन प्रसाद मुदर्रिस के पद्यनाटक) में लिखे गए एक-एक वर्णों के आशय इनके रोम-रोम में चुभ गये हैं……इतने पत्र-सम्पादकों के रहते एक आप ही क्यों उबल पड़े? …… सोहन प्रसाद मुदर्रिस के पद्यनाटक में ऐसी कौन-सी बात आपने देखी जो आपको लाइबिल (अविश्वसनीय) लगी?’
भारत जीवन में छपी इस टिप्पणी से प्रकट होता है कि सत्यवक्ता (जो कि संभवतः भारत जीवन के सम्पादक ही थे) सोहन प्रसाद मुदर्रिस के द्वारा पद्यनाटक में इस्लाम के मजहबी नेताओं के विरुद्ध की गई टिप्पणियों को उचित ठहरा रहे थे। न्यायालय में स्थापित मुकदमे में मुख्य शिकायत हजरत उमर के चरित्र पर की गयी उस टीका-टिप्पणी को लेकर थी जिसमें कहा गया था-
- उमर खलीफा अस पुरुष तुरुकन के सिरताज
- चौदह भुअन में खोज अस मिलइ न कोउ बेलाज। (158)
- परतिय गामी अधम जद तनिक न करहिं विचार
- हिन्दू भूप न सपन में परतिय रूप निहार। (159)
- परतिय महल में छीनि के डारि लेहिं बदमाश
- कहँ हदीस में है लिखा हमसे करो प्रकाश। (160)
- परतिय गामी तुर्क जो तिन्हें मूर्ख तुम जान
- उमर आदि सब तुर्क को महाअधम करि मान। (167)
सोहन प्रसाद ने अपनी रक्षार्थ मचायी गुहार में अपनी इन बातों पर कभी सफाई नहीं दी कि वे हिन्दी-उर्दू विवाद में खलीफा उमर को कैसे घसीट लाए? संभवतः इसी कारण कुछ आलोचकों का मानना था कि यह नाटक हिन्दी की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए नहीं लिखा गया था अपितु हिन्दू-मुस्लिम एकता को धक्का पहुंचाने के लिए लिखा गया था।
‘उचित वक्ता’ में छपी आलोचना का जवाब देते हुए ‘सत्य वक्ता’ ने भारत जीवन में लिखी अपनी टिप्पणी में लिखा कि सोहन प्रसाद द्वारा खलीफाओं पर की गई टिप्पणियों को इतनी गम्भीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। यदि छोटी-छोटी साधारण बातों पर आप ध्यान देंगे तब तो आपके समाचार पत्र के फाइल के फाइल लाइबल (अविश्वसनीय) हो सकते हैं?……
इसलिए इस साधारण सी बात से आप सोहन प्रसाद मुदर्रिस को दोषी नहीं ठहरा सकते। रह गयी बात ताजिए वगैरह की, सो सोहन प्रसाद की आज्ञा नहीं है, किन्तु उर्दू बीबी ने अपने गुन घमंड से जब यह कहा कि देख, तेरे हिन्दू भी हमारे ताजिए कुरान वगैरह को मानते हैं और सर्बत रेवड़ी चढ़ाकर प्रसाद लेते हैं, तब हिन्दी देवी ने भला ही जवाब दिया कि जो हिन्दू अपने मत के अधूरे होते हैं, वे ही ताजिए में ‘हा हुसैन’ करके छाती कूटते हैं!’
सत्यवक्ता ने स्वयं को और सोहन प्रसाद को हिन्दुओं को सही राह पर चलाने वाले धार्मिक नेता की भूमिका में रखते हुए उचित वक्ता के सम्पादक को कायर बताया- ‘क्या हिन्दू लोगों को कुराह जाते देख यदि हम उन्हें रोकें तो यही हमारा बड़ा अपराध है …. फिर आप अपने अनूठे विचार से भले ही दुम दबाकर भाग जाइए, पर व्यर्थ दूसरों के साहस को क्यों तोड़ते हैं?’
सत्यवक्ता ने उचित वक्ता के सम्पादक को यह उपालम्भ भी दिया कि- ‘आप सोहन प्रसाद को निजी पत्र लिखकर अपनी राय बता सकते थे। आपने एक साहित्यिक पत्र में ऐसा जघन्य लेख लिखकर दूसरों का जी क्यों दुखाया? दबी जुबान से एक पल के लिए यह भी मान लिया कि इसमें सन्देह नहीं कि कहीं-कहीं इस पुस्तक में कड़े-कड़े शब्द हैं परंतु दूसरे ही पल इन्हें कानूनन आपत्तिजनक मानने से इनकार भी किया, जिन बातों से लाइबल होने की आशा है, वैसे ढूँढे न पाइएगा।’
सत्यवक्ता ने उचित वक्ता के सम्पादक को सोहन प्रसाद मुदर्रिस की पुस्तक की आलोचना करने के अपराध के लिए हिन्दुओं से क्षमा माँगने के लिए कहा- ‘आपको उचित है कि इस लेख लिखने के अपराध की क्षमा आर्य मात्र से माँगें और अपनी भूल स्वीकार करें।’
सत्यवक्ता का यह पत्र उन्नीसवीं सदी के भारत में उभरते हुए हिन्दू-असंतोष का परिचायक है। उस काल का हिन्दू अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों को दिए जा रहे बढ़ावे के कारण असंतुष्ट था। इस कारण देश में चारों ओर फिर से अंग्रेजों एवं उनके साथ-साथ मुसलमानों के विरुद्ध 1857 जैसा ही घनघोर वातावरण बनने लगा था। इसी असंतोष की हवा निकालने के लिए ई.1885 में अंग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम ने इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य अंग्रेज सरकार के तथा मुसलमानों के विरुद्ध बढ़ते हुए असंतोष को संतुलित करना था।
सत्यवक्ता की टिप्पणी उस काल के उत्तर भारत के हिन्दुओं में पनप रहे मानसिक उद्वेलन को भलीभांति व्यक्त करती है जो हिन्दी भाषा की आड़ लेकर हिन्दुत्व का उभार चाहते थे और हिन्दुओं को मुसलमानों के मजहब से दूर रखना चाहते थे। उस काल के हिन्दुओं की भाषा मुसलमानों एवं न्यायालयों में बैठे भारतीय जजों के विरुद्ध तो काफी कड़ी थी किंतु अंग्रेजों एवं अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध वे प्रायः चाशनी भरे शब्दों का प्रयोग कर रहे थे।
वे जानते थे कि विदेशी शासन का विरोध करने के बाद वे जेल जाने से नहीं बच सकते थे। कांग्रेस की स्थापना के समय के हिन्दू, मुसलमानों से तो सड़कों पर निबटना चाहते थे किंतु विदेशी सत्ता से उलझने की बजाय अनुनय-विनय का मार्ग अपनाए हुए थे।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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