ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में इंग्लैण्ड से बहुत से परिवार आकर भारत में बस गए थे। ये अंग्रेज कम्पनी में बड़े-बड़े पदों पर काम करते थे। सर चार्ल्स मेटकाफ का परिवार भी उनमें से एक था। मेटकाफ परिवार ने लाल किले को दयनीय बना दिया था!
अंग्रेजों ने ई.1803 में दिल्ली पर अधिकार किया था। तब से ही वे लाल किले की जड़ें खोदकर लाल किले को कमजोर करते आ रहे थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत में भेजे जाने वाले अंग्रेज लड़के 18-20 साल से लेकर 20-25 साल की आयु के होते थे जो रातों-रात अमीर बन जाने के लालच में अपना देश छोड़कर सात समंदर पार करके भारत आया करते थे।
ये अंग्रेज लड़के कम्पनी सरकार में बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त किये जाते थे। इन्हें जीवन का कोई अनुभव नहीं होता था। इनमें से अधिकांश लड़के निहायत ही बदतमीज, बददिमाग और लालची होते थे। वे भारत की अपार सम्पदा, बड़े-बड़े महलों तथा हीरे-मोतियों के ही भूखे नहीं होते थे, अपितु भारतीय औरतों पर भी कुदृष्टि रखा करते थे।
भारत में नियुक्त होकर आए इन्हीं लड़कों में से एक था सर चार्ल्स मेटकाफ जो 19 वर्ष की आयु में ई.1804 में जनरल लेक का पॉलिटिकल असिस्टेंट नियुक्त हुआ था। यह वही जनरल लेक था जिसने ई.1803 में दिल्ली पर आक्रमण करके मराठों को परास्त किया था।
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ईस्वी 1811 से 1819 तथा 1826 से 1832 तक दिल्ली का रेजीडेंट रहा सर चार्ल्स मेटकाफ अत्यंत चालाक व्यक्ति था। उसने शालीमार बाग में अपने लिए एक शानदार बंगला बनवा रखा था और एक खूबसूरत सिक्ख लड़की से विवाह करके उस बंगले में रहा करता था। वह बादशाह के साथ तमीज से पेश आता था किंतु उसकी कोई बात नहीं मानता था तथा बादशाह की गतिविधियों पर कड़ा नियंत्रण रखता था। कुछ दिन बाद उसने अपनी हिन्दुस्तानी पत्नी को छोड़ दिया तथा अंग्रेजी मेम के साथ रहने लगा।
चार्ल्स मेटकाफ शुरु में तो लाल किले में बैठे मुगल बादशाह अकबर शाह को सम्मान देता था किंतु बाद में उसे नापसंद करने लगा था। एक स्थान पर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा है – ‘मैंने तैमूर घराने से अपनी पहले की वफादारी छोड़ दी है।’
ई.1813 में चार्ल्स मेटकाफ ने अपने छोटे भाई सर थॉमस मेटकाफ को भी इंग्लैण्ड से भारत बुला लिया तथा अपने कार्यालय में उच्च पद पर नियुक्त कर दिया।
जब ई.1832 में चार्ल्स मेटकाफ दिल्ली छोड़कर कलकत्ता चला गया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कलकत्ता कौंसिल का सदस्य बन गया तो उसके स्थान पर हार्वे दिल्ली का रेजीडेंट बना। उस समय बादशाह द्वारा दिल्ली के रेजीडेंट को जो पत्र लिखा जाता था, उसमें रेजीडेंट को ‘फरजंदे अंजुमंद’ कहा जाता था जिसका अर्थ होता है- ‘प्रिय पुत्र!’ नए रेजीडेंट को यह सम्बोधन पसंद नहीं था। वह तो स्वयं को बादशाह का मालिक समझता था। इसलिए हार्वे ने बादशाह को बात-बात पर अपमानित करना आरम्भ किया ताकि बादशाह स्वयं ही नाराज होकर रेजीडेंट को ‘फरजंदे अंजुमंद’ लिखना बंद कर दे।
अंग्रेज रेजीडेंट अब तक बादशाह को अपने पत्रों के आरम्भ में ‘योअर मेजस्टी’ कहकर सम्बोधित करते थे तथा पत्र के अंत में ‘योअर मेजस्टी’ज फेथफुल सर्वेंट’ लिखा करते थे किंतु अब वे अपने पत्रों के आरम्भ में बादशाह के लिए ‘डीयर’ शब्द का प्रयोग करने लगे। इस प्रकार रेजीडेंट हार्वे ने बादशाह को अच्छी तरह याद करवा दिया कि अब अकबरशाह हिंदुस्तान का बादशाह नहीं है, उसे तो बादशाह के नाम से केवल याद किया जाता है।
हालांकि गवर्नर जनरल द्वारा बादशाह को लिखे जाने वाले पत्रों में अब भी जो मुहर लगती थी, उसमें गवर्नर जनरल स्वयं को ‘फिदवी ए खास’ अर्थात् ‘मुख्य सेवक’ लिखता था।
रेजीडेंट हार्वे के बाद पूर्ववर्ती रेजीडेंट सर चार्ल्स मेटकाफ का भाई सर थॉमस मेटकाफ ईस्वी 1835 में दिल्ली का रेजीडेंट नियुक्त हुआ। वह 18 साल तक अर्थात् ई.1853 तक इस पद पर रहा। इस बीच ईस्वी 1837 में अकबरशाह की मृत्यु हो गई तो उसने अकबरशाह के पुत्र बहादुरशाह जफर की सहायता की ताकि बहादुरशाह बादशाह बन सके जबकि अकबरशाह अपने बड़े पुत्र जहांगीर को बादशाह बनाना चाहता था।
ईस्वी 1852 में मिजेली जॉन जेनिंग्स नामक एक ईसाई पादरी दिल्ली में नियुक्त होकर आया। उसने लाल किले में ही रहने का निश्चय किया ताकि वह लाल किले में रहने वाले शाही परिवार के साथ घुल-मिलकर उसे ईसाई बन सके। मिजेली जॉन जेनिंग्स ईसाई धर्म के प्रचार के लिए इतना उतावला था कि वह तुरंत ही समस्त भारतीयों को ईसाई बना देना चाहता था। यहाँ तक कि स्वयं अंग्रेज भी उसे पसंद नहीं करते थे और उसे धर्मांध कहते थे। जब उसने दिल्ली के दो विख्यात हिन्दुओं- चमनलाल और मास्टर ताराचंद को ईसाई बना लिया तो मिजेली जॉन जेनिंग्स पूरी दिल्ली में बदनाम हो गया।
ईस्वी 1853 में बहादुरशाह जफर की सबसे छोटी बेगम जीनत महल ने सर थॉमस मेटकाफ से सम्पर्क किया तथा उससे कहा कि वह जीनत के पुत्र जवांबख्श को बादशाह का उत्तराधिकारी घोषित कर दे। शहजादा जवांबख्श बहादुरशाह के 16 बेटों में से 15वां था। इसलिए सर थॉमस मेटकाफ ने जीनत का प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा यहाँ तक कह दिया कि बहादुरशाह जफर अंतिम बादशाह है, उसके बाद कोई बादशाह नहीं होगा।
सर थॉमस मेटकाफ ने बादशाह की इच्छा के विरुद्ध, बहादुरशाह के सबसे बड़े जीवित पुत्र मिर्जा फखरू को बादशाह का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों द्वारा मिर्जा फखरू से संधि की गई कि वह अपने पिता की मृत्यु के बाद दिल्ली का लाल किला खाली कर देगा, स्वयं को बादशाह नहीं कहेगा तथा एक लाख रुपये के स्थान पर 15 हजार रुपये मासिक पेंशन स्वीकार करेगा।
इस पर बेगम जीनत महल ने ई.1853 में रेजीडेंट थॉमस मेटकाफ को जहर दे दिया जिससे थॉमस मेटकाफ की मृत्यु हो गई। डॉक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि सर थॉमस मेटकाफ की मृत्यु मैदे की खराबी से हुई थी किंतु उनका यह भी विचार था कि यह खराबी जहर के कारण हुई थी। इस घटना के बाद लाल किले तथा अंग्रेजों के बीच इतने दिन से सदाशयता का जो प्रदर्शन चल रहा था, वह भी जाता रहा।
इस घटना के तीन साल बाद ई.1856 में शहजादा मिर्जा फखरू भी हैजे से मर गया। उसके बारे में लाल किले में यह अफवाह उड़ी कि शहजादे को जहर दिया गया था।
जिस समय ई.1857 की बगावत हुई तब थॉमस मेटकाफ का बेटा सर थियोफिलस मेटकाफ दिल्ली में कम्पनी सरकार की अदालत में लोअर मजिस्ट्रेट था। उस समय वह अकेला अंग्रेज अधिकारी था जो क्रांतिकारी सैनिकों से बचकर दिल्ली छोड़कर भाग जाने में सफल हुआ था। पहाड़गंज पुलिस स्टेशन के थानेदार मुइनुद्दीन खाँ ने थियोफिलस मेटकाफ को दिल्ली से जीवित ही निकल भागने में सहायता की थी। यह थानेदार उर्दू के विख्यात शाइर मिर्जा गालिब का चचेरा भाई था।
कुछ माह बाद जब अंग्रेजों ने दुबारा दिल्ली पर हमला किया तब सर थियोफिलस मेटकाफ कम्पनी सरकार की दिल्ली फील्ड फोर्स में भरती हो गया तथा उसने लाल किले में बहुत रक्त-पात मचाया।
सर थॉमस मेटकाफ का एक जंवाई भी उन दिनों दिल्ली में तैनात था जिसका नाम सर एडवर्ड कैंपबैल था। वह दिल्ली में नियुक्त ब्रिटिश सेना का कमांडर इन चीफ था। जब उसकी रेजीमेंट ने विद्रोह किया तब वह भी दिल्ली से भाग खड़ा हुआ और बाद में दिल्ली फील्ड फोर्स में भरती होकर दिल्ली लौटा। उसने अंग्रेजों की सेना को दिल्ली में थामे रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता