Wednesday, October 9, 2024
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अध्याय – 9 : क्या ताजमहल, तेजोमय महालय था ?

प्रसिद्ध इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपने शोध पत्रों के माध्यम से ताजमहल को हिंदू संरचना सिद्ध किया था। उनके अनुसार ताजमहल मकबरा नहीं अपितु तेजोमहालय नामक हिंदू महल था।

‘शाहजहाँनामा’ के अनुसार (यह मंदिर भवन) महानगर के दक्षिण में भव्य, सुंदर हरित उद्यान से घिरा हुआ है जिसका केन्द्रीय भवन जो राजा मानसिंह के प्रासाद (इसका अभिप्राय है कि शाहजहाँ से भी पूर्व से यह राजभवन था, जिसका वह भाग जहां मुमताज की कब्र है, केन्द्रीय भाग कहलाता था) के नाम से जाना जाता था, अब राजा जयसिंह जो राजा मानसिंह का पौत्र था, के अधिकार में था। इसे बेगम को दफनाने के लिए जो स्वर्ग जा चुकी थी, चुना गया।

यद्यपि राजा जयसिंह उसे अपने पूर्वजों का उत्तराधिकार और संपदा के रूप में मूल्यवान समझता था, तो भी वह बादशाह शाहजहाँ के लिए निःशुल्क देने के लिए तत्पर था। उस भव्य प्रासाद (भव्य प्रासाद कहने का अभिप्राय है कि जब शाहजहाँ ने इसे लिया तो वह खाली भूमि नही थी अपितु वहाँ एक भव्य प्रासाद बना हुआ था जिसे आलीशां मंजिल कहा गया।) के बदले में जयसिंह को एक साधारण टुकड़ा दिया गया।

 राजधानी के अधिकारियों के द्वारा शाही फरमान के अनुसार- ‘गगनचुम्बी गुम्बद के नीचे उस पुण्यात्मा रानी का शरीर संसार की आंखों से ओझल हो गया और यह ‘इमारते-आलीशां’ अपनी बनावट में इतना ऊंचा है।’

महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के अनुसार-‘आगरा के दक्षिण में राजा जयसिंह की कुछ भू संपत्ति थी। बादशाह ने इसे उससे खरीदा।’ गुलाबराव जगदीश ने 27 मई 1973 के मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ (मुंबई) में छपे एक लेख में बताया है कि ताजमहल का निर्माण केवल एक हिन्दू ही कर सकता है। वह कहते हैं कि ई.1939 में ब्रिटिश इंजीनियरों ने ताजमहल में एक दरार देखी जिसे भरने का भरसक प्रयास किया गया परंतु वह भरी नही जा सकी। समय के साथ वह दरार और चैड़ी हो गई। इसे भरने के लिए इंजीनियरों की एक समिति बनायी गयी, परंतु सफल नही सकी।

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तब पूरनचंद नामक एक देहाती, उन इंजीनियरों के पास आया और बोला कि वह इस दरार को भर सकता है। ब्रिटिश इंजीनियर ने उसे इस दरार को भरने की अनुमति दे दी। उस देहाती भारतीय ने एक विशेष प्रकार का गारा-चूना बनाया और उस दरार में भर दिया। दरार सफलतापूर्वक भर गई। ई.1942 में डा. भीमराव अंबेडकर के प्रयासों से लार्ड लिनलिथगो ने पूरनचंद को ‘राय साहब’ की उपाधि से सम्मानित किया था। इस घटना का अर्थ है कि आजादी मिलने के समय तक भी ताजमहल जैसे भवन की चिनाई की तकनीक जानने वाले हिन्दू कारीगर जीवित थे।

शाहजहाँ के प्रपितामह बाबर के समय में भी तेजोमहालय मंदिर मौजूद था। बाबर मुमताज बेगम की मृत्यु से लगभग 104 वर्ष पूर्व भारत आया था। टैवर्नियर नामक विदेशी यात्री का साक्ष्य भी यही तथ्य प्रकट करता है कि मुमताज को दफनाने के लिए एक भव्य प्रासाद अधिग्रहीत किया गया था और वह भव्य प्रासाद मुमताज को दफनाने से पूर्व भी विश्व भर के पर्यटकों को आकर्षित करता था।

‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के अनुसार ताजमहल भवन समूह में अतिथि कक्ष, आरक्षी निवास और अश्वशाला थे। ये निर्माण किसी प्रासाद का हिस्सा ही हो सकते हैं। किसी कब्र से इनका क्या संबंध हो सकता है? ‘शाहजहाँ नामा’ के लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि अर्जुमन्द बानो बेगम उर्फ मुमताज को राजा मानसिंह के प्रासाद में दफन किया गया था। मियां नुराल हसन सिद्दीकी की पुस्तक ‘दि सिटी ऑफ ताज’ में भी इसी मत की पुष्टि की गयी है।

लखनऊ के संग्रहालय के ‘बटेश्वर शिलालेख’ में स्पष्ट उल्लेख है कि ताजमहल संभवतः ई.1155 में निर्मित शिव मंदिर है। इस शिलालेख में कहा गया है-

प्रासादो वैष्णवस्तेन निर्मितोअन्तर्वहन्हरिः।

मूघ्र्नि स्पृशति यो नित्यं पदमस्मैव मध्यमं।। 25।।

अकार यच्च स्फटिकावदातमसाविदं मंदिरमिन्दुमौलेः।

न जातु यस्मिन्निवसन्सदेवः कैलाशवासाय चकार चेतः ।। 26 ।।

पक्ष त्र्यक्ष मुखादित्य संख्ये विक्रम वत्सरे।

आश्विन शुक्ल पंचम्यां वासरे वासर्वेशितः ।। 34 ।।

अर्थात्- उस राजा परमार्दिदेव (मानसिंह का पूर्वज) ने एक प्रासाद बनवाया जिसके भीतर विष्णु की प्रतिमा थी जिसके चरणों में वह अपना मस्तक नवाता था। उसी प्रकार उसने मस्तक पर जिनके चंद्र सुशोभित हैं, ऐसे भगवान शिव का स्फटिक का ऐसा सुंदर मंदिर बनवाया जिसमें प्रतिष्ठित होने पर भगवान शिव का कैलाश पर जाने को भी मन नही करता था। यह शिलालेख रविवार आश्विन शुक्ला पंचमी 1212 विक्रमी सम्वत को लिखा गया।

यह उद्धरण डी. जी. काले की पुस्तक खर्जुरवाहक अर्थात वर्तमान खजुराहो तथा ऐपिग्राफिक इंडिया के भाग-1 पृष्ठ 270-274 पर भी दिया गया है। श्री काले अपनी पुस्तक के पृष्ठ संख्या 124 पर लिखते हैं-

‘उद्धृत शिलालेख आगरा के बटेश्वर गांव से प्राप्त हुआ और वर्तमान में वह लखनऊ संग्रहालय में है। यह राजा परमार्दिदेव का विक्रम संवत 1212 का शिलालेख है। यह शिलालेख मिट्टी के स्तूप में दबा हुआ पाया गया। बाद में इसे जनरल कनिंघम ने लखनऊ संग्रहालय में जमा करा दिया, जहाँ यह आज भी रखा है। दो भव्य स्फटिक मंदिर जिन्हें परमार्दिदेव ने बनवाया, एक भवन विष्णु का तथा दूसरा शिव का, बाद में मुस्लिम आक्रमण के समय भ्रष्ट कर दिये गये। किसी दूरदर्शी एवं चतुर व्यक्ति ने इन मंदिरों से संबंधित इस शिलालेख को मिट्टी के ढेर में दबा दिया। यह वर्षों तक दबा रहा तथा ई.1900 में उत्खनन के समय जनरल कनिंघम को प्राप्त हुआ।’

कनिंघम ने राजा परमार्दिदेव को ई.1165 या 1167 का माना है। इस मंदिर की ताजमहल के साथ संगति करते हुए पी. एन. ओक का कहना है कि हमारी दृष्टि में बटेश्वर के शिलालेख में जिन दो भवनों का उल्लेख है वे अपनी स्फटिकीय भव्यता सहित अभी भी आगरा में विद्यमान हैं। इनमें से एक एतमादुददौला का मकबरा है तथा दूसरा ताजमहल है। जिस भवन का उल्लेख राजा के प्रासाद के रूप में है, वह वर्तमान एतमादुददौला का मकबरा है। चंद्रमौलीश्वर मंदिर ताजमहल है।

चंद्रमौलीश्वर मंदिर जिन कारणों से ताजमहल हो सकता है, उन पर विचार करना भी आवश्यक है। इनमें पहला कारण स्फटिक श्वेत संगमरमर का है। उसके शिखर कलश पर त्रिशूल है, जो केवल चंद्रमौलीश्वर का ही चिन्ह है। ताजमहल का केन्द्रीय कक्ष जिसमें बादशाह और उसकी बेगम की कब्रें बतायी जाती हैं, उसके चारों ओर दस चतुर्भुजी कक्ष है, जो भक्तों के परिक्रमा मार्ग का काम करते थे।

कनिंघम आदि इतिहासकारों का मानना है कि शाहजहाँ से पूर्व हुमायूँ के काल में भी स्मारक में चार कोनों में चार मीनार देखी गयी थीं। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि महल शब्द किसी कब्र के साथ नही लगता है। यह शब्द भी भवन का पर्यायवाची है। कब्र का नाम ‘महल’ नही हो सकता।

इसके अतिरिक्त इस (ताजमहल) के निर्माण की कोई स्पष्ट तिथि किसी भी ग्रंथ से पता नही चलती। साथ ही इस पर उस समय कितनी धनराशि व्यय हुई, यह भी पता नहीं है। परस्पर विरोधाभासी बातें इस विषय में बतायी गयी हैं। यदि यह शाहजहाँ द्वारा निर्मित होता तो उसके ‘शाहजहाँनामा’ में इन दोनों तथ्यों की पुष्टि अवश्य होती।

अमरीका के न्यूयार्क स्थित प्रैट इंस्टीट्यूट के प्रसिद्ध पुरात्वविद तथा प्रोफेसर मार्विन एच मिल्स ने भी ताजमहल को हिंदू भवन माना है तथा एक शोधपत्र प्रस्तुत किया है। यह शोधपत्र न्यूयार्क टाइम्स ने विस्तार से प्रकाशित किया। मिल्स ने अपने शोध पत्र में निष्कर्ष दिया है कि अपने मौलिक स्वरूप में ताजमहल एक हिंदू स्मारक था, जिसे बाद में मुगलों ने मकबरे में बदल दिया।

उनके अनुसार ताजमहल के बाईं ओर स्थित भवन को इस समय मस्जिद कहा जाता है जिसका मुख पश्चिम की ओर है। यदि उसे मूलतः मसजिद ही बनाया गया होता तो उसका मुख पश्चिम की बजाय मक्का की ओर होता। इसकी मीनारों को भी उन्होंने मुस्लिम सिद्धांतों के विरुद्ध माना है।

इसी प्रकार उन्होंने सवाल खड़ा किया है कि ताजमहल के निर्माण की वास्तविक तिथि को जानने के लिए भारत सरकार ने कार्बन-14 और थर्मोल्यूमिनेन्सेंस पद्धति से जांच करवाने पर रोक क्यों लगा रखी है ? मिल्स ने यह भी सवाल खड़ा किया है कि ताजमहल के उत्तर में टेरेस के नीचे 20 कमरे यमुना की तरफ करके क्यों बनाए गए?

किसी कब्र को 20 कमरे की क्या आवश्यकता है? इतने कक्ष किसी राजमहल का ही हिस्सा हो सकते हैं। ताजमहल के दक्षिण दिशा में बने 20 कमरों को सील कर क्यों रखा गया है? शोधकर्ताओं एवं पर्यटकों को वहाँ प्रवेश क्यों नहीं दिया जाता? 

मिल्स के अनुसार वैन एडिसन की पुस्तक ‘ताज महल’ तथा जियाउद्दीन अहमद देसाई की पुस्तक ‘द इल्यूमाइंड टॉम्ब’ में प्रशंसनीय आंकड़े और सूचनाएं हैं जो इन लोगों ने ताजमहल के उद्भव और विकास के समकालीन स्रोतों से एकत्रित किए थे। इनमें कई फोटो चित्र, इतिहासकारों के विवरण, शाही निर्देशों के साथ-साथ अक्षरों, योजनाओं, उन्नयन और आरेखों का संग्रह शामिल है।

दोनों इतिहासकारों ने प्यार की परिणति के रूप में ताजमहल के उद्भव की बात को अस्वीकार किया है। दोनों इतिहासकारों ने ताजमहल के उद्भव को मुगलकाल का मानने से भी इनकार कर दिया है। पुरातत्वविदों द्वारा प्रस्तुत तर्कों को देखते हुए कुछ साल पहले कुछ मुसलमानों ने ताजमहल के बाईं ओर स्थित मस्जिद में नमाज पढ़ने की अनुमति मांगी थी किंतु सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी।

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