तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध ई.1816 से 1818 के बीच चला। इस समय लॉर्ड वेलेजली ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर जनरल था। इस युद्ध में मराठों की तरफ से पेशवा, होलकर, सिन्धिया और भौंसले ने युद्ध किया।तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद ये तीनों ही अपने-अपने राज्यों के अधिकांश भू.भाग खो बैठे।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध
लॉर्ड हेस्टिंग्ज
1813 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल बनकर आया। वह 1823 ई. तक भारत में रहा। यद्यपि पेशवा 1802 ई. में ही बसीन की सन्धि द्वारा अँग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुका था किन्तु अब वह इस अधीनता से मुक्त होना चाहता था। इसलिये उसने 1815 ई. में सिन्धिया, होलकर एवं भौंसले से गुप्त रूप से बातचीत आरम्भ की।
पेशवा ने अपनी सैन्य शक्ति को दृढ़ करने का प्रयास किया। इस समय पेशवा तथा गायकवाड़ के बीच खण्डनी (खिराज) के सम्बन्ध में झगड़ा चल रहा था। इस सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गायकवाड़ का एक मंत्री गंगाधर शास्त्री, अँग्रेजों के संरक्षण में पूना आया।
पेशवा अँग्रेजों के विरुद्ध गायकवाड़ का सहायोग चाहता था, किन्तु गंगाधर शास्त्री अँग्रेजों का घनिष्ठ मित्र था, अतः उसने पेशवा से सहयोग करने से इन्कार कर दिया। ऐसी स्थिति में पेशवा के एक विश्वसनीय मंत्री त्रियम्बकजी ने धोखे से गंगाधर शास्त्री की हत्या करवा दी।
पूना दरबार में ब्रिटिश रेजीडेन्ट एलफिन्सटन की त्रियम्बकजी से व्यक्तिगत शत्रुता थी, अतः रेजीडेण्ट ने पेशवा से माँग की कि त्रियम्बकजी को बन्दी बनाकर उसे अँग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाये। पेशवा ने बड़ी हिचकिचाहट के साथ 11 सितम्बर 1815 को त्रियम्बकजी को अँग्रेजों के हवाले कर दिया। त्रियम्बकजी को बन्दी बनाकर थाना भेज दिया गया किंतु एक वर्ष बाद त्रियम्बकजी थाना से निकल भागने में सफल हो गया। एलफिन्सटन ने पेशवा पर आरोप लगाया कि उसने त्रियम्बकजी को भगाने में सहायता दी है।
पूना की संधि (1817 ई.)
एलफिन्सटन ने पेशवा की शक्ति को सीमित करने के उद्देश्य से पेशवा पर एक नई सन्धि करने हेतु दबाव डाला और उसे धमकी दी कि यदि वह नई सन्धि करने पर सहमत नहीं होगा तो उसे पेशवा के मनसब से हटा दिया जायेगा। पेशवा ने भयभीत होकर 13 जून 1817 को अँग्रेजों से नई सन्धि की जिसे पूना की सन्धि कहते हैं।
इस सन्धि के अन्तर्गत पेशवा ने मराठा संघ के अध्यक्ष पद को त्याग दिया, सहायक सेना के खर्च के लिए 33 लाख रुपये वार्षिक आय के भू-भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दिये। साथ ही नर्बदा नदी के उत्तर में स्थित अपने राज्य के समस्त भू-भाग एवं अहमदनगर का दुर्ग अँग्रेजों को समर्पित कर दिये।
पेशवा ने त्रियम्बकजी को बन्दी बनाकर अँग्रेजों को सौंपने का वचन दिया और जब तक त्रियम्बकजी को अँग्रेजोें के सुपुर्द न कर दिया जाय, उस समय तक त्रियम्बकजी के परिवार को अँग्रेजों के पास बन्धक के रूप में रखना स्वीकार किया। पेशवा ने अँग्रेजों की अनुमति के बिना, किसी अन्य देशी राज्य से पत्र-व्यवहार न करने का वचन दिया।
पेशवा की किर्की पराजय (1817 ई.)
इस समय तक समस्त मराठा सरदार अँग्रेजों से अपमानजनक सन्धियाँ कर चुके थे और अब उनसे मुक्त होना चाहते थे। पेशवा भी पूना की सन्धि के अपमान की आग में जल रहा था। अतः जब 5 नवम्बर 1817 को सिन्धिया ने अँग्रेजों से सन्धि की, उसी दिन पेशवा ने पूना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया।
एलफिन्सटन किसी प्रकार जान बचाकर भागा तथा पूना से चार मील दूर किर्की नामक स्थान पर ब्रिटिश सैनिक छावनी में शरण ली। पेशवा की सेना ने किर्की पर आक्रमण किया किन्तु पेशवा परास्त हो गया तथा सतारा की ओर भाग गया। इस प्रकार नवम्बर 1817 में पूना पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया।
अप्पा साहब भौंसले की पराजय (1817 ई.)
पेशवा द्वारा युद्ध आरम्भ कर दिये जाने पर कुछ मराठा सरदारों ने भी कम्पनी से युद्ध करने का निश्चय किया। नवम्बर 1817 में अप्पा साहब भौंसले ने नागपुर के पास सीताबल्दी नामक स्थान पर कम्पनी की सेना पर आक्रमण किया किंतु परास्त हो गया।
दिसम्बर 1817 में उसने नागपुर में कम्पनी की सेना पर आक्रमण किया किंतु वह पुनः परास्त हुआ और पंजाब होता हुआ, शरण प्राप्त करने के लिए जोधपुर चला गया। जोधपुर के राजा मानसिंह ने, जो स्वयं अँग्रेजों का विरोधी था, अप्पा साहब को शरण दे दी। अप्पा साहब 1840 ई. तक जोधपुर में रहा तथा वहीं उसकी मृत्यु हुई।
होलकर की पराजय (1817 ई.)
ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा होलकर की सेना के बीच 21 दिसम्बर 1817 को महीदपुर के मैदान में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में होलकर की सेना परास्त हुई। जनवरी 1818 में दोनों पक्षों के बीच मन्दसौर की सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुसार होलकर ने सहायक सन्धि स्वीकार कर ली, राजपूत राज्यों से अपने अधिकार त्याग दिये तथा बून्दी की पहाड़ियों व उसके उत्तर के समस्त प्रदेश कम्पनी को हस्तान्तरित कर दिये। इस प्रकार होलकर भी कम्पनी की अधीनता में चला गया।
पेशवा के पद की समाप्ति (1818 ई.)
पेशवा बाजीराव (द्वितीय) अब भी सतारा में रह रहा था। जनवरी 1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पेशवा के विरुद्ध एक सेना भेजी। जनवरी 1818 में कोरगांव के युद्ध में तथा फरवरी 1818 में अष्टी के युद्ध में पेशवा बुरी तरह परास्त हुआ। मई 1818 में उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया।
अँग्रेजों ने पेशवा के पद को समाप्त करके पेशवा को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठुर भेज दिया। पेशवा का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। सतारा का छोटा-सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दे दिया गया। पेशवा के मंत्री त्रियम्बकजी को आजीवन कारावास की सजा देकर चुनार के किले में भेज दिया गया। इस प्रकार लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का महत्त्व
यह मराठों का अन्तिम राष्ट्रीय युद्ध था। इस युद्ध में मिली पराजय ने मराठा शक्ति का सूर्य सदा के लिए अस्त कर दिया। एक-एक करके समस्त मराठा सरदारों ने अँग्रेजों के समक्ष घुटने टेक दिये। मराठा संघ ध्वस्त हो गया। भारत में अँग्रेजों की प्रतिद्वन्द्विता करने वाला कोई नहीं रहा। पेशवा, होलकर, सिन्धिया और भौंसले अपने राज्यों के अधिकांश भू-भाग खो बैठे। राजपूत राज्य मराठों के प्रभुत्व से निकलकर अँग्रेजों के प्रभुत्व में चले गये।
रेम्जे म्यूर ने इस युद्ध के औचित्य को सिद्ध करते हुए लिखा है- ‘कम्पनी की ओर से यह कोई आक्रामक युद्ध नहीं था तथा जिन क्षेत्रों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये जाने के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ था, वह भविष्य में शान्ति बनाये रखने के लिए आवश्यक था।’
वेलेजली ने मराठा शक्ति पर प्रहार कर उसे क्षीण कर दिया था, लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को धराशायी कर दिया। इसलिए कहा जाता है कि लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने वेलेजली के कार्य को पूरा किया। इस युद्ध के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत की सर्वशक्ति सम्पन्न सत्ता बन गई।
मूल आलेख – अंग्रेज जाति का भारतीय शक्तियों से संघर्ष
बंगाल में ब्रिटिश प्रभुसत्ता का विस्तार
बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782 ई.)
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध



