प्रारंभिक गुप्त शासक अब भी इतिहास के कुहासे में हैं, उनके बारे में स्पष्ट एवं विस्तृत जानकारी अब तक नहीं जुटाई जा सकी है। फिर भी अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर श्रीगुप्त, घटोत्कच एवं चंद्रगुप्त (प्रथम) को प्रारम्भिक गुप्त शासक माना जाता है।
प्रारंभिक गुप्त शासक
श्रीगुप्त
श्रीगुप्त का काल 275 ई. से 300 ई. माना जाता है। उसी को गुप्त वंश का संस्थापक भी माना जाता है। अभिलेखों में उसे महाराज कहकर सम्बोधित किया गया है। उस काल में महाराज उपाधि का प्रयोग छोटे क्षेत्र के स्वतंत्र शासक के लिये किया जाता था। इसलिये संभव है कि श्रीगुप्त एक सीमित क्षेत्र का स्वतंत्र राजा था।
यह क्षेत्र प्रयाग-साकेत होना संभावित है जिसकी राजधानी अयोध्या रही होगी। चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है कि श्रीगुप्त ने नालंदा से 40 योजन (240 मील) दूर पूर्व की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने महाराज की पदवी धारण की। इत्सिंग लिखता है कि 500 वर्ष पूर्व, महाराज श्रीगुप्त ने चीनियों के ठहरने के लिये एक मंदिर बनवाया तथा 240 गांव दान में दिये।
घटोत्कच
श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी घटोत्कच था। उसने संभवतः 300 ई. से 319 ई. अथवा 320 ई. तक शासन किया। उसके शासन काल की किसी भी घटना की जानकारी नहीं मिलती। उसने भी महाराज की उपाधि धारण की। अनेक अभिलेखों में इसे गुप्तवंश का संस्थापक कहा गया है।
सर्वमान्य मत तथा प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि घटोत्कच, गुप्तवंश का दूसरा राजा था। घटोत्कच के नाम की एक स्वर्ण मुद्रा उपलब्ध हुई है जिसे प्रो.एलन ने किसी बाद के राजा का सिक्का माना है। प्रोफेसर गोयल के अनुसार गुप्त-लिच्छवी सम्बन्घ इसी काल में आरम्भ हुए।
चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)
अनेक इतिहासकार चंद्रगुप्त (प्रथम) को गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक मानते हैं। सिंहासन पर बैठते ही उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। जिन दिनों चन्द्रगुप्त का उत्कर्ष आरम्भ हुआ, उन दिनों मगध में कुषाणों का शासन था। मगध की जनता इस विदेशी शासन को विनष्ट कर देने के लिए आतुर थी।
चन्द्रगुप्त ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और मगध की जनता की सहायता से विदेशी शासन का अंत कर मगध का स्वतंत्र सम्राट बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने द्वितीय मगध-साम्राज्य की स्थापना की। यह घटना 320 ई. में घटी।
अभिलेखीय साक्ष्य
अब तक चंद्रगुप्त (प्रथम) के काल का कोई व्यक्तिगत लेख या प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हो सकी है। इस कारण उसके काल की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के बारे में अत्यंत अल्प जानकारी उपलब्ध होती है।
कुमार देवी से विवाह
अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्रतापी लिच्छवी-राज्य की राजकुमारी, कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिया। उसे गुप्त लेखों में महादेवी कहा गया है जो उसके पटरानी होने का प्रमाण है। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर ‘लिच्छवयः’ शब्द तथा कुमारदेवी की आकृति अंकित है। इस विवाह की पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशसित से भी होती है। लिच्छवी-राज्य से मैत्री हो जाने से गुप्त सम्राटों को अपने राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। कालान्तर में लिच्छवि राज्य भी मगध-राज्य में सम्मिलित हो गया जिससे मगध-राज्य की प्रतिष्ठा तथा शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई।
नये सम्वत् का प्रारंभ
चन्द्रगुप्त ने एक नया सम्वत् चलाया जिसका प्रारम्भ 26 जनवरी 319-20 ई. अर्थात् उसके राज्याभिषेक के दिन से हुआ था। इसे गुप्त संवत के नाम से जाना जाता है।
उत्तराधिकारी की घोषणा
चन्द्रगुत (प्रथम) ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। उसके इस चयन की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की प्रारंभिक स्थिति चाहे जैसी रही हो, वह गुप्त-सम्राटों में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुआ और उसने अपनी सफलताओं से अपने पिता के चयन के औचित्य को प्रमाणित कर दिया। युद्ध तथा आक्रमण के आदर्शों के कारण चन्द्रगुप्त, अशोक के बिल्कुल विपरीत था।’
राज्य विस्तार
पुराणों में आये विवरणों एवं प्रयाग प्रशस्ति से चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है। उसका राज्य पश्चिम में प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग तक विस्तृत था।
मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य
प्रारंभिक गुप्त शासक