वैदिक काल में नारी की स्थिति की अपेक्षा महाकाव्य काल में नारी की स्थिति में कुछ परिवर्तन आ गया था। अब उन्हें पुरुष के संरक्षण में रहने के लिए कहा जाने लगा।
ईस्वी पूर्व 800 से ईस्वी पूर्व 600 तक के कालखण्ड को महाकाव्य काल कहा जाता है। इस कालखण्ड में रामरायण तथा महाभारत नामक दो महाकाव्यों की रचना हुई जिनका भारतीय संस्कृति पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा।
महाकाव्य काल में स्त्रियाँ वैदिक काल में नारी की भांति अब भी आदर की पात्र थीं तथा उन पर अधिक प्रतिबन्ध नहीं थे। स्त्रियाँ सामाजिक उत्सवों और धार्मिक पर्वों में सम्मिलित हुआ करती थीं। रामायण में सीता का वनों में विचरण तथा महाभारत में द्रौपदी का पतियों के साथ वनों में भ्रमण उनकी सामाजिक स्थिति को व्यक्त करता है।
सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। उनके प्रति समाज में आदर की भावना थी। रामायण में भी सीता के लिए आदर और सम्मान की बातें कही गई हैं। अकेला पुरुष यज्ञ सम्पादित नहीं कर सकता था। नारी का यह स्थान रामायण के रचनाकाल तक बना रहा जिसमें सीता के न होने पर राम को अश्वमेध यज्ञ में अपनी पत्नी सीता की स्वर्ण-प्रतिमा रखनी पड़ी थी।
महाभारत में भीष्म पितामह का कथन है कि स्त्री को सर्वदा पूज्य मानकर उससे स्नेह का व्यवहार करना चाहिए। जहाँ स्त्रियों का आदर होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है। नारी की अनुपस्थिति में समस्त कार्य अपवित्र हो जाते हैं। एक अन्य स्थान पर भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि स्त्रियाँ स्वभावतः अपनी लिप्सा को दबा नहीं पातीं, इसलिए उन्हें किसी पुरुष के संरक्षण में रहना चाहिए।
महाकाव्य काल में नारी के अधिकार एवं प्रतिबंध
विवाह संस्कार
महाकाव्यों के काल में स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी जो उस युग में होने वाले युवा-विवाहों की द्योतक है। इस काल में मान्यता थी कि युवा होने पर कन्या का विवाह नहीं किया जाता है तो कन्या का पिता नर्कगामी होता है और वह कन्या स्वयं अपना वर चुन लेने के लिए स्वतन्त्र होती है। युवती कन्या को अपने घर में रखना निन्दनीय माना जाता था।
विवाह के प्रकार
वैदिक-काल से लेकर सूत्रकाल तक भारत में आठ प्रकार की विवाह प्रणालियाँ प्रचलन में आईं। धर्मशास्त्रकारों ने ब्रह्मविवाह, देवविवाह, आर्षविवाह, प्रजापत्य विवाह, गान्धर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह नामक आठ प्राकर के विवाह बताए हैं।
इनमें से प्रारम्भिक चार प्रकार के विवाह सम्मानित एवं स्वीकृत थे और अन्तिम चार निन्दनीय माने जाते थे। इन समस्त प्रकार के विवाहों का स्वरूप समय और परिस्थिातियों के अनुसार बदलता गया। यद्यपि अपने वर्ण में विवाह करना ही श्रेष्ठ माना जाता था तथापि वर्ण से बाहर भी विवाह प्रचलित थे।
बहु-विवाह की प्रथा
महाकाव्य काल में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। राजा दशरथ की तीन रानियां थीं जबकि द्रौपदी ने पांच पुरुषों से विवाह किया था। एक पुरुष के साथ अनेक स्त्रियों के विवाह सामान्य प्रचलन था किंतु एक स्त्री का कई पुरुषों के साथ विवाह अपवाद रूप में ही मिलता है।
पर्दा प्रथा
वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है कि जो सीता आकाशचारी भूतों के द्वारा भी नहीं देखी गई थीं, आज उसे राजपथ पर खड़े लोग वन जाते हुए देख रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि भले ही सीता पर्दा नहीं करती हों किंतु रामायण के रचनाकाल में स्त्रियां पर्दे में रहने लगी थीं। महाभारत में दुर्योधन की पत्नियों के लिए ‘असूर्यंपश्या’ शब्द आया है जिसका अर्थ है कि वे पर्दे में रहती थीं तथा उन्होंने कभी पर्दे से बाहर निकलकर सूर्य भी नहीं देखा था।
सती-प्रथा
रामायण में सती शब्द का प्रयोग हुआ है किंतु पति के निधन पर सती होना अनिवार्य नहीं था। राजा दशरथ की मृत्यु होने पर एक भी रानी सती नहीं हुई थी। बाली की मृत्यु पर तारा ने सुग्रीव से विवाह कर लिया था। रावण के मरने पर मंदोदरी ने विभीषण से विवाह किया था किंतु मेघनाद के मरने पर सुलोचना सती हुई थी। महाभारत में उल्लेख है कि महारानी माद्री महाराज पाण्डु के साथ सती हुई थी किंतु बड़ी रानी कुंती सती नहीं हुई थी।
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की चिता पर वसुदेव की चार रानियाँ- देवकी, भद्रा, रोहिणी एवं मंदिरा सती होने के लिए आरोहण करती हैं। इसी प्रकार कृष्ण के परलोकगमन का समाचार हस्तिनापुर पहुँचने पर उनकी आठ पटरानियों में से पांच- रुक्मणि, गांधारी, सह्या, हैमावती तथा जाम्बवती पति की देह के बिना ही चितारोहण करती हैं।
विधवा-विवाह पर प्रतिबन्ध
वैदिक-काल में विधवा-विवाह पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। धर्मशास्त्रों ने नियोग-प्रथा को भी मान्यता दी थी किंतु बौद्ध युग के बाद के व्यवस्थाकारों ने विधवा-विवाह एवं नियोग-प्रथा का निषेध कर दिया। विधवा-स्त्री के लिए कठोर संयम का जीवन आदर्श माना गया।
विवाह विच्छेद का निषेध
वैदिक युग में स्त्री अपने पति को छोड़ सकती थी। यह स्थिति धर्मसूत्र ग्रंथों के रचनाकाल तक बनी रही। धर्मसूत्रों ने जाति-भ्रष्ट और नपुंसक पति को त्याग देने के लिए कहा है। बौद्ध साहित्य में विवाह-विच्छेद के अनेक उदाहरण मिलते हैं किंतु नारद आदि हिन्दू शास्त्रकारों ने पति या पत्नी को विवाह-विच्छेद का अधिकार नहीं दिया है। कुछ विशेष परिस्थितियों में ही स्त्री अपने पति को त्याग सकती थी। यदि एक स्त्री के होते हुए पति किसी दूसरी स्त्री से विवाह कर लेता तो स्त्री अपने पति को छोड़ सकती थी।
ऐसी स्थिति में पति को पहली पत्नी के भरण-पोषण की समुचित व्यवस्था करनी पड़ती थी। मध्य-युग में भी स्त्रियों को अपना पति त्यागने के अधिकार थे किंतु एकाकी स्त्रियों के लिए जीवन निर्वाह करना अत्यन्त दुष्कर और कष्टसाध्य था। स्त्रियों को समानता का अधिकार नहीं था। जो स्त्रियाँ विवाह-विच्छेद का अनुसरण करती थीं, समाज उन्हें हेय समझता था। मनु ने व्यवस्था दी कि यदि स्त्री का पति दुश्चरित्र, परस्त्री-गामी एवं अवगुणी ही क्यों न हो, पत्नी को उसकी सेवा करनी चाहिए। पति-पत्नी का सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर के लिए माना गया।
सम्पत्ति का अधिकार
भारतीय संस्कृति में महिला के सम्पत्ति विषयक अधिकारों पर आरम्भ से ही चिंतन किया गया किंतु उसे सामान्यतः सम्पत्ति की अधिकारिणी नहीं माना गया। महाभारत में लिखा है कि पुत्री को पूरी नहीं तो आधी सम्पत्ति अवश्य मिलनी चाहिए।
भारतीय नारी की युग-युगीन स्थिति
महाकाव्य काल में नारी की स्थिति
पौराणिक काल में नारी की स्थिति
पूर्वमध्यकाल में नारी की स्थिति