Wednesday, October 29, 2025
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पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

1904 ई. में जोतीन्द्र मोहन चटर्जी और कुछ नौजवानों ने मिलकर एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का मुख्यालय रुड़की में स्थापित किया गया। यहीं पर लाला हरदयाल, अजीतसिंह और सूफी अम्बा प्रसाद भी इस संगठन से जुड़े। इससे पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों में हलचल आई।

पंजाब के क्रांतिकारी, लाला हरदयाल के नेतृत्व में काम करते थे और लाला लाजपतराय भी समय-समय पर उनकी सहायता करते रहते थे। उन्हीं दिनों पंजाब सरकार ने उपनिवेशन अधिनियम द्वारा भूमि की चकबन्दी को हतोत्साहित किया तथा सम्पत्ति के विभाजन के अधिकारों में भी हस्तक्षेप का प्रयास किया।

इससे पंजाब की जनता में आक्रोश फैल गया। क्रांतिकारियों ने स्थान-स्थान पर घूमकर संदेश दिया कि आप लोगों ने 1857 ई. में अँग्रेजों का राज बचाया था। आज वही अँग्रेज आपको नष्ट कर रहे हैं। अब समय आ गया है जब आप क्रांति करें, अँग्रेजों पर धावा बोल दें और स्वतंत्र हो जायें।

गांव के लोगों से कहा जाता था कि अँग्रेज आपके कपास और गन्ने के बढ़ते उद्योगों को नष्ट करना चाहते हैं। उन्होंने आप लोगों का सोना-चांदी लेकर बदले में कागज के नोट थमा दिये हैं। जब अँग्रेज चले जायेंगे तो कागजी नोटों के बदले में रुपया कौन देगा? इस प्रचार में आर्य समाज की गुप्त समितियों का भी हाथ था।

ब्रिटिश अधिकारी, लाला लाजपतराय को क्रांतिकारी आन्दोलन का मस्तिष्क और अजीतसिंह को उनका दाहिना हाथ कहते थे। 9 मई 1907 को लाहौर में लालाजी को बंदी बना लिया गया। इससे पंजाब की जनता का आक्रोश तीव्र हो उठा। सरकार ने उपनिवेशन अधिनियम को निरस्त करके जन-आक्रोश को कम किया।

नवम्बर में लालाजी को भी मांडले से लाहौर वापस लाकर रिहा कर दिया गया। इसके बाद कुछ समय के लिए पंजाब में क्रांतिकारियों की गतिविधियों को भी विराम लग गया।

पंजाब में बंगाली क्रांतिकारियों का आगमन

1908 ई. में लाला हरदयाल के भारत छोड़कर यूरोप चले जाने के बाद उनके क्रांतिकारी संगठन का नेतृत्व दिल्ली के मास्टर अमीरचन्द और लाहौर के दीनानाथ ने संभाला। थोड़े दिनों बाद दीनानाथ का सम्पर्क विख्यात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से हुआ। 1910 ई. में रासबिहारी बोस,  जे. एन. चटर्जी के साथ लाहौर आ गये।

उन्होंने लाला हरदयाल के गुट का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। रासबिहारी ने पंजाब के विभिन्न भागों में गुप्त समितियां स्थापित कीं। इन समितियों में सम्मिलित होने वाले नवयुवकों को विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता था। रासबिहारी बोस ने पंजाब की गुप्त समितियों को मजबूत बनाने के लिए बंगाल से क्रांतिकारी अमरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के माध्यम से बसन्त विश्वास और मन्मथ विश्वास नामक दो नवयुवकों को पंजाब बुलवाया। बंगाल के क्रांतिकारियों ने पंजाब की गुप्त समितियों को आर्थिक सहायता भी भिजवाई।

क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन

1909 ई. में पंजाब में फिर से क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ आरम्भ हुईं। लाहौर से बड़ी संख्या में क्रांतिकारी साहित्य प्रकाशित हुआ जो लोगों को अँग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिये उकसाता था। लालचन्द फलक, अजीतसिंह, उनके दो भाई किशनसिंह एवं सोवरनसिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद आदि कट्टर क्रांतिकारी इस साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण करवाते थे। लालचन्द ने लाहौर में, वंदेमातरम् बुक एजेन्सी और अजीतसिंह ने भारत माता बुक एजेन्सी खोल रखी थी। जब सरकार को क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण की गोपनीय सूचना मिली तो उसने धर-पकड़ आरम्भ की किंतु अजीतसिंह और अम्बाप्रसाद समय रहते फरार हो गये। सोवरनसिंह सख्त बीमार थे, अतः उनके ऊपर से मुकदमा हटा लिया गया। लालचन्द फलक को चार वर्ष की और किशनसिंह को 10 माह की जेल हुई। कुछ सम्पादकों को भी राजद्रोहपूर्ण लेख लिखने के अपराध में सजा दी गई। पेशवा में एक लेख के लिए जिया उल हक को पांच साल का काला पानी , बेदारी में एक लेख के लिए मुंशी रामसेवक को सात साल का काला पानी दिया गया। सरकार की की कठोर कार्यवाही से पंजाब में क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण लगभग बंद हो गया। बहुत कम मात्रा में छपने वाला क्रांतिकारी साहित्य, क्रांतिकारी संगठनों के विशेष सदस्यों में ही वितरित होता था।

लाहौर षड़यंत्र केस

17 मई 1913 को लाहौर के लारेन्स बाग में कुछ अँग्रेज, शराब पीकर सार्वजनिक स्थल पर दुष्ट प्रदर्शन कर रहे थे। बसंत विश्वास ने उन पर बम फैंका। बसंत का निशाना चूक गया और बम एक भारतीय सरकारी अर्दली पर जा गिरा जो उस समय साइकिल पर बैठकर वहाँ से जा रहा था। इस प्रकरण में बसंत विश्वास को फांसी हो गई। इसे लाहौर षड़यंत्र केस कहते हैं।

कोमागाटामारू प्रकरण

1913 ई. में कनाडा में लगभग चार हजार भारतीय रहते थे, जिनमें सिक्खों की संख्या सर्वाधिक थी। बहुत से भारतीय बर्मा, हांगकांग और शंघाई होते हुए कनाडा तथा अमेरिका जाते थे। भारतीयों की बढ़ती संख्या से कनाडा सरकार चिन्तित हो गई। उसने भारतीयों को कनाडा में आने से रोकने के लिए एक कानून बनाया जिसके अनुसार वही भारतीय कनाडा में उतर सकता था जो भारत से किसी जहाज से सीधा आया हो। उन दिनों कोई भी जहाज भारत से सीधा कनाडा नहीं जाता था। अतः इस नये कानून से कनाडा जाने वाले भारतीयों के लिये मार्ग बंद हो गया। अमृतसर के एक व्यापारी ने गुरुनानक स्टीम नेवीगेशन कम्पनी की स्थापना की और एक जापानी जहाज किराये पर लिया, जिसका नाम कोमागाटामारू था। इस जहाज में कनाडा जाने के इच्छुक 376 भारतीयों को बैठा दिया गया।

22 मई 1914 को कोमागाटामारू जहाज कनाडा के मुख्य बंदरगाह बैंकूवर पहुँचा किन्तु कनाडा सरकार ने जहाज के यात्रियों को उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज को लौट जाने के आदेश दिये। बाबा गुरुदत्त सिंह ने आदेश को मानने से मना कर दिया; क्योंकि जहाज में यात्रियों के लिए भोजन-पानी नहीं था। अनेक यात्री बीमार भी थे। कनाडा पुलिस ने जहाज को लौटाने के लिए यात्रियों पर उबलता हुआ पानी फेंका। इसके उत्तर में यात्रियों ने कनाडा पुलिस पर जलते हुए कोयले फेंके। भारतीयों के जहाज को खदेड़ने के लिए कनाडा का एक जंगी बेड़ा आ गया। विवश होकर कोमागाटामारू जहाज को वापिस भारत की ओर लौटना पड़ा। मार्ग में ब्रिटिश सरकार ने इस जहाज को कहीं भी ठहरने की अनुमति नहीं दी। भोजन-पानी और दवाईयों के अभाव में जहाज के यात्रियों को अमानवीय कष्ट सहन करने पड़े। 29 सितम्बर 1914 को यह जहाज कलकत्ता के बजबज बन्दरगाह पहुँचा।

भारत सरकार को जहाज पर सवार यात्रियों की विद्रोही गतिविधियों के बारे में ज्ञात हो चुका था। बाबा गुरुदत्त सिंह स्वयं क्रांतिकारी थे तथा उनकी लाल हरदयाल के क्रांतिकारी आन्दोलन से बड़ी सहानुभूति थी। अतः भारत सरकार ने, बाबा गुरुदत्त सिंह सहित समस्त यात्रियों को बंदी बनाने के लिये उन्हें बलपूर्वक सरकारी गाड़ी में चढ़ाने का प्रयास किया किंतु यात्रियों ने सरकार की कार्यवाही का विरोध किया। इस पर पुलिस ने गोलियां चलाईं। यात्रियों ने भी पुलिस पर गोलियां चलाईं। इस संघर्ष में 18 सिक्ख मारे गये। बाबा गुरुदत्त सिंह घायल हो गये। बचे हुए यात्री गोलियों की बौछारों में से बाबा को उठाकर भाग गये। सरकार ने बाबा गुरुदत्त सिंह को पकड़वाने वाले के लिए भारी पुरस्कार घोषित किया किन्तु उनका पता नहीं लग सका।

तोशामारू प्रकरण

29 अक्टूबर 1914 को तोशामारू नामक जहाज कलकत्ता पहुंचा। इसमें हांगकांग, शंघाई, मनीला आदि स्थानों से आये 173 भारतीय सवार थे। इनमें से अधिकतर सिक्ख थे। भारत सरकार को सूचना दी गई कि ये लोग भारत में पहुंचकर उपद्रव करेंगे। इसलिये सरकार ने 100 यात्रियों को जहाज से उतरते ही बंदी बना लिया। शेष यात्री पंजाब पहुंच गये। ये लोग 21 फरवरी 1915 की क्रांति की योजना में भाग लेने आये थे किंतु इस क्रांति की योजना का भेद खुल जाने से योजना असफल हो गई।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद क्रांतिकारी आन्दोलन

प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद गांधीजी ने रोलट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड और खिलाफत के प्रश्न को लेकर असहयोग आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन 1920 से 1922 ई. तक चला किन्तु इसका कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला। इस अवधि में क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियों को स्थगित रखा। वे इस अहिंसात्मक आन्दोलन का परिणाम देखने को उत्सुक थे किंतु जब उन्होंने देखा कि अहिंसात्मक आन्दोलन का कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला है, तब उन्होंने पुनः क्रांतिकारी संगठनों को सक्रिय किया। क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल आम माफी मिलने पर फरवरी 1920 में जेल से बाहर आ गये थे। उन्होंने विभिन्न क्रांतिकारी दलों को संगठित करके हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ की स्थापना की।

काकोरी षड़यंत्र केस

क्रांतिकारियों ने अपने कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए बंगाल के क्रांतिकारियों को बुलाने और पैसा इकट्ठा करने के लिए बैंक, डाकखाने और सरकारी खजानों पर धावा बोलने का निश्चय किया। 9 अगस्त 1925 को हरदोई से लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी से काकोरी ग्राम के निकट सरकारी खजाना लूट लिया गया।

सरकारी पुलिस व गुप्तचर विभाग ने इसका कुछ सुराग लगाया और 40 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर उन पर ट्रेन डकैती का मुकदमा चलाया। इसे काकोरी षड़यंत्र केस कहा जाता है। दो साल की सुनवाई के बाद इस केस में पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह सान्याल को आजीवन कारावास की सजा हुई। मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष जेल हुई। अशफाक उल्लाह को फांसी की सजा हुई।

फांसी के तख्ते पर चढ़ने से पूर्व अशफाक उल्लाह ने देशवासियों के नाम यह संदेश छोड़ा- ‘भारतवासियो! चाहे आप किसी सम्प्रदाय या धर्म के अनुयायी हों किन्तु आप देशहित के कार्यों में एक होकर योग दीजिए। आप लोग व्यर्थ झगड़ रहे हैं। सब धर्म एक हैं, चाहे रास्ते भिन्न हों परन्तु सबका लक्ष्य एक है। इसलिए आप सब एक होकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। मैं हत्यारा नहीं हूँ, जैसाकि मुझे साबित किया गया है। मैं पहला भारतीय मुसलमान हूँ जो स्वतंत्रता के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ रहा हूँ।’

लालाजी की हत्या

क्रांतिकारी आन्दोलनों एवं स्वराज्य दल की गतिविधियों से विवश होकर ब्रिटिश सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों के बारे में सलाह देने के लिए 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति की।

इस कमीशन के समस्त सदस्य अँग्रेज थे। इसलिये इसे व्हाइट कमीशन भी कहते हैं। कांग्रेस ने इसका बहिष्कार करने का निश्चय किया। 30 अक्टूबर 1928 को कमीशन का बहिष्कार करने के लिए लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकला।

अँग्रेज पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लालाजी पर लाठियों के अनेक प्रहार करके उन्हें गम्भीर चोटें पहुँचाई। इन चोटों के कारण 17 नवम्बर 1928 को लालाजी का निधन हो गया। लालाजी द्वारा 1921 ई. में लाहौर में स्थापित नेशनल कॉलेज के छात्र रहे भगतसिंह तथा उनके साथियों ने इस घटना को राष्ट्रीय अपमान समझा और इसका बदला लेने का निर्णय लिया।

नौजवान सभा

1926 ई. में भगतसिंह, छबीलदास तथा यशपाल आदि नवयुवकों ने नौजवान सभा की स्थापना की। इस सभा के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार से थे- (1.) देश के युवकों में देशभक्ति की भावना जगाना, (2.) मजदूरों और किसानों को संगठित करना, (3.) ब्रिटिश शासन का अन्त करके सम्पूर्ण भारत में मजदूर और किसानों का राज्य स्थापित करना।

इस सभा के कार्यकर्ताओं में केदारनाथ सहगल, शार्दूलसिंह, आनन्द किशोर, सोढ़ी पिंडीदास आदि प्रसिद्ध आन्दोलनकारी सम्मिलित थे। नौजवान सभा द्वारा आयोजित सभाओं में भूपेन्द्रनाथ दत्त, श्रीपाद डांगे, जवाहरलाल नेहरू आदि बड़े नेताओं ने भी भाषण दिये। नौजवान सभा ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कई कदम उठाये।

सभा ने पंजाब की किरती किसान पार्टी के सहयोग से पंजाब के प्रत्येक गांव में अपनी शाखा खोलने तथा नौजवानों में क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने का निर्णय लिया। यह 1928-29 ई. की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी का दौर था। पंजाब के लोगों में भी असंतोष की लहर थी। इस कारण जन साधारण में नौजवान सभा को तेजी से लोकप्रियता मिली।

नौजवान सभा के क्रांतिकारियों- भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयगोपाल ने लाला लाजपतराय की हत्या का प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। 17 दिसम्बर 1928 को पुलिस कार्यालय के ठीक सामने साण्डर्स को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया।

साण्डर्स को गोली मारने के बाद क्रांतिकारी वहाँ से भागकर लाहौर के डी. ए. वी. कॉलेज में जा छुपे। पुलिस ने उन्हें पकड़ने का भरसक प्रयास किया परन्तु असफल रही। क्रांतिकारी युवक भेष बदलकर लाहौर से दिल्ली आ गये। इसके बाद उनकी तरफ से एक इश्तिहार जारी किया गया जिसमें कहा गया था- ‘साण्डर्स मारा गया, लालजी की मृत्यु का बदला ले लिया गया।’ इससे सारे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

साण्डर्स की हत्या के बाद एक और घटना हुई। केन्द्रीय विधानसभा में सरकार की ओर से लोक-सुरक्षा विधेयक और व्यापारी-विवाद अधिनियम प्रस्तुत किये गये। केन्द्रीय विधानसभा ने दोनों विधेयकों को अस्वीकृत कर दिया। गवर्नर जनरल ने केन्द्रीय विधानसभा की अस्वीकृति के उपरांत भी अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए दोनों अधिनियम लागू कर दिये।

इससे सम्पूर्ण भारत में असन्तोष भड़क उठा। क्रांतिकारियों नेपरिस्थितियाँ का लाभ उठाते हुए, ससंदीय मार्ग और संघर्ष की संवैधानिक विधियों की र्व्यथता को जनता के समक्ष रखा। उनका नारा था- ‘हम दया की भीख नहीं मांगते हैं। हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक की लड़ाई है, यह फैसला है- जीत अथवा मौत।’

8 अप्रेल 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा के केन्द्रीय हॉल में बम फैंक कर इन अधिनियमों के विरुद्ध भारतीय रोष और विरोध का परिचय दिया। बम का धमाका करने के बाद उन्होंने इश्तिहार फैंके तथा क्रांति जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाये और पूर्व योजनानुसार स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए पं. नेहरू ने लिखा- ‘यह बम देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक बहुत बड़ा धमाका था।’

सरकार ने भगतसिंह और उसके साथियों पर मुकदमा चलाया। मुकदमे के दौरान दिये गये अपने वक्तव्य में क्रांतिकारियों ने कहा कि उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति की हत्या करना नहीं था अपितु इस गैर-जिम्मेदार और निरंकुश राज्य के विरुद्ध लोगों को सावधान करना था। जनता को अहिंसा और संवैधानिक संघर्ष की व्यर्थता के बारे में बताना था।

सरकार को चेतावनी देना था कि अध्यादेश और सुरक्षा अधिनियम भारत में स्वतंत्रता की भड़की हुई आग को दबा नहीं सकते। इस मुकदमे के दौरान ही ज्ञात हुआ कि साण्डर्स की हत्या में भगतसिंह का भी हाथ था। अतः भगतसिंह और उसके दो साथियों- राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई।

बी. के. दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिली। 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई और पुलिस ने उनके शव फिरोजपुर में ले जाकर रात्रि में जला दिये। इन क्रांतिकारियों की मृत्यु से क्रांतिकारी दल, विशेषकर नौजवान सभा को बड़ी क्षति पहुँची और समूचा देश शोक में डूब गया।

भगतसिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने कहा- ‘भगतसिंह जिंदाबाद और इन्कलाब जिन्दाबाद का एक ही अर्थ है।’

काकोरी षड़यंत्र केस में चन्द्रशेखर अजाद भी सम्मिलित थे तथा साण्डर्स की हत्या में भी उन्होंने सरदार भगतसिंह का साथ दिया था। जिस समय भगतसिंह जेल में थे तब चन्द्रशेखर आजाद ने उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए एक योजना बनाई परन्तु उसमें सफलता नहीं मिली।

वायसराय लॉर्ड इरविन ने जनमत के भारी दबाव के उपरान्त भी भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी की सजा को कम नहीं किया। चनद्रशेखर आजाद और यशपाल ने वासराय की ट्रेन को उड़ाने का निश्चय किया। अतः निजामुद्दीन स्टेशन के पास दिल्ली-मथुरा रेल लाइन की पटरियों के नीचे बम गाड़ दिये गये और उनका सम्बन्ध तारों से कई सौ गज दूरी पर रखी एक बैटरी से कर दिया गया।

जब वायसराय की ट्रेन उस जगह पहुँची तो स्विच दबा दिया गया। बड़े जोर का धमाका हुआ और रेलगाड़ी पटरी से नीचे उतर गई। गाड़ी के तीन डिब्बे क्षतिग्रस्त हो गये किंतु वायसराय इरविन बाल-बाल बच गया। इसी दिन, क्रतिकारियों ने पंजाब के गवर्नर को भी मारने की योजना बनाई थी।

जब गवर्नर, पंजाब विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण देने आया तब हरकिशन नामक क्रतिकारी ने उन पर गोली चला दी। गवर्नर घायल हो गया तथा हरकिशन पकड़ा गया। 9 जून 1931 को उसे फांसी पर लटका दिया गया।

भगतसिंह की मृत्यु के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने संघर्ष जारी रखा। कुछ दिनों बाद पुलिस ने आजाद के बहुत से साथियों को पकड़ लिया। आजाद उत्तर प्रदेश की ओर चले गये। 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर आजाद, यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डे इलाहाबाद आये।

चंद्रशेखर आजाद पर सरकार ने 10 हजार रुपये का इनाम घोषित कर रखा था। जब वे अल्फ्रेड पार्क में थे तब किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस ने आजाद को चारों तरफ से घेर लिया और उन पर अंधाधुंध गोलियां चलानी आरम्भ कर दीं। प्रत्युत्तर में आजाद ने भी गोलियां चलाईं जिनसे कई पुलिस कर्मी घायल हो गये। अन्त में आजाद ने पुलिस के हाथों में पड़ने से बचने के लिये स्वयं को गोली मार ली क्योंकि उन्होंने शपथ ली थी कि वे आजाद ही मरेंगे।

23 जनवरी 1932 को क्रांतिकारी यशपाल इलाहाबाद गये। पुलिस को उनकी भनक लग गई और उन्हें बंदी बना लिया गया। उन्हें 14 वर्ष की जेल हुई। 1937 ई. में जब उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का मंत्रिमण्डल बना तब मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत ने 2 मार्च 1938 को उन्हें बिना शर्त रिहा किया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन का इतिहास

भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन का उदय

बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

उत्तर भारत में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

महाराष्ट्र में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

अन्य प्रांतों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

विदेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन

क्रांतिकारी आंदोलन का मूल्यांकन

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