मुगलों के इतिहास में औरंगजेब को भी आलमगीर बादशाह के नाम से जाना जाता है क्योंकि उसने आलमगीर की उपाधि धारण की थी किंतु अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में मुगलों के तख्त पर आलमगीर नाम से एक और बादशाह हुआ जिसे आलमगीर द्वितीय भी कहा जाता है। वह बादशाह बनने से पहले चालीस साल तक लाल किले की जेल में पड़ा सड़ता रहा।
मीर बख्शी फीरोज जंग (तृतीय) उर्फ इमादुलमुल्क ने बादशाह अहमदशाह बहादुर तथा उसकी माता कुदसिया बेगम उर्फ ऊधम बाई को अंधा करके जेल में डाल दिया था। अब उसे एक ऐसे बादशाह की तलाश थी जो मीर बख्शी के संकेतों पर नाच सके तथा जिसका स्वयं का कोई व्यक्तित्व नहीं हो।
इमादुलमुल्क जानता था कि सलीमगढ़ की जेल में कुछ मुगल शहजादे बरसों से बंद थे तथा अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाया करते थे। बंदीगृह से निकलने के लिए वे कोई भी कीमत चुका सकते थे और जब बात बादशाह बनने की हो तो फिर तो उनसे मनचाहा काम लिया जा सकता था। इमादुलमुल्क की दृष्टि मरहूम बादशाह जहांदारशाह के दुर्भाग्यशाली पुत्र अजीजुद्दीन पर पड़ी जो पिछले चालीस सालों से सलीमगढ़ दुर्ग में पड़ा हुआ था।
पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह (प्रथम) उर्फ शाहआलम (प्रथम) के बड़े पुत्र का नाम जहांदारशाह था जो 27 फरवरी 1712 से 11 फरवरी 1713 तक भारत का बादशाह हुआ था। जहांदारशाह को उसके भतीजे फर्रूखसियर ने तख्त से उतारकर जेल में डाल दिया था और जेल में ही पेशेवर हत्यारों से उसकी हत्या करवाई थी। जहांदारशाह के पांच पुत्र थे। फर्रूखसियर ने इन पांचों भाइयों को भी जेल में बंद कर दिया था।
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जहांदारशाह के दूसरे पुत्र का नाम अजीजुद्दीन था। उसका जन्म 6 जून 1699 को जहांदारशाह की हिन्दू बेगम अनूप बाई के पेट से हुआ था। जब इमादुलमुल्क फीरोज जंग (तृतीय) ने बादशाह अहमदशाह बहादुर को तख्त से उतारकर अंधा किया तब सलीमगढ़ की जेल में बंद अजीजुद्दीन 55 साल का प्रौढ़ था।
हालांकि अजीजुद्दीन के जीवन के चालीस साल जेल में बीते थे तथा उसे शासन अथवा युद्ध करने का कोई अनुभव नहीं था तथापि मीर बख्शी इमादुलमुल्क ने 3 जून 1754 को इसी अजीजुद्दीन को जेल से निकालकर मुगलों के तख्त पर बैठा दिया। वह भारत का चौदहवां मुगल बादशाह था।
इस अवसर पर नए मुगल बादशाह अजीजुद्दीन, मीरबख्शी इमादुल्मुल्क एवं मराठा सरदारों सदाशिव राव भाऊ, मल्हार राव होलकर तथा रघुनाथ राव के बीच एक संधि हुई जिसके तहत मराठों को मुगल बादशाह का संरक्षक स्वीकार कर लिया गया तथा मराठों को पंजाब से भू-राजस्व वसूली का अधिकार दे दिया गया। अजीजुद्दीन को मुगल बादशाह बनाने में तथा मराठों को मुगल राज्य का संरक्षक घोषित करवाने में रघुनाथ राव की बड़ी भूमिका थी जो नाना साहब के बाद मराठों का नया पेशवा हुआ।
अजीजुद्दीन को शासन करने का कोई अनुभव नहीं था किंतु उसने अपने परबाबा औरंगजेब की सफलताओं के किस्से सुन रखे थे इसलिए अजीजुद्दीन ने औरंगजेब की तरह भारत पर कठोर शासन व्यवस्था स्थापित करने का सपना देखा और अपना नाम आलमगीर रख लिया। पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब ने भी तख्त पर बैठते समय आलमगीर की उपाधि धारण की थी। इसलिए अजीजुद्दीन को मुगलों के इतिहास में आलमगीर (द्वितीय) के नाम से जाना जाता है।
बादशाह आलमगीर (द्वितीय) भी मीर बख्शी इमादुलमुल्क के हाथों की कठपुतली बना रहा। इमादुलमुल्क नए बादशाह के साथ भी दुर्व्यवहार करता था। इस कारण कुछ समय बाद ही बादशाह आलमीगर (द्वितीय) तथा इमादुलमुल्क के सम्बन्ध खराब हो गए। यहाँ तक कि आलमगीर ने अपनी सेनाओं को आदेश दिया कि वे इमादुलमुल्क को नष्ट कर दें। इमादुलमुल्क ने मराठों से संधि कर रखी थी। इस कारण इमादुलमुल्क मराठों की शरण में भाग गया और मराठों की सेना ने मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। इस काल में विश्व राजनीति बड़ी तेजी से पलट रही थी और यूरोप की दो व्यापारिक कम्पनियां वैश्विक महाशक्तियां बनकर पूरी दुनिया में एक-दूसरे के विरुद्ध वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही थीं।
ईस्वी 1756 में इंगलैण्ड और फ्रांस के यूरोपीय, अमीरीकी एवं एशियाई उपनिवेशों में सप्तवर्षीय युद्ध आरम्भ हो गया। भारत भी शीघ्र ही इस लड़ाई की चपेट में आने वाला था किंतु लाल किले को इन बातों से कोई लेना-देना नहीं था, जिसकी भारी कीमत उसे आने वाले वर्षों में चुकानी थी।
इस समय लाल किले को तो इतना भी ज्ञान नहीं था कि अफगानिस्तान से अहमदशाह अब्दाली नामक काली आंधी भारत की धरती को रक्त-रंजित करने के लिए फिर से चल पड़ी है। इसलिए हम यूरोप के सप्तवर्षीय युद्ध की चर्चा आगे के लिए छोड़कर अपना ध्यान अहमदशाह अब्दाली पर केन्द्रित करते हैं।
ई.1757 में अफगान सरदार अदमदशाह दुर्रानी ने भारत पर चौथा आक्रमण किया। भारत के इतिहास में उसे अहमदशाह अब्दाली के नाम से भी जाना जाता है। हुआ यह कि ई.1755 में लाहौर के गवर्नर मुइन उल मुल्क की मृत्यु हो गई जो कि चिनकुलीच खाँ का पुत्र और मीरबख्शी इमादुलमुल्क का चाचा था।
लाहौर के गवर्नर मुइन उल मुल्क की विधवा बेगम अपने अल्पवयस्क बालक के नाम पर लाहौर का शासन चलाने लगी जिसे इतिहास में मुगलानी बेगम कहा जाता है किंतु उसे सिक्खों ने तंग करना आरम्भ कर दिया। इस पर बेगम ने अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली से सहायता मांगी।
ई.1755 में अहमदशाह ने अफगानिस्तान से रवाना होकर सबसे पहले मुल्तान पर आक्रमण किया तथा वहाँ के शासक को मारकर मुल्तान में अपने अधिकारी नियुक्त कर दिए। इसके बाद अहमदशाह अब्दाली ने लाहौर पर भी अधिकार कर लिया और अपने पुत्र तिमूर शाह दुर्रानी को लाहौर का शासक नियुक्त कर दिया। उसने मुगलानी बेगम की खजाना छीन लिया तथा उसे कैद करके अपने साथ ले लिया।
इसके बाद अहमदशाह अब्दाली की सेनाओं ने पंजाब के सिक्खों एवं हिंदुओं को जी भर कर लूटा तथा ई.1756 में दिल्ली की तरफ बढ़ना आरम्भ कर दिया। आलमगीर के पास करने के लिए कुछ नहीं था, सिवाए इसके कि वह अहमदशाह अब्दाली का लाल किले में स्वागत करे।
जब पेशवा नाना साहब को सूचना मिली कि अहमदशाह अब्दली दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है तो उसने रघुनाथ राव भट्ट तथा मल्हारराव होलकर को आज्ञा दी कि वे दिल्ली पहुंचकर मुगल बादशाह की सहायता करें क्योंकि ई.1754 में मुगल बादशाह आलमगीर से हुई संधि के अनुसार अब मराठे मुगलों के राज्य के संरक्षक थे किंतु मराठे अभी दूर थे और अहमदशाह अब्दली तेज गति से दिल्ली की ओर बढ़ा चला आ रहा था।
वैसे भी मराठा सरदार रघुनाथ राव को दिल्ली पहुंचने की इतनी जल्दी नहीं थी जितनी कि राजपूताना राज्यों एवं गंगा-यमुना के दोआब से चौथ वसूली करने की उत्सुकता थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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