जब पूर्वी पंजाब में हिन्दुओं एवं सिक्खों का कत्लेआम किया जाने लगा तो हिन्दू एवं सिक्ख शरणार्थी बनकर दिल्ली की ओर भागे। हिन्दुओं एवं सिक्खों के पुरखे एक ही थे। वे विगत लाखों सालों से इस देश में रह रहे थे। ंबंदर से इंसान बनने की प्रक्रिया उन्होंने भारत भूमि पर ही रहकर पूरी की थी। आज हिन्दू और सिक्ख शरणार्थी बनकर अपने ही देश में भटक रहे थे। अपने ही देश में उन्हें कोई पहचानने वाला नहीं था।
माइकल ब्रीचर ने लिखा है कि- ‘अफवाह, भय तथा उन्माद के कारण लगभग एक करोड़ बीस लाख लोगों की अदला बदली हुई जिनमें से आधे हिन्दू तथा आधे मुसलमान थे। एक साल समाप्त होने से पूर्व लगभग पाँच लाख लोग या तो मर गये या मार डाले गये। दिल्ली की गलियां शरणार्थियों से भर गयीं। ‘
मोसले ने लिखा है कि- ‘इस अदला बदली में छः लाख लोग मारे गये, एक करोड़ चालीस लाख लोग घरों से निकाले गये तथा एक लाख जवान लड़कियों का अपहरण हुआ या जबर्दस्ती उनको नीलाम किया गया। …… बच्चों की टांगों को पकड़ कर दीवारों पर पटक दिया गया, लड़कियों के साथ बलात्कार हुआ और उनकी छातियां काट दी गयीं। गर्भवती औरतों के पेट चीर दिये गये।’
जिन्ना और लियाकत अली की नीति पर सवाल उठाते हुए अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘क्या जिन्ना या प्रधानमंत्री लियाकत अली ने पाकिस्तान में हिंदुओं और सिक्खों का कत्लेआम रोकने के लिए फौरन कदम उठाए? क्या उन्होंने साम्राज्यवाद के मूडी जैसे एजेंटों को फौरन निकाल बाहर किया? नहीं, उन्होंने उल्टे बढ़ावा दिया। हिंदुओं और सिक्खों को पाकिस्तान से निकाल बाहर करना चंद मुस्लिम सरमाएदारों और जमींदारों के इन चाकरों की नीति बन गई।’
सिक्ख और हिन्दू शरणार्थियों का पहला जत्था पश्चिमी पंजाब से भारत आ गया था। ये पंजाब के लगभग 100 गांवों एवं शहरों से आए थे तथा इनकी संख्या लगभग बत्तीस हजार थी। ये लोग वीभत्स अत्याचार और अपमान सहकर जान हथेली पर रखे हुए भारत आए थे और उन्हें दिल्ली से 120 मील के फासले पर धूप और धूल के बीच भारत के प्रथम शरणार्थी शिविर में बसाया गया था। गांधीजी ने आग्रह किया कि वह उन शरणार्थियों से मिलना चाहेंगे और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को साथ चलना चाहिए। जब गांधी और नेहरू की गाड़ियां शरणार्थी शिविर में पहुंचीं तो क्रोध से चीखते हुए लोगों ने उन्हें घेर लिया।
अगस्त माह में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली ने एक खुली जीप में बैठक भारतीय-पंजाब एवं पाकिस्तानी-पंजाब के दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा किया। गांधीजी को पंजाब जाने का अवसर ही न मिला। उन्हें दिल्ली में रुक जाना पड़ा। घृणा और हिंसा की महामारियों का रोगाणु भारत की राजधानी दिल्ली तक पहुंच चुका था।
उधर गांधीजी ने कलकत्ता में अपना उपवास तोड़ा और इधर दिल्ली में आग सुलगनी शुरू हो गई। लैरी कांलिन्स एवं दॉमिनिक लैपियर ने आरोप लगाया है कि- ‘सिक्खों के अकाली दल और हिन्दुओं के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मिलकर दिल्ली को भी कौमी दंगों की लपटों में झौंक दिया।’
दिल्ली के मुसलमानों को, जिनमें से अधिकांश अब पाकिस्तान चले जाना चाहते थे, ऐसे शरणार्थी शिविरों में बसाया गया जो हिन्दुओं एवं सिक्खों के आक्रमणों से तो बचे हुए थे किंतु उस गंदगी से नहीं जिसके कारण बीमारियां उत्पन्न हो रही थीं और लोगों की जान ले रही थीं। हुमायूं के मकबरे और पुराने किले में डेढ़-दो लाख मुसलमान शरणार्थी बसाए गए। वे इस हद तक डरे हुए थे कि अपने मृतकों को दफनाने के लिए भी वे उन दीवारों से बाहर नहीं निकलते थे अपितु लाशों को ऊंची दीवारों से बाहर की तरफ गिरा दिया करते थे जिधर गिद्धों और कुत्तों द्वारा खा लिए जाते।
दिल्ली में ज्यों ही गांधी का आगमन हुआ, मुसलमान शरणार्थियों में नई जान पड़ गई। जब तक जिन्ना भारत में था, मुसलमानों ने हमेशा उसे अपना मसीहा माना। अब जब जिन्ना पाकिस्तान चला गया था, मुसलमानों ने उसके राजनीतिक दुश्मन गांधीजी को मसीहा मान लिया था।
आगामी दो महीनों तक पंजाब के मैदानों से गुजर रही त्रस्त मानवता के प्रचण्ड कारवां, लाल सिरों वाली छोटी-छोटी पिनों का रूप पाकर गर्वनमेंट-हाउस के नक्शों पर चींटी जैसी चाल से सकरते रहने वाले थे। पिनों के वे जरा-जरा से लालसिर, भयंकरतम, मानवीय पीड़ाओं के प्रतीक थे- ऐसी पीड़ाएं कि जिन्हें मनुष्य सहन नहीं कर सके, लेकिन जिन्हें मनुष्यों ने ही सहन किया।
शरणार्थियों की समस्या दुनिया में समय-समय पर पैदा होती रही है, जिसके कारण अनेक असाधारण और अविस्मरणीय दृश्य सामने आए हैं लेकिन क्या कोई दृश्य उस कारवां के नजदीक खड़ा हो सकता है जिसमें आठ लाख व्यक्ति चलते देखे गए थे? भारत-विभाजन का उपहार वह कारवां, मानव इतिहास का सबसे बड़ा कारवां था, जिसकी प्रचण्डता की कल्पना मात्र से दिल बैठने लगता है।
छोटे-बड़े अनेक कारवां इधर से उधर और उधर से इधर सरक रहे थे। प्रत्येक कारवां की प्रगति के अनुसार गवर्नमेंट हाउस के उन नक्शों पर लालसिरों वाली पिनों को धीरे-धीरे सरकाया जाता रहता। हर सुबह सरकारी हवाई जहाज अपनी निरीक्षण उड़ानों पर उड़ते। भोजन और दवा के नाम पर जो भी उपलब्ध हो सकता, उसे वे उन कारवांओं पर गिराते। लूट-खसोट न मच जाए, इसलिए हर प्रमुख कारवां के साथ सुरक्षा सैनिक चलते थे।
वे बंदूक की नोक पर ही हर चीज के बंटवारे का प्रयास करते। धीमे-धीमे सरकते कारवां को आसमान से देखना एक ऐसा अनुभव था जिसे वे पायलट कभी न भूल सके। एक पायलट ने लिखा है कि वे दो सौ मील प्रति घण्टे की गति से पूरे पन्द्रह मिनट तक उड़ता रहा किंतु कारवां के इस छोर से उस छोर तक नहीं पहुंच सका। दिन के वक्त कारवां के चलने से धूल की लम्बी लकीर आसमान की तरफ उठने लगती। हजारों गाय-भैंस-बैलगाड़ियां और ऊँट गाड़ियां इन कारवाओं के साथ चलतीं और धूल उड़ातीं।
रात को हिन्दू एवं सिक्ख शरणार्थी ठहर जाते थकान और भूख के मारे। हर परिवार अपनी-अपनी आग जलाता, ताकि जो भी रूखा-सूखा तैयार हो सकता है उससे पेट की आग बुझ जाए। धूल की बजाए अब धुएं की लकीर आसमान की तरफ उठने लगती। लम्बी और ऊंची लकीर जो आगे-पीछे सरकती न हो, एक ही जगह खड़ी-खड़ी उठ रही हो और जिसकी तली में धधक रही हो आग……..।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता