सुल्तान फीरोजशाह तुगलक ने दिल्ली के तख्त पर अपने अधिकार को पुष्ट बनाने के लिये स्वयं को खलीफा का नायब घोषित कर दिया। उसने खुतबे तथा मुद्राओं में खलीफा के नाम के साथ-साथ अपना नाम भी खुदवाया।
मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु थट्टा में हुई थी। उस समय फीरोज तुगलक शाही खेमे में उपस्थित था। मुहम्मद बिन तुगलक के कोई पुत्र नहीं था। प्रधानमन्त्री ख्वाजाजहाँ ने दिल्ली का तख्त हड़पने की नीयत से एक अल्पवयस्क बालक को विगत सुल्तान का पुत्र घोषित कर दिया और स्वयं उसका संरक्षक बन गया किंतु दिल्ली के अमीरों को उसकी यह कार्यवाही पसंद नहीं आई इसलिये उन्होंने नये सुल्तान का मनोनयन करने के लिये अमीरों की एक सभा बुलाई।
सुल्तान फीरोजशाह तुगलक
फीरोज तुगलक का प्रारम्भिक जीवन
मुहम्मद बिन तुगलक के बाद फीरोजशाह तुगलक दिल्ली के तख्त पर बैठा। फरोजशाह का जन्म 1309 ई. में हुआ था। उसके पिता का नाम सिपहसालार रजब तुगा तथा माता का नाम बीबी नैला था। सिपहसालार रजब तुगा, सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक का भाई था और बीबी नैला, पूर्वी पंजाब में दिपालपुर के भट्टी सूबेदार रणमल की पुत्री थी। राजपूत स्त्री का पुत्र होते हुए भी फीरोज कट्टर मुसलमान था और उसे हिन्दुओं से घृणा थी। मुहम्मद बिन तुगलक फीरोज को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था।
दिल्ली के तख्त की प्राप्ति
मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु हो जाने पर अमीरों, सेना के सरदारों तथा उलेमाओं ने सुल्तान का उत्तराधिकारी नियुक्त करने के लिए एक सभा की। शेख नासिरूद्दीन अवधी ने फीरोज का नाम प्रस्तावित किया। विचार-विमर्श के उपरान्त निर्वाचन समिति ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। फलतः फीरोज उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया।
फीरोज मजहबी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसका कहना था कि उसे राज्य की बिल्कुल आकांक्षा नहीं थी। इसलिये उसने अमीरों के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और मक्का जाने की इच्छा प्रकट की परन्तु अमीरों के दबाव के कारण तथा साम्राज्य के हित में उसने राज्य की बागडोर ग्रहण करना स्वीकार कर लिया। 22 मार्च 1351 को 42 वर्ष की आयु में थट्टा के निकट शाही खेमे में उसका राज्याभिषेक हुआ।
सुल्तान फीरोजशाह तुगलक की समस्याएँ
यद्यपि अमीरों, सरदारों तथा उलेमाओं ने फीरोज तुगलक को विधिवत् सुल्तान निर्वाचित कर लिया था और वह निर्विरोध दिल्ली के तख्त पर बैठ गया था परन्तु उसका मार्ग पूर्णतः निरापद नहीं था। उसे निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ा-
(1.) ख्वाजाजहाँ तथा विगत सुल्तान के पुत्र की समस्या
सल्तनत का प्रधानमन्त्री ख्वाजाजहाँ, फीरोज को सुल्तान बनाने के पक्ष में नहीं था। वह खुदाबन्दजादा के अल्पवयस्क पुत्र को जो सुल्तान मुहम्मद का भान्जा था, सुल्तान का पुत्र घोषित करके उसके अधिकारों का समर्थन कर रहा था।
(2.) सिंध से सुरक्षित निकलने की समस्या
मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के समय शाही खेमा राजधानी से सैंकड़ों मील दूर युद्ध के मैदान में था जिसे अफरा-तफरी के माहौल में शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिये जाने की आशंका थी।
(3.) प्रजा को सन्तुष्ट करने की समस्या
फीरोज के तख्त पर बैठने के समय सल्तनत की अधिकांश प्रजा तुगलकों के शासन से असंतुष्ट थी और आर्थिक संकट से घिरी हुई थी। सुल्तान के लिये यह समस्या अत्यन्त भयानक तथा घातक थी। राज्य के हित में इसका सुलझना नितान्त आवश्यक था अन्यथा साम्राज्य का विनाश हो सकता था।
(4.) रिक्त राजकोष की समस्या
मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाओं की विफलताओं एवं विद्रोहों के कारण राज्य की आर्थिक दशा खराब हो चुकी थी। ख्वाजाजहाँ ने भी अमीरों का समर्थन प्राप्त करने के लिये काफी धन लुटा दिया था। स्वयं फीरोज ने सरकारी कर्ज माफ कर दिया तथा लोगों से विगत सुल्तान के लिये क्षमादान पत्र लिखवाने हेतु भी बहुत सा धन बांट दिया। इससे सरकारी कोष लगभग रिक्त हो गया।
(5.) अमीरों तथा उलेमाओं को नियंत्रण में रखने की समस्या
फीरोज की पांचवी समस्या अमीरों तथा उलेमाओं को प्रसन्न करके उन्हें अपने नियंत्रण एवं विश्वास में रखने की थी। मुहम्मद बिन तुगलक की नीति से अमीर तथा उलेमा अत्यन्त अप्रसन्न हो गये थे। इसलिये वह नीति अब चलने वाली नहीं थी।
(6.) विद्रोही प्रान्तों की समस्या
फीरोज की छठी समस्या विद्रोही प्रान्तों की थी। जिन प्रान्तों ने विद्रोह कर दिया था, उन्हें पराजित करके फिर से सल्तनत के अधीन करना आवश्यक था।
(7.) शासन की समस्या
फीरोज की छठवीं समस्या शासन को सुव्यवस्थित करने की थी। मुहम्मद बिन तुगलक ने भारतीय अमीरों की अयोग्यता को देखते हुए विदेशी अमीरों को शासन में उच्च अधिकार दिये थे किंतु फीरोज को भारत के तुर्की अमीरों तथा उलेमाओं ने सुल्तान बनाया था इसलिये उसे उन्हीं में से उच्च अधिकारी चुनने थे।
सुल्तान फीरोजशाह तुगलक की समस्याओं का निराकरण
(1.) ख्वाजाजहाँ तथा विगत सुल्तान के कथित पुत्र की हत्या
यद्यपि फीरोज तख्त पर बैठ गया था परन्तु भविष्य में चलकर इस बालक के कारण कठिनाई उत्पन्न हो सकती थी। इसलिये अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए फीरोज ने ख्वाजाजहाँ की हत्या करवा दी और विगत सुल्तान के कथित पुत्र को भी अपने मार्ग से हटा दिया। इस कारण इस समस्या से सदा के लिये छुटकारा मिल गया।
(2.) सिंध से सुरक्षित निष्कासन
यदि अमीरों में सुल्तान के विषय में झगड़ा चलता रहता तो निःसंदेह शाही खेमा दो भागों में बंट जाता, ऐसी स्थिति में शत्रुओं द्वारा उनके विनाश की पूरी संभावना थी किंतु चूंकि ख्वाजाजहाँ तथा उसके द्वारा घोषित मुहम्मद बिन तुगलक के पुत्र की हत्या हो गई इसलये शाही खेमा एक जुट बना रहा और सुरक्षित राजधानी लौट आया।
(3.) प्रजा को संतुष्ट करने के लिये कर्जों एवं करों की माफी
ख्वाजाजहाँ ने राजकोष का जो धन लोगों में बांट दिया था, फीरोज ने उस धन को वापस लेने का प्रयत्न नहीं किया। इससे लोगों की प्रसन्नता की सीमा न रही और वे सुल्तान के समर्थक बन गये। जिन लोगों पर सरकार का कर्जा था, फीरोज ने उस कर्जे को भी माफ कर दिया। इससे भी बहुत से लोग नये सुल्तान के कृतज्ञ बन गये।
जिन लोगों को मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में यातनाएँ सहनी पड़ी थीं तथा क्षति उठानी पड़ी थी, उन्हें धन देकर संतुष्ट किया गया और उनसे क्षमादान पत्र लिखवा कर उन पत्रों को मुहम्मद बिन तुगलक की कब्र में गड़वाया गया जिससे उसका परलोक सुधर जाय। इस प्रकार तख्त पर बैठते ही सुल्तान ने उदारता तथा सद्भावना का परिचय दिया जिससे उसे लोकप्रियता प्राप्त हो गई। उसने जनता पर लगाये जा रहे करों में से 23 करों को हटा दिया।
(4.) रिक्त राजकोष की पूर्ति
अब तक के सुल्तान राजकोष की पूर्ति जनता पर कर बढ़ाकर करते थे किंतु फीरोज ने कर बढ़ाने के स्थान पर व्यापार, कृषि एवं जागीरदारी व्यवस्था को चुस्त बनाने का प्रयास किया जिससे राजस्व में वृद्धि हो तथा सुल्तान के प्रति असंतोष भी नहीं बढ़े। उसके प्रयासों से जनता में खुशहाली आई, लोगों की आय बढ़ी तथा सरकार के कोष में भी धन की पर्याप्त आमदनी हुई।
(5.) अमीरों तथा उलेमाओं की सलाह से शासन
फीरोज ने अमीरों तथा उलेमाओं से परामर्श तथा सहायता लेकर शासन करना आरम्भ किया। फीरोज धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था इसलिये उसने धर्म आधारित शासन का संचालन किया। इससे अमीर एवं उलेमा सुल्तान से संतुष्ट रहने लगे किंतु फीरोज कुछ ही दिनों में उलेमाओं के हाथ की कठपुतली बन गया।
(6.) खोये हुए प्रांतों को फिर से प्राप्त करने का प्रयास
मुहम्मद बिन तुगलक के समय में हुए विद्रोहों के कारण दिल्ली सल्तनत के बहुत से प्रांत स्वतंत्र हो गये थे। फीरोज पर उन्हें फिर से सल्तनत में शमिल करने की जिम्मेदारी थी किंतु उसने इसके लिये विशेष प्रयास नहीं किये। उसने बंगाल पर विजय प्राप्त की किंतु मुस्लिम स्त्रियों का क्रन्दन सुन कर उसने बंगाल को अपनी सल्तनत में शामिल किये बिना ही छोड़ दिया। उसने जाजनगर, नगरकोट तथा सिंध पर आक्रमण करके उन्हें फिर से दिल्ली सल्तनत के अधीन किया।
(7.) शासन सुधार के लिये योग्य अधिकारियों की नियुक्ति
सल्तनत के शासन को सुचारू रीति से संचालित करने के लिये फीरोज ने योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों की नियुक्तियाँ की। उसने मलिक मकबूल को नायब वजीर के पद पर नियुक्त किया और उसे ‘खान-ए-जहाँ’ की उपाधि से विभूषित किया। भूमि-कर की समुचित व्यवस्था करने के लिए फीरोज ने ख्वाजा निजामुद्दीन जुनैद को नियुक्त किया।
मलिक गाजी को ‘नायब आरिज’ के पद पर नियुक्त करके सेना के संगठन के कार्य सौंपा। मलिक गाजी शहना को सार्वजनिक निर्माण विभाग का कार्य दिया। इस प्रकार उसने शासन को सुचारू रीति से संचालित करने का प्रयास किया।
(8.) तख्त पर अधिकार पुष्ट करने के लिये खलीफा के नाम का प्रयोग
फीरोज तुगलक ने दिल्ली के तख्त पर अपने अधिकार को पुष्ट बनाने के लिये स्वयं को खलीफा का नायब घोषित कर दिया। उसने खुतबे तथा मुद्राओं में खलीफा के नाम के साथ-साथ अपना नाम भी खुदवाया।
निष्कर्ष: इस प्रकार फीरोज तुगलक ने अपनी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया तथा धीरे-धीरे दिल्ली के तख्त पर अपनी स्थिति सुदढ़ कर ली।
सुल्तान फीरोजशाह तुगलक की युद्ध नीति
फीरोज तुगलक सामरिक प्रवृत्ति का सुल्तान नहीं था। इस कारण उसमें वीर सैनिकों जैसा साहस तथा उत्साह नहीं था। वह मुस्लिम स्त्रियों को करुण क्रंदन करते हुए नहीं देख सकता था इसलिये उसने विद्रोही प्रांतों को फिर से लेने का प्रयास नहीं किया। उसमें राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। वह मुसलमानों के लिए कोमल हृदय का व्यक्ति था।
विजय दृष्टि-गोचर होने पर भी वह या तो पीछे हट जाता था या शत्रु से सन्धि कर लेता था। वह ऐसी धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था कि रणस्थल में भी मुसलमानों का रक्तपात उसके लिये असह्य था। उलेमाओं के प्रभाव में होने के कारण फीरोज ने हिन्दू शासकों द्वारा शासित जाजनगर तथा नगरकोट को जीतने में पूरा उत्साह दिखाया।
बंगाल पर विजय
मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम भाग में बंगाल ने दिल्ली से अपना विच्छेद कर लिया था। हाजी इलियास ने शमसुद्दीन इलियास शाह की उपाधि धारण करके स्वयं को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था। फीरोज तुगलक ने बंगाल को फिर से दिल्ली सल्तनत के अधीन करने के लिये 1353 ई. में एक विशाल सेना के साथ बंगाल के लिए कूच किया।
जब इलियास को फीरोज तुगलक के आने की सूचना मिली तो उसने अपने को इकदला के किले में बन्द कर लिया। फीरोज ने उसे किले से निकालने के लिये अपनी सेना को पीछे हटाना आरम्भ किया। जब उसकी सेना कई मील पीछे चली गई तो इलियास ने किले से बाहर निकलकर फीरोज की सेना का पीछा किया। अब सुल्तान की सेना लौट पड़ी। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। फीरोज की सेना को विजय प्राप्त हुई।
जब वह किले पर अधिकार स्थापित करने गया तो उसने मुस्लिम स्त्रियों को करुण क्रंदन सुना। जिसे सुनकर फीरोज दुर्ग पर अधिकार स्थापित किये बिना ही वहाँ से लौट पड़ा। जब शाही सेनापति तातार खाँ ने फीरोज तुगलक को परामर्श दिया कि वह बंगाल को अपने राज्य में मिला ले तो उसने यह कह कर टाल दिया कि बंगाल जैसे दलदली प्रान्त को दिल्ली सल्तनत में मिलाना बेकार है। इस प्रकार परिश्रम से प्राप्त हुई विजय को भी सुल्तान ने खो दिया और बंगाल स्वतन्त्र ही बना रहा।
जाजनगर पर विजय
बंगाल से लौटते समय सुल्तान ने जाजनगर, अर्थात वर्तमान उड़ीसा पर आक्रमण किया। जाजनगर के राजा ने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली और प्रतिवर्ष कुछ हाथी कर के रूप में भेजने का वचन दिया। इस युद्ध में सुल्तान ने अपनी धार्मिक कट्टरता तथा असहिष्णुता का परिचय दिया। उसने पुरी में भगवान जगन्नाथ के मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया और मूर्तियों को समुद्र में फिंकवा दिया। जाजनगर को जीतने के बाद मार्ग में बहुत से सामन्तों तथा भूमिपतियों पर विजय प्राप्त करता हुआ फीरोज तुगलक दिल्ली लौट आया।
नगरकोट पर विजय
मुहम्मद तुगलक के शासन काल के अन्तिम भाग में नगरकोट का राज्य स्वतन्त्र हो गया था। फीरोज ने फिर से नगरकोट को दिल्ली सल्तनत के अधीन करने का निश्चय किया। नगरकोट पर आक्रमण करने का एक और भी कारण था। नगरकोट राज्य में स्थित ज्वालामुखी का मन्दिर इन दिनों अपनी धन सम्पदा के लिए प्रसिद्ध था।
इस मन्दिर में सहस्रों यात्री दर्शन के लिये आते थे और मूर्तिपूजा करते थे। यह बात फीरोज के लिए असह्य थी। इसलिये उसने नगरकोट पर आक्रमण कर दिया। नगरकोट के हिन्दू राजा ने छः महीने तक बड़ी वीरता से दुर्ग की रक्षा की किंतु अन्त में विवश होकर उसने फीरोज से संधि की प्रार्थना की।
सुल्तान ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया तथा उससे विपुल धन लेकर अपनी सेना हटा ली। ज्वालामुखी मन्दिर से फीरोज को संस्कृत भाषा में लिखी हुई 1,300 पुस्तकें भी उपलब्ध हुईं। फीरोज ने उनमें से कुछ पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया।
सिन्ध पर विजय
मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम दिनों में सिंध में भयानक विद्रोह आरम्भ हो गया था। मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु सिंध के विद्रोह का दमन करते समय ज्वर से पीड़ित होकर थट्टा में हुई थी। फीरोज सिन्ध वालों की इस दुष्टता को भूला नहीं था। इसलिये 1371 ई. में उसने एक विशाल सेना के साथ सिन्ध के लिए प्रस्थान किया।
इस अभियान में फीरोज को विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई परन्तु अन्त में सिन्ध के शासक ने सुल्तान से क्षमा याचना की। सुल्तान ने उसकी प्रार्थना को तुरन्त स्वीकार कर लिया और उसके भाई को सिन्ध का शासक बना दिया। बंगाल की भांति सिन्ध में भी फीरोज मुसलमानों के प्रति अपनी उदारता के कारण विफल रहा।
निष्कर्ष
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि फीरोज की युद्ध नीति दो अलग भागों में बंटी हुई थी। हिन्दुओं के लिये अलग नीति थी तथा मुसलमानों के लिये अलग नीति थी। वह हिन्दुओं को नष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझता था किंतु मुस्लिम औरतों का करुण क्रंदन नहीं सुन सकता था। उसके सैनिक युद्ध में प्राप्त विजय का भी उपभोग नहीं कर पाते थे क्योंकि फीरोज मुसलमानों के प्रति अपनी उदारता के कारण उसे खो देता था।
यह भी देखें-
मुहम्मद तुगलक का शासन एवं विफलताएँ
सुल्तान फीरोजशाह तुगलक