अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति की आग भले ही बंगाल, मेरठ और कानपुर में सुलगी हो किंतु इस आग ने दिल्ली में खूनी क्रांति का रूप ले लिया। क्रांतिकारियों के हौंसले देखकर बहादुरशाह जफर ने राष्ट्रव्यापी क्रांति का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया!
11 मई 1857 को दिल्ली की सड़कों पर सवेरा अभी उतर ही रहा था, जीवन की हलचल अभी आरम्भ भी नहीं हुई थी कि तभी मेरठ से आए सिपाहियों का एक दस्ता चुपचाप यमुना पार करके दिल्ली शहर में पहुंचा। इन सैनिकों ने चुंगी के एक दफ्तर में आग लगा दी और फिर लाल किले की तरफ बढ़ गए।
सिपाहियों के शहर में प्रवेश करते ही दिल्ली जैसे नींद से जाग उठी। दिल्ली के बहुत से लोग भीड़ के रूप में इन सिपाहियों के पीछे हो लिए। भविष्य में होने वाली किसी बड़ी घटना के बारे में सोचकर सब रोमांचित थे। यह दिल्ली में खूनी क्रांति की शुरुआत थी।
राजघाट दरवाजा पार करके ये सिपाही लाल किले के भीतर पहुंचे। सिपाहियों का यह दस्ता बादशाह से अपील करने आया था कि बादशाह इन सिपाहियों का नेतृत्व स्वीकार करे तथा कम्पनी सरकार को भारत से बाहर निकालकर भारत का शासन ग्रहण करे।
बहादुरशाह जफर इस समय 69 वर्ष का हो चुका था तथा इस अवस्था में नहीं था कि वह किसी युद्ध या क्रांति में भाग ले फिर भी बहादुरशाह ने मेरठ से आए क्रांतिकारी सैनिकों से बात की। उसने क्रांतिकारी सैनिकों से स्पष्ट कहा- ‘मेरे पास इतना धन नहीं है कि मैं तुम्हें वेतन दे सकूं। न मेरे पास कोई सल्तनत है जिसकी अमलदारी में तुम्हें रख सकूं। ‘
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क्रांतिकारी सिपाहियों ने बादशाह से कहा- ‘हम अपना मजहब और विश्वास बचाने के लिए जमा हुए हैं। हमें बादशाह से वेतन नहीं चाहिए। हम आपके पाक कदमों पर अपनी जान कुर्बान करने आए हैं, आप तो केवल हमारे सिर पर हाथ रख दें।’
बादशाह ने उनकी यह बात मान ली। इस प्रकार 12 मई 1857 को मेरठ से आए क्रांतिकारियों के अनुरोध पर बहादुरशाह जफर ने क्रांति का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। बादशाह की तरफ से एक ऐलान जारी किया गया कि- ‘यह एक मजहबी जंग है और मजहब के नाम पर लड़ी जा रही है। इसलिए तमाम शहरों और गांवों के हिन्दुओं और मुसलमानों का फर्ज है कि वे अपने-अपने मजहब और रस्मो-रिवाज पर कायम रहें और उनकी हिफाजत करें।’
दिल्ली में खूनी क्रांति करने के इच्छुक क्रांतिकारी सैनिकों ने लाल किले में प्रवेश करके बादशाह को 21 तोपों की सलामी दी तथा उसे फिर से सम्पूर्ण भारत का बादशाह घोषित कर दिया। लाल किले पर एक बार फिर से मुगलों का झण्डा गर्व से फहराने लगा। क्रांतिकारी सैनिकों के अनुराध पर बादशाह ने दिल्ली के अंग्रेज अधिकारियों को लिखित आदेश भिजवाए कि वे दिल्ली में स्थित समस्त अंग्रेजी शस्त्रागार बादशाह को सौंप दें। दिल्ली के अंग्रेज अधिकारियों ने बादशाह के ये आदेश मानने से मना कर दिया। इस पर शस्त्रागारों में नियुक्त भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों से बगावत करके उन्हें मारना आरम्भ कर दिया। अंग्रेज अधिकारी समझते थे कि यदि दिल्ली के शस्त्रागारों का गोला-बारूद क्रांतिकारी सैनिकों के हाथों में पहुंच गया तो अंग्रेजों के शासन को समाप्त होने से नहीं रोका जा सकेगा। इसलिए दिल्ली के अंग्रेज अधिकारियों ने दिल्ली में स्थित समस्त शस्त्रागारों में स्वयं ही आग लगा दी। इन शस्त्रागारों में रखे बारूद में विस्फोट हो जाने से पूरी दिल्ली धमाकों से दहल गई। क्रांतिकारी सैनिकों ने कर्नल रिपले सहित अनेक अँग्रेज अधिकारियों को मार डाला तथा दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
अंग्रेज अधिकारियों के शस्त्र छीनकर क्रांतिकारी सैनिकों में बांट दिए। भले ही क्रांतिकारी सैनिकों के हाथ शस्त्रागारों का गोला-बारूद नहीं लग सका फिर भी यह क्रांतिकारी सैनिकों की बहुत बड़ी विजय थी क्योंकि एक तरह से उन्होंने दिल्ली के अंग्रेज अधिकारियों को निहत्था कर दिया था।
क्रांतिकारी सैनिकों ने दिल्ली में स्थित उन समस्त अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया जिन्होंने क्रांतिकारी सैनिकों का विरोध किया। 12 मई से 16 मई 1857 तक की अवधि में दिल्ली को पूरी तरह से अंग्रेजों से मुक्त करवा लिया गया। दिल्ली के समस्त सरकारी भवनों पर बादशाह का नीला झण्डा लहराने लगा।
बहादुरशाह ने दिल्ली में इस क्रांति का नेतृत्व नाम-मात्र के लिये किया। वास्तविक नेतृत्व उसके सेनापति बख्त खाँ ने किया जिसकी बाद में 13 मई 1859 को अँग्रेजों से युद्ध करते हुए मृत्यु हुई। मेरठ तथा दिल्ली के समाचार अन्य नगरों में भी पहुँचे जिससे उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में विद्रोह फैल गया।
पेशवा नाना साहब (द्वितीय) ने कानपुर पर अधिकार करके स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया। बुन्देलखण्ड में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने, मध्य भारत में तात्या टोपे नामक मराठा ब्राह्मण ने तथा बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवरसिंह ने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया। अवध, कानपुर, आगरा, अलीगढ़, बरेली, मथुरा आदि नगर विद्रोह के प्रमुख केन्द्र बन गये।
दिल्ली क्रांति का मुख्य केन्द्र थी। क्रांतिकारी सैनिक पूर देश से आ-आकर दिल्ली में जमा होने लगे। उनके रेले के रेले आते जाते थे और दिल्ली की रिज पर एकत्रित होते जाते थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने दिल्ली की जनता को अपने पक्ष में करने के लिए चांदनी चौक पर एक सभा की तथा उसमें दिल्ली के लोगों से पूछा- ‘भाइयो! क्या तुम मजहब वालों के साथ हो?’
मजहब नामक मुद्रा हर युग में और धरती के हर कौने पर कभी न बंद होने वाली मुद्रा है, जिसे कभी भी चलाया जा सकता है। यहाँ भी बखूबी चल गई। दिल्ली में खूनी क्रांति के समय मजहब का सिक्का तेजी से चलने का एक कारण यह भी था कि अंग्रेजों ने कुछ ही समय पहले दिल्ली के समस्त मदरसों को बंद कर दिया था। इसलिए दिल्ली के मुसलमानों को लगता था कि अंग्रेज उनके मजहब को नष्ट करना चाहते हैं।
विलियम डेलरिम्पल ने लिखा है कि यद्यपि क्रांतिकारी सैनिकों में अधिकतर हिन्दू थे तथापि दिल्ली में जेहाद का ऐलान जामा मस्जिद से किया गया। बहुत से बागी सिपाही जो कि हिन्दू थे, स्वयं को मुजाहिद, गाजी और जिहादी कहते थे। देश भर से आने वाले इन क्रांतिकारियों की संख्या बढ़ती ही चली गई जो बड़े गर्व से स्वयं को मुजाहिद, जिहादी और गाजी कहते थे। ये सब मरने-मारने की इच्छा से आए थे और दिल्ली में खूनी क्रांति के बल पर भारत से अंग्रेजों का राज्य मिटाना चाहते थे।
ग्वालियर से आए गाजियों अर्थात् क्रांतिकारी सैनिकों के एक दल ने खुदकुशी करने की इच्छा व्यक्त की। अर्थात् उन्होंने घोषणा की- ‘वे दिल्ली में भोजन नहीं करेंगे। वे यहाँ भोजन करने नहीं आए हैं अपितु काफिर अंग्रेजों को नष्ट करने के लिए आए हैं। इसलिए हम केवल लड़ेंगे और जंग खत्म होने तक लड़ते रहेंगे। वे जो मरने के इरादे से आते हैं, उन्हें खाने की कोई जरूरत नहीं है।’
दिल्ली से भागे अंग्रेज अधिकारियों ने दिल्ली की निकटवर्ती पहाड़ी पर शरण ले रखी थी। उन्हें लगता था कि जनरल व्हीलर कानपुर से अंग्रेज सेना लेकर दिल्ली के लिए निकल पड़ा है किंतु उन्हें ज्ञात नहीं था कि पेशवा नाना साहब तथा अवध के सैनिकों ने व्हीलर से हथियार रखवा लिए हैं।
अंग्रेज अधिकारियों के बीच में यह अफवाह भी फैल गई थी कि ईरान से दो सेनाएं दिल्ली के अंग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों की सहायता के लिए आ रही हैं। इनमें से एक सेना खैबर दर्रे से तथा दूसरी सेना उत्तर-पूर्वी समुद्री मार्ग से चलकर बम्बई होते हुए दिल्ली पहुंचेगी किंतु ये केवल अफवाहें थीं, ऐसी कोई सेनाएं थी ही नहीं!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता