भारतीय साहित्य, चित्रकला एवं मूर्तिकला में किन्नर अथवा किम्पुरुष अत्यंत प्राचीन काल से उपस्थित हैं। पुराणों में भी किन्नर अथवा किम्पुरुष मौजूद हैं तथा प्राचीन मंदिरों के बार बनी मूर्तियों में प्रुखता के साथ स्थान लिए हुए हैं।
किन्नर (किं नरः) का शाब्दिक अर्थ है- ‘क्या (यह) नर है?’ अर्थात् किन्नर शब्द से ही ऐसा आभास होता है कि किन्नर में नर के होने का संकेत है। साहित्य में किन्नर, शब्द का पर्यायवाची शब्द ‘ किम्पुरुष ’ भी मिलता है।
कुछ पुराणों में मुनि कर्दम के पुत्र इल की कथा मिलती है जिसने माता पार्वती के द्वारा शापित होने पर स्त्री योनि पाई और पार्वती की कृपा से वह अपने जीवन में आधा समय स्त्री बनकर तथा आधा समय पुरुष बनकर जिया। राजा इल के साथ जो सैनिक थे, वे भी माता पार्वती के श्राप से स्त्री हो गए थे किंतु बाद में देवी पार्वती ने उन्हें किन्नरी बनाकर पर्वत पर निवास करने तथा कुछ काल के बाद किम्पुरुषों को पति के रूप में पाने का वरदान दिया। इस प्रकार किन्नर एवं किम्पुरुष जाति अस्तित्व में आई।
रामायण तथा कुमार सम्भव में ‘किन्नर-किन्नरी’ तथा ‘किम्पुरुष-किम्पुरुषी’ शब्दों से सम्बोधित किया गया है। इससे आभास होता है कि इन ग्रंथों के रचयिताओं की दृष्टि में न केवल ‘किन्नर’ और ‘किम्पुरुष’ शब्द पर्यायवाची थे अपितु वे एक ही प्रकार के जीवों पर समान रूप से लागू भी होते थे।
भारतीय साहित्य में मानव तथा अश्व के मिले-जुले शरीर वाले जीव को ‘किन्नर’ माना गया है। इसीलिए उन्हें ‘तुरग-नर’ भी कहा गया है। प्रायः इन्हें ‘अश्वमुखी मानव’ माना जाता है। अर्थात् गले तक मानव के धड़ पर अश्व का मुख। अश्वमुखी यक्षी (किन्नरी) के उल्लेख बौद्ध जातक कथाओं में मिलते हैं। गुप्तकाल तक भारतीय वाङ्मय में प्रायः किन्नर की केवल एक प्रकार की आकृति (अश्वमुखी मानव) की ही कल्पना की गई थी। गुप्तकालीन शिल्पग्रंथ ‘विष्णुधर्माेत्तर पुराण’ में कहा गया है कि किन्नर दो प्रकार के थे- (1) पहले वे जिनके मुख अश्व के और धड़ मानव के थे, (2) दूसरे वे जिनके सिर मानव के और शेष शरीर अश्व के थे-
विष्णुधर्माेत्तरपुराण में इन दोनों प्रकार के जीवों को किन्नर ही कहा गया है। आगे चलकर कतिपय कोशकारों ने ‘अश्वमुखी मानव’ को किन्नर तथा ‘मानवमुखी अश्व’ को किम्पुरुष कहा-
किंपुरुषः स च अश्वाकारजघनः नराकारमुखः।
किन्नरस्तु अश्वाकारवदनः नराकारजघनः इतितयोर्भेदः।।
कोशकारों ने किन्नर अथवा किम्पुरुष की इस पहचान के पीछे किसी प्रकार का आधार अथवा तर्क प्रस्तुत नहीं किया है।
विष्णुधर्माेत्तर पुराण की रचना गुप्तकाल में हुई किंतु इससे भी बहुत पहले से इन दोनों प्रकार के किन्नरों के अंकन भारतीय मूर्ति कला तथा मृण्मूर्ति कला में होते थे। शुंग कालीन मूर्तियों में इन्हें स्पष्ट देखा जा सकता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण का शिल्पशास्त्री भारतीय कला में उपलब्ध किन्नरों के दोनों स्वरूपों से परिचित था। इसीलिए उसने उन दोनों का वर्णन किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः नृवक्त्राहयविग्रहाः। नृदेहाश्चाश्ववक्त्राश्च तथान्ये परिकीर्तिताः।। कहकर उन दोनों स्वरूपों की भिन्नता प्रकट कर दी ।
चूँकि किन्नर और किम्पुरुष शब्द पर्यायवाची थे और पूर्ववर्ती ग्रंथों-रामायण तथा कुमारसम्भव में दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अवसर पर एक ही प्रकार के लिए किया जा चुका था, संभवतः इसीलिए विष्णुधर्माेत्तरपुराण के रचयिता ने उनके दो भिन्न-भिन्न प्रकार बतलाकर भी उन दोनों को किन्नर ही कहा। परवर्ती कोशकारों को साहित्य के इन दो शब्दों (किन्नर अथवा किम्पुरुष) की तथा भारतीय मूर्तिकला में किन्नरों के दो प्रकार की भिन्न आकृतियों के अंकनों की जानकारी थी, इसीलिए उन्होंने एक को ‘किन्नर’ और दूसरे को ‘किम्पुरुष’ कहकर दोनों की भिन्न-भिन्न पहचान सुनिश्चित कर दी और इस प्रकार विष्णुधर्माेत्तर पुराण में उल्लिखित किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः, की पुष्टि कर दी।
आकृति-भिन्नता के आधार पर इन कोशकारों ने किन्नर और किम्पुरुष में जो भेद बताए हैं उसके पीछे संभवतः पूर्ववर्ती ऐसे साक्ष्यों को ध्यान में रखा होगा जिनमें अश्वमुखी मानव को किन्नर कहा गया है। जातक कथाओं तथा बौद्ध साहित्य में अश्वमुखी यक्षी को किन्नरी भी कहा गया है। इसी आधार पर मोनिअर विलियम्स और गुनवेडेल जैसे विद्वानों ने भी किन्नरों की पहचान अश्वमुखी मानव से की है। चूँकि अश्वमुखी मानव के रूप में किन्नर की पहचान पहले से मानी गई थी, शायद इसीलिए इन कोशकारों ने मानवमुखी अश्व को किम्पुरुष कहकर इन दोनों को अलग-अलग कर दिया।
‘अश्वमुखी नारी’ तथा ‘पुरुष सवार से संयुक्त मानवमुखी अश्विनी’ के मृण्फलक विभिन्न स्थानों पर पाए गए हैं। मानव पुरुष के साथ अश्वमुखी नारी को अंकित करने वाला एक मृण्फलक बड़ौदा-संग्रहालय में है। मानव सवार को अपनी पीठ पर बिठाए मानवमुखी अश्विनी वाले गोल मृण्फलक कौशाम्बी, मथुरा तथा राजघाट (सभी उत्तर प्रदेश) से मिले हैं।
ऐसा ही एक गोल मृण्फलक रोम (इटली) के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। अहिच्छत्रा (उत्तर प्रदेश के बरेली) से भी इसी विषय को अंकित करने वाला एक मृण्फलक मिला है जो गोल न होकर चौकोर है। रजघाट और अहिच्छत्रा के मृण्फलकों को कुछ विद्वान गुप्तकाल का तथा कुछ अन्य शुंगकाल का मानते हैं। इन दो को छोड़कर शेष सभी प्रस्तर तथा मृण्फलक शुंगकाल के माने गए हैं।
प्रस्तर मूर्तिकला तथा मृण्मूर्तिकला के इन फलकों में अश्व की गर्दन के ऊपर एक नारी का कटि से लेकर मुख तक का भाग दिखाई देता है। ये नारियाँ आकर्षक केशसज्जा तथा नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत दिखायी गयी हैं। उनके हाथों में मालाएँ और दर्पण हैं जो उनकी शृंगार-प्रियता के प्रतीक हैं।
अश्वमुखी नारी (यक्षी) के अंकन भाजा (महाराष्ट्र), साँची (मध्य प्रदेश), मथुरा (उत्तर प्रदेश) तथा बोधगया (बिहार) के उत्कीर्ण शिल्प में और मानवमुखी अश्विनी के अंकन नासिक (महाराष्ट्र), साँची तथा मथुरा के उत्कीर्ण शिल्प में देखे जा सकते हैं। मानवमुखी अश्विनी की पीठ पर मानव सवार भी दिखाया गया है। साँची-शिल्प में कुछ अंकन ऐसे भी मिले हैं जिनमें मानवमुखी अश्व की पीठ पर एक नारी को बैठे दिखाया गया है।
भारतीय संस्कृति में त्यौहारों एवं शादी-विवाहों में विभिन्न पशु-काठियों के लोकनृत्य आोजित किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा एवं तमिलनाडु सहित भारत के विभिन्न प्रदेशों में लकड़ी की घोड़ी बनाकर कच्छी घोड़ी अथवा लिल्ली घोड़ी का नृत्य किया जाता है। गुजरात में घोड़ी के साथ-साथ बैल तथा ऊँट की काठियां बनाई जाती हैं तथा उन्हें विशेष अवसरों पर नचाया जाता है।
पशु-काठियों के लोकनृत्य तथा कठपुतलियों के नृत्य में अंतर होता है। पशु-काठियों के लोकनृत्य में विभिन्न पशुओं की काठियां बनाई जाती हैं तथा उन काठियों को अपने शरीर पर बांधकर लोकनर्तक स्वयं नृत्य करता है जबकि कठपुतलियों के नृत्य में पशु की काठी बहुत छोटी बनाई जाती है जिसे लोकनर्तक अपनी अंगुलि पर धागा बांधकर कठपुतली को नृत्य करवाता है। इसमें कलाकार दर्शक के सामने नहीं आता है।
10वीं शताब्दी ईस्वी में सौराष्ट्र के सागरकांठा क्षेत्र में सूर्यपूजा के अवसर पर लकड़ी के अश्व की सजावट करके उसे नचाया जाता था। जिस प्रकार सूर्यपूजा में अश्व का महत्त्व है, उसी प्रकार शिवपूजा में वृषभ अर्थात् बैल का महत्व है। बहुरूपिये कलाकार भगवान शंकर के वाहन नन्दी (बैल) को काठ तथा बाँस की खपच्चियों से बनाकर और कमर में बाँधकर नाचते हैं।
बैल की काठी को भी कच्छी घोड़ी की भाँति ही रंग-बिरंगे कपड़ों, फूल-मालाओं तथा घण्टियों से सजाया जाता है। बैल की काठी बनाकर और सजाकर नचाने की परम्परा महाराष्ट्र में भी है जहाँ इसे ‘भारुण्ड खेल’ कहते हैं। कलाकार अपनी कमर में नन्दी की काठी बांधकर नृत्य करता है।
गुजरात के बड़ोदरा जिले में आदिवासियों में ऊँटनी नचाने का ‘रास’ (तमाशा) प्रचलित है। इस ऊँटनी का ठाट भी काठ और बाँस से बनाकर रंगीन कपड़ों से सजाया जाता है। ऊँटनी बने नर्तक के पैर में घुँघरू बाँध दिए जाते हैं। इस प्रकार गुजरात में घोड़े, बैल तथा ऊँटनी की कठियां बनाकर नृत्य किया जाता है।
इण्डोनेशिया के हिन्दुओं में भी गुलंगान पर्व के अवसर पर शूकर की आकृति बनाई जाती है और सार्वजनिक रूपों से नचाई जाती है। इस आकृति में एक बड़ा सा काला कपड़ा होता है जिसमें आगे की ओर शूकर का बड़ा सा मुखौटा लगा होता है। इस कपड़े में दो कलाकार थोड़ी दूरी पर एक साथ छिपे रहते हैं, एक मुंह की तरफ तथा दूसरा पूंछ की तरफ। यह शूकर घर-घर जाकर नृत्य का प्रदर्शन करता है। इसे बारोंग कहा जाता है। मान्यता है कि ‘बारोंग’ गलुंगान के पर्व पर धरती से बुरी आत्माओं के सफाए के लिए हर वर्ष धरती पर आता है। इसे लिल्ली घोड़ी का ही एक रूप माना जा सकता है।
इस प्रकार पशु-काठियों के लोकनृत्य भारतीय संस्कृति की अत्यंत प्राचीन परम्परा है जो आज तक विभिन्न रूपों में जीवित है।
लिल्ली घोड़ी भारत का एक प्राचीन लोकनृत्य है जिसे सार्वजनिक समारोहों में खुले मंच पर अथवा लोगों की भीड़ के बीच में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाता है। लिल्ली घोड़ी लोकनृत्य में लोकगीत, लोकाख्यान, लोकवाद्य और लोकसंगीत का अद्भुत सामंजस्य होता है। यह एक सामूहिक नृत्य है जिसमें दो या दो से अधिक नर्तक भाग लेते हैं। कभी-कभी कोई कलाकार अकेले ही इस कला का प्रदर्शन करता है। यह विवाह समारोहों से लेकर होली, दीपावली जैसे पर्वों पर भी आयोजित किया जाता है।
लिल्ली घोड़ी नृत्य के नाम
लिल्ली घोड़ी नृत्य को भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के कुछ भागों में इसे लिल्ली घोड़ी कहा जाता है तथा राजस्थान एवं गुजरात में कच्छी घोड़ी कहा जाता है। ‘लिल्ली’ शब्द ‘लीला’ से बना है जिसका अर्थ है- अभिनय अथवा क्रीड़ा। इस प्रकार लिल्ली घोड़ी का अर्थ हुआ- ‘लीला करने वाली घोड़ी’।
इस लोकनृत्य में कलाकार अपनी कमर पर काठ से बनायी गई एक घोड़ी बांधता है जिसके कारण इसे ‘कट्ठी घोड़ी’ भी कहा जाता है। ‘कट्ठी घोड़ी’ शब्द ही घिसकर ‘कच्छी घोड़ी’ बन गया प्रतीत होता है। राजस्थान में इस लोकनृत्य को ‘धांचा घोड़ी’ अर्थात् नाचने वाली घोड़ी भी कहा जाता है। गोवा में इसे ‘घोड़मोदनी’ अर्थात् मनोरंजन करने वाली घोड़ी कहा जाता है।
उड़ीसा में इस लोकनृत्य का पारम्परिक नाम ‘चैती घोड़ी’ है। चैत्र माह में फसल पकने पर ग्रामवासी इस लोकनृत्य का आयोजन करते हैं, संभवतः इसीलिए इसे चैती घोड़ी कहा जाता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इसे ‘दुलदुल’ कहा जाता है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु के तंजाउर तथा मदुरई क्षेत्रों में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य अत्यन्त लोकप्रिय है। मदुरई में चार स्त्री-पुरुष मिलकर एक साथ कच्छी घोड़ी नृत्य करते हैं जिसे ‘पूर्वीअतम’ या पूर्वीओट्टम कहा जाता है।
लिल्ली घोड़ी का निर्माण
लिल्ली घोड़ी लकड़ी, बाँस, घास और कपड़े से बनाई जाती है। बिना पैरों वाली घोड़ी का एक खोखला ढांचा या पोली काठी बनाई जाती है जिसकी पीठ से लेकर पेट तक आरपार बड़ा गोल छेद रखा जाता है। यह छेद इतना चौड़ा बनाया जाता है कि इसमें से नर्तक पुरुष या स्त्री नीचे से सिर डालकर घुस सके तथा अपना कमर से ऊपर का भाग काठी के ऊपर निकाल सके।
घोड़ी की काठी का बाहरी भाग रंगीन कपड़ों की झूल एवं झालरों से सजाया जाता है। काले रंग की सूतली से पूँछ लगाई जाती है और कपड़े एवं खपच्चियों की सहायता से घोड़ी का मुख बनाया जाता है। घोड़ी के मुख को कपड़े से लपेटकर घोड़ी के अलंकरणों जैसे माला, नकेल, कलँगी आदि से सजाया जाता है। इस घोड़ी के मुख में लगाम भी डाल दी जाती है।
रंगीन बेल-बूटों वाली लम्बी-चौड़ी झूल को घोड़ी की काठी पर डाल दिया जाता है जो नर्तक के पैरों को ढकती हुई भूमि तक लटकती है। नृत्य करते समय नर्तक इस काठी में घुसकर अपना धड़ भाग काठी से ऊपर निकाल लेता है तथा काठी को कसकर अपनी कमर के चारों ओर बाँध लेता है। जब वाद्य बजते हैं तो नर्तक घोड़ी की लगाम अपने हाथों में पकड़कर इस प्रकार हिलाता है जैसे किसी घोड़ी को हांका जाता है।
नृतक अपने दूसरे हाथ में लकड़ी की एक तलवार पकड़े रहता है तथा उसे इस तरह घुमाता रहता है जैसे कोई योद्धा रणक्षेत्र में युद्ध कर रहा हो। इसके बाद नर्तक अपने पैरों पर नृत्य करता हुआ ऐसा अभिनय करता है मानो कोई घोड़ी अपनी पीठ पर घुड़सवार को बिठाकर स्वयं उछल-कूद कर नृत्य कर रही हो। नर्तक के पैरों में बँधे घुँघरू की रुनझुन, ढोल तथा मंजीरे की ध्वनि से मिलकर सम्मोहक वातावरण उत्पन्न करती है।
देशव्यापी परम्परा
लिल्ली घोड़ी अथवा कच्छी घोड़ी से मनोरंजन करने की परम्परा भारत के कई प्रांतों में देखने को मिलती है। उत्तरी भारत में कुछ लोग गांवों में घूम-घूमकर लिल्ली घोड़ी नृत्य दिखाते हैं और उससे अपनी आजीविका चलाते हैं। ग्रामवासी उन्हें अनाज अथवा पैसे देते हैं। विवाह के अवसर पर जनवासे से लड़की के घर तक बारात के आगे-आगे इन सजे-सजाए घोड़ों अथवा घोड़ियों को भाँति-भाँति से दौड़ाया, कुदाया और नचाया जाता है। पहले गांवों में लिल्ली घोड़ी का नृत्य वर्ष में कई बार देखने को मिल जाता था किंतु धीरे-धीरे लोगों में इसके प्रति रुझान कम होता जा रहा है।
राजस्थान में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य की परम्परा सर्वाधिक लोकप्रिय है। वहाँ कई पिछड़ी जातियों में इस नृत्य के कलाकार मिलते हैं। राजस्थान में कच्छी घोड़ी के नर्तक योद्धा की वेशभूषा में हाथों में भाला तथा तलवार लेकर घोड़ी का नृत्य करते हैं जिससे उनमें रणवीर होने का भाव प्रकट होता है।
गुजरात में भी कच्छी घोड़ी की परम्परा बहुत लोकप्रिय है। वहाँ प्रायः आदिवासी जातियों के कलाकार इस नृत्य को करते हैं। उत्तरी गुजरात के वडगाम के निकट चांगा गांव में तथा दक्षिण गुजरात के डेडियापाड़ा तालुका के अलमावाड़ी ग्राम में ये आदिवासी कलाकार स्थायी बड़ी संख्या में रहते हैं। ये लोग होली पर कच्छी घोड़ी का नृत्य करने गांव-गांव जाते हैं।
होली माता की मनौती और पूजा में कच्छी घोड़ी, का नृत्य किया जाता है। विवाह के अवसर पर भी बारात के आगे-आगे सजे-सजाए घोड़े-घोड़ी की दौड़ और नृत्य की परम्परा देश के अन्य भागों की भाँति गुजरात में भी पाई जाती है। राजस्थान की भाँति उत्तरी गुजरात में भी घोड़ों के नर्तक योद्धा की वेशभूषा में हाथों में नंगी तलवार लेकर पुत्र-पौत्रों सहित कार्तिक पूर्णिमा को दौड़ते हैं।
ओरछा के मंदिर एवं महल ओरछा राजाओं की भक्ति, शक्ति और स्थापत्य प्रेम के जीवंत प्रमाण हैं। सम्पूर्ण ओरछा नगर पर बुंदेला राजाओं के इतिहास की गहरी छाप है।
ओरछा नगर की स्थापना 15वीं शताब्दी ईसवी में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप सिंह जूदेव ने की थी। उस समय दिल्ली पर क्रूर सुल्तान सिकन्दर लोदी का शासन था। राजा रुद्रप्रताप सिंह जूदेव ने सिकंदर लोदी के अत्याचारों का विरोध किया एवं युद्धक्षेत्र में उतरकर भीषण युद्ध किया था। राजा रुद्रप्रताप सिंह देव ने ही ओरछा का किला भी बनवाया था।
सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जब आगरा पर मुगलों का राज्य हुआ, तब भी ओरछा के राजा अपनी वीरता के लिए पूरे भारत में प्रसिद्ध रहे। जब मुगल बादशाह अकबर ने अपने विद्रोही पुत्र सलीम को समझाने के लिए अपने मित्र अबुल फजल को भेजा था, तब सलीम के कहने पर ओरछा के राजा वीरसिंह बुंदेला ने अबुल फजल की हत्या कर दी। इससे मुगलों एवं बुंदेलों के सम्बन्ध खराब हो गए।
ओरछा नगर में अनेक मंदिर, महल एवं उद्यान बने हुए हैं। बेतवा नदी के किनारे बने एक उद्यान में दो ऊँचे स्तम्भ सावन-भादों कहलाते हैं। नदी के दूसरी तरफ जहांगीर महल, राजमहल, शीशमहल और राय परवीन के महल स्थित हैं।
ओरछा नगर में स्थित राजमहल, रायप्रवीण महल, हरदौल बुंदेला की बैठक, हरदौल बुंदेला की समाधि, जहांगीर महल और उसकी चित्रकारी प्रमुख है।
ओरछा के महल बुंदेला राजाओं की वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। महलों के खुले गलियारे, पत्थरों से बनी जालियाँ, पशु-पक्षियों की मूर्तियां, बेल-बूटे बहुत आकर्षक हैं। महल के प्रवेश द्वार पर दो झुके हुए हाथी बने हुए हैं। इस महल का निर्माण वीरसिंह बुंदला ने करवाया था।
राजमहल ओरछा के सबसे प्राचीन स्मारकों में एक है। इसका निर्माण मधुकर शाह बुंदेला ने 17वीं शताब्दी ईस्वी में करवाया था। राजा वीरसिंह जुदेव बुंदेला उन्हीं के उत्तराधिकारी थे। यह महल छतरियों और बेहतरीन आंतरिक भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध है। महल में धर्म ग्रन्थों से जुड़ी तस्वीरें भी देखी जा सकती हैं।
यह महल राजा इन्द्रमणि बुंदेला की खूबसूरत गणिका प्रवीणराय की याद में बनवाया गया था। वह अच्छी कवयित्री तथा संगीतज्ञ थी। जब अकबर को प्रवीणराय की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसे दिल्ली बुलवाया गया किंतु प्रवीणराय बुंदेला राजा इन्द्रमणि से प्रेम करती थी। वह अकबर से अनुमति लेकर वापस ओरछा लौट आई। प्रवीणराय का दो-मंजिला महल प्राकृतिक उद्यान से घिरा है।
राजमहल के निकट चतुर्भुज मंदिर स्थित है जो ओरछा का मुख्य आकर्षण है। यह मंदिर चार भुजाधारी भगवान विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण ओरछा के राजा मधुकरशाह बुंदेला (ई.1554-1591) ने करवाया था। मधुकरशाह बुंदेला की रानी गणेश कुंवरि के महल में रामराजा सरकार विराजमान हैं, उसी को रामराजा मंदिर कहा जाता है।
ओरछा के राजाओं ने पालकी महल के निकट फूलबाग का निर्माण करवाया। फूलों का यह उद्यान चारों ओर पक्की दीवारों से घिरा है। यह उद्यान बुंदेला राजाओं का विश्रामगृह था। फूलबाग में एक भूमिगत महल और आठ स्तम्भों वाला मंडप है। यहाँ के चंदन कटोर से गिरता पानी झरने के समान दिखाई देता है।
राजा जुझार सिंह बुंदेला के पुत्र धुरभजन बुंदेला ने भी एक सुन्दर महल बनवाया था। धुरभजन की मृत्यु के बाद उन्हें संत के रूप में जाना गया। अब यह महल क्षतिग्रस्त अवस्था में है।
ईस्वी 1622 में वीरसिंह जुदेव बुंदेला ने लक्ष्मीनारायण मंदिर बनवाया। यह मंदिर ओरछा गांव के पश्चिम में एक पहाड़ी पर बना है। मंदिर में सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के भित्तिचित्र बने हुए हैं। चित्रों के चटकीले रंग आज भी अच्छी दशा में हैं। मंदिर में झांसी की लड़ाई के दृश्य और भगवान कृष्ण की आकृतियां भी बनी हुई हैं।
ईस्वी 1742 तक झांसी भी ओरछा राज्य में था किंतु मराठा सेनापति नारोशंकर मोतिवाले ने ओरछा पर हमला करके ओरछा नरेश पृथ्वीसिंह बुंदेला को बंदी बना लिया तथा अलग झांसी राज्य बनाया। ईस्वी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में जिस प्रकार झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से युद्ध किया था उसी प्रकार ओरछा की महारानी ने भी अंग्रेजों से युद्ध किया था। ओरछा झांसी से 15 किलोमीटर की दूरी पर है।
ओरछा में बेतवा नदी सात धाराओं में बंटती है, जिसे सतधारा कहते हैं। ओरछा में वन्यजीवों के सरंक्षण के लिए एक अभयारण्य स्थापित किया गया है जो लगभग 45 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।
ओरछा के रामराजा सरकार रानी गणेश कुंविर के पुत्र माने जाते हैं। रानी गणेश कुंवरि ने भगवान राम को पुत्र के रूप में पूजा और उन्हें अपना पुत्र बनाकर अयोध्या से ओरछा ले आईं! यह ऐतिहासिक घटना सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में घटित हुई।
भगवान के करोड़ों-करोड़ भक्तों ने भगवान को अपनी-अपनी आस्था के रूप में पूजा और पाया है। सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रभाव के कारण हिन्दू महिलाओं में वात्सल्य एवं भक्ति दोनों ही प्रकार के भाव संसार की अन्य महिलाओं की अपेक्षा अधिक होते हैं। इसलिए हिन्दू महिलाओं में भावुकता की भी अधिकता होती है। कई बार यह भावुकता ऐसे अनोखे कार्य करवा देती है जो किसी प्रकार के बुद्धिबल, बाहुबल एवं धनबल से किए जाने संभव नहीं है।
ऐसी ही एक अनोखी घटना आज से चार सौ साल पहले ओरछा में घटित हुई थी जब ओरछा की रानी गणेश कुंवरि अयोध्या के राजा रामचंद्र को अपना पुत्र बनाकर ओरछा ले आई थीं। पुत्र होने के कारण राम ही ओरछा के राजसिंहासन पर बैठे तथा उन्हें ओरछा के रामराजा सरकार के नाम से जाना गया। इस घटना के पीछे एक अनोखा इतिहास छिपा हुआ है।
मधुकरशाह बुंदेला ईस्वी 1554 से 1592 तक ओरछा का राजा था। कहा जाता है कि एक दिन राजा मधुकरशाह बुंदेला ने अपनी रानी गणेश कुंवरि राजे से वृंदावन चलने को कहा किंतु रानी ने अयोध्या जाने के लिए कहा। राजा ने पुनः वृंदावन जाने की इच्छा व्यक्त की किंतु रानी ने अयोध्या जाने की जिद पकड़ ली। इस पर राजा मधुकरशाह ने झुंझलाकर कहा कि यदि तुम इतनी ही रामभक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ।
राजा के ऐसा कहने पर ओरछा की रानी गणेश कुंवरि भगवान को लाने के लिए अयोध्या चली गईं। उन्हें पूरा विश्वास था कि भगवान राम उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तथा राजा के सामने उनकी बात नहीं गिरेगी।
उन दिनों संत तुलसीदास भी अयोध्या में साधनारत थे। रानी गणेश कुंवरि ने तुलसीदासजी के दर्शन किए तथा उनसे आशीर्वाद लेकर सरयू नदी के किनारे स्थित लक्ष्मण टीले के निकट कुटी बनाकर साधना करने लगीं।
रानी ने भगवान राम से प्रार्थना की कि जिस तरह वे कौसल्या के पुत्र बनकर अयोध्या में रहे, उसी तरह वे मेरे पुत्र बनकर ओरछा चल कर रहें। रानी को कई महीनों तक रामराजा के दर्शन नहीं हुए। एक दिन जब रानी ने स्नान करते समय सरयू नदी में डुबकी लगाई तो नदी के तल में उन्हें रामराजा के एक विग्रह के दर्शन हुए। रानी ने भगवान से कहा कि वे मेरे पुत्र बनकर ओरछा चलें। रामराजा ने दो शर्तों पर ओरछा चलना स्वीकार किया। पहली शर्त यह थी कि अयोध्या से ओरछा तक पैदल यात्रा करनी होगी। दूसरी शर्त यह थी कि यात्रा केवल पुष्य नक्षत्र में होगी।
रानी ने भगवान की दोनों बातें शिरोधार्य कर लीं तथा ओरछा महाराज मधुकरशाह बुंदेला को संदेश भेजा कि वे रामराजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं। राजा मधुकरशाह बुंदेला ने रामराजा के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण करवाना आरम्भ किया।
जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल की भोजनशाला में रखवा दी ताकि किसी शुभ मुर्हूत में रामाजा की प्रतिमा को चतुर्भुज मंदिर में रखकर प्राण प्रतिष्ठा की जा सके। जब मंदिर बनकर पूरा हो गया तब रामराजा के विग्रह को मंदिर में प्रतिष्ठित करने हेतु उठाया गया किंतु रामराजा का विग्रह वहाँ से नहीं उठा। मान्यता है कि चूंकि रानी भगवान को अपने पुत्र के रूप में ओरछा लाई थीं, इसलिए भगवान ने अपनी माता का महल छोड़ना स्वीकार नहीं किया।
रामराजा को उसी महल में प्रतिष्ठित रहने दिया गया जहाँ वे आज भी विराजमान हैं। ओरछा के रामराजा सरकार की प्रतिमा मंदिर की ओर मुंह न होकर महल की ओर मुंह किए हुए है। रामराजा के लिए बनाये गये चतुर्भुज मंदिर में आज भी कोई विग्रह नहीं है।
मान्यता है कि संवत 1631 में जिस दिन ओरछा के रामराजा सरकार का आगमन हुआ, उसी दिन गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस का लेखन प्रारंभ किया। यह भी मान्यता है कि भगवान विष्णु की जो मूर्ति ओरछा के रामराजा के रूप में विद्यमान है वह मूर्ति भगवान राम ने उस समय माता कौशल्या को दी थी, जब भगवान राम वनवास के लिए जा रहे थे। माँ कौशल्या उसी मूर्ति को भोग लगाया करती थीं। कुछ भक्तों की मान्यता है कि जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्याजी ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। वही मूर्ति रानी गणेश कुंवरि राजे को सरयू नदी में मिली थी।
वस्तुतः जब मुसलमानों ने अयोध्या पर आक्रमण किया था, उस समय भगवान राम एवं अन्य देवी-देवताओं की सैंकड़ों मूर्तियां सरयू नदी में छिपा दी गई थीं ताकि मुस्लिम आक्रांता उन्हें भंग न कर सकें। आज भी भक्तों को यदा-कदा ये मूर्तियां प्राप्त होती रहती हैं। ऐसी ही एक मूर्ति कुछ साधुओं को मिली थी जो रामलला के रूप में लगभग 80 साल तक रामजन्म भूमि मंदिर में प्रतिष्ठित रही।
ओरछा के रामराजा सरकार का मंदिर विश्व का एकमात्र मंदिर है, जहाँ भगवान राम की पूजा राजा के रूप में होती है तथा राजा की समस्त मर्यादाओं का पालन किया जाता है। ओरछा में रामचंद्रजी को ओरछाधीश तथा रामराजा सरकार भी कहा जाता है। सूर्याेदय एवं सूर्यास्त के समय भगवान को राजा की तरह गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है।
ओरछा के रामराजा सरकार मंदिर के चारों तरफ हनुमानजी के कई मंदिर हैं जो रामराजा मंदिर के सुरक्षा चक्र के रूप में स्थित हैं। इनमें छडदारी हनुमान, बजरिया के हनुमान, लंका हनुमान आदि प्रमुख हैं। ओरछा में स्थित लक्ष्मी मंदिर, पंचमुखी महादेव, राधिका बिहारी मंदिर भी श्रद्धा के केन्द्र हैं।
ओरछा नगर रामराजा के इसी महल के चारों ओर बसा हुआ है। राम नवमी पर यहाँ देश भर से हजारों श्रद्धालु आते हैं।
हल्दीघाटी के मैदान में जब महाराणा प्रताप के सामंत झाला मानसिंह (झाला मन्ना अथवा झाला बीदा) ने महाराणा को संकट में पड़ा हुआ देखा तो वह महाराणा की ओर दौड़ा। उसने प्रताप के घोड़े पर लगा महाराणा का छत्र उतारकर स्वयं अपने घोड़े पर लगा लिया और शत्रुओं को ललकार कर कहा कि मैं महाराणा हूँ।
महाराणा का छत्र लगाए हुए झाला मन्ना बिना किसी भय के आगे बढ़ने लगा। मुगल सैनिकों में सभी राणा प्रताप को स्वयं पकड़ने अथवा मारने को उत्सुक थे। इसलिए वे सब झाला मानसिंह को महाराणा समझकर उसके पीछे भागे। इस कारण वास्तविक महाराणा प्रताप पर से मुगल सैनिकों का दबाव ढीला पड़ गया।
बलवंतसिंह मेहता ने ‘प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप’ नामक स्मारिका में अपने आलेख ‘हल्दीघाटी स्वतंत्रता-संग्राम’ में लिखा है कि प्रताप की अत्यधिक घायल अवस्था देखकर हकीम खाँ सूरी ने प्रताप से निवेदन किया कि वे युद्ध-क्षेत्र से बाहर निकल जायें किंतु प्रताप ने रणक्षेत्र में ही युद्ध के बीच रहना चाहा।
प्रताप की ऐसी प्रबल इच्छा देखकर हकीम खाँ सूरी, चेटक की लगाम को खींचे आगे बढ़ा जहाँ भामाशाह थे। वे लोग प्रताप को हल्दीघाटी के सुरक्षित स्थान की ओर ले गये। महाराणा के स्वामिभक्त सामंत घायल महाराणा प्रताप को रक्ततलाई से निकालकर हल्दीघाटी होते हुए बाहर ले गये। प्रताप की जगह झाला बीदा के प्राण गये। इस बलिदान के लिये उसने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया था। झाला बीदा के गिरते ही हल्दीघाटी का युद्ध रुक गया।
यह एक आश्चर्य की ही बात है कि मेवाड़ के दो प्रमुख इतिहासकारों गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा श्यालदास ने हल्दीघाटी के युद्ध में झाला मानसिंह द्वारा महाराणा का छत्र धारण किए जाने की घटना का उल्लेख नहीं किया है किंतु कर्नल जेम्स टॉड ने इस घटना को पूरी तरह से साफ करके लिखा है।
आधुनिक इतिहासकारों द्वारा कर्नल टॉड के मत पर ही अधिक विश्वास किया जाता है तथा माना जाता है कि खानवा के मैदान में हुई घटना की पुनरावृत्ति हल्दीघाटी के मैदान में भी हुई। अर्थात् जिस प्रकार खानवा के मैदान में झाला अज्जा ने महाराणा का छत्र एवं राजकीय चिह्न धारण किए थे, उसी प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में झाला मन्ना ने महाराणा का छत्र धारण किया था।
उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में राजपूताने का इतिहास लिखने वाले अंग्रेज अधिकारी कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि महाराणा प्रताप के युद्धक्षेत्र से हट जाने से मेवाड़ी सेना की हिम्मत टूट गयी।
झाला मानसिंह, राठौड़ शंकरदास, रावत नेतसी आदि वीर सेनानियों ने अपने सैनिकों को थोड़ी देर और युद्ध के मैदान में जमाये रखने का यत्न किया परंतु कच्छवाहा मानसिंह की सेना ने मेवाड़ी सैनिकों के पैर जमने नहीं दिये और अंततः मेवाड़ी सेना के बचे हुए लोगों को भी या तो देह छोड़नी पड़ी या मैदान छोड़ना पड़ा। झाला मन्ना अपने 150 सैनिकों के साथ रणखेत रहा।
बीसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में राजपूताना रियासतों का इतिहास लिखने वाले महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि हल्दीघाटी के युद्ध में झाला बीदा, तंवर रामशाह अर्थात् रामसिंह तोमर, रामशाह के तीनों पुत्र, रावत नेतसी (सारंगदेवोत), राठौड़ रामदास, डोडिया भीमसिंह, राठौड़ शंकरदास आदि कई सरदार काम आये।
रामशाह अथवा रामसिंह तोमर ग्वालियर के उसी तोमर राजा विक्रमादित्य का पुत्र था जो ई.1526 में लोदियों की तरफ से बाबर के विरुद्ध लड़ता हुआ पानीपत के मैदान में काम आया था। तब रामशाह बालक ही था। हल्दीघाटी के युद्ध के समय राजा रामशाह लगभग 60 वर्ष का वृद्ध था।
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इस लड़ाई में चित्तौड़ दुर्ग में साका करने वाले जयमल राठौड़ का पुत्र राठौड़ रामदास और ग्वालियर का राजा रामशाह अपने पुत्र शालिवाहन सहित बड़ी वीरता के साथ लड़कर मारे गये। कुछ लेखकों के अनुसार ग्वालियर के तोमर राजवंश का एक भी पुरुष इस युद्ध में जीवित नहीं बचा। जबकि कुछ लेखकों के अनुसार राजा रामशाह का पोता बलभद्र इस युद्ध में घायल तो हुआ पर जीवित बच गया। कच्छवाहा माधवसिंह के विरुद्ध लड़ते समय महाराणा प्रताप पर तीरों की बौछार की गई और हकीम खाँ सूर, जो सैय्यदों से लड़ रहा था, हल्दीघाटी से भागकर महाराणा के पीछे आया तथा महाराणा से मिल गया। इस प्रकार राणा के सैन्य के दोनों विभाग फिर एकत्र हो गये। फिर राणा लौटकर उन विकट पहाड़ों में चला गया, जो किसी दुर्ग के समान सुरक्षित था। तबकाते अकबरी का लेखक निजामुद्दीन अहमद बख्शी, महाराणा के दो घाव, एक तीर का और एक भाले का लगना लिखता है। इलियट ने इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी और अबुल फजल महाराणा प्रताप के घायल होने का उल्लेख नहीं करते।
अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि उष्णकाल के मध्य के इस दिन गर्मी इतनी पड़ रही थी कि खोपड़ी के भीतर मगज भी उबलता था। ऐसे समय लड़ाई प्रातःकाल से मध्याह्न तक चली और 500 आदमी खेत रहे, जिनमें 120 मुसलमान और 380 हिन्दू थे। 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए।
अबुल फजल पहर दिन चढ़े लड़ाई का प्रारम्भ होना लिखता है, जो कि ठीक नहीं है। उदयपुर के जगदीश मंदिर की प्रशस्ति में प्रतापसिंह का प्रातःकाल युद्ध में प्रवेश करना लिखा है, यही विवरण सही है।
अबुल फजल द्वारा अकबर की तरफ के सैनिकों के मरने के सम्बन्ध में दी गई 120 संख्या पूरी तरह अविश्वसनीय है। एक तरफ वह स्वयं ही लिखता है कि दोनों ओर के सैनिकों के शवों से रणखेत पट गया और दूसरी ओर उसने युद्ध में मरने वालों की संख्या 500 ही लिखी है।
इस सम्बन्ध में सैय्यद अहमद खाँ बारहा का एक वक्तव्य विचारणीय है। जब अकबर की सेना के कर्मचारी, युद्ध में मारे गए मुगल सैनिकों एवं घोड़ों की सूची बनाने लगे, तो सैय्यद अहमद खाँ बारहा ने उनसे कहा कि ऐसी फेहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व एक भी आदमी नहीं मारा गया। इस समय तो खाने के सामान का बंदोबस्त करना चाहिये।
सैय्यद अहमद खाँ बारहा के इस वक्तव्य से अनुमान लगाया जाना कठिन नहीं है कि इस युद्ध में बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मारे गये थे और मुगल अधिकारी अकबर तक उनकी सही सूची पहुंचाने से बचना चाहते थे। इस कारण मुगल अधिकारियों द्वारा महाराणा की पराजय और अकबर की विजय सिद्ध करने के लिये युद्ध में मृत मुगल सैनिकों की संख्या चालाकी से छिपा ली गई।
महाराणा का छत्र अजेय रहा एवं शत्रु के मुख पर पराजय की कालिख पुत गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!
हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप वैसा ही था जैसा सांपों के झुण्ड में पक्षीराज गरुड़! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप ऐसा था जैसा दो मुंह वाला योद्धा! हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप वैसा ही था जैसा कौरवों के बीच अर्जुन। हल्दीघाटी का युद्ध कोई सामान्य युद्ध नहीं था। यह हिन्दू गौरव की पराकाष्ठा को प्रतिष्ठित करने वाला था। इस युद्ध की गूंज सदियों तक सुनाई देने वाली थी।
18 जून 1576 को हल्दीघाटी के मैदान में दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते हुए रक्ततलाई तक जा पहुंचे। कहा जाता है कि उस समय इस स्थान का नाम रक्ततलाई नहीं था अपितु दोनों पक्षों के सैनिकों के रक्त के भूमि पर गिरने से यहाँ रक्त की एक तलाई बन गई जिसके कारण इस स्थान का नाम रक्ततलाई पड़ गया।
मध्याह्न पश्चात् महाराणा प्रताप के रक्ततलाई छोड़ने के साथ ही युद्ध रुक गया। महाराणा प्रताप किसी भी हालत में युद्ध-क्षेत्र छोड़ना नहीं चाहता था किंतु हकीम खाँ सूरी तथा भामाशाह महाराणा प्रताप के घोड़े को जबर्दस्ती युद्ध-क्षेत्र से खींच कर ले गए।
महाराणा मुट्ठी भर सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान से निकला था। यदि मुगल सैनिक चाहते तो महाराणा का पीछा कर सकते थे किंतु किसी भी मुगल सेनापति की हिम्मत महाराणा के पीछे जाने की नहीं हुई।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘जिस समय महाराणा प्रताप युद्ध में घायल होकर रक्ततलाई से निकला, उस समय आग के समान भयानक गर्म लू चल रही थी। हमारी सेना में यह खबर फैल गई कि राणा छल करने के लिए पहाड़ के पीछे घात लगाये खड़ा है।
इस कारण हमारे सैनिकों ने राणा का पीछा नहीं किया। वे अपने डेरों में लौट गये और घायलों का इलाज करने लगे।’
हल्दीघाटी का युद्ध निश्चित रूप से दो पक्षों के बीच हुआ। एक पक्ष भारत की सर्वशक्तिशाली मुगल सत्ता का था तथा दूसरा पक्ष भारत के सबसे पराक्रमी और गौरवशाली राजकुल गुहिलों का।
मुगलों की तरफ से लड़ने के लिये मानसिंह के नेतृत्व में कच्छवाहे सरदार तथा मुगल सल्तनत के लगभग समस्त प्रसिद्ध अमीर आये थे जबकि गुहिलों की तरफ से लड़ने के लिये प्रमुख रूप से ग्वालियर के तंवर, मुट्ठी भर चौहान, सोलंकी, डोडिया, समदड़ी के झाला, जालोर के सोनगरे, मेड़तिया राठौड़, भामाशाह, उसका भाई ताराचंद ओसवाल एवं अफगान हकीम खाँ सूरी आये थे।
मुगलों का पक्ष बहुत भारी था और महाराणा के पास बहुत कम सेना थी।
इस प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में यही दो पक्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं किंतु एक तीसरा पक्ष भी इस लड़ाई में मौजूद था जो इन पक्षों के केन्द्र में था, वही मुख्य भूमिका में भी था। वह था कच्छवाहों का राजकुमार मानसिंह, जो इस समय अकबर का सेनापति बनकर आया था।
मानसिंह तथा महाराणा प्रताप का सैंकड़ों साल पुराना रोटी-बेटी का सम्बन्ध था। जिस प्रकार महाराणा के कुल ने हिन्दुओं की बड़ी सेवा की थी, उसी प्रकार मानसिंह के कुल ने भी आगे चलकर हिन्दुओं की बड़ी सेवा की। विशेषतः तब, जब अकबर का वंशज औरंगजेब भारत का शासक बना। तब मानसिंह के वंशजों ने छत्रपति शिवाजी के प्राणों की रक्षा एक से अधिक बार की थी।
इसलिए इस युद्ध में मानसिंह को युद्धरत दो पक्षों में से एक समझने की बजाय तीसरे पक्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि अकबर का सेनापति होते हुए भी मानसिंह अपने पक्ष की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का आकांक्षी था। तीसरे पक्ष के रूप में मानसिंह हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी विजय की स्पष्ट घोषणा करता है।
अकबर का पक्ष प्रमुख रूप से मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी तथा अबुल फजल ने लिखा जबकि महाराणा प्रताप का पक्ष चारण कवियों ने ख्यातों एवं फुटकर रचनाओं में लिखा। अमरकाव्य वंशावली, राजरत्नाकर, जगन्नाथराय प्रशस्ति, राणा रासौ आदि रचनाओं में भी राणा प्रताप का पक्ष अच्छी तरह से रखा गया है।
मानसिंह का पक्ष ऐतिहासिक महाकाव्य ‘मानप्रकाश’ के रूप में सामने आता है जिसकी रचना मानसिंह के दरबारी कवि मुरारीदास ने की थी। वह लिखता है कि दोनों सेनाएं बहुत देर तक युद्ध की भावना से तथा चमकती हुई तलवारों की कांति से उद्दीप्त थीं।
राजा मानसिंह भुज-प्रताप से क्षण भर में विपक्षियों को छिन्न-भिन्न कर, जीत कर अपने प्रताप से वैरी वर्ग को सन्तप्त करता हुआ, इन्द्र के समान सुशोभित हुआ।
जब मानसिंह युद्ध कर रहा था तब उसका छोटा भाई माधवसिंह आ गया। उसने मानसिंह से कहा- राजन्! आप क्षण भर के लिये विश्राम कर लीजिये, इस युद्ध को समाप्त कीजिये। यह कहकर वीर माधवसिंह युद्धाभिमुख हुआ तथा समस्त विपक्षी योद्धाओं को व्यग्र बना दिया। उस समय उसके भय से कोई भी योद्धा, युद्ध के लिये सामने नहीं आया।
माधवसिंह के बाण से अनेक योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये। अनेक राजा दीन हो गये, कुछ युद्ध भूमि छोड़कर भाग गये, कुछ युद्ध करने के लिये कुछ समय तक खड़े रहे। दुर्मद-वीर-वर्य राणा प्रताप, माधवसिंह से लड़ने के लिये सामने आया।
कर्ण के समान प्रतापी राणा प्रताप, अर्जुन के समान शक्तिशाली राजा मान को जीतने की इच्छा से कठोर वचन बोला- माधवसिंह! वीरों को अपने बल से विद्रावित कर तुम इस रणभूमि में जो हर्ष का अनुभव कर रहे हो, मैं अभी क्षण भर में राजा मान सहित तुम्हें हर्षहीन बना दूंगा।
राणा प्रताप के जीवित रहते तुम युवकों की जो जीतने की इच्छा है, वह व्यर्थ ही है। मैं जो कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह जान लो, मैं भगवान विष्णु के चरणों की शपथ खाकर कह रहा हूँ।
इस प्रकार कहकर वीर प्रताप ने उन दोनों को सैंकड़ों बाणों से ढक दिया। आकाश, बाण समूह से आच्छन्न हो गया और वह दिन, दुर्दिन के समान प्रतीत होने लगा।
सर्वप्रथम हाथी से हाथी भिड़ गये तथा घोड़े से घोड़े। पैदल से पैदल लड़ने लगे, इस प्रकार उस समय बराबरी का युद्ध हो रहा था। इस भयंकर संग्राम को देखकर देवताओं का समूह भी आश्चर्य चकित हो गया। शस्त्रों की अधिकता से हुए घने अंधकार में भय से आक्रांत मन व शरीर वाले योद्धा इतस्ततः भागने लगे।
जो जिसके सामने आया, उसने उसे मार डाला। अपने पराये का भेद नहीं रखा गया। राणा की सेना बाणों से छिन्न-भिन्न शरीरा विदेह के समान इतस्ततः दौड़ने लगी। जिस प्रकार बादल जलधारा से भूमि को रोक देता है, उसी प्रकार उस राणा ने पुनः सैंकड़ों बाणों से शूरवीर मानसिंह को रुद्ध कर दिया।
उसके बाणों से आच्छन्न धनुर्धारी युद्ध की कामना से उसके सामने जा खड़ा हुआ। राणा प्रताप के बाणों से उत्पन्न घने अंधकार को दूर करके सूर्य के समान मानसिंह रणभूमि में शत्रुओं के लिये उत्पेक्षणीय हो गया।
खड़ग से काटे गये हाथी और बाणों से छिन्न-भिन्न घुड़सवार वहाँ गिरे हुए थे। महीपालमणि मान के भय से अनेक योद्धा गिर पड़े थे। युद्ध करने वाले योद्धाओं के रक्त की नदी उत्पन्न हो गयी। मरे हुए हाथी महान् पर्वत के समान लग रहे थे तथा योद्धाओं के केश, शैवाल की भांति शोभा दे रहे थे। मानसिंह ने अपने पराक्रम से रणनदी को विशाल बना दिया।
दो मुख वाले व्यक्ति के समान बड़े वेग से आगे तथा पीछे देखता हुआ राणा प्रताप, हत-गति हो गया। राणा प्रताप के पीछे क्रोध से दौड़ते हुए राजा मानसिंह ने भी निष्प्राण के समान इस एक को ही छोड़ा। अर्थात् राणा प्रताप के अतिरिक्त सब को मार डाला।
यह एक अच्छी साहित्यिक रचना है किंतु मानप्रकाश का यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण तो है ही, काफी अंशों में असत्य भी है। साथ ही, राजस्थान में इस युद्ध के सम्बन्ध में जो बातें बहुतायत से और उसी काल से प्रसिद्ध हैं, मानप्रकाश की बातें उनसे भी मेल नहीं खातीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!
जिस प्रकार मानसिंह कच्छवाहा हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की उपलब्धियों से विलग और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का आकांक्षी है। उसी प्रकार ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर का बलिदान भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अभिलाषी है। तंवरों को भारत के इतिहास में तोमरों के नाम से भी जाना जाता है।
राजा रामशाह तंवर, महाराणा प्रताप की बहिन का ससुर था तथा महाराणा उदयसिंह के समय से मेवाड़ का सामंत था। एक समय था जब आगरा का लाल किला ग्वालियर के तोमरों के अधिकार में हुआ करता था किंतु दिल्ली के लोदी सुल्तानों ने तोमरों से आगरा और ग्वालियर के किले छीन लिए थे।
तब से ग्वालियर के तोमर लोदियों के अमीर बन गए थे। ई.1536 में जब रामशाह तंवर की माता ने मुगल शहजादे हुमायूँ को बहुत सारा धन एवं कोहिनूर हीरा देकर अपने परिवार के प्राण बचाए थे, उस समय राजकुमार रामशाह तंवर 9-10 वर्ष का बालक था।
आगरा से निकलकर यह परिवार चम्बल के बीहड़ों में आ गया और बाद में इन्हें मेवाड़ के महाराणाओं का आश्रय मिल गया। तब से ग्वालियर के तोमर मेवाड़ के महाराणाओं के सामंतों के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए थे।
ई.1556 में रामशाह ने ग्वालियर के दुर्ग पर फिर से अधिकार कर लिया। ई.1558 में अकबर ने ग्वालियर पर आक्रमण करके रामशाह को पुनः ग्वालियर से बाहर निकाल दिया।
इस बार भी रामशाह तंवर तथा उसका परिवार महाराणा उदयसिंह की सेवा में मेवाड़ चला आया। महाराणा उदयसिंह ने रामशाह के पुत्र शलिवाहन से अपनी एक पुत्री का विवाह कर दिया तथा रामशाह को प्रतिदिन 800 रुपये की वृत्ति बांधकर 20 लाख रुपये वार्षिक आय की जागीर प्रदान की थी।
जब ई.1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब यही रामशाह तोमर, महाराणा उदयसिंह के साथ पहाड़ियों में गया था।
हल्दीघाटी के मैदान में रामशाह तोमर महाराणा प्रताप के घोड़े के ठीक सामने रहा और रणक्षेत्र में उसने महाराणा की सुरक्षा का दायित्व निर्वहन किया। उसके तीनों पुत्रों- शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह ने भी इस युद्ध में भाग लिया।
उसका एक पुत्र महाराणा की गजसेना का अध्यक्ष था तथा एक पुत्र महाराणा की अश्व सेना का अध्यक्ष था। युद्धक्षेत्र में जगन्नाथ कच्छवाहा ने वीर कुल शिरोमणि रामशाह तंवर के प्राण लिए।
राजकुमार शालिवाहन के नेतृत्व में तोमर वीरों ने मुगलों की सेना पर ऐसा प्रबल धावा किया कि मुगल सेना हल्दीघाटी के मैदान से पांच कोस दूर भाग गई। राजा रामशाह के तीनों पुत्र अपने 300 तोमर वीरों सहित इस युद्ध में रणखेत रहे।
खमनौर तथा भागल के बीच जिस स्थान पर तंवरों की छतरियां बनी हुई हैं, वह स्थान रक्ततलाई कहलाता है क्योंकि यहाँ रामशाह के पुत्रों एवं तोमर सैनिकों ने भयानक मारकाट मचाई जिससे रक्त की तलैया बन गई। वीरवर रामशाह तंवर, उसके पुत्र तथा सैनिक इसी तैलया में अपना रक्त मिलाकर शोणित की वैतरणी पार कर गये।
भारत का इतिहास तंवर वीरों के अमर बलिदान पर गर्व करता है। निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि इस युद्ध में यदि किसी ने सर्वाधिक बलिदान दिया था तो वह रामशाह तंवर तथा उसका परिवार ही था। रामशाह तंवर का बलिदान तोमरों के इतिहास का ठीक वैसा ही गौरवशाली पृष्ठ है जैसा कि तराईन के युद्ध में राजा गोविंद राय तोमर द्वारा दिया गया बलिदान।
कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को अत्यंत महत्त्व देते हुए इसे मेवाड़ की थर्मोपेली और दिवेर युद्ध को मेवाड़ का मेरेथान लिखा है। पाठकों की सुविधा के लिए बताना समीचीन होगा कि दिवेर का युद्ध, हल्दीघाटी युद्ध के सात साल बाद ई.1583 में हुआ था।
आधुनिक काल में कर्नल टॉड को ही हल्दीघाटी युद्ध को प्रसिद्ध करने का श्रेय जाता है। हल्दीघाटी का युद्ध कई प्रकार से थर्मोपेली के युद्ध से बढ़-चढ़कर था। थर्मोपेली के युद्ध में यूनानवासियों की हार तथा लियोनिडास की मृत्यु हुई थी जबकि हल्दीघाटी के युद्ध में मेवाड़वासियों की विजय हुई थी तथा इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जिया था।
थर्मोपेली के युद्ध में यूनानवासियों ने लियोनिडास को धोखा दिया था किंतु हल्दीघाटी के युद्ध में किसी मेवाड़वासी ने प्रताप से धोखा नहीं किया था। इस कारण हल्दीघाटी तथा थर्मोपेली की परस्पर तुलना नहीं की जा सकती किंतु थर्मोपेली के युद्ध तथा उसके नायक लियोनिडास को सम्पूर्ण यूरोप में जो प्रसिद्धि मिली थी, ठीक वैसी ही अपितु उससे भी बढ़कर हल्दीघाटी के युद्ध तथा उसके नायक महाराणा प्रताप को भी विश्वव्यापी प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
पाठकों की सुविधा के लिए थर्मोपेली के बारे में कुछ तथ्य बताने समीचीन होंगे। थर्मोपेली, उत्तरी और पश्चिमी यूनान के बीच एक संकरी घाटी है जिसके बीच की भूमि सपाट है। ई.480 में ईरान के बादशाह जर्कसीज ने बड़े सैन्य दल के साथ यूनान देश पर आक्रमण किया।
उस समय यूनान में भी हिन्दुस्तान की तरह अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य थे, जिन्होंने मिलकर अपने में से स्पार्टा के वीर राजा लियोनिडास को थर्मोपेली की घाटी में 8,000 सैनिकों सहित ईरानियों का सामना करने के लिये भेजा।
ईरानियों ने कई बार उस घाटी को जीतने का प्रयास किया परंतु हर बार उन्हें बड़े नरसंहार के साथ पराजित होकर लौटना पड़ा। अंत में एक विश्वासघाती पुरुष की सहायता से ईरानी लोग पीछे से पहाड़ पर चढ़ आये।
लियोनिडास ने अपनी सेना में से बहुत से सिपाहियों को ईरानियों के पक्ष में मिल जाने के संदेह में केवल 1000 विश्वासपात्र योद्धाओं को अपने पास रखा और शेष को निकाल दिया। लियोनिडास अपने सिपाहियों सहित लड़ता हुआ मारा गया।
उसकी सेना में से केवल एक सैनिक जीवित बचा जिसने इस युद्ध का विवरण यूरोपवासियों को बताया और लियोनिडास सम्पूर्ण यूनान का गौरव बन गया।
हल्दीघाटी युद्ध की भयावहता का वर्णन करते हुए मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने काव्यमय शैली में लिखा है-
सेना की जब सेना से मुठभेड़ हुई,
पृथ्वी पर स्वर्ग जाने का दिन जल्दी आ गया।
खून के दो समुद्रों ने एक दूसरे को टक्कर दी,
उनसे उठी उबलती लहरों ने पृथ्वी को रंग-बिरंगा कर दिया।
जान लेने और जान देने का बाजार खुल गया।
दोनों ओर के योद्धाओं ने
अपना जीवन दे दिया और अपना सम्मान बचा लिया।
बहुसंख्यक वीर एक दूसरे से लड़े,
रण क्षेत्र में बहुत सा रुधिर बहने लगा।
दिल बलने लगे, चिल्लाहटें गूंजने लगीं,
गरदनें फन्दों से भिंच गईं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!
झाला बीदा झाला मानसिंह के नाम से प्रसिद्ध था उसकी बहिन महाराणा प्रताप को ब्याही थी। झाला मानसिंह की दृष्टि घायल महाराणा प्रताप पर पड़ी। उसने महाराणा को मुगल सैनिकों से बचाने के लिये उसका राज्यचिह्न झपटकर स्वयं धारण कर लिया ताकि मुगल सैनिक भुलावे में आ जायें।
जब महाराणा प्रताप, हल्दीघाटी के मैदान में कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह को मारने के उद्देश्य से मुगल सेना के भीतर तक घुस गया तब कुछ क्षणों के लिये संभवतः महाराणा प्रताप अकेला रह गया था।
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जब महाराणा का घोड़ा राजा मानसिंह कच्छवाहा के हाथी की सूण्ड पर पैर रखकर खड़ा हो गया और महाराणा ने मानसिंह पर अपने भाले से वार करने के बाद उसे मारा गया जानकर छोड़ दिया, तब हाथी की सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से महाराणा के घोड़े का पिछला एक पैर कट गया। इससे महाराणा की स्थिति और भी नाजुक हो गई। इसी समय मुगल सैनिकों ने महाराणा को चारों तरफ से घेर लिया। महाराणा उनसे संघर्ष करता हुआ घायल हुआ और उसे सात घाव लग गये।
संभवतः इन्हीं क्षणों में झाला बीदा जो कि मेवाड़ में झाला मानसिंह के नाम से प्रसिद्ध था तथा जिसकी बहिन महाराणा प्रताप को ब्याही गई थी, उसकी दृष्टि घायल महाराणा प्रताप पर पड़ी। झाला मानसिंह ने महाराणा को मुगल सैनिकों से बचाने के लिये उसका राज्यचिह्न झपटकर स्वयं धारण कर लिया ताकि मुगल सैनिक भुलावे में आ जायें। कर्नल टॉड ने इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है- प्रताप के ऊपर राजकीय छतरी लगी हुई थी जिसे वह अलग नहीं कर रहा था तथा शत्रु उस छतरी से प्रताप को पहचान कर बारबार घेरने का प्रयास कर रहा था। प्रताप को उसके साथियों ने शत्रु के घेरे से तीन बार बचाया किंतु अंत में जब प्रताप बहुत अधिक शत्रु सैनिकों से घिर गया तब झाला मन्ना ने अनूठी स्वामिभक्ति का परिचय दिया तथा अपने प्राण देकर प्रताप को बचाया।
मन्ना ने मेवाड़ के उस राजच्छत्र को छीन लिया तथा उस सुनहरे सूर्य को अपने मस्तक पर लगाकर एक ओर को बढ़ गया। इससे मुगल सिपाहियों की बाढ़ झाला मन्ना के पीछे लग गई। इस बीच प्रताप को जबर्दस्ती युद्धस्थल से निकाल लिया गया। झाला मन्ना युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ
बलवंतसिंह मेहता ने अपने एक लेख में लिखा है- ‘स्वामी को संकट में देख और उसकी सुरक्षा को अनिवार्य समझ झाला मान, राणा के छत्र और चंवर छीनकर जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगा कि प्रतापसिंह आ गया है। यह सुनकर मुगल सेना भ्रमित हो गई और वह प्रताप का घेरा छोड़कर झाला मान पर टूट पड़ी।
हकीम खाँ सूरी, चेटक की लगाम को खींचे आगे बढ़ा जहाँ भामाशाह थे। वे लोग महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी के सुरक्षित स्थान की ओर ले गये।’ मुगल सैनिकों ने झाला मानसिंह को घेरकर मार डाला।
आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने ‘द बैटल ऑफ हल्दीघाटी’ में लिखा है- ‘झाला बीदा ने शुद्ध स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर अपने स्वामी के मस्तक पर से राज्यछत्र झपटकर छीन लिया और मानसिंह की सेना के समक्ष आगे बढ़कर चिल्लाना शुरू किया कि मैं ही महाराणा हूँ। इससे महाराणा प्रताप भार मुक्त हुए और हकीम सूर के साथ हल्दीघाटी के तंग दर्रे से गोगूंदा पहुँच सके।’
कर्नल वॉल्टर ने भी महाराणा के राजकीय चिह्न झपटने वाले वीर का नाम झाला बीदा लिखा है। मेवाड़ के दो प्रमुख इतिहासकारों गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा कविराज श्यालदास ने इस घटना का उल्लेख नहीं किया है किंतु सामान्यतः कर्नल टॉड के मत पर ही अधिक विश्वास किया जाता है तथा माना जाता है कि खानवा के मैदान में हुई घटना की पुनरावृत्ति हल्दीघाटी के मैदान में भी हुई।
झाला मानसिंह के बलिदान के सम्बन्ध में मेवाड़ में अनेक कविताएं लिखी गई हैं। एक दोहे में कहा गया है-
मान परां खागां छई, खागां ऊपर छत्र।
हरवळ दीठौ जेण पुळ, झालां कुळ रो चित्र।।
अर्थात् – झाला मानसिंह के सिर के ऊपर शत्रुओं की तलवारें छाई हुई हैं और उन तलवारों के ऊपर महाराणा का छत्र सुशोभित है। ऐसा वीर मानसिंह, महाराणा की हरवाल में लड़ता हुआ दिखाई देता है।
एक दोहे में कहा गया है-
गीध कहै सुण गीधणी, सुण मकवाण सराह।
मन न हुवै हथ खावतां, राखण हिन्दू राह।।
अर्थात्- युद्ध के पश्चात् जब गृद्ध, वीरों के शवों को खा रहे थे तब एक गृद्ध अपनी पत्नी से बोला कि हे गृद्धी, इस मानसिंह झाला के हाथों को खाने का मन नहीं करता, ये वही हाथ हैं जिन्होंने हिन्दुओं के रक्षक महाराणा की रक्षा की है।
एक अन्य दोहे में कहा गया है-
नवलख्खां न्यारौ लियौ, रगत मान रो हेर।
रछ्या कर नित राखस्यां, तिलक करालां फेर।।
अर्थात्- जब मानसिंह का रक्त धरती पर गिरने लगा तो रणक्षेत्र में रक्त पीने वाली योगिनियों ने उस रक्त से अपना खप्पर भरते हुए कहा कि वीर मानसिंह का पवित्र रक्त पीने योग्य नहीं है, यह तो सुरक्षित रखने तथा नित्य ही मस्तक पर तिलक करने के लिये हैं।
किसी कवि ने लिखा है-
धर थांभी कारज कियौ, सेस फणां पर नाग।
ढंहतौ अम्बर थांभियौ, मान अकेली खाग।।
अर्थात्- शेषनाग तो अपने सहस्र फणों पर धरती को थामता है किंतु झाला मानसिंह ने तो अपनी अकेली तलवार के बल पर टूटते हुए आकाश को थाम लिया।
के गंगा जमना करै, करै गौमती स्नान।
तैं धारा तीरथ कियौ, हळदीघाटी मान।।
अर्थात्- लोग तो गंगा, यमुना और गौमती में स्नान करते हैं किंतु हे मानसिंह! तूने तो हल्दीघाटी में रक्त की धारा में स्नान करके तीर्थ का लाभ लिया।
मान लिया छत्तर चंवर, रण रो भार अतोल।
पातल सुं मांग न सक्या, सेस कछप अर कोल।।
अर्थात्- धरती का भार उठाने वाले शेषनाग, कच्छप और कोल भी जिस प्रतापसिंह से छत्र और चंवर नहीं मांग सकते, उस प्रतापसिंह के छत्र और चंवर का भार रण में मानसिंह ने उठाया जो कि युद्ध के समस्त भार से भी अधिक भारी था।
बैन कहै धन सींचिणा, इण जग भ्रात अपार।
सिर हथळेवै सींचियौ, मकवांणा बळिहार।।
अर्थात्- मानसिंह की बहिन जिसका विवाह महाराणा प्रताप से हुआ था, ने अपने भाई के बलिदान पर अपना भाग्य सराहते हुए कहा कि इस संसार में बहिन के हाथ पर धन सींचने वाले भाई असंख्य हैं किंतु मेरे हाथ पर तो भाई मानसिंह ने अपना सिर ही सींच दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!
श्यामनारायण पाण्डे ने अपनी कविता हल्दीघाटी में लिखा है कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर के सैनिक भेड़ों की तरह अपने प्राणों की रक्षा के लिए भागे- भेड़ों की तरह भगे कहते, अल्लाह हमारी जान बचा।
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में ई.1910 में जन्मे श्यामनारायण पाण्डेय ने 17 सर्गों में हल्दीघाटी नामक काव्य की रचना की जिसे राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। उन्होंने अपनी इस कविता में हल्दीघाटी के युद्ध का ऐसा सुंदर वर्णन किया है जिसे सुनकर रगों का खून उबाल लेने लगता है। प्रस्तुत हैं, इस काव्य के कुछ अंश-
ग्यारहवें सर्ग के अंश-
कोलाहल पर कोलाहल सुन, शस्त्रों की सुन, झंकार प्रबल।
मेवाड़ केसरी गरज उठा, सुनकर अरि की ललकार प्रबल।।
हर एक लिंग को माथ नवा, लोहा लेने चल पड़ा वीर।
चेतक का चंचल वेग देख, था महा-महा लज्जित समीर।।
लड़-लड़कर अखिल महीतल को, शोणित से भर देने वाली।
तलवार वीर की तड़प उठी, अरि कण्ठ कतर देने वाली।।
राणा का ओज भरा आनन, सूरज समान चमक उठा।
बन महाकाल का महाकाल, भीषण भाला दमदमा उठा।
भेरी प्रताप की बजी तुरत, बज चले दमामे धमर-धमर।
धम-धम रण के बाजे बाजे, बज चले नगारे घमर-घमर।।
कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर, कुछ योधा पैदल ही आये।
कुछ ले बरछे कुछ ले भाले, कुछ शर से तरकस भर लाये।।
रण-यात्रा करते ही बोले, राणा की जय, राणा की जय।
मेवाड़ सिपाही बोल उठे, शत बार महाराणा की जय।।
हल्दी घाटी के रण की जय, राणा प्रताप के प्रण की जय।
जय जय भारतमाता की जय, मेवाड़-देश कण-कण की जय।।
हर एक लिंग हर एक लिंग, बोला हर हर अम्बर अनन्त।
हिल गया अचल भर गया तुरत, हर हर निनाद से दिग्दिगन्त।।
घनघोर घटा के बीच चमक, तड़-तड़ नभ पर तड़िता तड़की।
झन-झन असि की झनकार इधर, कायर-दल की छाती धड़की।।
अब देर न थी वैरी-वन में, दावानल के सम छूट पड़े।
इस तरह वीर झपटे उन पर, मानों हरि मृग टूट पड़े।।
मरने कटने की बान रही। पुश्तैनी इससे आह न की।
प्राणों की रंचक चाह न की। तोपों की भी परवाह न की।।
रण-मत्त लगे बढ़ने आगे, सिर काट-काट करवालों से।
संगर की मही लगी पटने क्षण-क्षण अरि कंठ कपालों से।
हाथी सवार हाथी पर थे, बाजी सवार बाजी पर थे।
पर उनके शोणितमय मस्तक, अवनी पर मृत-राजी पर थे।।
कर की असि ने आगे बढ़कर, संगर-मतंग-सिर काट दिया।
बाजी वक्षःस्थल गोभ-गोभ, बरछी ने भूतल पाट दिया।।
गज गिरा मरा पिलवान गिरा, हय कटकर गिरा निशान गिरा।
कोई लड़ता उत्तान गिरा, कोई लड़कर बलवान गिरा।।
झटके से शूल गिरा भू पर, बोला भट, मेरा शूल कहाँ।
शोणित का नाला बह निकला, अवनी-अम्बर पर धूल कहाँ।।
आँखों में भाला भोंक दिया, लिपटे अन्धे जन अन्धों से।
सिर कटकर भू पर लोट-लोट। लड़ गये कबंध कबंधों से।।
अरि किंतु घुसा झट उसे दबा, अपने सीने के पार किया।
इस तरह निकट बैरी उर को कर-कर कटार से फार दिया।।
कोई खरतर करवाल उठा, सेना पर बरस आग गया।
गिर गया शीश कटकर भू पर, घोड़ा धड़ लेकर भाग गया।।
कोई करता था रक्त वमन, छिद गया किसी मानव का तन।
कट गया किसी का एक बाहु, कोई था सायक-विद्ध नयन।।
गिर पड़ा पीन गज, फटी धरा, खर रक्त-वेग से कटी धरा।
चोटी-दाढ़ी से पटी धरा, रण करने को भी घटी धरा।।
तो भी रख प्राण हथेली पर वैरी-दल पर चढ़ते ही थे।
मरते कटते मिटते भी थे, पर राजपूत बढ़ते ही थे।।
राणा प्रताप का ताप तचा, अरि-दल में हाहाकार मचा।
भेड़ों की तरह भगे कहते अल्लाह हमारी जान बचा।।
अपनी नंगी तलवारों से वे आग रहे हैं उगल कहाँ
वे कहाँ शेरों की तरह लड़ें, हम दीन सिपाही मुगल कहाँ।।
भयभीत परस्पर कहते थे, साहस के साथ भगो वीरो!
पीछे न फिरो न मुड़ो, न कभी अकबर के हाथ लगो वीरो।।
यह कहते मुगल भगे जाते, भीलों के तीर लगे जाते।
उठते जाते गिरते जाते, बल खाते, रक्त पगे जाते।
आगे थी अगम बनास नदी, वर्षा से उसकी प्रखर धार।
थी बुला रही उनको शत-शत लहरों के कर से बार-बार।।
पहले सरिता को देख डरे, फिर कूद-कूद उस पार भगे।
कितने बह-बह इस पार लगे, कितने बहकर उस पार लगे।।
मंझधार तैरते थे कितने, कितने जल पी-पी ऊब मरे।
लहरों के कोड़े खा-खाकर कितने पानी में डूब मरे।।
राणा दल की ललकार देख, अपनी सेना की हार देख।
सातंक चकित रह गया मान, राणा प्रताप के वार देख।।
व्याकुल होकर वह बोल उठा, लौटो-लौटो न भगो भागो।
मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा, ठहरो-ठहरो फिर से जागो।।
देखो आगे बढ़ता हूँ मैं, बैरी-दल पर चढ़ता हूँ मैं।
ले लो करवाल बढ़ो आगे, अब विजय-मंत्र पढ़ता हूँ मैं।।
भगती सेना को रोक तुरत लगवा दी भैरवकाय तोप।
उस राजपूत-कुल-घालक ने हा महाप्रलय-सा दिया रोप।।
फिर लगी बरसने आग सतत उन भीम भयंकर तोपों से।
जल-जलकर राख लगे होने योद्धा उन मुगल-प्रकोपों से।।
भर रक्त तलैया चली उधर, सेना-उर में भर शोक चला।
जननी-पद शोणित से धो-धो, हर राजपूत हर-लोक चला।।
क्षण भर के लिये विजय दे दी अकबर के दारुण दूतों को।
माता ने अंचल बिछा दिया सोने के लिये सपूतों को।
विकराल गरजती तोपों से रुई-सी क्षण-क्षण धुनी गई।
उस महायज्ञ में आहुति सी राणा की सेना हुनी गई।।
बच गये शेष जो राजपूत संगर से बदल-बदलकर रुख।
निरुपाय दीन कातर होकर, वे लगे देखने राणा-मुख।।
राणा दल का यह प्रलय देख, भीषण भाला दमदमा उठा।
जल उठा वीर का रोम-रोम, लोहित आनन तमतमा उठा।।
वह क्रोध वह्नि से जलभुनकर काली कटाक्ष सा ले कृपाण।
घायल नाहर सा गरज उठा, क्षण-क्षण बिखरते प्रखर बाण।।
बोला, ‘आगे बढ़ चलो शेर, मत क्षण भर भी अब करो देर।
क्या देख रहे हो मेरा मुख, तोपों के मुँह दो अभी फेर’।।
बढ़ चलने का संदेश मिला, मर मिटने का उपदेश मिला।
दो फेर तोप-मुख राणा से। उन सिंहों को आदेश मिला।।
गिरते जाते बढ़ते जाते, मरते जाते चढ़ते जाते।
मिटते जाते कटते जाते गिरते-मरते मिटते जाते।।
बन गये वीर मतवाले थे, आगे वे बढ़ते चले गये।
‘राणा प्रताप की जय’ करते, तोपों तक चढ़ते चले गये।।
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उन आग बरसती तोपों के मुँह फेर अचानक टूट पड़े।
बैरी-सेना पर तड़-तड़प मानों शत-शत पत्रि छूट पड़े।
फिर महासमर छिड़ गया तुरत, लोहू-लोहित हथियारों से।
फिर होने लगे प्रहार वार, बरछे-भाले तलवारों से।।
शोणित से लथपथ ढालों से, करके कुन्तल करवालों से।
खर-छुरी-कटारी फालों से, भू भरी भयानक भालों से।।
गिरि की उन्नत चोटी से पाषाण भील बरसाते।
अरि दल के प्राण-पंखेरू तन-पिंजर से उड़ जाते।।
कोदण्ड चण्ड रव करते बैरी निहारते चोटी।
तब तक चोटीवालों ने बिखरा दी बोटी-बोटी।।
अब इस समर में चेतक मारुत बनकर आयेगा।
राणा भी अपनी असि का अब जौहर दिखलायेगा।।
बारहवें सर्ग के अंश
घायल बकरों से बाघ लड़े। भिड़ गये सिंह मृग छौनों से।
क्या अजब विषैली नागिन थी, जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर, फैला शरीर में जहर नहीं।
थी छुरी कहीं तलवार कहीं, वह बरछी-असि खगधार कहीं
वह आग कहीं, अंगार कहीं। बिजली थी कहीं कटार कहीं।।
लहराती थी सिर काट-काट, बल खाती थी भू पाट-पाट।
बिखराती अवयव बाट-बाट, तनती थी लोहू चाट-चाट।।
सेना-नायक राणा के भी रण देख-देखकर चाह भरे।
मेवाड़ सिपाही लड़ते थे दूने-तिगुने उत्साह भरे।।
क्षण मार दिया कर कोड़े से, रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा-रण कौशल दिखा दिया, चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।
क्षण भीषण हलचल मचा-मचा, राणा-कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह रणचण्डी जीभ पसार बढ़ी।।
वह हाथी दल पर टूट पड़ा, मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा।।
जो साहस कर बढ़ता उसको केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ-बीच फैंक, बरछे पर उसको रोक दिया।।
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी-दल से लड़ते-लड़ते, क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।
क्षण भर में गिरते रुण्डों से मदमस्त गजों के झुण्डों से।
घोड़ों से विकल वितुण्डों से, पट गई भूमि नर-मुण्डों से।।
ऐसा रण राणा करता था, पर उसको था संतोष नहीं।
क्षण-क्षण आगे बढ़ता था वह पर कम होता था रोष नहीं।
कहता था लड़ता मान कहाँ मैं कर लूं रक्त-स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है, वह मुगलों का अभिमान कहां।।
भाला कहता था मान कहां, घोड़ा कहता था मान कहां।
राणा की लोहित आँखों से, रव निकल रहा था मान कहां।।
लड़ता अकबर सुल्तान कहां, वह कुल-कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार-बार, मैं करूं शत्रु-बलिदान कहां?
तब तक प्रताप ने देख लिया लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान उड़ता निशान था हाथी पर।।
वह विजय-मंत्र था पढ़ा रहा, अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर भवानी को, पग-पग पर बलि था चढ़ा रहा।
फिर रक्त देह का उबल उठा, जल उठा क्रोध की ज्वाला से,
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे, बढ़ चलो कहा निज भाला से।।
हय-नस में बिजली दौड़ी, राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत-शत बिजली की आग लिये वह प्रलय मेघ से घहर उठा।।
क्षय अमिट रोग वह राजरोग, ज्वर सन्निपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा रण से, कहता हय कौन हवा था वह।।
तनकर भाला भी बोल उठा, राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ तू मुझे तनिक आराम न दे।
खाकर अरि-मस्तक जीने दे, बैरी-उर-माल सीने दे।
मुझको शोणित प्यास लगी, बढ़ने दे शोणित पीने दे।।
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं, अरि-सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दें, शोणित सागर लहरा दूं मैं।।
रंचक राणा ने देर न की, घोड़ा बढ़ आया हाथी पर
वैरी-दल का सिर काट-काट राणा चढ़ आया हाथी पर।।
गिरि की चोटी पर चढ़कर, किरणें निहारती लाशें।
जिनमें कुछ तो मुरदे थे, कुछ की चलती थी सांसें।।
वे देख-देख कर उनको, मुरझाती जाती पल-पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर, पक्षी क्रन्दन का कल-कल।।
मुख छिपा लिया सूरज ने, जब रोक न सका रुलाई।
सावन की अन्धी रजनी, वारिद-मिस रोती आई।।
श्यामनारायण पाण्डेय द्वारा लिखी गई यह कविता बहुत लम्बी है, उसमें से मैंने कुछ अंश यहाँ दिए गए हैं ताकि पाठकों को हल्दीघाटी युद्ध की भयावहता और उसमें राणा प्रताप और उनकी सेना द्वारा दिखाए गए पराक्रम का कुछ अनुमान हो सके।
–श्यामनारायण पाण्डे की खण्डकाव्य रचना हल्दीघाटी का एक अंश!