Saturday, July 27, 2024
spot_img
Home Blog Page 3

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य

0
Ramanujacharya
Ramanujacharya

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य गोस्वामी तुलसीदास की गुरुपरम्परा के आचार्य थे। वे तुलसीदासजी से लगभग 537 वर्ष पहले अर्थात् ई.1017 में जन्मे।

तुलसीदास की गुरुपरम्परा वास्तव में दक्षिण भारत के आळवार संतों के काल से आरम्भ होती है। आळवार संतों ने दक्षिण भारत में विष्णु भक्ति का नया मार्ग प्रशस्त किया जो वैदिक परम्पराओं का एक नवीन विकास था। आळवार संतों की भक्ति-परम्परा में ग्यारहवीं शताब्दि ईस्वी में विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रवर्तक आचार्य रामानुजाचार्य का जन्म हुआ।

द्वैतावाद एवं अद्वैतावाद का समन्वय

आठवीं शताब्दी ईस्वी में शंकराचार्य ने उपनिषदों के ‘सत्य एक है, दो नहीं’ जैसे वाक्यों को लेकर अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया परन्तु द्वैतवाद के समर्थकों का कहना था कि ‘आत्मा व ब्रह्म एक नहीं हैं, दो हैं।’ इनका समन्वय करते हुए रामानुजाचार्य ने ‘विशिष्टाद्वैत’ का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म दो होते हुए भी उनमें विशिष्ट प्रकार का अद्वैत है।

रामानुजाचार्य ने स्वीकार किया कि परमसत् (सत्य) के तीन स्तर हैं- (1) ब्रह्म अर्थात ईश्वर, (2) चित् अर्थात आत्मतत्व एवं (3) अचित् अर्थात प्रकृति तत्व।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने प्रतिपादित किया कि अंतिम दोनों स्तर, प्रथम स्तर से पृथक नहीं हैं, अपितु विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं और उसी पर आधारित हैं। ठीक वैसे ही जैसे शरीर और आत्मा मूलतः पृथक नहीं हैं तथा संसार में शरीर आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य करता है। उसी प्रकार चित् (आत्मा) तथा अचित् (प्रकृति), ब्रह्म या ईश्वर के शरीर सदृश्य हैं।

रामानुज का जन्म तमिलनाडु प्रांत में चेन्नई से लगभग 45 किमी. दूर श्रीपेरुम्बुदृरम् में केशव सोमया और कान्तिमति दम्पत्ति के घर हुआ। उनकी शिक्षा पेरुम्बुदूर से कुछ दूर कांचीपुरम में पेरिय नम्बि इत्यादि पांच आचार्यों के द्वारा हुई। रामानुज अद्भुत प्रतिभा के धनी थे इस कारण उन्होंने शीघ्र ही शास्त्रों पर अधिकार कर लिया।

शिक्षा प्राप्त करने के बाद रामानुज ने संन्यास-ग्रहण कर लिया। उन्हें तिरुपुरकुळि में यादव प्रकाश ने वैष्णव परम्परा में दीक्षित किया। रामानुज को भूलोक-वैकुण्ठ नाम से प्रसिद्ध श्रीरंगम के वैष्णव-मठ का अध्यक्ष बनाया गया। वे आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

मान्यता है कि 10वीं शताब्दी ईस्वी में नाथ मुनिगल वैष्णव परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हुए। उन्होंने आळवार भक्त-कवियों द्वारा भगवान विष्णु की अर्चा मूर्ति के समक्ष गाये गये चार हजार भक्तिपूर्ण गेय पदों का संग्रह किया जो ‘नालाइर दिव्य प्रबंध’ नाम से प्रसिद्ध है। मुनिगल के पौत्र आळवंदार आचार्य हुए जो यामुनाचार्य नाम से जाने जाते हैं।

यामुनाचार्य के पश्चात रामानुजाचार्य ने वैष्णव तत्व के प्रचार-प्रसार को तमिलनाडु से बाहर भी फैलाया तथा कर्नाटक के तोण्डसुर में जयस्तम्भ स्थापित किया। रामानुजाचार्य ने तमिलनाडु में श्रीरंगम के रंगनाथ (विष्णु) मंदिर में आचार्य पद पर अधिष्ठित रहते हुए मन्दिर में सेवा-अर्चा एवं अन्य व्यवस्थाओं से संबंधित नियमों का निर्धारण किया। इसी स्थान पर ई.1137 में 120 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

अपने निधन से पूर्व अपने परम शिष्य मुदलियाण्डान के पुत्र कन्दाई आण्डान की प्रार्थना पर रामानुज ने अपनी भौतिक देह की प्रतिमा शिल्पी द्वारा बनवाने की अनुमति प्रदान की और शिल्पी ने उनकी वह प्रतिमा का निर्माण किया जिसका आलिंगन कर आचार्य ने उसे अपनी समस्त शक्ति प्रदान कर दी।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य की इस प्रतिमा को श्रीपेरुम्बुदुरम् में लाकर स्थापित किया गया। इसे रामानुज का स्वानुभूतित, अर्चा-विग्रह कहा जाता है। आळवार तिरुनगर, श्रीरंगम तथा तिरुनारायणपुरम (कर्नाटक) में भी रामानुजाचार्य के अर्चा-विग्रह स्थापित हैं। रामानुज को यतिराज भी कहा जाता है। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।

1. वेदार्थ संग्रहम्

प्रस्तुत ग्रन्थ उपनिषदों में प्रकाशित तीन बुनियादी दार्शनिक तत्वों की उद्घोषणा पर प्रकाश डालता है-1. यथार्थता का दर्शन, 2. मार्ग का दर्शन और 3. अन्त का दर्शन। प्रथम, ब्रह्म की प्रकृति से सम्बन्धित है। द्वितीय भक्ति की प्रकृति से सम्बद्ध है। तृतीय ब्रह्म-प्राप्ति के साथ सम्बन्ध रखता है।

उपरोक्त दर्शनों को आगे विस्तार करते हुए उपनिषदों के दर्शन-चिन्तन के पांच प्रभागों को आच्छादित किया गया है- आत्मा, ब्रह्म, सम्पूर्णत्व की बाधाएं, सम्पूर्णत्व की ओर प्रगतिशील प्रविधि और सम्पूर्णत्व की प्रकृति।

रामानुज दर्शन में दिव्य आत्मा के बारे में कुछ विशिष्ट सिद्धान्त हैं- धर्मभूत ज्ञान एवं स्वरूपभूत ज्ञान। ब्रह्म विश्वात्मा है और मूलाधार है। रामानुजाचार्य प्रस्तुत ग्रन्थ में, उपनिषदों द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष के विभिन्न पक्षों की चर्चा करते हैं।

वेदार्थ संग्रहम, दार्शनिक प्रवृत्ति अर्थात् सत्य के प्रति भक्ति-निष्ठा, व्यापक दृष्टिकोण, आवश्यक और खुले मस्तिष्क के भीतर के अन्तर्ज्ञान की गहराई के विशिष्ट गुणों का वर्णन करता है।

2. वेदान्त सारम्

प्रस्तुत ग्रन्थ में वेदों का सांगोपांग विश्लेषण किया गया है तथा बताया गया है कि भक्ति-योग आत्मज्ञान का उपाय है और मोक्ष-प्राप्ति में परमानन्द सन्निहित है। विवेक, विमोख (स्वतन्त्रता), अभ्यास, क्रिया, कल्याण (पवित्रता), अनवसदा (बलहीनता का अभाव) और अनुद्दर्शा (अति आनन्द का अभाव) से भक्ति प्रस्फुटित होती है।

रामानुज का मानना है कि ब्रह्म उच्चतम है, सर्वाेत्तम है और महानतम है। नारायण वैकुण्ठवासी हैं और उनकी पत्नी श्री, अथवा महालक्ष्मी हैं। समस्त प्राकृतिक सृष्टि अत्यधिक सुन्दर है जो उनकी देन है। भक्ति का विशद वर्णन करते हुए श्रीरामानुज सिद्ध करते हैं कि प्रपत्ति द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास किया जा सकता है किंतु भगवान के चयन, कृपा एवं दया के बिना कोई भी अपने ही प्रयासों से उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता।

3. श्री भाष्यम्

महर्षि व्यास के ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों के यथार्थ अर्थ को सुदृढ़ निश्चय करने और मोक्ष के सच्चे पथ को निस्सन्देह सुस्थापित करने के लिए लिखे गये थे। विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने महर्षि व्यास के ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या के रूप में श्रीभाष्यम् ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें चार अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय के चार पादम् (चरण) हैं जिनमें 156 अधिकरणम (प्रभाग अथवा शीर्षक) हैं।

प्रथम अध्याय के अनुसार श्रियःपति, अर्थात् नारायण सम्पूर्ण विश्व के सृष्टिकर्ता हैं, मूलभूत हैं।

द्वितीय अध्याय ‘अरिरोधाध्यम्’ है जिसमें स्मृतियों, उपनिषदों आदि के संगत शब्दों एवं सूक्तियों के सहारे संशयों एवं विरोधों का निराकरण किया गया है।

तृतीय अध्याय परमात्मा के साथ एकाकार होने के लिए अनुपालनीय प्रविधि पर प्रकाश डालता है।

चतुर्थ फलाध्याय, प्राप्य फलों, उसके उपायों और प्रत्येक के परिणाम पर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।

संक्षेप में, चारों अध्याय परमात्मा के दिव्य कल्याण गुणों की स्तुति करते हैं। मान्यता है कि इस ग्रन्थ का ‘श्रीभाष्यम्’ नामकरण स्वयं सरस्वती देवी ने किया था।

4. वेदांत दीपम्

वेद परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। वेदान्त वेदों का सार है। प्रस्तुत ग्रन्थ ‘श्रीभाष्यम’ का संक्षिप्त रूप है और सारगर्भित है।

इसमें चार अध्याय हैं। प्रथम ‘समानाध्याय’ है। यह हमें बताता है कि समस्त उपनिषद् ब्रह्म को सृष्टिकर्ता मानते हैं।

द्वितीय अध्याय ‘अविरोधाध्याय’ है। यह अध्याय सिद्ध करता है कि ब्रह्म को विश्व के सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार करने में वेदों अथवा अन्य सम्बद्ध ग्रन्थों में कोई विरोध नहीं है। तृतीय ‘साधनाध्याय, में मोक्ष-प्राप्ति हेतु परमात्मा की पूजा-आराधना संबंधी बातें हैं। चतुर्थ फलाध्याय, फल अथवा मोक्ष की प्रकृति और उसके दूसरे पहलुओं के बारे में चर्चा करता है।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य का मानना था कि जैसे वर्ष की प्रत्येक ऋतु में गोलाकार रूप में उत्पाद होते हैं वैसे ही समस्त युगों और कल्पों आदि में पूर्व की तरह ही उन्हीं सारी वस्तुओं की सृष्टि की जाती है। वेद जिस प्रकार पहले अविनाशी रहे और जिस प्रकार उनका अध्ययन एवं वेद-घोष होते थे वैसे ही आज भी हैं। वेद इसी प्रकार सदैव स्वयं परमात्मा की भांति अमर रहेंगे।

5. गीता भाष्यम्

भगवद्गीता पर रामानुजाचार्य की टीका ‘गीता भाष्यम्’ है। गीता महाभारत ग्रंथ का ही अंग है। प्रस्तुत ग्रन्थ में रामानुजाचार्य सिद्ध करते हैं कि परमात्मा की जानकारी के लिए सर्वप्रथम उस पर सम्पूर्ण विश्वास करना चाहिए। विश्वास के समानार्थी हैं भक्ति, उपासना, श्रद्धा, निष्ठा आदि।

भगवद्-प्रेम, प्रकृति-प्रेम भक्ति है। भक्ति-मार्ग में प्रगति-क्रम इस प्रकार है- कर्मयोग ज्ञानयोग का मार्गदर्शन करता है तथा अपनी आत्मानुभूति द्वारा ज्ञानयोग भक्तियोग का मार्ग खोलता है। भक्तियोग जीवन के अंतिम उद्देश्य का तत्काल मार्ग है।

गीता भाष्यम् में रामानुज का कथन है कि भक्तियोग के प्रारम्भ की बाधाएं भगवान के पद्मपादों की शरण द्वारा दूर की जा सकती है। ऐसी अड़चनों से बचने के लिए कठिन प्रायश्चितों की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रभु के दिव्य चरण-कमलों में शरणागति अथवा प्रपत्ति के बिना कोई भी जीव कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। प्रस्तुत ग्रन्थ देवत्व के प्रति प्रगति करने और मानवता के लिए विश्वसनीय मार्गदर्शिका है।

6. गद्यत्रयम्

गद्यत्रयम् में तीन ग्रंथ हैं जो शरणागति अथवा प्रपत्ति के गद्यगीत हैं। ये हैं- शरणागति गद्यम्, श्री रंगगद्यम् और श्रीवैकुण्ठगद्यम्। ये तीनों ग्रंथ समग्र रूप से गद्यत्रयम् कहलाते हैं। वैष्णवों द्वारा इन ग्रंथों का नित्य पाठ किया जाता है।

‘शरणागति गद्यम्’ में प्रथमचूर्णिका के प्रथम वाक्य में ही रामानुज सर्वप्रथम श्री अथवा महालक्ष्मी की शरण में जाते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं कि उन्हें प्रपत्ति प्रदान करें- शरणमह प्रपद्ये। श्रियःपति अर्थात् भगवान विष्णु महालक्ष्मी की अनुशंसा से ही जीवात्मा के महापापों को क्षमा करते हैं और उनके द्वारा संस्तुत जीवात्मा को अपनी शरण देते हैं।

शरणागति अथवा प्रपत्ति सिद्धांत श्री वैष्णवम् की रीढ़ की हड्डी है, सबसे महत्वपूर्ण विषय है। ‘शरणागति गद्यम्’ और ‘श्रीरंगगद्यम्’ दोनों प्रथम पुरुष, एकवचन में रचित हैं और अपने उच्चतम उद्देश्य ‘शरणागति’ प्राप्त करने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। मान्यता है कि रामानुज द्वारा अपने शिष्यों को प्रदान किया गया अनुदेश ‘वैकुण्ठ गद्यम्’ के रूप में है जो मनुष्य की मुक्ति के लिए एकमात्र उपाय के रूप में प्रपत्ति का उचित ढंग से निष्पादन करता है।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने ‘श्रीरंगगद्यम्’ में प्रपत्ति के लिए विशिष्ट रूप से अपेक्षित योग्यताओं की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला है। प्रस्तुत ग्रंथ में पाँच चूर्णिकाएँ और दो श्लोक हैं।

‘शरणागति गद्यम्’ और ‘श्रीरंगगद्यम्’ दोनों कृतियों की रचना करने के लिए रामानुज को भगवान महाविष्णु के विशेष अनुग्रह एवं परम कृपा के रूप में परमपद श्रीवैकुण्ठ के प्रत्यक्ष दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

‘वैकुण्ठ गद्यम्’ मुक्त जीवात्मा के चक्षुओं द्वारा श्रीवैकुण्ठ का आँखों देखा दिव्य वर्णन है जो दिव्याद्भुत विशेषणों से बिल्कुल ओतप्रोत है और पाठक एवं श्रोता दोनों को निश्चित रूप से मंत्रमुग्ध कर देता है।

प्रस्तुत ग्रंथ का मुख्य संदेश यह है कि भगवान श्रीमन्नारायण के चरणकमलों में की जानेवाली शरणागति, नारायणसायुज्यम का फल, परिणाम श्रीमन्नारायण के समीप होने और उनके चरण-कमलों में लीन होने का सौभाग्य प्रदान करेगी। अर्थात् ईश्वर की शरणागति ग्रहण करने से ही आत्मा को सालोक्यम्, सारूप्यम्, शुद्ध स्तवं एवं सामीप्यम् आदि मोक्षों की प्राप्ति संभव हैं।

वैकुण्ठ गद्यम्’ में अनन्त, गरुड़, विश्वक्सेन, द्वारपालक जैसे नित्यसूरियों द्वारा निष्पादित दिव्य कैंकर्यों, भगवान की दिव्य सेवाओं की सुदंरतम रीति से प्रशंसा की गयी है। इस ग्रंथ में प्रतीक्षित मुक्ति के लिए प्राप्त होनेवाली असीम और अपार निधि की संक्षिप्त झाँकी अद्भुत ढंग से चित्रित की गई है।

नित्य ग्रन्थम्

‘नित्यग्रन्थम्’ वैष्णव भक्तों को नित्य कर्मानुष्ठान के बारे में पथ-प्रर्दशन करने के लिए रामानुज द्वारा रचित एक संक्षिप्त विधान है। रामानुजाचार्य का निर्देश है कि वैष्णव को प्रतिदिन, वेदों, स्मृतियों और पुराणों में निर्धारित धार्मिक कार्यों को नियमित रूप से करना चाहिए। प्रस्तुत ग्रंथ में रामानुजाचार्य से पूर्व के आचार्यों यथा नाथमुनि, यामुनाचार्य आदि की पम्परा से अग्रसर और अनुपालनीय भगवत् आराधना क्रम की सुस्पष्ट व्याख्या की गई है।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य के लौकिक कार्य

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने भक्तिग्रंथों के प्रणयन के साथ-साथ लौकिक कार्य भी किए। उन्होंने देवालय के भीतर और बाह्य भव्य निर्माण के लिए जनसाधारण का समर्थन व सहयोग प्राप्त किया। उन्होंने प्रत्येक कार्य के लिए पृथक-पृथक समिति गठित की और समाज के समस्त समुदायों को साथ लेकर कार्य करवाए।

वे प्रत्येक व्यक्ति के साथ मिलजुल कर रहते थे। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह पंडित हो या अनपढ़, गंवार हो या नागरी, बूढ़ा हो या बालक, स्त्री हो या पुरुष, ब्राह्मण हो या चाण्डाल, कभी भी उनसे आराम से मिल सकता था।

रामानुज की मान्यता थी कि प्रत्येक मानव बराबर है। मानवों में कोई भी उच्च या नीच नहीं है। इसलिए रामानुज ने गांव के निम्न समझे जाने वाले लोगों का ‘तिरुकुलत्तार’ नामकरण किया तथा उन्हें मेलकोट्टे के विष्णु भगवान के मंदिर के अंदर ले जाकर मूल स्वयंम्भू विष्णु भगवान श्रीचेंलप्पिळळ के दर्शन कराये। आज से एक हजार साल पहले के समय में यह एक बड़ी सामाजिक क्राँति थी।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य चाहते थे कि मुसलमान भी विष्णुभक्ति करें। इसलिए उन्होंने श्रीरंगम के भगवान श्रीरंगनाथ के साथ एक मुस्लिम कन्या का विवाह करवाया। इस मंदिर में शोभायमान सुलतानी, नामक तुलुक्क नाच्चियार की सन्निधि भी रामानुज सम्प्रदाय के सार रूपी भागवत् समधर्म एवं समता दृष्टि का ज्वलन्त दृष्टान्त है।

रामानुज ने कर्नाटक राज्य के तिरुनारायणपुरम् में भी दिल्ली के किसी नवाब की पुत्री का विवाह चेंल्लप्पिळळ अर्थात् भगवान विष्णु के साथ कराया तथा उसे बीबी नाच्चियार नाम दिया।

एक बार दिल्ली के किसी मुसलमान आक्रांता नवाब ने भगवान चेंल्लप्पिळलै अर्थात् भगवान विष्णु का विग्रह उठा लिया और उसे अपनी पुत्री की कमर में बांध दिया। इस पर रामानुज ने गांव के हरिजनों को बुलवाया तथा उनसे कहा कि वे भगवान के विग्रह को पुनः प्राप्त कर लें। रामानुज के इतना कहते ही चेंल्लप्पिळलै का विग्रह स्वतः ही नवाब की बेटी की कमर से नीचे उतरकर रामानुजाचार्य के पास चला आया। रामानुज ने इस विग्रह को मेलक्कोट्टै के मंदिर में पुनः प्रतिष्ठित करवाया।

एक बार किसी निम्न समझी जानी वाली जाति के विल्लिदासन ने एक वेश्या से विवाह कर लिया। उसकी जाति के लोगों ने विल्लिदासन का बहुत विरोध किया। इस पर रामानुज ने उन दोनों को श्रीरंगम मठ में रख लिया। इस पर ब्राह्मण समुदाय ने रामानुज का कठोर विरोध किया परन्तु रामानुज ने उनके विरोध की परवाह नहीं की।

रामानुज के गुरु आचार्य गोष्ठिपूर्ण के पास एक परम रहस्यमय महामंत्र अष्टाक्षर था। आचार्य गोष्ठिपूर्ण ने वह मंत्र रामानुज को दिया। रामानुज ने आसपास के गाँवों के लोगों को बुलाया तथा स्वयं मंदिर के गोपुर के ऊपर खड़े होकर लोगों को परम रहस्य महामंत्र अष्टाक्षर सुना दिया। रामानुज की मान्यता थी कि ईशभक्ति का कोई भी मंत्र कुछ विशेष लोगों के लिए नहीं है, सबके लिए है। इस कार्य में उन्होंने अपने गुरु के शाप की भी परवाह नहीं की।

जब गुरु ने कहा कि इस कार्य के लिए तू नर्क में जाएगा। इस पर रामानुज अत्यंत विनम्रता से उत्तर दिया कि अष्टाक्षर महामंत्र के रहस्य को सार्वजनिक कर देने से जब सैकड़ों लोग स्वर्ग जाएँगे और एक ही व्यक्ति मैं, नरक जाऊँगा तो मैं नरक जाने के लिए तैयार हूँ।

उस काल में मैसूर राज्य अकालग्रस्त रहता था। इसलिए रामानुज ने तोण्डनूर में ढाई मील लम्बी और एक मील चौड़ी मोती झील का निर्माण करवाया। इस झील से आज भी हजारों एकड़ भूमि की सिंचाई होती है।

इस प्रकार तुलसी की गुरुपरम्परा के महान् संत विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य का हिन्दू जाति पर बड़ा उपकार है। उन जैसे महान् आचार्यों के कारण ही आज हिन्दू समाज भगवान् विष्णु की भक्ति जैसी महान परम्पराओं को जीवित रखे हुए है।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

वैष्णव संत रामानंद से पहले हिन्दू धर्म की स्थिति

0
Hindu Dharma before Vaisnav Sant Ramananda
Hindu Dharma before Vaisnav Sant Ramananda

वैष्णव संत रामानंद का जन्म ईसा की चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उनके अवतरण से पहले हिन्दू धर्म में याज्ञिक कर्मकाण्ड के वैभवपूर्ण आयोजन होते थे। कर्मकाण्ड की जटिलता के कारण उस काल में वैदिक धर्म जनसामान्य की पहुँच से दूर होता जा रहा था। एक समय ऐसा भी आया जब वैदिक धर्म केवल राजाओं, पुरोहितों और श्रेष्ठियों के लिये सुलभ रह गया।

इस प्रवृत्ति के विरोध में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध ने शून्यवाद का प्रतिपादन किया। दार्शनिक पक्ष की सरलता के कारण गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म सर्वसाधारण के लिये सुलभ हो गया। इस कारण गौतम बुद्ध के सिद्धांतों पर आधारित धर्म शीघ्र ही लोकप्रिय होकर जनमानस में गहरी पैठ बनाने में सफल हो गया तथा प्रजा वैदिक धर्म से दूर होने लगी।

लगभग डेढ़ हजार वर्षों तक बौद्धधर्म भारत भूमि तथा उससे बाहर दूर-दूर तक फैलकर अत्यंत मजबूत हो गया। बौद्धधर्म से महायान, हीनयान, मंत्रयान, वज्रयान एवं तंत्रयान प्रकट हुए जिनसे भारत भूमि पर अनेकानेक वाममार्गी संप्रदायों का बोलबाला हो गया।

बौद्ध धर्म की तरह हिन्दू धर्म के दो प्रमुख पंथ शैवमत तथा शाक्तमत भी वाममार्गियों की चपेट में आकर अपना प्राचीन स्वरूप खो बैठे तथा इन दोनों ही पंथों में पंच मकारों अर्थात् मांस, मदिरा, मैथुन, मीन तथा मुद्रा जैसी विकृत क्रियाओं का प्रचलन हो गया। जैन धर्म जिसका स्वरूप महावीर स्वामी द्वारा बताए गए सरल सिद्धांतों पर निर्धारित हुआ था, उसकी भी कुछ शाखाएं तंत्रमार्गियों की चपेट में आ गई।

तंत्र साधक शवों पर साधना करते थे, शमशान में निवास करते थे, चिताओं से शव खींचकर खाते थे। स्त्रियों की देह भोगकर अपने चक्रों को जगाने का प्रयास करते थे। बहुत से भोले-भाले गृहस्थ भी इनसे प्रभावित होकर वैदिक धर्म की पूजा-पद्धति को भूलकर तंत्र-मंत्र के चक्करों में बर्बाद होने लगे।

राष्ट्र में फैले इस घनघोर अनाचार का प्रतिकार करने के लिये गुप्त शासकों (तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी ईस्वी) ने वैदिक धर्म के भीतर विकसित हो रहे विष्णुधर्म के उत्थान का बीड़ा उठाया। इस काल में भगवान विष्णु एवं उनके अवतारों के विविध स्वरूपों का अंकन विग्रहों एवं चित्रों में किया गया। यह युग भारतीय इतिहास में ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है।

छठी शताब्दी में हूणों के हाथों गुप्तों का पराभव हो गया। हूणों ने संपूर्ण उत्तरी भारत में भगवान विष्णु की मूर्तियों को भारी क्षति पहुंचायी। उन्होंने बौद्ध मठों पर भी आक्रमण किया। हजारों मठ, स्तूप और मंदिर नष्ट कर दिये गये। गुप्तों के पराभव के कारण भागवत धर्म अथवा वैष्णव धर्म को राजकीय संरक्षण मिलना कम हो गया जिसके कारण बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने अपना प्रभाव बढ़ाया। उस समय देश के अधिकांश राजा या तो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे या फिर जैन धर्म के।

इस समय तक भारत भूमि पर जितने भी बाह्य आक्रमण हुए थे उनसे राष्ट्र की राज्यशक्ति को तो हानि पहँुची थी किंतु उनके द्वारा राष्ट्र की जनता को अपना धर्म त्याग कर आक्रांताओं का धर्म अपनाने की बाध्यता उत्पन्न नहीं की गयी थी। आठवीं शताब्दी में देश की सीमाओं पर इस्लाम ने पहली दस्तक दी। अहिंसावादी दर्शन से प्रभावित राज्य शक्ति एवं सामान्य प्रजा इस चुनौती का सामना करने में समर्थ नहीं थी। ठीक इसी समय भारत भूमि पर आदिजगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ। उन्होंने बौद्ध धर्म के ‘शून्यवाद’ की प्रतिक्रिया में ‘अद्वैतवाद’ का सिद्धांत दिया तथा वेदविहित याज्ञिक कर्मकाण्ड की पुनर्स्थापना की। कुमारिल भट्ट ने भी स्थान-स्थान पर बौद्धों से शास्त्रार्थ कर शून्यवाद को ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बौद्ध धर्म के शून्यवाद की प्रतिक्रिया नाथों के आविर्भाव के रूप में भी हुई। नाथों और सिद्धों ने यौगिक क्रियाओं के माध्यम से निर्गुण भक्ति का मार्ग पकड़ा और बौद्धों के शून्यवाद को अपने अंदर समाहित कर लिया। शून्यवाद के विरोध में उठ खड़ी होने वाली ये समस्त धारायें शैवधर्म के अंतर्गत उत्पन्न होने वाली, एक दूसरे से भिन्न एवं परिष्कृत शाखायें थीं।

शंकराचार्य के अद्वैत, कुमारिल भट्ट के शास्त्रार्थ, नाथों के योग तथा सिद्धों की उलटबांसियों ने बौद्धधर्म को तो रसातल में पहुँचा दिया किंतु शैवधर्म की ये शाखायें न तो दार्शनिक स्तर पर, न मनोवैज्ञानिक स्तर पर और न ही राजनीतिक स्तर पर इस्लाम से टक्कर लेने में समर्थ थीं। शाक्तधर्म जैनधर्म की भी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं राजनीतिक स्तर पर यही स्थिति थी।

जिस समय इस्लाम भारत का द्वार खटखटा रहा था, उस समय दक्षिण भारत में 6ठी से 9वीं शताब्दी के बीच आलवार संतों का उदय हुआ। इन संतों की तीन सौ साल लम्बी एक सुदीर्घ परम्परा में 12 संद हुए। ये सभी तमिल भाषा के प्रसिद्ध कवि एवं सन्त थे।

आलवार संतों के पदों का संग्रह ‘दिव्य प्रबन्ध’ कहलाता है जिसे दक्षिण भारत में ‘वेदों’ के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त ही वस्तुतः भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। ये लोग भगवान विष्णु या नारायण की उपासना करते थे।

बाहर आलवार संत-कवियों के नाम इस प्रकार हैं- (1) पोय्गै आलवार, (2) भूतत्तालवार, (3) पेयालवार, (4) तिरुमालिसै आलवार, (5) नम्मालवार, (6) मधुरकवि आलवार, (7) कुलशेखरालवार, (8) पेरियालवार, (9) आण्डाल, (10) तोण्डरडिप्पोड़ियालवार, (11) तिरुप्पाणालवार तथा (12) तिरुमंगैयालवार।

आलवार संतों ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य को भगवान की भक्ति करने का समान अधिकार है। इस बारह संतों में से कुछ निम्न कही जाने वाली जातियों में उत्पन्न हुए थे। ये लोग पूरे तमिल प्रदेश में पदयात्रा करके भगवान विष्णु की भक्ति का प्रचार करते थे। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत ‘मालायिर दिव्य प्रबन्ध’ नामक ग्रंथ में संग्रहित हैं। यह ग्रंथ भक्ति तथा ज्ञान का अद्भुत कोश है।

इस प्रकार जिस समय इस्लाम भारत भूमि पर चढ़कर आया, ठीक उसी समय दक्षिण भारत में भगवान ने आलवार संतों के रूप में विष्णुभक्तों के ऐसे शक्तिपुंज का बीजारोपण कर दिया जो आगे चलकर इस्लाम का सामना करने वाली थी किंतु विष्णुभक्ति की इस धारा को दक्षिण से चलकर उत्तर भारत में पहुंचने में कुछ समय की आवश्यकता थी।

जब मुस्लिम आक्रांता हिन्दुकुश पर्वत को रौंदते हुए और पंजाब को कुचलते हुए गंगा-यमुना के मैदानों में घुसने लगे तब उनका सामना करने के लिये चार क्षत्रियवंश सामने आये। इन्हें प्रतिहार, परमार, चाहमान तथा चौलुक्य के नाम से जाना गया। इन चारों राज्यवंशों ने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना किया एवं उन्हें भारतभूमि में राज्य स्थापित नहीं करने दिया।

दुर्भाग्य से इन चारों शक्तियों ने बाह्य आक्रमणों के विरुद्ध अपनी शक्ति लगाने के साथ-साथ आपस में भी एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति रखी। इस कारण ये तीन सौ वर्ष की अवधि में ये चारों शक्तियां इस्लाम के हाथों बुरी तरह पराजित हुईं।

ई.1001 मंे महमूद गजनवी ने पंजाब के राजा जयपाल को परास्त कर बुरी तरह अपमानित किया। अपमानित जयपाल जीवति ही अग्नि में प्रवेश कर गया। इस घटना से भारतवर्ष की आत्मा कांप उठी। ई.1008 में जयपाल के पुत्र आनंदपाल ने दिल्ली, अजमेर, कन्नौज, कालिंजर तथा ग्वालिअर आदि राजाओं से सहायता प्राप्त कर महमूद गजनवी का मार्ग रोका किंतु भारतीय राजाओं का यह समूह मुस्लिम आक्रांता के हाथों बुरी तरह पराजित हुआ।

ई.1018 में महमूद गजनवी ने मथुरा को तोड़ा। अगले ही वर्ष गजनवी फिर लौट कर आया। इस बार उसने कन्नौज के दस हजार मंदिरों को तोड़ा। ई.1025 तक वह लगातार आक्रमण करता रहा।

ई. 1175 से भारत भूमि पर मुहम्मद गौरी के आक्रमण आरंभ हुए। उसने भारत पर सत्रह आक्रमण किये। हर बार वह बड़ी संख्या में भारतीय स्त्री-पुरुषों एवं बच्चों को पकड़ कर ले गया। हर बार उसने भारत में भयानक मारकाट मचायी। हर बार उसने लाखों गायों की हत्या की।

ई.1193 में मुहम्मद गौरी ने दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान की हत्या कर दी जिससे भारत भूमि पर मुस्लिम शासन स्थापित हो गया। इससे राष्ट्र की आंतरिक परिस्थितियों में पूरी तरह बदलाव आ गया। राष्ट्र को अब बाहर से आने वाले आक्रांताओं से सामना नहीं करना था। अपितु आक्रांता ही अब देश के शासक थे।

मुहम्मद गौरी की सेनाओं ने राष्ट्र के आत्म-गौरव एवं देवालयों को भारी क्षति पहुंचायी। बड़ी संख्या में लोगों को बलपूर्वक इस्लाम ग्रहण करने के लिये बाध्य किया। हजारों-लाखों ब्राह्मण मौत के घाट उतार दिये, लाखों स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया, देवप्रतिमाओं का खण्डन किया, धर्म ग्रंथों को नष्ट किया तथा तीर्थ स्थान अपवित्र कर दिये।

मंदिर एवं पाठशालायें ध्वस्त करके उनमें मस्जिदें बना दीं। लाखों लोग पराधीन और असहाय स्थिति में अपना धर्म त्यागने को विवश हो गये। संपूर्ण राष्ट्र में हाहाकार मच गया। हिन्दू धर्म विनाश के कगार पर आ खड़ा हुआ।

जब राज्य शक्ति राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा करने में असमर्थ रही तो जन सामान्य ने आध्यात्मिक शक्ति का सहारा ढूंढा। अतः राष्ट्र को एक ऐसे धर्म की आवश्यकता अनुभव हुई जो जागतिक स्तर पर स्वधर्म में बने रहने के लिये आवश्यक मनोबल प्रदान कर सके, मनोवैज्ञानिक स्तर पर संकट के समय अपनी तथा अपने परिजनों की रक्षा के लिये ईश्वरीय सहायता का भरोसा प्रदान कर सके तथा पारलौकिक स्तर पर आत्म कल्याण का विश्वास उपलब्ध करवा सके।

ऐसे कठिन समय में वैष्णव आचार्यों द्वारा जनसामान्य को ईश्वर के सगुण साकर स्वरूप की भक्ति की ओर प्रेरित किया गया। इस हेतु रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद की, माध्वाचार्य ने द्वैतवाद की, निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद की और महाप्रभु वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैतवाद की प्रतिष्ठापना की। इन मतों की स्थापना आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के सिद्धांत की प्रतिक्रिया के रूप में की गयी किंतु अब वे मत इस्लाम से लड़ने के प्रमुख हथियार बन गए थे।

शंकराचार्य के मायावाद और रहस्यवाद को काटकर सहज सुलभ भक्ति मार्ग का प्रतिपादन करने के लिये रामानुजाचार्य ने श्री संप्रदाय की स्थापना की। चौदहवीं शताब्दी में इस संप्रदाय के प्रधान आचार्य राघवानंद हुए, उन्होंने वैष्णव संत रामानंद को श्री संप्रदाय का प्रमुख बनाया। रामानंद ने बैकुण्ठवासी विष्णु के स्थान पर पृथ्वीलोक पर लीला करने वाले राम को अपना इष्ट बनाया। तुलसी इस परंपरा के सबसे बड़े उत्तराधिकारी सिद्ध हुए।

माध्वाचार्य ने विष्णु-भक्ति का, निम्बार्काचार्य ने राधा और श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभाचार्य ने बालश्रीकृष्ण की उपासना पर बल दिया और पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जन्म ईसा की चौदहवीं शताब्दी में वैष्णव संत रामानंद के जन्म से पहले भारत भूमि पर मुस्लिम आक्रांता शासन कर रहे थे जो हिन्दुओं को इस्लाम में लाने के लिए भयानक अत्याचार कर रहे थे। उनका सामना करने के लिए न केवल राजनीतिक स्तर पर अपितु अध्यात्मिक स्तर पर भी हलचल तेज थी।

 -डॉ. मोहनलाल गुप्ता

रामानंद की समन्वयवादी परम्परा

0
Religious Harmany by Ramanand
Ramanandacharya ki Samanvayavadi Parampara

रामानंद की समन्वयवादी परम्परा के बारे में पढ़ने से पहले हमें उनकी गुरुपरम्परा के आचार्य रामानुज एवं राघवानंदाचार्य के बारे में संक्षेप में जानना चाहिए।

रामानुजाचार्य

श्रीरामानुजाचार्य का प्राकट्य वि.सं. 1074 (ई.1017) में दक्षिण भारत में हुआ। उन्होंने श्री वैष्णव संप्रदाय के विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। वे भगवान् संकर्षण के अवतार माने जाते हैं। उनका संप्रदाय श्री संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें विष्णु या नारायण की उपासना पर बल दिया गया। इस संप्रदाय में अनके अच्छे-अच्छे संत और महात्मा होते रहे।

राघवानंदाचार्य

रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य राघवानंद हुए। राघवानंद, रामानंद को दीक्षा देकर निश्चिंत हुए।

रामानंदाचार्य

रामानंद श्री संप्रदाय के प्रमुख वैष्णव आचार्य हुए। भारत के मध्यकालीन इतिहास में रामानंद ऐसे अद्भुत संत हैं जो अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण से समाज एवं राष्ट्र को नवीन दिशा देने में समर्थ हुए हैं। रामानंद ने देशव्यापी पर्यटन द्वारा अपने संप्रदाय का प्रचार किया। इनके दो ग्रंथ मिलते हैं- वैष्णव मताब्ज भास्कर तथा रामार्चन पद्धति।

रामानुज के शिष्य होते हुए भी रामानंद ने अपनी उपासना पद्धति का विशिष्ट रूप रखा। इन्होंने उपासना के लिये बैकुंठ निवासी विष्णु का रूप न लेकर लोक में लीला करने वाले विष्णु के अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेव राम हुए तथा मूलमंत्र हुआ राम नाम।

रामानंद का जीवनकाल

रामानंदाचार्य के जीवनकाल का सही निर्धारण अब तक नहीं किया जा सका है। हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने रामानंद का काल 12वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध का माना है। दूसरी ओर उनके शिष्यों में कबीर, रैदास और नरहरि के नाम लिये जाते हैं। शिष्यों की नामावली को यदि सही माना जाये तो रामानंद का 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होना सही नहीं है।

यदि रामानंद 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए तो कबीर, रैदास और नरहरि रामानंद की शिष्य परंपरा में तो हो सकते हैं किंतु रामानंद के स्वयं के शिष्य नहीं हो सकते। क्योंकि कबीर का समय वि.सं. 1455 (ई. 1398) माना जाता है। जबकि यह सर्वविदित मान्यता है कि रामानंद कबीर के गुरु थे और दोनों संत समकालीन थे।

इसी प्रकार यदि नरहरि रामानंद के शिष्य थे तो भी रामानंद का जीवन 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में नहीं हो सकता। नरहरि गोस्वामी तुलसीदास के गुरु थे। तुलसीदास ने सं. 1631 (ई. 1574) में रामचरित मानस का लेखन आरंभ किया था तथा संवत् 1680 (ई. 1623) में शरीर का त्याग किया था। इस काल निर्धारण के आधार पर नरहरि रामानंद और तुलसीदास दोनों के समकालीन उसी अवस्था में हो सकते हैं जब रामानंद का जीवन काल 15वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य माना जाये।

इसी प्रकार रामानंद के अन्य शिष्य रैदास भी मीरां के गुरु माने जाते हैं। मीरां अकबर की समकालीन थीं इस प्रकार यह काल भी सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के लगभग आता है।

गीताप्रेस गोरखपुर की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के संतवाणी अंक में रामानंदाचार्य के आविर्भाव का समय वि.सं. 1324 (ई.1267) और अन्तर्धान होने का समय वि.सं. 1515 (ई. 1458) विनिर्दिष्ट किया गया है। इस काल गणना के अनुसार रामानंद की आयु 191 वर्ष बैठती है जो कि उचित प्रतीत नहीं होती। अतः विभिन्न साक्ष्यों का विवेचन करने के बाद निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि रामानंद 15वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य विद्यमान थे।

रामानंद की समन्वयवादी परम्परा

रामानंद ने उत्तरी भारत में रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का जोरों से प्रचार किया। उन्होंने विष्णु के सगुण और निर्गुण, दोनों रूपों की उपासना पर बल दिया। उनकी शिष्य परम्परा में राजा और रंक, ब्राह्मण और चर्मकार, सगुणवादी और निर्गुणवादी तथा स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के व्यक्ति थे। ईश्वर की कृपा के अधिकारी होने के सम्बन्ध में रामानंद स्वयं कहते हैं-

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा। शक्ता अशक्ता अपि नित्यरंगिणः।

अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं नो चापि कालो हि शुद्धता च।

– वैष्णवमताब्जभास्कर 99

      अर्थात्- भगवान के चरणों में अटूट अनुराग रखने वाले सभी लोग चाहे वे समर्थ हों या असमर्थ, भगवत् शरणागति के नित्य अधिकारी हैं। भगवत् शरणागति के लिये न तो श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न किसी प्रकार की शुद्धि ही अपेक्षित है। सब समय और शुचि-अशुचि सभी अवस्थाओं में जीव उनकी शरण ग्रहण कर सकता है।

दानं तपस्तीर्थनिषेवणं जपो चात्स्यहिंसासदृशं सुपुण्यम्।

हिंसामतस्तां  परिवर्जयेज्जनः  सुधर्मनिष्ठो  दृढधर्मवृद्धये।

– वैष्णवमताब्जभास्कर 111

अर्थात्- दान, तप, तीर्थसेवन एवं मंत्रजाप, सभी उत्तम हैं किंतु इनमें से कोई भी अहिंसा के समान पुण्यदायक नहीं है। अतः सर्वश्रेष्ठ वैष्णव धर्म का पालन करने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह अपने सुदृढ़ धर्म की वृद्धि के लिये सब प्रकार की हिंसा का परित्याग कर दे।

भक्तापचार   मासोढुं   दयालुरपि  स   प्रभुः।

शक्तस्तेन युष्माभिः कर्त्तव्यो क्कचित्।

– श्री रामानंद दिग्विजय 12/5

      अर्थात्- यद्यपि प्रभु दयालु हैं, तथापि अपने भक्तों की अवहेलना को नहीं सह सकते। अतः तुम लोग कभी भी प्रभु के भक्त का अपराध न करना।

यद्यपि रामानंदाचार्य ने राम को ही अपना इष्टदेव घोषित किया किंतु उन्होंने श्री हरि नारायण विष्णु के बैकुण्ठवासी स्वरूप की भी स्तुति की तथा उनके लौकिक अवतार दशरथनंदन श्रीराम के साथ साथ देवकीनंदन श्रीकृष्ण की भी स्तुति करने में पूरा उत्साह दिखाया है। रामानंद की समन्वयवादी परम्परा आगे चलकर उनकी शिष्य परम्परा में भी पूरे वेग से दिखायी पड़ती है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

रामानंद के शिष्य

0
Ramanandacharya ke shishya
Ramanandacharya ke shishya

वैष्णव संत रामानंद तथा रामानंद के शिष्य पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारतीय जनमानस का अध्यात्मिक नेतृत्व करने के लिए विशेष भूमिका निभाने में सफल रहे। इस आलेख में रामानंद तथा उनके शिष्यों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत पर मुगलों का शासन था और मुसलमानों ने राष्ट्र के हर अंग पर शिकंजा कस लिया था। हिन्दुओं को अपने धर्म पर टिके रहना कठिन हो रहा था और वे निराशा के सागर में गोते लगा रहे थे। सनातन धर्म की ऐसी दुरावस्था देखकर वैष्णव संतों ने हिन्दू समाज को भक्ति का मार्ग दिखाने का अद्भुत कार्य किया। इस काल में श्रीसम्पद्राय में रामानंद नामक आचार्य हुए जिन्होंने शिष्यों की एक अद्भुत मण्डली तैयार की।

हिन्दू धर्म की सभी जातियों के शिष्य

रामानंद के शिष्य विभिन्न जातियों के, विभिन्न आयु वर्ग के तथा विभिन्न रुचियों वाले अर्थात् सगुणोपासक एवं निगुणोपासक संत थे। रामानंद की शिष्य मण्डली के सदस्य विलक्षण प्रतिभा वाले, उच्च कोटि के संत एवं सच्चे समाज सुधारक हुए। उन्होंने देश में भक्ति की ऐसी सरिता बहाई कि जनसाधारण को ईश्-भक्ति के रूप में अपनी मुक्ति का मार्ग दिखाई देने लगा और हिन्दू समाज निराशा के पंक से बाहर निकलने में सफल रहा।

संत शिरोमणि रामानंद के शिष्य वास्तव संख्या कितनी थी, इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित मत स्थापति नहीं किया जा सकता। सहज अनुमान किया जा सकता है कि इस युग प्रवर्तक विभूति के शिष्यों की संख्या अत्यधिक रही होगी। भारत भ्रमण के समय में स्थान-स्थान पर लोग उनके व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें अपना गुरु मानने लगे होंगे। फिर भी उनके 12 प्रमुख शिष्यों का उल्लेख कई स्रोतों से मिलता है। इन शिष्यों के बारे में एक दोहा भी कहा जाता है-

अनतानन्द, कबीर, सुखा, सुरसुरा, पद्मावती, नरहरि।

पीपा, भगवानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि।

इन नामों को इस प्रकार से पढ़ा जा सकता है- अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावति, नरहरि, पीपा, भावानंद, रैदास, धन्ना, सेना तथा सुरसुरानंद की धर्मपत्नी।

रामानंदाचार्य तथा उनके शिष्यों का एक चित्र अनेक पुस्तकों में प्रकाशित होता रहा है जिसमें मध्य स्थान में एक चौकी पर रामानंदाचार्य विराजमान हैं तथा उनके दोनों तरफ अर्द्धगोलाकार क्रम में उनके शिष्य सुशोभित हैं। सभी शिष्यों के तिलक एवं छापे एक समान हैं। प्रायः कबीर एवं तुलसी के चित्रों में इस प्रकार के तिलक एवं छापे मिलते हैं। यह चित्र विश्वसनीय नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें सभी बारह शिष्य पुरुष हैं, जबकि रामानंदाचार्य के 12 प्रमुख शिष्यों में दो चित्र स्त्री शिष्यों के होने चाहिये।

यदि शिष्यों की इस नामावली को ध्यान से देखा जाये तो इनमें से कबीर जुलाहे थे तथा कपड़ा बुनकर जीवन यापन करते थे। रैदास चर्मकार थे तथा जूतियां गांठकर जीवन यापन करते थे। पीपा राजा थे तथा गागरोन दुर्ग के स्वामी थे। नरहरिदास काशी की कुलीन परम्परा के सुंस्कृत ब्राह्मण थे। सुरसुरानंद की पत्नी तथा पदमावती भी रामानंद की शिष्य मण्डली में थी। अर्थात् रामानंद की शिष्यमण्डली में पुरुष एवं स्त्री दोनों को स्थान मिला।

रामानंदाचार्य के शिष्यों में से कबीर, पीपा तथा रैदास कवि थे। इन्हें मध्ययुगीन भक्तिकाल में संतकवि की प्रतिष्ठा प्राप्त है। कवि होने के कारण इन संतों की महिमा काल व लोक की सीमाओं को पार करके दूर दूर तक प्रकाशित हुई।

जिस संत के शिष्यों में राजा एवं काशी के पण्डित से लेकर जुलाहे और चर्मकार तक अर्थात् समाज के सभी वर्गों के लोग हों, सगुणोपासक से लेकर निगुणोपासक हों, स्त्री एवं पुरुष हों, उस संत की समन्वयवादी प्रवृत्ति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

गुरु के विशाल व्यक्तित्व की छाप

रामानंदाचार्य के शिष्यों में से कबीर, नरहरि, पीपा तथा रैदास युगप्रवर्तक संत सिद्ध हुए जिन्होंने भारतीय मनीषा को झकझोर कर रख दिया। रामानंद के शिष्यों पर गुरु के विशाल व्यक्तित्व की कितनी गहरी छाप रही होगी, इसका अनुमान इन शिष्यों द्वारा लिखे हुए पदों से लगाया जा सकता है। कबीर ने लिखा है-

गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपके गोबिंद दियो बताय।

नरहरि स्वयं कवि नहीं थे। उन्होंने रामानंद से जो पाया था वह सब ब्याज सहित तुलसीदासजी को प्रदान कर दिया। इसलिये नरहरि की वाणी तुलसी के रूप में प्रकट हुई मानी जा सकती है। तुलसी ने अपने गुरु नरहरि के लिये लिखा है-

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।

तुलसी के काव्य में अभिव्यक्त प्रगाढ़ गुरु-भक्ति, वस्तुतः संत नरहरि की अपने गुरु रामानंद के प्रति समर्पित गुरु-भक्ति की अभिव्यक्ति ही है। संत रैदास ने अपने गुरु की वंदना में लिखा है-

साधो सतगुरु सब जग चेला। अबकै बिछुरे मिलन दुहेला।

रामानंद के शिष्य अध्यात्म की दो शाखाओं पर अग्रसर हुए। इनमें से कबीर तो निर्गुणियों के तारणहार हो गये और नरहरि सगुणोपासकों की एकमात्र आशा। एक ही गुरु से ज्ञान पाकर उनके शिष्य इतने अंतर पर जा खड़े हुए और उन्होंने अपने-अपने मार्ग से संसार को जगाने का काम किया, यह एक आश्चर्य के ही समान है। सगुणोपासकों और निर्गुणोपासकों के भारी दार्शनिक अंतर के उपरांत भी रामानंद के शिष्य एक दूसरे के काफी निकट खड़े हैं।

एक ओर तो निर्गुणिया कबीर अचानक सगुणोपासकों के आराध्य दशरथ नंदन को ही ईश्वर स्वीकार करते हुए कह उठते हैं-

दशरथ सुत तिहुं लोक समाना। राम नाम का मरम है आना।

    तो दूसरी ओर सगुणोपासना की ध्वजा उठाने वाले तुलसी अचानक निर्गुणियों की वाणी बोलने लग जाते हैं-

एक  अनीह  अरूप   अनामा।   अज   सच्चिदानंद  पर  धामा।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।

आनन  रहित  सकल रस भोगी।  बिनु बानी  बकता बड़  जोगी।

तन  बिनु  परस नयन बिनु देखा।  ग्रहइ  घ्रान बिनु बास असेषा।

वस्तुतः रामानंद के भेदाभेद दर्शन को तुलसी के शब्द नयी वाणी देते हुए प्रतीत होते हैं, जब वे कहते हैं-

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं श्रुति पुरान बुध बेदा।

नाभादास कृत भक्तमाल में रामानंदाचार्य के इन अद्वितीय शिष्यों का संक्षिप्त वर्णन मिलता है।

रामानंद के प्रमुख शिष्य

अनंतानंद

रामानंद संप्रदाय के ग्रंथों में इनका नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। इन्हें भी अपने गुरु के ही समान जगद्गुरु कहकर संबोधित किया गया है। नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है-

अनंतानंद पद परिस कै लोकपाल से ते भए।

अर्थात्- अनंतानंद के शिष्य अपने गुरु के चरणों का स्पर्श करके लोकपालों के समान शक्तिशाली हो गये। अनंतानंद के बचपन का नाम छन्नूलाल था। वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। अनंतानंद ने ‘श्रीहरि भक्ति सिंधु वेला’ नामक ग्रंथ की रचना की।

भक्तमाल के अनुसार अनंतानंद के एक शिष्य का नाम नरहरि था। अब यह निर्धारित करना कठिन है कि ये वही नरहरि हैं जो रामानंदाचार्य के शिष्यों में गिने जाते हैं। अथवा कोई भिन्न व्यक्ति हैं। अनुमान यही होता है कि रामानंदाचार्य के शिष्य नरहरि तथा अनंतानंद के शिष्य नरहरि, एक ही व्यक्ति हैं क्योंकि काल गणना के अनुसार भी यही अधिक उपयुक्त सिद्ध होता है।

यदि नरहरि अनंतानंद के शिष्य थे फिर भी वे रामानंदाचार्य के प्रमुख शिष्यों में स्थान पा गये हैं तो भी कुछ अतिश्योक्ति नहीं मानी जा सकती क्योंकि शिष्य का शिष्य होने से नरहरि रामानंदाचार्य के भी शिष्य कहे जा सकते हैं।

श्री रामानंदाचार्य के साकेतवासी होने पर अनंतानंद को ही वैष्णवाचार्य के पीठ पर अभिषिक्त किया गया था किंतु गुरु विरह को सहन नहीं कर पाने के कारण एक वर्ष बाद ही वे अपने वरिष्ठ शिष्य कृष्णदासजी को आचार्य पीठ पर अभिषिक्त करके स्वयं स्वच्छंद परिभ्रमण के लिये निकल पड़े। मान्यता है कि उन्होंने 113 वर्ष की आयु में साकेत गमन किया।

संत कबीर

कबीर का प्राकट्य काल विवादास्पद है और उनका कुल गोत्र आदि भी अज्ञात है। मान्यता है कि कबीर का जन्म विक्रम संवत 1455 में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को सोमवार के दिन हुआ। यह भी मान्यता है कि कबीर ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे तथा किसी कुमारी के पुत्र होने के कारण माता द्वारा लोकलाज के भय से मार्ग में छोड़ दिये गये थे जहाँ से नीरु-नीमा नामक दम्पत्ति उन्हें अपने घर ले आया और अपने पुत्र की ही तरह इनका लालन पालन किया। यही बालक इतिहास में संत कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनकी विधिवत् शिक्षा दीक्षा नहीं हुई थी किंतु इन पर माता सरस्वती की विशेष कृपा रही। ये गृहस्थ संत थे तथा इनके एक पुत्र एवं एक पुत्री भी थी। कबीर का निधन मगहर में वि.सं. 1549 में हुआ। इस मान्यता के अनुसार उनकी आयु 94 वर्ष हुई।

कबीर निर्गुणवादी थे किंतु अपने गुरु रामानंद के प्रभाव के कारण उन्होंने भगवान के सगुण उपाधियों वाले नामों का भी प्रयोग किया है। कबीर ने सिद्धों और नाथों की रहस्यमयी वाणी को जनोपयोगी वाणी में ढाल दिया। वाम मार्ग का निराकरण करके वैष्णव मत का प्रतिपादन करने में उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी। एक स्थान पर वे कहते हैं-

साखत बामन मत मिलो, वैष्णो मिलो चण्डाल।

अंक  माल  दे  भेंटिए मानो  मिले गोपाल।

    रामानंद द्वारा हिंसा के विरोध में मुखर किया गया स्वर कबीर की वाणी में इस प्रकार दिखायी देता है-

बकरी पाती खात है तिनकी काढ़ी खाल।

जे नर बकरी खात हैं तिनका कौन हवाल।

सुखानंद

    ये उज्जैन के ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम त्रिपुरारि भट्ट तथा माता का नाम जाम्बुवती था। इनके बचपन का नाम चंद्रहरि था। नाभादास ने भक्तमाल में इनके बारे में लिखा है-

भक्तिदास भए हरण भुज सुखानंद पारस परस।

सुख सागर की छाप राग गौरी रुचि न्यारी।

पद रचना गुरु मंत्र मनो आगम अनुहारी।

हरि गुरु कथा अपार भाल राजत लीला भर।

भक्तिदास भए हरण भुज सुखानंद पारस परस।  

सुरसुरानंद

इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. सुरेश्वर शर्मा तथा माता का नाम सरला था। इनका जन्म वैशाख कृष्ण नवमी गुरुवार को वसंत ऋतु में हुआ था। जन्म का संवत ज्ञात नहीं है। इन्हें नारद मुनि का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि सरयू के तट पर इन्हें भगवान श्रीराम ने दर्शन दिये। नाभादास ने भक्तमाल में इनका परिचय दिया है।

संत नरहरि

संत नरहरि को शिष्य के रूप में प्राप्त करना, रामानंद की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। नरहरि को रामानंदाचार्य से जो विराट व्यक्तित्व प्राप्त हुआ उसका संपूर्ण उपयोग तुलसीदास जैसे युगप्रवर्तक शिष्य को तैयार करने में हुआ। नरहरि सूकरखेत के रहने वाले थे। उनके जीवन चरित के सम्बन्ध में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है किंतु गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में नरहरि को बारम्बार स्मरण किया है और अगाध श्रद्धा के साथ नमन किया है।

इन्हें नरहर्यानंद भी कहा जाता है। इनका जन्म वृंदावन में हुआ। इनके जन्म की तिथि वैशाख माह में कृष्ण पक्ष की तृतीया मानी जाती है। इनका जन्म संवत ज्ञात नहीं है। आप रामचरित मानस के रचियता तुलसीदास के गुरु थे। नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है-

नपट नरहर्यानंद को कर दाता दुर्गा भई

घर पर लकड़ी नहिं शक्ति को सदन उजारैं।

शक्ति भक्त सो बोलि दिनहिं प्रति बरही डारैं।

लगी परोसनि हबस भवानी भय सो मारैं।

बदले की बेगारि मूडि वाके शिर डारैं

भगत प्रसंग ज्यों कालिका लडू देखि तन में तई

निपट नरहर्यानंद को कर दाता दुर्गा भई।

वस्तुतः रामानंद का विशाल दृष्टिकोण तुलसीदास की लेखनी के माध्यम से पूरे ठाठ-बाट के साथ प्रकट हुआ। लोककल्याण का जो चरम भाव तुलसी की लेखनी में प्रकट हुआ उसका वर्णन शब्दातीत है। वे लिखते हैं-

कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें।

अर्थात्- जो व्यक्ति सब के हित का साधन करता है उसे भला कैसे दुख हो सकता है ठीक उसी प्रकार जैसे पारस मणि के होने पर कोई निर्धन नहीं रह सकता। कहने का आशय यह कि तुलसी ने परहित को पारस मणि के समान परिणाम देने वाला माना है।

रामानंद का समन्वयवादी दृष्टिकोण तुलसी की लेखनी में अपने चरम को प्राप्त कर गया है जब तुलसी, शिव और राम को एक दूसरे का स्वामी, एक दूसरे का सेवक और एक दूसरे का सखा घोषित करते हुए कहते हैं-

‘सेवक स्वामि सखा सिय पिय के।’

इसी प्रकार रामचरित मानस के बालकाण्ड में शिव, पार्वती से कहते हैं-

जो  नहिं करहिं  राम गुन गाना।  जीह सो दादुर जीह समाना।

कुलिस कठोर निठुर सोई छाती। सुनि हरि चरित न जो हरषाती।

दूसरी ओर रामचरित मानस के लंकाकाण्ड में राम, अपने मंत्रियों से कहते हैं-

सिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।

संकर  बिमुख भगति चह मोरी।  सो नारकी मूढ़ मति थोरी।

उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के राम, अपने भक्तों को शिवभक्ति की प्रेरणा देने के लिये हाथ जोड़ते हुए दिखायी देते हैं-

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहऊँ कर जोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।

यह सब रामानंद की अद्भुत समन्वयवादी दृष्टि का ही प्रसाद है जो तुलसीदास, वैष्णव और शैव संप्रदायों में समन्वय स्थापित करने के लिये शिव और राम को एक दूसरे का आराध्य बताते हैं। यद्यपि शिव, विष्णु का ऐक्य कोई सर्वथा नवीन कल्पना नहीं थी तथापि बीज रूप से चले आ रहे इस दर्शन को रामानंद ने अध्यात्मिक जल से सींच कर प्रस्फुटित किया।

तुलसी ने शाक्तों को भी वैष्णव धर्म के निकट लाने के लिये पार्वती की स्तुति के माध्यम से नवीन भक्तिरस की वर्षा की। बालकाण्ड में वे जनकनंदिनी सीता के मुख से पार्वती की स्तुति इन शब्दों में करवाते हैं-

नहिं तव आदि मध्य अवसाना।  अमित प्रभाउ वेद  नहिं  जाना।

भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।

सेवत  तोहि  सुलभ  फल चारी।  बर  दायिनी  पुरारि पिआरी।

संत पीपा

राजस्थान में कालीसिंध नदी के तट पर स्थित गागरौण राज्य के खींची चौहान शासक जैतसिंह की तीसरी पीढ़ी के वंशज थे। उनका जन्म विक्रम संवत् 1417 में चैत्री पूर्णिमा के दिन हुआ। अपने पिता की मृत्यु के बाद वे गागरौण के शासक हुए।

वैष्णव संत रामानंद की कृपादृष्टि प्राप्त होने पर पीपा ने अपने भाई अचलदास खींची को गागरोन का राजपाट देकर रामानंदाचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। जब वे राजपाट त्याग कर गुरु की सेवा में पहुँचे तो गुरु ने कहा कि कुएँ में गिर जाओ। पीपा उसी समय कुंए की ओर चल पड़े। पीपा को देह आसक्ति से मुक्त हुआ जानकर रामानंदाचार्य ने उन्हें अपनी शरण में ले लिया। संत पीपा की सहधर्मिणी भी रानी से सन्यासिन बन गयी तथा जीवन भर इन्हीं के साथ रही।

रामानंद ने हिंसा को सबसे बड़ा पाप और हर हालत में त्याज्य बताया। संत पीपा का यह अकेला दोहा ही न केवल पीपा के अपितु रामानंद के व्यक्तित्व को प्रकट करने में समर्थ है-

जीव मारे जमर करे खाता करे बखान। पीपा यूं प्रत्यक्ष कहे, थाली में धके मसान।

अर्थात्- जो लोग जीवहत्या करते हैं और मांस का भक्षण करते समय उसके स्वाद का गुणगान करते हैं, पीपा को उनकी थाली में शमशान धधकता हुआ दिखाई देता है।

संत पीपा के नीति परक दोहे आज भी पूरे राजस्थान में बड़े चाव से कहे सुने जाते हैं। उन्होंने सदाचार तथा शाकाहार पर बहुत जोर दिया। उनके अनुयायी आज भी स्वयं को पीपा क्षत्रिय कहते हैं। संत पीपा के दोहों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

दारू में दुर्वट बड़ी, कुत्ता पिये न काग।

जो कोई दारू पिये, तिनका बड़ा कुभाग।।

X      X      X

पीपा पाप न कीजिये अलगौ रइजै आप।

करणी जासी आपरी कुण बेटो कुण बाप।।

भावानंद

भावानंद को राजा जनक का पुनर्जन्म माना जाता है। इनका जन्म मिथिला क्षेत्र में बहुवर्ह नामक गाँव में मिश्र ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम विट्ठल पंत था। कहा जाता है कि रामानंदाचार्य की गुफा के बाहर पहुँच कर प्रणाम करते ही इन्हें भगवत्कृपा प्राप्त हो गयी। वे उसी समय वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित होकर रामानंदाचार्य के शिष्य हो गये।

रैदास

    इन्हें धर्मराज का अवतार माना जाता है। इनका पहला जन्म विदुर के रूप में तथा दूसरा जन्म वाराणसी में एक ब्राह्मण कुल में हुआ। तीसरे जन्म में ये रैदास के रूप में प्रकट हुए । इनका जन्म वि.सं. 1465 में तथा साकेत गमन वि.सं. 1584 में हुआ। ये मीरां के गुरु भी कहे जाते हैं। यद्यपि इस बात पर मतभेद अधिक है। ये अपने युग की महान विभूतियों में से एक हुए हैं। इनका यह पद बहुत प्रसिद्ध है-

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥

प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥

प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥

प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा॥

धन्ना

इनका पूरा नाम धन्ना जाट था। ये एक कृषक परिवार में पन्ना जाट के घर में पैदा हुए। इनकी माता का नाम रेवा था। इनका जन्म वैशाख मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में हुआ। एक बार एक ब्राह्मण इनके घर में ठहरा। उसे पूजापाठ करते हुए देखकर ये भी धर्म-कर्म की ओर प्रवृत्त हुए। ये रामानंदाचार्य की शरण ग्रहण करने के लिये काशी आये तथा उनसे वैष्णव मत में दीक्षा ग्रहण की।

सेन

इनका जन्म बांधवगढ़ के निवासी उग्रसेन नापति के घर में हुआ। इनकी माता का नाम यशोदा था। ये वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को रविवार के दिन पूर्व भाद्रपद नक्षत्र में पैदा हुए। जन्म का संवत प्राप्त नहीं होता है। नाभादास ने भक्तमाल में इनका परिचय दिया है। कहा जाता है कि भीष्म पिता को कलियुग में सेन के रूप में मृत्युलोक में आना पड़ा।

महिला शिष्य

रामानंद की दो महिला भक्तों पद्मावती एवं सुरसुरानंद की धर्मपत्नी के जीवन चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं होती है।

रामानंद के शिष्यों पर व्यंग्योक्ति अलंकार

रामानंदाचार्य के शिष्यों की जातियों की ओर संकेत करते हुए किसी अज्ञात कवि ने व्यंग्य पूर्वक लिखा है-

जाट  जुलाह  जुरे  दरजी, मरजी में रहै रैदास चमारौ

ऐते बड़े करुणा निधि को इन पाजिन ने दरबार बिगारौ।

ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं भक्तों की ओर संकेत करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने ब्रह्माजी के मुख से पार्वतीजी की स्तुति के बहाने से कहा है-

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी।

तिन  रंकन  कौ  नाक  संवारत  हौं आयौ नकबानी।

अर्थात्- जिन दरिद्रों के भाग्य में मैंने सुख का कोई संकेत अंकित नहीं किया, उनके द्वारा की गई भोलेनाथ की भक्ति के कारण उन दरिद्रों के लिये स्वर्ग संवारते-संवारते मेरी नाक में दम आ गया है।

वस्तुतः रामानंद न केवल वैष्णव संप्रदायों में समन्वयवादी दृष्टिकोण उत्पन्न करने वाले संत थे अपितु अपने शिष्यों में उन्होंने शैव, शाक्त और वैष्णव संप्रदायों को भी निकट लाने की दृष्टि प्रदान की। उन्होंने हिंसा का जो प्रबल विरोध किया वह भारतीय जनमानस में गहराई तक पैठ गया। आज पूरे विश्व में भारत को अहिंसा का पुजारी कहकर सराहा जाता है, इसके पीछे रामानंदाचार्य और उनके शिष्यों की महत्वपूर्ण भूमिका है।

भारत के मध्यकालीन इतिहास में घटित हुए भक्ति आंदोलन में दशरथनंदन राम का प्रबलता से प्रतिष्ठित होना भी रामानंद की ही देन मानी जा सकती है। रामानंद के शिष्य नरहरिदास के अकेले शिष्य तुलसीदास ही बैकुण्ठवासी विष्णु के लौकिक अवतार के रूप में राम को भारतीय मनीषा में जो स्थान दिला गए, वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।

वस्तुतः शंकराचार्य के बाद इतनी विशाल और व्यापक दृष्टि को लेकर आने वाले आचार्य रामानंद ही थे। उनके योगदान का वास्तविक मूल्यांकन किये जाने के लिये व्यापक शोध की आवश्यकता है।

-मोहनलाल गुप्ता

गोस्वामी तुलसीदास का काव्य तत्कालीन समय का इतिहास है!

0
गोस्वामी तुलसीदास का काव्य - bharatkaitihas.com
गोस्वामी तुलसीदास का काव्य

गोस्वामी तुलसीदास का काव्य सामाजिक चेतना के जिन स्वरों को पाठकों के समक्ष रखता है, वे स्वर वेदों से आने वाली स्तुतियों, उपनिषदों से आने वाले दर्शनों एवं पुराणों से आने वाली भक्तिकथाओं से तो प्रेरित हैं ही, उनमें तत्कालीन समय की झलक भी पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है। तुलसी अपने समय को पहचानते हैं तथा उसे भविष्य के भारत से अलग करते हैं।

निःसंदेह गोस्वामी तुलसीदास का काव्य युगांतरकारी है। राष्ट्रीय पीड़ा को स्वर देने में इतना सक्षम और सशक्त साहित्य और कोई कवि आज तक नहीं रच सका। काव्य-पण्डितों की दृष्टि में तुलसीदास भक्तकवि थे, वे दास्यभाव के भक्त थे, वे समाज को भक्ति के माध्यम से मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले युग-पुरुष थे परंतु यदि इतिहास की दृष्टि से देखें तो गोस्वामी तुलसीदास भक्तकवि होने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ थे।

यदि यह कहा जाए कि तुलसीदास हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक थे, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यदि यह कहा जाए कि तुलसीदास अपने समय के निर्माता थे तो इसमें भी कोई अतिश्योक्ति नहीं थी। यदि यह कहा जाए कि तुलसीदास भविष्य के भारत के निर्माता थे, तो उसमें भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

यह बहुत ही दुःख की बात है कि कम्युनिस्टों से प्रभावित भारतीय इतिहासकार सोलहवीं सदी को मुगल बादशाह अकबर की सदी मानते हैं। यही कारण है कि मैंने कई अवसरों पर इस बात को स्पष्ट किया है कि सोलहवीं सदी गोस्वामी तुलसीदास की थी न कि अकबर की!

अब तक उपलब्ध ऐतिहासिक एवं साहित्यिक स्रोतों के आधार पर यह मान्यता स्थापित की गई है कि रामचरित मानस के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म विक्रम संवत् 1554 (ई.1497) में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हुआ तथा उनका निधन संवत 1680 (ई.1623) में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हुआ। अर्थात् उनकी जन्मतिथि एवं पुण्यतिथि एक ही थी। इन तिथियों से तुलसीदासजी की आयु 126 वर्ष बैठती है। संभव है कि उन्हें इतना लम्बा जीवन न मिला हो किंतु उन्होंने लम्बी आयु पाई, इसमें कोई संदेह नहीं है।

तुलसीदासजी के जन्म के समय तक ईरान एवं अफगानिस्तान से आए तुर्क मुसलमानों को हिन्दुकुश पर्वत से लेकर बंगाल की खाड़ी के बीच में स्थित उत्तर भारत के मैदानों पर शासन करते हुए तीन सौ साल का समय बीत चुका था। विदेशी भूमियों से आए मुसलमान आक्रांता भारत के नर-नारियों को मुसलमान बनाने के लिए उस काल में तरह-तरह के अत्याचार करते थे।

जो हिन्दू भयभीत होकर मुसलमान बन जाते, वे तो अपने परिवार को सुरक्षित बचा लेते थे जबकि अपनी टेक पर दृढ़ रहने वाले हिन्दुओं को उस काल में अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता था। उनके दुःखों का पार न था। आक्रांता सैनिक हिन्दुओं की स्त्रियों को बलपूर्वक छीन लेते, उनके घरों को जला देते, बच्चों को जीवित ही आग में फैंक देते। उनकी झौंपड़ियों मेें रखे अनाज, कपड़ों एवं बरतनों को लूट लेते। खेतों में खड़ी फसलों को आग के हवाले कर देते।

आक्रांता सैनिक यहीं नहीं रुकते थे। वे हिन्दुओं के तीर्थों को गाय के मांस एवं रक्त से दूषित कर देते, मंदिरों में मांस फैंक देते, मंदिरों को तोड़कर उन पर मस्जिद बना देते तथा ऐसा हर कार्य करते थे जिससे हिन्दू जाति निराश होकर मुसलमान बन जाए। बहुत से दुष्ट-हृदय आक्रांता तो हिंदुओं के मुंह में पान की पीक थूकते तथा उनके मुंह में पेशाब करते थे।

जिस समय गोस्वामी तुलसीदास लगभग 30 साल के हुए, उस समय भारत में युगांतकारी सत्ता परिवर्तन हुआ तथा ईरानी एवं अफगानी मुसलमानों की जगह समरकंद से आए मंगोलों ने भारत पर अधिकार कर लिया जो भारत में आकर मुगल कहलाने लगे। ये मूलतः चीनी थे तथा इनमें भी तुर्कों का रक्तमिश्रण हुआ था फिर भी ‘मुगल’ अपने पूर्ववर्ती ‘तुर्क मुसलमानों’ की अपेक्षा कुछ उदार थे।

इसका कारण संभवतः यह था कि जब मंगोल मुसलमान नहीं बने थे, तब उन्होंने अरब से आने वाले तुर्क मुसलमानों से भारी लोहा लिया था। तुर्कों एवं मंगोलों ने एक दूसरे पर भारी अत्याचार किए थे। यहाँ तक कि मंगोलों ने तुर्क मुसलमानों के खलीफा को दरी में लपेट कर लातों से मारते हुए उसके प्राण लिए थे।

सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में मुगलों ने भारत पर अधिकार तो कर लिया किंतु उनके हाथों परास्त हुए अफगानी एवं ईरानी मुसलमानों की सेनाओं के लाखों सैनिक मुगलों एवं मुगल अमीरों की सेनाओं में भरती हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू प्रजा पर विगत तीन शताब्दियों से चला आ रहा अत्याचार इस काल में भी पूर्ववत् जारी रहा। 

हिन्दू देवालयों एवं पवित्र स्थानों को ध्वस्त किये जाने का क्रम, गोस्वामी तुलसीदास के जीवनकाल में भी अनवरत चल रहा था। तुलसीदासजी ने ये दृश्य अपनी आंखों से देखे थे। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास का काव्य अपने समय का आंखों देखा इतिहास बताता है। अपने काव्यग्रंथ कवितावली में गोस्वामीजी ने अपने काल के मुस्लिम शासकों के बारे में लिखा है कि इस कठिन समय में शासक बड़े दयाहीन हैं, राजवर्ग बड़ा ही धोखेबाज है-

कालु कराल, नृपाल कृपाल न, राज समाज बड़ो ही छली है।

तत्कालीन समाज का चित्रण करते हुये, गोस्वामीजी ने लिखा है- किसान के पास खेत नहीं है, भिखारी को भीख नहीं मिल रही है, व्यापारियों के पास व्यापार नहीं है। जीविका नहीं मिलने के कारण लोग दुःखी हो रहे हैं-

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि

बनिक  को  न  बनिज  न चाकर को चाकरी

जीविका  विहीन  लो  सीद्यमान   सोच  बस

कहै  एक एकन सौं,  कहाँ  जाय  का  करी।

गोस्वामी तुलसीदास का काव्य हमें बताता है कि तुलसी अपने समय की राजसत्ता के हिन्दू-विरोधी तथा दमनकारी रूप से बहुत व्यथित थे। उन्होंने अनुभव किया कि पूरा हिन्दू समाज ही नैराश्य के सागर में गोते लगा रहा है और हर प्रकार से कुण्ठित एवं पददलित है। तुलसीदासजी ने भारतीय समाज को निराशा और कुंठा से मुक्त करने के उद्देश्य से त्रेतायुग में हुए विष्णुअवतार श्रीराम के उदात्त चरित्र को नए सिरे से हिन्दू समाज के समक्ष रखा।

तुलसी के राम अपने पूर्ववर्ती समस्त रामकथाओं के राम से पूरी तरह अलग हैं। तुलसी के राम भक्तवत्सल हैं, अंतर्यामी हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। इन सब गुणों से ऊपर, तुलसी के राम संकल्पबद्ध दुष्टहंता हैं। वे भुजा उठाकर दुष्टों के विनाश का प्रण करते हैं-

निशिचरहीन करहुं मही भुज उठाइ प्रन कीन्ह।

तुलसी बाबा ने हिन्दू प्रजा में मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध उठ खड़े होने योग्य साहस जुटाने का मंत्र फूंकने के लिए पतित-पावनी रामकथा का आश्रय लिया।

जब ई.1556 में 14 साल का अकबर भारत में मुगलों का तीसरा बादशाह हुआ, तब तुलसीदासजी की आयु 59 वर्ष रही होगी। गोस्वामीजी ने अपनी आयु का अंतिम भाग अकबर के शासनकाल में बिताया। इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि अकबर ने गोस्वामीजी को अपने दरबार में आने का निमंत्रण भिजवाया था। इस तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने जीवनकाल में ही तुलसीदास कितनी लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे।

चूंकि तुलसी बाबा ने अपने जीवन का उत्तरार्द्ध अकबर के शासनकाल में बिताया था, इसलिए स्वाभाविक ही है कि गोस्वामी तुलसीदास का काव्य विशेषकर रामचरित मानस एवं कवितावली में आया सामाजिक दुर्दशा का वर्णन अकबर एवं उसके शासनकाल से सम्बद्ध रहा होगा। हमें उन भारतीय इतिहासकारों की बुरी नीयत को समझना चाहिए जो अकबर को महान बताते हैं। ऐसे इतिहासकारों में समस्त कम्युनिस्ट इतिहासकार एवं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी शामिल हैं।

गुसाईं तुलसीदास ने तत्कालीन आक्रांता सैनिकों द्वारा हिन्दुओं पर किए जा रहे भीषण अत्याचारों का आरोपण रामचरित मानस में राक्षसों के कुकर्मों के रूप में किया। जब तुलसी बाबा निशाचरों, को परिभाषित करते हैं तब तो स्पष्ट लगता है मानो वे तत्कालीन शासकों एवं उनके सैनिकों की ही चर्चा कर रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास का काव्य इन्हीं वर्णनों से भरा पड़ा है।

तुलसीदासजी ने अपने समय के राजसमाज, को ‘बड़ो ही छली’ कहा है। विनयपत्रिका में भी तुलसीदास यही भाव दोहराते हैं- राज समाज अनेक कुचालों से भर गया है। वे नित नई कुचालें चल रहे हैं। स्पष्ट है कि तुलसीदासजी देख पा रहे थे कि अकबर किस प्रकार सुलहकुल, दीनेइलाही एवं मीना बाजार जैसी नीतियाँ अपना कर हिन्दू समाज को छल रहा था।

इस काल में अकबर तथा उसके शहजादे हिन्दू नारियों से विवाह कर रहे थे और हिन्दुओं को उच्च वेतन वाली नौकरियों पर रखकर उन्हें प्रलोभित कर रहे थे। ये सब बातें अकबर की ‘मधुमिश्रित कूटनीति’ अर्थात् ‘शुगरकोटेड डिप्लोमैसी’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। वह येन-केन प्रकरेण हिन्दुओं को मुसलमान बनाना चाहता था।

बालकाण्ड में वर्णित रावण का चरित्र अकबर के चरित्र का ही निरूपण है। रावण के कुकर्मों तथा अकबर की नीतियों में अद्भुत समानता नजर आती है। रामचरित मानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-

किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठ सबही के पंथहिं लागा।।

ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी।।

अर्थात्- रावण हठपूर्वक किन्नर, सिद्ध, मनुज, देव, नाग आदि के पीछे लग गया जिसके कारण ब्रह्माजी की सृष्टि के समस्त शरीरधारी नर-नारी रावण के अधीन हो गए।

राक्षसों के आचरण के कारण धरती के मानवों की बड़ी दुर्दशा हुई-

जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।

आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा।।

अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।

तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।

बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।

हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति।।

गोस्वामी तुलसीदास के समय में मुगल सैनिक इन्हीं राक्षसों की तरह आचरण कर रहे थे। इन अत्याचारों से उत्पन्न कुंठा एवं निराशा से बाहर निकलने के लिए गुसाईं बाबा ने हिन्दुओं को भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा सुनाई। ऐसे राम जिन्होंने धरती पर अवतार लेकर राक्षसों का संहार किया तथा समाज को उनके संत्रास से मुक्ति दिलवाई।

तुलसी बाबा की रामचरित मानस को पढ़कर समाज में उत्साह का नए सिरे से संचार हुआ। रामचरित मानस के अंत में तुलसीदासजी ने हिन्दू समाज को रामराज्य का मार्ग दिखाया। उत्तरकाण्ड में तुलसीदासजी ने रामराज्य का विशद वर्णन किया है। उन्होंने मानव समाज के समक्ष रामराज्य की ऐसी अभिनव अवधारणा प्रस्तुत की जिसमें कोई भी व्यक्ति किसी से शत्रुता का भाव नहीं रखे, सब लोग प्रेमपूर्वक रहें तथा अपने-अपने धर्म का पालन करें-

बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई।

सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।

रामराज्य की संकल्पना के माध्यम से गोस्वामीजी भारत की प्रजा को यह संदेश देने में सफल हुए कि यदि प्रजा रामजी के आदर्शों पर चले तो सम्पूर्ण धरती को सुखी बनाया जा सकता है। ऐसी धरती जिसमें न भय होगा न शोक और न रोग-

राम राज बैठे त्रैलोका, हर्षित भए गए सब सोका।

तुलसी बाबा ने विष्णु के अवतार श्रीराम का ऐसा लोकनायक स्वरूप चित्रित किया, जिस पर प्रजा विश्वास कर सके। प्रजा को अपना नायक, जननायक अथवा महानायक ढूंढने के लिए किसी राजा की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता न हो वह स्वयं अपने भीतर ही राम को पा सके। तुलसीदास के राम जन-जन के मन में लोकनायक बनकर युगों-युगों के लिए स्थापित हो गए। ऐसे महानायक को पूजने वाली प्रजा को अधिक समय तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता था।

तुलसी के राम इतने विलक्षण हैं कि वे एक ही समय में शस्त्र, शास्त्र, धर्म एवं नीति के पथ पर चलते हुए, अपने कर्म और आचरण के माध्यम से अपने पक्ष में लोकमत तैयार करते हैं। अपने लिए कुछ नहीं रखते, प्रजा के लिए ही सबकुछ अर्पित करते हैं।

गुसाईं तुलसीदास ने अपने जीवन काल में ही रामकथा को गांव-गांव तक पहुंचाने का प्रयास किया। उन्होंने सैंकड़ों गांवों में रामलीलाओं का मंचन करवाया। उनके प्रयासों से हिन्दू समाज का खोया हुआ आत्मबल और विश्वास लौट आया। हिन्दुओं ने अब बड़ी दृढ़ता से मुसलमान हो जाने से मना करना आरम्भ कर दिया। जब मुगल शासकों को प्रजा का सहयोग मिलना बंद हो गया और प्रजा के मन से शासकों का भय जाता रहा तो मुगल सत्ता ही मिट्टी की भीत की तरह भरभराने लगी।

समाज के विघटन का सबसे बड़ा कारण होता है वर्गभेद, जो जाति-पांति, छूत-अछूत तथा छोटे-बड़े के भाव में प्रकट होता है। तुलसीदासजी के समय में ये कुरीतियां अपने चरम पर पहुंच चुकी थीं। इसलिये उन्होंने वर्गभेद पर करारा प्रहार किया। तुलसी निश्चय ही वर्णाश्रम धर्म के समर्थक थे। लेकिन वे वर्णाश्रम व्यवस्था के तात्त्विक रूप के प्रतिपादक थे, विकृत रूप के नहीं। तुलसीदास वर्ण-आधारित भेदभाव के विरोधी थे।

उनका प्रयास शास्त्रीय मर्यादा तथा लोक व्यवहार में समन्वय स्थापित करने का था। जब राम वनगमन करते हैं तो वे निषादराज को अपना मित्र कहकर गले लगाते हैं। इसका प्रभाव सम्पूर्ण हिन्दू समाज पर पड़ता है। जब भरतजी अयोध्यावासियों को साथ लेकर चित्रकूट जाते हैं तो सामाजिक परम्परा के अनुसार निषादराज गुह महर्षि वसिष्ठ को दूर से ही दण्डप्रणाम करता है-

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू, कीन्ह दूरि तें दण्ड प्रनामू।

ब्राह्मण, पुरोहित, ऋषि, राजगुरु आदि इतने सारे उच्च सामाजिक आयामों पर प्रतिष्ठित वसिष्ठ मुनि निषादराज गुह को अपने शरीर से लगा लेते है-

रामसखा ऋषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।

वस्तुतः सामाजिक जीवन में जब तक इस तरह का भाव उत्पन्न नहीं होगा, तब तक कोई भी राष्ट्र सुखपूर्वक मुस्कुरा नहीं सकता। इसलिए तुलसी बाबा ने अपना सम्पूर्ण साहित्य ऐसा ही समाज बनाने के लिए समर्पित कर दिया। कुछ क्षुद्र मानसिकता वाले राजनेता आजकल तुलसीदास को ब्राह्मणवादी और सामन्तवादी कहकर उनकी निंदा करते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि तुलसी के हृदय में दीन, दुखियों व दरिद्रों के प्रति जितनी वेदना थी, उतनी शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले-

जेहि दीन पियारे वेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।

X    X    X

 बन्दउ सीताराम पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न।

तुलसी बाबा ने समाज की दरिद्रता को रावण कहा है-

दारिद दसानन दबाई दुनी, दीनबन्धु! दुरित दहन देखि तुलसी हाहाकरी।

तुलसीदास का यह हाहाकार वस्तुतः तुलसी के समय की ही अनुगूंज है। तुलसीदास अपने काल में हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखण्डों से भी अत्यन्त व्यथित थे। वे देख रहे थे कि सर्वत्र असत्य और हिंसा का बोलबाला है। इसलिये तुलसी ने समाज के समक्ष एक बार पुनः उपनिषदों के इस मर्म को नई शब्दावली में प्रस्तुत किया-

परम धरम श्रुति विदित अहिंसा। परनिंदा सम अघ न गिरीसा।

X    X    X

धरम न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।

वे तुलसी बाबा ही थे जिन्होंने सोलहवीं सदी के कठिन समय में हिन्दू समाज को एक करने के लिए बहुत ही सरल शब्दावली में समाज को बताया कि दूसरों की भलाई करने से अधिक बड़ा कोई धर्म नहीं है। वे जानते थे कि यदि प्रजा परोपकार की भावना के सूत्र से एक-दूसरे से जुड़ी रहेगी तो समाज बड़ी आसानी से शासक वर्ग के अत्याचारों का सामना कर सकेगा-

परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास का काव्य तत्कालीन समय की झलक ही नहीं देता, उसका आंखों देखा इतिहास भी बताता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि में लौकिक दु:ख

0
गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि - bharatkaitihas.com
गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि

गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि उनके साहित्य में निहित लोकहित पर टिकी हुई है। उनके साहित्य के सम्बन्ध में लोकदृष्टि पर जितनी अधिक बात हुई है, उतनी बात किसी और साहित्यकार की दृष्टि पर नहीं हुई। यह एक अद्भुत बात है कि जिसकी दृष्टि सबसे अधिक स्पष्ट है, उसी की दृष्टि पर सर्वाधिक बात हुई।

यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि के विभिन्न आयाम हैं तथापि मैं इस आलेख में उनके साहित्य में निहित दृष्टि के केवल एक आयाम की चर्चा कर रहा हूँ- तुलसी की दृष्टि में लौकिक दुखों का महत्व।

संत साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह इस जीवन को नश्वर बताकर मृत्यु के बाद मिलने वाले जीवन पर अधिक जोर देता है किंतु तुलसीदासजी की दृष्टि में मनुष्य का वर्तमान जीवन बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। पार्वतीजी की महिमा का बखान करते हुए गोस्वामीजी कहते हैं-

भव भव विभव पराभव कारिणी, बिस्व बिमोहिनी स्वबस बिहारिणी।

अर्थात्- आपने इस संसार को संभव बनाया है, आपने ही वैभव दिया है और आप ही इस संसार का पराभव करने वाली हैं। इस उक्ति के माध्यम से गोस्वामीजी पार्वतीजी के साथ-साथ संसार की महत्ता को भी प्रकारांतर से स्थापित करते हैं। स्पष्ट है कि पार्वती जैसी महान शक्ति ने किसी अनुपयोगी चीज की रचना तो नहीं की होगी!

‘नहीं दरिद्र सम दुख जग माहीं’ अथवा ‘नारी कित सिरजी जग माहीं’ अथवा ‘नहीं दरिद्र कोउ दुखी न दीना’ जैसी पंक्तियां सांसारिक सुखों एवं दुखों की ही तो स्वीकार्यता है।

गोस्वामीजी जब भी बात करते हैं, दैहिक, दैविक और भौतिक दुखों की बात करते हैं। उनकी दृष्टि जितनी संसार से ऊपर के सुखों पर टिकी हुई है, उतनी ही संसार के भीतर स्थित दुखों पर भी टिकी हुई है-

 दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहीं काहुहि व्यापा।

 अल्प मृत्यु नहीं कवनिउ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।

गोस्वामीजी ने जीवन के कष्टों को बहुत लम्बे समय तक झेला था, इसलिए वे मनुष्य को पानी का बुलबुला और जगत् को मिथ्या नहीं बताते हैं। उनका आराध्य देव भी अन्य भक्त-कवियों के आराध्य देवों से भिन्न प्रकार का है-

 सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू, लोक लाह, परलोक निबाहू।

तुलसीदासजी को केवल परलोक के सुखों की चिंता नहीं है, उन्हें लोक लाभ पहले चाहिए और परलोक में निर्वाह बाद में। रामचरित मानस की उपयोगिता के बारे में वे कहते हैं-

सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा, सेवत सादर समन कलेसा।

गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि का सौंदर्य इस तथ्य में निहित है कि वे भौतिक शोकों के नष्ट होने की बात करते हैं, किसी मोक्ष या मुक्ति का आश्वासन नहीं देते। क्योंकि उनकी दृष्टि में कष्टों से मुक्ति पा जाना, यहाँ तक कि पेट भर भोजन पा जाना भी अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष जैसी बड़ी उपलब्धियों से कम नहीं है-

बारे ते ललात द्वार-द्वार दीन जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को।

जब वे गंगाजी की बात करते हैं तो कहते हैं-

कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई।

अर्थात्- उनकी इस चौपाई में यह बात प्रकारांतर से निहित है कि सुरसरि (गंगाजी) इसलिए अच्छी हैं क्योंकि वे इस जगत् का भला करती हैं।

वे राम नाम स्मरण की बात भी इसी कामना में करते हैं कि इसके गायन से भव सार पार कर लिया जाएगा-

गाई गाई भव सागर तरहिं।

राम नाम मनि दीप धरू जीह देहरीं द्वार,

तुलसी भीतर बाहरो जो चाहसि उजियार।

भायं कुभायं अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।

तुलसी या संसार में भांति-भांति के लोग,

सब से हिल-मिल चाहिए नदी नाव संयोग।

इस तरह का दृष्टिपरक चिंतन साहित्य में कब शामिल होता है? जब कवि या साहित्यकार सत्य का अनुभव केवल अपने चिंतन से नहीं अपितु अनुभव से करता है। वे हनुमान बाहुक में अपने शरीर की पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं-

पायं पीर पेट पीर, बांह पीर, मुंह पीर जरजर सकल सरीर पीर मई है।

घेर लियो रोगनि कुजोगनि कुलोगनि ज्यों बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।

तुलसीदासजी को केवल अपने जीवन के कष्ट दिखाई नहीं देते, उन्हें सम्पूर्ण समाज के कष्ट दिखते हैं-

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,

बनिक को न बनिज न चाकर को चाकरी।

जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस

कहै एक-एकन सौं कहां जाय का करी।

रामराज स्थापित होने पर वे इसलिए प्रसन्न होते हैं क्योंकि इसमें प्रजा के शोक नष्ट हो जाते हैं-

राम राज बैठे त्रय लोका, हर्षित भए गए सब सोका।

बयरू न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।

तुलसीदासजी द्वारा किया गया कलियुग का वर्णन वस्तुतः समाज के कष्टों का ही वर्णन है-

बाढ़ खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन पर दारा।

मानहिं मातु-पिता नहीं देवा, साधुन्ह संग करवावहिं सेवा।

यही गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि का सौंदर्य है कि वे किसी काल्पनिक संसार में विचरण नहीं करते, भौतिक धरातल पर आकर लोगों के सुख-दुख की बात करते हैं।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

रामचरित मानस में ज्योतिष

0
रामचरित मानस में ज्योतिष - bharatkaitihas.com
रामचरित मानस में ज्योतिष

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी के साहित्य की एक ऐसी अनूठी विशेषता है जिसका जोड़ कहीं अन्यत्र देखना कठिन है। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत पर मुसलमानों का शासन था किंतु वह शताब्दी गोस्वामी तुलसीदास की थी। उस काल में भारत भर में तुलसीदास के समान लोकप्रिय एवं लोकहितकारी मनुष्य और कोई नहीं हुआ।

भारतीय जनमानस पर रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी प्रभाव शताब्दियों को लांघकर कालजयी बन गया है। यही कारण है कि आज भी गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित साहित्य राष्ट्र एवं लोक के लिए उतना ही प्रासंगिक एवं आवश्यक है जितना कि सोलहवीं शताब्दी के भारत के लिए था।

यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास का सम्पूर्ण साहित्य धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म को लक्ष्य बनाकर लिखा गया है तथापि उनका सर्वप्रधान लक्ष्य लोकमंगल है। किसी कालजयी साहित्य के जितने भी विराट् लक्ष्य हो सकते हैं, गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य उन लक्ष्यों को एक साथ साधता है। इस लेख में हम गोस्वामीजी के महाकाव्य रामचरित मानस में लिखित ज्योतिषीय उल्लेखों पर चर्चा कर रहे हैं।

ज्योतिष भारतीय लोकजीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। प्रत्येक हिन्दू अपने जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के लिए कभी न कभी ज्योतिषशास्त्र की किसी न किसी शाखा का सहारा लेता ही है। लोकजीवन का अंग होने के कारण गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य में ज्योतिष को स्थान मिलना ही था।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित ग्रंथों की वास्तविक सूची के बारे में यद्यपि अभी तक अंतिम निर्णय नहीं हो पाया है तथापि नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा 12 ग्रंथों को गोस्वामीजी द्वारा प्रणीत माना गया है-

1. रामचरित मानस,

2. रामलला नहछू,

3. वैराग्यसंदीपनी,

4. बरवै रामायण,

 5. पार्वती मंगल,

6. जानकी मंगल,

7. रामाज्ञा-प्रश्न,

8. दोहावली,

9. कवितावली,

10. गीतावली,

11. कृष्णगीतावली,

12. विनय पत्रिका।

यह ग्रंथ सूची पूरी नहीं है। हनुमान बाहुक तथा हनुमान चालीसा गोस्वामीजी द्वारा रचित दो ऐसे लघु ग्रंथ हैं जिन्हें ग्रंथों का रत्न कहा जा सकता है। करोड़ों भारतीय प्रतिदिन इन दोनों अथवा इनमें से किसी एक ग्रंथ का पाठ करते ही हैं, ठीक रामचरित मानस की तरह। कुछ और ग्रंथ भी गोस्वामीजी द्वारा रचित हो सकते हैं। इन समस्त ग्रन्थों में से ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ को छोड़कर एक भी ज्योतिष-ग्रंथ नहीं है किंतु इन सभी ग्रंथों में प्रसंगवश ज्योतषीय उल्लेख मिलते हैं।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख

रामचरित मानस लोकजीवन का ग्रंथ है। इसमें दशरथ पुत्र राम को न केवल पूर्णब्रह्म परमात्मा के अवतार के रूप में, अपितु लोकजीवन के आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भारत में इस ग्रंथ के समान कोई अन्य ग्रंथ लोकप्रियता का स्तर स्पर्श नहीं कर सका है। इस ग्रंथ में सैंकड़ों स्थलों पर ज्योतिष सम्बन्धी तथ्यों का उल्लेख हुआ है। इनमें नक्षत्र-दर्शन, ग्रह गोचर, स्वप्नफल, शुभ-दिन, जन्मकुण्डली मिलान, शकुन विचार, उल्कापात आदि विषयक तथ्य कहे गए हैं।

काल की प्रबलता का विचार

रामचरित मानस में काल की प्रबलता को स्वीकार किया गया है जो कि ज्योतिष शास्त्र की प्रमुख अवधारणा है। अयोध्याकाण्ड में राम-वनवास प्रसंग में जब रानी कैकेई रामजी को वनवास भेजने के लिए हठ पकड़ लेती है तब राजा दशरथ कहते हैं कि तेरा कोई दोष नहीं है, मेरा काल (मृत्यु) तेरे ऊपर आकर बैठ गया है, वही तुझसे इस प्रकार के वचन कहलवा रहा है-

मरम बचन सुनि राउ कह, कहु कछु दोष न तोर।

लागेउ तोहि पिसाच जिमि काल कहावत मोरि।।

काल के भी काल का विचार

लंकाकाण्ड में उल्लेख आया है कि विभीषणजी रावण को श्रीराम के ईश्वरत्व के बारे में बताते हुए कहते हैं कि राम मनुष्य या राजा मात्र नहीं हैं, वे सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी तथा कालों के काल हैं-

‘तात राम नहीं नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु कर काला।’

जब हम ‘कालों के काल’ के आशय पर विचार करते हैं तो इसके कई अर्थ निकल सकते हैं, यथा-

1. राम ‘काल’ अर्थात् ‘समय’ के स्वामी हैं,

2. राम काल को भी मृत्यु देने वाले हैं,

3. राम ‘मृत्यु’ को भी ‘मृत्यु’ देने वाले हैं, आदि।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – काल गणना का विचार

भारत में किसी महत्वपूर्ण कार्य अथवा घटना के समय का अंकन करने के लिए संवत्, मास, तिथि, वार आदि का उल्लेख किया जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में, ज्योतिष परम्परा के अनुसार ग्रंथ आरम्भ करने की तिथि का इसी प्रकार उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि संवत 1631 के मधुमास (चैत्रमास) की नवमी तिथि, मंगलवार को यह चरित प्रकाशित हुआ-

संबत सोरह सै एकतीसा, करउँ कथा हरि पद धर सीसा।

नौमी भौम बार मधुमासा, अवधपुरी यह चरित प्रकासा।।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – संवत् सम्बन्धी अवधारणा

संवत् का अर्थ एक ‘वर्ष’ की अवधि से है। भारतीय ज्योतिष में एक कहावत प्रचलित है कि ‘यदि संवत्सर न होता तो मुहूर्त, तिथि, नक्षत्र, ऋतु और अयन, सभी व्याकुल रहते।’ रामचरित मानस में संवत् का उल्लेख अनेक दोहों एवं चौपाइयों में हुआ है। बालकाण्ड में उल्लेख है कि जब भी मकर संक्रांति आती है तो ऋषि-मुनि तीर्थराज प्रयाग में स्नान करने के बाद अपने स्थानों के लिए प्रस्थान करते हैं। यह आनंद प्रति वर्ष होता है-

‘प्रति संबत अति होई अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनि बृंदा।’

बालकाण्ड में ही उल्लेख हुआ है कि सत्तासी हजार वर्ष तक समाधिस्थ रहने के बाद भगवान शिव ने अपनी समाधि छोड़ी-

‘बीते संबत सहस सतासी, तजी समाधि संभु अबिनासी।’

पार्वती द्वारा शिव को वर प्राप्त करने के लिए की गई तपस्या के संदर्भ में कहा गया है कि एक हजार साल तक पार्वती ने वनों में उगने वाले मूल एवं फल खाए और उसके बाद सौ साल केवल शाक खाकर व्यतीत किए-

‘संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए।’

मनु और शतरूपा द्वारा भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने के लिए जो तपस्या की गई, उसके वर्णन में गोस्वामीजी ने लिखा है कि मनु और शतरूपा ने साठ हजार सालों तक केवल पानी ही आहार रूप में ग्रहण किया और उसके बाद सात हजार साल तक केवल हवा को ही प्राणों का आधार बनाया। एक हजार साल तक बिना हवा के, एक पैर पर खड़े रहे-

एहि बीते बरष षट सहस बारि आहार।

संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार।

बरस सहस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ।।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – कल्प सम्बन्धी अवधारणा

हजारों वर्षों की तपस्याओं के बारे में सुनकर बहुत से लोग इन कथनों पर अविश्वास करने लगते हैं। वस्तुतः भारतीय धर्मशास्त्रों में वर्णित इतिहास केवल वर्तमान सृष्टि का नहीं है, अपितु इन धर्मशास्त्रों में काल के गाल में समा चुकी बहुत सी सृष्टियों का वर्णन हुआ है जिनमें से कुछ इस धरती पर घटित हुई थीं तो कुछ सृष्टियाँ अलौकिक होने के कारण इस इस लोक में न होकर किसी अन्य लोक में घटित हुई थीं। इनमें से कुछ घटनाएँ मानवीय न होकर प्राकृतिक घटनाओं से सम्बन्ध रखती हैं।

इन घटनाओं के संदर्भ स्पष्ट नहीं होने से हमें हजारों सालों की तपस्याओं के बारे में जानकर विश्वास नहीं होता। ऐसी सृष्टियों में काल की गणना संवत् अर्थात् 365 दिन के कैलेण्डर में नहीं की जाती, अपितु युगों, चतुर्युगों, महायुगों एवं कल्पों में चलती है। ठीक उसी तरह जिस तरह खगोलीय पिण्डों की दूरी मीटर या किलोमीटर में न नापी जाकर, प्रकाशवर्ष में नापी जाती है। प्रकाश की किरण एक वर्ष में लगभग 95 खरब किलोमीटर चल सकती है, इस दूरी को एक प्रकाशवर्ष कहते हैं। जिस तरह प्रकाशवर्ष दूरी नापने की इकाई है, उसी प्रकार ‘कल्प’ काल की अवधि नापने की बड़ी इकाई है।

भारतीय धर्मशास्त्रों एवं ज्योतिषशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के एक दिन को एक ‘कल्प’ कहते हैं। एक कल्प की अवधि मानवों के 432 करोड़ वर्ष के बराबर होती है। रामचरित मानस में भी काल की इस बड़ी इकाई अर्थात् ‘कल्प’ का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है। प्रत्येक कल्प में 14 मन्वंतर होते हैं अर्थात् एक कल्प में 14 सृष्टियां जन्म लेती हैं और 14 बार प्रलय होती है।

प्रत्येक नई सृष्टि, पहले वाली सृष्टि से बिल्कुल अलग होती है किंतु पुरानी सृष्टि का कोई मनुष्य नई सृष्टि के लिए नया मनु बनता है। प्रत्येक सृष्टि में भगवान के कई-कई अवतार होते हैं। रामचरित मानस में विभिन्न कल्पों में हुए अवतारों की चर्चा बहुत संक्षेप में हुई है। पूर्व के किसी कल्प में भगवान ने जलंधर नामक राक्षस को मारने के लिए अवतार धारण किया-

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे।।

एक अन्य पूर्व कल्प का उल्लेख करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा है कि एक बार नारद मुनि ने भगवान को श्राप दिया। इस कारण एक कल्प में भगवान को अलग से अवतार लेना पड़ा-

‘नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।’

वर्तमान कल्प में भगवान कौसल्या एवं दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित हुए।

एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा।।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – कल्पांत में भी न मरने वाले भक्त

हिन्दू धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि काल प्रत्येक जीव को मृत्यु देता है किंतु भगवान के कुछ भक्तों का नाश कभी नहीं होता। वे कल्पांत में भी नहीं मरते। रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में भगवान शिव ऐसे ही एक भक्त कागभुशुण्डि का उल्लेख करते हुए, पार्वती से कहते हैं-

‘तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।’

उत्तरकाण्ड में ही उल्लेख आया है कि जब भगवान राम ने अपनी बाल्यावस्था में कागभुशुण्डि को अपने मुख में ले लिया तो कागभुशुण्डि ने भगवान के उदर के भीतर करोड़ों ब्रह्माण्ड देखे जिनमें काकभुशुण्डि एक-एक सौ वर्ष तक रहे। इस प्रकार वे भगवान के उदर में सौ कल्पों तक घूमते फिरे-

एक एक ब्रह्माण्ड महुँ रहउँ बरष सत एक।

ऐहि बिधि देखत फिरऊँ मैं अण्ड कटाह अनेक।

भ्रमत मोहि ब्रह्माण्ड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका।

इसी प्रकार रामचरित मानस में लोमश ऋषि का भी उल्लेख हुआ है जिनकी आयु इतनी अधिक है कि जब कल्पान्त में ब्रह्माजी का लय होता है, तब इनका केवल एक रोम (लोम) गिर जाता है।

ऐसे और भी उदाहरण हैं जिनमें काल की इतनी दीर्घ अवधि का उल्लेख हुआ है जो कि भारतीय ज्योतिष की अनूठी कालगणन विधि पर आधारित है।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – युगों की अवधारणा

भारतीय धर्मग्रंथों में चार युगों की अवधारणा है- कृतयुग (सतयुग), त्रेता, द्वापर, कलियुग। सतयुग में धर्म के चार चरण रहते हैं, त्रेता में धर्म के तीन चरण रहते हैं, द्वापर में धर्म के दो चरण रहते हैं तथा कलियुग में धर्म का एक ही चरण बचता है। इसी कारण कलियुग लंगड़ा है। रामचरित मानस में चतुर्युग की अवधारणा का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है-

ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेता भइ कृतजुग कै करनी।

एक बार त्रेता जुग माहीं, संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।

काल के शुभ-अशुभ होने का विचार

वैदिक ऋषियों ने यज्ञों के लिए शुभ समय का पता लगाने के लिए ही कालगणना आरम्भ की। रामचरित मानस में शुभ-अशुभ समय का उल्लेख बार-बार हुआ है जो कि ज्योतिषीय गणना से ही ज्ञात हो सकती है।

पर्वतराज हिमालय ने शिव-पार्वती विवाह के लिए ज्योतिष के अनुसार शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ घड़ी, शुभ लग्न और शुभ मुहूर्त निर्धारित करवाने के बाद लग्नपत्रिका लिखवाई-

सुदिनु सुनखतु सुधरी सोचाई। वेगि बेदविधि लगन धराई।।

सीता स्वयंवर में विश्वामित्र शुभ समय जानकर रामचंद्रजी को धनुषभंग करने के लिए उठने का आदेश देते हैं-

विश्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।

उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।

सीता-राम विवाह के लिए दशरथजी और जनकजी दोनों राजा अपने-अपने ज्योतिषियों से शुभ मुहूर्त निलवाते हैं। इस प्रसंग में गोस्वामीजी ने लिखा है कि ब्रह्माजी ने स्वयं हेमन्त ऋतु, अगहन मास, शुभ ग्रह, शुभ तिथि, शुभ योग, शुभ नक्षत्र और श्रेष्ठ वार शोधकर मुहूर्त निकाला-

ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।

मंगल मूल लगन दिन आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।

महाराजा जनक के ज्योतिषों ने भी शुभ मुहूर्त की वही गणना कर रखी थी-

‘गुनी जनक के गनकन्ह जोई।’

रामचरित मानस में बेला का भी उल्लेख हुआ है। राजा जनक ने गोधूलि बेला में बारात का स्वागत किया। इसी प्रकार बरात की विदाई के अवसर पर राजा जनक ने सुलग्न अर्थात् शुभ मुहूर्त का विचार किया-

प्रेम बिबस परिवारु सब जानि सुलगन नरेस। कुंअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।

जब चारों राजकुमार अयोध्या लौट आते हैं और विवाहोत्सव पूर्ण हो जाता है तब शुभ मुहूर्त में उनकी कलाइयों के  कंकण खोले गए-

सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।।

अयोध्याकाण्ड में उल्लेख है कि जब महाराजा दशरथ ने गुरु वसिष्ठ से कहा कि मैं राम को युवराज बनाना चाहता हूँ। तो वसिष्ठ ने कहा कि आप राम को युवराज बनाने में विलम्ब न करें। जिस समय राम युवराज होंगे, वह दिन बहुत शुभ एवं मंगलकारी होगा।

बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।

सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।

जब राजा जनक को यह समाचार मिला कि राजकुमार भरत अपने भाई श्रीराम को मनाने चित्रकूट गए हैं तो वे भी अपने मंत्रियों एवं परिवार को लेकर चित्रकूट के लिए रवाना हो गए। वे यात्रा आरम्भ करने के लिए ग्रह-नक्षत्र आदि पर विचार न करके दो घड़ी में मिलने वाले शुभ मुहूर्त में रवाना हो गए-

दुघरी साधि चले तत्काला। किए बिश्राम न मग महिपाला।।

इसी प्रकार जब भरतजी चित्रकूट से रामजी की पादुकाएं लेकर अयोध्या लौटते हैं तो वे गणक (ज्योतिषों) को बुलाकर शुभ घड़ी में पादुकाओं को सिंहासन पर निर्विघ्न विराजमान करते हैं-

सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।

सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि।।

जब भगवान राम अपने महल में चले गए, तो अयोध्या के नर-नारी सुखी हुए। गुरु वसिष्ठ ने ब्राह्मणों को बुलाकर कहा आज शुभ घड़ी, शुभ दिन तथा समस्त शुभ योग हैं।

शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष की अवधारणा

प्रत्येक मास में दो पक्ष होते हैं- शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलायें बढ़ती जाती हैं और कृष्णपक्ष में घटती जाती हैं। इसी तथ्य को कवि ने सुयश और अपयश के रूप में चित्रित किया है। गोस्वामीजी लिखते हैं कि शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में चंद्रमा का प्रकाश एक जैसा ही होता है किंतु चूंकि एक पक्ष में चंद्रमा घटता है इसलिए उसे काला (कृष्णपक्ष) नाम का अपयश मिला जबकि दूसरे पक्ष में चंद्रमा बढ़ता है, इसलिए उसे श्वेत (शुक्लपक्ष) नाम का यश मिला-

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।

ग्रह एवं नक्षत्रादि योग

गोस्वामीजी ने रामकथा के विभिन्न प्रसंगों में ग्रह-नक्षत्रों का उल्लेख बार-बार किया है। रामचंद्र के जन्म-समय के ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के लिए तुलसीदासजी ने लिखा है सुखों के मूल ‘राम-जन्म’ पर समस्त नक्षत्रों के योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। चेतन और जड़ सभी प्रसन्न हो उठे। कहने का आशय यह कि लोक में कार्य-सिद्धि के लिए नक्षत्रों के योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि अनुकूल होने चाहिए, इसलिए रामचंद्रजी के जन्म के समय समस्त ग्रह-नक्षत्र स्वयं ही अनुकूल हो गए। 

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।

चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – नौ ग्रहों की शोभा

एक चौपाई में अंतरिक्ष में विराजमान ग्रहों की शोभा का वर्ण करते हुए गोस्वामीजी लिखते हैं- ऐसा लगता है मानो नौ ग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर लिया हो-

नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।

नवग्रह वन्दना

एक दोहे में गोस्वामीजी ने ग्रहों को देवताओं, ब्राह्मणों एवं पण्डितों की श्रेणी में रखते हुए कहा है कि देवता, ब्राह्मण, पंडित और ग्रह के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप सब प्रसन्न होकर मेरे समस्त मनोरथ पूरे करें-

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।

होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि।।

मघा नक्षत्र में वर्षा की अवधारणा

मघा नामक नक्षत्र के बादल मूसलाधार वर्षा के कारक होते हैं। ज्योतिष की इस धारणा को रामचरित मानस में भी व्यक्त किया गया गया है। जब कुंभकरण वध हो जाने के बाद मेघनाद रणभूमि में आता है तो वह अपने धनुष से बाणों की वृष्टि सी कर देता है। इसका वर्णन करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा है-

‘मानहुं मघा मेघ झरि लाई।’

ग्रहों की संक्रांति की अवधारणा

रामचरित मानस में ग्रहों की संक्रांति के अध्यात्मिक महत्त्व की अवधारणा भी उपलब्ध है जिसकी गणना ज्योतिषशास्त्र में होती है। गोस्वामीजी ने मकर संक्रांति के अध्यात्मिक महत्त्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि माघ मास में जब सूर्य मकर राशि का संक्रमण करता है तब समस्त जन तीर्थपति प्रयागराज में आते हैं- ‘माघ मकरगत रबि जब होई, तीरथपतहिं आव सब कोई।’

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – बुरे ग्रहों की अवधारणा

ज्योतिष शास्त्र में राहु, केतू और शनि को पापग्रह माना गया है। गोस्वामीजी ने रामचरित मानस में बुरे मनुष्यों की तुलना राहु-केतु एवं शनि आदि पापग्रहों से की है। एक चौपाई में उन्होंने लिखा है कि विष्णु और शिव के यशस्वी पूर्णिमा रूपी चन्द्रमा के लिये, दुष्टजन राहु के समान हैं। वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए सहस्रबाहु के समान बलवान हैं-

हरिहर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।

जिस प्रकार केतु के उदय होने पर मनुष्य का बुरा होता है। उसी प्रकार कुछ लोग अपनी शक्ति बढ़ने पर दूसरों का अनिष्ट करते हैं-

उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।

आदमी को जब बुरे ग्रह घेर लेते हैं तो जीवन में उसका हर ओर से अनिष्ट होता है। भारतीय ज्योतिष की इस अवधारणा को गोस्वामीजी ने एक दोहे में इस प्रकार लिखा है कि जिसे बुरे ग्रह लगे हों, फिर जो वायुरोग से पीड़ित हो और उसी को फिर बिच्छू डंक मार दे, उसको यदि मदिरा पिलाई जाए, तो कहिए यह कैसा इलाज है-

ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।

तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।

शनि की साढ़े साती

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब शनि किसी राशि में साढ़े सात साल रहता है तो उसे साढ़े साती कहते हैं तथा वह अवधि जातक के लिए कष्टकारक होती है। अयोध्याकाण्ड में मंथरा को अयोध्या की साढ़ेसाती कहा गया है जो रानी कैकेई को भड़काकर रामजी को वनवास दिलवाती है।

सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।

ज्योतिषी से परामर्श

भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्व में ही पता लगाने के लिए भारत में ज्योतिषी से परामर्श करने की परम्परा रही है। इस परम्परा का उल्लेख रामचरित मानस में भी हुआ है- दासी मंथरा रानी कैकेई को भ्रमित करने के लिए कहती है कि मैंने ज्यातिषियों से गणित करवाई है और उन्होंने बताया है कि भरत राजा होंगे-

पूंछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खींची, भरत भुआल होहिं यह सांची।

राहु द्वारा सूर्य-चंद्र ग्रहण

परशुराम-लक्ष्मण संवाद में परशुराम अकारण श्रीराम पर क्रोध करते हैं तब श्रीराम विचार करते हैं कि कहीं-कहीं सीधापन भी दोष होता है। टेढ़े चन्द्र को राहु भी नहीं ग्रसता-

बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू।

चन्द्र दर्शन विचार

ज्योतिष में मान्यता है कि चतुर्थी के चंद्रमा के दर्शन नहीं किए जाते। रामचरित मानस में भी यह अवधारणा व्यक्त हुई है। जब रावण सीताजी का हरण करके ले आता है तब विभीषणजी रावण को समझाते हुए कहते हैं-

सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं।।

शकुन विचार

रामचरित मानस में शकुन विचार के उद्धरण सैंकड़ों हैं। अच्छे और बुरे दोनों तरह के शकुन कहे गए हैं। जब राजा दशरथ के आदेश से रामचंद्र की बारात ने अयोध्या से जनकपुरी के लिए प्रस्थान किया, तब जो शुभ-शकुन हुए, उनका वर्णन गोस्वामीजी ने इस प्रकार किया है-

बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता।।

चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।

अर्थात्- बारात इतनी सुंदर बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो।

दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा।।

सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी।।

अर्थात्- दाहिनी ओर कौआ सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं।

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।।

मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।

अर्थात्- लोमड़ी बार-बार दिखाई दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली बाईं ओर से घूमकर दाहिनी ओर आई, मानो सभी मंगलों का समूह दिखाई दिया।

छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।।

सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।

अर्थात्- सफेद सिर वाली चील विशेष रूप से क्षेम (कुशल) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान-ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए।

मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।

जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।

अर्थात्- समस्त मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक साथ घटित हो गए।

दशा विचार

राम वनगमन के समय गोस्वामीजी ने देवताओं के अनुरोध पर सरस्वती के अयोध्या आगमन की तुलना, खराब दशा के आने से की है-

हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।

छींक विचार

जब निषादराज को ज्ञात हुआ कि भरतजी एक सेना लेकर चित्रकूट जा रहे हैं तो निषादराज ने समझा कि भरतजी रामजी पर आक्रमण करने जा रहे हैं। इसलिए वह युद्ध के निश्चय से उठा किंतु उसी समय छींक हो गई। इस पर एक वृद्धि व्यक्ति ने शकुन विचार कर कहा कि भरतजी से युद्ध नहीं होगा, मित्रता होगी क्योंकि छींक बाईं तरफ हुई है।

एतना कहत छींक भई बाएं। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।

बूढ एक कह सगुन बिचारी, भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।

रामचरित मानस में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख – स्वप्न विचार

रामचरित मानस में कुछ स्थलों पर स्वप्न-फल पर विचार किया गया है। जब भरतजी रामजी को मनाने के लिए अयोध्या से चित्रकूट जाते हैं, तब सीताजी एक स्वप्न देखती हैं कि भरतजी समाज सहित आए हैं, सभी लोगों के शरीर दुःख से तप्त हैं। सभी मलिन हैं और सबके मन दुःखी हैं। समस्त सासों के रूप बदले हुए हैं। सीताजी के इस स्वप्न को सुनकर रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर आया और वे चिंतामग्न हो गए। वे लक्ष्मण से कहते हैं कि यह स्वप्न अच्छा नहीं है, ऐसा लगता है जैसे कोई व्यक्ति हमें अपनी कठोर इच्छा सुनाना चाहता है-

उहाँ राम रजनी अवसेषा। जागे सीयं सपन अस देखा।

सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।

सकल मलिन मन दीख दुखारी। देखीं सास आन अनुहारी।

सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।

लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।

इसी प्रकार जब रावण राक्षसियों को आज्ञा देता है कि वे सीताजी को भय दिखाएं। तब त्रिजटा नामक एक राक्षसी अपनी साथिनों को एक स्वप्न सुनाती है कि मैंने स्वप्न में देखा है कि एक वानर ने सारी लंका जला दी है। राक्षसों की सारी सेना मारी गई है। रावण नंगा होकर गधे पर बैठा है। उसके सिर कटे हुए हैं और उसकी बीसों भुजाएं कटी हुई हैं। इस वेश में वह दक्षिण दिशा की तरफ जा रहा है। विभीषणजी को लंका का राज मिल गया है। और नगर में रामजी की दुहाई फिर गई है। रामजी ने सीता को बुलावा भेजा है। मैं निश्चय के साथ कहती हूँ कि यह स्वप्न केवल चार दिन में ही सत्य हो जाएगा। इसलिए तुम सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो। त्रिजटा के वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गयीं और जानकीजीके चरणोंपर गिर पड़ीं-

सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।

खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।

नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।

यह सपना मैं कहउँ कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।

तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं।।

इस प्रकार रामचरित मानस में सैंकड़ों स्थलों पर ज्योतिष सम्बन्धी अवधारणाओं के उल्लेख हुए हैं, जिनमें से कहाँ कुछ ही प्रसंगों की चर्चा की गई है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

रामाज्ञा-प्रश्न में ज्योतिष की अनूठी पद्धति

0
रामाज्ञा-प्रश्न में ज्योतिष - bharatkaitihas.com
रामाज्ञा-प्रश्न में ज्योतिष

गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित रामाज्ञा-प्रश्न में ज्योतिष शास्त्र की अनूठी पद्धति का प्रयोग हुआ है। ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ सर्गों एवं सप्तकों में विभक्त है तथा इसकी रचना दोहा-छन्द में हुई है। इस ग्रंथ की भाषा सहज अवधी है। यह रामकथा के विविध प्रसंगों की मिश्रित रचना है।

रामाज्ञा-प्रश्न के कुछ दोहे वाल्मीकि रामायण के श्लोकों से साम्य रखते हैं। मान्यता है कि अपने मित्र गंगाराम ज्योतिषी की सहायता करने के लिए गोस्वामीजी ने केवल छः घण्टे में ‘रामाज्ञा-प्रश्न’ की रचना की। इस ग्रन्थ में सात सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग में सात-सात सप्तक हैं। सभी सप्तकों में सात-सात दोहे हैं। इसके सातवें सर्ग के सातवें सप्तक में गोस्वामीजी ने शकुन-प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने की विधि बतलायी है।

रामाज्ञा-प्रश्न में ज्योतिष  जानने के सम्बन्ध में कहा गया है-

‘सुदिन साँझ पोथी नेवति, पूजि प्रभात सप्रेम।

सगुन बिचारब चारु मति, सादर सत्य सनेम।।

अर्थात्- किसी शुभ दिन सन्ध्या के समय श्रद्धापूर्वक पोथी को प्रणाम करके उसे सादर निमन्त्रित करें। फिर अगली प्रातः पोथी की विधिवत् पूजा करके भगवान् श्रीराम, सीतामाता, लक्ष्मणजी एवं हनुमानजी का स्मरण-ध्यान करें। इसके बाद प्रसन्न मन से शकुन-विचार करना चाहिये तथा शकुन-फल विचार की जो विधि गोस्वामीजी द्वारा बतायी गयी है, उसी विधि से फल की घोषणा करनी चाहिये।

प्रश्न पूछने से पहले एक कागज पर लाल स्याही से तीन वृत्त बनाए जाते हैं। तीनों वृत्तों के नीचे उनकी क्रम संख्या- एक, दो और तीन लिखते हैं। तीनों वृत्तों के केन्द्र में एक-एक छोटा वृत्त बनाया जाता है। फिर तीनों वृत्तों को छः खण्डों में विभक्त करके सब में एक से सात तक की संख्या लिखी जाती है। किसी वृत्त में कोई संख्या दुबारा नहीं होगी।

प्रथम वृत्त का अंक सर्ग का वाचक, दूसरे वृत्त का अंक उक्त सर्ग के सप्तक का वाचक तथा तीसरे वृत्त का अंक उस सप्तक की दोहा-संख्या का निर्धारक होता है। अब प्रश्नकर्ता अपने प्रश्न को मन-ही-मन स्मरण करते हुए तीनों वृत्तों में बारी-बारी से किसी अंक पर पेंसिल की नोक रखे। शकुन विचारने वाला व्यक्ति प्रश्नकर्ता द्वारा क्रम संख्या एक, दो एवं तीन के वृत्तों के उन अंकों को क्रम से नोट कर ले जिन पर प्रश्नकर्त्ता ने पेंसिल की नोंक रखी है।

इसके बाद प्रश्नकर्ता से अपना प्रश्न पूछने के लिए कहा जाए। पहले से ही नोट किए गए अंकों का उपयोग करते हुए सर्ग, सप्तक एवं दोहे को ज्ञात कर ले। इस प्रकार प्राप्त दोहे के सरलार्थ से प्रश्न के शुभ-अशुभ फल की घोषणा की जाती है। प्रश्न के स्वभाव के अनुकूल दोहा निकले, तब कार्य में सफलता तथा विपरीत अभिप्राय युक्त दोहा निकले तो कार्य की असफलता समझनी चाहिये। एक दिन में तीन से अधिक प्रश्न शकुन-विचार हेतु इस ग्रन्थ से नहीं करने चाहिये तथा एक प्रश्न केवल एक बार ही करना चाहिये, उसे दोहराना नहीं चाहिए।

प्रश्न करने के लिए विषयों के दिन भी निर्धारित किए हुए हैं-

(1) राजकाज, रत्नों, स्वर्णादि धातुओं एवं घोड़े आदि पशुओं से सम्बन्धित प्रश्न रविवार के दिन पूछने चाहिये।

राज काज मनि हेम हय राम रूप रबि बार।

कहब नीक जय लाभ सुभ सगुन समय अनुहार।।

(2) रसदार वस्तु, गाय, कृषि, यज्ञादि कर्म एवं किसी भी शुभ कार्य से सम्बन्धित शकुन का विचार सोमवार को करना चाहिये-

रस गोरस खेती सकल बिप्र काज सुभ साज।

राम अनुग्रह सोम दिन प्रमुदित प्रजा सुराज।।

(3) भूमि-लाभ, युद्ध-विजय इत्यादि प्रश्नों का शकुन-विचार मंगलवार को करना चाहिये-

मंगल मंगल भूमि हित, नृप हित जय संग्राम।

सगुन बिचारब समय सुभ करि गुरु चरन प्रणाम।

(4) वाणिज्य, विद्या, वस्त्र एवं गृह से सम्बन्धित प्रश्न का शकुन-विचार बुधवार को करना चाहिये-

बिपुल बनिज बिद्या बसन बुध बिसेषि गृह काजु।

सगुन सुमंगल कहब सुभ सुमिरि सीय रघुराजु।।

(5) यज्ञ, विवाहादि उत्सव, व्रत एवं राजतिलक सम्बन्धी शकुन-फल का विचार गुरुवार को करना चाहिये।

गुरु प्रसाद मंगल सकल, राम राज सब काज।

जज्ञ बिबाह उछाह ब्रत, सुभ तुलसी सब साज।।

(6) यन्त्र, मन्त्र, मणियों एवं औषधियों से सम्बन्धित शकुन का विचार शुक्रवार के दिन करना चाहिये-

सुक्र सुमंगल काज सब कहब सगुन सुभ देखि।

जंत्र मंत्र मनि ओषधी सहसा सिद्धि बिसेषि।।

(7) लोहे, हाथी, भैंस-जैसी काली वस्तुओं से सम्बद्ध प्रश्न का शकुन- विचार शनिवार के दिन ही करना चाहिये।

राम कृपा थिर काज सुभ, सनि बासर बिश्राम।

लोह महिष गज बनिज भल, सुख सुपास गृह ग्राम।।

इस प्रकार हम देखते हैं कि रामाज्ञा-प्रश्न में ज्योतिष सम्बन्धी शंका समाधान की अनूठी पद्धति को अपनाया गया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

दोहावली में ज्योतिष शास्त्र के संदर्भ

0
दोहावली में ज्योतिष - bharatkaitihas.com
दोहावली में ज्योतिष

गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित दोहावली में ज्योतिष संदर्भों एवं तथ्यों का प्रचुरता से उल्लेख हुआ है। जीवन में पग-पग पर इन दोहों की सहायता ली जा सकती है। चाहे वह करणीय-अकरणीय का प्रश्न हो अथवा ज्योतिष का अथवा नैतिकता का, यहाँ तक कि दोहावली हमें यह भी बताती है कि व्यावहारिक क्या और ओर अव्यावहारिक क्या है!

व्यापार प्रारम्भ करने के लिये श्रेष्ठ नक्षत्रों का नाम गिनाते हुए गोस्वामीजी लिखते हैं- श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष, हस्त, चित्रा, स्वाती, पुष्य, पुनर्वसु, मृगशिरा, अश्विनी, रेवती तथा अनुराधा में किया गया व्यापार एवं दिया गया धन, धनवर्द्धक होता है। किसी भी परिस्थिति में यह सम्पत्ति डूब नहीं सकती-

श्रुति गुन कर गुन पु जुग मृग हय रेवती सखाउ।

देहि लेहि धन धरनि धरु गएहुँ न जाइहि काउ।।

एक अन्य दोहे में कहा गया है- उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, विशाखा, रोहिणी, कृत्तिका, मघा, आर्द्रा, भरणी, अश्लेषा और मूल नक्षत्रों में चोरी गया हुआ, छिना हुआ, उधार दिया हुआ, गाड़ा हुआ अर्थात् किसी प्रकार से हाथ से निकला हुआ धन कभी भी वापस नहीं आता-

ऊगुन पूगुन बि अज कृ म आ भ अ मू गुनु साथ।

हरो धरो गाड़ो दियो धन फिरि चढ़इ न हाथ।।

कौन-सी तिथि किस दिन पड़ने पर हानिकारक एवं कष्टदायी योग बनाती हैं, इससे सम्बन्धित एक दोहा, दोहावली में इस प्रकार कहा गया है- रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, मंगलवार को दशमी, बुधवार को तृतीया, गुरुवार को षष्ठी, शुक्रवार को द्वितीया और शनिवार को सप्तमी तिथियाँ पड़ती हैं, तब ये कुयोग का सूचक और सर्वसामान्य के लिये हानिकारक योग बनाती हैं-

रबि हर दिसि गुन रस नयन मुनि प्रथमादिक बार।

तिथि सब काज नसावनी होइ कुजोग बिचार।।

पति-पत्नी की जन्मपत्रिका का विवाह-पूर्व मिलान करना क्यों आवश्यक है, इस पर दोहावली में एक दोहा इस प्रकार आया है-

जनमपत्रिका बरति के देखहु मनहिं बिचारि।

दारुन बैरी मीचु के बीच बिराजति नारि।।

इस दोहे का आशय यह है कि जन्मांगचक्र के बारह प्रकोष्ठों में से प्रत्येक प्रकोष्ठ, जातक के विशेष भाव दशा का सूचक होता है। लग्न अर्थात् प्रथम स्थान जातक की दैहिक स्थिति का परिचायक है। इसके छठे स्थान में ग्रहस्थिति एवं ग्रहदृष्टि से जातक के शत्रु तथा आठवें स्थान में ग्रहस्थिति एवं ग्रहदृष्टि से जातक की मृत्यु की गणना की जाती है। इन दोनों के मध्य सातवाँ स्थान पुरुष की कुण्डली में पत्नी का तथा नारी की कुण्डली में पति का होता है।

अर्थात् भयानक वैरी और मृत्यु के बीच पति या पत्नी का स्थान होता है। यानी पत्नी शत्रु और मृत्यु के मध्य बैठ मध्यस्थता करती है। अगर पत्नी सुलक्षणा एवं पतिव्रता है तो पति के शत्रु होते ही नहीं, अगर हुए भी तो वे ज्यादा कष्टदायक सिद्ध नहीं होंगे, उसका पति दीर्घायु होता है, उसकी मृत्यु स्वाभाविक कारणों से होती है। किंतु यदि पत्नी दुष्टा, कुलक्षणी और पतिवंचक हुई; तब पति के बड़े-बड़े भयकारी, कष्टदायक शत्रु हो जाते हैं तथा उसकी आयु छोटी हो जाती है; वह अल्पायु में ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

चन्द्रमा शुभ, शान्त एवं सौम्य ग्रह है। यह पृथ्वी पर अमृत की वर्षा करके सब जीवों को दीर्घायु एवं आरोग्य देता है, पर कुसंगति में आकर यह भी जातक के लिये घातक बन जाता है। दोहावली के एक दोहे में कहा गया है कि मेष के प्रथम, वृष के पंचम, मिथुन के नौंवें, कर्क के दूसरे, सिंह के छठे, कन्या के दसवें, तुला के तीसरे, वृश्चिक के सातवें, धनु के चौथे, मकर के आठवें, कुम्भ के ग्यारहवें और मीन के बारहवें घर में चन्द्रमा पड़े तो वे ग्रह घातक बन जाते हैं-

ससि सर नव दुइ छ दस गुन मुनि फल बसु हर भानु।

मेषादिक क्रम तें गनहि घात चंद्र जियँ जानु।।

यात्रा के समय किन-किन वस्तुओं का दर्शन शुभ और मांगलिक होता है, इस आशय के एक दोहे में कहा गया है कि यात्रा पर निकलते समय नेवला, मछली, दर्पण, सफेद मुँह वाली चील, चकवा पक्षी तथा नीलकण्ठ के दर्शन से यात्रा निर्विघ्न और सुखप्रद हो जाती है, उक्त छहों को किसी भी दिशा में देखने से यात्रा मनवांछित फलदायक हो जाती है-

नकुल सुदरसन दरसनी छेमकरी चक चाष।

दस दिसि देखत सगुन सुभ पूजहिं मन अभिलाष।।

इस प्रकार दोहावली में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख भरे पड़े हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

राजा टोडरमल ने अकबर के अधिकारियों को जेलों में सड़ा दिया! (एक सौ साठ)

0
राजा टोडरमल
Raja Todarmal and Akbar

राजा टोडरमल अकबर के जीवन से जुड़ा हुआ एक ऐसा व्यक्ति है जिसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिल सके।

अकबर ई.1556 में बादशाह बना था और ई.1575 तक उसे शासन करते हुए लगभग 19 वर्ष हो गए थे। अब तक उसकी सल्तनत का पर्याप्त विस्तार हो चुका था और सल्तनत की आय के साथ-साथ सैनिक एवं प्रशासनिक व्यय में भी पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी।

इसलिए अकबर को आय के अतिरिक्त साधन विकसित करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी। उसका ध्यान सल्तनत के भू-राजस्व की ओर गया जिसमें प्रतिवर्ष घटत-बढ़त हुआ करती थी।

जब हुमायूँ ने अपने खोये हुए भारतीय साम्राज्य को फिर से प्राप्त किया था, तब उसने अपनी सल्तनत की भूमि को अपने अमीरों तथा सैनिक अफसरों में वेतन के रूप में बाँट दिया था।

अकबर ने भी हुमायूँ की इस व्यवस्था को लागू रखा था। इस कारण शेरशाह द्वारा स्थापित की हुई भूमि-व्यवस्था एवं कर-वसूली व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। मुगल सल्तनत में राजकीय भूमि तथा जागीर भूमि को एक दूसरे से अलग नहीं किया गया था।

इससे बड़ी गड़बड़ी फैली हुई थी। सल्तनत के विभिन्न हिस्सों में कर-वसूली प्रत्येक वर्ष की पैदावार के आधार पर निर्धारित की जाती थी। इस कारण कर-वसूली में विलम्ब होता था और सल्तनत की वार्षिक आय में घटत-बढ़त हुआ करती थी।

अकाल, टिड्डी एवं सूखे आदि के कारण भी राजस्व आय में कमी होती थी। बैराम खाँ भी इस व्यवस्था में कोई सुधार नहीं कर सका था।

अब तक अकबर की सल्तनत काफी बड़ी हो गई थी तथा अकबर की सेनाएं देश में चारों तरफ युद्ध कर रही थीं जिन्हें वेतन देने के लिए बादशाह को धन की आवश्यकता थी। इसलिए राजस्व-संग्रहण में वृद्धि करना आवश्यक हो गया था। अकबर ने भूमि-कर वसूलने के लिए एक नई विधि जारी की।

मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि बादशाह की तरफ से यह आदेश जारी हुआ कि प्रत्येक परगने का विगत दस वर्ष का विवरण तैयार किया जाए जिसमें लिखा जाए कि प्रत्येक फसल में पैदावार कैसी थी और अन्न का मूल्य क्या था। दस वर्ष का योग लगाकर उसका दशमांश एक वर्ष की आय मानी जाए तथा उस पर भूमिकर निर्धारित किया जाए। जब दस वर्ष पूरे हो जाएं तब फिर से यही गणना की जाए।

यह कार्य राजा टोडरमल एवं उसके सहायक ख्वाजा मनसूर को दिया गया। अकबर को आशा थी कि राजा टोडरमल इस कार्य को फुर्ती से निबटा लेगा किंतु उन्हीं दिनों सूचना मिली कि अकबर की सेना पूर्वी मोर्चों पर मार खा रही है तथा राय पुरुषोत्तमदास को मार दिया गया है।

इसलिए राजा टोडरमल को तत्काल बंगाल के लिए रवाना कर दिया गया और दस-वर्षीय भू-राजस्व-कर का निर्धारण ख्वाजा शाह मनसूर के निर्देशन में ही करवाया जा सका।

भारत के भू-राजस्व-कर प्रशासन में यह प्रयोग पहली बार किया गया था। बाद में जब अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हुई तो उन्होंने भी दस वर्षीय रेवून्य सैटलमेंट की व्यवस्था को अपनाया।

दस वर्षीय राजस्व बंदोबस्त में भी काफी कमियां थीं किंतु यह वार्षिक कर-निर्धारण प्रणाली की अपेक्षा तेजी से काम करती थी और केन्द्रीय सरकार को यह ज्ञात होता था कि उसे इस वर्ष कितना कर मिलने वाला है।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने मुंतखब उत तवारीख में लिखा है कि ई.1575 में अकबर ने अपनी सल्तनत की समस्त भूमि को नापने के आदेश दिए। उस समय भूमि की नाप रस्सी से की जाती थी जिसके फैलने और सिकुड़ने की सम्भावना रहती थी।

अकबर ने रस्सी के स्थान पर बाँस के टुकड़ों का प्रयोग करवाया जो लोहे के छल्लों से जुड़े रहते थे और जिनके फैलने और सिकुड़ने की संभावना नहीं होती थी।

अकबर के आदेश से सिंचित एवं असिंचित, मैदानी एवं पहाड़ी, रेतीली एवं जंगली और कृषित भूमियों के साथ-साथ नदियों, कुओं एवं कुण्डों की भूमियों को भी नापा गया। वह इकाई जो एक करोड़ टंका के बराबर उत्पादन करती थी, उसे एक अधिकारी के अधीन रखा गया और इस अधिकारी को करोड़ी कहा गया। सम्पूर्ण मुगल सल्तनत में 182 करोड़ी नियुक्त किये गये।

करोड़ी को अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा निश्चित करने, लगान के विभिन्न साधनों का लेखा रखने, प्रत्येक कृषक से कितनी धन राशि मिलती है इसका हिसाब रखने और प्रत्येक प्रकार की फसल का लेखा रखने के निर्देश दिये गये।

प्रत्येक करोड़ी की सहायता के लिए एक अमीन, एक कारकूून और एक पोतदार अर्थात् कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया। करोड़ी के ऊपर परगने के अधिकारी थे और करोड़ी के नीचे गांव के कर्मचारी थे।

अमीन का अर्थ होता है अमानत अर्थात् धरोहर रखने वाला। यह विश्वसनीय कर्मचारी होता था तथा फसल पर लगान निश्चित करता था। करोड़ी लगान वसूल करके पोतदार के पास भेजता था। प्रत्येक परगने में एक कानूनगो होता था। ‘गो’ का अर्थ होता है ‘कहने वाला’।

कानूनगो भूमि सम्बन्धी कानूनों तथा नियमों को जानता था। वह भूमि तथा लगान के ब्यौरे का रजिस्टर रखता था। गाँवों में पटवारी तथा मुकद्दम होते थे। मुकद्दम, कदम शब्द से बना है जिसका अर्थ है आगे चलने वाला या मुखिया।

करोड़ी को अपने क्षेत्र से भू-राजस्व वसूलने की जिम्मेदारी के साथ-साथ यह निर्देश दिए कि वह अपने क्षेत्र में तीन साल की अवधि में समस्त अकृषि भूमि को कृषि भूमि में रूपांतरित करने का प्रयास करे ताकि शाही खजाने के लिए अधिकतम भू-राजस्व जुटाया जा सके।

ई.1580 तक केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में समस्त आवश्यक सूचनाएँ एकत्रित कर ली गईं। सुधार का पहला काम यह किया गया कि सरकारों (जिलों) को मिला कर सूबे (प्रान्त) बनाये गये। कुल बारह सूबों का निर्माण किया गया। प्रत्येक सूबे में लगान के मामलों की देखभाल के लिये एक दीवान नियुक्त किया गया जो करोड़ियों द्वारा किए जा रहे कार्य का निरीक्षण करते थे।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि करोड़ियों से अपेक्षा की गई थी कि वे अपना काम ईमानदारी से करेंगे तथा खेतों की उपज बढ़ाकर शाही खजाने को मिलने वाले कर में वृद्धि करेंगे किंतु अधिकतर करोड़ी बेईमान, लालची, घूसखोर एवं लुटेरे निकले। उन्होंने किसानों की आय बढ़ाने के कोई उपाय नहीं किए, न ही अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ बनाने के प्रयास किए।

मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि बहुत से करोड़ियों ने किसानों से इतना अधिक कर वसूल किया कि किसानों की पत्नियां एवं बच्चे बिक गए। बहुत से किसानों ने आत्महत्याएं कर लीं तथा बहुत से किसान अपने घरों एवं खेतों को छोड़कर बैठ गए। इससे सल्तनत की आय घट गई तथा खेत खाली पड़े रहने लगे।

इस प्रकार चारों ओर अफरा-तफरी का माहौल बन गया। जब राजा टोडरमल को इस बात की जानकारी हुई तो उसने बहुत से करोड़ियों को पकड़कर जेलों में बंद करवा दिया तथा उन्हें डण्डा-बेड़ी चढ़ाकर इतना मारा कि बहुतों के प्राण-पंखेरू उड़ गए।

मुल्ला बदायूंनी ने बड़े व्यंग्यपूर्ण ढंग से लिखा है-

‘टोडरमल ने बहुत से बेईमान अधिकारियों को तब तक जेल में रखा जब तक कि वे मर नहीं गए। इस कारण टोडरमल को जल्लादों एवं तलवारों से प्राण लेने वालों की जरूरत ही नहीं पड़ी

….. इन करोड़ियों की हालत जगन्नाथ मंदिर के उन हिंदुओं जैसी हो गई जो स्वयं को किसी मूर्ति के समर्पित कर देते हैं तथा साल भर अच्छा खाते-पीते हैं और साल के अंत में मंदिर में एकत्रित होकर रथ के नीचे आकर जान दे देते हैं। या मूर्ति को अपना शीष चढ़ा देते हैं।’

जब अकबर को अपने बेइमान कर्मचारियों के कारनामों की जानकारी हुई तो उसने अनेक करों को समाप्त कर दिया। अधिकांश लेखकों ने लिखा है कि अकबर ने हिन्दू प्रजा पर से जजिया, जकात तथा तीर्थयात्रा कर को समाप्त कर दिया। प्रजा से वृक्ष-कर, बाजार-कर, गृह-कर तथा ऐसे ही अनेक अन्य करों को भी समाप्त कर दिया। बादशाह ने कोतवालों तथा अमल-गुजारों को आदेश दिया कि वे नियमों का ठीक से पालन करायें और भ्रष्ट कर्मचारियों को कठोर दण्ड दें।

मोरलैण्ड ने लिखा है- ‘यदि उस समय के स्तर से मूल्यांकन किया जाय तो आर्थिक दृष्टिकोण से अकबर का शासन प्रशंसनीय था क्योंकि उसके कोष में सदैव वृद्धि होती गई और जब उसने पंचत्व प्र्राप्त किया तब वह संसार का सर्वाधिक समृद्ध शासक था।’ इस स्ाििति का समस्त श्रेय राजा टोडरमल को जाता है।

मौरलैण्ड की यह परिभाषा सही प्रतीत नहीं होती क्योंकि यदि अकबर संसार का सर्वाधिक समृद्ध शासक था तो इससे जनता की आर्थिक स्थिति बेहतर कैसे मानी जा सकती है। निश्चित ही उस काल में किसान निर्धन था और उस पर अत्याचार हो रहे थे।

बेईमान कर्मचारियों की फौज रातों-रात तैयार नहीं हुई थी अपितु सम्पूर्ण मुगलिया शासन में कर्मचारियों की बेईमानी अनवरत जारी रही थी। अकबर उनमें से बहुत कम बेईमानों को ही दण्डित कर सकता था। कर्मचारियों की बेईमानी एक शाश्वत समस्या है जिससे जनता का जीवन हर समय कष्टों से घिरा हुआ रहता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

- Advertisement -

Latest articles

छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ - www.bharatkaitihas.com

छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ

0
छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ शीर्षक से लिखी गई इस पुस्तक में हिन्दू हृदय सम्राट छत्रपति शिवाजी राजे की जीवनी, इतिहास, उपलब्धियों एवं संघर्षों...
सरदार वल्लभ भाई पटेल - www.bharatkaitihas.com

सरदार वल्लभ भाई पटेल प्रेरक एवं रोचक प्रसंग

0
सरदार पटेल के व्यक्तित्व का आकर्षण न केवल उस समय के ब्रिटिश शासकों, भारतीय नेताओं और देशवासियों के सिर चढ़कर बोलता था अपितु आज भी देशवासियों के दिलों की धड़कनें बढ़ा देता है।
भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या www.bharatkaitihas.com

भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध

0
इस पुस्तक में भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है। हिन्दू धर्म, भारतवर्ष की भूमि पर आकार...
भारत की लुप्त सभ्यताएँ - www.bharatkaitihas.com

भारत की लुप्त सभ्यताएँ

0
मानव सभ्यता के उस कालखण्ड को जिसमें मानव अर्थात् ‘आदिमानव’ पत्थर, लकड़ी एवं हड्डी के औजार और उपकरण काम में ले रहा था, प्रागैतिहासिक कालखण्ड है और जहाँ से मानव अर्थात् ‘विकसित मानव’ धातुकालीन सभ्यता में प्रवेश करता है, वहीं से मानव सभ्यता का ऐतिहासिक काल आरम्भ होता है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास - bharatkaitihas.com

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास

0
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास का लेखन विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों के आधार पर किया गया है। ‘भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति’ विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता...
// disable viewing page source