विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य गोस्वामी तुलसीदास की गुरुपरम्परा के आचार्य थे। वे तुलसीदासजी से लगभग 537 वर्ष पहले अर्थात् ई.1017 में जन्मे।
तुलसीदास की गुरुपरम्परा वास्तव में दक्षिण भारत के आळवार संतों के काल से आरम्भ होती है। आळवार संतों ने दक्षिण भारत में विष्णु भक्ति का नया मार्ग प्रशस्त किया जो वैदिक परम्पराओं का एक नवीन विकास था। आळवार संतों की भक्ति-परम्परा में ग्यारहवीं शताब्दि ईस्वी में विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रवर्तक आचार्य रामानुजाचार्य का जन्म हुआ।
द्वैतावाद एवं अद्वैतावाद का समन्वय
आठवीं शताब्दी ईस्वी में शंकराचार्य ने उपनिषदों के ‘सत्य एक है, दो नहीं’ जैसे वाक्यों को लेकर अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया परन्तु द्वैतवाद के समर्थकों का कहना था कि ‘आत्मा व ब्रह्म एक नहीं हैं, दो हैं।’ इनका समन्वय करते हुए रामानुजाचार्य ने ‘विशिष्टाद्वैत’ का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म दो होते हुए भी उनमें विशिष्ट प्रकार का अद्वैत है।
रामानुजाचार्य ने स्वीकार किया कि परमसत् (सत्य) के तीन स्तर हैं- (1) ब्रह्म अर्थात ईश्वर, (2) चित् अर्थात आत्मतत्व एवं (3) अचित् अर्थात प्रकृति तत्व।
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने प्रतिपादित किया कि अंतिम दोनों स्तर, प्रथम स्तर से पृथक नहीं हैं, अपितु विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं और उसी पर आधारित हैं। ठीक वैसे ही जैसे शरीर और आत्मा मूलतः पृथक नहीं हैं तथा संसार में शरीर आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य करता है। उसी प्रकार चित् (आत्मा) तथा अचित् (प्रकृति), ब्रह्म या ईश्वर के शरीर सदृश्य हैं।
रामानुज का जन्म तमिलनाडु प्रांत में चेन्नई से लगभग 45 किमी. दूर श्रीपेरुम्बुदृरम् में केशव सोमया और कान्तिमति दम्पत्ति के घर हुआ। उनकी शिक्षा पेरुम्बुदूर से कुछ दूर कांचीपुरम में पेरिय नम्बि इत्यादि पांच आचार्यों के द्वारा हुई। रामानुज अद्भुत प्रतिभा के धनी थे इस कारण उन्होंने शीघ्र ही शास्त्रों पर अधिकार कर लिया।
शिक्षा प्राप्त करने के बाद रामानुज ने संन्यास-ग्रहण कर लिया। उन्हें तिरुपुरकुळि में यादव प्रकाश ने वैष्णव परम्परा में दीक्षित किया। रामानुज को भूलोक-वैकुण्ठ नाम से प्रसिद्ध श्रीरंगम के वैष्णव-मठ का अध्यक्ष बनाया गया। वे आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
मान्यता है कि 10वीं शताब्दी ईस्वी में नाथ मुनिगल वैष्णव परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हुए। उन्होंने आळवार भक्त-कवियों द्वारा भगवान विष्णु की अर्चा मूर्ति के समक्ष गाये गये चार हजार भक्तिपूर्ण गेय पदों का संग्रह किया जो ‘नालाइर दिव्य प्रबंध’ नाम से प्रसिद्ध है। मुनिगल के पौत्र आळवंदार आचार्य हुए जो यामुनाचार्य नाम से जाने जाते हैं।
यामुनाचार्य के पश्चात रामानुजाचार्य ने वैष्णव तत्व के प्रचार-प्रसार को तमिलनाडु से बाहर भी फैलाया तथा कर्नाटक के तोण्डसुर में जयस्तम्भ स्थापित किया। रामानुजाचार्य ने तमिलनाडु में श्रीरंगम के रंगनाथ (विष्णु) मंदिर में आचार्य पद पर अधिष्ठित रहते हुए मन्दिर में सेवा-अर्चा एवं अन्य व्यवस्थाओं से संबंधित नियमों का निर्धारण किया। इसी स्थान पर ई.1137 में 120 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।
अपने निधन से पूर्व अपने परम शिष्य मुदलियाण्डान के पुत्र कन्दाई आण्डान की प्रार्थना पर रामानुज ने अपनी भौतिक देह की प्रतिमा शिल्पी द्वारा बनवाने की अनुमति प्रदान की और शिल्पी ने उनकी वह प्रतिमा का निर्माण किया जिसका आलिंगन कर आचार्य ने उसे अपनी समस्त शक्ति प्रदान कर दी।
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य की इस प्रतिमा को श्रीपेरुम्बुदुरम् में लाकर स्थापित किया गया। इसे रामानुज का स्वानुभूतित, अर्चा-विग्रह कहा जाता है। आळवार तिरुनगर, श्रीरंगम तथा तिरुनारायणपुरम (कर्नाटक) में भी रामानुजाचार्य के अर्चा-विग्रह स्थापित हैं। रामानुज को यतिराज भी कहा जाता है। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।
1. वेदार्थ संग्रहम्
प्रस्तुत ग्रन्थ उपनिषदों में प्रकाशित तीन बुनियादी दार्शनिक तत्वों की उद्घोषणा पर प्रकाश डालता है-1. यथार्थता का दर्शन, 2. मार्ग का दर्शन और 3. अन्त का दर्शन। प्रथम, ब्रह्म की प्रकृति से सम्बन्धित है। द्वितीय भक्ति की प्रकृति से सम्बद्ध है। तृतीय ब्रह्म-प्राप्ति के साथ सम्बन्ध रखता है।
उपरोक्त दर्शनों को आगे विस्तार करते हुए उपनिषदों के दर्शन-चिन्तन के पांच प्रभागों को आच्छादित किया गया है- आत्मा, ब्रह्म, सम्पूर्णत्व की बाधाएं, सम्पूर्णत्व की ओर प्रगतिशील प्रविधि और सम्पूर्णत्व की प्रकृति।
रामानुज दर्शन में दिव्य आत्मा के बारे में कुछ विशिष्ट सिद्धान्त हैं- धर्मभूत ज्ञान एवं स्वरूपभूत ज्ञान। ब्रह्म विश्वात्मा है और मूलाधार है। रामानुजाचार्य प्रस्तुत ग्रन्थ में, उपनिषदों द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष के विभिन्न पक्षों की चर्चा करते हैं।
वेदार्थ संग्रहम, दार्शनिक प्रवृत्ति अर्थात् सत्य के प्रति भक्ति-निष्ठा, व्यापक दृष्टिकोण, आवश्यक और खुले मस्तिष्क के भीतर के अन्तर्ज्ञान की गहराई के विशिष्ट गुणों का वर्णन करता है।
2. वेदान्त सारम्
प्रस्तुत ग्रन्थ में वेदों का सांगोपांग विश्लेषण किया गया है तथा बताया गया है कि भक्ति-योग आत्मज्ञान का उपाय है और मोक्ष-प्राप्ति में परमानन्द सन्निहित है। विवेक, विमोख (स्वतन्त्रता), अभ्यास, क्रिया, कल्याण (पवित्रता), अनवसदा (बलहीनता का अभाव) और अनुद्दर्शा (अति आनन्द का अभाव) से भक्ति प्रस्फुटित होती है।
रामानुज का मानना है कि ब्रह्म उच्चतम है, सर्वाेत्तम है और महानतम है। नारायण वैकुण्ठवासी हैं और उनकी पत्नी श्री, अथवा महालक्ष्मी हैं। समस्त प्राकृतिक सृष्टि अत्यधिक सुन्दर है जो उनकी देन है। भक्ति का विशद वर्णन करते हुए श्रीरामानुज सिद्ध करते हैं कि प्रपत्ति द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास किया जा सकता है किंतु भगवान के चयन, कृपा एवं दया के बिना कोई भी अपने ही प्रयासों से उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता।
3. श्री भाष्यम्
महर्षि व्यास के ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों के यथार्थ अर्थ को सुदृढ़ निश्चय करने और मोक्ष के सच्चे पथ को निस्सन्देह सुस्थापित करने के लिए लिखे गये थे। विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने महर्षि व्यास के ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या के रूप में श्रीभाष्यम् ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें चार अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय के चार पादम् (चरण) हैं जिनमें 156 अधिकरणम (प्रभाग अथवा शीर्षक) हैं।
प्रथम अध्याय के अनुसार श्रियःपति, अर्थात् नारायण सम्पूर्ण विश्व के सृष्टिकर्ता हैं, मूलभूत हैं।
द्वितीय अध्याय ‘अरिरोधाध्यम्’ है जिसमें स्मृतियों, उपनिषदों आदि के संगत शब्दों एवं सूक्तियों के सहारे संशयों एवं विरोधों का निराकरण किया गया है।
तृतीय अध्याय परमात्मा के साथ एकाकार होने के लिए अनुपालनीय प्रविधि पर प्रकाश डालता है।
चतुर्थ फलाध्याय, प्राप्य फलों, उसके उपायों और प्रत्येक के परिणाम पर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
संक्षेप में, चारों अध्याय परमात्मा के दिव्य कल्याण गुणों की स्तुति करते हैं। मान्यता है कि इस ग्रन्थ का ‘श्रीभाष्यम्’ नामकरण स्वयं सरस्वती देवी ने किया था।
4. वेदांत दीपम्
वेद परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। वेदान्त वेदों का सार है। प्रस्तुत ग्रन्थ ‘श्रीभाष्यम’ का संक्षिप्त रूप है और सारगर्भित है।
इसमें चार अध्याय हैं। प्रथम ‘समानाध्याय’ है। यह हमें बताता है कि समस्त उपनिषद् ब्रह्म को सृष्टिकर्ता मानते हैं।
द्वितीय अध्याय ‘अविरोधाध्याय’ है। यह अध्याय सिद्ध करता है कि ब्रह्म को विश्व के सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार करने में वेदों अथवा अन्य सम्बद्ध ग्रन्थों में कोई विरोध नहीं है। तृतीय ‘साधनाध्याय, में मोक्ष-प्राप्ति हेतु परमात्मा की पूजा-आराधना संबंधी बातें हैं। चतुर्थ फलाध्याय, फल अथवा मोक्ष की प्रकृति और उसके दूसरे पहलुओं के बारे में चर्चा करता है।
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य का मानना था कि जैसे वर्ष की प्रत्येक ऋतु में गोलाकार रूप में उत्पाद होते हैं वैसे ही समस्त युगों और कल्पों आदि में पूर्व की तरह ही उन्हीं सारी वस्तुओं की सृष्टि की जाती है। वेद जिस प्रकार पहले अविनाशी रहे और जिस प्रकार उनका अध्ययन एवं वेद-घोष होते थे वैसे ही आज भी हैं। वेद इसी प्रकार सदैव स्वयं परमात्मा की भांति अमर रहेंगे।
5. गीता भाष्यम्
भगवद्गीता पर रामानुजाचार्य की टीका ‘गीता भाष्यम्’ है। गीता महाभारत ग्रंथ का ही अंग है। प्रस्तुत ग्रन्थ में रामानुजाचार्य सिद्ध करते हैं कि परमात्मा की जानकारी के लिए सर्वप्रथम उस पर सम्पूर्ण विश्वास करना चाहिए। विश्वास के समानार्थी हैं भक्ति, उपासना, श्रद्धा, निष्ठा आदि।
भगवद्-प्रेम, प्रकृति-प्रेम भक्ति है। भक्ति-मार्ग में प्रगति-क्रम इस प्रकार है- कर्मयोग ज्ञानयोग का मार्गदर्शन करता है तथा अपनी आत्मानुभूति द्वारा ज्ञानयोग भक्तियोग का मार्ग खोलता है। भक्तियोग जीवन के अंतिम उद्देश्य का तत्काल मार्ग है।
गीता भाष्यम् में रामानुज का कथन है कि भक्तियोग के प्रारम्भ की बाधाएं भगवान के पद्मपादों की शरण द्वारा दूर की जा सकती है। ऐसी अड़चनों से बचने के लिए कठिन प्रायश्चितों की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रभु के दिव्य चरण-कमलों में शरणागति अथवा प्रपत्ति के बिना कोई भी जीव कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। प्रस्तुत ग्रन्थ देवत्व के प्रति प्रगति करने और मानवता के लिए विश्वसनीय मार्गदर्शिका है।
6. गद्यत्रयम्
गद्यत्रयम् में तीन ग्रंथ हैं जो शरणागति अथवा प्रपत्ति के गद्यगीत हैं। ये हैं- शरणागति गद्यम्, श्री रंगगद्यम् और श्रीवैकुण्ठगद्यम्। ये तीनों ग्रंथ समग्र रूप से गद्यत्रयम् कहलाते हैं। वैष्णवों द्वारा इन ग्रंथों का नित्य पाठ किया जाता है।
‘शरणागति गद्यम्’ में प्रथमचूर्णिका के प्रथम वाक्य में ही रामानुज सर्वप्रथम श्री अथवा महालक्ष्मी की शरण में जाते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं कि उन्हें प्रपत्ति प्रदान करें- शरणमह प्रपद्ये। श्रियःपति अर्थात् भगवान विष्णु महालक्ष्मी की अनुशंसा से ही जीवात्मा के महापापों को क्षमा करते हैं और उनके द्वारा संस्तुत जीवात्मा को अपनी शरण देते हैं।
शरणागति अथवा प्रपत्ति सिद्धांत श्री वैष्णवम् की रीढ़ की हड्डी है, सबसे महत्वपूर्ण विषय है। ‘शरणागति गद्यम्’ और ‘श्रीरंगगद्यम्’ दोनों प्रथम पुरुष, एकवचन में रचित हैं और अपने उच्चतम उद्देश्य ‘शरणागति’ प्राप्त करने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। मान्यता है कि रामानुज द्वारा अपने शिष्यों को प्रदान किया गया अनुदेश ‘वैकुण्ठ गद्यम्’ के रूप में है जो मनुष्य की मुक्ति के लिए एकमात्र उपाय के रूप में प्रपत्ति का उचित ढंग से निष्पादन करता है।
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने ‘श्रीरंगगद्यम्’ में प्रपत्ति के लिए विशिष्ट रूप से अपेक्षित योग्यताओं की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला है। प्रस्तुत ग्रंथ में पाँच चूर्णिकाएँ और दो श्लोक हैं।
‘शरणागति गद्यम्’ और ‘श्रीरंगगद्यम्’ दोनों कृतियों की रचना करने के लिए रामानुज को भगवान महाविष्णु के विशेष अनुग्रह एवं परम कृपा के रूप में परमपद श्रीवैकुण्ठ के प्रत्यक्ष दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
‘वैकुण्ठ गद्यम्’ मुक्त जीवात्मा के चक्षुओं द्वारा श्रीवैकुण्ठ का आँखों देखा दिव्य वर्णन है जो दिव्याद्भुत विशेषणों से बिल्कुल ओतप्रोत है और पाठक एवं श्रोता दोनों को निश्चित रूप से मंत्रमुग्ध कर देता है।
प्रस्तुत ग्रंथ का मुख्य संदेश यह है कि भगवान श्रीमन्नारायण के चरणकमलों में की जानेवाली शरणागति, नारायणसायुज्यम का फल, परिणाम श्रीमन्नारायण के समीप होने और उनके चरण-कमलों में लीन होने का सौभाग्य प्रदान करेगी। अर्थात् ईश्वर की शरणागति ग्रहण करने से ही आत्मा को सालोक्यम्, सारूप्यम्, शुद्ध स्तवं एवं सामीप्यम् आदि मोक्षों की प्राप्ति संभव हैं।
वैकुण्ठ गद्यम्’ में अनन्त, गरुड़, विश्वक्सेन, द्वारपालक जैसे नित्यसूरियों द्वारा निष्पादित दिव्य कैंकर्यों, भगवान की दिव्य सेवाओं की सुदंरतम रीति से प्रशंसा की गयी है। इस ग्रंथ में प्रतीक्षित मुक्ति के लिए प्राप्त होनेवाली असीम और अपार निधि की संक्षिप्त झाँकी अद्भुत ढंग से चित्रित की गई है।
नित्य ग्रन्थम्
‘नित्यग्रन्थम्’ वैष्णव भक्तों को नित्य कर्मानुष्ठान के बारे में पथ-प्रर्दशन करने के लिए रामानुज द्वारा रचित एक संक्षिप्त विधान है। रामानुजाचार्य का निर्देश है कि वैष्णव को प्रतिदिन, वेदों, स्मृतियों और पुराणों में निर्धारित धार्मिक कार्यों को नियमित रूप से करना चाहिए। प्रस्तुत ग्रंथ में रामानुजाचार्य से पूर्व के आचार्यों यथा नाथमुनि, यामुनाचार्य आदि की पम्परा से अग्रसर और अनुपालनीय भगवत् आराधना क्रम की सुस्पष्ट व्याख्या की गई है।
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य के लौकिक कार्य
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने भक्तिग्रंथों के प्रणयन के साथ-साथ लौकिक कार्य भी किए। उन्होंने देवालय के भीतर और बाह्य भव्य निर्माण के लिए जनसाधारण का समर्थन व सहयोग प्राप्त किया। उन्होंने प्रत्येक कार्य के लिए पृथक-पृथक समिति गठित की और समाज के समस्त समुदायों को साथ लेकर कार्य करवाए।
वे प्रत्येक व्यक्ति के साथ मिलजुल कर रहते थे। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह पंडित हो या अनपढ़, गंवार हो या नागरी, बूढ़ा हो या बालक, स्त्री हो या पुरुष, ब्राह्मण हो या चाण्डाल, कभी भी उनसे आराम से मिल सकता था।
रामानुज की मान्यता थी कि प्रत्येक मानव बराबर है। मानवों में कोई भी उच्च या नीच नहीं है। इसलिए रामानुज ने गांव के निम्न समझे जाने वाले लोगों का ‘तिरुकुलत्तार’ नामकरण किया तथा उन्हें मेलकोट्टे के विष्णु भगवान के मंदिर के अंदर ले जाकर मूल स्वयंम्भू विष्णु भगवान श्रीचेंलप्पिळळ के दर्शन कराये। आज से एक हजार साल पहले के समय में यह एक बड़ी सामाजिक क्राँति थी।
विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य चाहते थे कि मुसलमान भी विष्णुभक्ति करें। इसलिए उन्होंने श्रीरंगम के भगवान श्रीरंगनाथ के साथ एक मुस्लिम कन्या का विवाह करवाया। इस मंदिर में शोभायमान सुलतानी, नामक तुलुक्क नाच्चियार की सन्निधि भी रामानुज सम्प्रदाय के सार रूपी भागवत् समधर्म एवं समता दृष्टि का ज्वलन्त दृष्टान्त है।
रामानुज ने कर्नाटक राज्य के तिरुनारायणपुरम् में भी दिल्ली के किसी नवाब की पुत्री का विवाह चेंल्लप्पिळळ अर्थात् भगवान विष्णु के साथ कराया तथा उसे बीबी नाच्चियार नाम दिया।
एक बार दिल्ली के किसी मुसलमान आक्रांता नवाब ने भगवान चेंल्लप्पिळलै अर्थात् भगवान विष्णु का विग्रह उठा लिया और उसे अपनी पुत्री की कमर में बांध दिया। इस पर रामानुज ने गांव के हरिजनों को बुलवाया तथा उनसे कहा कि वे भगवान के विग्रह को पुनः प्राप्त कर लें। रामानुज के इतना कहते ही चेंल्लप्पिळलै का विग्रह स्वतः ही नवाब की बेटी की कमर से नीचे उतरकर रामानुजाचार्य के पास चला आया। रामानुज ने इस विग्रह को मेलक्कोट्टै के मंदिर में पुनः प्रतिष्ठित करवाया।
एक बार किसी निम्न समझी जानी वाली जाति के विल्लिदासन ने एक वेश्या से विवाह कर लिया। उसकी जाति के लोगों ने विल्लिदासन का बहुत विरोध किया। इस पर रामानुज ने उन दोनों को श्रीरंगम मठ में रख लिया। इस पर ब्राह्मण समुदाय ने रामानुज का कठोर विरोध किया परन्तु रामानुज ने उनके विरोध की परवाह नहीं की।
रामानुज के गुरु आचार्य गोष्ठिपूर्ण के पास एक परम रहस्यमय महामंत्र अष्टाक्षर था। आचार्य गोष्ठिपूर्ण ने वह मंत्र रामानुज को दिया। रामानुज ने आसपास के गाँवों के लोगों को बुलाया तथा स्वयं मंदिर के गोपुर के ऊपर खड़े होकर लोगों को परम रहस्य महामंत्र अष्टाक्षर सुना दिया। रामानुज की मान्यता थी कि ईशभक्ति का कोई भी मंत्र कुछ विशेष लोगों के लिए नहीं है, सबके लिए है। इस कार्य में उन्होंने अपने गुरु के शाप की भी परवाह नहीं की।
जब गुरु ने कहा कि इस कार्य के लिए तू नर्क में जाएगा। इस पर रामानुज अत्यंत विनम्रता से उत्तर दिया कि अष्टाक्षर महामंत्र के रहस्य को सार्वजनिक कर देने से जब सैकड़ों लोग स्वर्ग जाएँगे और एक ही व्यक्ति मैं, नरक जाऊँगा तो मैं नरक जाने के लिए तैयार हूँ।
उस काल में मैसूर राज्य अकालग्रस्त रहता था। इसलिए रामानुज ने तोण्डनूर में ढाई मील लम्बी और एक मील चौड़ी मोती झील का निर्माण करवाया। इस झील से आज भी हजारों एकड़ भूमि की सिंचाई होती है।
इस प्रकार तुलसी की गुरुपरम्परा के महान् संत विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य का हिन्दू जाति पर बड़ा उपकार है। उन जैसे महान् आचार्यों के कारण ही आज हिन्दू समाज भगवान् विष्णु की भक्ति जैसी महान परम्पराओं को जीवित रखे हुए है।
–डॉ. मोहनलाल गुप्ता