अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में कानपुर की क्रांति महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस क्रांति का नायक नाना साहब पेशवा था। पेशवा की सेना ने गंगा नदी में घुसकर सैंकड़ों अंग्रेजों को मार डाला!
जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने नाना साहब को पेशवा मानने और पेंशन देने से मना कर दिया तथा नाना साहब पेशवा के मंत्री अजीमुल्ला खाँ को इंग्लैण्ड से निराश लौटा दिया तो नाना साहब ने उत्तर भारत के महत्वपूर्ण रजवाड़ों एवं सैनिक छावनियों में घूम-घूमकर भावी क्रांति की योजना का प्रचार किया। नाना साहब ने कानपुर के अंग्रेज कलक्टर को विश्वास में लेकर डेढ़ हजार सिपाहियों की एक निजी सेना खड़ी कर ली ताकि यदि कभी कोई बगावत हो तो नाना की सेना कानपुर की अंग्रेज सेना की सहायता कर सके।
हालांकि क्रांति की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई थी किंतु क्रांति का सूत्रपात 29 मार्च 1857 को बैरकपुर के भारतीय सैनिकों द्वारा कर दिया गया। 3 मई 1857 को लखनऊ में भी विद्रोह हो गया। 10 मई 1857 को मेरठ में भी विद्रोह हो गया। 5 जून 1857 को झांसी में विद्रोह हो गया। इस प्रकार यह क्रांति कई स्थानों पर फूट पड़ी।
5 जून 1857 को कम्पनी सरकार के कानपुर में स्थित भारतीय सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया। इस कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी तथा उनके परिवार कानपुर शहर के उत्तरी भाग में बनी खंदकों में छिप गए। इस प्रकार कानपुर की क्रांति आरम्भ हो गई।
विद्रोही सैनिक अपने हथियार लेकर कानपुर से दिल्ली के लिए रवाना हो गए। नाना साहब इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी सेना ने उसी समय बिठूर से कानपुर आकर नगर के उत्तरी भाग में स्थित अंग्रेजी शस्त्रागार में प्रवेश कर लिया।
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अंग्रेजी शस्त्रागार की सुरक्षा के लिए तैनात 53वीं रेजीमेंट ने सोचा कि नाना साहब के सिपाही कम्पनी के अधिकारियों द्वारा शस्त्रागार की रक्षा के लिए भेजे गए हैं। इसलिए उन्होंने नाना साहब की सेना को बिना किसी रुकावट के शस्त्रागार में प्रवेश करने दिया।
नाना साहब की सेना ने शस्त्रागार पर अधिकार करके घोषणा की कि वे भी कम्पनी सरकार के विरुद्ध लड़ रहे क्रांतिकारी सैनिकों के साथ हैं। इसके बाद नाना साहब के सैनिकों ने कानपुर में स्थित अंग्रेजी कोषागार पर अधिकार कर लिया और घोषणा की कि उसने पेशवा के अधीन मराठा संघ को पुनर्जीवित कर दिया है तथा उसका लक्ष्य बहादुरशाह (द्वितीय) को फिर से भारत का बादशाह बनाना है। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि नाना साहब के नेतृत्व में हुई कानपुर की क्रांति ने ब्रिटिश सरकार को बड़े संकट में डाल दिया।
जब कानपुर कानपुर की क्रांति के क्रांतिकारी सैनिक कल्यानपुर पहुंचे तो नाना साहब ने उनसे भेंट की। क्रांतिकारी सैनिक बहादुरशाह जफर से मिलने दिल्ली जा रहे थे। नाना साहब ने इन क्रांतिकारियों से कहा कि वापस कानपुर चलो ताकि हम मिलकर अंग्रेजों को परास्त कर सकें किंतु क्रांतिकारी सैनिकों ने नाना साहब की बात मानने से मना कर दिया। इस पर नाना साहब ने उन्हें भरोसा दिया कि यदि वे नाना साहब की सेना में शामिल होते हैं तो उन्हें दोगुना वेतन दिया जाएगा। इस पर क्रांतिकारी सैनिक नाना साहब की तरफ हो गए। 6 जून 1857 को नाना साहब की सेना ने क्रांतिकारी सैनिकों के साथ मिलकर कानपुर की अंग्रेजी सेना पर हमला बोला। अंग्रेजी सेना खंदकों से निकलकर निकटवर्ती दुर्ग में चली गई। उसके पास बहुत ही कम पानी और रसद सामग्री थी। जब कम्पनी सरकार के भारतीय सिपाही जो अब भी अंग्रेजों के साथ थे, भूख और प्यास से मरने लगे तो वे भाग-भाग कर नाना की तरफ आने लगे। 10 जून तक नाना साहब की सेना में 10 से 12 हजार सिपाही हो गए किंतु अंग्रेजी सेना के जनरल व्हीलर तथा कैप्टेन मूर आदि अधिकारियों ने हार नहीं मानी। वे विद्रोही सेनाओं का मुकाबला करते रहे।
23 जून 1857 को प्लासी के युद्ध की सौवीं सालगिरह थी। भारतीय सिपाहियों का विश्वास था कि जिस दिन कम्पनी सरकार को भारत में शासन करते हुए 100 साल हो जाएंगे, उसी दिन कम्पनी सरकार नष्ट हो जाएगी। इसलिए 23 जून को नाना साहब की सेनाओं ने अंग्रेजों पर भयानक आक्रमण किया। पेशवा के सैनिकों ने जनरल व्हीलर के पुत्र लेफ्टिनेंट गोर्डन को मार डाला। इससे जनरल व्हीलर का साहस चुक गया। नाना साहब के सैनिकों ने कुछ अंग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों को पकड़ लिया।
24 जून 1857 को नाना साहब ने एक अंग्रेज महिला कैदी रोज ग्रीनवे को एक पत्र देकर जनरल व्हीलर के पास भेजा। इस पत्र में कहा गया था कि यदि अंग्रेज कानपुर खाली कर देते हैं तो उन्हें सतीचूरा घाट तक सुरक्षित रास्ता दे दिया जाएगा जहाँ से वे अपने परिवारों को साथ लेकर नावों की सहायता से इलाहाबाद जा सकते हैं।
जनरल व्हीलर को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ और उसने कानपुर खाली करने से मना कर दिया। 25 जून 1857 को नाना साहब ने दूसरा पत्र भिजवाया जिस पर नाना साहब ने स्वयं हस्ताक्षर किए। यह पत्र मिसेज जैकोबी नामक एक अंग्रेज महिला बंदी के हाथों भिजवाया गया। इसके बाद नाना साहब ने अंग्रेजों की खंदकों पर गोलाबारी करनी बंद कर दी।
26 जून को अंग्रेजी सैनिकों ने अपने मृत साथियों को दफनाया और 27 जून को वे सतीचूरा घाट की तरफ रवाना हो गए। नाना साहब ने बड़ी संख्या में पालकियां, बैलगाड़ियां और हाथी भिजवाए ताकि औरतों और बच्चों को पैदल न चलना पड़े। कम्पनी के अधिकारियों एवं सिपाहियों को अपने शस्त्र साथ में ले जाने की अनुमति दी गई। नाना साहब के सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों को अपनी सुरक्षा में ले लिया ताकि उन पर कोई व्यक्ति हमला न करे।
प्रातः 8 बजे अंग्रेज परिवार सतीचूरा घाट पर पहुंचे। जब अंग्रेज अधिकारी एवं उनके परिवार हाथियों, बैलगाड़ियों एवं पालकियों से उतरकर नावों की तरफ जाने लगे तो आसपास के बहुत से गांवों के स्त्री-पुरुष और बच्चे उन्हें देखने के लिए जमा हो गए।
नाना साहब ने अंग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों के लिए 40 नावों का प्रबंध किया था। उस दिन गंगा नदी में बहुत कम पानी था जिसके कारण इन नावों का चलना कठिन हो गया। इससे अंग्रेजों के प्रस्थान में कुछ विलम्ब हो गया।
इसी बीच इलाहाबाद से छठी नेटिव इन्फैंट्री तथा बनारस से 37वीं इन्फैंट्री के सिपाही भी सती चौरा आ पहुंचे। इन्हें जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील कॉलम नामक ब्रिटिश अधिकारी लेकर आया था। नील कॉलम की दुष्टता के कारण वहाँ उपस्थित सिपाहियों में गोलीबारी आरम्भ हो गई। कहा नहीं जा सकता कि पहले गोलीबारी किसने आरम्भ की। भारतीय सिपाही गंगाजी में उतर पड़े तथा अंग्रेज अधिकारियों को नावों से खींच-खींचकर मारने लगे।
तात्या टोपे तथा अजीमुल्ला खाँ घटना-स्थल पर ही मौजूद थे जबकि नाना साहब यहाँ से दो किलोमीटर दूर डेरा डाले हुए था। कुछ स्रोतों को मानना है कि जब तात्या ने देखा कि अंग्रेजी सेना गोलीबारी कर रही है तो तात्या टोपे ने अपनी सेना के सिपाहियों को आदेश दिया के वे भी अंग्रेजों पर गोली चलाएं। इस गोलीबारी में 450 से अधिक अंग्रेज अधिकारी एवं सैनिक मारे गए।
जिस समय यह गोली काण्ड आरम्भ हुआ, उससे कुछ समय पूर्व ही जनरल व्हीलर की नाव गंगा नदी में कुछ दूर जा चुकी थी किंतु जब भारतीय सिपाहियों ने पीछे से आकर जनरल व्हीलर की नाव पर गोली-बारी की तो अंग्रेजों ने इस नाव पर सफेद झण्डा फहरा दिया। नाना के सिपाही इन अधिकारियों को पकड़कर नाना साहब के निवास स्थल अर्थात् सवादा महल में ले आए तथा उन्हें धरती पर बैठा दिया।
अंग्रेज औरतें नाव में डरी हुई बैठी थीं। जब कानपुर की क्रांति के सैनिकों ने अंग्रेज औरतों पर गोलीबारी की तो नाना साहब ने सिपाहियों को आदेश दिए कि वे औरतों और बच्चों को न मारें। नाना ने 120 अंग्रेज औरतों और बच्चों को नावों से उतरवाकर कानपुर में स्थित सवादा कोठी भिजवा दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता