बंगालियों की हत्या ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में उस समय से आरम्भ हुई जब इस्लाम का पहली बार बंगाल में प्रवेश हुआ। जब जिन्ना ने अपनी मांग मनवाने के लिए कलकत्ता में सीधी कार्यवाही दिवस मनाया, तब भी बंगालियों की हत्या बड़े स्तर पर की गई।
जब पाकिस्तान बन गया तब भी यह सिलसिला नहीं रुका। पूर्वी बंगाल में धर्म के नाम पर न केवल हिन्दुओं की हत्या हुई अपितु भाषा के नाम पर उन बिहारी मुसलमानों की भी हत्या हुई जो बंग्ला-भाषा बोलना नहीं जानते थे। पश्चिमी-पाकिस्तान की सेना ने तीस लाख बंगालियों एवं बिहारियों का संहार किया
पाकिस्तान के निर्माण के साथ मुस्लिम लीग के नेतृत्व में जो सरकार अस्तित्व में आई उसमें पंजाबी तत्व का बाहुल्य था तथा सिंधी, पख्तूनी, बलोच एवं बंगाली तत्वों की उपेक्षा की गई थी। इस कारण पूरे देश में केन्द्र सरकार के विरुद्ध अंसतोष का वातावरण शुरू से ही बनने लगा।
चूंकि पुरानी राजधानी कराची और नई राजधानी इस्लमाबाद दोनों ही पश्चिमी-पाकिस्तान में बनीं तथा पूर्वी-पाकिस्तान इन राजधानियों से 1600 किलोमीटर दूर था इसलिए शासन में सभी महत्वपूर्ण पद पंजाब के मुसलमानों द्वारा हथिया लिए गए थे।
यद्यपि पूर्वी पाकिस्तान का निवासी सुहरावर्दी कुछ समय के लिए पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भी रहा तथापि पाकिस्तान की सत्ता में पूर्वी-पाकिस्तान की कोई आवाज नहीं थी। ई.1966 में पूर्वी-पाकिस्तान के अवामी लीग नामक राजनीतिक दल के नेता शेख मुजीब-उर-रहमान ने राष्ट्रपति अयूब के सैनिक शासन का विरोध करते हुए पूर्वी-पाकिस्तान के नागरिकों के लिए स्वायत्त शासन के अधिकारों की मांग की। इस पर पाकिस्तान की सरकार शेख मुजीब-उर-रहमान की शत्रु हो गई और बंगालियों की हत्या करने लगी।
पाकिस्तान की सरकार ने ई.1968 में मुजीब-उर-रहमान पर पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध षड़यंत्र करने का आरोप लगाया जिसमें कहा गया कि मुजीब ने ई.1962 के भारत-चीन युद्ध में एवं ई.1965 के भारत-पाक युद्ध में भारत के सैन्य अधिकारियों के साथ मिलकर पाकिस्तान के विरुद्ध षड़यंत्र किया। अयूब खाँ के इन मिथ्या आरोपों के कारण पूरे पूर्वी-बंगाल में अयूब खाँ की सरकार के विरुद्ध घृणा फैल गई।
पूर्वी पाकिस्तान में चल रही राजनीतिक गतिविधियों का असर पश्चिमी-पाकिस्तान के गैर-पंजाबी मुसलमानों पर पड़े बिना भी नहीं रहा। ई.1967 में अयूब खाँ की सरकार के विदेश मंत्री एवं सिन्धी नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने सरकार से त्याग-पत्र देकर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी बनाई। इसी बीच पाकिस्तान के अन्य प्रांतों द्वारा भी स्वायत्तता की मांग की जाने लगी और अयूब खाँ के लिए देश का शासन चलाना असम्भव हो गया।
26 मार्च 1969 को जनरल मुहम्मद याह्या खाँ ने अयूब खाँ की सरकार का तख्ता पलट दिया तथा स्वयं राष्ट्रपति बन गया। इस प्रकार पाकिस्तान में एक सैनिक शासन हटकर दूसरा सैनिक शासन आ गया। 31 मार्च 1970 को पाकिस्तान का संविधान फिर से स्थगित कर दिया गया। याह्या खाँ ने एक लीगल फ्रेमवर्क ऑर्डर जारी करके देश में एक-सदन वाली संसदीय पद्धति के लिए चुनाव करवाने का निर्णय लिया जबकि सामान्यतः विश्व के समस्त लोकतांत्रिक देशों में दो सदन होते हैं जिन्हें लोकसभा एवं राज्यसभा अथवा कॉमन हाउस एवं अपर हाउस आदि कहा जाता है। याह्या खाँ ने आदेश जारी किए कि जनरल इलैक्शन्स के बाद ही देश का नया संविधान लिखा जाएगा।
22 नवम्बर 1954 को पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान एवं नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटीयर प्रोविंसेज को मिलाकर ‘इण्टिीग्रेटेड प्रोविंस ऑफ वेस्ट पाकिस्तान’ का गठन किया गया था किंतु याह्या खाँ की सरकार ने ‘इण्टिीग्रेटेड प्रोविंस ऑफ वेस्ट पाकिस्तान’ का विघटन करके फिर से पुरानी वाली स्थिति बहाल कर दी। इस कारण पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान एवं नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटीयर प्रोविंसेज नामक प्रांत फिर से अस्तित्व में आ गए। 7 दिसम्बर 1970 को नए विधिक नियमों के तहत पाकिस्तान में केन्द्रीय सरकार के गठन के लिए एकल सदन हेतु चुनाव करवाए गए।
चुनावों से ठीक एक माह पहले पूर्वी-पाकिस्तान में ‘भोला-चक्रवात’ ने कहर बरपाया। यह संसार में अब तक आए चक्रवाती तूफानों में सर्वाधिक भयावह सिद्ध हुआ। इसमें 5 लाख लोगों की मृत्यु हो गई। पाकिस्तान की याह्या खाँ सरकार ने चक्रवात से प्रभावित परिवारों की सहायता के लिए कोई कदम नहीं उठाए। इससे पूर्वी-पाकिस्तान में पश्चिमी-पाकिस्तान के नेतृत्व में चल रही सरकार के विरुद्ध पहले से ही व्याप्त घृणा अपने चरम पर पहुंच गई।
इस समय तक पूर्वी-पाकिस्तान की जनसंख्या पश्चिमी-पाकिस्तान से अधिक हो चुकी थी। क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तान के लाखों हिन्दू या तो मार डाले गए थे, या फिर वे भारत भाग गए थे। यही हाल पश्चिमी पाकिस्तान में भारत से आए मुसलमानों का किया गया था। इसलिए इन चुनावों में पूर्वी-पाकिस्तान की शेख मुजीबुररहमान की पार्टी अवामी लीग को अभूतपूर्व विजय प्राप्त हुई।
केन्द्रीय सदन अर्थात् नेशनल एसेम्बली में कुल 313 सीटों का प्रावधान किया गया था जिनमें से 169 सीटों पर पूर्वी-पाकिस्तान के नेता मुजीबुररहमान की अवामी लीग पार्टी ने जीत प्राप्त कर ली। इसी प्रकार प्रांतीय विधान सभा में 310 सीटों में से शेख मुजीब की पार्टी ने 298 सीटें प्राप्त कर लीं।
नेशनल एसेम्बली में जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को 81 सीटें मिलीं और वह मुख्य विपक्षी पार्टी बनी। जिस मुस्लिम लीग ने भारत से लड़कर पाकिस्तान लिया था, उसका इन चुनावों में तिनका-तिनका बिखर गया। इन चुनावों में मुस्लिम लीग के नाम से दो पार्टियों ने चुनाव लड़ा। इनमें से कौंसिल मुस्लिम लीग को केवल 7 सीटें, तथा मुस्लिम लीग (कय्यूम) को 9 सीटें मिलीं।
बाकी सीटें विभिन्न छोटी-छोटी पार्टियों में बिखर गईं। नेशनल एसेम्बली में अवामी लीग को पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद याह्या खाँ ने अवामी लीग को सरकार बनाने का निमंत्रण नहीं दिया। जब अवामी पार्टी ने विरोध प्रदर्शन किए तो शेख मुजीबुररहमान को बंदी बना लिया गया। इस पर पूर्वी-बंगाल की जनता ने अवामी लीग के नेतृत्व में पश्चिमी-पाकिस्तान से अलग होने के लिए बांग्ला मुक्ति आंदोलन शुरू कर दिया। जब पाकिस्तान ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए पूर्वी-पाकिस्तान में सेना तैनात की तो पूर्वी-पाकिस्तान से बहुत बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आने लगे।
बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम के दौरान भयानक हिंसा हुई। इस आंदोलन को कुचलने के लिए पाकिस्तान की सेना द्वारा 26 मार्च 1971 को पूर्वी-पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्चलाइट आरम्भ किया गया। इस ऑपरेशन की आड़ में पाकिस्तान की सेना ने बंगाली मुसलमानों का जमकर नरसंहार किया।
बंगालियों की हत्या का ऐसा सिलसिला चला, जिसकी मिसाल इतिहास में मिलनी कठिन है। पहले मुसलमानों ने हिन्दुओं को मारा था, अब मुसलमान मुसलमानों को ही मार रहे थे। उनके लिए इंसान किसी कीड़े-मकोड़े की तरह था जिसे कभी भी, कितनी भी क्रूरता से मारा जा सकता था। जमात-ए-इस्लाम नामक संगठन के लड़ाकों ने इस युद्ध में पाकिस्तान की सेना का साथ दिया।
नौ माह तक चले इस मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तान की सेना और जमात-ए-इस्लाम के लड़ाकों ने पूर्वी-पाकिस्तान में कई लाख बंगालियों एवं बिहारियों का संहार किया। यह संख्या 3 लाख से 30 लाख के बीच बताई जाती है। इस दौरान 2 लाख से 4 लाख बंगाली औरतों से बलात्कार किए जिनमें हिन्दू एवं मुस्लिम औरतें बिना किसी भेद के बलात्कार की शिकार हुईं। दिसम्बर 2011 में बीबीसी न्यूज रिपोर्ट में एक रिसर्च के हवाले से दावा किया गया कि बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम में तीन लाख से पांच लाख लोग मारे गए। इस दौरान कुछ कट्टर धार्मिक लोगों ने नारा दिया कि बंगाली महिलाएं पब्लिक प्रोपर्टी हैं।
इस नरसंहार एवं बलात्कारों के कारण अस्सी लाख से एक करोड़ हिन्दुओं ने पूर्वी-पाकिस्तान छोड़ दिया और वे भारत आ गए। लगभग 3 करोड़ लोग पूर्वी-पाकिस्तान से विस्थापित हुए। इस दौरान उर्दू-भाषी बिहारियों एवं बंाग्ला-भाषी बंगालियों के बीच भी हिंसक झड़पें हुईं। इन झड़पों में लगभग डेढ़ लाख उर्दू-भाषी बिहारी मारे गए। एक अन्य अनुमान के अनुसार मरने वाले उर्दू-भाषी बिहारियों की संख्या पांच लाख थी।
सुप्रसिद्ध पत्रकार तारेक फतह ने 1970 के बांगलादेश नरसंहार में मारे गए लोगों की संख्या 10 लाख बताई है। बांग्लादेश के नरसंहार पर टिप्पणी करते हुए तारेक फतेह ने लिखा है- ‘बंगाल जो नवजागरण का पालना था, हत्यारों के हत्थे चढ़ गया था।’ याह्या खाँ एवं उसके साथियों ने पूर्वी-पाकिस्तान के मुक्ति-आंदोलन को भारत-समर्थित युद्ध माना एवं उसका बदला लेने के लिए भारत पर आक्रमण कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप 1971 का भारत-पाक युद्ध हुआ और पूर्वी पाकिस्तान, बांग्लादेश नाम से अलग राष्ट्र बना।
शेख हसीना का संयुक्त राष्ट्र महासभा में वक्तव्य
22 सितम्बर 2017 को बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक वक्तव्य दिया कि पाकिस्तान की सेना ने वर्ष 1971 में जघन्य सैन्य अभियान चलाकर मुक्ति संग्राम के दौरान 30 लाख निर्दाेष बंगालियों की हत्या की। उन्होंने कहा कि बांग्ला देश की संसद ने नरसंहार के पीड़ितों को श्रद्धांजलि देने के लिए 25 मार्च 2017 को नरसंहार दिवस घोषित किया।
पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी-पाकिस्तान पर 25 मार्च 1971 की आधी रात को हमला किया जिसके बाद आधिकारिक तौर पर 9 महीने चले युद्ध में 30 लाख लोग मारे गए। तथा 20,000 से ज्यादा महिलाओं का शोषण किया गया। बांगलादेश भले ही पाकिस्तान से अलग हो गया हो किंतु वहाँ की परिस्थितियाँ भी पाकिस्तान से कुछ कम बुरी नहीं हैं।
बांग्लादेश बनने के केवल चार साल बाद ई.1975 में शेख मुजीब-उर-रहमान की सरकार को सैनिक-तख्ता-पलट के माध्यम से हटा दिया गया। इस दौरान शेख मुजीब, उसकी पत्नी तथा तीन पुत्र मौत के घाट उतार दिए गए। लम्बी राजनीतिक लड़ाई के बाद शेख मुजीब की पुत्री शेख हसीना ने ई.1996 में बांग्लादेश में सरकार बनाई किंतु उसे भी सैनिक-तख्ता-पलट के माध्यम से हटाकर जेल में डाल दिया गया।
इस पुस्तक के लिखे जाने के समय यही शेख हसीना बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं, वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनी हैं। बांग्लादेश में लोकतांत्रिक सरकारें बहुत कम रही हैं जबकि जनता को सैनिक शासन और आपतकाल अधिक झेलना पड़ा है। बंगालियों की हत्या का सिलसिला कुछ कम अवश्य हुआ है किंतु थमा नहीं है।
अब बांगलादेश में तो बंगालियों की हत्या होती ही है, भारत में रह गए पश्चिमी बंगाल भी हिन्दुओं की हत्या का सिलसिला आरम्भ हो गया है। ऐसा लगता है मानो बंगाली जनता हत्याओं के लिए अभिशप्त है। बंगाली भद्रलोक बंगालियों की रक्षा करने में असमर्थ है। वर्तमान समय में पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लगभग वही काम कर रही हैं जो बंगाल के विभाजन से पहले हुसैन सुहरावर्दी ने किया था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता