वैदिककाल में नारी की स्थिति का आकलन उसके सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक अधिकारों से ज्ञात होता है। इस काल की नारी सार्वजनिक रूप से कहीं भी आ-जा सकती थी।
फ्रांसीसी विद्वान चार्ल्स फोरियर ने लिखा है- किसी राष्ट्र की सही स्थिति का अनुमान उस राष्ट्र में नारी की परिस्थिति से लगाया जा सकता है।
प्राचीन आर्यों ने पितृसत्तात्मक परिवार प्रणाली की स्थापना की थी जिसमें स्त्रियों के लिए समुचित सम्मान एवं प्रतिष्ठा की व्यवस्था की गई थी। परिवार एवं समाज दोनों में ही स्त्री की विशेष भूमिका थी। वह कन्या, पत्नी तथा माँ के रूप में आर्य संस्कृति का आधार थी।
आर्य धर्मशास्त्रों ने नारी को विद्या, शील, ममता, यश और सम्पत्ति की स्वामिनी समझा। उसे यह स्थिति सहज एवं स्वाभाविक रूप से मिली थी किंतु समय के साथ सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव आता गया और नारी पर बंधन एवं वर्जनाएं लागू होने लगीं। एक समय ऐसा भी आया जब नारी ने पुरुषों के साथ बराबरी का अधिकार पूर्णतः खो दिया एवं वह पुरुष की अनुगामिनी बनकर रह गई।
ऋग्-वैदिककाल में नारी की स्थिति
सामाजिक स्थिति
ऋग्वैदिक-काल (ई.पू.4000 से ईपू.3000) में परिवार का कोई भी आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक कार्य नारी के बिना सम्पन्न नहीं हो सकता था। नारी के बिना पुरुष को अपूर्ण समझा गया। जब तक पुरुष विवाहोपरान्त भार्या की प्राप्ति नहीं कर लेता था तब तक वह याज्ञिक अनुष्ठानों को सम्पन्न नहीं कर सकता था। समाज का संचालन संतान से होता है और संतान की प्राप्ति स्त्री तथा पुरुष दोनों के होने पर ही संभव थी। इसीलिए स्त्री को पुरुष की ‘अर्द्धागिनी’ कहा गया।
वैदिक यज्ञों से लेकर वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था का आधार नारी ही थी। पंच-महायज्ञों का आधार भी नारी ही थी। श्राद्ध, बलि, हविष्य आदि का आधार भी नारी ही थी। उसे ‘श्री’ और ‘लक्ष्मी’ कहा गया जो घर में सुख एवं समृद्धि की सृष्टि करती थी। ऋग्वेद में एक भी उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें नारी की स्थिति पुरुष की अपेक्षा हेय या कम महत्वपूर्ण प्रतीत होती हो या वह पुरुष के अधीनस्थ स्थिति में हो।
ऋग्वैदिक-काल में पर्दा प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। वे स्वतंत्रतापूर्वक घर से बाहर जा सकती थीं। आर्यों के प्रारम्भिक समाज में नारी जितनी स्वतन्त्र और मुक्त थी, उतनी बाद के किसी काल में नहीं रही। ऋग्वैदिक-काल में नारी हर तरह से पुरुषों के समकक्ष थी। वह सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में बिना किसी प्रतिबन्ध के हिस्सा लेती थी। उस काल की नारी पुरुषों के साथ यज्ञ, सभा, समिति एवं गोष्ठी में सम्मिलित होती थी। अकेला पुरुष यज्ञ के अयोग्य था।
नारी की शिक्षा
ऋग्वैदिक-काल में नारी स्वतन्त्रतापूर्वक शिक्षा ग्रहण करती थी। इस काल में स्त्रियाँ सभा एवं गोष्ठियों में ऋग्वेद की ऋचाओं का गायन किया करती थीं। ऋग्वेद में उल्लिखित है कि कतिपय विदुषी स्त्रियों ने ऋग्वेद ऋचाओं का प्रणयन किया। उस युग में बौद्धिक योगदान करने वाली बीस स्त्रियों के नाम मिलते हैं- रोमशा, अपाला, उर्वशी, विश्वधारा, सिकता, निबाबरी, घोषा, लोपामुदा आदि।
उपनयन संस्कार
ऋग्वैदिक-काल में पुत्र की तरह पुत्री का भी विद्यारम्भ से पूर्व उपनयन संस्कार किया जाता था तथा वह भी ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई वेदों का अध्ययन करती थी। यह व्यवस्था कुछ शिथिलता के साथ स्मृतिकाल तक चलती रही। वैदिक युग में छात्राओं के दो वर्ग थे- (1.) सद्योवधू और (2.) ब्रह्मवादिनी। सद्योवधू वे छात्राएँ थीं जो विवाह के पूर्व तक वेद मंत्रों और याज्ञिक प्रार्थनाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं।
ब्रह्मवादिनी वे थीं जो अपना सम्पूर्ण जीवन वेदों की शिक्षा प्राप्त करने में लगाती थीं। ऋषि कुशध्वज की कन्या वेदवती ऐसी ही ब्रह्मवादिनी स्त्री थी। उस युग मे सह-शिक्षा का भी प्रचलन था। वाल्मीकि आश्रम में आत्रेयी और लव-कुश ने साथ-साथ शिक्षा ग्रहण की थी। सह-शिक्षा का उदाहरण महाभारत में भी मिलता है जब अम्बा और शैखवत्य एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे। अनेक स्त्रियाँ शिक्षिका बनकर अध्यापिकाओं का जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी स्त्रियाँ उपाध्याया कहलाती थीं।
विवाह संस्कार
आर्य संस्कृति में विवाह को अनिवार्य धार्मिक संस्कार माना गया। इसका मुख्य उद्देश्य उन विभिन्न पुरुषार्थों को पूरा करना था जिनकी प्राप्ति में पुरुष को पत्नी के सहयोग की आवश्यकता होती थी। पुरुष और स्त्री के गृहस्थ जीवन का प्रारम्भ विवाह से ही माना गया। चूँकि कोई भी धार्मिक संकल्प पत्नी के बिना सम्भव नहीं था, इसीलिए उसे ‘धर्मपत्नी’ अथवा ‘सहधर्मिणी’ कहा गया है। वैदिक-काल में स्त्री का विवाह यौवन प्राप्ति के बाद किया जाता था किंतु समय के साथ स्त्री की आयु में परिवर्तन आता गया।
नारी की आर्थिक स्थिति
वैदिक-काल में कुछ ऐसे उल्लेख हैं जो सम्पत्ति में स्त्री के अधिकार को स्वीकार नहीं करते किंतु ये अपवाद स्वरूप हैं। सम्पत्ति में उसका भाग होता था। वह पुत्र से किसी प्रकार भी कम नहीं समझी जाती थी। दत्तक पुत्र से पुत्री श्रेष्ठ थी। पुत्र के न रहने पर वह उत्तराधिकारी मानी जाती थी। चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक समाज में यह व्यवस्था चलती रही।
नारी की राजनीतिक स्थिति
ऋग्वेद साहित चारों वेदों में किसी महिला साम्राज्ञी का उल्लेख नहीं हुआ है। वैदिक-काल में किसी भी युद्ध में नारी के भाग लेने की चर्चा एक भी स्थान पर नहीं की गई है।
उत्तर वैदिककाल में नारी की स्थिति
यजुर्वेद एवं सामवेद के रचना काल में नारी की स्थ्तिि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था। चूंकि अथर्ववेद की रचना बहुत बाद में हुई थी, इसलिए अथर्ववेद के रचनाकाल में नारी की स्थिति में कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है।
अथर्ववेद (ई.पू.1500-ई.पू.1000) में पुत्री के जन्म पर खिन्नता का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार एतरेय ब्राह्मण में एक स्थान पर पुत्री के लिए ‘कृपण’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस काल में यद्यपि पुत्री का जन्म प्रसन्नता का द्योतक नहीं था तथापि उसके पालन-पोषण एवं शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जाती थी। वे समाजिक व्यवस्था का आदरणीय अंग थीं।
भारतीय नारी की युग-युगीन स्थिति
महाकाव्य काल में नारी की स्थिति
पौराणिक काल में नारी की स्थिति
पूर्वमध्यकाल में नारी की स्थिति