Saturday, July 27, 2024
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नादिरशाह की फूफियाँ

नादिरशाह ने दावा किया कि लाल किले में नादिरशाह की फूफियाँ रहती हैं, नादिरशाह उन्हीं से मिलने आया है। उसने भारत पर हमला नहीं किया है।

नादिरशाह ने हिंदुस्तान पर हमला क्यों किया, इस विषय पर पाकिस्तानी व्यंग्य लेखक शफ़ीक़ुर्रहमान ने अपनी पुस्तक ‘तुज़के नादरी’ में कई कारण बताए हैं जिनमें से कई कारण बड़े हास्यास्पद हैं।

शफ़ीक़ुर्रहमान ने लिखा है कि नादिरशाह कहता था कि हिंदुस्तान के गवैये ‘नादिर दिन्ना, नादिर दिन्ना’ तथा ‘नादरना धीम-धीम’ कहकर नादिरशाह का मज़ाक उड़ाते हैं, इसलिए नादिरशाह उन्हें दण्डित करने आया है। नादिरशाह के इस वक्तव्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में उसका वास्ता सैनिक दस्तों से नहीं अपितु गवैयों की टोलियों से हुआ था।

शफ़ीक़ुर्रहमान ने लिखा है कि नादिरशाह कहता था कि हम हिन्दुस्तान पर हमला करने नहीं आए बल्कि लाल किले में नादिरशाह की फूफियाँ रहती हैं, हम अपनी फूफी जान से मुलाक़ात करने आए हैं। भले ही यह मजाक की बात हो किंतु इस बात में उस ऐतिहासिक तथ्य के दर्शन किए जा सकते हैं कि भारत के मुगल बादशाह एवं शहजादे; ईरानी राजकुमारियों से विवाह करने के बहुत शौकीन थे। इस कारण ईरान के बहुत से शाहों की बुआएं भारत में ब्याही जाती रही थीं।

इसलिए नादिरशाह यदि यह कहता कि लाल किले में नादिरशाह की फूफियाँ रहती हैं, वह अपनी फूफियों से मिलने भारत आया है, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होती। पर्याप्त संभव है कि दिल्ली के लाल किले में उस समय कुछ बेगमें मौजूद हों जो नादिरशाह की फूफियाँ लगती हों!

नादिरशाह के सैनिकों ने लाल किले में रह रही बेगमों से बलात्कार किए थे तथा उन्हें नंगी करके दौड़ाया था। अतः यह आश्चर्य करने वाली बात है कि नादिरशाह को इस बात में कोई आपत्ति नहीं थी कि सिपाही नादिरशाह की फूफियों से बलात्कार करें या उन्हें नंगी करके लाल किले में दौड़ाएं!

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

नादिरशाह ने लाल किले में बैठकर भले ही तरह-तरह से हिंदुस्तान का मजाक उड़ाया हो किंतु वास्तविकता यह है कि वह भारत आने से पहले अच्छी तरह जानता था कि उस काल का भारत सैनिक-शक्ति की दृष्टि से अत्यंत कमजोर था जबकि धन और सम्पत्ति से परिपूर्ण था। इन दानों ही कारणों से भारत को लूटने के लिए सैनिक अभियान करना नादिरशाह जैसे लुटेरे के लिए लाभकारी कार्य था।

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यह एक हैरानी की ही बात है कि पिछले दो सौ साल से चल रही मुगल सल्तनत की इतनी गिरावट के बावजूद काबुल से लेकर बंगाल तक के विशाल भू-प्रदेश में मुग़ल शहंशाह का सिक्का चलता था और उसकी राजधानी दिल्ली उस समय दुनिया का सबसे बड़ा शहर था जिसकी बीस लाख की जनसंख्या लंदन और पेरिस की संयुक्त जनसंख्या से अधिक थी। दिल्ली को दुनिया का सबसे अमीर और सबसे रंगीन शहर माना जाता था। छप्पन दिन तक दिल्ली में रहने के बाद नादिरशाह ईरान लौट गया। कुछ किताबों में लिखा है कि नादिरशाह के हमले के बाद मुहम्मदशाह अधिकतर सफ़ेद वस्त्र ही पहनने लगा था। नादिरशाह ने लगभग दो माह तक दिल्ली में लूट-खसोट तथा कत्ले-आम मचाया था किंतु इस दौरान न तो सवाई जयसिंह, न कोई अन्य राजपूत राजा और न महावीर मराठे; कोई भी मुगलों की सहायता के लिये आगे नहीं आया।

यहाँ तक कि उसका सबसे विश्वस्त वजीर चिनकुलीच खाँ निजामुलमुल्क भी हैदराबाद में बैठा रहा। अवध के नवाब सआदत खाँ ने तो नादिरशाह को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए न केवल निमंत्रण ही दिया था अपितु इस आक्रमण के लिए उसे पुरस्कार देने का वचन भी दिया था।

सआदत खाँ ने नादिरशाह को प्रलोभन दिया था कि यदि वह दिल्ली पर आक्रमण करेगा तो उसे 20 करोड़ रुपये सआदत खाँ की तरफ से दिये जायेंगे। जब नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया तो सआदत खाँ 20 करोड़ रुपयों का प्रबन्ध नहीं कर सका और उसने नादिरशाह के भय से आत्महत्या कर ली।

नादिरशाह के दिल्ली से वापस चले जाने के आठ दिन बाद मुहम्मदशाह ने एक दरबार आयोजित किया, उसने फिर से अपने नाम का खुतबा पढ़वाया तथा अपने नाम के नए सिक्के जारी करवाए ताकि दिल्ली की जनता यह न समझे कि मुहम्मदशाह अब बादशाह नहीं है या उसके पास अब सोना-चांदी नहीं बचा है किंतु यह सब केवल दिखावा था, बुझते हुए मुगलिया दीपक की अंतिम भभक थी।

सुहानी चांदनी रात बीत चुकी थी और अब लाल किले की दीवारों से उठती हुई आहें तथा सिसकियां ही शेष रह गई थीं। शहजादियों एवं दासियों के बदन से उठने वाले सुगंधों के बादल उड़ चुके थे और बुझते हुए चूल्हों से उठने वाले धुएं की काली लकीरें आसमान में मण्डराती थीं।

ईरानी सैनिकों का मौत और हैवानियत का वहशियाना नाच देख चुकने के बाद भी लाल किले की दलबन्दी समाप्त नहीं हुई। नादिरशाह के लौट जाने के बाद ईस्वी 1740 में ईरानियों और तूरानियों के विरोध में एक तीसरा गुट खड़ा हो गया जिसमें मुहम्मद अमीर खाँ, मुहम्मद इसहाक खाँ और असदयार खाँ आदि प्रमुख थे। इस गुट के सदस्यों ने वजीर और उसके दल को समाप्त करने का प्रयास किया किन्तु भेद खुल जाने पर अमीर खाँ को नीचा देखना पड़ा।

ईस्वी 1745 अमीर खाँ की मृत्यु हो गयी और लाल किले में नादिरशाह की फूफियाँ उसी तरह लुटती रहीं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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