Thursday, June 5, 2025
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अध्याय – 15 : लॉर्ड हेस्टिंग्ज की हस्तक्षेप नीति

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जार्ज बार्लो (1805-07 ई.)

वेलेजली के जाने के बाद 1805 ई. में लॉर्ड कार्नवालिस दूसरी बार गवर्नर जनरल बनकर भारत आया किन्तु कुछ ही दिनों बाद गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गई तथा जार्ज बार्लो गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। चूँकि कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने वेलेजली की नीति का अनुमोदन नहीं किया था, अतः उसने अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया।

राजपूत राज्यों से सहायक संधियाँ निरस्त: जार्ज बार्लो ने वेलेजली द्वारा सम्पादित राजपूत राज्यों से हुई सन्धियों को रद्द कर दिया। जोधपुर महाराजा मानसिंह ने 1805 तथा 1806 ई. में पुनः अँग्रेजों से संधि के प्रस्ताव भेजे किंतु वे स्वीकृत नहीं हुए। नवम्बर 1808 में बीकानेर महाराजा सूरतसिंह ने एल्फिंस्टन से अनुरोध किया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी बीकानेर राज्य को अपने संरक्षण में ले किंतु एल्फिंस्टन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

हैदराबाद की संधि निरस्त करने से इन्कार: एक तरफ तो बार्लो अहस्तक्षेप की नीति अपना रहा था तथा राजपूत राज्यों से हुई संधियाँ निरस्त कर रहा था जबकि दूसरी तरफ उसने हैदराबाद के निजाम के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिसमें निजाम ने सहायक सन्धि से मुक्त होने की इच्छा व्यक्त की।

बसीन की संधि निरस्त करने से इन्कार: बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने बार्लो को बार-बार निर्देश दिये कि वह बसीन की सन्धि  निरस्त कर दे किन्तु बार्लो ने साम्राज्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसा नहीं किया।

अर्ल ऑफ मिण्टो (1807-13 ई.)

1807 ई. में लॉर्ड मिण्टो गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसके समय में भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया गया किंतु कम्पनी के लिये अधिक समय तक इस नीति पर चलना संभव नहीं था। लॉर्ड क्लाइव ने कम्पनी की गतिविधियों को बंगाल तक सीमित रखने का जो तर्क दिया था, अब वह अप्रासंगिक हो चुका था। इसलिये मिण्टो ने कम्पनी राज्य की सुरक्षा के लिये कुछ नई संधियाँ कीं।

महाराजा रणजीतसिंह से संधि: लॉर्ड मिण्टो ने महाराजा रणजीतसिंह के साथ 1809 ई. में अमृतसर की सन्धि की तथा रणजीतसिंह को सतलज पार के प्रदेशों तक बढ़ने से रोक दिया।

सिंध के अमीरों से संधि: लॉर्ड मिण्टो ने 1809 ई. में सिन्ध के अमीरों से सन्धि करके सिन्ध प्रदेश में कम्पनी के लिए अनेक व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर लीं।

लॉर्ड हेस्टिंग्ज द्वारा अहस्तक्षेप की नीति का त्याग

लार्ड मिण्टो के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्ज (1813-23 ई.) को गवर्नर जनरल बनाकर भारत भेजा गया। 4 अक्टूबर 1813 को हेस्टिंग्ज कलकत्ता पहुँचा। उसके कार्यकाल में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार की प्रक्रिया पुनः आरम्भ की गई।  वेलेजली ने अनुभव किया कि यदि कम्पनी के राज्य को भारत में अक्षुण्ण रखना है तो उसे साम्राज्य विस्तार की नीति पर ही चलना पड़ेगा। उसके भारत आगमन के समय भारत में निम्नलिखित शक्तियाँ अत्यंत प्रखर हो गई थीं जिनसे कम्पनी के हितों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था-

(1.) मराठे: वेलेजली ने मराठों की शक्ति का दमन किया था किन्तु कार्नवालिस, बार्लो और मिण्टो की अहस्तक्षेप की नीति के कारण मराठों ने पुनः देशी राज्यों पर आक्रमण करके अपने प्रभाव में वृद्धि कर ली। लॉर्ड हेस्टिंग्ज के आगमन के समय मल्हारराव होलकर (द्वितीय) और दौलतराव सिन्धिया अत्यंत शक्तिशाली हो गये थे। उन्होंने दक्षिण भारत के साथ-साथ मध्य भारत तथा उत्तर भारत में भी प्रभुत्व जमा लिया था।

(2.) पिण्डारी: मराठों के सहायक पिण्डारी भी अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहे थे। पिण्डारी नेता अमीरखाँ अत्यधिक शक्तिशाली हो गया था। वह देशी रियासतों के साथ-साथ ब्रिटिश क्षेत्रों में भी लूटमार मचाये हुए था।

(3.) गोरखे: हिमालय की तराई में गोरखे अत्यधिक शक्तिशाली हो गये थे। उन्होंने कम्पनी राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण करना आरम्भ कर दिया था।

हेस्टिंग्ज द्वारा उठाये गये कदम

उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए लॉर्ड हेस्टिंगज ने अनुभव किया कि यदि भारत में कम्पनी की सत्ता को स्थायी बनाना है तो उसे अहस्तक्षेप की नीति का परित्याग कर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित करना होगा। इसलिये उसने कम्पनी के शत्रुओं के विरुद्ध तेजी से कदम उठाये। उसके द्वारा किये गये प्रमुख कार्य इस प्रकार से हैं-

(1.) गोरखों का दमन (1814-1816 ई.): लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने सर्वप्रथम गोरखों की शक्ति को कुचलने के लिए गोरखों से युद्ध किया तथा नेपाल, कुमाउं, गढ़वाल, शिमला और सिक्किम आदि क्षेत्रों पर वर्चस्व स्थापित कर लिया। गोरखों ने फरवरी 1816 में संगोली की सन्धि स्वीकार कर ली।

(2.) पिण्डारियों का दमन (1816-1818 ई.): 1816 ई. में हेस्टिंग्ज ने पिण्डारियों को नष्ट करने की योजना बनायी।  उसे भय था कि कहीं पिण्डारियों और मराठों के बीच कोई समझौता न हो जाये। इसलिये उसने पिण्डारियों के विरुद्ध अभियान आरम्भ करने से पूर्व 27 मई 1816 को मुधोजी भौंसले (द्वितीय) के साथ तथा 5 नवम्बर 1817 को दौलतराव सिन्धिया के साथ समझौते किये। इन समझौतों में भौंसले तथा सिन्धिया ने पिण्डारियों को कुचलने के लिए कम्पनी को समर्थन देने का वादा किया तथा सिन्धिया ने चम्बल नदी से दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर से अपना नियंत्रण हटा लिया। लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने 1,13,000 सैनिकों और 300 बंदूकों के साथ पिण्डारियों पर चारों ओर से धावा बोला। उत्तरी सेना का नेतृत्व लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने स्वयं किया। दक्षिणी सेना का नेतृत्व सर टॉमस हिलोप ने किया। मेल्कम ने पश्चिमी सेना का नेतृत्व किया। चारों तरफ से की गई कार्यवाही से 1818 ई. तक पिण्डारियों के दल बिखर गये। करीमखाँ ने गोरखपुर जिले में एक छोटी जागीर लेकर संधि कर ली। वसील मुहम्मद ने डरकर सिंधिया के यहाँ शरण ली किंतु सिंधिया ने उसे पकड़कर अँग्रेजों को सौंप दिया जहाँ उसने आत्महत्या कर ली। चीतू जंगलों में जा छिपा, जहाँ उसे जंगली शेर ने मार दिया। अमीरखाँ को राजपूताने में टोंक की जागीर दे दी गई तथा उसे नवाब घोषित किया गया। इस प्रकार पिण्डारियों का अंत हो गया।

(3.) मराठा संघ का विघटन: इन्दौर के शासक मल्हारराव होलकर (द्वितीय) ने तृतीय मराठा युद्ध (1817 ई.) में परास्त होकर मन्दसौर की सन्धि (जनवरी 1818) की जिसमें उसने सहायक सन्धि की समस्त शर्तें स्वीकार कीं। इस युद्ध के बाद मराठा-संघ-राज्य ध्वस्त हो गया। कम्पनी ने क्षत्रपति शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को सतारा की गद्दी पर बैठाकर उसके साथ एक सन्धि कर ली। इस प्रकार नागपुर, ग्वालियर, इन्दौर और सतारा के शासकों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।

(4.) राजपूत राज्यों की प्रति नीति: कम्पनी को अभी सिक्खों से निपटना था तथा अफगानिस्तान की ओर से होने वाले आक्रमणों का सामना करने के लिये सिन्ध पर भी प्रभुत्व जमाना था। इस कार्य में सहायता प्राप्त करने के लिये हेस्टिंग्ज ने राजपूत राज्यों से संधि करने का निश्चय किया। हेस्टिंग्ज का मानना था कि राजपूत राज्यों को अधीनता में लाकर राजपूत राज्यों के साधनों से कम्पनी की सुरक्षा को बल प्रदान किया जा सकता है जिससे पश्चिमी भारत पर कम्पनी का प्रत्यक्ष प्रभाव स्थापित हो सकेगा। चार्ल्स मेटकाफ तथा सर जॉन मैलक्म को देशी राज्यों के साथ संधियाँ करने का दायित्व सौंपा गया। मैटकाफ ने 1817 ई. में कोटा तथा करौली से, 1818 ई. में जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ़, जयपुर तथा बूंदी राज्यों से संधियाँ कीं। मालवा के रेजीडेंट जॉन मैल्कम ने 1818 ई. में प्रतापगढ़, बांसवाड़ा तथा डूंगरपुर से अधीनस्थ सहयोग की संधियाँ कीं।

हेस्टिंग्ज की नीति का मूल्यांकन

लॉर्ड हेस्टिंग्ज के समय में लगभग सम्पूर्ण भारत में कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। भारतीय राज्यों की बाह्य प्रभुता पर अँग्रेजों का नियंत्रण स्थापित हो गया और आन्तरिक प्रभुता केवल सैद्धान्तिक रूप में उन राज्यों के पास रही। वेलेजली ने सिद्धान्त रूप से ही सही, भारतीय राज्यों को समानता का दर्जा दिया था किन्तु लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने बनावटी मुखौटा उतार दिया जिससे कम्पनी का वास्तविक रूप सामने आ गया। वेलेजली के शासन से भारतीय राज्यों की शक्ति घटने का क्रम चालू हुआ था, डलहौजी के काल तक ब्रिटिश सर्वोच्चता अपने शिखर पर पहुँच गई। लगभग समस्त इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने वेलेजली के कार्य को पूरा किया। वेलेजली और लॉर्ड हेस्टिंग्ज की योजनाओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ. एम. एस. मेहता ने लिखा है- ‘मुख्य रूप से वेलेजली की नीति के फलस्वरूप अँग्रेजों ने जो सैनिक प्रबलता प्राप्त कर ली थी, उससे अँग्रेजों को भारत में श्रेष्ठता का पद प्राप्त हो गया। हेस्टिंग्ज ने इस पद से अँग्रेजों को प्रभुत्ता के पद तक पहुँचा दिया।’

 वेलेजली ने फ्रांसीसियों की शक्ति को समाप्त किया तथा सहायक सन्धि व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय राज्यों से सन्धियाँ कीं। जिन राज्यों ने वेलेजली की व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया, उन राज्यों से संघर्ष कर उन पर वह व्यवस्था थोपी गई। वेलेजली के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने पुनः वही रास्ता चुना और भारत में कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित की। वेलेजली ने मराठा शक्ति पर प्रहार करके उसे क्षीण किया तथा लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने उसे धराशायी कर दिया।

मैसूर तथा कछार का अँग्रेजी राज्य में विलय

गवर्नर जनरल एमहर्स्ट (1823-28 ई.) ने 1826 ई. में भरतपुर के किले पर अधिकार कर लिया। गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने 1831 ई. में मैसूर राज्य में एक ब्रिटिश कमिश्नर की नियुक्ति की तथा 1832 ई. में बंगाल के उत्तर पश्चिम की छोटी सी रियासत कछार को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया।

चार्टर एक्ट 1833 ई.

1833 ई. में चार्टर एक्ट के माध्यम से कम्पनी की व्यापारिक गतिविधियां समाप्त करके केवल राजनीतिक कार्य करने की अनुमति दी गई। भारत के ब्रिटिश शासित क्षेत्र कम्पनी के पास ब्रिटिश ताज, उसके उत्तराधिकारी एवं वंशजों की अमानत घोषित करके कम्पनी को उनका ट्रस्टी बना दिया गया। इसके बदले में कम्पनी को अगले 40 वर्षों तक भारतीय राजस्व में से 10.5 प्रतिशत लाभांश देना निश्चित किया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को अब भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि भारत का बहुत बड़ा भू-भाग अंग्रेजों के अधीन हो चुका था। भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए मद्रास, कलकत्ता एवं बम्बई में बिशपों की नियुक्ति की गई। इस एक्ट ने कम्पनी के स्वरूप में पूर्णतः परिवर्तन कर दिया। अब कम्पनी का स्वरूप व्यापारिक न रहकर, राजनीतिक एवं प्रशासनिक रह गया।

कुर्ग पर नियंत्रण

1834 ई. में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कुर्ग के शासक को अयोग्य घोषित करके उस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।

सिंध का ब्रिटिश क्षेत्र में विलय

लॉर्ड हेस्टिंग्ज के जाने के पश्चात् भी ब्रिटिश राज्य विस्तार की प्रक्रिया तेजी से चलती रही। गवर्नर जनरल ऑकलैण्ड (1836-42 ई.) ने रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिये अफगानिस्तान पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। अफगानिस्तान में भेजी जाने वाली सेनाएं सिंध में होकर भेजी जानी थीं। उन दिनों पंजाब के शासक रणजीतसिंह तथा सिंध के अमीरांे के बीच झगड़ा चल रहा था। कर्नल पोटिंगर ने सिंध के अमीरों से कहा कि वे महाराजा रणजीतसिंह के विरुद्ध कम्पनी की एक सेना सिंध में रखें किंतु अमीरों ने मना कर दिया। इस पर पोटिंगर ने रणजीतसिंह को समर्थन देने की धमकी दी। इस पर 1838 ई. में सिंध तथा ब्रिटिश सरकार के बीच एक संधि हुई जिसमें सिक्खों और सिंध के अमीरों के बीच कम्पनी की मध्यस्थता को स्वीकार कर लिया गया। साथ ही हैदराबाद (सिंध) में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया गया। वह अँग्रेज सैनिकों के संरक्षण में कभी भी सिंध में आ-जा सकता था। जून 1838 में एक त्रिदलीय संधि अँग्रेजों, महाराजा रणजीतसिंह तथा सिंध के अमीरों के बीच हुई जिसमें रणजीतसिंह ने सिंध के अमीरों से झगड़ों में कम्पनी की मध्यस्थता को स्वीकार कर लिया और शाहशुजा ने सिंध से अपना आधिपत्य त्याग दिया। इस प्रकार अँग्रेजों को सिंध होते हुए अफगानिस्तान जाने का मार्ग मिल गया। फरवरी 1839 में सिंध पर एक और संधि लादी गई जिसमें तय हुआ कि कम्पनी की सहायक सेनाएं शिकारपुर एवं भक्खर में रखी जायेंगी। इसके लिये सिंध के अमीर कम्पनी को तीन लाख रुपये वार्षिक व्यय देंगे। अमीर, कम्पनी के अतिरिक्त और किसी से सम्बन्ध नहीं रखेंगे। कराची में कम्पनी का एक गोदाम भी होगा जिस पर कोई मार्ग-कर नहीं लगेगा। अँग्रेजों ने आश्वासन दिया कि वे राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा बाह्य आक्रमण से अमीरों के राज्य की रक्षा करेंगे। जब संधि वार्ता चल रही थी तब अँग्रेजों ने धोखे से कराची पर अधिकार कर लिया तथा सिंधी अमीरों को संधि करने पर विवश कर दिया।

गवर्नर जनरल लॉर्ड एलनबरो (1842-1844 ई.) के समय में अँग्रेजों की अफगानिस्तान में करारी हार हुई। इससे अँग्रेजों की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। अँग्रेजों ने सिंध का विलय करके उस प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करना चाहा तथा अमीरों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर सिंध पर आक्रमण कर दिया। लॉर्ड एलनबरो ने सिंध के अमीरों के समक्ष एक नई संधि का प्रस्ताव रखा जिसमें उन्होंने अमीरों पर कुछ प्रदेश अँग्रेजों को सौंपने, दण्ड-राशि देने, अँग्रेजों के स्टीमरों को कोयला देने और अपने सिक्के गढ़ने का अधिकार कम्पनी को देने का दबाव डाला। मेजर आउट्रम को संधि करने भेजा गया। इसी बीच खैरपुर में गद्दी प्राप्त करने के प्रश्न पर मीर रुस्तम के पुत्रों में झगड़ा हो गया। इसी समय चार्ल्स नेपियर ने मेजर आउट्रम का स्थान लिया। उसने जनवरी 1843 ई. में इमामगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। इस पर बलोचों ने ब्रिटिश रेजीडेंसी पर आक्रमण कर दिया। नेपियर ने एक जहाज में भागकर जान बचाई। पुनः हुए युद्ध में नेपियर ने बलोचों को मिआनी तथा दाबो नामक स्थानों पर परास्त किया। मीरपुर पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया। अप्रेल 1843 ई. में पूरा सिंध अँग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। अमीरों को बंदी बनाकर देश निकाला दे दिया गया। नेपियर ने सिंध की लूट से 70 हजार पौण्ड प्राप्त किये।

एलनबरो ने सिंध के विलय को रूस एवं ईरान से भारत की रक्षा करने के लिये आवश्यक बताया किंतु अनेक अँग्रेजी लेखकों ने इस विलय को अनैतिक, निंदनीय, सर्वत्र सड़ी हुई घटना, नीचतापूर्ण कृत्य और आक्रामक कहा है।

पंजाब पर अधिकार

महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद पंजाब राज्य अस्त-व्यस्त होने लगा। अँग्रेजों ने राज्य में गुटबंदी और अस्थिरता से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाने का निर्णय किया। 1844 ई. में लॉर्ड हेनरी हार्डिंग ने पंजाब विजय के लिये सैनिकों की संख्या में वृद्धि की तथा युद्ध की तैयारियां आरम्भ कर दीं। हार्डिंग ने युद्ध की जिम्मेदारी पंजाब के शासक एवं खालसा सेना पर डालनी चाही। प्रारम्भिक मुठभेड़ के बाद लॉर्ड हार्डिंग ने 13 दिसम्बर 1846 को युद्ध की घोषणा कर दी। मुदकी, फिरोजशाह, बद्दोवाल, आलीवाल तथा सबराओं नामक पांच स्थानों पर दोनों पक्षों की सेनाओं में युद्ध हुए। 10 फरवरी 1846 को लड़ी गई पांचवीं लड़ाई में अँग्रेजों को निर्णायक विजय प्राप्त हुई तथा उन्होंने लाहौर पर अधिकार कर लिया। मार्च 1846 में हुई संधि में सिक्खों ने अँग्रेजों को सतलुज पार के समस्त क्षेत्र दे दिये। सिक्खों ने डेढ़ करोड़ रुपया क्षतिपूर्ति के रूप में भी दिया जिसमें से 50 लाख रुपया नगद तथा शेष के बदले में व्यास और सिंध के बीच के पर्वतीय क्षेत्र जिसमें कश्मीर और हजारा के क्षेत्र भी थे, अँग्रेजों को सौंप दिये। पंजाब के महाराजा दिलीपसिंह के राज्य की सीमाएं घटा दी गईं तथा हेनरी लॉरेंस को लाहौर का रेजीडेंट बनाया गया।

अध्याय – 16 : लॉर्ड डलहौजी की डॉक्टराइन ऑफ लैप्स

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ब्रिटिश साम्राज्यवाद के इतिहास में 1848 ई. से 1856 ई. का काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। 1848 ई. में लॉर्ड हेनरी हार्डिंग के जाने के बाद लॉर्ड डलहौजी गवर्नर जनरल बनकर भारत आया और 1856 ई. तक इस पद पर रहा। लॉर्ड डलहौजी घोर साम्राज्यवादी था। उसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अंधाधुंध विस्तार किया। अपने आठ वर्ष के कार्यकाल में वह साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण करता रहा। उसे देशी राज्यों से तनिक भी सहानुभूति नहीं थी तथा भारतीय नरेशों एवं नवाबों से अत्यंत चिढ़ थी। इसलिये वह भारतीय राज्यों का अस्तित्त्व समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता था। उसके शासन काल में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की विस्मयकारी वृद्धि हुई तथा अनेक भारतीय राज्यों का अस्तित्त्व समाप्त हो गया। थॉम्पसन और गैरेट ने लिखा है- ‘डलहौजी के समय कम्पनी किसी भी बहाने राज्यों को हड़पने के ज्वार की लहर में थी।’

लॉर्ड डलहौजी के पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने देशी राज्यों पर अधिक-से-अधिक प्रभाव स्थापित करने की नीति अपनाई किंतु डलहौजी ने देशी राज्यों के प्रति भिन्न प्रकार की नीति अपनाई। डलहौजी के पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने साम्राज्य विस्तार उसी स्थिति में किया जब कोई विशेष सैनिक अथवा राजनैतिक आवश्यकता उत्पन्न हुई किन्तु डलहौजी ने हर-सम्भव उपाय से साम्राज्य विस्तार को अपना लक्ष्य बना लिया। डलहौजी की नीति की चर्चा करते हुए इतिहासकार इन्स ने लिखा है- ‘उसके पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने इस सामान्य सिद्धान्त का अनुसरण किया था कि जहाँ तक सम्भव हो, संयोजन (देशी राज्यों के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय) से बचा जाये, डलहौजी ने संयोजन करने के इस सिद्धान्त का अनुसरण किया कि जिस प्रकार भी हो सके राज्य विस्तार को उचित सिद्ध करके पूरा किया जाये।’

डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति के कारण

डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति के कई कारण थे-

(1.) डलहौजी का माना था कि भारतीय सहयोगियों से भारत में ब्रिटिश विजय को सरल बनाने का काम लिया जा चुका है, अब उनसे पिण्ड छुड़ा लेना लाभप्रद रहेगा।

(2.) इस समय तक देशी राज्यों पर कम्पनी की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी थी कि कम्पनी केवल धमकी देकर अपनी कोई भी बात मनवा सकती थी।

(3.) कम्पनी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शासित क्षेत्र, देशी राज्यों के क्षेत्र से छोटा था। डलहौजी इस अनुपात को बदलना चाहता था।

(4.) डलहौजी की मान्यता थी कि भारतीय शासक सर्वथा अयोग्य हैं और उनमें शासन करने की क्षमता नहीं है।

(5.) डलहौजी का कहना था कि ब्रिटिश प्रशासन, देशी नरेशों के प्रशासन से कहीं अधिक अच्छा है। उसने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

(6.) डलहौजी कम्पनी की आय में वृद्धि करना चाहता था किंतु उसकी धारणा थी कि भारत के देशी राज्यों में ब्रिटिश माल का निर्यात कम होने का मूल कारण उन राज्यों में भारतीय शासकों का कुप्रशासन है।

(7.) इस समय इंग्लैण्ड में उदारवादी विचारधारा का प्रभाव था। उदारवादियों की मान्यता थी कि भारतीय शासकों को मनमाने ढंग से शासन करने देने से राज्यों में भ्रष्टाचार तथा अव्यवस्था फैल रही है। जब तक इन राज्यों का शासन ब्रिटिश सरकार नहीं सम्भालेगी, तब तक भारत में न्याय और व्यवस्था स्थापित नहीं होगी।

(8.) डलहौजी कुछ सुधार योजनाएँ आरम्भ करना चाहता था जिनके लिए उसे धन की आवश्यकता थी।

(9.) इस समय यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति चल रही थी। ब्रिटेन के उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी और कच्चा माल भारतीय राज्यों से सरलता से मिल सकता था।

(10.) डलहौजी की महत्त्वाकांक्षा उसे साम्राज्य विस्तार के लिये प्रेरित कर रही थी। भारत में नियुक्ति के समय उसकी आयु केवल 36 वर्ष थी। उससे पूर्व कोई भी व्यक्ति इतनी कम आयु में गवर्नर जनरल नहीं बना था। इसलिये वह अत्यधिक महत्त्वकांक्षी था तथा भारत में साम्राज्य विस्तार करके इंग्लैण्ड में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता था।

साम्राज्य विस्तार के साधन

डलहौजी ने भारत में आते ही घोषणा की- ‘भारत के समस्त देशी राज्यों के अस्तित्त्व की समाप्ति कुछ समय की बात है।’ उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साम्राज्य का विस्तार करने के लिये चार प्रकार के साधन अपनाए-

(1.) युद्ध में परास्त करके: डलहौजी ने देशी राज्यों को युद्ध के मैदान में परास्त करके कम्पनी के राज्य का विस्तार करने की योजना बनाई। पंजाब और दक्षिणी बर्मा को युद्धों में परास्त करके ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया।

(2.) कर्ज की बकाया राशि की वसूली के नाम पर: डलहौजी ने राज्यों पर बकाया कर्ज की वसूली करने के लिये उनके क्षेत्रों को जब्त करना आरम्भ किया। हैदराबाद राज्य के बरार क्षेत्र को इसी प्रकार हड़पा गया।

(3.) शासक पर कुशासन का आरोप लगाकर: डलहौजी ने उन कमजोर राज्यों का अपहरण करने की नीति बनाई जिन पर कुशासन के आरोप लगाये जा सकते थे। अवध राज्य का अपहरण इसी आरोप में किया गया।

(4.) उत्तराधिकारी के लिये गोद लेने की प्रथा अमान्य करके: डलहौजी ने देशी राज्यों को हड़पने के लिये उत्तराधिकार अपहरण का सिद्धांत (Doctrine of lapse) का निर्माण किया। इसे व्यपगत का सिद्धांत भी कहते हैं। सतारा, नागपुर एवं झांसी के राज्य इसी सिद्धांत के आधार पर अपहृत किये गये।

गोद-निषेध नीति

भारत में प्राचीन काल से ही प्रत्येक हिन्दू को, औरस पुत्र न होने की स्थिति में किसी भी परिवार के बच्चे को गोद लेने का अधिकार था। दत्तक पुत्र को अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में ऐसे समस्त अधिकार प्राप्त हो जाते थे जो औरस पुत्र को प्राप्त होते थे। मध्यकाल में मुस्लिम सुल्तानों, मुगल बादशाहों और मराठों ने इस प्रथा को चालू रहने दिया। मुगल बादशाह तथा मराठे, किसी राजा के द्वारा दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित किये जाने पर उत्तराधिकारी से अधिक नजराना लेते थे परन्तु दत्तक पुत्र के अधिकारों को अस्वीकार नहीं करते थे। डलहौजी ने दत्तक पुत्र के उत्तराधिकार को अस्वीकार करके, देशी राज्यों को हड़पने का निर्णय लिया।

गोद लेने की परम्परा में कम्पनी की नीतियों में परिवर्तन

ईस्ट इण्डिया कम्पनी आरम्भ से ही, गोद लेने की प्रथा को स्वीकार करती रही थी। 1825 ई. में कम्पनी सरकार ने घोषित किया कि प्रत्येक शासक को हिन्दू कानून के अनुसार पुत्र गोद लेने का अधिकार है और कम्पनी सरकार इस अधिकार को स्वीकार करने के लिए बाध्य है। 1826 ई. से 1848 ई. की अवधि में पन्द्रह भारतीय शासकों द्वारा गोद लिये गये पुत्रों को राज्य का वैधानिक उत्तराधिकारी स्वीकार किया गया। 1831 ई. के बाद कम्पनी सरकार की नीति में परिवर्तन आने लगा। आरम्भ में कहा गया कि अधीनस्थ शासकों को उत्तराधिकारी गोद लेने से पूर्व कम्पनी सरकार की स्वीकृति लेनी चाहिये। फिर यह कहा गया कि कम्पनी को परिस्थितियों के आधार पर भारतीय शासक की गोद लेने की प्रार्थना को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का अधिकार है। 1834 ई. में कम्पनी के संचालक मण्डल ने इस विषय पर नीति तय करते हुए कहा कि- ‘यह साधारण नियम नहीं होना चाहिये। यह मान्यता हमारी विशेष कृपा के रूप में ही होनी चाहिये, सामान्य परिस्थितियों में नहीं।’

1848 ई. तक, गोद लेने के सम्बन्ध में कम्पनी सरकार की नीति अधिक स्पष्ट नहीं रही। अनेक अवसरों पर कम्पनी ने भारतीय शासकों द्वारा गोद लिये गये लड़कों के उत्तराधिकार को पूर्णतः स्वीकार कर लिया जबकि कुछ अवसरों पर उसने विरोध भी किया। कुछ अवसर ऐसे भी आये, जबकि शासक किसी बच्चे को गोद लेने के पहले ही मर गया और उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा ने किसी को गोद लिया और कम्पनी ने उसके उत्तराधिकार को भी मान्यता प्रदान कर दी। उदाहरणार्थ, 1827 ई. में ग्वालियर के शासक दौलतराव सिन्धिया की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था और वह किसी बच्चे को गोद नहीं ले पाया। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा बैजाबाई ने जनकोजी को गोद लिया। कम्पनी ने उसके उत्तराधिकार को मान्यता प्रदान की। 1843 ई. में जनकोजी की मृत्यु हो गई। उसके भी कोई पुत्र नहीं था। उसकी मृत्यु के बाद दौलतराव सिंधिया की विधवा ने जयाजीराव को गोद लिया। इस बार भी कम्पनी ने उसके उत्तराधिकार को मान्यता प्रदान की।

दूसरी तरफ कुछ ऐसे उदाहरण भी थे जबकि कम्पनी सरकार ने गोद लेने के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। उदाहरणार्थ, 1835 ई. में झाँसी के राजा रामचन्द्र की मुत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था। मरने से पूर्व उसने एक लड़के को गोद लिया परन्तु इसके लिए उसने कम्पनी सरकार से स्वीकृति नहीं ली। उसकी मृत्यु के बाद दत्तक पुत्र के उत्तराधिकार को नहीं माना गया और मृत राजा के चाचा रघुनाथराव को उत्तराधिकार की मान्यता दी गई। 1841 ई. में जब कोलाबा के शासक राघोजी ने कम्पनी सरकार से, बच्चा गोद लेने की स्वीकृति माँगी तो उसे मना कर दिया गया और उसकी मृत्यु के बाद उसके राज्य को कम्पनी क्षेत्र में मिला लिया गया। इस प्रकार मांडवी के छोटे-से राज्य को भी अँग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। स्पष्ट है कि डलहौजी के पूर्व, गोद लेने के अधिकार के बारे में कम्पनी सरकार किसी सुनिश्चित नीति का अनुसरण नहीं कर रही थी।

व्यपगत का सिद्धांत (Doctrine of lapse)

डलहौजी ने गोद लेने की प्रथा के बारे में अधिक उग्र नीति का सहारा लिया। उसने घोषणा की कि यदि कोई शासक किसी बालक या व्यक्ति को गोद लेता है तो ब्रिटिश सरकार को उसके उत्तराधिकारी को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने की पूरी स्वतंत्रता है। यदि कम्पनी उसका उत्तराधिकार स्वीकार नहीं करती है तो कम्पनी उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला सकती है। डलहौजी का कहना था कि सामान्य नागरिक द्वारा गोद लिया गया पुत्र अपने पिता की व्यक्तिगत सम्पत्ति का उत्तराधिकारी हो सकता है किन्तु किसी शासक द्वारा गोद लिया गया पुत्र राज्य पर शासन करने का स्वाभाविक अधिकारी नहीं हो सकता। दत्तक पुत्र उसी स्थिति में राज्य का शासक हो सकता है जबकि भारत की सर्वोपरि सत्ता की हैसियत से ब्रिटिश सरकार उसे राज्य का उत्तराधिकारी स्वीकार कर ले।

डलहौजी ने इस नीति को घोषित तो कर दिया किंतु उसने प्रत्येक देशी राज्य के साथ अलग नीति लागू की। इसलिये उसकी नीति को अवसरवादी कहा जाता है, क्योंकि उसने इस नीति के लिये जिन आधारों को तैयार किया था, वे अस्पष्ट थे और उनके बारे में अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार कम्पनी में निहित था। उसका मुख्य आधार स्वयं उसी के द्वारा किया गया, देशी राज्यों का वर्गीकरण था। उसने समस्त भारतीय हिन्दू राज्यों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया-

(1.) स्वतंत्र: स्वतंत्र राज्यों की श्रेणी में उन देशी राज्यों को रखा गया जो भारत में कम्पनी की सत्ता की स्थापना के समय अस्तित्त्व में थे और जिन्हें आन्तरिक प्रभुसत्ता प्राप्त थी तथा जिनके साथ सन्धियाँ करते समय कम्पनी ने उनकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया था।

(2.) आश्रित: आश्रित श्रेणी के अन्तर्गत उन राज्यों को रखा गया, जो आरम्भ से ही किसी-न-किसी सत्ता के अधीन थे और जो कम्पनी के साथ सन्धि करने के पूर्व मुगल बादशाह अथवा पेशवा को खिराज देते थे। झाँसी का राज्य, कम्पनी से संधि करने से पहले पेशवा के अधीन था, इसलिये उसे आश्रित राज्य की श्रेणी में रखा गया।

(3.) अधीन: इस श्रेणी के अन्तर्गत उन राज्यों को रखा गया, जिनका निर्माण कम्पनी ने किया था अथवा कम्पनी की सहायता से जिन्हें पुनः संगठित किया गया था। मैसूर का पुनर्गठित हिन्दू राज्य इसी प्रकार का था।

जब इंग्लैण्ड में डलहौजी की गोद-निषेध नीति की आलोचना होने लगी तो उसने स्पष्ट किया कि उसका निश्चय, समस्त राज्यों पर इस नीति को लागू करने का नहीं है। पहली श्रेणी के स्वतंत्र शासकों को गोद लेने का अधिकार है और गवर्नर जनरल इस अधिकार को मान्यता प्रदान करता रहेगा। दूसरी श्रेणी के राज्यों को गोद लेने से पूर्व कम्पनी सरकार की स्वीकृति लेनी होगी, जो अस्वीकार भी की जा सकती है। तीसरी श्रेणी के राज्यों को गोद लेने का अधिकार नहीं होगा और उनके राज्य कम्पनी राज्य में सम्मिलित कर लिये जायेंगे।

वस्तुतः डलहौजी का यह वर्गीकरण अस्पष्ट तथा जटिल था। किस राज्य को किस श्रेणी में रखा जाये, इसका निर्णय गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर करता था। यह सारी व्यवस्था भारत के देशी राज्यों को हड़पने के लिए एक बहाना मात्र थी। राजस्थान के करौली राज्य को हड़पने के लिए डलहौजी ने उसे दूसरी श्रेणी में रखा परन्तु कम्पनी के संचालक मण्डल ने उसे पहली श्रेणी के अन्तर्गत माना, जिससे करौली राज्य बच गया। इससे स्पष्ट है कि यह वर्गीकरण डलहौजी ने राज्यों को हड़पने की नीति के औचित्य को सिद्ध करने के लिए ही बनाया था।

गोद निषेध नीति के अन्तर्गत विलीन किये गये राज्य

गोद निषेध नीति के अन्तर्गत जिन राज्यों को कम्पनी के राज्य में सम्मिलित किया गया, वे इस प्रकार से थे-

सतारा

पेशवा बाजीराव (द्वितीय) के पतन के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने सतारा का छोटा सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दिया था। 1839 ई. में कम्पनी सरकार ने प्रतापसिंह को अपदस्थ करके उसके भाई अप्पा साहब को सतारा का शासक बनाया। 1848 ई. में अप्पा साहब की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था परन्तु उसने अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व वेंकटराव नामक लड़के को गोद लिया। जब डलहौजी के समक्ष वेंकटराव के उत्तराधिकार को मान्यता देने का प्रकरण रखा गया तो डलहौजी ने उसके उत्तराधिकार को अमान्य करते हुए 1848 ई. में सतारा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। 1818 ई. में सतारा के साथ अँग्रेजों ने जो सन्धि की थी, उसमें सतारा के शासक की ‘स्वतंत्र सार्वभौमिकता’ और इस स्थिति को निरन्तर बनाये रखना स्वीकार किया था। इस दृष्टि से सतारा प्रथम श्रेणी का राज्य था परन्तु डलहौजी ने उसे एक आश्रित राज्य मानकर उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। डलहौजी के इस कदम की इंग्लैण्ड में काफी निन्दा हुई परन्तु डलहौजी कम्पनी की आय में वृद्धि करना चाहता था। इससे कम्पनी की सुरक्षा-व्यवस्था भी मजबूत हो सकती थी और बम्बई-कलकत्ता के मध्य का राजमार्ग भी खोला जा सकता था। सेना के आवागमन की व्यवस्था की दृष्टि से भी सतारा का क्षेत्र उपयोगी था। इन्हीं बातों से प्रेरित होकर डलहौजी ने सतारा को हड़प लिया था।

जैतपुर

बुन्देलखण्ड में 165 वर्गमील क्षेत्रफल वाला जैतपुर नामक छोटा राज्य था। जैतपुर के शासक ने गवर्नर जनरल से, उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति देने की प्रार्थना की। डलहौजी ने उसे स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया और शासक की मृत्यु के बाद 1849 ई. में जैतपुर को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।

सम्बलपुर

बंगाल की दक्षिण-पश्चिम सीमा पर सम्बलपुर का छोटा राज्य था। यहाँ के शासक नारायणसिंह के कोई पुत्र नहीं था और न ही उसने किसी बच्चे को गोद लिया। 1849 ई. में नारायणसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानी ने स्वयं शासन चलाने की स्वीकृति माँगी परन्तु डलहौजी ने उसके अधिकार को मान्यता नहीं दी और सम्बलपुर को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।

बाघट

पंजाब की सीमा में बाघट नामक छोटा पहाड़ी राज्य था। 1849 ई. में बाघट के शासक विजयसिंह की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था और न ही उसने किसी लड़के को गोद लिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई उम्मेदसिंह ने अपना उत्तराधिकार प्रस्तुत किया परन्तु डलहौजी ने उसके उत्तराधिकार को अमान्य करते हुए, बाघट को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। डलहौजी के उत्तराधिकारी केनिंग ने डलहौजी के निर्णय को रद्द करके बाघट का राज्य उम्मेदसिंह के पुत्र को सौंप दिया।

उदयपुर

मध्य प्रदेश की सीमा में उदयपुर नामक राज्य स्थित था। इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 2,000 वर्गमील था। यहाँ के शासक के निःसन्तान मरने पर डलहौजी ने इस राज्य को भी ब्रिटिश राज्य में मिला लिया परन्तु केनिंग ने यहाँ भी डलहौजी के निर्णय को बदलकर यह राज्य वापिस लौटा दिया।

झाँसी

बुन्देलखण्ड के मध्य में झाँसी का राज्य स्थित था जो सामारिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण था। 1818 ई. की सन्धि के द्वारा झाँसी ने कम्पनी का संरक्षण प्राप्त किया था। उस सन्धि में झाँसी के राजा रामचन्द्रराव के वंशानुगत अधिकार (अर्थात् उसके परिवार के पीढ़ी-दर-पीढ़ी अधिकार) को स्वीकार किया गया था। 1835 ई. में रामचन्द्रराव की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था और मरने के पहले उसने जिस बच्चे को गोद लिया था उसका उत्तराधिकार कम्पनी सरकार ने मान्य न करके रामचन्द्रराव के चाचा रघुनाथराव को झाँसी का राजा बनाया। 1838 ई. उसकी भी मृत्यु हो गई। इस बार भी दत्तक पुत्र के स्थान पर रघुनाथराव के भाई गंगाधरराव को झाँसी का राजा बनाया गया। 1853 ई. में गंगाधरराव की भी मृत्यु हो गई। उसके भी कोई पुत्र नहीं था। मृत्यु से पहले गंगाधरराव ने आनन्दराव नामक एक बच्चे को गोद ले लिया और झाँसी के अँग्रेज रेजीडेण्ट को बुलाकर उससे अनुरोध किया कि वह बच्चे के उत्तराधिकार की स्वीकृति के लिए गवर्नर जनरल को पत्र लिखे। डलहौजी ने झाँसी को एक आश्रित राज्य बताया और झाँसी के राजा द्वारा किसी बच्चे को गोद लेने के अधिकार को मान्य नहीं किया। फरवरी 1854 में उसने झाँसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। इस प्रकार 1818 ई. से 1838 ई. के मध्य दो बार झांसी के शासक को उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार को अमान्य किया गया, फिर भी झाँसी को कम्पनी राज्य में न मिलाकर राजवंश के ही निकटतम दावेदार को झाँसी का राज्य सौंप दिया गया। डलहौजी भी ऐसा कर सकता था परन्तु उसने विलय की नीति अपनाई।

नागपुर

नागपुर का राज्य 80,000 वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ था। इसकी आय लगभग 40 लाख रुपया वार्षिक थी। नागपुर पर अधिकार हो जाने से कम्पनी अपने बिखरे हुए क्षेत्रों को संगठित कर सकती थी और हैदराबाद से लेकर मध्य भारत तक के क्षेत्र को एक इकाई में संगठित किया जा सकता था। इससे बम्बई से कलकत्ता के मध्य का सम्पूर्ण क्षेत्र कम्पनी के सीधे नियंत्रण में आ सकता था जिससे व्यापार की वृद्धि होने की सम्भावना थी। इन्हीं सम्भावनाओं को देखते हुए डलहौजी ने नागपुर को हड़पने का निश्चय किया। 1818 ई. में कम्पनी सरकार ने नागपुर के प्रसिद्ध भौंसले राज्य को अपने संरक्षण में लिया था। सन्धि के अनुसार भोंसले राजवंश के बालक रघुजी भोंसले (तृतीय) को नागपुर का शासक स्वीकार किया गया था। 1830 ई. में जब रघुजी (तृतीय) वयस्क हो गया, तो उसने राज्य का शासन सम्भाल लिया। उसके कोई पुत्र नहीं था। रघुजी ने नागपुर स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट से किसी बच्चे को गोद लेने हेतु गवर्नर जनरल से अनुमति माँगने को कहा परन्तु रेजीडेण्ट रघुजी की बात टालता रहा। 1853 ई. में रघुजी (तृतीय) की मृत्यु हो गई तथा वह अपने जीवनकाल में किसी लड़के को गोद न ले सका। डलहौजी ने किसी अन्य दावेदार के उत्तराधिकार को स्वीकार न करके 1854 ई. में नागपुर को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। नागपुर एक स्वतंत्र राज्य था परन्तु डलहौजी ने इसे भी आश्रित राज्य ठहराया तथा यह तर्क दिया कि राज्य के विलीनीकरण से राज्य के निवासियों के हितों की सुरक्षा हो सकेगी परन्तु अँग्रेज अपने अधिकृत क्षेत्रों में देशी शासकों की तुलना में अच्छा प्रशासन लागू करने में असफल रहे, जिससे चारों तरफ असंतोष फैल गया।

गोद-निषेध नीति की समीक्षा

अँग्रेज इतिहासकारों के अनुसार गोद-निषेध नीति तीन सिद्धान्तों पर आधारित थी-

(1.) भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी सर्वोच्च शक्ति थी।

(2.) अधीन राज्यों को गोद लेने का अधिकार सर्वोच्च शक्ति की स्वीकृति से ही वैध माना जा सकता था।

(3.) सर्वोच्च शक्ति इस स्वीकृति को रोक सकती थी, क्योंकि उसे ऐसा करने का अधिकार था।

जहाँ तक पहले सिद्धांत अर्थात् ब्रिटिश सर्वोच्चता का प्रश्न है, इसका औचित्य केवल यही था कि भारत में अँग्रेज सर्वशक्तिमान थे, इसलिये वे सर्वोच्च थे। यह औचित्य केवल शक्ति पर आधारित था, तर्क पर नहीं। अँग्रेजों ने भारत में जो अधिकार प्राप्त किये थे वे या तो युद्धों में विजयों द्वारा, या अनुदानों द्वारा या सन्धियों द्वारा प्राप्त किये थे। इस प्रकार प्राप्त किये गये अधिकारों से सार्वभौमिकता का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता था। अँग्रेजों के आने से पहले मुगल बादशाह को सार्वभौमिकता के अधिकार प्राप्त थे किन्तु मुगल बादशाह ने न तो कभी इस प्रकार राज्यों का अपहरण किया और न मुगल बादशाह ने कभी अपनी सार्वभौमिकता कम्पनी को हस्तान्तरित की। अतः ब्रिटिश सरकार द्वारा दिया गया सर्वोच्चता अथवा सार्वभौमिकता का सिद्धान्त आधारहीन था।

दूसरे सिद्धांत के आधार पर, अधीन और सहयोगी राज्यों के बीच तथा अधीन और आश्रित राज्यों के बीच भेद स्थापित करना केवल भ्रम उत्पन्न करना था। डलहौजी का यह सिद्धांत उचित नहीं था कि अँग्रेजों ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किन्हीं राज्यों का निर्माण किया था। क्योंकि प्रत्येक राज्य किसी-न-किसी स्थिति में पहले से ही भारत में विद्यमान था। जहाँ तक गोद लेने के लिये सर्वोच्च सत्ता की स्वीकृति की बात है, यह समझना बहुत ही कठिन है कि कम्पनी ने किन परिस्थितियों में और कैसे यह अधिकार प्राप्त किया। ली वार्नर ने मुगल बादशाह या मराठा पेशवा की सार्वभौमिकता के आधार पर इस अधिकार की चर्चा की है किन्तु मुगल बादशाह या मराठा पेशवा ने कभी भी इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया। मुगल बादशाह नये उत्तराधिकारियों से, चाहे वह औरस पुत्र हो अथवा दत्तक, नजराना अवश्य प्राप्त करता था किंतु मुगल बादशाह या पेशवा की सार्वभौमिकता में कोई ऐसा उदारहण नहीं मिलता जहाँ औरस पुत्र न होने पर राज्य समाप्त हो जाये। अतः अँग्रेजों का यह मनगढ़न्त अधिकार, जो उन्होंने स्वतः ही ग्रहण कर लिया था, सर्वथा अनुचित था।

तीसरा सिद्धान्त कि सर्वोच्च सत्ता, गोद लेने की स्वीकृति रोक सकती थी, भी सर्वथा गलत है। हिन्दुओं ने मुगलों को इस प्रकार के अधिकार कभी नहीं दिये। 1757 ई. से लेकर 1831 ई. तक अँग्रेजों ने भी हिन्दू शासकों द्वारा उत्तराधिकारी गोद लेने पर कभी आपत्ति नहीं की। 1831 ई. में कम्पनी ने पहली बार यह कहा कि जो गोद लेने की स्वीकृति देता है, उसे अस्वीकृत करने का भी अधिकार है। अंग्रेंजों ने भारतीय शासकों से जो सन्धियाँ की थीं, उनमें यह उल्लेख नहीं किया गया था कि सर्वोच्च सत्ता को गोद लेने की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति का अधिकार है। कम्पनी ने इस प्रकार का कोई कानून भी नहीं बनाया था।

अँग्रेज इतिहासकारों ने यह भी कहा कि इस नीति से भारतीय राज्यों के लोगों की बड़ी प्रसन्नता हुई थी, क्योंकि भारतीय राज्यों की प्रजा ने ब्रिटिश शासन को राजाओं के अत्याचारों से बचने का उपाय माना था किन्तु नागपुर, झाँसी आदि राज्यों के लोगों का 1857 ई. के विप्लव में सक्रिय भाग लेना इस बात का प्रमाण है कि इन राज्यों के लोगों को गोद-निषेध नीति से प्रसन्नता नहीं हुई, अपितु वे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यही कारण था कि विप्लव के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजाओं द्वारा गोद लेने के अधिकार को मान्यता दी।

खिताबों और पेंशनों की समाप्ति

डलहौजी ने अनेक भूतपूर्व राजाओं के खिताबों को मानने तथा उन्हें पेंशन देने से इन्कार कर दिया। कर्नाटक तथा सूरत के नवाबों तथा तंजोर के राजा के खिताब समाप्त कर दिये गये। पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को अँग्रेजों ने बिठुर का राजा बनाया था किंतु 1852 ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेंशन देने से मना कर दिया।

पंजाब के सिक्ख राज्य की समाप्ति

16 नवम्बर 1848 को डलहौजी ने जनरल गफ के नेतृत्व में एक सेना भेजी जिसने रावी नदी पार करके रामनगर, चिलियांवाला तथा गुजराल नामक स्थानों पर सिक्खों से युद्ध लड़े। इन युद्धों में मिली विजय के बाद 29 मार्च 1849 को सम्पूर्ण पंजाब का अँग्रेजी राज्य में विलय कर लिया गया। महाराजा दिलीपसिंह को 50 हजार पौण्ड की वार्षिक पेंशन देकर शिक्षा प्राप्ति के लिये इंगलैण्ड भेज दिया गया जहाँ उसने सिक्ख धर्म का त्याग करके ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। इस समय कोहिनूर हीरा सिक्खों के पास था। अँग्रेजों ने कोहिनूर छीनकर महारानी विक्टोरिया के पास भेज दिया। मेजर इवांस बैल ने लिखा है- ‘पंजाब का विलय कोई विलय नहीं था, यह तो विश्वासघात था।’

सिक्किम का विलय

1850 ई. में डलहौजी ने सिक्किम के राजा को हटाकर, सिक्किम को अँग्रेजी राज्य में मिला लिया।

हैदराबाद राज्य के बरार क्षेत्र का अपहरण

इंग्लैण्ड में कपास की मांग बढ़ती जा रही थी जिसकी पूर्ति भारत से की जानी थी। इसलिये डलहौजी ने हैदराबाद के बरार क्षेत्र को हड़पने का निर्णय लिया जो कि प्रमुख कपास उत्पादक क्षेत्र था। उसने हैदराबाद राज्य पर बकाया कर्ज के आरोप में 1853 ई. में बरार क्षेत्र को स्थाई रूप से कम्पनी क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया।

अवध राज्य का अपहरण

बक्सर की लड़ाई (1764 ई.) के बाद से ही अवध के नवाबों ने कम्पनी के लिये कभी चुनौती खड़ी नहीं की थी किंतु ब्रिटेन में कपास की मांग लगातार बढ़ रही थी। इस कारण डलहौजी अवध के कपास उत्पादक क्षेत्र को कम्पनी के क्षेत्र में सम्मिलित करने के लिये प्रेरित हुआ। मैनचेस्टर की वस्तुओं के लिये बाजार के रूप में अवध की विशाल सम्भावनाओं ने भी डलहौजी के लोभ को उभारा। इसलिये डलहौजी ने अवध के नवाब वाजिदअली शाह पर राज्य का गलत ढंग से प्रशासन करने तथा सुधार लाने से इन्कार करने का आरोप लगाया तथा 1856 ई. में अवध राज्य को कम्पनी राज्य में मिला लिया। यद्यपि यह आरोप सही था कि अवध के नवाब की भोग-विलास की प्रवृत्ति के कारण अवध का शासन जनता के लिये दर्दनाक वास्तविकता बन गया था तथापि सच्चाई यह भी थी कि 1801 ई. से अवध का शासन अँग्रेज अधिकारी ही चला रहे थे।

डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति का अंतिम परिणाम

यह सत्य है कि डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति और गोद-निषेध नीति से कम्पनी के साम्राज्य में अतुल्य विस्तार हुआ, कम्पनी की आय में भारी वृद्धि हुई, इंगलैण्ड की वस्तुओं को विशाल भारतीय बाजारों की प्राप्ति हुई तथा भारतीय कपास को अधिक से अधिक मात्रा में मैनचेस्टर में भेजा जाना संभव हुआ किंतु कम्पनी की यही सफलता उसके लिये अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुई क्योंकि कम्पनी की नीतियों से उत्पन्न असंतोष के कारण भारत में व्यापक स्तर पर 1857 की क्रांति हुई जिसके बाद इंग्लैण्ड सरकार ने भारत का शासन कम्पनी से छीनकर अपने हाथों में ले लिया।

निष्कर्ष

भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना एवं विस्तार एक दीर्घ काल तक चली प्रक्रिया थी जिसमें कभी मंद गति से तो कभी तेज गति से साम्राज्य विस्तार का कार्य चलता रहा। साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार का क्रम इस प्रकार से रहा-

(1.) सबसे पहले, कम्पनी ने दक्षिण भारत में अपने व्यापारिक हितों के लिए प्रादेशिक लाभ प्राप्त किये।

(2.) इसके बाद कम्पनी ने बंगाल में अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिए 1757 ई. में प्लासी और 1764 ई. में बक्सर के युद्ध लड़े और वहाँ प्रादेशिक लाभ प्राप्त किये।

(3.) 1773 ई. में रेगुलेटिंग एक्ट लागू होने के बाद वारेन हेस्टिंग्ज ने इस एक्ट की अपवाद सम्बन्धी धारा का उपयोग करके मैसूर के शासक हैदरअली और मराठों से युद्ध किया। हैदरअली से तो कम्पनी को कोई क्षेत्रीय लाभ प्राप्त नहीं हुआ किन्तु मराठों से कम्पनी को सालसेट और भड़ौंच के क्षेत्र प्राप्त करने में सफलता मिली।

(4.) 1784 ई. में ब्रिटिश संसद ने पिट्स इण्डिया एक्ट पारित करके कहा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन करेगी। एक्ट में यह भी प्रावधान किया गया कि गवर्नर जनरल को आपातकाल में, कौंसिल के बहुमत की स्वीकृति प्राप्त किये बिना भी कार्य करने के विशेष अधिकार होंगे।

(5.) कार्नवालिस (1786-1793 ई.) ने यद्यपि पिट्स इण्डिया एक्ट में घोषित अहस्तक्षेप की नीति का अवलम्बन किया किन्तु उसने मैसूर के शासक टीपू से युद्ध लड़कर मैसूर राज्य के मलाबार, कुर्ग और बारामहल के क्षेत्र छीन लिये।

(6.) लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) ने सहायक सन्धि की प्रथा को जन्म देकर कम्पनी द्वारा किये जा रहे साम्राज्य विस्तार के काम को तेजी से आगे बढ़ाया।

(7.) हेस्टिंग्ज (1813-1823 ई.) ने गोरखों और पिण्डारियों का दमन किया, मराठा-संघ-राज्य भंग किया तथा राजपूत राज्यों से अधीनस्थ संधियाँ करके उन्हें अपने प्रभाव में लिया।

(8.) एमहर्स्ट ने 1826 ई. में भरतपुर के किले पर अधिकार कर लिया। विलियम बैंटिक ने 1831 ई. में मैसूर राज्य में एक ब्रिटिश कमिश्नर की नियुक्ति की तथा 1832 ई. में बंगाल के उत्तर पश्चिम की छोटी सी रियासत कछार को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। उसने 1834 ई. में कुर्ग के शासक को अयोग्य घोषित करके उस पर नियंत्रण कर लिया।

(10.) लॉर्ड एलनबरो ने 1843 ई. में सिंध राज्य पर कब्जा कर लिया।

(11.) डलहौजी ने डॉक्टराइन ऑफ लैप्स के माध्यम से सतारा, नागपुर, झांसी आदि राज्य हड़प लिये। उसने हैदराबाद राज्य का बरार प्रांत, सिक्किम तथा अवध आदि राज्यों को भी ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसने सिक्खों के राज्य को समाप्त करके ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।

(12.) इस प्रकार 1856 ई. में डलहौजी के वापस जाने तक लगभग पूरा भारत या तो ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष शासित क्षेत्र का हिस्सा बन चुका था अथवा अधीनस्थ संधियों के द्वारा जकड़ लिया गया था। इस कारण पूरे भारत में अँग्रेजों के विरुद्ध असंतोष की ज्वाला भड़कने लगी थी।

अध्याय – 17 : ईस्ट इण्डिया कम्पनी का जमींदारी बंदोबस्त

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भारत में भू-राजस्व व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत में वैदिक काल से ही राजा को प्रजा से भोग प्राप्त करने का अधिकार था। भोग, किसी भी प्रकार के उत्पादन का प्रायः छठा अंश होता था जो प्रजा से राजन्य को मिलता था और राजन्य उसके बदले में अपनी प्रजा की शत्रुओं से सुरक्षा करता था तथा प्रजा की आध्यात्मिक उन्नति के प्रयास करता था। प्रान्तीय शासक जो कि राजन्य के लिये भोग एकत्र करते थे भोगिक अथवा भोगपति कहलाते थे। यही वैदिक व्यवस्था आगे चलकर भू-राजस्व व्यवस्था के रूप में विकसित हुई।

हिन्दू शासकों के काल में भू-राजस्व वसूली व्यवस्था

गुप्तकाल में राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था, जिसे भाग, भोग या उद्रेग कहते थे। यह उपज का 1/6 भाग अर्थात् लगभग 16.6 प्रतिशत होता था। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में राज्य की आय का प्रधान साधन भूमि-कर था। राज्य द्वारा किसानों से उपज का चौथा भाग अर्थात् 25 प्रतिशत कर के रूप में लिया जाता था। विशिष्ट परिस्थितियों में केवल आठवां भाग अर्थात् 12.5 प्रतिशत कर के रूप में लिया जाता था। सम्राट को किसानों से पशु भी भेंट के रूप में मिलते थे। नगरों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के विक्रय-मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के रूप में मिलता था। हर्षवर्धन भी गुप्तों की भांति अपनी प्रजा से उपज का केवल छठा भाग कर के रूप में लेता था। राजपूत शासक भी उपज का 1/6 से लेकर 1/4 अंश भू-राजस्व के रूप में प्राप्त करते रहे।

दिल्ली सल्तनत काल में भू-राजस्व वसूली व्यवस्था

दिल्ली सल्तनत काल में कुतुबुद्दीन ऐबक ने लगान-सम्बन्धी पुराने नियम ही चालू रखे किंतु उसके बाद के मुस्लिम शासकों ने भू-राजस्व लगभग दो से तीन गुना तक बढ़ा दिया। राजस्व वसूली का काम हिन्दू अधिकारी ही करते रहे। अलाउद्दीन खिलजी के शासन में किसान की फसल में से 50 प्रतिशत हिस्सा राज्य का होता था। किसानों को चारागाह तथा मकान का भी कर देना पड़ता था। उसने लगान वसूली के लिए सैन्य अधिकारी नियुक्त किये तथापि वह पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट नहीं कर सका। लगान वसूली का कार्य अब भी हिन्दू मुकद्दम, खुत तथा चौधरी करते थे जिन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे। सुल्तान ने उनके समस्त विशेषाधिकारों को समाप्त करके उनका वेतन निश्चित कर दिया। खुत तथा बलहर अर्थात् हिन्दू जमींदारों पर इतना अधिक कर लगाया गया कि वे निर्धन हो गये। मुहम्मद बिन तुगलक ने दोआब पर कर में भारी वृद्धि की। बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था।  किसानों पर भूमि कर के अतिरिक्त घरी अर्थात गृह-कर तथा चरही अर्थात् चरागाह-कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ। शेरशाह सूरी ने पैदावार का एक तिहाई अर्थात् 33 प्रतिशत हिस्सा लगान के रूप में लेना निश्चित किया।

मुगल काल में भू-राजस्व वसूली व्यवस्था

मुगल काल में भू-राजस्व उपज का 1/2 अर्थात् 50 प्रतिशत भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। किसानों द्वारा घोर परिश्रम करने के बाद फसल तैयार होती थी, किन्तु भू-राजस्व एवं अन्य करों तथा चुंगियों को चुकाने के बाद उनके पास इतना अनाज बड़ी कठिनाई से बचता था कि वे अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल सकें। जहांगीर तथा शाहजहां के समय में भी यही व्यवस्था चलती रही। औरंगजेब ने अकबर के समय के लगान (भू-राजस्व) निर्धारण का तरीका बदल दिया। औरंगजेब से पहले, सरकारी अधिकारी लगान वसूल करते थे किन्तु औरंगजेब ने किसानों से लगान वसूलने के लिये ठेकेदारी प्रथा आरम्भ की। ठेकेदार, किसानों से मनमाना लगान वसूलने लगे। इससे किसानों की दशा बिगड़ गई। दक्षिण के युद्धों में अत्यधिक धन की हानि होने से औरंगजेब ने किसानों एवं जनसाधारण पर कर बढ़ा दिये। इससे मुगल सल्तनत में असन्तोष बढ़ गया और विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। स्वयं औरंगजेब ऐसी स्थिति देखकर कहा करता था कि उसकी मृत्यु के बाद कैसा प्रलय आयेगा?

ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल में दीवानी के अधिकार

बक्सर युद्ध के बाद 1765 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल प्रांत की दीवानी के अधिकार प्राप्त किये जिससे भू-राजस्व वसूली का दायित्व कम्पनी का हो गया। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय में भी भू-राजस्व ही कम्पनी की आय का मुख्य स्रोत बन गया। जिस समय कम्पनी ने यह दायित्व ग्रहण किया, उस समय बंगाल में राजस्व के तीन स्रोत थे-

(1.) माल: इसमें भू-राजस्व तथा नमक-कर सम्मिलित थे।

(2.) सेर: इसमें आयात-निर्यात-कर तथा पथ-कर सम्मिलित थे।

(3.) बाजी-जमा: इसमें आबकारी-कर, जुर्माना तथा अन्य कर सम्मिलित थे।

उपरोक्त तीनों स्रोतों में भू-राजस्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि वह राज्य की आय का 80 प्रतिशत था। मुगल काल से बंगाल में भू-राजस्व की वसूली के लिये सुदृढ़ व्यवस्था की गई थी जो कम्पनी का शासन प्रारम्भ होने तक ज्यों की त्यों थी।

भू-राजस्व वसूली के प्रमुख अधिकारी

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के समय भू-राजस्व वसूली के प्रमुख अधिकारी इस प्रकार से थे-

कानूनगो: मुगल काल में भू-अभिलेखों को तैयार करने तथा उनके रख-रखाव का काम कानूनगो करता था। कानूनगो का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि वह जमींदारों के कार्यों पर दृष्टि रखता था, राजकोष में नियमित राजस्व जमा करता था तथा किसानों के हितों का ध्यान रखता था। मुगल सल्तनत के पतन के साथ ही कानूनगो का पद वंशानुगत हो गया। फलस्वरूप अब वह न तो राज्य के हितों की देखभाल करता था और न किसानों के हितों का ध्यान रखता था, वरन् जमींदारों के साथ मिलकर किसानों पर अत्याचार करने लगा।

आमिल: मुगलकालीन बंगाल में भू-राजस्व की वसूली आमिल करता था।

फौजदार: सीमान्त क्षेत्रों में जमींदारों से वसूली फौजदार करता था। मुगलों के बाद यह कार्य ऐसे व्यक्ति करने लगे जो स्थानीय क्षेत्रों में प्रभाव रखते थे। फलस्वरूप दूरस्थ क्षेत्रों का भू-राजस्व सीमित होता गया तथा किसान भूमि के वंशानुगत मालिक हो गये।

कम्पनी द्वारा राजस्व वसूली व्यवस्था में परिवर्तन

नायब दीवान: 1765 ई. में कम्पनी ने जब बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त किया, तब कम्पनी केवल भू-राजस्व प्राप्त करने की इच्छुक थी, न कि भूमि की स्थिति के बारे में चिन्तित थी। इसलिये कम्पनी ने भू-राजस्व की वसूली का कार्य दो नायब दीवानों को सौंप दिया। दोनों नायब दीवान भू-राजस्व वसूल करके, नवाब के कोष में रुपया जमा करा देते थे और नवाब के कोष से यह राशि कम्पनी के कोष में स्थानान्तरित कर दी जाती थी। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, कम्पनी की माँग में वृद्धि होती गई और वह भू-राजस्व की वसूली से सन्तुष्ट नहीं हुई। कम्पनी समझती थी कि नायब दीवानों द्वारा भू-राजस्व की रकम बीच में ही रख ली जाती है तथा किसान भी अपने हिस्से से अधिक का लगान अपने पास रख लेते हैं।

जिला निरीक्षक: 1769 ई. में कम्पनी द्वारा भू-राजस्व की वसूली के निरीक्षण के लिए जिला निरीक्षकों की नियुक्ति की गई। जिला निरीक्षक स्वयं भ्रष्ट थे। अतः यह व्यवस्था भी पर्याप्त प्रतीत नहीं हुई।

भू-राजस्व नियंत्रण परिषदें: कम्पनी द्वारा 1770 ई. में दो भू-राजस्व नियंत्रण परिषदें स्थापित की गईं। एक बंगाल के लिए, जिसका मुख्यालय मुर्शिदाबाद में रखा गया और दूसरी बिहार के लिए, जिसका मुख्यालय पटना रखा गया। ये दोनों परिषदें नायब दीवानों के कार्यों का निरीक्षण करती थीं।

भू-राजस्व नियन्त्रण समिति: भू-राजस्व नियंत्रण परिषदों के काम का निरीक्षण करने के लिये कलकत्ता में एक भू-राजस्व नियन्त्रण समिति स्थापित की गई।

कलक्टर: 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज ने भू-राजस्व प्रशासन में क्रांतिकारी सुधार लाते हुए दोनों नायब दीवानों का पद समाप्त कर अँग्रेजी निरिक्षकों को जिलों में राजस्व वसूल करने का काम सौंपा। इन निरीक्षकों को कलेक्टर (संग्राहक) पदनाम दिया गया। कलेक्टर की सहायता के लिए भारतीय दीवान नियुक्त किये गये। कलेक्टर का मुख्य कार्य लगान वसूल करना, लगान-पंजिका तैयार करना तथा दीवानी न्याय प्रदान करना था। सूबे का भू-राजस्व प्रशासन, गवर्नर तथा उसकी कौंसिल के हाथ में केन्द्रित कर दिया गया तथा इस कार्य के लिए उसे रेवेन्यू बोर्ड (राजस्व मण्डल) कहा जाने लगा। बोर्ड की सहायता के लिए एक भारतीय अधिकारी की नियुक्ति की गई जो राय-रायन कहलाता था।

पाँच वर्षीय बंदोबस्त

वारेन हेस्टिंग्स (1772-85 ई.) ने 1772 ई. में लगान वसूली के लिए एक वर्षीय समझौता प्रणाली निरस्त करके, पाँच वर्षीय समझौता प्रणाली लागू की। इस प्रणाली के अंतर्गत अधिकतम बोली लगाने वाले व्यक्ति को पाँच वर्ष के लिए लगान वसूली का कार्य सौंपा जाता था। सामान्यतः इस कार्य के लिए जमींदारों को प्राथमिकता दी जाती थी।

प्रांतीय परिषदों की स्थापना

वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा स्थापित उपरोक्त व्यवस्था विशेष कारगर सिद्ध नहीं हुई। अतः नवम्बर 1773 में गवर्नर तथा उसकी कौंसिल ने एक नई योजना स्वीकृत की जो दो भागों में थी- प्रथम भाग की योजना अस्थायी थी जिसे तुरन्त लागू करना था तथा दूसरे भाग की योजना स्थायी थी, जिसे भविष्य में लागू करना था। अस्थाई योजना को 1774 ई. में लागू कर दिया गया। इस योजना के अनुसार बंगाल प्रेसीडेन्सी को छः डिवीजनों में विभक्त किया गया- कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, पटना, बर्दवान, दीनाजपुर और ढाका। प्रत्येक डिवीजन में एक प्रान्तीय परिषद स्थापित की गई जिसमें कम्पनी के पाँच वरिष्ठ अधिकारी होते थे। पाँच सदस्यों की इस परिषद में दो सदस्य गवर्नर की कौंसिल के सदस्य होते थे। परिषद को सहायता देने के लिये एक भारतीय अधिकारी नियुक्त किया गया, जो परिषद के लिए दीवान के रूप में कार्य करता था। कलेक्टरों को वापिस बुला लिया गया तथा उन्हें प्रान्तीय परिषदों के मुख्यालायों पर नियुक्त करके उन्हें इन परिषदों को सहायता देने को कहा गया। कलेक्टरों के स्थान पर भारतीय राजस्व अधिकारी नियुक्त किये गये जिन्हें नायब कहा जाता था। ये नायब भू-राजस्व वसूल करते थे और दीवानी अदालतों की अध्यक्षता करते थे।

एक वर्षीय व्यवस्था

वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई. में जो पाँच वर्षीय समझौता प्रणाली लागू की थी, उसकी अवधि 1777 ई. में समाप्त हो रही थी। बंगाल कौंसिल में इस बारे में भारी मतभेद उत्पन्न हो गये कि भू-राजस्व व्यवस्था की क्या प्रणाली हो? अतः कम्पनी के संचालकों ने कौंसिल द्वारा अन्तिम निर्णय लेने तक एक वर्षीय बन्दोबस्त लागू करने को कहा। इस कारण 1778 ई. से नीलामी पुनः प्रतिवर्ष होने लगी जिससे कम्पनी को भू-राजस्व की हानि हुई।

प्रांतीय परिषदों की समाप्ति तथा राजस्व समिति की स्थापना

1781 ई. में योजना का स्थायी भाग लागू किया गया। प्रान्तीय परिषदें समाप्त करके कलेक्टरों को वापिस केन्द्र में बुला लिया गया। जिलों का भू-राजस्व प्रशासन नायबों के पास ही रखा गया। रंगपुर, चित्रा और भागलपुर आदि कुछ जिलों में फिर से ब्रिटिश कलेक्टरों की नियुक्ति की गई। केन्द्र में चार सदस्यों की नई राजस्व समिति बनाई गई जिसमें कम्पनी के सर्वोच्च अधिकारी रखे गये। उनकी सहायता के लिए एक भारतीय दीवान रखा गया। राय-रायन के पद को बनाये रखा गया किन्तु वह दीवान के कार्र्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। राजस्व समिति के सदस्यों को स्थिर वेतन देने के स्थान पर, प्राप्त होने वाले भू-राजस्व का दो प्रतिशत देना तय किया गया। समिति के अध्यक्ष को अधिक हिस्सा दिया जाता था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल इस राजस्व समिति से निरन्तर संपर्क बनाये रखती थी ताकि समय-समय पर निर्देश दे सके तथा उसका निरीक्षण कर सके।

जिलों में कलक्टरों की पुनः नियुक्ति

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि अभी तक कम्पनी भू-राजस्व व्यवस्था के लिए रास्ता खोज रही थी। इसीलिए हेस्टिंग्ज एक के बाद दूसरा प्रयोग करता रहा, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। फिर भी, राजस्व मण्डल की स्थापना तथा कलेक्टर के पद का सृजन, भू-राजस्व के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कदम थे। फरवरी 1785 में वारेन हेस्टिंग्ज के जाने के बाद मेकफर्सन ने कार्यवाहक गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया। उसके समय में कलेक्टरों को वापिस जिलों में भेज दिया गया तथा जिलों का पुनर्गठन कर उन्हें राजस्व मण्डल का नाम दिया गया। गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य को इसका अध्यक्ष एवं पांचवा सदस्य नियुक्त किया गया।

शिरेस्तेदार की नियुक्ति

जुलाई 1786 में मुख्य शिरेस्तेदार का नया पद सृजित किया गया, जो कानूनगो से भू-राजस्व के अभिलेख एवं सूचनाएँ एकत्रित करता था।

पांच वर्षीय बन्दोबस्त से जमींदारों में असंतोष

1772 ई. में जब पाँच वर्षीय बन्दोबस्त लागू किया गया, उस समय अधिक बोली लगाने वाले जमींदार को लगान वसूली का ठेका दे दिया गया। इससे नये जमींदारों का जन्म हुआ। वे पहले एक किरायेदार की भाँति थे, जो भूमि का निश्चित किराया दिया करते थे किन्तु अब वे भूमि के स्वामित्व की माँग करने लगे। दूसरी और जिन जमींदारों को अपदस्थ किया गया था, वे मुआवजे की माँग कर रहे थे क्योंकि उनकी स्थिति वंशानुगत हो चुकी थी। वे अपनी रैय्यत से भू-राजस्व वसूल करते थे, जिनमें से 9/10 भाग राज्य में जमा करा देते थे।

इंग्लैण्ड में भारतीय जमींदारों के प्रति सहानुभूति

वारेन हेस्टिंग्ज के समय कौंसिल के एक सदस्य फ्रांसिस ने जमींदारों के साथ भूमि का स्थायी प्रबन्ध करने की वकालात की थी ताकि प्रणाली में स्थिरता आ सके, किन्तु हेस्टिंग्ज, जमींदारों के साथ उनके जीवन भर के लिए अथवा दूसरी पीढ़ी तक के लिए समझौता चाहता था। इसलिए जब 1777 ई. में पाँच वर्षीय बन्दोबस्त की अवधि समाप्त हुई तब कम्पनी के संचालकों ने कौंसिल द्वारा अन्तिम निर्णय लेने तक एक वर्षीय बन्दोबस्त लागू करने को कहा। कौंसिल में इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श चलता रहा। 1780 ई. में इंग्लैण्ड में फ्रांसिस के मत को काफी समर्थन प्राप्त हो गया। इधर भारत में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा चेतसिंह के साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण बिहार के जमींदारों ने विद्रोह कर दिया था तथा इंग्लैण्ड में यह विचार प्रबल हो रहा था कि जमींदारों के साथ सद्भावपूर्ण व्यवहार करके उन्हें ब्रिटिश शासन के समर्थक वर्ग के रूप में परिवर्तित किया जाए। 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पारित हुआ जिसमें भूमि का स्थायी बन्दोबस्त करने को कहा गया तथा जमींदारों के पक्ष में सहानुभूति व्यक्त की गई।

कार्नवालिस के सुधार

सितम्बर 1786 में लॉर्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। कम्पनी के संचालकों ने कार्नवालिस को जमींदारों के साथ उदार शर्र्ताें पर समझौता करने का आदेश दिया ताकि जमींदारों से समय पर तथा नियमित रूप से भू-राजस्व प्राप्त होता रहे। इस समय सर जॉन शोर, राजस्व मण्डल का अध्यक्ष था। उसने राजस्व सम्बन्धी मामलों में पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लिया था। मुख्य शिरेस्तेदार जेम्स ग्राण्ट राजस्व अभिलेखों की जानकारी प्राप्त कर रहा था। कुछ ही समय में वह भी राजस्व सम्बन्धी मामलों का ज्ञाता हो गया।

कार्नवालिस के प्रारम्भिक सुधार

कार्नवालिस ने इन अनुभवी अधिकारियों के सहयोग से कुछ प्रारम्भिक सुधार किये। जिलों की संख्या 35 से घटाकर 23 कर दी। कलेक्टरों की शक्तियों में वृद्धि करके उन्हें दीवानी न्याय के अधिकार दे दिये। कुछ समय बाद उन्हें फौजदारी न्याय के अधिकार भी दे दिये। कलेक्टरों के वेतन में वृद्धि की गई तथा उन्हें वेतन के अतिरिक्त भू-राजस्व वसूली का कमीशन भी मिलने लगा।

1777 ई. में जो एक वर्षीय व्यवस्था की गई थी, वह उस समय तक के लिए थी जब तक कि कार्नवालिस भू-राजस्व व्यवस्था का पूरा अध्ययन करके कोई स्थायी योजना न बना ले। अतः कार्नवालिस ने कुछ प्रारम्भिक परिवर्तन करके आवश्यक सूचनाएँ एकत्र कीं तत्पश्चात् भू-राजस्व प्रणाली पर नियमित विचार-विमर्श आरम्भ हुआ। इस विचार-विमर्श के दौरान दो प्रकार की विचारधाराएँ सामने आईं।

जेम्स ग्राण्ट का मत

जेम्स ग्राण्ट ने दस्तावेजों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि जमींदारों की तो कोई स्थिति ही नहीं है, न तो उन्हें भूमि का स्वामी माना जा सकता हैं और न भू-राजस्व एकत्रित करने से सम्बन्धित राज्य का अधिकारी ही माना जा सकता है। अतः जेम्स ग्राण्ट का विचार था कि स्थायी व्यवस्था के स्थान पर कोई दीर्घ अवधि की व्यवस्था की जाये और राज्य को भूमि का स्वामी माना जाय, ताकि राज्य को यह अधिकार हो कि वह किसानों से किसी भी सीमा तक अपनी भू-राजस्व की माँग बढ़ा सके।

सर जॉन शोर का मत

सर जॉन शोर चाहता था कि जमींदारों को ही भूमि का वास्तविक स्वामी माना जाये। राज्य की ओर से भू-राजस्व की माँग संविदा के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए तथा निर्धारित सीमा से ऊपर उसमें वृद्धि नहीं की जानी चाहिए। वह भी कोई दीर्घ अवधि की व्यवस्था जमींदारों के साथ मिलकर करने का पक्षपाती था ताकि उन्हें भूमि के विकास हेतु प्रोत्साहन मिल सके, इससे राज्य की भी समृद्धि होगी। सर जॉन शोर भी कोई स्थायी प्रबन्ध करने के पक्ष में नहीं था, क्योंकि उसका विचार था कि राज्य में भू-राजस्व वसूल करने वाला विभाग अभी अपरिपक्व है तथा भू-राजस्व सम्बन्धी जो सूचनाएँ एकत्रित की गई हैं, वे स्थायी प्रबन्ध के लिए अपर्याप्त हैं। लॉर्ड कार्नवालिस, यद्यपि सर जॉन शोर के विचारों से सहमत था किन्तु वह उसके इस विचार से सहमत नहीं था कि जमींदारों से स्थायी व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त सूचनाएँ नहीं हैं।

दस वर्षीय बंदोबस्त (1790 ई.)

कार्नवालिस स्वयं इंग्लैण्ड में भू-स्वामी था और भारत में जमींदारों का ऐसा वर्ग तैयार करना चाहता था जो साम्राज्य का सुदृढ़ आधार बने। वह कम्पनी के संचालकों से विस्तृत निर्देश लेकर भारत आया था। पिट्स इण्डिया एक्ट (1784 ई.) में भी स्थायी प्रबन्ध करने की बात कही गई थी, इससे वह बहुत उत्साहित था। अतः 1790 ई. में उसने जमींदारों से दस वर्षीय समझौता कर लिया। उसने घोषित किया कि इसे स्थायी भी किया जा सकता है। कम्पनी के संचालक मण्डल ने दस वर्षीय समझौते का अनुमोदन करते हुए कहा कि यदि यह समझौता सफल रहता है तो इसे स्थायी कर दिया जाये।

भू-राजस्व संग्रहण में बेतहाशा वृद्धि

1764-65 ई. में मीर जाफर के शासन काल में बंगाल से 8.17 लाख पौण्ड भू-राजस्व एकत्रित किया गया था। कम्पनी द्वारा दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के पहले ही वर्ष में अर्थात् 1765-66 ई. में कम्पनी द्वारा 14.70 लाख पौण्ड भू-राजस्व कर एकत्रित किया गया। हेस्टिंग्ज तथा कार्नवालिस द्वारा किये गये उपायों का परिणाम यह हुआ कि 1790-91 ई. में कम्पनी ने 26.80 लाख पौण्ड भू-राजस्व एकत्रित किया गया। अर्थात् बंगाल की दीवानी का अधिकार प्राप्त करनके 26 वर्ष की अवधि में भू-राजस्व संग्रहण 328 प्रतिशत (3.28 गुना) पहुंच गया किंतु सर जॉन शोर को अब भी संतोष नहीं था। वह भारतीय किसानों को पूरी तरह चूसने पर तुला था।

स्थायी बंदोबस्त (1793 ई.)

तीन वर्ष बाद बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के अध्यक्ष डूण्डास ने इस समझौते को स्थायी करने का अनुरोध किया किन्तु सर जॉन शोर स्थायी प्रबन्ध के पक्ष में नहीं था। अतः डूण्डास ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट्स से विचार-विमर्श किया। पिट्स ने इसे स्थायी करने के आदेश दिये। तदनुसार 22 मार्च 1793 को कार्नवालिस ने इस प्रबन्ध को स्थायी करने की घोषणा की। 1793 ई. के स्थायी प्रबन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गईं-

(1.) जमींदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी मान लिया गया तथा उसे पैतृक और हस्तांतरणीय बना दिया गया किन्तु यह भी कहा गया कि यदि जमींदार पूर्व निर्धारित तिथि तक के सूर्यास्त तक कम्पनी सरकार को लगान नहीं चुकायेंगे, तो उनकी भूमि का कोई भाग, उस भू-राजस्व की वसूली के लिए, राज्य बेच सकेगा। यह व्यवस्था इंग्लैण्ड की जमींदारी प्रथा से प्रेरित थी।

(2.) चूँकि राज्य, भू-राजस्व संग्रहण क दायित्व से मुक्त हो गया है, अतः जमींदारों से किसी अन्य कर का दावा नहीं किया जायेगा।

(3.) जमींदारों से जो राजस्व की दर निश्चित की गई वह 1765 ई. की दर से दुगुनी थी, क्योंकि कम्पनी का कहना था कि इस स्थायी प्रबन्ध के बाद यदि उत्पादन बढ़ता है और राज्य की समृद्धि होती है तो भी राज्य को इस दर में वृद्धि करने का अधिकार नहीं होगा। न्यायालय से स्वीकृति प्राप्त किये बिना इस दर में वृद्धि नहीं की जा सकेगी।

(4.) जमींदारों से समस्त न्यायिक अधिकार छीन लिये गये।

(5.) जमींदार तथा उनकी रैय्यत के बीच सम्बन्धों के बारे में जमींदारों को स्वतंत्र कर दिया गया किन्तु जमींदारों से कहा गया कि वे अपनी रैय्यत को पट्टे जारी करें, जिनमें जमींदारों एवं रैय्यत के बीच पारस्परिक सम्बन्धों का उल्लेख हो। यदि कोई जमींदार, रैय्यत को दिये गये पट्टे का उल्लंघन करेगा तो रैय्यत को उसके विरुद्ध न्यायालय में जाने का अधिकार होगा।

स्थायी भू-प्रबन्ध की विशेषताएँ

भूमि की उपज का उपभोग करने वाले तीन पक्ष होते थे- सरकार, जमींदार और किसान। कार्नवालिस ने सरकार के लिए राजस्व निर्धारित करके तथा जमींदारों के अधिकारों की घोषणा करके, सरकार और जमींदारों के हितों की तो रक्षा की, किन्तु किसानों को जमींदारों की दया पर छोड़ दिया। कार्नवालिस ने उन समस्त लोगों को जमींदार मान लिया जो 1793 ई. में भू-स्वामी थे। इस प्रबन्ध द्वारा कार्नवालिस ने भूमि को सम्पत्ति मानकर उसके स्वामी को बेचने, दान देने अथवा दूसरे को हस्तांतरित करने का अधिकार प्रदान कर दिया। ऐसा करते समय सरकार से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक नहीं था। 1793 ई. के पहले जमींदार को लगान वसूल करने का अधिकार अवश्य था किन्तु भूमि को सम्पत्ति नहीं माना गया था। इसलिए कोई भी जमींदार भूमि को न बेच सकता था, न दान दे सकता था और न हस्तान्तरित कर सकता था।

स्थायी बन्दोबस्त के सम्बन्ध में विद्वानों के मत

बंगाल के इस स्थायी बन्दोबस्त के सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। कुछ विद्वानों ने इसे श्रेष्ठ व्यवस्था बताया है तो कुछ विद्वानों ने इसकी जमकर आलोचना की है। जे. सी. मार्शमेन के अनुसार- ‘यह साहसिक, निर्भीक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण कदम था….. लोगों के हृदय में पहली बार अपनी धरती के प्रति अटल अधिकार और अविचल लगाव के भाव पैदा किये। फलस्वरूप आबादी बढ़ी। खेती-बाड़ी का विकास हुआ तथा लोगों के स्वभाव तथा सुविधाओं में एक क्रमिक प्रगति स्पष्टतः दिखाई देने लगी।’

इसके विपरीत टी. आर. होम्स ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है- ‘स्थायी बन्दोबस्त एक भयंकर भूल थी। छोटे किसानों को इससे कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ। जमींदार भी बार-बार लगान चुकाने में असफल रहे जिससे उनकी जागीर सरकार के लाभ के लिए बेच दी गई।’

इसी प्रकार बैवरिज ने लिखा है- ‘जमींदारों के साथ समझौता करके एक भयंकर भूल तथा अन्याय-संगत बात की गई।’

बन्दोबस्त के गुण

(1.) इस व्यवस्था से राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई, क्योंकि जो भू-राजस्व की दर निश्चित की गई थी, वह 1765 ई. की प्रचलित दर से लगभग दुगुनी थी।

(2.) इस व्यवस्था से पूर्व बार-बार भू-राजस्व निर्धारण में सरकार को समय और धन की हानि उठानी पड़ रही थी किन्तु अब स्थायी व्यवस्था होने से समय और धन की काफी बचत हो गयी।

(3.) कम्पनी की वार्षिक आय निश्चित हो गई जिससे अब कम्पनी को यह जानकारी हो गयी कि कितनी वार्षिक आय किस समय प्राप्त होगी। इसके आधार पर अब आर्थिक योजनाओं के निर्माण का कार्य सरल हो गया।

(4) स्थायी व्यवस्था लागू होने से कम्पनी के अधिकांश अधिकारी राजस्व कार्य से मुक्त हो गये जिससे उनकी सेवाएं प्रशासन के दूसरे कार्यों में उपलब्ध होने लगीं तथा कम्पनी अन्य प्रशासनिक सुधारों के बारे में सोचने लगी।

(5.) जमींदारों के साथ समझौता करके अँग्रेजों ने एक ऐसे वर्ग का सृजन किया जिस पर अँग्रेज अपने अस्तित्त्व के लिए निर्भर रह सकते थे। इस प्रकार समाज में एक स्वामिभक्त वर्ग का निर्माण हो गया, जो संकट के समय अँग्रेजों का पक्ष ग्रहण कर सकता था।

(6.) भू-राजस्व की दर निश्चित हो जाने से भूमि के विकास के लिए पूँजी लगाने तथा उत्पादन में वृद्धि होने की आशा की जा सकती थी, क्योंकि अब फसल हो या न हो, वार्षिक भू-राजस्व तो चुकाना ही था। अतः बंगाल में अधिक से अधिक भूमि को खेती योग्य बनाया गया, जिससे नये गाँव बसने लगे।

(7.) कृषि उत्पादन में वृद्धि होने से सम्पन्नता में वृद्धि होना स्वाभाविक था। भू-राजस्व सदैव के लिए निश्चित हो जाने से इस सम्पन्नता का राज्य को कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं था किन्तु इससे राज्य को परोक्ष लाभ मिलने की आशा थी, क्योंकि कृषि उत्पादन का विकास होने से व्यापार एवं लोगों के जीवन-स्तर में सम्पन्नता आना स्वाभाविक था तथा राज्य मनोरंजन कर, व्यापार कर और अन्य आर्थिक गतिविधियों पर कर ले सकता था।

(8.) इस व्यवस्था के लागू होने से पूरे बंगाल में एकरूपता आ गई। जमींदारों से न्यायिक शक्तियाँ छीन लिये जाने से दोहरा लाभ हुआ। अब जमींदार कृषि पर अधिक ध्यान दे सकते थे और न्यायिक शक्तियाँ ऐसे लोगों को हस्तान्तरित कर दी गईं जो इस कार्य में प्रशिक्षित थे।

(9.) इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि यदि इसमें जमींदारों का पक्ष लिया गया था तो रैय्यत के हितों की भी पूर्णतः उपेक्षा नहीं की गई थी क्योंकि जमींदारों के लिये अनिवार्य कर दिया गया कि वह रैय्यत को पट्टे दे। यदि वे रैय्यत के अधिकारों का अतिक्रमण करते तो रैय्यत को न्यायालय में जाने का अधिकार था।

बन्दोबस्त के दोष

(1.) हमारे देश में किसान ही भूमि का मालिक समझा जाता था और वह अपनी सुरक्षा के लिए राजा को कर देता था। स्थायी प्रबन्ध के अन्तर्गत जमींदारों के साथ समझौता करके किसानों से भूमि का स्वामित्व छीन लिया गया। मेटकॉफ ने लिखा है- ‘हमने एक स्वामी वर्ग तैयार कर देश की समस्त सम्पत्ति को नष्ट कर दिया और दूसरों की सम्पत्ति उस स्वामी वर्ग के अधीन कर दी।’

(2.) स्थायी बन्दोबस्त में भू-राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई। जो जमींदार इस दर से लगान नहीं चुका सके, उनकी भूमि राज्य द्वारा बेच दी गई तथा इस कारण अनेक जमींदारों को उनके वंशानुगत अधिकार से वंचित कर दिया गया।

(3.) जो जमींदार कठिन परिश्रम करके राज्य की माँग के सामने टिक गये, वे आगे चलकर इतने धनवान हो गये कि गाँवों को छोड़कर शहरों में चले गये ओर वहाँ बड़ी विलासिता से रहने लगे। इससे एक परजीवी वर्ग की उत्पत्ति हुई, जो भूमि धारण तो करता था किन्तु उसकी देखभाल नहीं करता था। ऐसे जमींदारों ने रैय्यत से भू-राजस्व वसूल करने के लिए अपने एजेण्ट नियुक्त किए जो गाँवों में उप भू-स्वामी बन गये। ये एजेण्ट किसानों से अधिक-से-अधिक कर वसूल करने के लिए किसानों का शोषण करने लगे, जिससे किसानों की स्थिति दयनीय होती चली गई।

(4.) जमींदारों ने हर स्थान पर अपनी रैय्यत को पट्टे जारी नहीं किये और जहाँ पट्टे जारी किये उनका पूरी तरह से पालन नहीं किया। यद्यपि रैय्यत को जमींदारों के विरुद्ध न्यायालय में जाने का अधिकार था किंतु ऐसा करने के लिए उसे साधन उपलब्ध नहीं कराये गये। जमींदारों के पास समस्त तरह के साधन उपलब्ध होने से वह स्वेच्छा से जैसा चाहे कर सकता था।

(5.) भू-राजस्व स्थायी तौर पर निश्चित कर देने से राज्य को होने वाली आय भी निश्चित हो गई। भूमि की पैदावार यदि दस गुना भी बढ़ जाये तो भी इसका लाभ राज्य को नहीं मिल सकता था। इस व्यवस्था से राज्य के भावी लाभ पर प्रतिबन्ध लग गया। सेटनकार ने लिखा है- ‘स्थायी बन्दोबस्त से कुछ जमींदारों के हित प्राप्त किये गये, किसानों के हितों को स्थगित कर दिया गया और राज्य के हितों का सदैव के लिए बलिदान कर दिया गया।’

(6.) इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह था कि रैय्यत जो भूमि की वास्तविक मालिक थी, उसे अपने ही भूमि पर किरायेदार बना दिया गया।

(7.) इस व्यवस्था से राष्ट्रीयता को आघात पहुंचा। जमींदार वर्ग ब्रिटिश सत्ता का स्वामिभक्त बन गया। जब देश में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हुए, तब इस वर्ग ने ब्रिटिश सरकार से सहयोग करके जनता की राष्ट्रीय भावनाओं का दमन किया।

(8.) बंगाल के स्थायी बन्दोबस्त का दुष्प्रभाव भारत के अन्य ब्रिटिश प्रान्तों पर भी पड़ा। कम्पनी बंगाल में भू-राजस्व नहीं बढ़ा सकती थी इसलिये उसने इस क्षति की पूर्ति अपने अन्य प्रान्तों में लगान की दर ऊँची करके की।

स्थायी बन्दोबस्त का कृषकों पर दुष्प्रभाव

स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था से कम्पनी और जमींदारों को तो लाभ हुआ किंतु किसानों की आर्थिक, सामाजिक एवं नैतिक दशा पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

(1.) जमींदार भूमि के स्वामी हो गये इसलिये वे कृषकों का शोषण तथा उत्पीड़न करने लगे।

(2.) किसानों से भूमि का स्वामित्व छिन जाने से वे निर्धन हो गये। भूमि का वास्तविक स्वामी होते हुए भी उन्हें अपनी ही भूमि पर किरायेदार बना दिया गया।

(3.) इस व्यवस्था में ऊपरी स्तर पर सामन्तवाद तथा निम्न-स्तर पर दास-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला।

(4.) जिस समय स्थायी बन्दोबस्त किया गया था उस समय भूमि की नाप ठीक से नहीं की गई थी।

(5.) भू-राजस्व की दर जल्दबाजी में तय की गई। सरकार ने यह निश्चित नहीं किया कि वे किसानों से कितना लगान लेंगे। अतः किसानों से अधिक लगान वसूल किया जाने लगा।

(6.) किसानों के अधिकारों की रक्षा हेतु कोई समुचित व्यवस्था नहीं की गई।

(7.) स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत किसानों पर लगान का भार इतना अधिक बढ़ गया कि लगान चुकाने के लिए किसान प्रायः साहूकार से ऋण लेने लगे। ऋण पर ब्याज का बोझ प्रति वर्ष बढ़ जाता था। इससे किसानों का पोर-पोर ऋण में डूब गया।

(8.) इस व्यवस्था के लागू होने के बाद अधिकतर जमींदारों ने भूमि सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उनका ध्यान केवल अधिकतम लगान वसूल करने पर केन्द्रित था। इससे कृषि एवं किसानों की दशा बिगड़ने लगी।

(9.) इस व्यवस्था में किसानों को पूर्ण रूप से जमींदारों पर आश्रित कर दिया गया।

(10.) स्थायी बन्दोबस्त से जमींदारों से वसूल की जाने वाली भू-राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई। इस कारण बहुत से जमींदार, किसानों का बल पूर्वक शोषण करने लगे और शीघ्र ही धनवान बनकर बड़े-बड़े नगरों में जाकर विलासिता से रहने लगे। इससे एक परजीवी वर्ग की उत्पत्ति हुई, जो भूमि धारण तो करता था, किन्तु उसकी देखभाल नहीं करता था।

(11.) गाँवों से अनुपस्थित रहने वाले जमींदारों ने किसानों से भू-राजस्व वसूल करने के लिये अपने एजेण्ट नियुक्त किये जिससे बिचौलिये वर्ग का सृजन हुआ। यह एक दूसरा परजीवी वर्ग था जो असंवैधानिक एवं अमानवीय रूप से किसानों का शोषण करने लगा।

(12.) सरकार ने किसानों का शोषण को रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया किंतु जमींदारों के अधिकारों में वृद्धि कर दी। नई स्थिति में किसानों और सरकार के बीच अनेक मध्यस्थ उत्पन्न हो गये। इन मध्यस्थों का उद्देश्य किसानों से अधिकतम लगान वसूल करना था। ये लोग किसानों से दुर्व्यवहार करते थे। किसानों की दशा पर ध्यान देने वाला कोई नहीं था। अशिक्षित होने के कारण किसानों को भू-राजस्व की दर ज्ञात नहीं थी, जिसका लाभ जमींदार और उसके कारिन्दे उठाते थे।            

(13.) इस व्यवस्था में किसानों को पट्टे देने की अनिवार्यता रखी गई थी किन्तु बहुत से जमींदारों ने अपनी रैय्यत को पट्टे जारी नहीं किये और जहाँ पट्टे जारी किये गये उनका पूरी तरह से पालन नहीं किया गया।

(14.) रैय्यत अपनी सुरक्षा के लिए जमींदारों के विरुद्ध न्यायालय में जा सकती थी किन्तु ऐसा करने के लिए किसानों के पास साधन नहीं थे। जमींदारों के पास सब तरह के साधन उपलब्ध होने से वह जैसा चाहे कर सकता था। इस प्रकार स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत जमींदारी प्रथा सामाजिक एवं आर्थिक शोषण का यंत्र बन गई।

(15.) यदि कार्नवालिस द्वारा 1790 ई. में किये गये दस-वर्षीय समझौते को कुछ वर्ष तक चालू रखा जाकर उसके परिणामों का आकलन किया गया होता तो स्थाई बंदोबस्त के समय, इस व्यवस्था से उत्पन्न बुराइयों को दूर किया जा सकता था किंतु कार्नवालिस की श्रेष्ठ योजना ने धैर्य के अभाव में किसानों की स्थिति को बदतर बना दिया।

(16.) कार्नवालिस के बाद के गवर्नर जनरलों ने किसानों की दुर्दशा की ओर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उन्हें अपने निश्चित भू-राजस्व से मतलब था। जब यह नियमित रूप से नहीं मिलता था तो कम्पनी, जमींदारों को उनकी जमींदारी से बेदखल करके उनकी जमीन बेचकर अपनी रकम वसूल कर लेती थी। 1793 से 98 ई. की पांच वर्ष की अवधि में बंगाल में 1701 जमींदारियाँ नीलाम की गईं। पुराने के स्थान पर नये जमींदार के आने से किसानों की दशा और भी दयनीय हो गयी।

अध्याय – 18 : ईस्ट इण्डिया कम्पनी का रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त

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मद्रास प्रांत में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त

जिस समय बंगाल प्रान्त में स्थायी बन्दोबस्त लागू किया जा रहा था उस समय मद्रास प्रान्त अनिश्चिय की स्थिति में था। ब्रिटिश प्रशासन एवं औपचारिक लगान नीति न होने के कारण अनेक प्रकार की भू-राजस्व नीतियाँ प्रचलित थीं। इनमें रैय्यतवाड़ी पद्धति सर्वाधिक सफल सिद्ध हुई। रैय्यतवाड़ी बन्दोस्त के द्वारा प्रत्येक पंजीकृत भूमिधर को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया। वही राज्य को जमीन का लगान देने के लिए उत्तरदायी था। उसे अपनी भूमि को खेती के लिए किराये पर उठाने, बेचने या गिरवी रखने का अधिकार था। समय पर भू-राजस्व चुकाते रहने तक वह अपनी भूमि के स्वामित्व अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था।

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू करने का प्रमुख कारण यह था कि भारत के दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम में जमींदार वर्ग नहीं था, जिसके साथ भूमि का बन्दोबस्त किया जा सके। ब्रिटिश अधिकारी स्थायी बन्दोबस्त के परिणाम देखकर यह धारणा बना चुके थे कि स्थायी बन्दोबस्त से राज्य को आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती है, क्योंकि इस व्यवस्था में समय के साथ-साथ लगान की माँग को नहीं बढ़ाया जा सकता था। अतः किसानों के साथ सीधा बन्दोबस्त करके कम्पनी किसानों से अधिक-से-अधिक लगान प्राप्त कर सकती थी। जमींदारी व्यवस्था में लगान का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्वयं जमींदार अपने पास रख लेते थे अर्थात् जमींदार अपनी रैयत से अधिक लगान वसूल करके कम्पनी को निश्चित भू-राजस्व चुकाते थे। इससे कम्पनी को आर्थिक हानि होती थी।

कैप्टन रीड तथा टॉमस मुनरो को रैय्यतवाड़ी प्रथा का जनक माना जाता है। सर्वप्रथम कर्नल रीड द्वारा 1792 ई. में बारामहल जिले में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसमें लगान के लिए समझौता जमींदारों से न करके वास्तविक किसानों से किया गया, जो भूमि के स्वामी थे। यह समझौता तीन से दस वर्ष की अवधि के लिए किया गया। जब इस बन्दोबस्त की उपयोगिता से कर्नल रीड का विश्वास उठने लगा तब टॉमस मुनरो का इस बन्दोबस्त के प्रति विश्वास बढ़ गया और वह इस पद्धति का कट्टर समर्थक बन गया। 1796 ई. में कर्नल रीड ने वार्षिक लगान निर्धारित करने का सुझाव दिया किन्तु मुनरो ने इस सुझाव की कड़ी आलोचना की। जब मुनरो को निजाम से प्राप्त क्षेत्र का कलेक्टर बनाया गया तब उसने इस क्षेत्र में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया। 1809 ई. तक यह बन्दोबस्त मद्रास में कुछ स्थानों पर लागू कर दिया गया। कम्पनी के संचालक मण्डल के आदेशों से इस व्यवस्था को कुछ समय के लिए स्थगित किया गया किंतु इसकी सफलता को देखते हुए 1818 ई. में इसे पुनः लागू कर दिया गया।

भारत में कम्पनी के अधिकारी उन मूल सिद्धान्तों को ढूँढने में व्यस्त थे, जिन्हें कम्पनी अपनी लगान-नीति के रूप में अपना सके। कम्पनी के अधिकारियों के समक्ष मुख्य रूप से दो समस्याएँ थीं- (1.) भूमि-कर को सरकार की आय का मुख्य साधन बनाकर किस सीमा तक उस निर्भर रहा जाय? (2.) भूमि-कर को निर्धारित करने तथा एकत्र करने का कार्य किन सिद्धान्तों पर आधारित हो ?

कार्नवालिस और मुनरो ने इन समस्याओं पर परस्पर विरोधी समाधान प्रस्तुत किये। कार्नवालिस ऐसी व्यवस्था के पक्ष में था जो निश्चित नियमों पर आधारित हो, जहाँ भू-राजस्व स्थायी हो तथा निजी सम्पत्ति के अधिकार सुरक्षित हों। यद्यपि मुनरो भी निजी सम्पत्ति को भूमि अधिकारों के माध्यम से सुरक्षित कर देना चाहता था, किंतु वह इसे भूमि के वास्तविक स्वामियों के पास सुरक्षित रखना चाहता था। मुनरो नहीं चाहता था कि भूमिकर स्थायी रूप से तय कर दिया जाय, क्योंकि इससे सरकार की आय सदैव के लिए सीमित हो जाती है और भविष्य में भूमि का मूल्य और उत्पादन बढ़ने से सरकार को कोई लाभ नहीं होता।

व्यवहारिक रूप से मुनरो की व्यवस्था भी उतनी ही स्थायी थी जितनी कार्नवालिस की, हालाँकि इसकी औपचारिक घोषणा नहीं की गई थी। बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त के द्वारा सरकार का बार-बार लगान-दर निर्धारित करने तथा लगान वसूल करने का काम बच गया और इस कार्य में लगे हुए सरकारी कर्मचारी अन्य प्रशासनिक कार्यों में प्रयुक्त किये जा सके। दूसरी ओर रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में यह कार्य प्रशासन के ऊपरी ही रहा। रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में बंजर भूमि रैयत के पास नहीं छोड़ी गई, अपितु इस पर सरकार का नियंत्रण बना रहा।

1820 ई. में जब टॉमस मुनरो को मद्रास का गवर्नर बनाया गया तब उसने वहाँ भू-राजस्व का पुनरावलोकन किया तथा पुरानी व्यवस्था को अनुचित मानते हुए रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया। ऐसा करते समय उसने स्थायी बन्दोबस्त वाले इलाकों को छोड़ दिया। रैय्यतवाड़ी बंदोबस्त में उपज का तीसरा भाग (33.33 प्रतिशत) भू-राजस्व निर्धारित किया गया। व्यवहारिक रूप से यह भूमि की उपज और उत्पादन-शक्ति के आधार पर बदला जा सकता था। इसमें अकाल आदि की स्थिति के लिए भी गुंजाइश रखी गई। इसमें लगान की दर बहुत अधिक रहती थी। चूंकि भू-राजस्व धन के रूप में देना पड़ता था तथा इसका वास्तविक उपज एवं मण्डी में प्रचलित भावों से कोई सम्बन्ध नहीं था, इसलिए किसानों पर अत्यधिक बोझ पड़ा। यह स्थिति किसानों के लिए अत्यन्त कष्टप्रद थी।

नीलमणि मुखर्जी के अनुसार- ‘कहने को तो यह व्यवस्था स्थायी थी किन्तु व्यवहारिक रूप से इसमें वार्षिक लगान की समस्त विशेषताएँ मौजूद थीं जिनका स्वयं मुनरो को भी अनुमान नहीं था।’

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त अँग्रेज युवा प्रशासकों में बहुत लोकप्रिय था, क्योंकि इसमें कलेक्टरों को अपनी कार्य-कुशलता दिखाने का अवसर मिलता था। मद्रास में मुनरो द्वारा लागू की गई यह व्यवस्था तीस वर्ष तक चलती रही। इस व्यवस्था में भूमिकर अत्यन्त कठोरता से वसूल किया जाता था। भूमिकर वसूल करने के लिए किसानों को प्रायः कठोर यातनाएँ दी जाती थीं और उनके साथ क्रूर एवं अमानवीय व्यवहार किया जाता था। इस कारण किसान लगान चुकाने के लिए साहूकारों के चंगुल में फँस जाते थे। 1855 ई. में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त को विस्तृत सर्वेक्षण के बाद उचित ढंग से लागू किया गया। इसे वास्तविक रूप में 1861 ई. में लागू किया गया। 1865 ई. में भू-राजस्व उपज का 50 प्रतिशत निश्चित किया गया जो बहुत अधिक था।

इस व्यवस्था से सरकार की आय में जबर्दस्त वृद्धि हुई। मद्रास प्रेसीडेन्सी में 1861 ई. में वसूल की जाने वाली भू-राजस्व की राशि 32.90 लाख पौण्ड थी जो 1874 ई. में बढ़कर 41.80 लाख पौण्ड हो गयी। दूसरी ओर किसानों की हालत बहुत खराब हो गई। उस क्षेत्र में रहने वाले किसान परिवारों की मृत्यु-दर में उल्लेखनीय वृद्धि हो गयी, क्योंकि वे लोग पौष्टिक आहार की कमी से होने वाले विभिन्न रोगों व भुखमरी से मरने लगे। 1877-78 ई. के भीषण अकाल ने इस बन्दोबस्त के दोषों को उजागर कर दिया।

बम्बई प्रेसीडेंसी में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त

बम्बई प्रान्त में भी रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया। पेशवा से प्राप्त प्रदेशों का 1824 से 1828 ई. तक सर्वेक्षण करवाया गया तथा वहाँ भू-राजस्व की दर 55 प्रतिशत निर्धारित की गई। यह सर्वेक्षण नितांत दोषपूर्ण था। उपज का अनुमान ठीक तरह से न लगाने के कारण भू-राजस्व की दर ऊँची निर्धारित कर दी गई थी। किसान इतनी ऊँची दर से भू-राजस्व अदा करने में असमर्थ रहे। बहुत-से किसानों ने भूमि जोतना बन्द कर दिया जिससे बहुत-सा क्षेत्र बंजर हो गया। अतः ब्रिटिश सरकार ने लेफ्टिनेन्ट विनगेट की अध्यक्षता में भूमि का पुनः सर्वेक्षण करवाया। इस रिपोर्ट के अनुसार भू-राजस्व की दर, भूमि की उर्वर अवस्था पर निर्धारित की गई। यह व्यवस्था 30 वर्ष के लिए की गई किन्तु यह निर्धारण भी अधिकांशतः अनुमानों पर आधारित था, इसलिए किसानों के लिए अत्यन्त कष्टप्रद था। 1868 ई. में भूमि का पुनः सर्वेक्षण कराया गया। इस समय तक अमेरिका के गृह-युद्ध के कारण कपास के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गयी थी। इसलिए सर्वेक्षण अधिकारियों को भू-राजस्व 66 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक बढ़ाने का अवसर मिल गया। ब्रिटिश सरकार की इस कठोर नीति के कारण 1875 ई. में दक्षिण भारत में कृषक विद्रोह हुए। 1879 ई. में सरकार ने दक्षिण कृषक राहत अधिनियम पारित किया जिसमें किसानों को साहूकारों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया गया किन्तु सरकार की अधिक भू-राजस्व माँग के सम्बन्ध में कुछ नहीं किया गया। बम्बई की रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का मुख्य दोष यह था कि इसमें भू-राजस्व की अत्यधिक माँग तथा इस बढ़ती हुई माँग के विरुद्ध न्यायालय में अपील करने का अधिकार नहीं था।

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू होते ही इसके समर्थक इस बन्दोबस्त के लाभ बताने लगे। उनके अनुसार यह व्यवस्था स्थायी बंदोबस्त से अधिक लाभदायक सिद्ध हो रही थी, इसीलिए इसे बड़े स्तर पर लागू किया गया। इस बंदोबस्त में बंजर भूमि को भी जोता जा सकता था और इससे सरकार को अतिरिक्त आय हो सकती थी। इस व्यवस्था में रैय्यत अधिक स्वतंत्र थी। इसमें निजी सम्पत्ति के लाभ अधिकतम व्यक्तियों में बाँटे जा सकते थे। सरकार और रैयत के बीच सीधा और प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाने से लोगों का सरकार की न्याय व्यवस्था और प्रशासन के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ। कृषि क्षेत्र में बिचौलियों के प्रवेश को न्यूनतम कर दिया गया, जिन्हें स्थायी बन्दोबस्त में मान्यता प्राप्त थी। जमींदारी प्रथा में यह भय दिखाई देता था कि भूमि केवल कुछ समृद्ध जमींदारों व भू-स्वामियों के पास केन्द्रित हो जायेगी किन्तु रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में इस प्रकार का भय नहीं था।

रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त का कृषकों पर प्रभाव

(1.) रैय्यतवाड़ी बंदोबस्त, जमींदारी व्यवस्था से कहीं अधिक महँगा सिद्ध हुआ। कलेक्टरों को लगान एकत्र करने का काम सौंपे जाने से प्रशासन का कार्य बढ़ गया तथा प्रशासनिक कर्मचारी किसानों का शोषण करने लगे।

(2.) भू-राजस्व की दर तय करने के लिए सरकार को अधिक बारीकी से हिसाब का अध्ययन करना, जुताई की वास्तविक स्थिति जानना तथा संसाधनों की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक हो गया। इससे कृषि क्षेत्र के दैनिक कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ गया।

(3.) अनेक स्थानों पर ब्रिटिश अधिकारियों ने वही स्थान ग्रहण कर लिया जो स्थायी बन्दोबस्त में जमींदारों का था।

(4.) लगान तय करने से पहले कम्पनी के अधिकारियों द्वारा भूमि की जाँच की जाती थी। जो किसान इन अधिकारियों को घूस दे देता था उसकी वास्तविक उपज कम घोषित कर दी जाती थी और जो किसान घूस देने में असमर्थ रहता, उसकी उपज वास्तविक उपज से कई गुना अधिक घोषित कर दी जाती थी।

(5.) दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति के बारे में ब्रिटिश अधिकारियों की जानकारी सीमित थी। वे गाँव के एक भाग की भूमि के आधार पर ही अन्य जमीनों का कर भी निर्धारित कर देते थे। ऐसी स्थिति में भूमि-कर, भूमि की क्षमता से अधिक तय हो जाता था जिसका परिणाम किसानों को भुगतना पड़ता था।

(6.) राजस्व की दर अधिक होने से, किसान लगान नहीं चुका पाता था और यदि चुका देता था तो उसके पास स्वयं के खाने के लिये कुछ भी नहीं बचता था।

(7.) कम्पनी की कठोरता के कारण किसानों को अकाल एवं सूखे में भी लगान देना पड़ता था। इससे किसान स्थानीय साहूकारों से ऋण लेते थे। साहूकार किसानों से अधिक ब्याज लेते थे और किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाते हुए ऋण-पत्र में किसान की जमीन, मकान आदि रेहन लिखवा लेते थे। किसान यह ऋण कभी नहीं चुका पाता था इसलिये उस पर ऋण का बोझ बढ़ता ही जाता था। इस पर साहूकार किसान की जमीन, मकान आदि सम्पत्ति हड़प लेते थे।

(8.) भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार ग्राम पंचायतें साहूकारों से किसानों के हितों की रक्षा करती थीं किन्तु अँग्रेजी कानून-व्यवस्था में ग्राम पंचायतों को यह अधिकार नहीं दिया गया था। फलस्वरूप धीरे-धीरे किसानों की अधिकांश भूमि जमींदारों व साहूकारों के पास चली गई और वे भूमिहीन मजदूर मात्र रह गये।

(9.) रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त ने प्रशासन के विभिन्न भागों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का संचालन करने के लिये तहसीलदार के नीचे के पद भारतीयों को दिये गये। भारतीय कर्मचारी भी किसानों के साथ वैसा ही व्यवहार करते थे जैसे कि कोई जमींदार करता था।

(10.) रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त के अन्तर्गत राजस्व विभाग का विस्तार करना पड़ा। सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ने से प्रशासन का खर्च बढ़ गया। योग्य अधिकारियों को राजस्व विभाग की सेवा में लाने के लिये उनके वेतन बढ़ाये गये। राजस्व विभाग का बढ़ा हुआ खर्च गरीब किसानों पर डाल दिया गया।

अध्याय – 19 : ईस्ट इण्डिया कम्पनी का महलवाड़ी बंदोबस्त

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राजस्व निर्धारण एवं संग्रहण के क्षेत्र में अनेक प्रयोगों के अनुभव के पश्चात, उत्तर भारत के भारतीय राज्यों द्वारा कम्पनी को हस्तान्तरित और अँग्रेजों द्वारा विजित आगरा तथा अवध इत्यादि ब्रिटिश क्षेत्रों में महलवाड़ी भूमि-बन्दोबस्त लागू किया गया। इस बन्दोबस्त में भूमि-कर की इकाई किसान का खेत नहीं अपितु ग्राम या महाल होती थी। गाँव की समस्त भूमि सम्मिलित रूप से समस्त ग्राम सभा की होती थी जिसे भागीदारों का समूह करते थे। भूमिकर देने के लिए यही समूह उत्तरदायी होता था। दूसरे शब्दों में सरकार के द्वारा कुछ गाँवों को महाल में एकत्र करके उस महाल का लगान निश्चित कर दिया जाता और फिर उस लगान को गाँव में विभाजित किया जाता था। यद्यपि कई स्थानों पर व्यक्तिगत उत्तरदायित्व भी माना गया किन्तु सामान्यतः महलवाड़ी बन्दोबस्त, सामूहिक रूप से गाँव या महाल के आधार पर लागू किया गया। प्रत्येक गाँव भू-राजस्व की माँग के सम्बन्ध में अपना पक्ष रख सकता था किंतु महाल पर लगाये गये भू-राजस्व में अन्तर नहीं किया जाता था। प्रत्येक किसान अपने खेत जोतता था तथा अपने हिस्से का भू-राजस्व देता था, साथ ही अपने साथी-किसानों के भू-राजस्व के लिए भी उत्तरदायी होता था। इस प्रकार महलवाड़ी बन्दोबस्त में व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के साथ-साथ संयुक्त उत्तरदायित्व भी होता था। यदि कोई किसान अपनी भूमि छोड़ देता था तो ग्राम समाज उस भूमि को ग्रहण कर लेता था। ग्राम समाज ही सम्मिलित भूमि का स्वामी होता था।

उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में पहले जमींदारी व्यवस्था स्थायी रूप से लागू करने का निश्चय किया गया था। इसमें भारतीय राज्यों द्वारा हस्तान्तरित और अँग्रेजों द्वारा विजित क्षेत्र सम्मिलित थे। हस्तान्तरित क्षेत्र वह था जिसे अवध के नवाब ने 1801 ई. में कम्पनी को सौंपा था। इसमें सात जिले थे- इटावा, मुरादाबाद, फर्रूखाबाद, इलाहाबाद, कानपुर, गोरखपुर और बरेली। सुर्जीअर्जन गाँव की सन्धि के बाद सिन्धिया से जो क्षेत्र प्राप्त हुए उन्हें विजित क्षेत्र कहा गया। इसमें पानीपत, सहारनपुर, अलीगढ़ और आगरा जिले सम्मिलित थे। हस्तान्तरित और विजित क्षेत्रों में राजस्व मण्डल द्वारा एक से पाँच वर्ष की अवधि के लिए (1803 से 1807 ई. के बीच) प्रारम्भिक समझौते किये गये। शेष लगान सम्बन्धी समझौते बोर्ड ऑर्फ कमिश्नर्स द्वारा किये गये।

विजित क्षेत्रों में स्थायी बन्दोबस्त लागू करने के प्रश्न पर बंगाल सरकार और कम्पनी के संचालक मण्डल के बीच गहरे मतभेद थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन आ रहा था। कम्पनी के बढ़ते हुए साम्राज्य के खर्च और अपने देश के औद्योगिकीकरण की माँग को पूरा करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति स्थायी बन्दोबस्त द्वारा की जानी संभव नहीं थी। उधर इंग्लैण्ड में रिकार्डो, माल्थस आदि के शास्त्रीय अर्थशास्त्र और भूमि-किराया आदि के सिद्धान्त लोकप्रिय हो रहे थे तथा प्रशासनिक नीति को प्रभावित कर रहे थे। इन परिस्थितियों में महलवाड़ी व्यवस्था ने 1819 से 1822 ई. के बीच निश्चित रूप ग्रहण किया।

1819 ई. में बोर्ड ऑफ कमिश्नर्स के सचिव होल्ट मेकेन्जी ने अपने एक पत्र में उत्तरी भारत के ग्रामीण समाजों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कुछ सुझाव दिये-

(1.) भूमि का सर्वेक्षण किया जाये।

(2.) भूमि से सम्बन्धित व्यक्तियों के अधिकारों का लेखा तैयार किया जाये।

(3.) प्रत्येक गाँव या महाल से कितना कर लेना है, तय किया जाए।

(4.) प्रत्येक ग्राम से भूमिकर प्रधान या लंबरदार द्वारा संग्रह करने की व्यवस्था की जाए।

1822 ई. के रेग्यूलेशन-7 द्वारा इस सुझाव को कानूनी रूप दे दिया गया। जहाँ जमींदार लगान एकत्र करते थे, वहाँ लगान भूमि-किराये का 30 प्रतिशत रखा गया किन्तु उन क्षेत्रों में जहाँ भूमि ग्राम समाज के सम्मिलित अधिकार में थी, वहाँ कुल उपज का 80 प्रतिशत, लगान के रूप में तय किया गया। यह लगान बहुत अधिक था और इसे कठोरता लागू किया किया गया।

तीस वर्षीय बन्दोबस्त

महलवाड़ी बन्दोबस्त को लागू करने में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गईं। भूमि की उत्पादन शक्ति, उसका मूल्य तथा उसका किराया तय करना और भूमि का वर्गीकरण करना सरल कार्य नहीं था। अधिकांश अधिकारियों ने इन कार्यों को पूरा करने में असमर्थता व्यक्त की। भूमि के बारे में अभिलेखों से पूर्ण जानकारी प्राप्त करना सम्भव नहीं था, क्योंकि ब्रिटिश शासन के अधीन भूमि के स्वामित्व में निरन्तर परिवर्तन आ रहे थे। इसके अतिारिक्त इस व्यवस्था में लगान एक निश्चित अवधि के लिए निर्धारित किया गया किन्तु सरकार की माँग अत्यधिक होने के कारण तथा कर-वसूली में कठोरता अपनाने के कारण यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगी। इसलिए लॉर्ड विलियम बैंटिक के प्रयत्नों से 1833 ई. के रेग्यूलेशन-9 द्वारा इस व्यवस्था के सिद्धान्तों में कुछ परिवर्तन किये गये। इसके द्वारा भूमि की उपज एवं भूमि किराये का अनुमान लगाने की पद्धति सरल बना दी गई। भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि के लिए अलग-अलग औसत किराये निश्चित किये गये। लगान निश्चित करने के लिए पहली बार मानचित्रों और पंजिकाओं का प्रयोग किया गया। नई भूमि योजना मार्टिन बोर्ड के निर्देशन में तैयार की गई। इस योजना के अनुसार एक भाग की भूमि का सर्वेक्षण किया जाता था जिसमें खेतों की वास्तविक स्थिति देखी जाती थी। बंजर भूमि तथा उपजाऊ भूमि को स्पष्ट रूप से पंजीकृत किया गया। इसके बाद समस्त माँग और फिर समस्त गाँव की भूमि का अध्ययन कर भूमि-कर निर्धारित किया गया। प्रत्येक गाँव या महाल के अधिकारियों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल समायोजित करने का अधिकार दिया गया। भूमि-किराये का 66 प्रतिशत राज्य सरकार का हिस्सा तय किया गया और यह व्यवस्था 30 वर्ष की अवधि के लिए लागू कर दी गई। 1855 ई. में सरकार ने लगान को कुल पैदावार का पचास प्रतिशत कर दिया किन्तु आधा भाग निर्धारित करते समय भविष्य में होने वाली वृद्धि का भी ध्यान रखा गया।

ग्राम व्यवस्था

पंजाब में संशोधित महलवाड़ी व्यवस्था लागू की गई जिसे ग्राम व्यवस्था भी कहा गया।

महालवाड़ी बन्दोबस्त का कृषकों पर प्रभाव

इस बन्दोबस्त से किसानों को कोई लाभ नहीं पहुँचा। बंगाल में ब्रिटिश सरकार ने भूमि नीति में, सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों को महत्त्व दिया था किन्तु उस प्रकार की नीति नये बन्दोबस्त में नहीं अपनाई गई। फिर भी, सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त करने के लिए यहाँ होड़-सी मच गई और जमींदारी व्यवस्था के समस्त लक्षण प्रकट होने लगे। अतः यह व्यवस्था जमींदारी व्यवस्था का ही संशोधित रूप कही जा सकती है। यहाँ लगान सम्बन्धी निर्णय जल्दबाजी और लापरवाही से किये गये। अधिकांश समझौतों में लगान दर, गलत अभिलेखों या अपूर्ण अध्ययन के आधार पर तय की गई तथा इन निर्णयों को कठोरता से लागू किया गया। इस प्रकार केवल कानपुर क्षेत्र में ही प्रथम तीन वर्ष की अवधि में 238 जमींदारों को भूमि अधिकार से वंचित होना पड़ा। भूमि का स्वामित्व बदलते रहने से किसानों पर घातक प्रभाव पड़ा। इस व्यवस्था में भूमि-कर बहुत अधिक तय किया गया जिससे किसानों को अत्यधिक कठिनाई उठानी पड़ी और अन्ततः इन क्षेत्रों में भी भूमि, व्यापारियों एवं साहूकारों के हाथों में चली गई। चूँकि यह व्यवस्था जमींदारी प्रथा का ही संशोधित रूप थी, अतः इसमें जमींदारी प्रथा के समस्त दोष उत्पन्न हो गये। करों का भारी बोझ होने के कारण किसानों की स्थिति दयनीय हो गयी।यह व्यवस्था बोर्ड द्वारा बहुत ही कठोरता से तैयार की गई थी जिसमें पुराने जमींदारों या तालुकेदारों के अधिकारों की अवहेलना की गई थी। अतः इस पद्धति की कठोरता ने ही 1857 ई. में तालुकेदारों को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया।

निष्कर्ष

 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ब्रिटिश भू-राजस्व नीति, निरन्तर प्रयोगों के परिणाम स्वरूप विकसित हुई थी। इसकी तीन प्रमुख पद्धतियाँ थीं-

(1.) बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस खण्ड और उत्तरी कर्नाटक में जमींदारी अथवा स्थायी भूमि बन्दोबस्त: यह व्यवस्था भारत की 19 प्रतिशत भूमि पर लागू की गई।

(2.) बम्बई और मद्रास क्षेत्र के अधिकांश भागों, असम और अन्य भागों में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त: यह व्यवस्था भारत की 51 प्रतिशत भूमि पर लागू हुई।

(3.) उत्तर-पश्चिमी प्रांत, मध्य प्रांत तथा पंजाब में महलवाड़ी बन्दोबस्त: यह व्यवस्था भारत की 30 प्रतिशत भूमि पर आरम्भ की गई।

ये तीनों ही पद्धतियां भारतीय परम्परागत प्रथाओं के विरुद्ध थीं। जमींदारी प्रथा इंग्लैण्ड में प्रचलित सामंतवादी प्रथा का प्रतिरूप थी। रैयतवाड़ी प्रथा फ्रांस में प्रचलित कृषक स्वामित्व का प्रतिरूप थी और महलवाड़ी प्रथा भारतीय आर्थिक समुदाय का प्रतिरूप थी।

इन तीनों पद्धतियों में लगान की दर 66 प्रशित से लेकर 80 प्रतिशत तक थी जिसने किसानों पर आर्थिक बोझ अत्यधिक बढ़ा दिया। इनके लागू होने से भारत की ग्राम्य प्रधान अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। अँग्रेजों ने भू-व्यवस्था के सम्बन्ध में जो प्रयोग किये, वे सामन्ती व्यवस्था को बनाये रखने के प्रयास थे जिनमें साधारण किसानों के हितों की पूर्णतः अवहेलना की गई। इससे देश में भूमिहीन किसानों की संख्या बढ़ने लगी। चूँकि भारतीय पूंजीपतियों के लिये औद्योगिक स्पर्धा में ब्रिटिश पूँजीपतियों के समक्ष टिके रहना संभव नहीं था इसलिये भारत के पूँजीपति वर्ग ने, खेती में अपनी पूँजी लगाई तथा पूँजीपतियों ने गाँवों में पुराने जमींदारों का स्थान ले लिया। इन नये जमींदारों को किसानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी क्योंकि उनका उद्देश्य अपने पूँजी निवेश पर अधिक से आधिक लाभ प्राप्त करना था। इसलिए नये जमींदार भी किसानों का शोषण करने में जुट गये। सरकार ने किसानों को कोई संरक्षण नहीं दिया और न ही कृषि में सुधार करने का प्रयत्न किया। इन कारणों से भारत में स्थान-स्थान पर किसान आन्दोलन उठ खड़े हुए।

इतनी भयावह परिस्थितियों में भी भारतीय किसान पूरे जीवट के साथ जीवित था जिसने अब भी विश्व के अन्य देशों के किसानों की तुलना में खेती के शानदार ढंग को बनाये रखा था। ब्रिटिश सरकार को आर्थिक और भारतीय पैदावार के सम्बन्ध में सलाह देने वाले अधिकारी जॉर्ज बॉट ने 1894 ई. में सरकार को सलाह देते हुए कहा- ‘यदि केवल अविकसित साधनों के मूल्य और विस्तार को देखा जाये तो संसार के बहुत कम देशों में खेती का इतने शानदार ढंग से विकास करने की क्षमता है, जैसी भारत में है।’

अध्याय – 20 : ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत में कृषि का वाणिज्यीकरण और उसका प्रभाव

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ब्रिटिश सरकार की भू-राजस्व कर नीति ने भारत में, न केवल जमींदार एवं भूमिहीन किसान जैसे नये सामाजिक-आर्थिक वर्गों को जन्म दिया, अपितु देश की आर्थिक स्थिति को भी पूँजीवादी हितों के अनुरूप ढाल दिया। इस नीति ने कृषि-उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला। अँग्रेजों के आने के पहले किसानों का शोषण तो होता था किंतु कृषि-उत्पादन में आत्म-निर्भरता थी। अँग्रेजों के आने के बाद कृषि-उत्पादन में भारी गिरावट आई। इस गिरावट के लिये अँग्रेजों की कृषि नीति उत्तरदायी थी।

कृषि पर बढ़ता बोझ

1813 ई. तक ब्रिटिश कम्पनी ने व्यापारिक क्षेत्र में एकाधिकार रखा। इस कारण शिल्पी, दस्तकार एवं कारीगर बड़ी संख्या में बे-रोजगार होकर शहरों से गाँवों की ओर जाने को विवश हुए, जहाँ उन्होंने कृषि को जीविकोपार्जन का साधन बनाया। इस प्रकार कृषि पर निर्भर रहने वालों की संख्या बढ़ गई जिससे भूमि का विभाजन और उपविभाजन आरम्भ हुआ। भूमि के विभाजन से भूमि की उपलब्धता, कृषि-उत्पादन और कृषि में लगे हुए लोगों की संख्या के बीच असन्तुलन पैदा हो गया।

कृषि उत्पादन में गिरावट

भूमि पर आश्रित लोगों की संख्या बढ़ने से कृषि उत्पादन में भारी गिरावट आई, क्योंकि भूमि सीमित थी। अंग्र्रेजों ने, इस गिरावट के लिए भारतीय कृषि भूमि की अनुर्वरता और कृषक की अकुशलता को उत्तरदायी ठहराया किन्तु वास्तव में कृषि-उत्पादन की कमी का कारण भूमि की अनुर्वरता अथवा कृषक की अकुशलता न होकर, कृषि पर बढ़ता हुआ कामगरों का बोझ, कृषि हेतु सिंचाई के साधनों का अभाव तथा किसान के पास पूँजी का अभाव होना था। ज्यों-ज्यों ब्रिटिश सत्ता का विस्तार होता गया, सरकार का खर्च बढ़ता गया और लगान में वृद्धि की जाती रही। लगान चुकाने में असमर्थ रहने पर बहुत से किसान खेती के कार्य से अलग हो जाते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल में दीवानी का अधिकार प्राप्त होने से पहले बंगाल के नवाब मीर जाफर द्वारा 1764-65 ई. में 8.18 लाख पौंड का लगान वसूल किया गया था किंतु कम्पनी को दीवानी का अधिकार प्राप्त होने के बाद 1765-66 ई. में 14.70 लाख पौंड लगान के रूप में एकत्र किये गये। एक बार लगान-वृद्धि का जो क्रम चालू हुआ, वह चलता ही रहा। 1826 ई. तक लगान की राशि 24.20 लाख पौंड और 1857 ई. में 36 लाख पौंड तक पहुँच गई।

ब्रिटिश सरकार ने लगान की दर काफी ऊँची रखी। उदारहण के तौर पर स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत यह दर 80 प्रतिशत निर्धारित की गई थी। रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त के अन्तर्गत आरम्भ में यह दर 66 प्रतिशत रखी गई किन्तु उत्पादन में कमी होने के कारण 45 प्रतिशत कर दी गई। लगान की इस अमानवीय व्यवस्था ने उत्पादन को महंगा बना दिया। इस कारण खेती पिछड़ गई और देश की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ गई। किसानों की आर्थिक दुरावस्था गोरी सरकार के लिये राजनीतिक खतरा बन गई।

लगान की अधिकता तथा कृषि उत्पादन के महँगेपन ने किसान को ऋण के भारी बोझ तले दबा दिया, जिससे वह कभी नहीं उबर सका। उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऋण का सहारा लिया। लगान की बढ़ती हुई दर तथा किसान की सामाजिक आवश्यकताओं के कारण किसानों की ऋण-ग्रस्त्ता बढ़ती ही गई। ब्रिटिश सरकार ने किसानों की ऋण-ग्रस्त्ता का कारण, लगान की अधिकता नहीं बताकर, किसानों की फिजूलखर्ची व सामाजिक तथा पारिवारिक उत्सवों में धन फूंकने की आदत बताया, जो कि सत्य नहीं था। भारी लगान व साहूकार की मनमानी के कारण किसान ऋणों के बोझ से दबता ही चला गया।

निरन्तर बढ़ती ऋण-ग्रस्त्ता के कारण किसानों की जमीन उसके हाथों से निकलती चली गई। साहूकार किसानों के ऋण के बदले में उनकी जमीनें हड़पने लगे। सरकार की ओर से इस प्रकार के हस्तान्तरण को रोकने के लिये कुछ कानून बनाये गये, जैसे- बंगाल काश्तकारी अधिनियम-1859, मद्रास काश्तकारी अधिनियम-1889, दक्कन कृषि सहायता अधिनियम, जो आगे चलकर बम्बई प्रेसीडेन्सी पर भी लागू किया गया, मध्य प्रदेश काश्तकारी अधिनियम-1898; आदि। ये कानून अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं हुए और किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।

कृषि का वाणिज्यीकरण

कृषि और कृषक की दशा बिगाड़ने के लिये ब्रिटिश सरकार की कृषि नीति ही नहीं अपितु औद्योगिक नीति भी जिम्मेदार थी। 1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त करके मुक्त व्यापार नीति अपनाई गई। अब भारत केवल एक पूँजीवादी व्यवस्था को सुदृढ़ करने वाला देश ही नहीं था अपितु ब्रिटिश पूँजीपतियों के लिये एक मण्डी भी बन गया; जिसके कारण स्थानीय कुटीर उद्योग नष्ट हो गये। चूँकि इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति उफान पर थी, अतः इंग्लैण्ड को अपने उद्योगों के लिये सस्ते माल की आवश्यकता थी, इस कारण भारत कच्चे माल का उत्पादन करने वाला देश बनकर रह गया। अब भारत को ब्रिटेन में बने माल की खपत करने वाले बाजार और कच्चा माल उपलब्ध कराने वाले उपनिवेश की दोहरी भूमिका निभानी थी। भारत को अब केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करना था, जिनकी इंग्लैण्ड के मिलों को एवं इंग्लैण्ड-वासियों को आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त भारत में पँूजीवादी व्यवस्था के बढ़ने के साथ-साथ नई लगान नीति के कारण किसान को अब नकद राशि की आवश्यकता थी। इसलिये अब किसान भी उन फसलों को उगाने के लिये विवश हुए जिनका बाजार में क्रय-विक्रय हो सके। जबकि इससे पहले किसान केवल उन्हीं फसलों को उगाता था जिनकी खपत स्थानीय स्तर पर होती थी। इस प्रकार उत्पादन के स्वरूप और प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन हुए तथा भारतीय कृषि का वाणिज्यीकरण हो गया।

नगदी फसलों की अवधारणा का विकास

भारत में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने से पूर्व, उन जिन्सों का उत्पादन होता था जो कृषक परिवारों के दैनिक उपयोग के लिये आवश्यक थीं तथा जिनका प्रयोग विनिमय के लिये हो सकता था। ब्रिटिश पूंजीवाद के हस्तक्षेप से भारत का किसान केवल वे जिन्सें पैदा करने लगा जिनका देशी और विदेशी बाजार में अधिक मूल्य मिल सके। इस प्रकार कृषि के मूलभूत स्वरूप में परिवर्तन हो गया तथा अनेक स्थानों पर कुछ निश्चित फसलें उगाई जाने लगीं, जैसे- बंगाल में केवल जूट की खेती पर और पंजाब में केवल गेहूं और कपास की खेती पर अधिक बल दिया गया। बनारस, बिहार, बंगाल, मध्य भारत तथा मालवा में अफीम के व्यापार के लिये पोस्त की खेती को बढ़ावा मिला। बर्मा में चावल की खेती बढ़ी। सरकार द्वारा इन कृषि उत्पादों को बढ़ाने के लिये किसानों को अग्रिम राशि भी दी जाती थी। 1853 ई. के बाद भारत में ब्रिटिश पूँजीपतियों द्वारा किये गये पूँजी निवेश के कारण नील, चाय, कॉफी, रबर आदि की खेती पर अधिक जोर दिया जाने लगा। भारत में यूरोपीय और ब्रिटिश पूँजीवाद की पहली पसन्द चाय, कॉफी, रबर और नील की खेती थी। इन फसलों के लिये उन्हें यूरोपीय बाजारों में अत्यधिक कीमत प्राप्त होती थी।

(1.) नील की खेती: नील बागानों का कार्य निर्धन श्रमिकों से करवाया जाता था। उन्हें नील के बागानों में काम करने के लिये बलपूर्वक अग्रिम राशि दी जाती थी और फिर उन्हें बंधुआ श्रमिक बनाकर बागानों में काम करवाया जाता था। 1860 ई. में नील आयोग की रिपोर्ट आई जिसमें में कहा गया- ‘रैयत ने पेशगी राशि चाहे अपनी इच्छा के विरुद्ध ली या खुशी से, वह कभी भी इसके बाद स्वतंत्र व्यक्ति नहीं रहा।’

आयोग ने उन दिनों भारतीय गाँवों में प्रचलित इस कहावत का भी उल्लेख किया– ‘अगर कोई नील के समझौते पर हस्ताक्षर कर देता है, तो वह सात पीढ़ियों तक स्वतंत्र नहीं हो सकता।’  बिहार, आसाम और उत्तर प्रदेश के नील बागानों में श्रमिकों की स्थिति गुलामों जैसी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम स्वरूप और बढ़ते हुए राष्ट्रवाद के कारण नील के बागानों में काम करने वाले श्रमिकों को मुक्ति प्राप्त हुई।

(2.) चाय-कॉफी के बागान: चाय और कॉफी के बागानों ने भी भारत में ब्रिटिश पूँजी निवेश को आकर्षित किया। इन बागानों में किसी प्रकार के श्रमिक कानून लागू नहीं थे। बागान मालिक, इन बागानों में काम करने वाले श्रमिकों का जी-भरकर शोषण करते थे। 1887 ई. में चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या लगभग 5 लाख थी। चाय-बागानों में काम करने हेतु श्रमिकों को लाने के लिये अत्यधिक छल-कपट किया जाता था तथा उनसे लुभावने वायदे किये जाते थे किन्तु जब वे एक बार बागानों में पहुँच जाते थे तो उन्हें बंदियों की तरह रखा जाता था। रायल कमीशन ऑन लेबर ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य की पुष्टि की है। इन श्रमिकों को निर्जन जंगलों में रखा जाता था जहाँ खाद्य पदार्थ नहीं मिलते थे और जो मिलते भी थे तो वे बहुत महँगे होते थे। इस कारण श्रमिक और उनके परिवार के लोग कुपोषण एवं घातक बीमारियों के शिकार होकर मर जाते थे परन्तु चाय बागानों के मालिकों को अपने लाभ के अतिरिक्त और किसी बात से मतलब नहीं था।

(3.) जूट की खेती: यूरोप के कारखानों को जूट की बहुत बड़ी मात्रा में आवश्यकता थी इसलिये यूरोपीय और ब्रिटिश व्यापारियों ने जूट उद्योग में काफी पूँजी का निवेश किया। अतः यूरापनियनों की व्यापारिक एवं औद्योगिक आवश्यकता की पूर्ति के लिेय पटसन की खेती पर विशेष ध्यान दिया गया ताकि यूरोपीय मिलों को सस्ता रेशा मिल सके और यूरोपीय व्यापारियों एवं उद्योगपतियों को भारी लाभ हो सके। यूरोपीय व्यापारी एवं उद्योगपति पटसन और जूट से भारी लाभ अर्जित करते थे किंतु कच्चा माल देने वाले किसानों को उनके उत्पादन की बहुत ही कम कीमत देते थे।

कृषि वाणिज्यीकरण के प्रभाव

कृषि का तेजी से वाणिज्यीकरण होने के परिणामस्वरूप भारतीय किसानों एवं गांवों की तस्वीर तेजी से बदलने लगी। पूंजी का प्रवाह भारत से ब्रिटेन की तरफ हो गया तथा भारत के गांव तेजी से निर्धन होने लगे। किसान का पूरा परिवार दिन-रात परिश्रम करने के उपरांत भी ऋण लेकर लगान चुकाता था जिससे किसान बड़ी संख्या में सूदखोरों एवं साहूकारों के चंगुल में फंस गया तथा चारों ओर निर्धनता एवं भुखमरी का बोलबाला हो गया। कृषि वाणिज्यीकरण के कुछ प्रमुख प्रभाव इस प्रकार से हैं-

(1.) गांवों में पूंजी की आवश्यकता: कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण भारतीय गांवों की वस्तु विनिमय क्षमता और आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई तथा गांवों में भी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पूंजी की अनिवार्यता हो गई। पूंजी आधारित अर्थव्यस्था का निर्माण होने से गांवों में उत्पादित प्रत्येक वस्तु शहरों की ओर जाने लगी।

(2.) कृषकों की निर्धनता में वृद्धि: कृषि के वाणिज्यीकरण से व्यापारी वर्ग तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बहुत लाभ होने लगा परन्तु किसानों की निर्धनता में वृद्धि हुई। इसका मुख्य कारण व्यापारियों की छल-कपटपूर्ण नीति थी। वे खेत में खड़ी फसलों को सस्ते दामों पर खरीद लेते थे। किसान अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये, फसल मंडी में न ले जाकर, खेत में ही बेच देता था। ऐसे सौदे में व्यापारी फसल की बहुत कम कीमत तय करता था। इस कारण किसानों की निर्धनता बढ़ती चली गई।

(3.) अकालों की भयावहता में वृद्धि: कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण फसलें औद्योगिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उगाई जाती थीं। जूट एवं कपास की खेती में वृद्धि होने से खाद्यान्नों की भारी कमी हो गई और अकाल पड़ने लगे। कम्पनी का शासन होने से पूर्व भी भारत में अकाल पड़ते थे किन्तु उनका कारण धान का अभाव न होकर यातायात के साधनों का अभाव था। ब्रिटिश शासन में पड़ने वाले अकाल व सूखों का प्रत्यक्ष कारण कम्पनी की दोषपूर्ण औद्योगिक एवं कृषि नीतियां थीं। इन नीतियों ने भारतीय किसानों को अत्यधिक निर्धन बना दिया। अकाल के समय खाद्यान्नों के दाम इतने अधिक बढ़ जाते थे कि लोगों के लिये अन्न खरीदना असम्भव हो जाता था। इस कारण प्रत्येक अकाल के समय हजारों लोग भूख से तड़प कर मर जाते थे। प्रायः शवों को उठाने का कोई प्रबन्ध नहीं होता था। इस कारण पूरा का पूरा क्षेत्र महामारी की चपेट में आ जाता था और हजारों लोग महामारी से ग्रस्त होकर मर जाते थे। कम्पनी के शासन में 1770 ई. के बंगाल के अकाल में बंगाल की एक तिहाई जनसंख्या मर गई। 1860-61 ई. में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा जिसमें दो लाख लोग मरे। 1865-66 ई. में उड़ीसा, बंगाल, बिहार एवं मद्रास में पड़े अकाल में बीस लाख लोग मरे। केवल उड़ीसा में ही 10 लाख लोग मारे गये। 1866-70 ई. के अकाल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बम्बई में 14 लाख से अधिक लोग मारे गये। इन क्षेत्रों की एक चौथाई जनसंख्या समाप्त हो गई। 1876-78 ई. में मद्रास, मैसूर, हैदराबाद, महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में भीषण अकाल पड़ा। इस अकाल में पंजाब में 8 लाख और मद्रास में 35 लाख लोग मरे। मैसूर की 20 प्रतिशत जनसंख्या मर गई। उत्तर प्रदेश में 12 लाख से अधिक लोग मरे। 1899 ई. के अकाल को छपनिया काल कहा जाता है, इसमें राजस्थान के 25 प्रतिशत लोग मर गये। विलियम डिग्बी के अनुसार 1854 से 1901 ई. के अकालों में देश में 2,88,25,000 लोग मौत के मुंह में समा गये। 1943 ई. में बंगाल के भीषण अकाल में 30 लाख लोग मरे।

(4.) कृषकों के विद्रोह: नगदी फसलों की खेती के कारण किसानों का शहरों में आना-जान बढ़ गया। इससे किसानों में राजनीतिक चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। इस चेतना ने किसानों को शोषणकारियों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिये उकसाया। जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था कठोर होती चली गई, कृषक विद्रोह भी बढ़ने लगे। 1857 ई. में दक्कन में मराठा किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध बगावत की। किसानों में असंतोष को कम करने के लिये 1879 ई. में दक्कन काश्तकारी सहायता अधिनियम पारित किया गया। 1870 ई. में बंगाल के बंटाईदारों का आर्थिक संकट बढ़ने पर उन्होंने लगान देने से मना कर दिया। इसी समय संथालों ने भी विद्रोह किया। इस कारण 1885 ई. में बंगाल काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया।

(5.) नवीन आर्थिक-सामाजिक वर्गों का उदय: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सामन्ती व्यवस्था को समाप्त करके जमींदार, छोटे काश्तकार, खेतिहर मजदूर आदि नवीन आर्थिक-सामाजिक वर्गों को जन्म दिया। नई लगान व्यवस्था ने भी भारतीय ग्रामीण सामाजिक सम्बन्धों पर गहरा प्रभाव डाला। परम्परागत रूप से भारतीय ग्रामीण समुदाय के सदस्यों में परस्पर सम्बन्धों का निर्धारण जातिगत सम्बन्धों, धार्मिक आधार, परम्परा या रीति-रिवाजों पर आधारित था। ब्रिटिश कानूनों तथा आर्थिक नीतियों ने परम्परागत सामाजिक व जातीय सम्बन्धों को शिथिल कर दिया। ब्रिटिश आर्थिक नीति के फलस्वरूप जो सामाजिक-आर्थिक वर्ग अस्तित्त्व में आये उनमें सबसे नीची सीढ़ी पर निम्न वर्ग था।

(6.) भूमिहीन एवं श्रमिक वर्ग का उदय: ब्रिटिश कृषि नीति, आर्थिक नीति व लगान प्रणाली के परिणाम स्वरूप छोटे किसानों की जमीन उनके अधिकार से निकलकर साहूकारों के पास पहुंचने लगी जिससे भारतीय किसान भूमिहीन होकर खेतिहर श्रमिक में परिणत होने लगा। खेतिहर श्रमिकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने से, समस्त खेतिहर जनसंख्या के लगभग आधे लोग इसी वर्ग में आ गये। 1875 ई. में देश में भूमिहीन कृषकों की संख्या 80 लाख थी जो 1901 ई. में बढ़कर 350 लाख तथा 1921 ई. में 390 लाख हो गई।

(7.) यातायात एवं संचार साधनों में सुधार: कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण कृषि जिन्सों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक तेज गति से पहुंचाने के लिये रेल, सड़क एवं जहाजरानी परिवहन साधनों का विकास हुआ। जिन्सों की बिक्री, सौदे एवं भाव आदि सूचनाएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने के लिये डाक-तार व टेलीफोन आदि संचार-व्यवस्थाओं का विकास हुआ। कम्पनी ने भारत के प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर अच्छी सड़कों का निर्माण किया ताकि बन्दरगाहों तक कच्चा माल पहुँचाने में सुविधा हो सके। यूरोपियन लेखकों ने लिखा है कि यह सब भारतीयों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने व विकसित करने के लिये किया गया जबकि वास्तविकता यह थी कि ये समस्त कार्य इसलिये किये गये ताकि वे भारतीय कच्चा माल लंकाशायर और मैनचेस्टर की मिलों तक सुगमता से पहुँचा सकें तथा वहाँ उत्पादित माल को भारत के दूरस्थ गाँवों तक पहुँचा सकें।

(8.) विश्वव्यापी मंदी की मार: भारत का किसान कृषि के वाणिज्यीकरण से पहले, विश्वव्यापी मंदियों के दौर से बेअसर रहता था किंतु अब उसकी प्रतिस्पर्धा विश्व भर के किसानों से थी इसलिये उसका भी मंदी की चपेट में आ जाना स्वाभाविक था। भारत में वर्ष 1928-29 की मंदी के दौर से पहले 10 अरब 34 करोड़ रुपये मूल्य की पैदावार होती थी जो 1933 ई. में घटकर केवल 4 अरब 73 करोड़ रुपये मूल्य की रह गई।

अध्याय – 21 : ब्रिटिश काल में भारत से धन का निष्कासन

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भारत पर पाश्चात्य देशों के आक्रमण तो सिकंदर से पूर्व भी होते रहे किंतु उनके प्रभाव सीमित होने के कारण उनमें भारत से धन का विशेष निष्कासन नहीं हुआ। सिकंदर एवं उसके बाद के पाश्चात्य आक्रमणों में भी धन निष्कासन अत्यंत सीमित मात्रा में संभव हो सका। शक, कुषाण तथा हूण आदि आक्रांताओं ने भारत में ही अपने शासन स्थापित किये इसलिये वे भारत से धन निकालकर बाहर नहीं ले गये। 712 ई. में भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के अंतिम आक्रमण तक जारी रहा। एक हजार वर्ष से भी अधिक लम्बे समय तक चले इस दौर में उत्तर भारत एवं पश्चिमी भारत से अपार धन सम्पदा लूटी गई फिर भी इन आक्रमणों से धन का निष्कासन उतना अधिक नहीं हुआ जितना 1757 ई. में प्लासी के युद्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के आरम्भ से लेकर 1947 ई. में ब्रिटिश ताज के राज्य की समाप्ति तक हुआ।

मार्कोपोलो ने भारत को एशिया का मुख्य बाजार कहा है। सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसिसी यात्री बर्नियर ने भारत की आर्थिक स्थिति की चर्चा करते हुए लिखा है- ‘यह भारत एक अथाह गड्ढा है, जिसमें संसार का अधिकांश सोना और चांदी चारों तरफ से अनेक रास्तों से आकर जमा होता है……. यह मिस्र से भी अधिक धनी देश है।’

बीसवीं शताब्दी में भारत की आर्थिक दशा के बारे में एक इतिहासकार ने लिखा है- ’20वीं सदी के आरम्भ में लगभग दस करोड़ व्यक्ति ब्रिटिश भारत में ऐसे हैं जिन्हें किसी समय भी पेट भर अन्न नहीं मिलता।’

 स्पष्ट है कि इस अवधि में ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश ताज, भारत को पूरी तरह चूस कर खोखला कर चुके थे।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं ब्रिटिश ताज द्वारा मचाई गई लूट

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1765 ई. में बंगाल की दीवानी के अधिकार प्राप्त किये तथा उसने तेजी से आगे बढ़कर उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों तक शेष देश को अपने चंगुल में ले लिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शिकंजा कसे जाने से पूर्व, भारत में उद्योग, कृषि एवं निर्यात की दशा संतोषजनक थी। ढाका की मलमल पूरे विश्व में विख्यात थी। हीरे-जवाहरात, गर्म मसाले, शृंगार प्रसाधन, हाथी दांत की कलात्मक वस्तुएं, सुगंधित तेल, इत्र, सूती एवं रेशम का कपड़ा विदेशों को निर्यात किये जाते थे। कम्पनी द्वारा देश पर शिकंजा कस लिये जाने के बाद भारत के ग्रामीण दस्तकारों, किसानों तथा व्यापारियों की स्थिति खराब होने लगी। वे कम्पनी की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने लगे। कम्पनी द्वारा बनाये गये कानूनों के कारण भारत से तैयार उत्पाद के स्थान पर कच्चा माल लंका शायर एवं मैनचेस्टर की मिलों को जाने लगा। व्यापार में कमाये गये लाभ एवं बंगाल की दीवानी से अर्जित राजस्व, तेजी से देश के बाहर जाने लगा। 1767 ई. में ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को निर्देश दिये कि वह प्रति वर्ष रानी की सरकार को 4 लाख पौण्ड दे।

जॉन सुलिवन ने भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति एवं उसके प्रभाव को दर्शाते हुए लिखा है- ‘हमारी प्रणाली एक ऐसे स्पंज के रूप में काम करती है, जो गंगा के किनारों से प्रत्येक अच्छी वस्तु ले लेती है और टेम्स के किनारों पर निचोड़ देती है।’

धन के बहिर्गमन का सिद्धांत

भारत से धन के निष्कासन का सिद्धांत सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने 2 मई 1867 को लंदन में ईस्ट इण्डिया एसोसियेशन की बैठक में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा ब्रिटेन अपने शासन की कीमत पर भारत की सम्पदा को छीन रहा है। भारत में वसूल किये गये राजस्व का एक चौथाई भाग भारत से बाहर चला जाता है। भारत का रक्त निरंतर निचोड़ा जा रहा है। महादेव गोविंद रानाडे ने भी 1872 ई. में अपने एक भाषण में कहा- ‘भारत की राष्ट्रीय आय के एक तिहाई हिस्से से अधिक, ब्रिटिश सरकार द्वारा किसी ने किसी रूप में लिया जाता है।’ रमेशचंद्र दत्त ने इकॉनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा है- ‘भारत में हो रही धन की निकासी का उदाहरण आज तक विश्व के किसी भी देश में ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा।’

दादाभाई नौरोजी ने पॉवर्टी एण्ड ब्रिटिश रूल इन इण्डिया नामक शोध ग्रंथ में भारत से धन के बहिर्गमन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत की मुख्य बातें इस प्रकार से हैं-

(1.) धन के बर्हिगमन की राष्ट्रवादी परिभाषा का तात्पर्य भारत से धन-सम्पत्ति एवं माल का इंग्लैण्ड में हस्तान्तरण था जिसके बदले में भारत को इसके समतुल्य कोई भी आर्थिक, वाणिज्यिक या भौतिक प्रतिलाभ प्राप्त नहीं होता था।

(2.) धन बर्हिगमन का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम, ब्रिटिश प्रशासनिक, सैनिक और रेलवे अधिकारियों के वेतन देना, आय व बचत के एक भाग को इंग्लैण्ड भेजना और अँग्रेज अधिकारियों की पेंशन एवं अवकाश भत्तों को इंग्लैण्ड में भुगतान करना था।

(3.) धन का बहिर्गमन भारत की निर्धनता का मुख्य कारण है।

धन निष्कासन की मात्रा एवं स्वरूप

ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत से निकाले गये धन की मात्रा का अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है। विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग आंकड़े दिये हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

(1.) बंगाल प्रांत में प्राप्त होने वाले राजस्व एवं व्यय विवरण के अनुसार कम्पनी ने प्रथम छः वर्षों (1765-1771 ई.) में 1,30,66,991 पौण्ड शुद्ध राजस्व अर्जित किया जिसमें से 90,27,609 पौण्ड खर्च कर दिया। शेष बचे 40,39,152 पौण्ड का सामान इंग्लैण्ड भेज दिया गया।

(2.) विलियम डिग्बी के अनुसार 1757 ई. से 1815 ई. तक भारत से 50 से 100 करोड़ पौण्ड राशि इंग्लैण्ड भेजी गई।

(3.) 1828 ई. में मार्टिन मोंटमुगरी ने इस निर्गम का अनुमान 30 हजार मिलियन पौण्ड (3 करोड़ पौण्ड) प्रतिवर्ष की दर से लगाया।

(4.) जॉर्ज विन्सेट द्वारा 1859 ई. में लगाये गये अनुमान के अनुसार 1834 ई. से 1851 ई. तक भारत से 42,21,611 पौण्ड धन का निष्कासन प्रतिवर्ष हुआ। 

(5.) भारत को कम्पनी के माध्यम से ब्रिटिश ताज को सत्ता हस्तांतरण से सम्बन्धित व्यय, चीन के साथ हुए युद्धों के व्यय, लंदन में इण्डिया ऑफिस के व्यय, भारतीय सेना की रेजीमेण्टों के प्रशिक्षण व्यय, चीन और फारस में इंग्लैण्ड के राजनयिक मिशनों के व्यय, इंग्लैण्ड से भारत तक टेलिग्राफ लाइनों के सम्पूर्ण व्यय आद विविध व्यय चुकाने पड़ते थे। इस कारण भारत पर वर्ष 1850-51 में 5.50 करोड़ रुपये का ऋण चढ़ गया।

(6.) कम्पनी के अनुसार 1857 ई. के विद्रोह को दबाने में 47 करोड़ रुपये व्यय हुए। कम्पनी ने इस राशि को भारत पर कर्ज माना।

(7.) दादा भाई नौरोजी तथा आर. सी. दत्त आदि राष्ट्रवादियों ने 1883 ई. से 1892 ई. तक के दस वर्षों में भारत से इंग्लैण्ड भेजी गई राशि 359 करोड़ पौण्ड बताई है।

(8.) विभिन्न स्थलों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने पर अर्थशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि 1834 से 1924 ई. तक के 90 वर्ष की अवधि में भारत से 394 से 591 मिलियन पौण्ड राशि इंग्लैण्ड भेजी गई।

धन निष्कासन के परिणाम

1765 ई. से 1947 ई. तक भारत से भारी परिमाण में किये गये धन निष्कासन के अत्यन्त बुरे परिणाम हुए।

(1.) 1939-40 ई. में भारत सरकार पर ब्रिटिश सरकार का 1200 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया। आश्चर्य है कि 1850-51 ई. में यह कर्ज केवल 5.50 करोड़ रुपये था।

(2.) कर्ज बढ़ने से भारतीयों पर करों का बोझ बढ़ गया। भारत का यह कर प्रति व्यक्ति आय का 14 प्रतिशत से अधिक था। इससे भारतीयों का जीवन स्तर निरंतर गिरता चला गया।

(3.) देश में दरिद्रता बढ़ने से बार-बार अकाल पड़ने लगे जिनमें हजारों लोग मरने लगे। एक अनुमान के अनुसार इन अकालों में 2.85 करोड़ लोग मरे। 

(4.) भारत की अर्थव्यवस्था, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल गई जिससे देश में गहरा आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया।

(5.) आम भारतीय के मन में अँग्रेजों के शासन से घृणा उत्पन्न हो गई जिससे राष्ट्रीय आंदोलनों को बल मिला।

धन निष्कासन के सम्बन्ध में राष्ट्रवादी नेताओं के विचार

दादाभाई नौरोजी ने धन निष्कासन को समस्त बुराइयों की बुराई (ईविल ऑफ ऑल ईविल्स) बताया है। 1905 ई. में उन्होंने कहा- ‘धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण।’

धन निष्कासन के सम्बन्ध में आर. सी. दत्त ने कहा- ‘भारतीय राजाओं द्वारा कर लेना तो सूर्य द्वारा भूमि से पानी लेने के समान था जो पुनः वर्षा के रूप में भूमि पर उर्वरता देने के लिये वापस आता था, पर अँग्रेजों द्वारा लिया गया कर फिर भारत में वर्षा न करके इंग्लैण्ड में ही वर्षा करता था।’

धन निष्कासन के सम्बन्ध में विदेशी विद्वानों के विचार

लॉर्ड क्लाइव बंगाल को एडन का बगीचा एवं सोने का खजाना कहता था। उसने एडन के इस बगीचे को इंग्लैण्ड-वासियों की तरफ से लूटने का काम आरम्भ किया जिसे देखकर स्वयं अँग्रेज अधिकारियों के दिल दहल उठे। असम के चीफ कमिश्नर चार्ल्स इलियन ने व्यथित होकर लिखा- ‘मैं यह कहने में नहीं हिचकूंगा कि आधे किसान साल भर में कभी यह भी नहीं जानते कि पूरा भोजन किस चिड़िया का नाम है। यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है कि भारत में 10 करोड़ मनुष्यों की प्रति व्यक्ति आय 5 डॉलर वार्षिक से अधिक नहीं है।’

मैकडॉनल्ड ने लिखा है- ‘भारत में तीन करोड़ से लेकर पांच करोड़ तक ऐसे परिवार हैं जिनकी आय साढ़े तीन पैन्स प्रतिदिन से अधिक नहीं है।’

विलियम हण्टर ने 1883 ई. में वायसरॉय की कौंसिल में कहा था- ‘सरकार का लगान किसानों एवं उनके परिवारों के लिये पूरा अन्न भी नहीं छोड़ता। ब्रिटिश साम्राज्य में भारत के किसान के समान हृदय द्रवित करने वाला और कोई मनुष्य नहीं है।’

राष्ट्रीय आय के विशेषज्ञ कोलीन क्लार्क ने विवरण सहित लिखा है- ‘1924-25 ई. के समय संसार में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय, भारतीय की आय से पांच गुना अधिक थी।’

इस प्रकार 20वीं सदी के अंत में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का ज्ञान होने पर भी एक भारतीय की औसत आयु 32 वर्ष थी जबकि पश्चिमी यूरोप के एक व्यक्ति की औसत आयु 60 वर्ष थी। पौष्टिक आहार के अभाव में भारतीय शीघ्र बीमार हो जाते थे और उपचार के अभाव में 32 वर्ष की औसत आयु में ही मर जाते थे।

अध्याय – 22 : ब्रिटिश शासन में कुटीर उद्योगों का पतन

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अँग्रेजों के आगमन के समय भारतीय कुटीर उद्योग

अँग्रेजों के भारत आगमन के समय भारतीय कुटीर उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ की गुणवत्ता विश्वभर में प्रसिद्ध थी। भारत में सूत कातना और बुनना, प्राचीन काल से ही एक घरेलू व्यवसाय था। भारत शताब्दियों से सुन्दर और महीन सूती कपड़ों के लिये सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध था। कपड़ा देश के निर्यात की सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु थी। इसके उत्पादन के मुख्य केन्द सम्पूर्ण भारत में फैले हुए थे। ढाका की मलमल पूरे विश्व में मंगवाई जाती थी।

ब्रिटिश अधिकारियों का मानना था कि जिस समय आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के जन्म स्थान पश्चिमी यूरोप में असभ्य जातियां निवास करती थीं, उस समय भारत अपने शासकों के वैभव और शिल्पकारों की उच्च कोटि की कलात्मक कारीगरी के लिये विख्यात था। काफी समय बाद भी जब पश्चिम के साहसी सौदागर पहली बार भारत पहुंचे, तब भी इस देश का आद्यौगिक विकास किसी भी कीमत पर विकसित यूरोप के देशों से कम नहीं था।

1616 ई. से 1619 ई. के समय का वर्णन करते हुए टेरी ने लिखा है- ‘रंग और छापे का काम भी भारत में इस समय श्रेष्ठ था। पक्के रंगों का प्रयोग किया जाता था और सुन्दर चित्र और बेल-बूटे बनाये जाते थे। यद्यपि सूती कपड़े की तुलना में रेशमी कपड़े की बुनाई का काम कम होता था। फिर भी यह एक महत्त्वपूर्ण हस्तकला उद्योग था।’

मुगल काल में कालीन एवं शॉल उद्योग, काष्ठ उद्योग, चमड़ा उद्योग, स्वर्ण उद्योग, चीनी उद्योग, हाथी-दाँत उद्योग भी विश्व भर में प्रसिद्ध हो गये थे। इस प्रकार, अँग्रेजों के आने से पहले 17वीं और 18वीं शताब्दी में भारत; विश्व का एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र था। 17वीं शताब्दी के मध्य में बर्नियर नामक फ्रांसीसी यात्री ने लिखा- ‘भारतवर्ष को छोड़कर कोई भी देश ऐसा नहीं था जहाँ इतनी विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ पाई जाती हों।’

बर्नियर एक बहुत बड़े कमरे (हॉल) का विवरण देता है जिसे वह कारखाने के नाम से पुकारता है। वह लिखता है- ‘एक बड़े कमरे में निपुण कार्यकर्त्ता के निरीक्षण में कढ़ाई करने वाले व्यस्त हैं, दूसरे में सुनार, तीसरे में चित्रकार, चौथे में लैकर (वार्निश करने वाले), पाँचवे में बढ़ई, खरादी, दर्जी तथा मोची, छठे में रेशम, जरी और बारीक मलमल के उत्पादक। शिल्पी प्रतिदिन प्रातःकाल कारखाने में काम के लिये आते हैं, दिन भर व्यस्त रहते हैं और शाम को घर लौट जाते हैं।’

विदेशी यात्रियों के यात्रा-वर्णन से एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की पुष्टि होती है कि 18वीं सदी तक भारत के कुटीर उद्योग उन्नत अवस्था में थे और भारत की आर्थिक स्थिति अन्य देशों की तुलना में अच्छी थी।

भारतीय उद्योगों का वर्गीकरण

डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने अँग्रेजों के भारत में आने से पहले के भारतीय उद्योगों को इस प्रकार वर्गीकृत किया है-

(1.) घरेलू आवश्यकता पूर्ति हेतु ग्रामीण उद्योग: ये उद्योग खेती के अवकाश काल में चलते थे तथा घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इनमें स्थानीय सामग्री यथा- सरकंडे, घास, बाँस, मिट्टी, ऊन, सूत आदि का प्रयोग होता था।

(2.) कृषि उपकरण आधारित ग्रामीण उद्योग: ये उद्योग कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाली सामग्री बनाते थे। गाँव के आत्मनिर्भर समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये लुहार, बढ़ई, कुम्हार आदि बराबर काम में लगे रहते थे।

(3.) कलात्मक ग्रामीण उद्योग: गाँव के कलात्मक उद्योग जो कि उच्च कोटि की ग्रामीण कला के प्रतीक थे और जिनकी समुद्र पार के देशों में भी माँग थी।

(4.) नगरीय उद्योग: इनका संगठन अत्यंत उच्चकोटि का था। इनमें से कुछ उद्योग आज के औद्योगिक विश्व में भी जीवित हैं, जैसे- कश्मीरी शॉल उद्योग, उत्तरी भारत का फलकारी उद्योग आदि।

ग्रामीण उद्योगों की विशेषताएँ

(1.) कच्चे माल की उपलब्धता: ग्रामीण उद्योगों की विशेषता यह थी कि ग्रामीण कारीगर, गाँव से ही अपने शिल्प के लिये आवश्यक कच्चे माल (जैसे लकड़ी, मिट्टी, चमड़ा, कपड़ा आदि) का प्रबन्ध कर लेता था। जंगलों से लकड़ी मिल जाती थी, मृत पशुओं पर से मोची अपने काम के लिये चमड़ा प्राप्त करता था। देश के प्रायः प्रत्येक भाग में कपास की खेती होती थी। लोहा तथा अन्य धातुएं ही ऐसी होती थीं जो नगरीय बाजारों से क्रय करनी पड़ती थीं। इस प्रकार उद्योग के लिये आवश्यक कच्चे माल के लिये गाँव लगभग आत्म-निर्भर थे।

(2.) तैयार माल की खपत: गाँव में जो चीजें बनती थीं उनमें से अधिकांश की खपत गाँव में ही हो जाती थी। इसका कारण यह था कि हस्तशिल्पी पूरे गाँव का या कुछ विशेष परिवारों का सेवक होता था। इसलिये उसे अपना माल बेचने के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी जो माल बच जाता था, वह विभिन्न गाँवों में लगने वाले साप्ताहिक मेलों में बेचा जाता था।

(3.) मूलभूत आवश्यकताओं की सामग्री का निर्माण: ग्रामीण उद्योग केवल मनुष्य की मूल आवश्यकताओं तक सीमित थे। गाँव में विलासिता की वस्तुएँ उत्पादन करने वाला उद्योग नहीं के बराबर था।

(4.) वस्तु-विनिमय आधारित विपणन: गाँव में उत्पादित वस्तुओं का विनिमय गाँव की प्रजा तक सीमित था। आवश्यकता पड़ने पर किसान दस्तकार से सामान या सेवा लेता था किन्तु वह दस्तकार को हर बार भुगतान नहीं करता था। दस्तकार का भुगतान समस्त गांव की सम्मिलित जिम्मेदारी होती थी। कारीगर को गांव की ओर से गाँव की जमीन का कुछ अंश स्थायी तौर पर जोतने के लिये मिला रहता था या फसल कटने पर उसे अनाज की निश्चित मात्रा दी जाती थी।

नगरीय उद्योगों की विशेषताएँ

ग्रामीण उद्योग के साथ-साथ नगरीय उद्योग भी विद्यमान थे। ग्रामीण उद्योगों द्वारा जहाँ गाँव की सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी, वहीं नगरीय उद्योग, कुलीन सामंत वर्ग एवं धनी व्यापारी वर्ग के उपयोग तथा विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन करते थे। नगरीय उद्योगों को मूलतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1.) नगरों के समस्त उद्योगों का बहुत बड़ा हिस्सा भारत और विदेशों के कुलीन और सम्पन्न लोगों के लिये विलासिता एवं अर्द्ध-विलासिता की सामग्री का उत्पादन करता था।

(2.) वे उद्योग जो राज्य या सार्वजनिक संस्थाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।

(3.) वे उद्योग जिनमें लोहा गलाने, कलमी शोरा तैयार करने या चूड़ी बनाने जैसे काम किये जाते थे।

नगरीय उद्योगों का बाजार अत्यंत सीमित था क्योंकि इन उद्योगों में केवल सामंत, कुलीन एवं धनी व्यक्तियों तथा निर्यात के लिये जाने वाली वस्तुओं का निर्माण होता था। नगरीय उद्योग में काम करने वाले दो प्रकार के व्यक्ति थे-

(1.) स्वतंत्र रूप से काम करने वाले।

(2.) राज्य या व्यापारिक प्रतिष्ठान के कारखानों में नौकरी करने वाले।

बड़े नगरों में प्रत्येक उद्योग एक संघ (श्रेणी) में संगठित था। प्रत्येक उद्योग का एक मुखिया होता था। वह श्रम तथा उत्पादन का मूल्य निर्धारित करता था तथा विवादों का निपटारा करता था। अनुभवी शिल्पकार नये शिल्पकारों को प्रशिक्षण देते थे। उद्योग एक वंशानुगत व्यवसाय था और शिल्पकार एक विशेष जाति का सदस्य होता था। इसलिये शिल्प-संघ जातीय सत्ता से नियंत्रित होते थे।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कठिनाइयाँ

ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक संस्था थी जिसका मूल उद्देश्य भारत के माल और उत्पादनों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करके लाभ अर्जित करना था। कम्पनी को भारतीय उद्योगों के साथ काम करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा-

(1.) कम्पनी भारत में तैयार माल के बदले में सोने-चांदी के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे सकती थी क्योंकि ब्रिटेन में ऐसा कुछ भी नहीं बनता था या पैदा होता था जिसे भारतीय सामग्री के बदले में दिया जा सके।

(2.) भारतीय कपड़े को इंग्लैण्ड में ले जाकर बेचने से कम्पनी को तो बड़ा लाभ हुआ किंतु इंग्लैण्ड के कपड़ा उद्योग के लिये संकट उत्पन्न हो गया। रॉबिन्सन क्रूसो नामक उपन्यास के लेखक डैफी ने लिखा है- ‘भारतीय कपड़ा हमारे घरों, अलमारियों और सोने के कमरों में घुस गया है। परदे, गद्दे, कुर्सियों और बिस्तर के रूप में और कुछ नहीं, अपितु केलिको या भारतीय सामान है।’

(3.) 1688 ई. में जब इंग्लैण्ड में फ्रांस से होने वाले आयात पर रोक लगा दी गई तो कम्पनी द्वारा भारत से किये जाने वाले आयात में भारतीय सूती कपड़े का स्थान सबसे ऊपर हो गया। सूती कपड़े के आयात में वृद्धि होने से इंग्लैण्ड में कम्पनी के विरुद्ध विरोध भड़क उठा। यह विरोध दो कारणों से हुआ- (अ.) भारत से किये जाने वाले व्यापार के कारण इंग्लैण्ड का सोना-चांदी भारत जा रहे थे। (ब.) इंग्लैण्ड के नवोदित रेशमी वस्त्र उद्योग के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया था। इस कारण 1700 ई. में एक कानून बनाया गया कि फ्रांस, चीन या ईस्टइंडीज में बने रेशम, बंगाल के रेशम या रेशमी कपड़े अथवा उक्त देशों में छपे या रंगे गये कपड़े ब्रिटिश शासन के क्षेत्र में न तो पहने जा सकेंगे और न किसी अन्य प्रकार से काम में लाये जायेंगे। इस प्रतिबंध के उपरांत भी इंग्लैण्ड में भारत के सूती कपड़े का आयात बन्द नहीं हो सका। 1702 ई. में सादे सूती कपडे़ पर भारी आयात शुल्क लगाया गया। इसके उपरांत भी इंग्लैण्ड में भारतीय सूती कपड़े का आयात बढ़ता ही गया। भारतीय कपड़े की श्रेष्ठता के कारण 1750 ई. के बाद भी भारत से उल्लेखनीय मात्रा में सूती कपड़ा मंगाया गया। यह इस तथ्य के बावजूद था कि भारतीय कपड़ा प्रयुक्त करने वालों पर इंग्लैण्ड में जुर्माना लगाया जाता था। 1760 ई. में एक अँग्रेजी महिला पर 200 पौण्ड का जुर्माना केवल इसलिये लगाया गया कि उसके पास एक विदेशी रूमाल था।

भारतीय कुटीर उद्योगों के विनाश के कारण

(1.) मुगल सत्ता के विघटन से उत्पन्न स्थिति

औरंगजेब के जीवनकाल में ही मुगलों की केन्द्रीय सत्ता शिथिल होने लगी तथा 1707 ई. में उसकी मृत्यु के बाद तेजी से पतन की ओर अग्रसर हो गई। विभिन्न प्रान्तों के सूबेदार केन्द्रीय सत्ता के नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करने लगे। दक्षिण की मराठा शक्ति, उत्तरी भारत में भी आ धमकी और मुगलों की संरक्षक बन गई। नादिरशाह (1739 ई.) और अहमदशाह अब्दाली (1761 ई.) के आक्रमणों ने देश की स्थिति को अत्यधिक शोचनीय बना दिया। अशान्ति और अराजकता की इस स्थिति में कुटीर-उद्योगों का ह्रास हुआ। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उन पर चोट की तो वे भरभरा कर गिरने लगे।

(2.) देशी राज्यों का विनाश

भारतीय रियासतों के शासक परम्परागत भारतीय कुटीर-उद्योगों के संरक्षक थे। वे कुशल शिल्पियों एवं कारीगरों को निरन्तर सहायता एवं संरक्षण देकर प्रोत्साहित करते थे। उनके महलों एवं दरबारों की साज-सज्जा के लिये श्रेष्ठ कलात्मक वस्तुओं की माँग बनी रहती थी। भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद देशी राज्यों का अन्त होने लगा और कम्पनी की शासन व्यवस्था स्थापित होने लगी। देशी राज्यों की समाप्ति से नगरीय परम्परागत हस्तकलाओं एवं उउद्योगों पर विपरीत प्रभाव पड़ा। राज्यों के समाप्त हो जाने से हास्तकला सामग्री की माँग घट गई जिससे श्रेष्ठ कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन कम हो गया तथा बड़ी संख्या में शिल्पी बेरोजगार हो गये।

(3.) ईस्ट इण्डिया कम्पनी की दमनकारी नीतियाँ

अँग्रेजों ने भारत से आयात-निर्यात के व्यापार में अपना पक्ष मजबूत रखने के लिए न्यूनतम मूल्य पर अधिक-से-अधिक माल खरीदने और इस कार्य में सैनिक बल का प्रयोग करने की नीति बनाई। कम्पनी के अधिकारी तथा उनके प्रतिनिधि भारतीय जुलाहों को एक निश्चित समय में निश्चित प्रकार का कपड़ा तैयार करने के लिये विवश करते थे और फिर अपनी इच्छानुसार काफी कम मूल्य चुकाते थे। आना-कानी करने वाले जुलाहों के अँगूठे काट दिये जाते थे। इस कारण वस्त्र उद्योग में लगे हुए हजारों परिवार बंगाल छोड़कर भाग गये। यही स्थिति अन्य उद्योगों के कारीगरों तथा श्रमिकों की हुई। 1762 ई. में बंगाल के नवाब ने कम्पनी के अधिकारियों से कम्पनी के एजेन्टों की शिकायत की- ‘कम्पनी के एजेंट रैयतों, किसानों, व्यापारियों, आदि से जबरदस्ती एक चौथाई कीमत देकर उनके माल और उत्पादन हड़प रहे हैं और किसानों आदि को मार-पीटकर तथा उनका दमन करके अपनी एक रुपये की चीज पाँच रुपये में बेच रहे है।’

ऐसी परिस्थितियों में भारतीय कारीगरों के लिये काम करना असम्भव हो गया। भारतीय माल खरीदने और भारत में कम्पनी की पूँजी लगाने का तरीका ऐसा रखा गया कि हर बार गरीब बुनकर या कारीगर के साथ धोखा होता था। सर विलियम बोल्ट्स ने लिखा है- ‘आमतौर पर बुनकर की सहमति आवश्यक नहीं समझी जाती क्योंकि कम्पनी की ओर से नियुक्त गुमाश्ते उनसे जो चाहते हैं, हस्ताक्षर करा लेते हैं। जितने रुपये उन्हें दिये जाते हैं उतने लेने से इन्कार करने पर वे रुपये उनकी कमरबन्द में बाँध दिये जाते हैं और कोड़ों से मार-पीटकर उन्हें भगा दिया जाता है।’ कम्पनी और उसके कर्मचारियों द्वारा अपनाये गये तौर-तरीकों का भारतीय कुटीर उद्योगों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ना अनिवार्य था।

(4.) इंग्लैण्ड के अन्य व्यापारियों का भारत में प्रवेश

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इंग्लैण्ड का युवा वर्ग भारत में मची लूट में अपनी हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिये मचल उठा। इसलिये 1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त करके निजी व्यापारियों को भारत में व्यापार करने की छूट दे दी गई। इससे इंग्लैण्ड के बहुत से व्यापारिक संस्थान अपना-अपना माल लेकर भारत आ गये। उनके आने से भारत में आर्थिक शोषण का नया दौर आरम्भ हुआ। 1813 ई. के पूर्व भारत का महत्त्व लूटपाट तथा कर एवं नजराने प्राप्त करने के साधन के रूप में था जबकि 1813 ई. के बाद भारत का महत्त्व, इस दृष्टि से हो गया कि इंग्लैण्ड की मशीनों द्वारा तैयार किया गया माल भारत में किस प्रकार खपाया जाये और इंग्लैण्ड की मशीनों के लिये कच्चा माल भारत से इंग्लैण्ड किस तरह लाया जाये।

(5.) औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव

1769 ई. में जेम्स वाट ने भाप की शक्ति का आविष्कार किया। उसके बाद इंग्लैण्ड में मशीनीकरण एवं औद्योगिकीकरण का काम हुआ।  18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत की लूट से जो कुछ अर्जित किया गया, उसी से आधुनिक इंग्लैण्ड का निर्माण हुआ तथा इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति सम्पन्न हुई। भारत से लूटे गये कच्चे माल से इंग्लैण्ड की मशीनों पर बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। अँग्रेजी कारखानों में बने हुए माल के लिये बाजार ढूंढने का काम आरम्भ हुआ। इन उत्पादों ने भारतीय माल को पहले तो विदेशी बाजारों से और फिर भारतीय बाजारों से खदेड़ना आरम्भ कर दिया। भारत के परम्परागत कुटीर-उद्योग, इंग्लैण्ड की मशीनों पर उत्पादित अच्छे माल से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके, विशेषकर उस स्थिति में जब उनसे राज्याश्रय छिन गया था। भारत में पुराने इजारेदारों की जगह स्वतंत्र बाजार का निर्माण किया गया। भारत जो सूती कपड़े का निर्यातक देश था, सूती कपड़े का आयातक बन गया।

(6.) भारतीय माल पर निषेधात्मक शुल्क

इंग्लैण्ड में मशीनों से सूती कपड़ा बनने पर भी वह भारतीय कपड़े की तुलना में महँगा था। इसलिये ब्रिटिश सरकार ने एक ओर तो भारतीय माल के आयात पर इतना अधिक शुल्क लगा दिया कि उसका आयात ही न हो सके और दूसरी ओर अपने माल पर किसी तरह का शुल्क चुकाये बिना, भारत पर अपना माल लाद दिया। साथ ही उत्पीड़न और अन्याय के द्वारा भारतीय मंडियों में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

(7.) कठोर कानूनों के द्वारा कच्चे माल की लूट

1814 ई. के बाद ब्रिटिश सरकार ने ऐसे कानूनों का निर्माण किया जिनके सहारे भारत से कच्चे माल का सुगमता पूर्वक निर्यात किया जा सके और तैयार माल को भारत में बेचा जा सके। लगातार पड़ रहे अकालों के कारण लाखों भारतीय भूखे मर रहे थे किंतु भारत का अनाज बाहर भेजा जा रहा था। देश के भीतर चुंगी और सीमा-शुल्क बढ़ा दिये गये ताकि भारतीय व्यापारी व्यापार न कर सकें। 1835 ई. में भारतीय रुई पर 15 प्रतिशत चुंगी तथा सूती कपड़े पर 25 प्रतिशत चुंगी निर्धारित की गई ताकि भारतीय उत्पादक, कपड़े के स्थान पर रुई का ही निर्यात करें। ब्रिटिश अधिकारी ट्रेवेलियन ने लिखा है- ‘व्यक्तिगत और घरेलू उपयोग की 235 से भी अधिक वस्तुओं पर अन्तर्देशीय कर लगाये गये थे।’

(8.) पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव

भारत के कुटीर-उद्योगों के पतन में पाश्चात्य सभ्यता और शिक्षा ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पश्चिमी शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरियों में लगे भारतीय, विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षित हुए। घरों में सजावट के लिये स्वदेशी कलात्मक वस्तुओं के स्थान पर पाश्चात्य सामग्री का उपयोग होने लगा। विदेशी वस्तुओं का उपयोग समाज में गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। शासक, सामन्त, सरकारी कर्मचारी, नवयुवा वर्ग, विदेशी वस्तुओं के उपयोग में एक-दूसरे से होड़ करने लगे थे। ऐसी स्थिति में स्वदेशी वस्तुओं- विशेषकर साज-सज्जा की कलात्मक वस्तुओं एवं सूती वस्त्रों की माँग में कमी आने लगी और कुटीर-उद्योगों का पतन होने लगा।

(9.) भारतीय कागज पर रोक

भारतीय नगरों के बाहर प्रायः एक छोटा उपनगर होता था जहाँ कागज बनता था। ब्रिटिश शासकों ने भारतीय कार्यालयों में ब्रिटेन में बने कागज का उपयोग करना अनिवार्य कर दिया। इससे भारत के कागज उद्योग को भारी क्षति पहुँची। आज भी भारत के बहुत से नगरों में कागज मौहल्ला के नाम से स्थान मिलते हैं।

(10.) भारतीय जहाजरानी के प्रयोग पर रोक

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इंग्लैण्ड एवं भारत के बीच होने वाले व्यापार के लिये केवल ब्रिटिश जहाजों का उपयोग किया। इससे भारतीय नौ-परिवहन उद्योग पर संकट खड़ा हो गया।

(11.) अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पर रोक

भारत के उत्तर-पश्चिम में कच्छ, सिन्ध और पंजाब प्रांतों में ढाल, तलवार और अन्य हथियारों का खूबसूरत काम होता था किन्तु ब्रिटिश शासन ने इस काम को पूरी तरह समाप्त कर दिया। अँग्रेजी शासन ने हथियारों से लैस रहने और उनके उपयोग की आवश्यकताओं को समाप्त कर दिया और उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस कारण ये उद्योग भी नष्ट हो गये।

(12.) रेल का निर्माण

ब्रिटिश सरकार ने भारत में रेलों का निर्माण इस उद्देश्य से किया कि वह ब्रिटेन के उद्योगों को कच्चे माल और बाजार सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। 19वीं शताब्दी में भारत में रेलों का जाल बिछ गया। इससे ग्रामीण हस्तशिल्प वैश्विक प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गया। साथ ही भारतीय हस्त-शिल्पियों का पारम्परिक ग्रामीण समुदाय के साथ सम्बन्ध शिथिल होने लगा। क्योंकि अब सात समंदर पार से आने वाली सस्ती मशीनी चीजें गाँव में भी उपलब्ध होने लगीं। यातायात के सुगम साधनों से गाँव के लोग शहर जाने लगे जिससे ग्रामीण समुदाय टूटने लगे। सस्ते यूरोपीय सूती कपड़े और बर्तनों के अत्यधिक आयात से ग्रामीण हस्तकला उद्योग नष्ट हो गये।

(13.) अकालों का दुष्प्रभाव

ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद बार-बार पड़ने वाले अकालों ने भी कुटीर-उद्योगों के पतन में योगदान दिया। अकालों के परिणामस्वरूप लाखों लोग मारे गये जिनमें कारीगर और शिल्पी भी थे। इसके अलावा जो लोग बच गये थे, उनकी स्थिति भी शोचनीय हो गई थी। जुलाहे, धोबी, कुम्हार, लुहार, बढ़ई आदि शिल्पकार बेकारी और भुखमरी से पीड़ित हो गये और उनके व्यवसाय चौपट हो गये।

(14.) गिल्ड पद्धति का नाश

जब तक भारतीय शहरी उद्योगों में गिल्ड पद्धति बनी रही, कुटीर-उद्योगों में अनुशासन बना रहा। गिल्ड पद्धति के नष्ट होने से कारीगरों एवं उनके द्वारा निर्मित्त वस्तुओं पर निगरानी रखने वाला कोई संगठन न रहा। इससे कुटीर-उद्योगों को भारी धक्का लगा।

(15.) प्रशिक्षण का अभाव

भारतीय कारीगरों को औद्योगिक कौशल देने के लिये जिस प्रशिक्षण की आवश्यकता थी, उसका नितांत अभाव रहा। प्रशिक्षण के अभाव में वे उत्तम कोटि की वस्तुएँ बनाने में असफल रहे जिससे उनके उत्पादों की माँग घट गई और परम्परागत उद्योग बन्द हो गये। इस प्रकार, उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भारत के कुटीर-उद्योग धीरे-धीरे समाप्त प्रायः हो गये किन्तु वे पूर्णतः विनष्ट नहीं हो सके, उनमें से कुछ तो आज भी जीवित हैं।

कुटीर उद्योगों के पतन का प्रभाव

(1.) अर्थव्यवस्था पर घातक प्रहार

कुटीर-उद्योग भारतीय आर्थिक समृद्धि के आधार थे। उनके पतन से भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई और भारत की प्रगति एवं समृद्धि का मार्ग अवरुद्ध हो गया। मध्य-युग में भारत की गणना समृद्ध देशों में की जाती थी परन्तु ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद भारत निर्धन देश बन गया।

(2.) शिल्पियों की बेरोजगारी

रेशमी कपड़ा, ऊनी कपड़ा, लोहा, बर्तन, कागज व अन्य विविध प्रकर के हस्त शिल्प उद्योगों के बर्बाद हो जाने से बड़ी संख्या में हस्त-शिल्पी बेरोजगार हो गये। उनमें से बहुतों ने शहरों से गांवों की ओर पलायन करके खेती करना आरम्भ कर दिया। जिन शिल्पियों के पास थोड़ा-बहुत पैसा था, वे भूमि खरीदकर स्वतंत्र किसान बन गये। कुछ शिल्पियों ने नव विकसित उद्योगों में रोजगार ढूँढने का प्रयास किया।

(3.) व्यापार संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव

 अँग्रेजों के आगमन से पहले, भारत का विदेशी व्यापार भारत के अनुकूल था। भारतीय कुटीर-उद्योगों के उत्पादों का भारी मात्रा में निर्यात होता था और आयात काफी कम होता था जिससे भारत में समृद्धि बढ़ती रही। ब्रिटिश शासनकाल में कुटीर-उद्योगों के विनाश से भारतीय निर्यात को भारी धक्का लगा। निर्यात की अपेक्षा आयात की मात्रा अधिक हो गई। व्यापार संतुलन के प्रतिकूल होने से भारत से पूंजी का निकास होने लगा तथा भारत, औद्योगिक देश से खेतिहर देश बन गया। भारत की अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई।

(4.) खेती पर निर्भरता में वृद्धि

कुटीर उद्योगों के पतन के कारण बहुत-से कारीगर और शिल्पी बेकार हो गये। उनमें से अधिकांश ने कृषि को जीविकोपार्जन का साधन बनाया। इस कारण कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या बढ़ गई तथा भूमि का विभाजन और उपविभाजन आरम्भ हुआ। इससे भूमि की उत्पादन क्षमता और खेती में लगे लोगों की बीच संतुलन बिगड़ गया और उत्पादन में भारी गिरावट आ गई।

(5.) कला-कौशल को क्षति

भारत के शिल्पकार कलात्मक वस्तुएँ बनाने में निपुण थे और उनके द्वारा निर्मित कलाकृतियों का विश्व के अनेक देशों को भारी मात्रा में निर्यात होता था परन्तु कुटीर-उद्योगों के पतन के कारण भारत के कला-कौशल को अपूर्णनीय क्षति पहुँची। कलात्मक वस्तुओं की माँग घट गई और कलात्मक वस्तुएँ बनाने वाले शिल्पकारों को जीविकोपार्जन के लिये दूसरे साधन तलाश करने पड़े।

निष्कर्ष

इस प्रकार, कुटीर-उद्योगों के विनाश से देश की अर्थ-व्यवस्था को गहरा धक्का लगा। भारतीय अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई और वह ब्रिटिश अर्थव्यवस्था पर आश्रित हो गई। ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के पहले भारत एक औद्योगिक देश था, वह खेतिहर देश बन गया। कुटीर-उद्योगों के पतन से देश में बेरोजगारी और भूखमरी बढ़ी। लोगों की क्रय शक्ति घट गई और वे अपने परम्परागत व्यवसायों से हाथ धो बैठे। अब वे शिल्पकार से श्रमिक या भूमिहीन कृषक बन गये।

आधुनिक उद्योगों का विकास

19वीं सदी के अंतिम वर्षों में कुछ राष्ट्रवादी भारतीयों ने भारतीय उद्योगों को आधुनिक बनाने का प्रयास किया। कपड़ा, जूट, लोहा, कागज, चमड़ा, आदि उद्योग संगठित किये गये। भारत में प्रथम कपड़ा मिल 1853 ई. में कावसजी नाना भाई ने बम्बई में आरम्भ की। प्रथम जूट मिल 1855 ई. में रिसरा (बंगाल) में स्थापित हुई। 1879 ई. में भारत में  सूती कपड़े के 56 कारखाने थे जिनमें 43 हजार लोग काम करते थे। 1822 ई. में बंगाल एवं अन्य स्थानों पर 20 जूट मिलें थीं जिनमें 20 हजार लोग काम करते थे। 1905 ई. तक देश में 206 सूती मिलें हो गईं जिनमें 96 हजार लोग काम करते थे। 1901 ई. में देश में 36 जूट मिलें थीं जिनमें 1,15,000 लोग काम करते थे। 1845 ई. में कोयला खानों में काम आरम्भ हुआ। इस उद्योग में 1906 ई. में एक लाख लोगों को काम मिला हुआ था। सूती कपड़े की मिलें बम्बई, नागपुर, अहमदाबाद एवं शोलापुर में थीं। 1914 ई. में देश में कपड़े की 246 मिलें और जूट की 64 मिलें थीं।

भारत में इस्पात का पहला कारखाना 1913 ई. में टाटानगर में लगा। 19वीं सदी में नील, चाय, कॉफी बागानों का विस्तार हुआ और इन पर आधारित उद्योग लगे। नील का प्रयोग सूती कपड़ा रंगने में होता था। बंगाल, बिहार तथा (संयुक्त प्रदेश) उत्तर प्रदेश में इस उद्योग का विकास हुआ। इस उद्योग पर अँग्रेज अधिकारियों का एकाधिकार था जिन्हें निलहे कहा जाता था। इन्होंने भारतीय किसानों पर अनेक अत्याचार किये। बंगला लेखक दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नील-दर्पण में इन अत्याचारों का सजीव वर्णन किया है। 1850 ई. के बाद असम, बंगाल, दक्षिण भारत और हिमाचल के पहाड़ी भागों पर चाय उद्योग विकसित हुआ। इन पर विदेशी स्वामित्व होने से भारतीयों को कोई लाभ नहीं हुआ। इनके अधिकांश उत्पादन विदेशों में बिकते थे तथा विक्रय से प्राप्त मुद्रा इंग्लैण्ड में काम आती थी। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में चीनी एवं सीमेंट के उद्योग लगने लगे।

अध्याय – 23 : ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत में न्यायिक सुधार

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मुगल कालीन न्याय व्यवस्था का ह्रास

मुगल कालीन न्याय व्यवस्था कुरान के सिद्धांतों पर अवलम्बित थी किंतु उसका दण्ड विधान हिन्दुओं पर भी लागू किया गया था। अकबर के काल में काजी न्याय करते थे तथा मीर अदल का सम्बन्ध ऐसे मामलों से होता था जो दोनों समुदायों की धार्मिक विधि में सम्मिलित नहीं थे। मुगल प्रशासन के उत्तरार्द्ध में भूमि सुपुर्दगी प्रथा से समृद्ध भू-स्वामियों की शक्ति बढ़ने लगी। इससे न्याय व्यवस्था भी कई तरह से प्रभावित हुई। नई स्थिति में न्याय-प्रशासन केवल बड़े शहरों तक ही सीमित रह गया, जहाँ गवर्नरों की शक्ति अधिक थी। अन्य क्षेत्रों में न्याय से सम्बन्धित अधिकारियों के स्थान जमींदारों, धनी किसानों और लगान अधिकारियों ने प्राप्त कर लिये। दीवानी और फौजदारी अदालतों पर जमींदारों का अधिकार स्थापित हो गया। इस प्रकार 1757 ई. में प्लासी के युद्ध के पहले ही न्याय प्रबन्ध बिगड़ता जा रहा था, जो कम्पनी के शासन के आरम्भिक वर्षों में और अधिक बिगड़ गया।

बंगाल में द्वैध शासन के अंतर्गत न्याय व्यवस्था

बक्सर के युद्ध के बाद 1765 ई. में कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी के अधिकार प्राप्त हुए। दीवानी का तात्पर्य था कि कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लगान वसूल करे और दीवानी मुकदमों का फैसला करे। निजामत (सैनिक शक्ति और फौजदारी मुकदमों का अधिकार) नवाब ने पहले ही कम्पनी को दे दिया था। लॉर्ड क्लाईव इतनी सारी जिम्मेदारी कम्पनी पर नहीं डालना चाहता था, क्योंकि वह जानता था कि कम्पनी इतनी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पायेगी। इसीलिए क्लाइव ने वैदेशिक सम्बन्ध, सैनिक शक्ति तथा राजस्व प्राप्त करने के अधिकार कम्पनी के पास रखे किन्तु न्याय व्यवस्था भारतीयों के जिम्में छोड़ दी। इस कार्य के लिए बंगाल और बिहार में दो नायब दीवान नियुक्त किये गये। इस प्रकार कम्पनी इन क्षेत्रों में शासक तो थी, किन्तु अपने शासन के लिए उत्तरदायी नहीं थी। यह व्यवस्था वारेन हेस्टिंग्ज की नियुक्ति तक चलती रही।

वारेन हेस्टिंग्ज के पहले न्याय-प्रबन्ध में जो भी परिवर्तन किये गये वे केवल लगान बढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित थे। 1769 ई. में कम्पनी की सलेक्ट कमेटी ने यूरोपीय पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की जिनका कार्य न्याय प्रणाली पर नियंत्रण रखना था, क्योंकि लगान अधिकारियों और जमींदारों द्वारा न्यायिक अधिकारों का मनमाने ढंग से प्रयोग किया जा रहा था और न्याय अधिकारियों के पद वंशानुगत हो जाने से लोगों को न्याय मिलने की संभावना कम होती जा रही थी। दूसरी ओर राजस्व के मामलों में न्याय प्रदान करने के उद्देश्य से कम्पनी ने दो राजस्व नियंत्रक कौंसिलें, मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित कीं। ये अपील के मुकदमों में उच्च न्यायालय के समान थीं किन्तु उनके कार्य करने का ढंग वैसा ही मनमाना और अनियमित था जैसा कि लगान अधिकारियों और जमींदारों का था। एक ओर मुगल न्याय व्यवस्था बिगड़ रही थी और दूसरी ओर कम्पनी की न्याय व्यवस्था विकसित नहीं हो पा रही थी। कम्पनी की सलेक्ट कमेटी और प्रेसीडेन्ट एवं कौंसिल के बीच लगातार होने वाले झगड़ों, मराठा और मैसूर के युद्धों और बंगाल के भयंकर अकालों के कारण कम्पनी सरकार न्याय-प्रबन्ध की ओर ध्यान नहीं दे सकी।

हेस्टिंग्ज द्वारा किये गये उपाय

न्याय-व्यवस्था में सुधार लाने की दृष्टि से वारेन हेस्टिंग्ज का काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। भारत में ब्रिटिश न्याय प्रणाली की स्थापना इसी काल में हुई। कानून का शासन तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता इस प्रणाली की विशेषताएँ थीं। कानून के शासन से अभिप्राय था- निरंकुश शक्ति के स्थान पर नियंत्रित और निश्चित विधि की सर्वोच्चता एवं प्रधानता तथा कानून के समक्ष समस्त व्यक्तियों और वर्गों की बराबरी। स्वतंत्र न्याय व्यवस्था का अर्थ था- न्याय व्यवस्था में कार्यपालिका का हस्तक्षेप न होना तथा न्यायाधीशों की सुरक्षा। ये विचार इंग्लैण्ड में 18वीं शताब्दी में संविधान का अंग बन चुके थे। भारत में ये सिद्धान्त लागू होते ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अनेक विवाद उठ खड़े हुए। सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना से ये झगड़े और अधिक बढ़ गये। इन्हें रोकने के लिए विशेष कानून बनाये गये। भारत में उठने वाले विवाद विदेशी शासन के परिणाम थे। ये विवाद मुख्यतः अँग्रेज वकीलों एवं न्यायाधीशों, प्रशासकों और व्यापारियों के बीच थे, जिनमें भारतीयों की भूमिका मूक दर्शक की थी। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए हेस्टिंग्ज ने प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारने का भरसक प्रयत्न किया।

दीवानी अदालतों की स्थापना

क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर कम्पनी ने दीवानी का उत्तरदायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया, जिसमें दीवानी न्याय व्यवस्था भी सम्मिलित थी। उसने मुगल व्यवस्था पर आधारित न्याय प्रणाली को अपनाने का प्रयत्न किया। सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था को पुनर्गठित किया गया तथा प्रत्येक अदालत का कार्यक्षेत्र निर्धारित किया गया। सिविल और फौजदारी मामलों के लिये अलग अदालतें थीं। दस रुपये तक के मामलों में प्रधान या मुखिया निर्णय ले सकता था। प्रत्येक जिले में दीवानी अदालत स्थापित की गई जिसकी अध्यक्षता यूरोपीय कलेक्टर करता था। इनमें 500 रुपयों तक के मामलों पर निर्णय किया जाता था। इस दीवानी अदालत में अलग-अलग प्रकार के मामले आते थे, यथा- सम्पत्ति के विवाद, वंशानुगत अधिकार, विवाह, जाति, कर्ज, हिसाब, किराए, साझेदारी, संविदा आदि से सम्बद्ध झगड़े। दीवानी अदालत के ऊपर कलकत्ता में सदर दीवानी अदालत स्थापित की गई। इन सुधारों के साथ ही हेस्टिंग्ज ने मुर्शिदाबाद और पटना की राजस्व कौंसिलें समाप्त कर दीं। इसके बाद भी न्याय प्रणाली पर लगान विभाग का प्रभाव बना रहा। 1774 ई. के बाद यह प्रभाव और अधिक बढ़ गया। जब कलेक्टरों को वापिस बुलाने के बाद छः प्रान्तीय कौंसिलें बनाई गईं तो न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार बढ़ गया।

फौजदारी अदालतों की स्थापना

कम्पनी फौजदारी मामलों में हस्तक्षेप करना नहीं चाहती थीं, क्योंकि इस क्षेत्र में उत्तरदायित्व अधिक था और आय नहीं थी। इसलिए यह क्षेत्र भारतीय अधिकारियों- मुहम्मद रजा खाँ और सिताबराय पर छोड़ दिया गया। इस क्षेत्र में हस्तक्षेप केवल अराजकता रोकने और कानून व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से किया जाता था। फौजदारी क्षेत्र में केवल इस्लामी कानून लागू किये गये थे तथा दण्ड भी उन्हीं के आधार पर दिया जाता था। इस व्यवस्था की विरुद्ध अँग्रेज पर्यवेक्षकों को अनेक प्रकार की शिकायतें थीं। अतः हेस्टिंग्ज ने फौजदारी विभाग को सुधारने के उद्देश्य से 1772 ई. में एक नई योजना बनाई। उसने प्रत्येक जिले में फौजदारी अदालत स्थापित की जिसमें काजी, मुफ्ती तथा मौलवी नियुक्त किये गये। सबसे ऊपर सदर निजामत अदालत बनाई गई जिसका संचालन दरोगा-ए-अदालत, प्रधान काजी, प्रधान मुफ्ती तथा तीन मौलवी करते थे। जिला स्तर पर न्याय व्यवस्था, यूरोपीय कलेक्टर द्वारा नियंत्रित थी किन्तु वह स्वयं न्यायालय का सदस्य नहीं था। सदर निजामत अदालत कुछ समय के लिए मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाई गई जिससे उस पर कम्पनी का अधिक नियंत्रण रखा जा सके किन्तु हेस्टिंग्ज ने मुहम्मद रजा खाँ को पुनः नायब नियुक्त किया, जिसने गवर्नर जनरल की अनुमति से फौजदारी अदालतों का पुनर्गठन किया। कुल मिलाकर 23 जिला फौजदारी अदालतें बनाई गईं। बड़े जिलों के प्रमुख नगरों में फौजदारी थाने स्थापित किये गये। फौजदारी अदालतों और थानों के साथ जेलें भी बनाई गईं किन्तु हेस्टिंग्ज का यह प्रयोग भी सफल नहीं माना जा सकता, क्योंकि अदालतों को अपना निर्णय लागू करने के लिए न तो पर्याप्त अधिकार दिये गये और न साधन।

कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना

वारेन हेस्टिंग्ज के काल में रेगुलेटिंग एक्ट द्वारा कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया। इसका कार्यक्षेत्र कलकत्ता नगर के नागरिकों तक सीमित था। इस न्यायालय में बाहर के मामलों की सुनवाई तभी हो सकती थी, जब दोनों पक्ष इसके लिए तैयार हों। कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय में ब्रिटिश कानून लागू होते थे जबकि सदर दीवानी और सदर निजामत में मुस्लिम या हिन्दू कानून लागू होते थे। सदर दीवानी और सदर निजामत न्यायालयों के कार्यक्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय से टकराते थे जिसे सुलझाने के लिए हेस्टिंग्ज ने इम्पे को सदर दीवानी अदालत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जो सर्वोच्च न्यायालय का भी प्रधान न्यायाधीश था। कम्पनी के संचालकों द्वारा आपत्ति करने के कारण 1782 ई. में इम्पे ने त्याग-पत्र दे दिया। इस प्रकार न्याय व्यवस्था में भी द्वैधता चलती रही। हेस्टिंग्ज ने अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में न्याय व्यवस्था में सुधार का एक और प्रयत्न किया। उसने एक न्यायिक योजना प्रस्तुत की तथा उसके द्वारा न्याय और भू-राजस्व के कार्यों को पृथक् करने का प्रयत्न किया किन्तु यह प्रयोग बहुत ही कम समय तक चला। इस काल में हिन्दू विधि संहिता तथा मुस्लिम विधि का अँग्रेजी भाषा में अनुवाद किया गया। 1781 ई. की संहिता द्वारा न्याय व्यवस्था का केन्द्रीयकरण किया गया। इससे पुरानी न्याय प्रणाली की सरलता समाप्त हो गई और पाश्चात्य सिद्धान्तों के प्रभाव से जटिलता बढ़ गई। अब न्याय एवं कानून एक ऐसी विशेष व्यवस्था बन गया जिसका संचालन केवल वकील ही कर सकते थे।

कार्नवालिस के न्यायिक सुधार

सितम्बर 1786 में लॉर्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसने कानूनी विशेषज्ञ सर जॉन विलियम की सहायता से न्यायिक सुधार किये। कार्नवालिस से पहले, दीवानी न्यायाधीश केवल न्यायिक कार्य करते थे, उनका लगान वसूली से कोई सम्बन्ध नहीं था। 1786 ई. मेेें संचालक मण्डल ने आदेश दिया कि मजिस्ट्रेट, कलेक्टर और जज के कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा किये जायें। अतः जून 1787 में कार्नवालिस ने इन तीनों पदों को एक साथ मिला दिया।

राजस्व न्यायालयों की समाप्ति

1793 ई. में भूमि का स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसके साथ ही भू-राजस्व वसूल करने के काम को पुनः न्याय से अलग कर दिया गया। कार्नवालिस की 1793 ई. की योजना द्वारा समस्त राजस्व न्यायालय समाप्त कर दिये गये। कलेक्टरों से न्यायिक अधिकार छीन लिए गये तथा सम्पूर्ण दीवानी न्यायालयों का श्रेणीकरण कर दिया गया।

मुंसिफ अदालतें

नए न्याय प्रबन्ध में 50 रुपये तक के मामलों को मुंसिफ अदालतों में निबटाया जाने लगा। इसके ऊपर रजिस्ट्रार अदालतें थीं जिन्हें 200 रुपये तक के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार था। इनमें यूरोपीय न्यायाधीश नियुक्त किये जाते थे।

जिला अदालतें

रजिस्ट्रार अदालतों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील नगर या जिला अदालतों में होती थी जहाँ यूरोपीय न्यायाधीश, भारतीय अधिकारियों की सहायता से मुकदमों की सुनवाई करते थे।

प्रान्तीय अदालतें

जिला अदालतों के ऊपर कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में चार प्रान्तीय अदालतें बनाई गईं। कुछ मामलों में ये न्यायालय प्रथम अधिकार क्षेत्र का कार्य भी करते थे। यहाँ यूरोपीय न्यायाधीश की अध्यक्षता में 1000 रुपये तक के मामले सुने जाते थे।

सदर दीवानी अदालत

प्रान्तीय अदालतों के ऊपर कलकत्ता में सदर दीवानी अदालत थी जिसमें गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल के सदस्य निर्णय लेते थे। पाँच हजार रुपये से अधिक के मामलों की अपील किंग-इन-कांउसिल के समक्ष की जा सकती थी।

फौजदारी न्यायालायों में सुधार

कार्नवालिस द्वारा फौजदारी न्यायालायों में भी कई सुधार किये गये। हेस्टिंग्ज मुगल न्याय प्रणाली को हटाने के पक्ष में नहीं था, वह मुगल प्रणाली के दोषों को ही दूर करना चाहता था। दूसरी ओर कार्नवालिस व्यापक सुधार लाने के पक्ष में था। फौजदारी अदालतों में सुधार लाने के उद्देश्य से 3 दिसम्बर 1790 को एक विस्तृत मसौदा तैयार किया गया। इसमें मुसलमान न्यायाधिकारियों के मार्ग-दर्शन के लिए एक नियम बनाया गया जिसके अनुसार हत्या के मामलों में हत्या के अस्त्र या ढंग की बजाय हत्यारे की मंशा पर अधिक बल दिया गया। मृतक के अभिभावकों की इच्छा से क्षमा करना अथवा रक्त का मूल्य निर्धारित करना बन्द कर दिया गया। यह निश्चय किया गया कि साक्षी के धर्म का, वाद पर कोई प्रभाव नहीं होगा। इस्लामी कानून में मुसलमानों की हत्या के मामलों में अन्य धर्म वाले साक्षी नहीं माने जाते थे।

सदर निजामत की पुनः स्थापना

कार्नवालिस ने न्याय संगठन में भी कई सुधार किये। मुहम्मद रजा खाँ के पद को समाप्त करके कलकत्ता में पुनः सदर निजामत अदालत स्थापित की गई।

सर्किट अदालतें

गवर्नर जनरल और कौंसिल के अधीन जिला फौजदारी अदालतें समाप्त करके चार चलती-फिरती अदालतें (सर्किट अदालतें) स्थापित की गईं। इनके लिए साल में दो बार आन्तरिक प्रदेशों का दौरा करना आवश्यक था। केवल यूरोपियन व्यक्ति ही इनकी अध्यक्षता कर सकते थे। इन्हें मृत्यु दण्ड देने का अधिकार था परन्तु उसकी पुष्टि सदर निजामत अदालत से होनी आवश्यक थी। गवर्नर जनरल को क्षमादान का अधिकार था। 

कार्नवालिस कोड

कार्नवालिस ने जो सुधार किये उन्हें कार्यान्वित करने के लिए एक संहिता भी तैयार करवाई गई जिसे कार्नवालिस कोड कहा जाता है। कार्नवालिस कोड की दो मुख्य विशेषताएँ थीं- (1.) निजामत अदालतों में अँग्रेज न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा (2.) न्याय व्यवस्था को प्रशासन से अलग करना। कार्नवालिस के आने के पूर्व जिले में कलेक्टर, राजस्व प्रशासन का मुख्य अधिकारी था तथा जिले का प्रधान न्यायाधीश भी। एक ओर वह राजस्व का निर्धारण करता था और उसे वसूल करता था, वहीं दूसरी ओर उसी के राजस्व निर्धारण व वसूली के निर्णय के विरुद्ध न्यायाधीश के रूप में मुकदमों की सुनवाई भी करता था। कार्नवालिस कोड द्वारा कलेक्टर को केवल राजस्व निर्धारण व उसकी वसूली का कार्य सौंपा गया और न्यायिक कार्य दूसरे अधिकारी को सौंप दिये गये। कार्नवालिस कोड लागू होने से पहले, फौजदारी मामलों में मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं की गवाही को स्वीकार नहीं किया जाता था किन्तु कार्नवालिस कोड में यह स्पष्ट नियम बना दिया कि गवाही देने के लिये धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं होगा। कार्नवालिस कोड में अंग-भंग, सूली पर चढ़ाना आदि अमानुषिक दण्ड समाप्त कर दिये गये तथा कठोर कारावास की सजा देने की व्यवस्था की गई। वकीलों को लाईसेन्स देने की व्यवस्था की गई। लाइसेंस प्राप्त वकील ही वकालत कर सकता था। वकीलों की फीस भी निश्चित कर दी गई। यदि कोई वकील निर्धारित से अधिक फीस लेता था तो उसे वकालत के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता था। कार्नवालिस कोड में व्यवस्था की गई कि यदि कम्पनी के अधिकारी गैर-कानूनी कार्य करें तो उन पर भी मुकदमा चलाया जाये। ऐसे मामलों में केवल ऐसे अँग्रेज जज ही जाँच कर सकते थे, जो सरकार से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में आर्थिक लाभ प्राप्त न करते हों।

कार्नवालिस की न्याय-प्रणाली पश्चिमी न्यायिक धारणाओं पर आधारित थी। इसमें राजाओं के निजी कानूनों तथा धार्मिक कानूनों का स्थान धर्म-निरपेक्ष कानून ने ले लिया। विधि की सर्वोच्चता स्थापित की गई। कार्नवालिस कोड के तात्कालिक परिणाम लाभदायक सिद्ध नहीं हुए। नये कानून इतने जटिल थे कि साधारण लोग इन्हें समझ नहीं पाते थे। इस प्रणाली में न्याय प्राप्त करने में इतना समय लगता था और यह इतना महँगा पड़ता था कि यह निर्धन लोगों के योग्य नहीं था। वकीलों की चालबाजियों के कारण मुकदमेबाजी बहुत बढ़ गई। झूठे गवाह बनाये जाने लगे, न्यायालय का काम बढ़ने से निर्णय सुनाने में बहुत समय लगने लगा। स्वयं कार्नवालिस ने स्वीकार किया कि उसके काल में 60,000 से अधिक मुकदमे न्यायालयों में फँसे पड़े थे। इस प्रणाली में, परम्परागत न्याय प्रणाली के पंचायत, जमींदार, काजी, फौजदार तथा निजामत आदि व्यवस्थाओं एवं अधिकारियों का स्थान यूरोपीय न्यायाधीशों ने ले लिया जिन्हें भारतीय रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं की जानकारी नहीं थी। भारतीय न्यायाधीशों के स्थान पर अँग्रेज न्यायधीशों की नियुक्ति करना इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष था। कार्नवालिस का एकमात्र उद्देश्य यह था कि भारतीयों के स्थान पर अँग्रेज न्यायाधीशों की नियुक्ति करके कम्पनी की सर्वोच्चता स्पष्ट कर दी जाये। इतिहासकार मिल ने स्वीकार किया है कि अँग्रेजी न्यायालयों से अपराधों की संख्या बढ़ी तथा लोगों में भय व आंतक फैल गया।

कार्नवालिस कोड के दोषों को दूर करने के लिए कम्पनी सरकार ने 1793 ई. से 1813 ई. के बीच अनेक कदम उठाये। छोटे मुकदमों को शीघ्र निपटाने के आदेश दिये गये। न्यायिक अधिकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके वेतन बढ़ाये गये। इन अधिकारियों को हेलीबरी कॉलेज में प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई तथा उन्हें भारतीय भाषाओं, न्याय और सरकारी कानूनों की जानकारी दी गई। साथ ही न्याय प्रणाली में केन्द्रीयकरण करने के लिए विभिन्न योजनाएँ बनाई जाने लगीं।

कार्नवालिस कोड का विरोध

मद्रास प्रेसीडेन्सी में जब कार्नवालिस कोड लागू करने का प्रश्न उठा तो टॉमस मुनरो ने इसका विरोध किया। उसके विचार में कार्नवालिस प्रणाली कृत्रिम और विदेशी थी जिसने परम्परागत संस्थाओं को हटा दिया था। मुनरो, ग्राम पंचायतों एवं सरपंचों को दीवानी और फौजदारी के छोटे मामलों में सुनवाई के अधिकार देकर उन्हें प्रोत्साहित करता रहा। जिला प्रशासन में भी परम्परागत ढंग से कार्यपालिका को शक्तिशाली बनाया गया। कलेक्टर को मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारों के साथ किराये और सीमा सम्बन्धी झगड़ों को निपटाने का अधिकार दिया गया। दिल्ली के रेजीडेन्ट मेटकॉफ ने भी इसी व्यवस्था को अपनाया। इसमें परम्परागत मुगल संस्थाओं को बनाये रखा गया तथा राज्य शक्तियों में केन्द्रीयकरण लाया गया।

कार्नवालिस के जाने के बाद यह प्रयत्न किया गया कि लोगों को उपलब्ध न्याय की सुविधा में कमी कर दी जाये। इसलिए 1795 ई. में मुकदमा दायर करते समय धन जमा कराने की पुरानी प्रणाली पुनः आरम्भ की गई तथा स्टाम्प पेपर का प्रयोग अनिवार्य कर दिया गया। 1797 ई. में अपील की सुविधाएँ भी कम कर दी गईं। यद्यपि न्याय को दुर्लभ एवं अधिक महँगा बना दिया गया फिर भी मुकदमों की संख्या बढ़ती ही गई। लोगों की जान-माल की सुरक्षा का भय ज्यों-का-त्यों बना रहा। अतः जान-माल की सुरक्षा के लिए 1807 ई. में जमींदारों को पुनः दायित्व सौंपना पड़ा।

लॉर्ड हेस्टिंग्ज के न्यायिक सुधार

1813 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल बनकर भारत आया जिसने प्रचलित व्यवस्था में संशोधन किया। 1814 ई. में प्रत्येक थाने में एक मुंसिफ की नियुक्ति की गई जो 64 रुपये तक के मामले निपटा सकता था। प्रत्येक जिले में एक सदर अमीन की नियुक्ति की गई जो 150 रुपये तक के मामलों की सुनवाई कर सकता था। सदर अमीन के निर्णय के विरुद्ध अपील दीवानी अदालत में तथा यहाँ से अपील प्रान्तीय न्यायालय में की जा सकती थी। जो मुकदमे सीधे दीवानी अदालत में दायर होते थे, उनकी अपील सदर दीवानी अदालत में की जा सकती थी। कार्य का बोझ कम करने तथा कार्य प्रणाली को सरल बनाने की दृष्टि से कुछ मामलों में अपील करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और कुछ मामलों में केवल एक बार अपील करने की सुविधा दी गई। 1821 ई. में मुंसिफ को 150 रुपये तक के मामले तथा सदर अमीन को 500 रुपये तक के मामले सुनने का अधिकार दिया गया। दीवानी अदालतों के रजिस्ट्रार को 50 रुपये तक के मामले तथा विशेष परिस्थिति में दीवानी अदालतों द्वारा प्रेषित 500 रुपये तक के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार दिया गया। यहाँ से अपील सीधे ही प्रान्तीय न्यायालय में की जा सकती थी। 500 रुपये से ऊपर के मामले जिला दीवानी अदालतों में तथा 5,000 रुपये से ऊपर के मामले सीधे प्रान्तीय न्यायालय में दायर किये जा सकते थे। सदर दीवानी अदालत, कोई मुकदमा जिला दीवानी अदालत से प्रान्तीय अपील न्यायालय में स्थानान्तरित कर सकती थी। लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने कलेक्टर और मजिस्ट्रेट के पद को पुनः मिला दिया जिसे कार्नवालिस ने स्थायी बन्दोबस्त के बाद पृथक् कर दिया था। कार्नवालिस कोड में भी महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गये। मद्रास व बम्बई में भारतीय जजों के वेतन में वृद्धि की गई ताकि वे ईमानदारी से कार्य करें। यद्यपि बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल ने भारत में पुनः प्राचीन संस्थाओं को स्थापित करने तथा पंचायतों को पुनर्जीवित करने की अनुशंसा की थी, किन्तु इन अनुशंसाओं को कार्यान्वित नहीं किया गया।

लॉर्ड विलियम बैंटिक के न्यायिक सुधार

बैंटिक के आने के समय तक भी न्याय व्यवस्था में अनेक दोष थे। कम्पनी ने अब तक भारत में विशाल क्षेत्र प्राप्त कर लिया था तथा न्याय प्रशासन का मुख्यालय कलकत्ता में था। विभिन्न भागोंसे कलकत्ता की दूरी अधिक होने के कारण न्याय प्रशासन ठीक से नहीं चल रहा था। अपील एवं भ्रमण की चार अदालतें अधिक खर्चीली थीं और इनका कोई विशेष लाभ भी नहीं था। इन पर मकदमों का बोझ भी अधिक था, जिससे शीघ्र न्याय प्रदान करना संभव नहीं था। डिवीजनल न्यायालयों व प्रान्तीय अपील न्यायालयों में अकुशलता एवं अनियमितताएँ व्याप्त थीं जिनके कारण न्यायालयों में मुकदमों के ढेर लगे हुए थे। इन मुकदमों के अभियुक्त महीनों तक जेल में पड़े रहते थे। कार्नवालिस ने भारतीयों को न्यायालय के उच्च पदों व उत्तरदायित्वों से अलग रखा था जिससे भारतीयों में रोष था। न्यायालय की भाषा फारसी थी तथा मुकदमा दर्ज करने वाले को अपनी भाषा में बात कहने का अधिकार नहीं था। बैंटिक ने इन दोषों को दूर करने का प्रयास किया। ऐसा करने का एक कारण यह भी था कि ब्रिटिश सरकार, चार्टर एक्ट-1833 ई. पर विचार करने जा रही थी जिस पर कम्पनी का भविष्य निर्भर करता था। इसलिए कम्पनी के प्रशासनिक दोषों को दूर करना आवश्यक था, ताकि संसद को शिकायत करने का अवसर न मिल सके। न्यायिक सुधार, व्यापक सुधारों का केवल एक भाग था।

बैंटिक ने न्यायिक सुधारों के द्वारा अपील एवं भ्रमण की चार अदालतें समाप्त कर दीं। साथ ही दंड विधान की कठोरता को कम कर दिया। अपराधियों को कोड़े लगवाने की प्रथा समाप्त कर दी। यह सुधार बैंथम की उस अवधारणा पर आधारित था कि अपराधी को सजा, सुधारने के लिए दी जानी चाहिए, बदले के लिये नहीं। उसने कमिशनरों के फौजदारी अधिकार जिला न्यायाधीश को सौंप दिये और जिला न्यायाधीश ने अपने मजिस्ट्रेट के अधिकार कलेक्टर के लिए छोड़ दिये। मजिस्ट्रेट को दो वर्ष की सश्रम कारावास की सजा देने का अधिकार दिया गया। इसके विरुद्ध सिविल न्यायालय में अपील की जा सकती थी। कलेक्टरों को लगान सम्बन्धी मामले निपटाने के अधिकार दिये गये। इसकी अपील सिविल न्यायालयों में की जा सकती थी। अपील का मुकदमा स्वयं कलेक्टर के विरुद्ध होता था। 1831 ई. में बैंटिक ने जिला एवं सत्र न्यायालय स्थापित किया। 1831 ई. में ही भारतीयों को सदर अमीन के पद पर नियुक्त किया गया जो जिला व शहरी न्यायालय के विरुद्ध अपीलें सुन सकते थे। न्यायिक क्षेत्र में किसी भारतीय को दिया जाने वाला सदर अमीन का पद सर्वोच्च था किन्तु यूरोपियन अथवा अमेरिकन से सम्बन्धित मुकदमे, मुन्सिफ या सदर अमीन की अदालत में नहीं सुने जा सकते थे। 

कम्पनी राज्य का विस्तार धीरे-धीरे पश्चिम की ओर होता जा रहा था। इसलिए आगरा प्रान्त बनाया गया जो कलकत्ता से काफी दूर था। न्याय पाने के लिए कलकत्ता जाने में समय और धन बर्बाद होते थे। इसलिए आगरा में ही अपील अदालत की स्थापना की गई। इसी उद्देश्य से इलाहाबाद में सदर दीवानी और सदर निजामत अदालतें स्थापित की गईं, जिससे दिल्ली और उत्तर पश्चिमी प्रान्त में आसानी से न्याय प्रशासन चल सके। अदालतों में फारसी भाषा के स्थान पर प्रान्तीय भाषाओं का प्रयोग होने लगा। बंगाल में जूरी प्रणाली आरम्भ की गई, ताकि यूरोपियन जजों को भारतीयों की सहायता उपलब्ध हो सके। 1832 ई. के नियम में यह भी कहा गया कि यूरोपियन जज किसी मामले को प्रतिष्ठित भारतीयों की पंचायत के पास भेज सकेंगे और पंचायत मामले की जाँच कर अपनी रिपोर्ट जजों के पास भेजेगी। जज अपने लिये भारतीय सहायक नियुक्त कर सकते थे, जो प्रत्येक मामले में अपनी अलग राय दे सकते थे।

न्याय क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम को लागू करने में लॉर्ड मैकाले का महत्त्वपूर्ण योगदान था। 1833 ई. के चार्टर एक्ट में स्पष्ट कहा गया था कि विधि-प्रणाली के दोष समाप्त किये जाने चाहिए। सुधार लाना इसलिए भी आवश्यक हो गया था कि इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश नागरिकों को भारत में सम्पत्ति खरीदने-बेचने के पूर्ण अधिकार दे दिये गये थे जिसकी भारत में कोई कानूनी व्यवस्था नहीं थी। इस समस्या का मैकाले के पास एक ही समाधान था- विधि का संहिताकरण। संहिताकरण के कार्य में मैकाले को प्रिंसेप सहित अनेक प्रशासकों के विरोध का सामना करना पड़ा। बहुमत मिलेट के विधि संग्रह के पक्ष में था किन्तु मैकाले ने बड़ी चतुराई से इस विवाद को विधि आयोग के लिए छोड़ दिया। बैंटिक ने विधि आयोग का अध्यक्ष मैकाले को ही बनाया। संहिताकरण कार्य में उसने व्यवहारिकता और आवश्यकता को प्राथमिकता दी। मैकाले की सबसे बड़ी सफलता उसकी नई दंड संहिता थी।

विलियम बैंण्टिक के बाद न्यायिक सुधार

लॉर्ड डलहौजी के शासनकाल में 1853 ई. के चार्टर एक्ट के समय विधि-संहिता का प्रश्न पुनः उठाया गया और दूसरा विधि आयोग बनाया गया। इसके परिणाम स्वरूप 1859 से 1861 ई. के बीच दण्डविधि, सिविल कार्य विधि तथा दण्ड प्रक्रिया पारित की गई। इन सुधारों ने सम्पूर्ण भारत के लिये एक विधि प्रणाली प्रदान की। विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ा-बहुत अन्तर बना रहा। दूसरी ओर यूरोपीय अधिकारियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये न्याय संगठन में परिवर्तन करने की बात भी उठाई गई जिससे भारतीय न्याय प्रणाली, ब्रिटिश न्याय प्रणाली के अनुकूल होती गई। 1861 ई. में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम द्वारा पुराने सर्वोच्च न्यायालय और सदर अदालतों को समाप्त कर कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना

1866 ई. में एक और उच्च न्यायालय आगरा में स्थापित किया गया जिसे 1875 ई. में इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया। बाद में लाहौर और पटना में भी ऐसे ही उच्च न्यायालय स्थापित किये गये।

संघीय न्यायालय की स्थापना

इस न्याय प्रणाली में अन्तिम महत्त्वपूर्ण सुधार 1935 ई. में किया गया जब संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। इसने उच्चतम न्यायालय का स्थान ग्रहण कर लिया। कहने को यह भारत का सर्वोच्च न्यायालय था किंतु वास्तविक अर्थों में यह सर्वोच्च न्यायालय नहीं था क्योंकि अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के विरुद्ध लन्दन स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।

अध्याय – 24 : भारत में ईसाई शिक्षा के प्रारम्भिक प्रयास

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प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति

प्रचीन भारत में शिक्षा प्रणाली का विकास आध्यात्मिक आवश्यकताओं के कारण हुआ था। इस कारण शिक्षा का स्वरूप व्यावसायिक नहीं था। शिक्षा का विकास ऋषियों और मुनियों के आश्रमों में हुआ था इस कारण जन-साधारण की शिक्षा का दायित्व राज्य पर नहीं था। शिक्षा का उद्देश्य परम तत्त्व की प्राप्ति अर्थात् सत्य की खोज था। इस कारण भारतीय शिक्षा का मूल आधार आस्था, विश्वास, विनय एवं अभ्यास के चार पायों पर खड़ा था। छात्र को अपने पिता का घर छोड़कर गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करनी होती थी। उन्हें वेद, वेदांग, उपनिषद, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद एवं योग आदि की शिक्षा दी जाती थी। छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। गुरुकुल में रहने वाले ब्राह्मण परिवारों एवं उनके शिष्यों का निर्वहन राजाओं, सामंतों तथा श्रेष्ठि परिवारों द्वारा दी गई सहायता से होता था। शिक्षा पूर्णतः स्वतंत्र थी। राजा भी गुरुकुल की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता था। शिक्षा का माध्यम देवभाषा संस्कृत था जिसमें सम्पूर्ण धार्मिक एवं सांसारिक ज्ञान उपलब्ध था। ब्राह्मण कन्याएं अपने पिता के आश्रम में ज्ञान प्राप्त करती थीं। राजपुत्रियां राजप्रासादों में शिक्षा प्राप्त करती थीं, उन्हें घुड़सवारी, रथ संचालन, धनुष विद्या तथा तलवार चलाना सिखाया जाता था। बड़े श्रेष्ठियों की पुत्रियां घर पर रहकर विभिन्न कलाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं। उन्हें नारी जीवन को सुखमय बनाने का ज्ञान दिया जाता था। अन्य वर्गों की लड़कियों की औपचारिक शिक्षा का प्रबंध नहीं था।

मध्यकाल में शिक्षा

मुसलमानों के भारत आगमन के पश्चात्, परम्परागत हिन्दू शिक्षण पद्धति में बड़ा परिवर्तन आया। दूरस्थ गुरुकुलों का स्थान स्थानीय पोसालों एवं चटशालाओं ने ले लिया जिनमें विद्यार्थी अपने गुरु को निर्धारित शुल्क देते थे। लड़कियों के लिये घरों से निकलना और अधिक प्रतिबंधित हो गया। जनसामान्य के लिए गांवों और कस्बों में पण्डितों द्वारा छोटे-छोटे विद्यालय खोले गये जिनमें बच्चों को भारतीय भाषाओं में पढ़ना, लिखना और प्रारम्भिक गणित करना सिखाया जाता था। साथ में धर्मिक शिक्षा भी दी जाती थी। इन विद्यालयों से प्रायः व्यापारी-पुत्र लाभ उठाते थे। ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के बच्चे भी इन विद्यालयों में पढ़ते थे।

मुसलमानों ने अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबंध मस्जिदों में किया जहाँ मौलवी, मुस्लिम बच्चों की बहुत थोड़ी संख्या को दीनी इल्म देते थे। आगे चलकर मदरसों की व्यवस्था आरम्भ हुई जिनमें मुख्यतः मुस्लिम बच्चे पढ़ते थे। हिन्दू बच्चे भी फारसी सीखने के लिये मदरसों में जाते थे क्योंकि राज्य-कार्य की भाषा फारसी थी।

उच्च हिन्दू शिक्षा, विद्यालयों, आश्रमों, चतुष्पाठी आदि संस्थाओं में दी जाती थी, जिसमें ब्राह्मण शिक्षक, अत्यंन्त सादा जीवन व्यतीत करते हुए अध्यात्म, दर्शन, कर्मकाण्ड, संहिताओं एवं स्मृतियों का अध्ययन-अध्यापन करते थे। अन्य जातियों के लिए धर्मिक आधार पर उच्च शिक्षा निषिद्ध थी।

इस प्रकार अँग्रेजों के आने के पहले हिन्दुओं में शिक्षा समाज के अत्यंत सीमित वर्ग को ही उपलब्ध थी। उच्च शिक्षा पर केवल ब्राह्मणों का अधिकार था। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा हिन्दू संस्कृति के मूल सिद्धांतों पर अवलम्बित थी, जो आश्रम व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था में विश्वास करना, वेदों की महानता में विश्वास करना और वेदों की व्याख्या करने वाले ब्राह्मणों की क्षमता में विश्वास करना सिखाती थी। इस शिक्षा के माध्यम से बच्चों को अपने माता-पिता, गुरुजन, अतिथि एवं राजा के प्रति सम्मान की भावना दी जाती थी। यह शिक्षा व्यक्ति को समाज की संरचना के अनुकूल बनाने का साधन थी तथा भारतीय संस्कृति की गौरवपूर्ण परम्परा थी। इसमें यह दोष अवश्य था कि सामान्यतः स्त्रियां, श्रमिक जातियाँ और किसान शिक्षा से वंचित थे।

मुस्लिम शिक्षा, हिन्दू शिक्षा से अलग थी। मुस्लिम जनता में शिक्षा पर किसी एक वर्ग का एकाधिकार नहीं था फिर भी बहुत कम मुस्लिम बालक मदरसों में पढ़ते थे जहाँ उन्हें कुरान एवं उसके सिद्धांतों की जानकारी दी जाती थी। उच्च शिक्षा का माध्यम अरबी भाषा थी, क्योंकि कुरान की रचना इसी भाषा में हुई थी, फिर भी कुछ मदरसों में कुरान के साथ-साथ फारसी और अन्य विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी। दोनों समुदायों की शिक्षा में एक भारी अन्तर यह था कि हिन्दू विद्यालय समाज के विशिष्ट वर्ग के लिए थे, जबकि मुस्लिम मदरसे सबके लिए खुले थे, जो एक पैगम्बर में विश्वास करते थे।

देश में राजनीतिक एवं प्रशासनिक अराजकता अपने चरम पर थी, इस कारण हिन्दुओं एवं मुसलमानों, दोनों वर्गों में शिक्षा पतनोन्मुख थी। देश में मुद्रित पुस्तकों का अभाव था। स्वेदशी विद्यालय, चाहे वे ब्राह्मणों द्वारा चलाये जाते हों या फिर मौलवियों द्वारा, बच्चों की बड़ी संख्या को शिक्षित करने में असफल थे। लड़कियों के लिए तो शिक्षा का प्रावधान ही नहीं था।

ईसाई मिशनरियों द्वारा आरंभिक शैक्षणिक कार्य

पुर्तगाली मिशनरियों के प्रयास

यूरोप से भारत आने वाली जातियों में सर्वप्रथम पुर्तगाली थे। पुर्तगाली मुख्य रूप से दो उद्देश्य लेकर भारत आये थे- (1.) धर्म-प्रचार और (2.) व्यापार। धर्म-प्रचार के लिए जनता को बाइबिल का ज्ञान कराना आवश्यक था। इसलिये 1542 ई. में पुर्तगाली पादरी सेण्ट फ्रांसिस जेवियर भारत आया। वह लोगों को बाइबिल के उपदेश देता था तथा ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता था। उसने अनेक स्कूल भी खोले। 1575 से 1580 ई. के बीच उसने बम्बई के पास बान्द्रा, गोआ के पास चौल तथा कुछ अन्य स्थानों पर कॉलेज खोले जिनमें बाइबिल, लेटिन भाषा, पुर्तगाली व्याकरण, तर्कशास्त्र तथा पुर्तगाली संगीत की शिक्षा दी जाती थी। भारत आने वाला दूसरा प्रमुख पादरी रॉबर्ट डे नोबिल था। इन दोनों पादरियों ने पश्चिमी भारत में ईसाई धर्म तथा शिक्षा का प्रसार किया। पुर्तगाली पादरियों ने ही भारत में छापाखाने स्थापित किये। सर्वप्रथम उन्होंने ही बाइबिल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करके उसे पुस्तकों के रूप में छापकर साधारण जनता के बीच वितरित किया। इसीलिए पुर्तगालियों को भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का जन्मदाता माना जाना चाहिए।

नीदरलैण्ड वासियों के प्रयास

यूरोप से भारत आने दूसरे यूरोपीय, नीदरलैण्ड-वासी डच थे। उन्होंने अपनी कम्पनी के कर्मचारियों के बच्चों को शिक्षा देने के लिए भारत में कई पाठशालाएं खोलीं जिनमें कुछ भारतीय बच्चों को भी प्रवेश दिया गया। उनका मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था किंतु अग्रजों से प्रतिद्वंद्विता के कारण उन्हें शीघ्र ही भारत छोड़ देना पड़ा। उनके जाते ही उनकी शिक्षा व्यवस्था भी समाप्त हो गई।

फ्रांस वासियों के प्रयास

सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में फ्रैंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ चन्द्रनगर, माही, यनाम, कारोकल और पाण्डीचेरी के निकट स्थापित कीं। इन कोठियों में काम करने वाले फ्रैंच अधिकारियों के बच्चों के लिये उन्होंने फ्रैंच स्कूलों की स्थापना की। पुर्तगालियों की भांति उन्होंने भी अपने स्कूलों में स्थानीय भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था की। इन पाठशालाओं में भारतीय अध्यापकों को नियुक्त किया जाता था तथा भारतीय छात्रों को भी प्रवेश दिया जाता था जिन्हें भोजन, कपड़े और पुस्तकें निःशुल्क देकर स्कूल में आने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में फ्रैंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अँग्रेजों से परास्त होकर भारत छोड़ना पड़ा तथा फ्रैंच बस्तियों पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया और फ्रांसिसी स्कूल भी उनके अधिकार में चले गये।

डेनमार्क वासियों के प्रयास

अन्य यूरोपियनों की तरह डेनमार्क के व्यापारियों ने भी दक्षिण भारत में तंजोर के समीप तथा बंगाल में कलकत्ता के समीप सेरामपुर में अपनी कोठियां बनाईं। यद्यपि व्यापारिक या राजनैतिक दृष्टि से इन दोनों स्थानों का कोई महत्त्व नहीं है किन्तु कालान्तर में ये दोनों स्थान मिशनरी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र बन गये। इस दिशा में डेनमार्क वासियों का कार्य काफी सफल रहा। इन दोनों स्थानों पर दो जर्मन मिशनरियों ने शिक्षण कार्य किया। उन्होंने बाइबिल का तमिल भाषा में अनुवाद किया। तमिल भाषा का व्याकरण और कोष बनाये तथा एक छापाखाना स्थापित किया। उन्होंने अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोले। डेनमार्क वासियों का अन्य केन्द्र बंगाल का सेरामपुर (श्रीरामपुर) बेप्टिस्ट मिशनरियों का प्रमुख कार्य क्षेत्र बन गया।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आरम्भिक शैक्षणिक कार्य

दिसम्बर 1600 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। अन्य यूरोपीय कम्पनियों की भांति इसने भी भारत में अपनी कोठियां बनाईं जहाँ काफी संख्या में अँग्रेज व्यापारी तथा कम्पनी के कर्मचारी बस गये। उनकी धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कम्पनी ने इंग्लैण्ड से कुछ पादरी भारत भेजे। इन पादरियों ने कम्पनी के अँग्रेज कर्मचारियों की धार्मिक क्रियाओं सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति करने के साथ-साथ कम्पनी के भारतीय कर्मचारियों को ईसाई बनाना प्रारम्भ किया। नये बनाये गये ईसाइयों तथा कम्पनी के अँग्रेज कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए कम्पनी ने कई स्कूल खोले। 1698 ई. में इंग्लैण्ड की संसद ने कम्पनी को निर्देशित किया कि कम्पनी अपने प्रत्येक कारखाने पर एक पादरी तथा 500 टन या इससे अधिक वजनी जहाज पर एक चैपलेन (धर्मगुरु) नियुक्त करे। कम्पनी सैनिक स्थानों तथा कारखानों के पास स्कूल खोले। इस आदेश से कम्पनी को धर्म-प्रचार करने तथा स्कूल खोलने के अधिकार मिल गये। इसके बाद कम्पनी ने 1715 ई. में मद्रास, 1718 ई. में बम्बई और 1731 ई. में कलकत्ता में स्कूल स्थापित किये।

बक्सर विजय के बाद 1765 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मालगुजारी वसूल करने के दीवानी अधिकार प्राप्त हुए। इससे कम्पनी एक राजनैतिक शक्ति बन गई। अब तक कम्पनी ने अँग्रेज और एंग्लो-इण्डियन कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा की ओर ही ध्यान दिया था किन्तु 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज के गवर्नर जनरल बनने के बाद कम्पनी ने भारतीय बच्चों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया। 1781 ई. में कलकत्ता में एक मदरसा स्थापित किया गया जिसमें अरबी तथा फारसी के अध्ययन की व्यवस्था की गई। इस मदरसे को खोलने का उद्देश्य मुस्लिम भद्र समाज के युवकों को कम्पनी में नौकरी करने योग्य बनाना था।

 1791 ई. में हिन्दू कुलीनों के पुत्रों को पढ़ाने के लिये बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई। इसमें संस्कृत भाषा के साथ-साथ हिन्दू विधि, साहित्य एवं धर्म का अध्यापन किया जाता था। ईसाई मिशनरी भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्कूल खोलकर भारतीय बच्चों को शिक्षा दे रहे थे। उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा में पश्चिमी दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, तर्कशास्त्र तथा अँग्रेजी भाषा सम्मिलित थी। 1784 ई. में सर विलियम जॉन ने बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। जॉन ओवन ने बंगाल में स्कूल स्थापित किया जिसमें अँग्रेजी पढ़ाने का प्रावधान किया गया। 1800 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज स्थापित किया। इसमें कम्पनी के अधिकारियों को भारतीय भाषाओं एवं रीति-रिवाजों का प्रशिक्षण दिया जाता था।

ईसाई धर्म और पश्चिमी शिक्षा का जुड़ाव

 1792 ई. में चार्ल्स ग्रांट  ने इंग्लैण्ड में प्रकाशित अपनी पुस्तक ऑब्जर्वेशन्स ऑन दी स्टेट ऑफ सोसाइटी एमोंग दी एशियाटिक सबजेक्ट्स में इस बात पर बल दिया कि भारत में ईसाई धर्म और पश्चिमी ज्ञान के प्रसार के लिए स्कूल स्थापित किये जायें। 1793 ई. में जिस समय इंग्लैण्ड की संसद में कम्पनी के अनुज्ञा-पत्र के नवीनीकरण पर विचार चल रहा था, उस समय बिशप विल्बर फोर्स ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स सदन में प्रस्ताव रखा कि कम्पनी के डायरेक्टरों को भारत में ईसाई धर्म-प्रचार के लिए मिशनरी भेजने का अधिकार दिया जाये। इस प्रस्ताव का संसद में घोर विरोध हुआ और यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका किन्तु इंग्लैण्ड में यह विचार जोर पकड़ने लगा कि कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ब्रिटिश संसद ने इस बात को स्वीकार कर लिया तथा 1813 ई. के चार्टर एक्ट में भारतीयों की शिक्षा के लिए एक लाख रुपये वार्षिक व्यय का प्रावधान रखा।

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