Sunday, June 1, 2025
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अध्याय – 24 : भारत में ईसाई शिक्षा के प्रारम्भिक प्रयास

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प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति

प्रचीन भारत में शिक्षा प्रणाली का विकास आध्यात्मिक आवश्यकताओं के कारण हुआ था। इस कारण शिक्षा का स्वरूप व्यावसायिक नहीं था। शिक्षा का विकास ऋषियों और मुनियों के आश्रमों में हुआ था इस कारण जन-साधारण की शिक्षा का दायित्व राज्य पर नहीं था। शिक्षा का उद्देश्य परम तत्त्व की प्राप्ति अर्थात् सत्य की खोज था। इस कारण भारतीय शिक्षा का मूल आधार आस्था, विश्वास, विनय एवं अभ्यास के चार पायों पर खड़ा था। छात्र को अपने पिता का घर छोड़कर गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करनी होती थी। उन्हें वेद, वेदांग, उपनिषद, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद एवं योग आदि की शिक्षा दी जाती थी। छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। गुरुकुल में रहने वाले ब्राह्मण परिवारों एवं उनके शिष्यों का निर्वहन राजाओं, सामंतों तथा श्रेष्ठि परिवारों द्वारा दी गई सहायता से होता था। शिक्षा पूर्णतः स्वतंत्र थी। राजा भी गुरुकुल की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता था। शिक्षा का माध्यम देवभाषा संस्कृत था जिसमें सम्पूर्ण धार्मिक एवं सांसारिक ज्ञान उपलब्ध था। ब्राह्मण कन्याएं अपने पिता के आश्रम में ज्ञान प्राप्त करती थीं। राजपुत्रियां राजप्रासादों में शिक्षा प्राप्त करती थीं, उन्हें घुड़सवारी, रथ संचालन, धनुष विद्या तथा तलवार चलाना सिखाया जाता था। बड़े श्रेष्ठियों की पुत्रियां घर पर रहकर विभिन्न कलाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं। उन्हें नारी जीवन को सुखमय बनाने का ज्ञान दिया जाता था। अन्य वर्गों की लड़कियों की औपचारिक शिक्षा का प्रबंध नहीं था।

मध्यकाल में शिक्षा

मुसलमानों के भारत आगमन के पश्चात्, परम्परागत हिन्दू शिक्षण पद्धति में बड़ा परिवर्तन आया। दूरस्थ गुरुकुलों का स्थान स्थानीय पोसालों एवं चटशालाओं ने ले लिया जिनमें विद्यार्थी अपने गुरु को निर्धारित शुल्क देते थे। लड़कियों के लिये घरों से निकलना और अधिक प्रतिबंधित हो गया। जनसामान्य के लिए गांवों और कस्बों में पण्डितों द्वारा छोटे-छोटे विद्यालय खोले गये जिनमें बच्चों को भारतीय भाषाओं में पढ़ना, लिखना और प्रारम्भिक गणित करना सिखाया जाता था। साथ में धर्मिक शिक्षा भी दी जाती थी। इन विद्यालयों से प्रायः व्यापारी-पुत्र लाभ उठाते थे। ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के बच्चे भी इन विद्यालयों में पढ़ते थे।

मुसलमानों ने अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबंध मस्जिदों में किया जहाँ मौलवी, मुस्लिम बच्चों की बहुत थोड़ी संख्या को दीनी इल्म देते थे। आगे चलकर मदरसों की व्यवस्था आरम्भ हुई जिनमें मुख्यतः मुस्लिम बच्चे पढ़ते थे। हिन्दू बच्चे भी फारसी सीखने के लिये मदरसों में जाते थे क्योंकि राज्य-कार्य की भाषा फारसी थी।

उच्च हिन्दू शिक्षा, विद्यालयों, आश्रमों, चतुष्पाठी आदि संस्थाओं में दी जाती थी, जिसमें ब्राह्मण शिक्षक, अत्यंन्त सादा जीवन व्यतीत करते हुए अध्यात्म, दर्शन, कर्मकाण्ड, संहिताओं एवं स्मृतियों का अध्ययन-अध्यापन करते थे। अन्य जातियों के लिए धर्मिक आधार पर उच्च शिक्षा निषिद्ध थी।

इस प्रकार अँग्रेजों के आने के पहले हिन्दुओं में शिक्षा समाज के अत्यंत सीमित वर्ग को ही उपलब्ध थी। उच्च शिक्षा पर केवल ब्राह्मणों का अधिकार था। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा हिन्दू संस्कृति के मूल सिद्धांतों पर अवलम्बित थी, जो आश्रम व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था में विश्वास करना, वेदों की महानता में विश्वास करना और वेदों की व्याख्या करने वाले ब्राह्मणों की क्षमता में विश्वास करना सिखाती थी। इस शिक्षा के माध्यम से बच्चों को अपने माता-पिता, गुरुजन, अतिथि एवं राजा के प्रति सम्मान की भावना दी जाती थी। यह शिक्षा व्यक्ति को समाज की संरचना के अनुकूल बनाने का साधन थी तथा भारतीय संस्कृति की गौरवपूर्ण परम्परा थी। इसमें यह दोष अवश्य था कि सामान्यतः स्त्रियां, श्रमिक जातियाँ और किसान शिक्षा से वंचित थे।

मुस्लिम शिक्षा, हिन्दू शिक्षा से अलग थी। मुस्लिम जनता में शिक्षा पर किसी एक वर्ग का एकाधिकार नहीं था फिर भी बहुत कम मुस्लिम बालक मदरसों में पढ़ते थे जहाँ उन्हें कुरान एवं उसके सिद्धांतों की जानकारी दी जाती थी। उच्च शिक्षा का माध्यम अरबी भाषा थी, क्योंकि कुरान की रचना इसी भाषा में हुई थी, फिर भी कुछ मदरसों में कुरान के साथ-साथ फारसी और अन्य विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी। दोनों समुदायों की शिक्षा में एक भारी अन्तर यह था कि हिन्दू विद्यालय समाज के विशिष्ट वर्ग के लिए थे, जबकि मुस्लिम मदरसे सबके लिए खुले थे, जो एक पैगम्बर में विश्वास करते थे।

देश में राजनीतिक एवं प्रशासनिक अराजकता अपने चरम पर थी, इस कारण हिन्दुओं एवं मुसलमानों, दोनों वर्गों में शिक्षा पतनोन्मुख थी। देश में मुद्रित पुस्तकों का अभाव था। स्वेदशी विद्यालय, चाहे वे ब्राह्मणों द्वारा चलाये जाते हों या फिर मौलवियों द्वारा, बच्चों की बड़ी संख्या को शिक्षित करने में असफल थे। लड़कियों के लिए तो शिक्षा का प्रावधान ही नहीं था।

ईसाई मिशनरियों द्वारा आरंभिक शैक्षणिक कार्य

पुर्तगाली मिशनरियों के प्रयास

यूरोप से भारत आने वाली जातियों में सर्वप्रथम पुर्तगाली थे। पुर्तगाली मुख्य रूप से दो उद्देश्य लेकर भारत आये थे- (1.) धर्म-प्रचार और (2.) व्यापार। धर्म-प्रचार के लिए जनता को बाइबिल का ज्ञान कराना आवश्यक था। इसलिये 1542 ई. में पुर्तगाली पादरी सेण्ट फ्रांसिस जेवियर भारत आया। वह लोगों को बाइबिल के उपदेश देता था तथा ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता था। उसने अनेक स्कूल भी खोले। 1575 से 1580 ई. के बीच उसने बम्बई के पास बान्द्रा, गोआ के पास चौल तथा कुछ अन्य स्थानों पर कॉलेज खोले जिनमें बाइबिल, लेटिन भाषा, पुर्तगाली व्याकरण, तर्कशास्त्र तथा पुर्तगाली संगीत की शिक्षा दी जाती थी। भारत आने वाला दूसरा प्रमुख पादरी रॉबर्ट डे नोबिल था। इन दोनों पादरियों ने पश्चिमी भारत में ईसाई धर्म तथा शिक्षा का प्रसार किया। पुर्तगाली पादरियों ने ही भारत में छापाखाने स्थापित किये। सर्वप्रथम उन्होंने ही बाइबिल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करके उसे पुस्तकों के रूप में छापकर साधारण जनता के बीच वितरित किया। इसीलिए पुर्तगालियों को भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का जन्मदाता माना जाना चाहिए।

नीदरलैण्ड वासियों के प्रयास

यूरोप से भारत आने दूसरे यूरोपीय, नीदरलैण्ड-वासी डच थे। उन्होंने अपनी कम्पनी के कर्मचारियों के बच्चों को शिक्षा देने के लिए भारत में कई पाठशालाएं खोलीं जिनमें कुछ भारतीय बच्चों को भी प्रवेश दिया गया। उनका मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था किंतु अग्रजों से प्रतिद्वंद्विता के कारण उन्हें शीघ्र ही भारत छोड़ देना पड़ा। उनके जाते ही उनकी शिक्षा व्यवस्था भी समाप्त हो गई।

फ्रांस वासियों के प्रयास

सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में फ्रैंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ चन्द्रनगर, माही, यनाम, कारोकल और पाण्डीचेरी के निकट स्थापित कीं। इन कोठियों में काम करने वाले फ्रैंच अधिकारियों के बच्चों के लिये उन्होंने फ्रैंच स्कूलों की स्थापना की। पुर्तगालियों की भांति उन्होंने भी अपने स्कूलों में स्थानीय भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था की। इन पाठशालाओं में भारतीय अध्यापकों को नियुक्त किया जाता था तथा भारतीय छात्रों को भी प्रवेश दिया जाता था जिन्हें भोजन, कपड़े और पुस्तकें निःशुल्क देकर स्कूल में आने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में फ्रैंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अँग्रेजों से परास्त होकर भारत छोड़ना पड़ा तथा फ्रैंच बस्तियों पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया और फ्रांसिसी स्कूल भी उनके अधिकार में चले गये।

डेनमार्क वासियों के प्रयास

अन्य यूरोपियनों की तरह डेनमार्क के व्यापारियों ने भी दक्षिण भारत में तंजोर के समीप तथा बंगाल में कलकत्ता के समीप सेरामपुर में अपनी कोठियां बनाईं। यद्यपि व्यापारिक या राजनैतिक दृष्टि से इन दोनों स्थानों का कोई महत्त्व नहीं है किन्तु कालान्तर में ये दोनों स्थान मिशनरी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र बन गये। इस दिशा में डेनमार्क वासियों का कार्य काफी सफल रहा। इन दोनों स्थानों पर दो जर्मन मिशनरियों ने शिक्षण कार्य किया। उन्होंने बाइबिल का तमिल भाषा में अनुवाद किया। तमिल भाषा का व्याकरण और कोष बनाये तथा एक छापाखाना स्थापित किया। उन्होंने अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोले। डेनमार्क वासियों का अन्य केन्द्र बंगाल का सेरामपुर (श्रीरामपुर) बेप्टिस्ट मिशनरियों का प्रमुख कार्य क्षेत्र बन गया।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आरम्भिक शैक्षणिक कार्य

दिसम्बर 1600 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। अन्य यूरोपीय कम्पनियों की भांति इसने भी भारत में अपनी कोठियां बनाईं जहाँ काफी संख्या में अँग्रेज व्यापारी तथा कम्पनी के कर्मचारी बस गये। उनकी धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कम्पनी ने इंग्लैण्ड से कुछ पादरी भारत भेजे। इन पादरियों ने कम्पनी के अँग्रेज कर्मचारियों की धार्मिक क्रियाओं सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति करने के साथ-साथ कम्पनी के भारतीय कर्मचारियों को ईसाई बनाना प्रारम्भ किया। नये बनाये गये ईसाइयों तथा कम्पनी के अँग्रेज कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए कम्पनी ने कई स्कूल खोले। 1698 ई. में इंग्लैण्ड की संसद ने कम्पनी को निर्देशित किया कि कम्पनी अपने प्रत्येक कारखाने पर एक पादरी तथा 500 टन या इससे अधिक वजनी जहाज पर एक चैपलेन (धर्मगुरु) नियुक्त करे। कम्पनी सैनिक स्थानों तथा कारखानों के पास स्कूल खोले। इस आदेश से कम्पनी को धर्म-प्रचार करने तथा स्कूल खोलने के अधिकार मिल गये। इसके बाद कम्पनी ने 1715 ई. में मद्रास, 1718 ई. में बम्बई और 1731 ई. में कलकत्ता में स्कूल स्थापित किये।

बक्सर विजय के बाद 1765 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मालगुजारी वसूल करने के दीवानी अधिकार प्राप्त हुए। इससे कम्पनी एक राजनैतिक शक्ति बन गई। अब तक कम्पनी ने अँग्रेज और एंग्लो-इण्डियन कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा की ओर ही ध्यान दिया था किन्तु 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज के गवर्नर जनरल बनने के बाद कम्पनी ने भारतीय बच्चों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया। 1781 ई. में कलकत्ता में एक मदरसा स्थापित किया गया जिसमें अरबी तथा फारसी के अध्ययन की व्यवस्था की गई। इस मदरसे को खोलने का उद्देश्य मुस्लिम भद्र समाज के युवकों को कम्पनी में नौकरी करने योग्य बनाना था।

 1791 ई. में हिन्दू कुलीनों के पुत्रों को पढ़ाने के लिये बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई। इसमें संस्कृत भाषा के साथ-साथ हिन्दू विधि, साहित्य एवं धर्म का अध्यापन किया जाता था। ईसाई मिशनरी भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्कूल खोलकर भारतीय बच्चों को शिक्षा दे रहे थे। उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा में पश्चिमी दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, तर्कशास्त्र तथा अँग्रेजी भाषा सम्मिलित थी। 1784 ई. में सर विलियम जॉन ने बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। जॉन ओवन ने बंगाल में स्कूल स्थापित किया जिसमें अँग्रेजी पढ़ाने का प्रावधान किया गया। 1800 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज स्थापित किया। इसमें कम्पनी के अधिकारियों को भारतीय भाषाओं एवं रीति-रिवाजों का प्रशिक्षण दिया जाता था।

ईसाई धर्म और पश्चिमी शिक्षा का जुड़ाव

 1792 ई. में चार्ल्स ग्रांट  ने इंग्लैण्ड में प्रकाशित अपनी पुस्तक ऑब्जर्वेशन्स ऑन दी स्टेट ऑफ सोसाइटी एमोंग दी एशियाटिक सबजेक्ट्स में इस बात पर बल दिया कि भारत में ईसाई धर्म और पश्चिमी ज्ञान के प्रसार के लिए स्कूल स्थापित किये जायें। 1793 ई. में जिस समय इंग्लैण्ड की संसद में कम्पनी के अनुज्ञा-पत्र के नवीनीकरण पर विचार चल रहा था, उस समय बिशप विल्बर फोर्स ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स सदन में प्रस्ताव रखा कि कम्पनी के डायरेक्टरों को भारत में ईसाई धर्म-प्रचार के लिए मिशनरी भेजने का अधिकार दिया जाये। इस प्रस्ताव का संसद में घोर विरोध हुआ और यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका किन्तु इंग्लैण्ड में यह विचार जोर पकड़ने लगा कि कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ब्रिटिश संसद ने इस बात को स्वीकार कर लिया तथा 1813 ई. के चार्टर एक्ट में भारतीयों की शिक्षा के लिए एक लाख रुपये वार्षिक व्यय का प्रावधान रखा।

अध्याय – 25 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का प्रथम चरण (1813-1853 ई.)

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1813 ई. का चार्टर एक्ट भारतीय शिक्षा के इतिहास का एक निर्णायक मोड़ है। क्योंकि अब कम्पनी ने भारतीयों की शिक्षा को अपने कर्त्तव्यों में सम्मिलित कर लिया था। इसके बाद ईसाई मिशनरी अधिक-से अधिक संख्या में स्कूल खोलने के लिए भारत आने लगे। 1813 ई. के चार्टर एक्ट से भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में तीव्र विवाद उठ खड़े हुए क्योंकि एक्ट में बहुत ही अस्पष्ट भाषा का प्रयोग किया गया था। एक्ट द्वारा निर्धारित धनराशि किस प्रकार खर्च की जायेगी इसे स्पष्ट नहीं किया गया था। एक्ट में केवल शिक्षा नीति के उद्देश्यों का उल्लेख था। ये उद्देश्य इस प्रकार थे-

(1.) साहित्य का पुनरुद्धार और उन्नति।

(2.) भारतीय विद्वानों को प्रोत्साहन।

(3.) ब्रिटिश भारत की जनता में विज्ञान की स्थापना तथा वृद्धि।

इस एक्ट को लेकर जो प्रश्न उठ खड़े हुए वे थे, वे इस प्रकार थे-

(1.) शिक्षा नीति के उद्देश्यों की भावना क्या है?

(2.) शिक्षा का माध्यम क्या होगा?

(3.) शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था करने वाली एजेन्सियां कौनसी होंगी?

(4.) सर्व-साधारण में शिक्षा के प्रचार के तरीके क्या होंगे?

इन चारों प्रश्नों पर कम्पनी के उच्चाधिकारियों में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गये। सबसे तीव्र मतभेद शिक्षा के माध्यम को लेकर था। इस प्रश्न पर तीन विचारधाराएं सामने आईं-

(1.) कम्पनी के पुराने कर्मचारी संस्कृत और अरबी भाषाओं के अध्ययन पर बल देते थे। उनकी मान्यता थी कि पश्चिमी ज्ञान और साहित्य का ज्ञान इन भाषाओं के माध्यम से दिया जा सकता है।

(2.) मुनरो और एलफिंस्टन, आधुनिक भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने के पक्ष में थे। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक भारतीय भाषाओं के माध्यम से पश्चिमी ज्ञान जनता तक पहुँचाया जा सकता है।

(3.) चार्ल्स ग्रान्ट तथा उसके अनुयायी यह मानते थे कि पश्चिमी ज्ञान को सुचारू रूप देने के लिए अँग्रेजी ही सबसे प्रभावशाली माध्यम है। इस विचारधारा के समर्थक ईसाई मिशनरी और कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी थे। लॉर्ड मैकाले के भारत में आने के बाद यह विचारधारा काफी मजबूत हो गई। अगले बीस वर्षों तक कम्पनी के उच्चाधिकारी इन्हीं विवादों में उलझे रहे।

1833 ई. का चार्टर एक्ट

1833 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी के व्यापार का एकाधिकार समाप्त करके भारत के दरवाजे निजी व्यापारियों के लिये खोल दिये गये। इसका लाभ ईसाई मिशनरियों ने भी उठाया। उन्होंने शिक्षा की आड़ में, ईसाई धर्म के प्रचार का काम तेजी से आगे बढ़ाया।

लॉर्ड मैकाले के विचार

फरवरी 1835 में लॉर्ड मैकाले ने अपना प्रसिद्ध विचार-पत्र लिखा जिसमें उसने भारतीय साहित्य दर्शन एवं ज्ञान के विरुद्ध तथा पश्चिमी ज्ञान एवं अँग्रेजी भाषा के पक्ष में अनोखे तर्क दिये। उसने विज्ञान की शिक्षा देने के लिए अँग्रेजी माध्यम का प्रबल समर्थन किया। उसकी दृष्टि में देशी भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक शिक्षा देने की क्षमता नहीं थी। उसने संस्कृत और अरबी भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने का विरोध किया। अँग्रेजी भाषा का गुणगान करते हुए उसने लिखा- ‘अँग्रेजी भाषा में जो साहित्य अब तक उपलब्घ है वह तीन सौ वर्ष के सम्पूर्ण विश्व की समस्त भाषाओं में उपलब्ध साहित्य से अधिक मूल्यवान है।’

मैकाले के अनुसार यूरोप के एक अच्छे पुस्तकालय की अलमारी का एक खाना संस्कृत और अरबी के सम्पूर्ण देशी साहित्य के बराबर था। मैकाले ने भारतीय आयुर्विज्ञान, ज्योतिष, इतिहास और भूगोल पर करारा प्रहार करते हुए लिखा- ‘आयुर्विज्ञान के सिद्धान्त जो एक अँग्रेज नालबन्द का अपमान करेंगे, ज्योतिष शास्त्र जो एक अँग्रेजी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों में हँसी पैदा करेगा, इतिहास जिसमें तीस फुट ऊँचे बादशाह और तीस हजार वर्ष लम्बा शासन काल होगा, भूगोल जिसमें घी-दूध के समुद्र होंगे; इन सबको हम सरकारी खर्च पर प्रोत्साहन देंगे।’

गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828-1835 ई.) ने मैकाले के विचारों से सहमति प्रकट की। 1834 ई. में बैंटिक ने मैकाले की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसकी कार्यवाही का विवरण 2 फरवरी 1835 को जारी हुआ। यह आधुनिक भारतीय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण घोषणापत्र था। इसे भारतीय शिक्षा के मील के पत्थर के रूप में भी जाना जाता है। इस घोषणा पत्र से चार बातें प्रमुख रूप से उभर कर सामने आईं-

(1.) भारतीय भाषा, साहित्य, दर्शन, विज्ञान एवं ज्ञान हर तरह से बौना है।

(2.) पश्चिमी भाषा एवं ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता निश्चित है।

(3.) भारत में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी होना चाहिये।

(4.) भारत की विशाल जनसंख्या को सरकारी संसाधनों से शिक्षा नहीं दी जा सकती। इसलिये शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

विलियम बैंटिक ने 7 मार्च 1835 को एक आदेश जारी करके कहा कि ब्रिटिश सरकार का महान उद्देश्य भारतीयों में यूरोपीय साहित्य और विज्ञान को प्रोत्साहन देना है। शिक्षा पर व्यय की जाने वाली राशि केवल अँग्रेजी शिक्षा पर ही खर्च की जानी चाहिए। बैंटिक ने भारत में नियमित शिक्षण व्यवस्था के विकास में बहुत रुचि दिखाई।

लॉर्ड मैकाले की देन

भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में मैकाले की देन के विषय पर विद्वानों में भारी मतभेद है। कुछ उसे उन्नति के मार्ग का मशाल वाहक मानते हैं तो कुछ उसे अँग्रेजी शिक्षा के विस्तार के कारण भारत में उत्पन्न होने वाले असन्तोष और राजनीतिक अशान्ति के लिए उत्तरदायी मानते हैं। कुछ विद्वान भारतीय भाषाओं, संस्कृति और धर्म के बारे में उसकी अज्ञानता की कटु आलोचना करते हुए उसे निन्दनीय मानते हैं तो कुछ उसे भारतीय भाषाओं की अवहेलना के लिए दोषी ठहराते हैं। मैकाले को उन्नति के मार्ग का मशाल-वाहक कहना, उसकी अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा करना है। मैकाले द्वारा भारतीय साहित्य और धर्म की अनर्गल आलोचना करना तथा उसका मखौल उड़ाना वास्तव में निन्दनीय है। भारत में अँग्रेजी शासकों ने उसके इस सिद्धान्त का अक्षरंशः पालन किया कि- ‘यदि किसी देश को दास रखना है तो उसके साहित्य और संस्कृति का विनाश कर देना चाहिये।’ उपरोक्त दोषों के होते हुए यह भी सत्य है कि जिस पश्चिमी ज्ञान का मैकाले ने समर्थन किया उस पश्चिमी ज्ञान ने भारत को लाभ भी पहुँचाया। नये ज्ञान और शिक्षा ने भारत में एकता स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। पश्चिमी देशों में होने वाले वैज्ञानिक अनुसन्धानों तथा उपलब्धियों से भारतीयों को परिचित करवाया और भारतीय भाषाओं के विकास में योगदान दिया जिसके फलस्वरूप इन भाषाओं में से कुछ को आगे चलकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा देने योग्य बनाया जा सका।

लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1835 ई. के निर्णय द्वारा भारत में शिक्षा के मूल उद्देश्य और माध्यम को लेकर चल रहे विवाद का समाधान करने का प्रयत्न किया, फिर भी यह विवाद पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। अगले गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड ने नवम्बर 1839 में एक आदेश द्वारा इस विवाद को पूरी तरह से समाप्त किया। उसने शिक्षा पर खर्च की जाने वाली धनराशि को बढ़ा दिया तथा यह आदेश भी दिया कि समाज के वरिष्ठ वर्ग को उच्च शिक्षा दी जाए ताकि यह वर्ग अपनी संस्कृति तथा ज्ञान को जन-साधारण तक पहुँचा सके। यह नीति ऊपर से नीचे की ओर शिक्षा-प्रसार के प्रसिद्ध सिद्धान्त पर आधारित थी। 1844 ई. में कम्पनी सरकार ने एक प्रस्ताव पारित करके स्पष्ट किया कि सरकारी नौकरियों में उन्हीं लोगों को  प्राथमिकता दी जायेगी जो पश्चिमी ज्ञान और अँग्रेजी भाषा जानते होंगे। 1813 ई. से 1853 ई. तक की अवधि में ब्रिटिश प्रान्तों तथा राजपूताना राज्यों में हुए शिक्षा विस्तार का विवरण इस प्रकार से है-

(1.) बंगाल: ब्रिटिश संसद द्वारा 1813 ई. का चार्टर एक्ट पारित किये जाने के बाद, 1817 ई. में कलकत्ता स्कूल बुक सोसाइटी तथा कलकत्ता हिन्दू कॉलेज की स्थापना हुई। 1819 ई. में कलकत्ता स्कूल सोसाइटी स्थापित की गई। इन दोनों सोसाइटियों ने कलकत्ता तथा बंगाल के अन्य स्थानों पर सैकड़ों प्राथमिक स्कूल खोले, जिनके द्वारा शिक्षा का काफी प्रसार हुआ। 1823 ई. में गवर्नर जनरल के आदेश से जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन नाम से एक केन्द्रीय समिति स्थापित की गई। संस्कृत के महान् विद्वान विल्सन को इसका सचिव बनाया गया।

(2.) बम्बई: बम्बई में भी 1815 ई. में सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग दी एजुकेशन ऑफ द पूअर नामक समिति स्थापित की गई। आगे चलकर इस सोसाइटी का नाम बॉम्बे एज्यूकेशन सोसाइटी कर दिया गया। बॉम्बे नेटिव एज्यूकेशन सोसाइटी की भी स्थापना हुई। इन सोसाइटियों ने बम्बई, पूना आदि नगरों में अनेक स्कूल और कॉलेज खोलकर शिक्षा का प्रसार किया।

(3.) मद्रास: मद्रास में भी मद्रास स्कूल सोसाइटी तथा कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन नामक संस्थाएं स्थापित हुईं जिन्होंने मद्रास में शिक्षा प्रसार का सराहनीय कार्य किया। शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए नॉर्मल स्कूलों की स्थापना करना, इन सोसाइटियों का महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस प्रकार तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सियों में, शिक्षा प्रसार के लिए अनेक सोसाइटियों की स्थापना हुई।

(4.) उत्तर-पश्चिमी प्रान्त: उत्तर-पश्चिमी प्रान्त का लेफ्टिनेन्ट गवर्नर जेम्स थॉमसन शिक्षा प्रसार के कार्य में बड़ी रुचि लेता था। उसने निर्णय लिया कि शिक्षा अँग्रेजी माध्यम की बजाय, मातृभाषा में दी जाये। उसने शिक्षा-प्रसार की एक विशद् योजना बनाकर केन्द्र सरकार से स्वीकृत करवाई। परम्परागत देशी शालाओं का सुधार और उनमें राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति की स्थापना, इस योजना की मुख्य विशेषता थी। यह योजना परीक्षण के तौर उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के आठ जिलों में लागू की गई। तत्पश्चात् प्रान्त के अन्य जिलों में भी प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की गई। इन स्कूलों के संचालन के लिए शिक्षा विभाग की स्थापना की गई जिसके अंतर्गत प्रत्येक दो या अधिक तहसीली स्कूलों के निरीक्षण के लिए एक परगना विजिटर नियुक्त किया गया। उसके ऊपर प्रत्येक जिले के लिए एक जिला विजिटर और उसके ऊपर सम्पूर्ण प्रान्त के लिए विजिटर-जनरल नियुक्त किया गया। ये पद ही आगे चलकर सर्किल इन्सपेक्टर, डिस्ट्रिक्ट इन्सपेक्टर और डायरेक्टर ऑफ पब्लिक एज्यूकेशन कहलाए। बाद में यह शिक्षा योजना, बंगाल एवं बिहार में भी लागू कर दी गई।

(5.) पंजाब: 1849 ई. में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय करने के बाद पंजाब के नये प्रान्त की स्थापना हुई थी। उस समय पंजाब में हिन्दू, सिक्ख और मुसलमानों द्वारा बहुत सी प्राथमिक स्कूलें चलाई जा रही थीं। ये स्कूल- मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारों से सम्बद्ध होते थे। इनमें से कुछ में लड़कियों को भी शिक्षा जाती थी किन्तु बहुत ही कम लड़कियां शिक्षा प्राप्त करती थीं। 1849 ई. के बाद सरकार ने अमृतसर में एक स्कूल खोला जिसमें अन्य विषयों के साथ-साथ अँग्रेजी भी पढ़ाई जाती थी। इसके बाद 1853 ई. तक वहाँ कोई सरकारी स्कूल नहीं खोला गया।

(6.) राजपूताना: लॉर्ड हेस्टिंग्ज के समय 1818 ई. में राजपूताना की प्रायः समस्त रियासतों के साथ अँग्रेजों ने सहायक सन्धियां कीं। राजपूताना की सैनिक परम्पराओं के कारण लॉर्ड हेस्टिंग्ज का राजपूताना से विशेष लगाव था। उसने सेरामपुर (बंगाल) के प्रसिद्ध ईसाई पादरी विलियम कैरे के पुत्र जबेज कैरे को राजपूताने में शिक्षा-प्रसार के लिए भेजा और उसे शिक्षा अधीक्षक के पद पर नियुक्त किया। 1819 ई. में उसने अजमेर पहुँच कर एक स्कूल की स्थापना की। तत्पश्चात् उसने पुष्कर में भी एक स्कूल खोला। अगले तीन वर्षों में उसने भिनाय और केकड़ी में भी स्कूल खोले किन्तु जबेज इन स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा देने लगा तो लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने उसे फटकारा। इन स्कूलों की विशेष प्रगति न देखकर 1827 ई. में इन्हें बन्द करके केवल अजमेर का स्कूल चालू रखा। 1831 ई. में उसे भी बन्द कर दिया गया।

इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा राजपूताने में शिक्षा प्रसार का प्रथम प्रयास लगभग असफल रहा। 1836 ई. में कम्पनी ने पुनः अजमेर में एक स्कूल खोला। उसे भी जनवरी 1843 में बन्द कर देना पड़ा। 1851 ई. में अजमेर में पुनः एक स्कूल खोला। तब से अजमेर में निरन्तर शिक्षा की प्रगति होती रही। राजस्थान की अन्य रियासतों में भी वहाँ के ब्रिटिश पोलीटिकल एजेन्टों के प्रयत्न से कुछ स्कूल खोले गये। 1842 ई. में अलवर तथा भरतपुर और 1844 ई. में जयपुर में प्रथम आधुनिक स्कूल खोला गया।

तकनीकी शिक्षा

1833 ई. से 1853 ई. की अवधि में भारत में स्त्रियों तथा मुसलमानों की शिक्षा के लिए कुछ प्रयत्न किये गये किन्तु उनका कोई ठोस परिणाम नहीं आया। इस अवधि में मेडिकल, इन्जीनीयरिंग तथा अन्य तकनीकी शिक्षा के लिए भी कुछ कदम उठाये गये। 1835 ई. में कलकत्ता और मद्रास में तथा 1845 ई. में बम्बई में मेडिकल कॉलेज खोले गये। 1846-47 ई. में अजमेर में भी मेडिकल स्कूल खोलने का प्रयास किया गया किन्तु यह प्रयास सफल नहीं हुआ। 1847 ई. में रुड़की में भारत का प्रथम इन्जीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया। 1850 ई. में मद्रास में एक औद्योगिक तथा व्यवसायिक स्कूल स्थापित किया गया।

शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयास

भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए ईसाई मिशनरियों तथा कम्पनी के अधिकारियों के साथ-साथ कुछ भारतीयों तथा अँग्रेजों द्वारा व्यक्तिगत रूप से भी प्रयास किये गये। ऐसे व्यक्तियों में राजा राममोहन राय, डेविड हेयर, मेथ्यून तथा बम्बई के प्रोफेसर पैट्टन, जगन्नाथ शंकर सेत और ज्योति बा फूले प्रमुख हैं।

(1.) राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.): राजा राममोहन राय की मान्यता थी कि अलगाव की प्रवृत्ति के कारण भारतीय मस्तिष्क क्षीण हो गया है, अतः पाश्चात्य ज्ञान और साहित्य का अध्ययन भारतीयों में स्फूर्ति और ताजगी पैदा कर सकता है। इसलिए उन्होंने भारतीय तथा पश्चिमी संस्कृतियों के समन्वय पर जोर दिया। उनकी धारणा थी कि अँग्रेजी भाषा तथा पश्चिमी विज्ञान के अध्ययन से भारतीयों की निष्क्रियता और कूपमंडूकता दूर होगी। उन्होंने इंग्लैण्ड-वासियों के समक्ष प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति और साहित्य के उज्जवल पक्ष को रखकर, भारत तथा इंग्लैण्ड के मध्य सांस्कृतिक पुल बनाने का कार्य किया। उन्होंने अँग्रेजी के अध्ययन के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर भी जोर दिया। उन्होंने स्वयं बंगला भाषा में व्याकरण, भूगोल, ज्योतिष, गणित आदि विषयों पर पुस्तकें लिखकर अन्य साहित्यिक लोगों के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर दिया और धर्मशास्त्रों के अध्ययन पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन समय में भारत में स्त्रियां शिक्षित होती थीं। इस प्रकार अँग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर जोर देकर उन्होंने भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारतीय शिक्षा के इतिहास में राजा राममोहन राय का विशिष्ट स्थान है।

(2.) डेविड हेयर (1775-1842 ई.): डेविड हेयर पेशे से घड़ीसाज और जौहरी होते हुए भी शिक्षा में बड़ी रुचि रखता था। वह भारतीयों की दशा सुधारने के लिए पाश्चात्य साहित्य तथा विज्ञान का अध्ययन आवश्यक समझता था। वह अँग्रेजी साहित्य के अध्ययन पर तो जोर देता था किन्तु ईसाई पादरियों द्वारा दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा का विरोधी था। उसका विचार था कि भारत को ऐसे असाम्प्रदायिक स्कूलों तथा कालेजों की आवश्यकता है जहाँ अँग्रेजी भाषा और साहित्य के अध्ययन के साथ-साथ मातृभाषा की भी शिक्षा दी जाये। कलकत्ता का हिन्दू कॉलेज उसके विचारों का प्रतीक था जिसकी स्थापना तथा विकास में डेविड हेयर ने प्रचुर आर्थिक सहायता दी। कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज को लोकप्रिय बनाने में उसका बड़ा हाथ था। वह प्राथमिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा में भी काफी रुचि रखता था। शिक्षा के क्षेत्र में हेयर की सबसे बड़ी देन यह थी कि वह शिक्षण संस्थाओं को धर्म प्रचार का साधन बनाने के विरुद्ध था।

(3.) बैथ्यून (1801-1851 ई.): गवर्नर जनरल की कौंसिल का विधि सदस्य तथा शिक्षा समिति का अध्यक्ष बैथ्यून, स्त्री-शिक्षा का प्रबल समर्थक था किंतु 1849-50 ई. तक कम्पनी की नीति स्त्री-शिक्षा पर कुछ भी खर्च नहीं करने की थी। इसलिये बैथ्यून ने अपने धन से कलकत्ता में एक असाम्प्रदायिक कन्या पाठशाला की स्थापना की। 1851 ई. में मृत्यु के कुछ समय पूर्व, उसने अपनी सारी सम्पत्ति इस पाठशाला को अर्पित कर दी। यही कन्या पाठशाला आगे चलकर प्रसिद्ध बैथ्यून गर्ल्स कॉलेज में परिवर्तित हो गई। इस प्रकार स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में बैथ्यून का योगदान सराहनीय रहा।

(4.) प्रोफेसर पैट्टन: नारी शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाले प्रोफेसर पैट्टन बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में प्राध्यापक थे। उन्होंने कॉलेज में एक साहित्य तथा विज्ञान सोसाइटी बनायी तथा इसके माध्यम से साहित्यिक विषयों पर वाद-विवाद आयोजित कर शिक्षा के प्रति लोगों में रुचि पैदा की। उन्होंने मराठी तथा गुजराती भाषाओं के माध्यम से शिक्षा का बहुत प्रचार किया। उनकी सोसाइटी ने अनेक कन्या पाठशालाएं स्थापित कीं जिनमें से बहुत सी आज भी चल रही हैं।

(5.) जगन्नाथ शंकर सेत (1803-1865 ई.): बम्बई के सम्पन्न परिवार के जगन्नाथ शंकर सेत की मान्यता थी कि ईसाई मिशनरियों द्वारा दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा से बचने के लिये भारतीयों को अपनी शिक्षा संस्थाएं स्थापित करनी चाहिए। वे अँग्रेजी भाषा तथा पाश्चात्य विज्ञान के साथ-साथ हिन्दू संस्कृति के प्रबल समर्थक थे। राजा राममोहनराय की तरह वे भी प्राच्य तथा पाश्चात्य संस्कृतियों के समन्वय के पक्ष में थे। उनकी धारणा थी कि मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देना अधिक सुलभ है। उन्होंने अपना धन लगाकर अनेक यूरोपीय ग्रन्थों का मराठी में अनुवाद करवाया। वे स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे।

(6.) ज्योति बा फूले (1828-90 ई.): ज्योति बा फूले साधारण माली परिवार से थे। उन्हें स्वयं शिक्षा ग्रहण करने में जिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा उससे उन्हें अनुभव हो गया कि दलित और शोषित वर्ग को शिक्षा प्राप्त करने में क्या कठिनाईयां झेलनी पड़ती हैं। इसीलिए उन्होंने हरिजनों के लिए विद्यालय खोले। इस कार्य से उन्हें उच्च-वर्ण हिन्दुओं का प्रबल विरोध झेलना पड़ा किन्तु वे हताश नहीं हुए और उच्च-वर्ण हिन्दुओं के विरोध के उपरांत भी ये पाठशालाएं चलती रहीं। उन्होंने अपनी पत्नी को भी पढ़ाया। कुछ समय बाद उन्होंने एक कन्या पाठशाला खोली जिसमें अपनी पत्नी को अध्यापन का कार्य सौंपा। उच्च-सवर्ण हिन्दुओं ने उनकी पत्नी को स्कूल जाते समय पत्थरों से मारा किन्तु फूले दम्पत्ति विचलित नहीं हुए और उन्होंने दलित एवं शोषित कन्याओं की शिक्षा का कार्य जारी रखा। उन्होंने अनाथालय तथा विधवाश्रम जैसी संस्थाएं स्थापित कीं जहाँ समाज से ठुकराये हुए व्यक्तियों को आश्रय मिलता था। इस प्रकार दलित, शोषित और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित व्यक्तियों के उद्धार एवं शिक्षा के लिए ज्योति बा फूले ने उल्लेखनीय एवं सराहनीय कार्य किया।

अध्याय – 26 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का दूसरा चरण (1854-1882 ई.)

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1835 से 1853 ई. तक मैकाले द्वारा निर्धारित नीति पर भारत में पाश्चात्य शिक्षा का विकास हुआ। 18 वर्ष के इस काल में मैकाले की नीति में कई कमियां अनुभव की गईं जिन्हें दूर करना आवश्यक था। इसलिये 1853 ई. में ब्रिटिश संसद ने भारतीय शिक्षा की प्रगति की जांच के लिए एक समिति नियुक्त की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर कम्पनी ने 1854 ई. में शिक्षा घोषणा पत्र जारी किया। इसे कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड के नेतृत्व में तैयार किया गया था, इसलिए इसे वुड का घोषणा पत्र कहा जाता है। इसमें भारतीय शिक्षा के विविध पक्षों पर विस्तार से चर्चा की गई थी। भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणा-पत्र का अत्यधिक महत्त्व है।

वुड का घोषणा पत्र

वुड घोषणा-पत्र में शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न बिंदुओं के विषय में अनेक नई योजनाओं की अनुशंसा की गई-

(1.) शिक्षा का उत्तरदायित्च: वुड के घोषणा-पत्र में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय शिक्षा के प्रसार का पूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार करते हुए कहा कि भारतीयों का नैतिक, बौद्धिक एवं आर्थिक स्तर ऊँचा करने के लिए उपयोगी ज्ञान के प्रसार की आवश्यकता है।

(2.) भाषाओं का प्रश्न: भारतीयों को अँग्रेजी साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ संस्कृत और अरबी के ज्ञान का भी महत्त्व है। अँग्रेजी माध्यम केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए होगा जो इस भाषा को भली-भाँति पढ़ सकते हों तथा इसके माध्यम से साधारण ज्ञान प्राप्त कर सकते हों। अन्य समस्त भारतीयों के लिए भारतीय भाषाएँ ही अधिक उपयुक्त होंगी। उच्च विद्यालयों में अँग्रेजी तथा देशी दोनों ही भाषाओं में अध्यापन की व्यवस्था होगी।

(3.) शिक्षा विभाग: शिक्षा के कार्य को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए कम्पनी के अधीन पाँच प्रान्तों में शिक्षा विभाग की स्थापना की जाये जिसका सर्वोच्च अधिकारी लोक शिक्षा निदेशक हो और उसके अधीन शिक्षा निरीक्षक हों।

(4.) विश्वविद्यालय: भारतीयों को उच्च शिक्षा देने के लिए लन्दन विश्वविद्यालय के नमूने पर कलकत्ता और बम्बई में एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की जाये। आवश्यकता होने पर मद्रास या किसी अन्य स्थान पर ऐसा ही एक और विश्वविद्यालय स्थापित किया जाये। इन विश्वविद्यालयों का मुख्य काम परीक्षा लेकर डिग्री देना होगा।

(5.) श्रेणीबद्ध विद्यालयों की स्थापना: शिक्षा को व्यापक रूप देने के लिए सम्पूर्ण भारत में श्रेणीबद्ध विद्यालयों की स्थापना की जाए। विश्वविद्यालयों तथा उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों की स्थापना के बाद हाई स्कूलों तथा देशी स्कूलों को भी उनसे जोड़ा जाये। इस प्रकार शिक्षा के उच्चतम शिखर पर विश्वविद्यालय हों तथा निम्नतम स्तर पर देशी पाठशालाएँ हों। उनमें तारतम्य एवं सामंजस्य स्थापित करने के लिये हाई स्कूलों तथा मिडिल स्कूलों की शृंखला हो।

(6.) निजी शिक्षण संस्थाओं को प्रोत्साहन: उपरोक्त योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए काफी धन की आवश्यकता थी जिसे व्यय करना कम्पनी की नीति में नहीं था। इसलिये वुड के घोषणा-पत्र में सुझाव दिया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी शिक्षण-संस्थाओं का स्वागत किया जाये तथा निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए शिक्षा-सहायता की पद्धति चालू की जाए।

(7.) शिक्षक प्रशिक्षण: घोषणा-पत्र में कहा गया कि भारत के हर प्रान्त में शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की जाये और प्रशिक्षण की अवधि में छात्राध्यापकों को छात्रवृत्तियाँ दी जायें। शिक्षा-कार्य की ओर योग्य व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए अध्यापकों के वेतन में वृद्धि की जाए।

(8.) शिक्षा और नौकरियाँ: घोषणा-पत्र में कहा गया कि शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करना नहीं है अपितु शिक्षा प्राप्त करना अपने-आप में एक उपलब्धि है जो जीवन को लाभदायक तथा योग्य बनाने के लिए आवश्यक है। शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता देने की अनुशंसा की गई।

(9.) स्त्री-शिक्षा: घोषणा-पत्र में स्त्री-शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया तथा कन्या पाठशालाओं को विभिन्न प्रकार से प्रोत्साहन देने का सुझाव दिया गया। उन्हें सरकारी वित्तीय सहायता देकर सरकार के मैत्री एवं सहानुभूति-पूर्ण रवैये से परिचित कराने की बात भी कही गई।

(10.) जन शिक्षा: वुड्स घोषणा-पत्र में जन-शिक्षा पर जोर दिया गया जबकि अब तक समाज के उच्च वर्ग की शिक्षा पर ही जोर दिया जाता था

वुड घोषणा पत्र के बाद हुई प्रगति

(1.) विश्वविद्यालयी शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र के अनुसार 1857 ई. में तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सी नगरों- कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में लन्दन विश्वविद्यालय के अनुकरण पर एक-एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया जिनका मुख्य कार्य परीक्षा लेना और डिग्रीयाँ देना था। प्रत्येक विश्वविद्यालय का प्रबन्ध विश्वविद्यालय की सीनेट को सौंपा गया जिसके अधिकांश सदस्य या तो पदेन अधिकारी थे या सरकार द्वारा मनोनीत सरकारी अधिकारी। कुछ अध्यापकों को भी इसका सदस्य मनोनीत किया गया। दुर्भाग्य से अधिकांश सरकारी अधिकारी ऐसे व्यक्ति थे जिनकी शिक्षा के क्षेत्र में कोई रुचि एवं योग्यता नहीं थी। विश्वविद्यालयों में प्राच्य तथा देशी भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था भी नहीं की गई।

(2.) महाविद्यालयी शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र के अनुसार देश की विभिन्न भागों में सरकारी तथा निजी क्षेत्र में महाविद्यालय स्थापित हुए। कलकत्ता और मद्रास में प्रेसीडेन्सी कॉलेज, लाहौर का यूनिवर्सिटी कॉलेज, इलाहाबाद का सैन्ट्रल कॉलेज और अजमेर का गवर्नमेन्ट कॉलेज सरकार द्वारा स्थापित मुख्य कॉलेज थे। निजी क्षेत्रों में कलकत्ता के विद्यासागर और सिटी कॉलेज, मद्रास प्रान्त के पच्चैयप्या, विशाखापट्टम और टिन्नेवल्ली कॉलेज, आगरा के आगरा और सेन्ट जॉन्स कॉलेज, लखनऊ का केनिंग कॉलेज, अलीगढ़ का मोहम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल कॉलेज, दिल्ली का स्टीफेन्स कॉलेज और लाहौर का फोरमैन कॉलेज प्रमुख थे। 1873 ई. में जयपुर का महाराजा कॉलेज हाई स्कूल स्तर से कॉलेज में क्रमोन्नत किया गया। इसी अवधि में राजकुमारों की शिक्षा के लिए सरकार द्वारा राजकोट (राजकोट कॉलेज), अजमेर (मेयो कॉलेज), इन्दौर (डेली कॉलेज) और कुछ समय बाद लाहौर में (एचिसन कॉलेज) खोले गये।

(3.) माध्यमिक शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र के बाद नव-स्थापित शिक्षा विभागों ने अपने अपने प्रान्तों में माध्यमिक स्कूलों की स्थापना पर बल दिया तथा वित्तीय अनुदान देकर उनकी आर्थिक सहायता की। अनेक भारतीयों और विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधि भी इस क्षेत्र में काम करने के लिए आगे आये। उनके प्रयत्नों से बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र में हाई स्कूल खोले गये। कुछ समय बाद प्रायः समस्त स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी कर दिया गया।

(4.) प्राथमिक शिक्षा: 1854 ई. में जितने सरकारी प्राथमिक स्कूल थे, उनसे दो-गुने मिशनरी स्कूल थे। अतः प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का एकाधिकार सम्भव नहीं था। घोषणा-पत्र मे अनुदान द्वारा निजी क्षेत्र की स्कूलों को प्रोत्साहन देने की बात कही गई थी तथा पहले से चले आ रहे देशी स्कूलों में सरकारी निरीक्षण द्वारा सुधार करने का सुझाव दिया गया था किन्तु दुर्भाग्य से यह सुझाव कार्यान्वित नहीं हो सका क्योंकि अनुदान की धनराशि का अधिकांश भाग उच्च शिक्षा पर खर्च कर दिया गया। इसलिए प्राथमिक स्कूल खोलने के लिए नया शिक्षा-कर लगाने तथा इसके लिए जनता से धन एकत्रित करने के प्रस्तावों से जनता में असन्तोष बढ़ गया। 1858 ई. में भारत सचिव लॉर्ड स्टेनले ने प्राथमिक स्कूलों को दिये जाने वाले अनुदान को समाप्त कर स्थानीय शिक्षा-कर वसूल करने का आदेश दिया। इससे जनता में अत्यधिक रोष उत्पन्न हुआ। अतः प्रान्तों में प्राथमिक शिक्षा की अलग-अलग योजनाएँ बनाई गईं। 1871 ई. से 1882 ई. की अवधि में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हुई। 1870-71 ई. में ब्रिटिश भारत में 16,473 प्राथमिक स्कूल थे, 1881-82 ई. में इनकी संख्या 82,916 हो गई। फिर भी भारत प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ था। 1881-82 ई. में ब्रिटिश भारत में स्कूल जाने वाले बालक-बालिकाओं की कुल संख्या लगभग साढ़े 19 करोड़ में से केवल ढाई करोड़ थी।

(5.) स्त्री-शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र में स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन देने की बात कही गई थी किन्तु सरकार को स्त्री-शिक्षा का दायित्व ग्रहण करने का आदेश नहीं दिया गया था। इसलिए स्त्री-शिक्षा की प्रगति बहुत धीमी रही। पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-शिक्षा के प्रति अभिभावकों की लापरवाही, पश्चिमी शिक्षा के प्रति लोगों में अविश्वास, मध्यम वर्ग की कमजोर आर्थिक स्थिति, स्त्री-शिक्षकों का सर्वथा अभाव, स्त्री-शिक्षा के लिए उचित पाठ्यक्रम का अभाव आदि कई कारण थे जिन्होंने स्त्री-शिक्षा की प्रगति को धीमा रखा। फिर भी बंगाल, बम्बई, मद्रास और उत्तर-पश्चिम प्रान्त में स्त्री-शिक्षा के लिए कई स्कूल खुल गये। इस दिशा में ईसाई मिशनरियों का योगदान उल्लेखनीय रहा। बंगाल में ब्रह्म समाज और बम्बई में पारसी अन्जूमन स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बंगाल में स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। पूना में महाराष्ट्र स्त्री-शिक्षा सोसायटी ने भी इस दिशा में सराहनीय कार्य किया। इन सबके उपरांत, स्त्रियों के लिए विश्वविद्यालयी शिक्षा के द्वार बिल्कुल बन्द थे।

(6.) मुसलमानों की शिक्षा: ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में मुसलमानों में यह भावना तीव्र थी कि अँग्रेजी पढ़ने से उनका धर्म नष्ट हो जायेगा। मुल्ला और मौलवियों ने मुसलमानों को यह कहकर उकसाया कि परम्परागत मुस्लिम मकतब और मदरसों की शिक्षा ही लाभदायक है। 1857 ई. के विप्लव के बाद मुसलमानों ने यह अनुभव किया कि अँग्रेजी शिक्षा के अभाव में वे सरकारी नौकरियाँ प्राप्त करने में हिन्दू तथा अन्य जातियों से पिछड़ जायेंगे। अतः सर सैयद अहमदखाँ ने मुसलमानों को अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने मुसलमानों को समझाया कि मुस्लिम समाज को उन्नत करने के लिए पाश्चात्य साहित्य तथा विज्ञान का अध्ययन करना आवश्यक है। 1871-72 ई. में गवर्नर जनरल के आदेश पर भारत सरकार ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें मुसलमानों में अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार के तरीकों पर प्रकाश डाला गया। इस दिशा में सबसे ठोस कार्य सर सैयद अहमदखाँ ने 1875 ई. में अलीगढ़ में मोडम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल कॉलेज की स्थापना करके किया। यही कॉलेज आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में परिवर्तित हो गया। इस संस्था ने मुसलमानों का शैक्षिक विकास किया तथा उनमें संगठन की भावना उत्पन्न की। इस कॉलेज की शिक्षा ने ही मुसलमानों में मुस्लिम राष्ट्रवाद को जन्म दिया।

(7.) विधि शिक्षा: 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में विधि शिक्षा के बहुत कम प्रयास किये गये। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय न्यायालयों में इंग्लैण्ड की न्याय-पद्धति का ही प्रयोग होता था, जिसके अनुसार मुकदमों की पैरवी वकीलों द्वारा की जाती थी। इसके लिए कानून की शिक्षा अनिवार्य थी। इसलिए बम्बई और मद्रास विश्वविद्यालयों में विधि-शिक्षा के लिए विधि के प्रोफेसर नियुक्त किये गये।

(8.) चिकित्सा शिक्षा: कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की शिक्षा देने के लिए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना की गई थी। इसी प्रकार 1860 ई. में पंजाब में भी एक मेडिकल कॉलेज स्थापित किया गया। जिन प्रान्तों में मेडिकल कॉलेज नहीं थे वहाँ के छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देकर पड़ौस के प्रान्तों में मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने के लिए भेजा जाता था। अन्य बहुत से प्रान्तों में मेडिकल स्कूल थे जहाँ चिकित्सा शास्त्र की साधारण शिक्षा दी जाती थी। राजपूताने में भी 1861 ई. में जयपुर नरेश सवाई रामसिंह ने अपनी राजधानी में एक मेडिकल कॉलेज  खोला किन्तु अँग्रेज अधिकारियों के पारस्परिक वैमनस्य तथा साधारण जनता में चीर-फाड़ के प्रति गहरी अरुचि के कारण 1868 ई. में उसे बन्द कर देना पड़ा।

 (9.) इन्जीनियरिंग शिक्षा: 1847 ई. में रुड़की में थॉमसन इन्जीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया। तत्पश्चात् बंगाल में शिवपुर में तथा पूना व मद्रास में भी इन्जीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना की गई। कुछ स्थानों पर इन्जीनियरिंग स्कूल भी खोले गये जिनमें शिक्षा प्राप्त कर भारतीय नवयुवक, सार्वजनिक निर्माण विभाग तथा नगरपालिकाओं की सेवाओं में प्रवेश पाने लगे।

(10.) कृषि शिक्षा: भारत में कृषि शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। मद्रास के सैदापेट में 1864 ई. में एक कृषि फार्म खोला गया जो आगे चलकर कॉलेज बन गया। इसी प्रकार पूना के कॉलेजों में कृषि-विभाग खोला गया।

(11.) पशु-चिकित्सा: भारत में अँग्रेजों के पास जो घुड़सवार सेना थी, उसके घोड़ों की चिकित्सा इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त वेटरिनरी-सर्जन करते थे। 1882 ई. तक भारत में पशु चिकित्सा शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई। केवल परम्परागत नाल-साज ही पशुओं की थोड़ी-बहुत चिकित्सा करते थे।

(12.) वानिकी शिक्षा: हिमालय की तलहटी, अरावली एवं सतपुड़ा की पहाड़ियों, पूर्वी तथा पश्चिमी घाट आदि स्थानों में सघन वन थे। 1878 ई. में देहरादून में एक फोरेस्ट स्कूल खोला गया जो कालान्तर में एशिया के सर्वश्रेष्ठ वन-स्कूलों में गिना जाने लगा। इसी प्रकार पूना में भी वानिकी शिक्षा की व्यवस्था की गई।

(13.) कला-शिक्षा: कलकत्ता का आर्ट स्कूल, कला शिक्षा का एक प्रमुख विद्यालय था। इसी नमूने पर बाद में बम्बई, मद्रास और लाहौर में भी आर्ट स्कूल खोले गये, जिनमें चित्रकला की शिक्षा दी जाती थी। जयपुुर में भी महाराजा सवाई रामसिंह के शासन काल में 1861 ई. में एक आर्ट स्कूल खोला गया जो उस समय भारत के आर्ट स्कूलों में प्रमुख माना जाता था।

(14.) लोक शिक्षा विभागों की स्थापना: वुड के घोषणा-पत्र की अनुशंसा के अनुसार प्रत्येक प्रान्त में एक-एक शिक्षा विभाग की स्थापना की गई जिसका सर्वोच्च अधिकारी लोक निदेशक होता था। उसके अधीन निरीक्षक, उप-निरीक्षक आदि अधिकारी रखे गये। इस विभाग का मुख्य काम प्रान्तीय सरकार को शिक्षा सम्बन्धी मामलों पर परामर्श देना, प्रान्तीय तथा केन्द्रीय सरकारों द्वारा शिक्षा के लिए प्रदत्त धनराशि का प्रबन्ध करना, शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना, निजी शिक्षण संस्थाआंें का निरीक्षण करना और शिक्षा की प्रगति पर सरकार को वार्षिक रिपोर्ट भेजना था। इन विभागों की स्थापना के काफी समय बाद तक इनमें उच्च पदों पर अँग्रेज अधिकारी ही नियुक्त किये जाते रहे। सेवा नियम तथा वेतन आदि अधिक लाभदायक न होने के कारण इंग्लैण्ड से बहुत ही कम शिक्षाविद् इन सेवाओं की ओर आकर्षित होते थे। स्कूलों की बढ़ती हुई संख्या के अनुपात में अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की जाती थी। इससे शिक्षा विभाग की कार्य कुशलता पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। फिर भी इन विभागों ने शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय काम किया।

(14.) निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुदान: सरकार द्वारा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने की प्रथा से निजी शिक्षण संस्थाओं की वृद्धि हुई।

वुड घोषणा पत्र का महत्त्व

भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणा पत्र का विशेष महत्त्व है। इसके द्वारा ब्रिटिश संसद ने भारतीयों की शिक्षा का उत्तरदायित्व पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया तथा उसे वैधानिक स्वरूप प्रदान किया। यह प्रथम अवसर था जब भारतीय शिक्षा के विभिन्न पहलुआंे पर इतने विस्तार से विचार किया गया। इसी घोषणा-पत्र के अनुसार कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये तथा प्रत्येक प्रान्त में अलग शिक्षा विभाग की स्थापना की गई। शिक्षा विभाग ने माध्यमिक और प्राथमिक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया तथा निजी शिक्षण संस्थाओं को वित्तीय अनुदान देना प्रारम्भ किया। शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए विद्यालय स्थापित कर शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास किया गया।

इस घोषणा-पत्र की बहुत-सी बातों को कार्यान्वित नहीं किया जा सका। भारतीय भाषाओं के विकास का सुझाव केवल कागजों तक ही सीमित रहा तथा इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने से शिक्षा के निजी प्रयासों को प्रोत्साहन मिलने तथा सरकार के शिक्षा क्षेत्र से हट जाने की आशा थी किंतु ऐसा नहीं हुआ। सर्व-साधारण की शिक्षा योजना भी फाइलों में दबकर रह गई।

फिर भी भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणा-पत्र का बड़ा महत्त्व है। इस घोषणा-पत्र से शिक्षा के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। ब्रिटिश विद्वानों ने इसे भारतीय शिक्षा का मेग्नाकार्टा कहा है किन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है क्योंकि हिन्दू शासक कभी भी, समाज की शिक्षा प्राप्ति में अवरोधक नहीं थे। मुसलमानों के शासनकाल में अवश्य ही हिन्दुओं को धार्मिक शिक्षा प्राप्त करना कठिन हो गया था।

अध्याय – 27 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का तीसरा चरण (1882-1901 ई.)

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1854 ई. के वुड घोषणा पत्र तथा 1858 ई. की महारानी विक्टोरिया की घोषणा में कहा गया था कि सरकार धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं देगी। इस कारण भारत की मिशनरी संस्थाएँ, जिनमें धार्मिक शिक्षा दी जाती थी, सरकारी अनुदान प्राप्त करने से वंचित हो गईं। इस नीति के विरुद्ध इंग्लैण्ड में एक आन्दोलन चलाया गया। इस कारण सरकार को इस विषय पर ध्यान देना आवश्यक हो गया।

हण्टर आयोग की नियुक्ति

गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन ने फरवरी 1882 में सर विलियम हण्टर की अध्यक्षता में हण्टर आयोग नियुक्त किया। इसमें अध्यक्ष सहित 21 सदस्य थे जिनमें से 8 भारतीय थे। इस आयोग का उद्देश्य यह जानना था कि 1854 ई. के घोषणा पत्र में उल्लिखित नीति का किस सीमा तक पालन किया गया है। आयोग को निर्देश दिया गया कि वह यह भी बताये कि उक्त नीति को सुचारू रूप से कार्यान्वित करने के लिए सरकार को कौनसे कदम उठाने चाहिए। आयोग यह भी सुझाव दे कि प्राथमिक शिक्षा के विकास और प्रगति के लिए सरकार को क्या विशेष प्रयत्न करने चाहिये। आयोग बताये कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक अनुदान की प्रथा कहाँ तक सफल हुई है तथा सरकार के दृष्टिकोण को अधिक उदार बनाने के लिए इस प्रथा में क्या परिवर्तन किये जायें?

योग मूलतः प्राथमिक शिक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए नियुक्त किया गया था किन्तु आयोग ने माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, मुसलमानों तथा अन्य पिछड़ी जातियों की शिक्षा, शिक्षक प्रशिक्षण, धार्मिक शिक्षा और शिक्षा विभाग में सुधार आदि विषयों के सम्बन्ध में भी महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। इस प्रकार 1882 ई. का वर्ष भारतीय शिक्षा के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा।

(1.) प्राथमिक शिक्षा: आयोग ने प्राथमिक शिक्षा की नीति, प्रबन्ध, देशी शिक्षा को प्रोत्साहन, प्राथमिक शिक्षा का माध्यम आदि विषयों पर कई सुझाव दिये। प्राथमिक शिक्षा से सम्बन्धित प्रमुख सुझाव इस प्रकार से थे-

(अ.) प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए।

(ब.) प्राथमिक शिक्षा में व्यापारिक गणित, हिसाब, जमीन की नाप-तौल, प्राकृतिक विज्ञान और कृषि, स्वास्थ्य और औद्योगिक कलाओं में उसका उपयोग आदि विषय सम्मिलित किये जाने चाहिये।

(स.) प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को अधिक कठोर नहीं बनाया जाना चाहिये।

(द.) प्रान्तों को स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए कि वे अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार पाठ्यक्रम का स्वरूप निर्धारित कर सकें।

(य.) प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था, विस्तार और सुधार के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

(र.) स्थानीय निकायों के राजस्व से ही प्राथमिक शिक्षा का व्यय पूरा किया जाना चाहिये। 

(ल.) प्रान्तीय सरकारें अपने राजस्व में से प्राथमिक शिक्षा पर व्यय करें। प्राथमिक स्कूलों के निदेशन एवं निरीक्षण का सारा व्यय भी प्रान्तीय सरकारों को वहन करना चाहिए तथा प्रान्तीय सरकारों को प्रत्येक जिले में एक-एक नार्मल स्कूल खोलने का दायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए।

आयोग ने भारतीयों द्वारा संचालित परम्परागत शिक्षण संस्थाओं की भी जाँच की तथा सुझाव दिया कि ये संस्थाएँ अत्यन्त लाभदायक हैं, अतः इनको संरक्षण दिया जाना चाहिये। इन संस्थाओं को विकसित कर उन्हें सामयिक आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जा सकता है। आयोग ने इन संस्थाओं का प्रबन्ध स्थानीय स्वशासित संस्थाओं द्वारा किये जाने का सुझाव दिया तथा कहा कि परम्परागत देशी प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं के विकास के लिए सरकार को उन्हें अधिक अनुदान देकर उनका अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिए। 

(2.) माध्यमिक शिक्षा: हण्टर आयोग ने माध्यमिक-शिक्षा के सम्बन्ध में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये-

(अ.) योग्य एवं कुशल भारतीयों के हाथों में माध्यमिक-शिक्षा का भार सौंप कर सरकार उससे अपना हाथ खींच ले।

(ब.) जहाँ स्थानीय सहयोग पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो वहाँ सरकार अधिक से अधिक अनुदान देकर माध्यमिक-शिक्षा को प्रोत्साहित करे किन्तु जहाँ स्थानीय सहयोग पर्याप्त मात्रा में उलब्ध न हो, वहाँ सरकार स्वयं माध्यमिक स्कूल खोले। किन्तु अन्ततोगत्वा इन स्कूलों को भी सरकार स्थानीय संस्थाओं को सौंप दे, बशर्ते कि ऐसा करने से इन स्कूलों का शिक्षण स्तर नहीं गिरे और उनके स्थायित्व में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचे।

(स.) जिस जिले में जनता समृद्ध न हो वहाँ सरकार एक-एक आदर्श हाई स्कूल स्थापित करे।

(द.) माध्यमिक-शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को पर्याप्त प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा उदारतापूर्वक अनुदान राशि देने की अनुशंसा की गई।

(य.) माध्यमिक-शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को पर्याप्त प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा उदारतापूर्वक अनुदान राशि देने की अनुशंसा की गई और सुझाव दिया गया कि ऐसी हाई स्कूलों में, सरकारी स्कूलों की अपेक्षा कम फीस ली जाये।

(र.) आयोग ने देशी भाषाओं की उपेक्षा करते हुए माध्यमिक स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी रखने पर जोर दिया गया।

(ल.) माध्यमिक स्कूलों के लिए दो प्रकार के पाठ्यक्रम रखे जायें। क्योंकि आयोग ने अनुभव किया कि हाई स्कूल के विद्यार्थियों का लक्ष्य विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेना होता है, क्रियात्मक या व्यवसायिक शिक्षा की ओर उनका ध्यान कम ही होता है। फलस्वरूप उनकी शिक्षा केवल किताबी ज्ञान पर आधारित थी, जिसका जीवन की यथार्थता से कोई मेल नहीं था। इसलिए आयोग ने सुझाव दिया कि हाई स्कूल की उच्च कक्षाओं में दो प्रकार के पाठ्यक्रम रखे जायें ‘ए-कोर्स’ उन छात्रों के लिए जो विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में प्रवेश लेने के लिए प्रवेश-परीक्षा देना चाहते हों तथा ‘बी-कोर्स’ उन छात्रों के लिए हो जो हाई स्कूल के बाद व्यवसायिक, औद्योगिक या किसी अन्य असाहित्यिक प्रवृत्तियों की ओर जाना चाहते हों।

(3.) उच्च-शिक्षा: यद्यपि हण्टर आयोग का मुख्य कार्य प्राथमिक शिक्षा की जाँच कर उसके उन्यन के लिए सुझाव देना था, फिर भी आयोग ने कॉलेज शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये-

(अ.) सरकार को उच्च शिक्षा के क्षेत्र से हट जाना चाहिए तथा उनका प्रबन्ध निजी संस्थाओं द्वारा होना चाहिए।

(ब.) निजी संस्थाओं के प्रोत्साहन हेतु महाविद्यालयों को दी जाने वाली धनराशि निर्धारित करते समय अध्यापकों की संख्या, संस्था के संचालन का व्यय, संस्था की क्षमता और उस क्षेत्र की शैक्षणिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए।

(स.) महाविद्यालयों में निःशुल्क पढ़ने वाले छात्रों की संख्या भी निश्चित की जानी चाहिए।

(द.) महाविद्यालयों के भवन के विस्तार, महाविद्यालयों हेतु फर्नीचर, पुस्तकालय, प्रयोगशाला तथा यन्त्र आदि खरीदने के लिए विशेष अनुदान दिया जाना चाहिए।

(य.) महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की रुचि के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि शिक्षा पूर्ण करने पर उसे जीविकोपार्जन में कोई अड़चन नहीं आये।

(र.) केवल वे महाविद्यालय ही निजी व्यवस्थापकों को हस्तान्तरित किये जायें जिनके स्थायित्व और उत्तम प्रबन्धन के सम्बन्ध में पूर्ण आश्वासन प्राप्त हो जाये।

(ल.) महाविद्यालय में एक से अधिक वैकल्पिक विषयों की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि विभिन्न प्रकार की शिक्षा को प्रोत्साहन मिल सके।

(4.) शिक्षा-अनुदान: आयोग ने अनुभव किया कि सरकारी अनुदानों का अधिकांश भाग सरकारी शिक्षण संस्थाएँ ही प्राप्त कर रही हैं तथा निजी संस्थाओं को जो थोड़ा-बहुत अनुदान मिलता भी है, वह समय पर नहीं मिलता। राजकीय शिक्षण संस्थाओं से निकलने वाले विद्यार्थियों को, निजी शिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थियों की तुलना में नौकरियों के अधिक अवसर प्राप्त हो रहे हैं। अतः आयोग ने सुझाव दिया कि दोनों प्रकार की संस्थाओं से निकलने वाले विद्यार्थियों को सेवा में समान अवसर मिलने चाहिए। साथ ही, प्रान्तीय सरकारें निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्धकों के परामर्श से अनुदान नियमों में संशोधन करें। परीक्षा परिणामों के आधार पर अनुदान देने की प्रथा को कॉलेजों में लागू न किया जाये। इस प्रकार आयोग ने अनुदान नियमों को सरल बनाने, अनुदान की राशि में वृद्धि करने, निजी शिक्षण संस्थाओं के आन्तरिक प्रबन्ध में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाने तथा भारतीय निरीक्षकों की नियुक्ति करने के सुझाव देकर निजी संस्थाओं को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आने हेतु प्रोत्साहित किया।

(5.) स्त्री-शिक्षा: आयोग ने सुझाव दिया दिया कि सार्वजनिक कोष के उपयोग में लड़के और लड़कियों के स्कूलों में समान अनुपात होना चाहिए। कन्या पाठशालाओं के लिए अनुदान के नियम अधिक सरल और उदार होने चाहिए ताकि अधिक से अधिक कन्या पाठशालाएँ स्थापित हो सकें। बालक और बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भिन्नता होनी चाहिए ताकि कन्याओं को गृहस्थी में सहायक विषयों का ज्ञान हो सके। लड़कियों को शिक्षा की ओर आकर्षित करने के लिए उनको अधिक छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए। कन्या पाठशालाओं को दिया जाने वाला अनुदान शिक्षा शुल्क पर आधारित नहीं रखा जाना चाहिए। छात्राओं के लिए छात्रावासों की स्थापना की जानी चाहिये ताकि वे अपने स्कूलों के निकट रह सकें। अधिकाधिक संख्या में महिला शिक्षिकाएँ नियुक्त की जानी चाहिये तथा कन्या पाठशालाओं के निरीक्षण के लिए महिला निरीक्षिकाओं की नियुक्ति की जानी चाहिए। भारतीय माता-पिता अपनी लड़कियों को घर से बाहर भेजना पसन्द नहीं करते थे, इसलिए आयोग ने सुझाव दिया कि लड़कियों को घरों पर जाकर पढ़ाने की प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाये।

(6.) शिक्षक प्रशिक्षण: आयोग ने अनुशंसा की कि शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए शिक्षकों को शिक्षा के सिद्धान्त तथा पाठ-विधि से पूर्व-परिचित होना चाहिये। इसलिए शिक्षा के सिद्धान्त का पूर्ण ज्ञान रखने वाले तथा शिक्षण-विधि की परीक्षा में उत्तीर्ण शिक्षकों को ही माध्यमिक विद्यालयों में स्थायी नियुक्ति दी जानी चाहिये। स्त्री अध्यापिकाओं की कमी को ध्यान में रखते हुए आयोग ने सुझाव दिया कि जब तक उचित संख्या में प्रशिक्षित अध्यापिकाएँ उपलब्ध न हो जायें, तब तक पुरुष अध्यापकों की नियुक्ति की जा सकती है।

(7.) मुसलमानों व पिछड़ी जातियों की शिक्षा: आयोग ने मुसलमानों व पिछड़ी जातियों की शिक्षा पर भी अनुशंसाएं दीं तथा कहा कि इन जातियों की शिक्षा के विशेष प्रयास किये जायें। उन्हें विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जायें। उनके लिए ऐसे स्कूल खोले जायें जिनमें उन्हें प्रवेश देने में प्राथमिकता मिले। सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों में मुसलमान छात्रों की संख्या निश्चित कर दी जाये, मुस्लिम स्कूलों को उदारतापूर्वक अनुदान दिया जाये। मुसलमान शिक्षकों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की जाये। मुसलमानों की प्राथमिक स्कूलों के निरीक्षण के लिए मुसलमान निरीक्षक नियुक्त किये जायें और वार्षिक शिक्षा रिपोर्टों में एक अध्याय मुसलमानों की शिक्षा पर जोड़ा जाये।

(8.) धार्मिक शिक्षा: आयोग ने सुझाव दिया कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दी जाये किन्तु गैर सरकारी स्कूलों के प्रबन्धक चाहें तो धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं। ऐसे स्कूलों को वित्तीय सहायता देते समय उनकी शैक्षिक स्थिति का ध्यान रखा जाये।

(9.) शिक्षा विभाग में सुधार: शिक्षा विभाग के दोषों को दूर करने के लिए हण्टर आयोग ने सुझाव दिया कि विद्यालयों के निरीक्षण के लिए केन्द्रीय निरीक्षक नियुक्त न करके स्थानीय निरीक्षकों को नियुक्त किया जाये क्योंकि वे ही स्थानीय विद्यालयों की वास्तविक स्थिति का पता लगा सकते हैं। विद्यालयों की संख्या के अनुसार पर्याप्त संख्या में निरीक्षकों की नियुक्ति की जाये। निरीक्षकों के पद पर सामान्यतः भारतीयों की ही नियुक्ति की जाये।

हण्टर आयोग की रिपोर्ट के बाद भारत में शैक्षणिक प्रगति

लॉर्ड रिपन ने हण्टर आयोग की समस्त अनुशंसाएँ स्वीकार करके उन्हें तत्काल लागू कर दिया। इसके बाद बीस साल तक देश में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई। इस प्रगति का विवरण इस प्रकार से है-

(1.) प्राथमिक शिक्षा: हण्टर आयोग ने प्राथमिक शिक्षा का दायित्व स्थानीय निकायों को देने की अनुशंसा कर यह आशा व्यक्त की थी कि इससे प्राथमिक शिक्षा की काफी प्रगति होगी किन्तु स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त सरकारी सहायता नहीं मिली, जिससे प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के लिए उन्हें अपने सीमित साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ा। फिर भी प्राथमिक विद्यालयों और उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई। 1898 ई. तक अनेक गाँवों में प्राथमिक विद्यालय स्थापित हो गये। इस अवधि में, परम्परागत पद्धति पर चले रहे देशी विद्यालयों का ह्रास हुआ। 1854 ई. के वुड्स घोषणा-पत्र तथा 1882 ई. के हण्टर आयोग की अनुशंसा के बाद भी देशी विद्यालयों की दशा गिरती चली गई और 20वीं सदी के प्रारम्भ तक वे अदृश्य-प्रायः हो गये।

(2.) माध्यमिक शिक्षा: हण्टर आयोग की अनुशंसा के उपरांत भी प्रान्तीय सरकारों के शिक्षा विभागों ने माध्यमिक शिक्षा से अपने हाथ नहीं खींचे। अपितु सरकार ने माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में अपने प्रयत्न तेज कर दिये। इस अवधि में निजी प्रयासों में भी काफी वृद्धि हुई, क्योंकि देश में बढ़ती हुई राष्ट्रीय भावना ने जनता के शिक्षित वर्ग में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि उत्पन्न कर दी तथा उन्हें माध्यमिक स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया। 1881-82 ई. में भारत में माध्यमिक स्कूलों की संख्या लगभग चार हजार थी जो 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सवा पाँच हजार हो गई। इसी प्रकार माध्यमिक स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या दो लाख चौदह हजार से बढ़कर पाँच लाख नब्बे हजार हो गई।

(3.) व्यावसायिक शिक्षा: हण्टर आयोग ने माध्यमिक स्कूलों में दो प्रकार के पाठ्यक्रम चालू करने की अनुशंसा की थी। पहला पाठ्यक्रम वह जिसे पढ़कर विद्यार्थी स्वयं को विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए तैयार कर सकें। दूसरा पाठ्यक्रम वह जो विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा दे सके। व्यावसायिक शिक्षा देने की अनुशंसा सफल नहीं हुई, क्योंकि अधिकांश विद्यार्थियों का उद्देश्य परीक्षा पास करके सरकारी नौकरी प्राप्त करना होता था। यद्यपि कुछ प्रान्तों में व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना की गई किन्तु उनमें प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या अत्यल्प रही। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश में केवल दो हजार विद्यार्थी ही व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

(4.) मातृ-भाषा की शिक्षा: वुड घोषणा-पत्र और हण्टर आयोग की रिपोर्ट, दोनों में मातृ-भाषा के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया गया था किन्तु अगले बीस वर्षों में माध्यमिक स्कूलों में देशी भाषाओं के अध्यापन की पूर्ण उपेक्षा की गई तथा अँग्रेजी भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया गया जिससे अँग्रेजी भाषा का प्रसार हो गया। विद्यार्थियों का अधिकांश समय अँग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करने में व्यय होता था। इस कारण वे अन्य विषयों को बहुत कम समय दे पाते थे। अँग्रेजी भाषा के विस्तृत ज्ञान के लिए छात्रों को अपने मस्तिष्क पर अधिक बोझ डालना पड़ता था जिससे शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधा पहुँचती थी।

(5.) शिक्षक-प्रशिक्षण: वुड घोषणा-पत्र में शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष जोर दिया गया था किन्तु 1854 से 1874 ई. तक की अवधि में शिक्षकों के प्रशिक्षण की दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। 1882 ई. तक सम्पूर्ण भारत में केवल दो शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय स्थापित हो सके- एक मद्रास में और दूसरा लाहौर में। इन दोनों में माध्यमिक स्कूलों के बहुत ही कम शिक्षक, प्रशिक्षण प्राप्त कर सके। 1882 ई. के शिक्षा आयोग (हण्टर आयोग) ने ऐसे ठोस सुझाव नहीं दिये थे जिनकी क्रियान्विति अनिवार्य की जा सके। 1902 ई. तक सम्पूर्ण भारत में केवल छः शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोले गये। केवल कुछ प्रान्तों में ट्रेनिंग स्कूल खोले गये जिनमें माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता था।

(6.) विश्वविद्यालयी शिक्षा: माध्यमिक स्कूलों से निकले हुए अधिकांश छात्र कॉलेजों मे प्रवेश लेने का प्रयत्न करते थे, क्योंकि उस समय सरकारी नौकरी में उच्च पद प्राप्त करने के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री अनिवार्य थी। अतः इस अवधि में भारतीयों द्वारा अनेक कॉलेज खोले गये। ईसाई मिशनरियों ने भी प्रयत्न जारी रखे। 1902 ई. तक भारतीयों द्वारा संचालित कॉलेजों की संख्या 42 और मिशनरी कॉलेजों की संख्या 37 हो गई थी। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में 145 कला महाविद्यालय, 30 विधि महाविद्यालय, 4 मेडिकल कॉलेज व इन्जीनियरिंग कॉलेज, 5 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय और 3 कृषि महाविद्यालय थे। इन कॉलेजों की स्थापना में राष्ट्रीय विचारधारा और राजनीतिक चेतना का भी प्रभाव रहा। 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना और 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने भारतीयों में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि उत्पन्न की। पाश्चात्य शिक्षा और राष्ट्रीय राजनीतिक विचारधारा ने भारतीयों में राष्ट्रीय-चेतना उत्पन्न की। इस कारण भारतीयों ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अनेक महाविद्यालयों की स्थापना की। लाहौर का डी.ए.वी. कॉलेज, बनारस का सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज, पूना का फर्ग्यूसन कॉलेज और कलकत्ता का रिपन कॉलेज इसी भावना से खुले। कॉलेजों की बढ़ती हुई संख्या को देखते हुए दो नये विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई- 1882 ई. में पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) और 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

इस प्रकार 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश में पाँच विश्वविद्यालय- कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, पंजाब एवं इलाहबाद थे जो परीक्षाएँ लेकर डिग्रियाँ देने का काम करते थे। वे मौलिक चिन्तन और गहन अध्ययन के क्षेत्र उत्पन्न नहीं कर सके। यह कार्य महाविद्यालयों को सौंप दिया गया था जो आर्थिक कठिनाइयों, योग्य अध्यापकों के अभाव तथा उच्च अध्यापन सामग्री व वैज्ञानिक उपकरणों के अभाव के कारण पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सके। इन महाविद्यालयों द्वारा ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार हुआ जो पुस्तकों को रटने की कला में निपुण था किन्तु किसी व्यावहारिक या प्रायोगिक कार्य को करने में असमर्थ था। ऐसे शिक्षित लोगों का उद्देश्य किसी तरह परीक्षा उर्त्तीण करना था। इस स्थिति पर, 1902 ई. में लॉर्ड कर्जन द्वारा गठित भारतीय विश्वविद्यालय आयोग ने टिप्पणी की कि- ‘भारतीय विश्वविद्यालयों का सबसे बड़ा दोष यह है कि शिक्षण कार्य परीक्षा के अनुसार होता है, परीक्षा शिक्षण के अनुसार नहीं होती।’

(7.) स्त्री-शिक्षा: हण्टर आयोग की कड़ी अनुशंसा के उपरांत भी आगे के बीस वर्षों में भारत में स्त्री-शिक्षा में विशेष प्रगति नहीं हुई। स्कूल में लड़कों के साथ सह-शिक्षा से उत्पन्न आशंकाएं, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि कारण स्त्री-शिक्षा में बाधक बने रहे। इस अवधि में कुछ कन्या विद्यालय स्थापित हुए किन्तु उनमें कन्याओं की संख्या काफी कम रही। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द रानाडे, बैरामजी मलाबार, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि के प्रयासों से स्त्री शिक्षा का काम आगे बढ़ने लगा तथा भारत में स्त्रियों की शिक्षा के लिए सैकड़ों प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूल खुले। 1902 ई. तक भारत में कन्याओं के 5,628 प्राथमिक, 467 माध्यमिक और 12 महाविद्यालय थे। इन शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वाली लड़कियों की कुल संख्या बहुत कम थी। फिर भी स्त्री-शिक्षा के प्रति लोगों का विरोध कम होता जा रहा था। 1882 ई. में देश में केवल 6 लड़कियाँ महाविद्यालयों में पढ़ती थीं जबकि 1901 ई. में इनकी संख्या बढ़कर 264 हो गई।

(8.) व्यावसायिक-शिक्षा: हण्टर आयोग ने व्यावसायिक-शिक्षा के प्रसार के लिये अनेक सुझाव दिये थे। सरकार ने इस सुझावों को कार्यान्वित करने के प्रयत्न किये। इस कारण देश में विधि-शिक्षा, चिकित्सा-शिक्षा, इन्जीनियरिंग तथा कृषि एवं पशु चिकित्सा के लिये अगले बीस वर्षों में कई महाविद्यालय खुले। विधि-शिक्षा तीन प्रकार की संस्थाओं में दी जाती थी- (1.) कला और विज्ञान के कॉलेजों में चलाई जाने वाली विधि कक्षाएँ, (2.) विधि-कॉलेज, और (3.) विधि-स्कूल। बम्बई, मद्रास और पंजाब के कॉलेजों में कानून की शिक्षा दी जाती थी। तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सियों के मेडिकल कॉलेजों के अतिरिक्त लाहौर में भी एक मेडिकल कॉलेज था। इनमें पाश्चात्य चिकित्सा-पद्धति की शिक्षा दी जाती थी। 1901-02 ई. में इन चारों मेडिकल कॉलेजों में 1,466 विद्यार्थी पढ़ते थे। मेडिकल कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करने वाली लड़कियों की संख्या 76 थी। 1901-02 ई. में देश में चार इन्जीनियरिंग कॉलेज- रुड़की, शिवपुर, पूना और मद्रास में थे। कुछ इन्जीनियरिंग स्कूल भी थे जिनमें ओवरसियरी तथा ड्राफट्समैनशिप का प्रशिक्षण दिया जाता था। 1901 ई. में भारत में पाँच कृषि कॉलेज तथा तीन पशु चिकित्सा कॉलेज थे जिनमें क्रमशः 219 और 301 छात्र पढ़ते थे। वानिकी विज्ञान की शिक्षा के लिए दो स्कूल थे। सम्पूर्ण भारत में वाणिज्य की शिक्षा के लिए केवल एक संस्था थी जो बम्बई में स्थित थी। स्पष्ट है कि व्यवसायिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति बहुत धीमी रही।

(9.) अल्पसंख्यकों की शिक्षा: शिक्षा आयोग ने मुसलमानों की शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे। उन सुझावों को कार्यान्वित करने के लिये सरकार द्वारा किये गये प्रयासों के कारण मुसलमानों की शिक्षा में काफी प्रगति हुई। 1901 ई. में भारत में लगभग पौने सात लाख मुस्लिम छात्र पढ़ते थे। मुस्लिम जनसंख्या के अनुपात में छात्रों की संख्या कम थी किंतु अँग्रेजी शिक्षा के प्रति उनके विरोध को देखते हुए यह काफी अच्छी थी। मुसलमान भी अपने लड़कों को सरकारी या निजी स्कूलों में भेजने लगे थे किंतु कॉलेजों में मुसलमान छात्रों की संख्या काफी कम थी।

(10.) पिछड़ी जातियों की शिक्षा: हण्टर आयोग की रिपोर्ट के बाद सरकारी प्रयासों के साथ-साथ आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, ईसाई मिशनरियों तथा ज्योति बा फूले द्वारा स्थापित संस्थाओं के प्रयासों से पिछड़ी जातियों व हरिजनों ने भी शिक्षा का महत्त्व समझा। मिशनरी स्कूलों में प्रारम्भ से ही हरिजनों को प्रवेश दिया जाता था। दक्षिण भारत के मद्रास, त्रावणकोर तथा बम्बई आदि प्रांतों के शिक्षा-विभागों ने हरिजन बालकों को स्कूलों में प्रवेश के लिये उदार नियम बनाये तथा हरिजन छात्रों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दीं। 1901 ई. में मद्रास प्रान्त में 3,000 हरिजन विद्यालय थे जिनमें 45,000 हरिजन छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। बम्बई सरकार ने भी हरिजन छात्रों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। वहाँ हरिजन बालकों को सामान्य स्कूलों में प्रवेश देने पर जोर दिया गया। अन्य प्रान्तों में प्रांतीय सरकारों ने हरिजनों को शिक्षा के विशेष प्रयास नहीं किये किन्तु ईसाई मिशनरियों ने इस कमी को पूरा किया। बिहार, उड़ीसा, पंजाब आदि प्रान्तों में मिशनरी स्कूलों ने हरिजनों की शिक्षा के लिए सराहनीय कार्य किया। इस अवधि में ईसाई मिशनरियों ने अपनी शिक्षा नीति में परिवर्तन करते हुए अपना ध्यान उच्च शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा पर केन्द्रित किया। फिर भी इस अवधि में कुछ अच्छे मिशनरी कॉलेजों की स्थापना हुई जिनमें क्रिश्चियन कॉलेज इन्दौर, मूरे कॉलेज स्यालकोट, क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपुर तथा गार्डन कॉलेज रावलपिण्डी प्रमुख थे।

हण्टर शिक्षा आयोग की अनुशंसाओं का मूल्यांकन

हण्टर आयोग ने शिक्षा के समस्त पक्षों पर विस्तार से जाँच करके महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। आयोग ने सरकार को शिक्षा के उत्तरदायित्व से मुक्त होने तथा भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे आने के लिये प्रोत्साहित करने तथा प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा में, निजी एवं सरकारी प्रयासों में सामंजस्य स्थापित करने की अनुशंसा की। आयोग की अनुशंसाओं ने भारतीयों में शिक्षा के प्रति रुचि और जागृति उत्पन्न की जिससे भारत में शिक्षा की उन्नति हुई। जन-साधारण में शिक्षा के प्रति चेतना बनाये रखने के लिए आयोग के सुझाव पर ही भारत सरकार ने भविष्य में प्रत्येक पाँच वर्ष बाद शिक्षा की प्रगति पर जाँच रिपोर्ट तैयार करने के निर्देश दिये। ये पंचवर्षीय रिपोर्टें, शिक्षाविदों एवं राजकीय अधिकारियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं।

निष्कर्ष

वुड्स घोषणा पत्र तथा हण्टर की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की रिपोर्ट के बाद 19वीं शताब्दी के अन्त तक भारतीय शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण चरण पूरा हुआ। इस अवधि में भारतीय शिक्षा का दु्रतगति से पाश्चात्यकरण हुआ। भारत की परम्परागत देशी शिक्षा पद्धति तथा पाश्चात्य शिक्षा पद्धति में तीव्र प्रतिस्पर्द्धा हुई जिसमें पाश्चात्य शिक्षा पद्धति प्रबल होकर उभरी और देशी शिक्षा-पद्धति का लोप होने लगा। इसी अवधि में शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों का प्रार्दुभाव भी हुआ, जिसने आगे चलकर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया। शिक्षा के क्षेत्र में किये गये समस्त प्रयत्न पर्याप्त नहीं थे। 1901 ई. की जनगणना के अनुसार प्रति एक हजार व्यक्तियों में केवल 98 पुरुष और 7 महिलाएँ साक्षर थीं। 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या 15 प्रतिशत ही थी।

अध्याय – 28 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का चतुर्थ चरण (1901-19 ई.)

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1901 ई. में लॉर्ड कर्जन के समय में भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का चौथा चरण आरम्भ हुआ। कर्जन ने 1 सितम्बर 1901 को शिमला में समस्त प्रांतों के उच्च शिक्षा अधिकारियों एवं विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधियों का एक गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जिसमें कर्जन ने भारतीय शिक्षा की प्रगति पर असंतोष व्यक्त किया। इस सम्मेलन में शिक्षा से जुड़े विविध मुद्दों के सम्बन्ध में लगभग 150 प्रस्ताव पारित किये गये जिन्हें यथा संभव शीघ्र लागू करने का संकल्प व्यक्त किया गया। 27 जनवरी 1902 को कर्जन ने अपनी कौंसिल के विधि सदस्य सर थॉमस रैले की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग का गठन किया जिसे विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने के लिये योजना प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया। रैले आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 पारित किया गया। इस अधिनियम में विश्वविद्यालयों के संचालन से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रावधान रखे गये-

(1.) विश्वविद्यालयों की प्रबंध अथवा कार्यकारी संस्थाओं में सीनेट को महत्त्व दिया गया। सीनेट के सदस्यों की न्यूनतम संख्या 50 तथा अधिकतम संख्या 100 निश्चित कर दी गई। सीनेट में चुने हुए सदस्यों की संख्या 20 रखी गई। अधिकांश सदस्यों को सरकार द्वारा नामित करने का प्रावधान रखा गया। सीनेट के सदस्यों का अधिकतम कार्यकाल आजीवन से घटाकर 6 साल कर दिया गया ।

(2.) विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया गया। सीनेट द्वारा पारित प्रस्तावों को सरकार की सहमति के पश्चात् ही लागू करने का नियम बनाया गया। सरकार को सीनेट द्वारा बनाये गये नियमों को बदलने तथा नये नियम बनाने का अधिकार दिया गया।

(3.) विश्वविद्यालयों के कार्यों का विस्तार किया गया। उन्हें अध्यापन एवं शोध करवाने का कार्य सौंपा गया। साथ ही प्रोफेसर एवं व्याख्याता नियुक्त करने, प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय स्थापित करने के लिये अधिकृत किया गया।

(4.) महाविद्यालयों को स्नातक स्तर की शिक्षा सौंपी गई। निजी महाविद्यालयों पर विश्वविद्यालयों का नियंत्रण स्थापित किया गया।

(5.) विश्वविद्यालयों की सीनेटों को परीक्षा, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक आदि का उचित स्तर बनाने का दायित्व दिया गया।

(6.) विश्वविद्यालयों की सिण्टीकेट्स को वैधानिक मान्यता दी गई एवं उनमें अध्यापकों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया।

(7.) विश्वविद्यालयों का अधिकार-क्षेत्र एवं महाविद्यालायों की विश्वविद्यालयों के साथ मान्यता व सम्बद्धता तय करने की शक्ति गवर्नर जनरल इन कौंसिल को दी गई।

विश्वविद्यालय अधिनियम की आलोचना

1904 ई. के विश्वविद्यालय अधिनियम की भारतीय नेताओं द्वारा भर्त्सना की गई। यह आरोप लगाया गया कि कर्जन ने विश्वविद्यालयों को सरकारी विभाग बना दिया। विश्वविद्यालयों का सरकारीकरण करके महाविद्यालयी शिक्षा में प्रयत्नशील निजी क्षेत्र के भारतीय प्रयासों को हतोत्साहित करने का षड़यंत्र किया गया।

1913 ई. का प्रस्ताव

आधुनिक शिक्षा के विस्तार की दिशा में 1913 ई. का सरकारी प्रस्ताव महत्वपूर्ण विकास था। 21 फरवरी 1913 को एक प्रस्ताव द्वारा भारत सरकार ने अशिक्षा को समाप्त करने की नीति स्वीकृत की। इसमें प्रांतीय सरकारों से, अधिक निर्धन, दलित एवं पिछड़ों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने हेतु शीघ्र कदम उठाने के निर्देश दिये गये। माध्यमिक शिक्षा के संदर्भ में इस प्रस्ताव में स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने पर जोर दिया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि प्रत्येक प्रांत में एक विश्वविद्यालय स्थापित किया करने; पटना, नागपुर एवं रंगून में सम्बद्धता विश्वविद्यालय तथा अलीगढ़, ढाका एवं बनारस में अध्यापन विश्वविद्यालय खोलने की अनुशंसा की गई।

सैडलर आयोग 1917

1917 ई. में भारत सरकार ने इंग्लैण्ड के लीड्स विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एम. ई. सैडलर की अध्यक्षता में कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओं के अध्ययन एवं निवारण हेतु सुझाव प्रस्तुत करने के लिये आयोग की स्थापना की। इसमें भारतीय सदस्य सर आशुतोष मुखर्जी एवं डॉ. जिआउद्दीन अहमद सम्मिलित किये गये। सैडलर आयोग ने विद्यालयी शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा पर विचार किया। सैडलर आयोग ने माना कि विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार के लिये माध्यमिक शिक्षा में सुधार लाना आवश्यक है। इस आयोग के सुझाव समस्त विश्वविद्यालयों पर लागू करने योग्य थे। आयोग द्वारा दी गई प्रमुख अनुशंसाएँ इस प्रकार से थीं-

(1.) इण्टरमीडियेट स्तर तक की शिक्षा, विद्यालयी शिक्षा का अंग हो तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश मैट्रिकुलेशन के स्थान पर इण्टरमीडियेट के पश्चात् मिले।

(2.) विश्वविद्यालयों को मैट्रिकुलेशन एवं इण्टरमीडियेट स्तर की परीक्षाओं के भार से मुक्त करके माध्यमिक एवं इण्टरमीडियेट शिक्षा बोर्ड गठित किया जाये।

(3.) इण्टरमीडियेट के पश्चात् स्नातक उपाधि का पाठ्यक्रम तीन वर्ष की अवधि का हो। मेधावी विद्यार्थियों के लिये पास-कोर्स से भिन्न ऑनर्स-कोर्स का प्रावधान किया जाये।

(4.) कलकत्ता विश्वविद्यालय को वास्तविक अध्यापन विश्वविद्यालय बनाने के लिये पूर्णकालिक प्रोफसरों एवं व्याख्याताओं की नियुक्ति की जाये।

(5.) विश्वविद्यालय स्तर पर स्त्री शिक्षा के विस्तार हेतु कलकत्ता विश्वविद्यालय में विशेष महिला शिक्षा बोर्ड स्थापित किया जाये।

(6.) कलकत्ता विश्वविद्यालय का नियंत्रण भारत सरकार के स्थान पर बंगाल सरकार को स्थानांतरित किया जाये।

पाश्चात्य शिक्षा के विकास का पांचवा चरण (1919-47 ई.)

द्वैध शासन के अंतर्गत शिक्षा (1919-1937 ई.)

1919 के मोंटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार एक्ट के अंतर्गत प्रांतीय सरकारों को शिक्षा विभाग हस्तांतरित किये गये। केन्द्र में शिक्षा का नियंत्रण केन्द्र सरकार के पास था। इस प्रकार शिक्षा का विषय, प्रांतीय सरकार एवं केन्द्रीय सरकार दोनों के पास होने से शिक्षा नीति में द्वैधता उत्पन्न हो गई। मोंटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार एक्ट लागू होने के बाद केन्द्र सरकार द्वारा प्रांतों को शिक्षा के लिये दिया जाने वाला अनुदान बंद कर दिया गया। इससे प्रांतीय सरकारों को आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। इस काल में स्वयं सेवी संस्थाओं ने प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा को आगे बढ़ाया। 1929 ई. में सरकार ने हार्टोंग समिति को शिक्षा पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये कहा। समिति ने अपने प्रतिवेदन में तीन प्रमुख बातें कहीं-

(1.) प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना महत्त्वपूर्ण है किंतु इसके विस्तार में जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिये। उसे अनिवार्य भी नहीं बनाया जाना चाहिये।

(2.) विश्वविद्यालयों में योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाये। इसलिये मिडिल के बाद अधिकांश छात्रों को रोजगारोन्मुख शिक्षा में भेजा जाना चाहिये।

(3.) विश्वविद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट का कारण विद्यार्थियों को बिना चयन प्रवेश देना है। विश्वविद्यालय में प्रवेश केवल योग्य छात्रों को दिया जाना चाहिये।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारतीय शिक्षा (1939-1945 ई.)

1939-1945 ई. तक द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। 1944 ई. में भारतीय असंतोष को शांत करने के उद्देश्य से सरकार ने अपने शैक्षणिक सलाहकार सर जॉन सरजेण्ट से एक शिक्षा योजना तैयार करवाई जिसे सरजेण्ट योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना में 6 से 11 वर्ष के बच्चों को सार्वभौम, व्यापक, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान किया गया। इस योजना में दो तरह के हाई-स्कूलों का प्रावधान रखा गया प्रथम सैद्धांतिक एवं साहित्यिक तथा दूसरे तकनीकी अथवा रोजगार परक। विद्यालयों का संचालन सरकारी धन से किये जाने की व्यवस्था का अनुमोदन किया गया। यह अनुमान लगाया गया कि इस कार्य पर प्रतिवर्ष लगभग 200 करोड़ रुपये व्यय होंगे एवं यह योजना 40 वर्षों में कार्यान्वित होगी। देश में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन के कारण यह योजना कार्यान्वित नहीं हो सकी।

अध्याय – 29 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-1

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सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों के प्रमुख कारण

मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों तथा बाद में मुस्लिम शासकों के निरंतर चलने वाले युद्ध अभियानों के कारण हिन्दू समाज ने अपने सामाजिक एवं धार्मिक ढांचे को सुरक्षित रखने के लिए जाति-प्रथा के बन्धनों को कठोर कर दिया। स्त्रियों के बचाव के लिए पर्दा-प्रथा तथा बाल-विवाह जैसी कठोर प्रथाएं अनिवार्य कर दी गईं। 18वीं शताब्दी में जब भारतीयों का पाश्चात्य संस्कृति से निकट सम्पर्क होने लगा तब भारतीय समाज में नवीन सामाजिक-धार्मिक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिये राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, ज्योति बा फूले आदि कई समाज सुधारक आगे आये।

19वीं शताब्दी में आरम्भ, समाजिक एवं धर्मिक आन्दोलनों के कई कारण थे-

(1.) हिन्दू समाज और धर्म में व्याप्त दोष: मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं से हिन्दू धर्म तथा समाज को बचाने के लिये किये गये उपायों से हिन्दुओं में कूप-मण्डूकता की स्थिति उत्पन्न हो गई तथा हिन्दू धर्म में अनेक कुरीतियां अंधविश्वास एवं कुप्रथाएं उत्पन्न हो गईं। जब 17वीं शताब्दी में ईसाई पादरियों को भारत में धर्म-प्रचार की छूट दी गई तो ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म का प्रचार करने के लिये हिन्दू धर्म की कटु आलोचना की। उन्होंने वेदों को गड़रियों के गीत कहकर उनका उपहास उड़ाया। वेदों तथा पुराणों में वर्णित बहुदेववाद, अवतारवाद और मूर्तिपूजा की निंदा की और विभिन्न प्रकार की कुरीतियों के लिए हिन्दू धर्म पर आक्षेप लगाये। इस प्रकार ईसाई मिशनरियों के दुष्प्रचार ने भारतीयों के लिये चुनौती खड़ी कर दी। 19वीं शताब्दी के भारत में अनेक सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन ईसाई धर्मप्रचारकों की प्रतिक्रिया में आरम्भ हुए। इन आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों को यह चिंता थी कि ईसाई धर्म से हिन्दू धर्म की रक्षा किस प्रकार की जाये! प्राचीन हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित करके पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से कैसे बचा जाये! भारतीयों में व्याप्त अन्धविश्वास समाप्त करके आध्यात्मिक चिन्तन की प्रक्रिया कैसे विकसित किया जाये! आदि।

(2.) पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव: पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से भारतीयों के दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया। देश में यूरोपीय विधान, दर्शन और साहित्य का अध्ययन आरम्भ होने से भारतीयों को यूरोपीय दार्शनिकों के उत्तेजक विचारों की जानकारी हुई। वे यूरोप की उदारवादी विचारधारा से प्रभावित हुए तथा भारतीय धर्म एवं समाज को आलोचक की तरह देखने लगे। यूरोपीय दर्शन के प्रभाव से भारतीय युवक सोचने लगे कि मानवीय संबंधों का आधार परम्परागत व्यवस्था अथवा सत्ता न होकर तर्क होना चाहिए। वे, धर्म और समाज की व्यवस्थाओं के औचित्य को परखने लगे तथा परम्परागत रीति-रिवाजों के अन्धानुकरण का विरोध करने लगे। ऐसी विद्रोही मनोदशा में भारत में समाज और धर्म सुधार आंदोलन होने स्वाभाविक ही थे।

(3.) वैज्ञानिक शिक्षा का प्रभाव: 19वीं शताब्दी में हुई पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति से भारतीयों के चिंतन को नई दिशा मिली। वे पोंगापंथी की बातों से दूर हटने लगे। शिक्षित समाज में, विज्ञान की प्रगति से अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का अन्धेरा छंटने लगा और वे अपने धर्म और समाज की बुराइयों को दूर करके, उनकी अच्छाइयों को पुनर्स्थापित करने के लिये अग्रसर हुए।

(4.) पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव: पश्चिमी सभ्यता, भारत में शासक वर्ग की सभ्यता थी। इस कारण उसका भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी था। अँग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों के लिए पश्चिमी सभ्यता आदर्श बन गई। पश्चिमी जीवन शैली, पश्चिम के व्यक्तिवादी विचारों, तड़क-भड़क युक्त वेशभूषा तथा ठाठदार खान-पान से भारतीय युवक इतने प्रभावित हुए कि उनकी नकल करने में गौरव समझने लगे। भारतीय धर्म और समाज से उनका विश्वास उठ गया। ऐसी स्थिति में हिन्दू बौद्धिक वर्ग ने अनुभव किया कि यदि धर्म और समाज में आवश्यक सुधार नहीं किये गये तो भारतीय धर्म और जीवन शैली समाप्त हो जाएंगे।

(5.) पश्चिमी विद्वानों द्वारा भारतीय संस्कृति की प्रशंसा: 1784 ई. में स्थापित बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने भारत में धर्म और समाज सुधार आन्दोलनों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस सोसायटी के तत्त्वावधान में प्राचीन भारतीय ग्रन्थों तथा यूरोपीय साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन करके, उनका अँग्रेजी भाषा में अनुवाद किया और बताया कि प्राचीन भारतीय साहित्य, विश्व सभ्यता की अमूल्य निधि है। पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय सभ्यता के प्राचीन स्थलों एवं स्थापत्यों की खोज करके प्राचीन भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता स्थापित की। मैक्समूलर, विलियम जॉन्स, मानियर, विल्सन आदि विद्वानों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति, कला और साहित्य को विश्व के समक्ष रखा जिससे भारतीयों को अपनी प्राचीन गौरमवमयी सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान हुआ। कुछ यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय आदर्शों की भूरि-भूरि प्रशंसा की जिससे भारतीयों ने अनुभव किया कि हम अपने मूल धर्म और परम्पराओं को भूल गये हैं जिससे हमारा पतन हुआ है। जब तक धर्म और समाज की बुराइयों को दूर नहीं किया जाता, भारतीयों का कल्याण असम्भव है।

(6.) भारतीय समाचार पत्रों का योगदान: भारतीय समाचार पत्र, पत्रिकाओं साहित्य आदि ने भी धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलनों में सक्रिय योगदान किया। भारतीयों द्वारा अँग्रेजी भाषा में पहला समाचार पत्र 1780 ई. में बंगाल गजट प्रकाशित हुआ। इसमें धार्मिक विरोध पर अधिक विचार-विमर्श होता था। 1818 ई. में बंगाली भाषा में दिग्दर्शन तथा समाचार दर्पण प्रकाशित हुए। ये भी धर्म से अधिक प्रभावित थे। 1821 ई. में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक संवाद कौमुदी प्रकाशित किया जिसमें उनके धार्मिक और सामाजिक विचार प्रकाशित होते थे। राजा राममोहन राय के विचारों का विरोध करने के लिए मार्च 1822 में समाचार चन्द्रिका प्रकाशित होने लगा। अप्रैल 1822 में राजा राममोहन राय ने फारसी भाषा में एक साप्ताहिक मिरातउल अखबार तथा अँग्रेजी में ब्रह्मनिकल मैगजीन निकालना प्रारम्भ किया। इस प्रकार 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय समाचार पत्रों ने सामाजिक, शैक्षिक और धार्मिक विषयों पर चर्चा करके भारतीय जन-मानस को उद्वेलित किया तथा भारतीयों ने हिन्दू धर्म एवं समाज के उत्थान हेतु प्रयत्न आरम्भ किये। उपर्युक्त कारणों से 19वीं शताब्दी में अनेक सुधारक पैदा हुए जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज सुधार आन्दोलनों का नेतृत्व किया।

अध्याय – 30 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-2

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उग्र एवं कट्टर समाज सुधारक

उन्नीसवीं सदी के समाज सुधारकों में ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज जैसे उग्र सुधारवादी पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति को आधार मानकर भारतीय धर्म और समाज में क्रांतिकारी सुधार करना चाहते थे। इनके नेताओं ने जब हिन्दू धर्म एवं भारतीय समाज में अत्यधिक मौलिक परिवर्तन करने चाहे तो इनकी प्रतिक्रिया कट्टर हिन्दू सुधारवादी आन्दोलनों के रूप में प्रकट हुई। आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी और रामकृष्ण मिशन ऐसे कट्टर सुधारवादी प्रयास थे।

राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्म समाज

भारत में धार्मिक और समाजिक आन्दोलनों के प्रवर्तक राजा राम मोहन राय का जन्म 1774 ई. में बंगाल के राधानगर नामक गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे आरम्भ से ही क्रांतिकारी विचारों के थे। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने एक पुस्तिका प्रकाशित करवाई जिसमें उन्होंने मूर्तिपूजा का प्रबल विरोध किया। उनके परम्परावादी ब्राह्मण परिवार ने नाराज होकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। बहुत दिनों तक वे इधर-उधर भटकते रहे। इस काल में उन्होंने संस्कृत, फारसी, बंगला, अरबी तथा अँग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन रंगपुर की कलेक्टरी में क्लर्क बन गये। अपनी प्रतिभा के बल पर वे शीघ्र ही जिले की दीवानगिरी के उच्च पद पर पहुँच गये। इसी बीच उन्होंने लेटिन, ग्रीक एवं हिब्रू भाषा सीखकर ईसाई धर्म का गहन अध्ययन किया। हिन्दू धर्म-शास्त्रों, वेद, उपनिषद तथा वेदान्त आदि का अध्ययन वे पहले ही कर चुके थे।

इसाई धर्म के आक्षेपों का जवाब

राजा राममोहन राय ईसाई धर्म की कई विशेषताओं के प्रशंसक थे किंतु उन्होंने ईसा के देवत्व को उसी प्रकार अस्वीकार किया जिस प्रकार वे हिन्दू अवतारवाद को अस्वीकार करते थे। 1813 ई. में जब ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म पर प्रबल आक्षेप करने आरम्भ किये तो राजा राममोहन राय ने उन आक्षेपों का उत्तर देना आरम्भ किया। 1814 ई. में 40 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया और स्थायी रूप से कलकत्ता में बस गए। 1820 ई. में उन्होंने प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने न्यू टेस्टामेंट्स के नैतिक और दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारी कहानियों से अलग करने का प्रयास किया।

ब्रह्म समाज की स्थापना

20 अगस्त 1828 को राजा राम मोहन ने शुद्ध एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर आधारित ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस प्रकार ब्रह्म समाज 19वीं शताब्दी का प्रथम धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन था तथा राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज की बुराईयों का दूर करने का प्रयत्न किया।

ब्रह्म समाज का विभाजन

1833 ई. में राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्म समाज को अधिक प्रगतिशील बनाया। केशवचन्द्र सेन ईसाई धर्म से अधिक प्रभावित थे। वे ब्रह्म समाज को ईसाई धर्म के सिद्धान्त के अनुसार चलाना चाहते थे किन्तु देवेन्द्रनाथ टैगोर इससे सहमत नहीं थे। अतः ब्रह्म समाज दो भागों में विभक्त हो गया- (1.) देवेन्द्रनाथ का आदि ब्रह्म समाज और

(2.) केशवचन्द्र सेन का भारतीय ब्रह्म समाज। केशवचन्द्र ने अपने समाज के प्रचार हेतु देश का पर्यटन किया। इसके फलस्वरूप बम्बई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई। 1881 ई. में भारतीय ब्रह्म समाज में पुनः मतभेद उत्पन्न हो गए। केशवचन्द्र सेन के विरोधियों ने साधारण ब्रह्म समाज स्थापित किया। केशवचन्द्र सेन ने नव विधान समाज की स्थापना की। नव विधान समाज में हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसाई, बौद्ध और मुस्लिम धार्मिक ग्रन्थों से भी अनेक बातें ली गई थीं। यद्यपि ब्रह्म समाज विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया था, तथापि उसका मूल लक्ष्य एक ही था- हिन्दू समाज और धर्म का सुधार करना।

ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त

राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज के रूप में किसी नवीन सम्प्रदाय को खड़ा नहीं किया अपितु हिन्दू धर्म की उच्च शिक्षाओं के तत्त्व से एक सामान्य पृष्ठभूमि तैयार की। ब्रह्म समाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार उपनिषदों का अद्वैतवाद था। ब्रह्म समाज की साप्ताहिक बैठकों में वेदों का पाठ होता था तथा उपनिषदों के बंगला अनुवाद का वाचन होता था। ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार से थे-

(1.) ईश्वर एक है। वह संसार का सृष्टा, पालक और रक्षक है। उसकी शक्ति, प्रेम, न्याय तथा पवित्रता अपरिमित है।

(2.) आत्मा अमर है, उसमें उन्नति करने की असीम क्षमता है और वह अपने कार्यों के लिए भगवान के समक्ष उत्तरदायी है।

(3.) आध्यात्मिक उन्नति के लिए, प्रार्थना, भगवान् का आश्रय और उसके अस्तित्त्व की अनुभूति आवश्यक है।

(4.) किसी भी मानव निर्मित वस्तु को ईश्वर समझकर नहीं पूजना चाहिए और न किसी पुस्तक या पुरुष को मोक्ष का एकमात्र साधन मानना चाहिए।

(5.) मानव मात्र के प्रति बन्धुत्व की भावना रखनी चाहिये।

(6.) समस्त धर्मों के धार्मिक ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिये।

ब्रह्म-समाज के धार्मिक सुधार

ब्रह्म समाज ने वेदों और उपनिषदों को आधार मानकर बताया कि ईश्वर एक है, समस्त धर्मों में सत्यता है, मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड निरर्थक हैं तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही भारतीय समाज को तर्क के आधार पर धर्म की व्याख्या करने का विचार दिया। धर्म की व्याख्या करते हुए, ईसाई धर्म के कर्मकाण्डों तथा ईसा मसीह के ईश्वरीय अवतार होने के दावे पर प्रबल आक्रमण किया तथा ईसाई धर्म-प्रचारकों से शास्त्रार्थ किया। इस कारण जो हिन्दू, ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे थे, वे धर्म-परिवर्तन करने से बच गए।

राजा राममोहन राय ने हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध आदि समस्त धर्मों का गहन अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समस्त धर्मों में सत्य है किन्तु समस्त धर्मों में कर्मकाण्ड सम्मिलित हो गये हैं जिनको दूर करने की आवश्यकता है। इस धारणा को लेकर उन्होंने मुख्यतः हिन्दू धर्म में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने लोगों का ध्यान उस निराकार, निर्विकार ब्रह्म की ओर आकृष्ट किया जिसका निरूपण वेदान्त में हुआ है। ब्रह्म समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह समस्त धर्मों के प्रति सहिष्णु था। राजा राममोहन राय विश्व-बन्धुत्व के हिमायती थे। जब राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज के लिए भवन का निर्माण कराया, तब उसके ट्रस्ट के दस्तावेज में स्पष्ट किया गया कि ‘समस्त लोग बिना किसी भेदभाव के, शाश्वत सत्ता की उपासना के लिए इस भवन का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें किसी मूर्ति की स्थापना नहीं होगी, न इसमें कोई बलिदान होगा, न किसी धर्म की निन्दा की जायेगी। इसमें केवल ऐसे उपदेश दिये जायेंगे जिनसे समस्त धर्मों के बीच एकता तथा सद्भाव की वृद्धि हो।’

ब्रह्म समाज पर आरोप लगाया जाता है कि उस पर ईसाई धर्म और सभ्यता का प्रभाव था किन्तु यह सत्य नहीं है। उसकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्राचीन भारतीय धर्म ग्रन्थ ही थे। राजा राममोहन राय ने पश्चिमी सभ्यता की तर्क, स्वतंत्रता और अनुसंधान की भावना अवश्य ग्रहण की। इसलिए उन्होंने तात्कालिक धर्म में प्रचलित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन सिद्धान्तों के खण्डन का आधार प्राचीन वेद और उपनिषद ही थे। ब्रह्म समाज ने भारत के अन्य धर्मों में सुधार का मार्ग भी प्रशस्त किया।

सामाजिक सुधार: राजा राममोहन राय उच्च कोटि के समाज सुधारक थे। उस समय हिन्दू समाज में अनेक बुराईयां व्याप्त थीं। राजा राममोहन राय ने उन्हें दूर करने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी विधवा भाभी को सती होते देखकर इस बर्बर तथा अमानुषिक प्रथा के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन चलाया। इसके परिणाम स्वरूप लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। कुछ कट्टरपंथी हिन्दुओं ने इस कानून का विरोध करते हुए लंदन की प्रिवी कौंसिल में अपील की किन्तु राजा राममोहन राय तथा देवेन्द्रनाथ टैगौर ने इस कानून का समर्थन करते हुए प्रिवी कौंसिल को अनेक पत्र लिखे जिससे कट्टरपंथी हिन्दुओं का मनोबल गिर गया और अन्त में राजा राममोहन राय और उनके साथियों को विजय मिली। ब्रह्म समाज ने बाल विवाह, बहु विवाह, जाति प्रथा, छुआछूत, नशा आदि समस्त कुरीतियों का डटकर विरोध किया तथा स्त्री-शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह आदि का समर्थन किया। उस समय भारतीय हिन्दू समाज में कन्या एवं वर विक्रय और कन्या वध जैसी कुप्रथायें प्रचलित थीं। ब्रह्म समाज ने इन कुरीतियों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने समता का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए लाखों हिन्दुओं को ईसाई धर्म स्वीकार करने से रोका। 1822 ई. और 1830 ई. में दो प्रकाशनों द्वारा राजा राममोहन राय ने स्त्रियों के सामाजिक, कानूनी और सम्पत्ति के अधिकारों पर प्रकाश डाला। उनके मत में, स्त्री और पुरुष दोनों ही समान थे।

इस प्रकार समाज सुधार के क्षेत्र में ब्रह्म समाज का योगदान अद्वितीय है। हिन्दू समाज में कोई भी ऐसी कुरीति नहीं थी, जिस पर ब्रह्म समाज ने प्रहार न किया हो। आधुनिक काल में जिन कुरीतियों का विरोध समस्त प्रबुद्ध भारतीयों ने किया है तथा जिन्हें आज भी भारत का शिक्षित वर्ग घृणा की दृष्टि से देखता है, उन कुरीतियों पर सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही प्रहार किया था। स्वतंत्र भारत के संविधान में जिन सामाजिक कुरीतियों को असंवैधानिक घाषित किया गया है, उनके विरुद्ध भी सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही संघर्ष किया था। 

साहित्यिक सुधार: ब्रह्म समाज ने साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया। देवेन्द्रनाथ की तत्त्व बोधिनी सभा, केशवचंद्र सेन की संगत सभा और भारतीय समाज सुधार जैसी सभाएं ब्रह्म समाज के विचारों का प्रचार करने में सहायक सिद्ध हुईं। राजा राममोहन राय ने बंगला, उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत और अँग्रेजी भाषा में पुस्तकों की रचना कर भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया जो भारतीय साहित्यिक जगत् के लिए स्थायी योगदान है। राजा राममोहन राय और केशवचन्द्र सेन के लेखों और वक्तव्यों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। राजा राममोहन राय के अपील टू द क्रिश्चियन पब्लिक तथा दी डेस्टिनी ऑफ ह्यूमन लाइफ जैसे लेखों ने भारतीयों में नव-जागरण उत्पन्न किया। राजा राममोहन राय ने संवाद कौमुदी नामक सर्वप्रथम बंगला साप्ताहिक पत्र निकाला। उन्होंने फारसी अखबार मिरातउल भी प्रकाशित किया। केशवचन्द्र सेन ने भारतीय ब्रह्म समाज द्वारा तत्त्व कौमुदी, ब्रह्म पब्लिक ओपीनियन, संजीवनी आदि पत्र प्रकाशित किये। इन पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य के विकास में भारी योगदान दिया।

शैक्षणिक सुधार: राजा राममोहन राय अँग्रेजी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। उन्होंने अँग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए पूर्ण प्रयत्न किया। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक युग में प्रगति के लिए अँग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। वे चाहते थे कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा तथा ज्ञान की समस्त शाखाओं के शिक्षण की व्यवस्था हो। इसके लिए ब्रह्म समाज ने विभिन्न स्थानों पर स्कूल और कॉलेज खोले। स्वयं राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में वेदान्त कॉलेज, इंगलिश स्कूल और हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। केशवचन्द्र सेन के भारतीय ब्रह्म समाज ने ब्रह्म बालिका स्कूल तथा सिटी कॉलेज ऑफ कलकत्ता की नींव डाली। भारत के आधुनिकीकरण और समाज सुधार में इन शिक्षण संस्थाओं ने महान् योगदान दिया। हिन्दू कॉलेज ने भारतीय बौद्धिक जागरण में अग्रदूत का काम किया तथा युवा बंगाल आन्दोलन को जन्म दिया।

राष्ट्रीय सुधार: ब्रह्म समाज ने राष्ट्रीयता की भावना के निर्माण में विपुल योगदान दिया। उसने प्राचीन भारतीय गौरव, सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान कराया, भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई। राजा राममोहन राय ने हिन्दू कानून में सुधार करने की वकालात की। स्त्रियों के सामाजिक कानून और सम्पत्ति के अधिकार पर बल दिया। भूमि-कर में कमी करने की मांग की और दमनकारी कृषि कानूनों के विरुद्ध एक प्रार्थना-पत्र इंग्लैण्ड भेजा। समाचार पत्रों पर लगे प्रतिबन्धों का विरोध किया और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट तथा किंग-इन-कौंसिल को आवेदन-पत्र भेजे। राजा राममोहन राय ने सर्वप्रथम विचार-स्वतंत्रता का नारा बुलन्द किया। उन्होंने भारतीयों को शासन और सेवा में अधिक संख्या में भरती करने की मांग की। इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कामन्स की प्रवर समिति के समक्ष उन्होंने भारतीय शासन में सुधार हेतु सुझाव दिये। उन्होंने न्याय में जूरी प्रथा का समर्थन किया तथा न्यायपालिका को प्रशासन से अलग करने की मांग की। उन्होंने दीवानी तथा फौजदारी कानूनों का संग्रह तैयार करने की भी मांग की और फारसी के स्थान पर अँग्रेजी भाषा को न्यायालयों की भाषा बनाने पर बल दिया। उन्होंने किसानों से ली जाने वाली मालगुजारी निश्चित करने की मांग की। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप 1835 ई. में समाचार पत्रों पर लगे प्रतिबन्धों को हटाया गया। राजा राममोहन राय ने भारत के राजनीतिक नवजागरण में महान् योगदान दिया।

नये युग के अग्रदूत

राजा राममोहन राय अन्तर्राष्ट्रीयता के समर्थक थे। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने हेतु एक सुझाव प्रस्तुत किया जिसमें सम्बन्धित देशों की संसदों से एक-एक सदस्य लेकर अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस बनाने कर योजना थी। इस प्रकार राजा राममोहन राय राष्ट्रीयता एवं अन्तराष्ट्रीयता- दोनों के प्रबल समर्थक थे। एडम ने लिखा है- ‘स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तर्रात्मा की सबसे जोरदार लगन थी और यह प्रबल भावना उनके धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि समस्त कार्यों में फूट-फूटकर निकल पड़ती थी।’  इसीलिए उन्हें नये युग का अग्रदूत कहा गया है।

अध्याय – 31 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-3

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युवा बंगाल आन्दोलन

 जनवरी 1817 में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना, भारत के धर्म और समाज सुधार आन्दोलन के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। सार्वजनिक जीवन तथा जनजागरण का इतिहास हिन्दू कॉलेज से ही आरम्भ होता है। इससे पूर्व बंगाल के जनजीवन पर धर्म का गहरा प्रभाव था तथा भारतीयों का राजनीति से सम्पर्क नहीं के बराबर था। 1826 ई. में हेनरी लुई विवियन देरीजियो इस कॉलेज में शिक्षक के पद पर नियुक्त हुआ। वह एक स्वतंत्र विचारक था तथा 19वीं शताब्दी की उदारवादी विचारधारा से प्रभावित था। उसने हिन्दू कॉलेज को जन-जागरण का केन्द्र बना दिया। वह ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहता था जिससे भारतीयों में राजनीति के प्रति रुचि उत्पन्न हो। उसने कॉलेज के मेधावी छात्रों को यूरोप के राजनीतिक विचारकों की विचार धाराओं से परिचित कराया। अमृतलाल मित्र, कृष्णमोहन बनर्जी, रसिककृष्ण मल्लिक, दक्षिणरंजन मुखर्जी, रामगोपाल घोष आदि अनेक जागरूक एवं मेधावी छात्र उसके निकट सम्पर्क में थे। देरीजियो और उसके मेधावी छात्रों की विचार गोष्ठियों में धर्म, राजनीति, नैतिकता और भारतीय इतिहास पर विचार-विमर्श होता था। जो छात्र देरीजियो के सम्पर्क में आये, उन्होंने बंगाल में एक नया जागरूक वर्ग तैयार किया जिसे युवा बंगाल कहा जाता था। युवा बंगाल के सदस्य अन्धविश्वासों तथा भारतीय सामाजिक कुरीतियों के कटु आलोचक थे और सुधारों के प्रबल पक्षपाती थे। उन्होंने बंगाल में एक आन्दोलन आरम्भ किया जिसे युवा बंगाल आन्दोलन कहा जाता है।

देरीजियो के विचारों से प्रभावित होकर युवा बंगाल के सदस्यों ने 1828 ई. में देरीजियो की अध्यक्षता में एकेडेमिक एसोसिएशन की स्थापना की। इस एसोसियेशन के तत्त्वावधान में आयोजित होने वाली सभाओं में विभिन्न विषयों पर चर्चा होती थी और विचारों का आदान-प्रदान होता था। इस प्रकार की विचार-गोष्ठियों में हिन्दू कॉलेज के छात्रों के साथ-साथ कलकत्ता के शिक्षित और जागरूक लोग भी भाग लेने लगे। देरीजियो और उसके ऐसासिएशन ने सुप्त भारतीयों को झकझोर दिया। छात्रों में आत्म-विश्वास की भावना उत्पन्न हुई और वे प्राचीन रूढ़ियों की आलोचना करने लगे। पुरातनपंथी भारतीयों ने इस एसोसिएशन के विरुद्ध आवाज उठाई। अनेक अभिभावकों ने अपने लड़कों को हिन्दू कॉलेज से निकाल लिया। इस पर कॉलेज की मैनेजिंग कमेटी ने आदेश प्रसारित किया कि कॉलेज का कोई छात्र इस एसोसिएशन से सम्बन्ध न रखे। मैनेजिंग कमेटी ने देरीजियो को कॉलेज से निकालने का निर्णय किया। मार्च 1831 में देरीजियो ने स्वयं त्याग पत्र दे दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गयी। देरीजियो की मृत्यु के बाद भी उसके शिष्य उसके बताए हुए मार्ग पर चलते रहे और बंगाल में जनजागरण का कार्य करते रहे। बंगाल में सार्वजनिक संगठनों की स्थापना का प्रारम्भ देरीजियो के युवा बंगाल तथा एकेडेमिक एसोसिएशन से होता है। उसने बंगाल में और अन्ततः सम्पूर्ण भारत में जनजागरण की नींव रखी। उसने वस्तुओं को तर्क के आधार पर परखने एवं अन्धविश्वासों तथा पुरानी मान्यताओं पर प्रबल आक्षेप करने की परम्परा आरम्भ की।

केशवचन्द्र सेन और भारतीय ब्रह्म समाज

केशवचन्द्र सेन 1856 ई. में ब्रह्म समाज के सदस्य बने। उन्होंने अपने भाषणों तथा लेखों के माध्यम से नवयुवकों को ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित किया। उन्होंने संत सभा की स्थापना की। केशवचन्द्र सेन पाश्चात्य विचारों तथा ईसाई धर्म से अधिक प्रभावित थे और ब्रह्म समाज को ईसाई धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार चलाना चाहते थे। इस कारण उनका देवेन्द्रनाथ टैगोर से मतभेद हो गया और उन्होंने 1866 ई. में भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की। ईसाई धर्म से प्रभावित होने के कारण भारतीय ब्रह्म समाज, ईसा मसीह को पूज्य मानने लगा। इस संस्था के अनुयाइयों में बाइबिल तथा ईसाई पुराणों का उत्साह से अध्ययन होने लगा। केशवचन्द्र सेन ने भारतीय ब्रह्म समाज के प्रार्थना संग्रह में हिन्दू, बौद्ध, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम और चीनी आदि विविध धर्मों की प्रार्थनाएं तथा वैष्णव कीर्तन सम्मिलित किये।

केशवचन्द्र सेन ने नवयुवकों में सामाजिक सुधार की उग्र भावना जागृत की। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह का प्रबल समर्थन किया तथा बाल विवाह, बहु विवाह और पर्दा-प्रथा का विरोध किया। उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह का भी समर्थन किया। इसके परिणामस्वरूप 1872 ई. में ब्रह्म मेरिजेज एक्ट पारित किया गया जिसके अनुसार अन्तर्जातीय विवाह एवं विधवा विवाह हो सकते थे तथा बाल विवाह एवं बहु विवाह का निषेध कर दिया गया। 1870 ई. में केशवचन्द्र सेन ने इण्डियन रिफार्म एसोसिएशन की स्थापना की जिसमें स्त्रियों की स्थिति में सुधार, मजदूर वर्ग की शिक्षा, सस्ते साहित्य का निर्माण, नशाबन्दी आदि उद्देश्य रखे गये। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने साप्ताहिक समाचार पत्र सुलभ समाचार आरम्भ किया। स्त्रियों को उनके घर पर शिक्षा देने के लिए एक समुदाय बनाया और एक समुदाय सस्ती एवं उपयोगी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए स्थापित किया।

केशवचन्द्र सेन के नेतृत्व में भारतीय ब्रह्म समाज का तीव्र गति से उत्कर्ष हुआ। नवयुवकों ने बंगाल के गांव-गांव में जाकर समाज का प्रचार किया तथा अनेक नवयुवक बंगाल से बाहर भी गये। 1866 ई. में छपे एक लेख से ज्ञात होता है कि भारतीय ब्रह्म समाज की बंगाल में 50, उत्तर प्रदेश में 2, पंजाब तथा मद्रास में 1-1 शाखा स्थापित हुई। भारतीय ब्रह्म समाज के सिद्धांतों के प्रचार के लिए विभिन्न भाषाओं में 37 पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती थीं। 1878 ई. में कूचबिहार के अवयस्क राजकुमार और केशवचन्द्र सेन की अवयस्क पुत्री का विवाह हुआ। इससे केशवचन्द्र सेन की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। ब्रह्म मेरिजेज एक्ट पारित करवाने में केशवचन्द्र सेन सबसे अधिक सक्रिय थे और अब उन्होंने स्वयं उस कानून का उल्लंघन कर दिया। इसलिये केशवचन्द्र सेन के विरुद्ध आवाज उठी और भारतीय ब्रह्म समाज के दो टुकड़े हो गये। केशवचन्द्र सेन के विरोधियों ने साधारण ब्रह्म समाज स्थापित किया। केशवचन्द्र सेन के नेतृत्व में नव विधान सभा गठित की गई।

साधारण ब्रह्म समाज

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा शिवनाथ शास्त्री जैसे महान् समाज सुधारकों ने केशवचंद्र सेन से नाराज होकर साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की। इसने कलकत्ता में एक स्कूल स्थापित किया, जो बाद में सिटी कॉलेज ऑफ कलकत्ता कहलाया। इस संस्था ने पुस्तकालय तथा छापाखाने की स्थापना की तथा समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। बंगला में तत्त्व कौमुदी और अँग्रेजी में ब्रह्म पब्लिक ऑपिनियन नामक दो समाचार पत्र चलाये। 1884 ई. में साप्ताहिक पत्रिका संजीवनी आरम्भ की गई। 1888 ई. में ब्रह्म बालिका स्कूल खोला गया। इस प्रकार साधारण ब्रह्म समाज ने भी धर्म और समाज सुधार आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। बाद के समय में ब्रह्म समाज की सबसे अधिक लोकप्रिय शाखा यही थी।

डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग और प्रार्थना समाज

1819 ई. में महाराष्ट्र में प्रार्थना सभा की स्थापना की गई। इसका प्रभाव सीमित था और यह शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो गई। 1867 ई. में डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग ने प्रार्थना समाज की स्थापना की। वे केशवचंद्र सेन से बहुत प्रभावित थे। इस कारण ब्रह्म समाज तथा प्रार्थना समाज की बहुत सी बातें एक जैसी थीं। प्रार्थना समाज का उद्देश्य भी समाज सुधार करना था। धार्मिक क्षेत्र में यह एकेश्वरवाद तथा ईश्वर के निराकार रूप के सिद्धांत को मानते थे। प्रार्थना समाज में, मूर्ति-पूजा के त्याग की शर्त नहीं थी। सामाजिक क्षेत्र में इस संस्था के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार थे-

(1.) विधवा विवाह को बढ़ावा देना।

(2.) जाति-प्रथा को अस्वीकार करना।

(3.) स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन देना।

(4.) बाल विवाह का बहिष्कार करना।

(5.) विवेकपूर्ण उपासना करना।

(6.) अन्य सामाजिक सुधार करना।

केशवचन्द्र सेन, नवीनचन्द्र राय, पी. सी. मजूमदार और बाबू महेन्द्रनाथ बोस जैसे प्रसिद्ध ब्रह्म समाजियों के बम्बई आगमन से प्रार्थना समाज को प्रोत्साहन मिला। प्रार्थना समाज के अनुयायियों ने अपना ध्यान अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह और महिलाओं व हरिजनों की दशा सुधारने पर केन्द्रित किया। उन्होंने अनाथाश्रम, रात्रि पाठशालाएं, विधवाश्रम, अछूतोद्धार जैसी अनेक उपयोगी संस्थाएं स्थापित कीं। प्रार्थना समाज ने हिन्दू धर्म से अलग होकर कोई नवीन सम्प्रदाय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया और न इसने ईसाई धर्म का समर्थन किया। इसने अपने सिद्धान्त भागवत् सम्प्रदाय से सम्बन्धित रखे।

हिन्दू कट्टरता पर करारी चोट

प्रार्थना समाज के कुछ सदस्यों ने ने हिन्दू कट्टरता पर करारी चोट की। महाराष्ट्र के समाज सुधारक गोपाल हरिदेशमुख (लोकहितवादी) ने लिखा है- ‘धर्म यदि सुधार की अनुमति नहीं देता तो उसे बदल देना चाहिये। क्योंकि धर्म को मनुष्य ने बनाया है और यह आवश्यक नहीं है कि बहुत पहले लिखे गये धर्म ग्रंथ आज भी प्रासंगिक हों।’

पुरोहितों तथा ब्राह्मणों पर प्रहार करते हुए उन्होंने लिखा- ‘पुरोहित बहुत ही अपवित्र हैं क्योंकि कुछ बातों को बिना उनका अर्थ समझे दुहराते रहते हैं…… पण्डित तो पुरोहितों से भी बुरे हैं क्योंकि वे और भी अज्ञानी हैं तथा अहंकारी भी हैं …… ब्राह्मण कौन हैं और किन अर्थों में वे हमसे भिन्न हैं ? क्या उनके बीस हाथ हैं और क्या हममें कोई कमी है ? अब जब ऐसे सवाल पूछे जायें तो ब्राह्मणों को अपनी मूर्खतापूर्ण धारणाएं त्याग देनी चाहिये, उन्हें यह मान लेना चाहिये कि समस्त मनुष्य बराबर हैं तथा हर व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है।’

जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे का योगदान

जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे (1842-1901 ई.) ने इस संस्था के माध्यम से बहुत काम किया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रार्थना समाज के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में लगाया। वे समाज सुधार के साथ राष्ट्रीय प्रगति के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने 1884 ई. में दकन एजूकेशन सोसायटी तथा विधवा विवाह संघ की स्थापना की। उन्होंने भारतीय सुधारों को नवीन दिशा दी। प्रार्थना समाज धार्मिक गतिविधियों की अपेक्षा सामाजिक क्षेत्र में अधिक कार्यशील रहा और पश्चिमी भारत में समाज सुधार सम्बन्धी विभिन्न कार्यकलापों का केन्द्र रहा। प्रार्थना समाज ने महाराष्ट्र में समाज सुधार के लिए वही कार्य किया, जो ब्रह्म समाज ने बंगाल में किया था।

117. सोने का दिल लोहे के हाथ!

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चाणक्य और समुद्रगुप्त की तरह थे सरदार पटेल

संसार में ऐसे बहुत कम लोग हुए हैं जो संसार की सेवा करने के लिए अपने हाथों को लोहे का और दिल को सोने का बना लेते हैं। सरदार पटेल ऐसे ही विरले महापुरुष थे।

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गुजरात के प्लेग रोगियों की सेवा करने के लिए उन्होंने अपना जीवन खतरे में डाल दिया और रोगियों की सेवा करते-करते, स्वयं प्लेग ग्रस्त होकर गांव से बाहर एक मंदिर में जाकर रहने लगे। उन्होंने अपनी कमाई भाइयों पर लुटा दी और प्रधानमंत्री की कुर्सी गांधीजी की इच्छा के लिए कुर्बान कर दी। वे चाहते थे तो प्रधानमंत्री बन सकते थे किंतु उन्होंने देश की स्वतंत्रता के रथ को तेजी से आगे बढ़ने देने के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी को वैसे ही त्याग दिया जैसे सुभाषचंद्र बोस ने गांधीजी की इच्छापूर्ति के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी त्याग दी थी।

सरदार पटेल का निजी जीवन सरलता और सादगी से गहगह महकता था। पहली पत्नी की मृत्यु के उपरांत उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। गरीबी का दंश झेलकर भी उन्होंने लंदन जाकर बैररिस्ट्री की पढ़ाई की। जब सम्पन्नता जीवन में आने लगी तो वकालात त्यागकर, वे स्वातंत्र्य समर में कूद पड़े। अंग्रेजी वेशभूषा त्यागकर उन्होंने देशी कुर्ता और धोती को अपना लिया। अपने पुत्र के विवाह के आयोजन पर उन्होंने केवल 12 रुपये व्यय किये। उनकी पुत्री मणिबेन आजीवन उनके साथ छाया की तरह रहीं किंतु वे भी साधारण खादी  की मोटी सफेद साड़ी पहनती थीं। सरदार पटेल का त्यागमय जीवन भारतीय ऋषियों की परम्परा का जीता-जागता प्रमाण था।

सोने के दिल और लोहे के हाथों वाले इस भारतीय ऋषि को हमारा शत-शत प्रणाम है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन

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औरंगजेब एक क्रूर, धर्मान्ध और हत्यारा शासक ही नहीं था, अपितु वह कला और संस्कृति का भी बहुत बड़ा शत्रु था। औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन अब हमें देखने को नहीं मिल सकते किंतु उनकी सूची बहुत लम्बी है।

औरंगजेब के काल में मंदिरों का विध्वंस

औरंगजेब का मानना था कि मुसलमानों के लिए यह उचित नहीं है कि उनकी दृष्टि किसी बुतखाने अर्थात् मंदिर पर पड़े। इसलिए बादशाह बनने से पहले ही औरंगजेब ने हिन्दू पूजा-स्थलों को गिरवाना तथा देव-मूर्तियों को भंग करना आरम्भ कर दिया था।

चिंतामणि मंदिर का ध्वंस

औरंगजेब जब गुजरात का सूबेदार था तब अहमदाबाद में चिन्तामणि का मन्दिर बनकर तैयार ही हुआ था। औरंगजेब ने उसे ध्वस्त करवाकर उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी।

कटक तथा मेदिनीपुर के मंदिरों का ध्वंस

तख्त पर बैठते ही उसने बिहार के अधिकारियों को निर्देश दिए कि कटक तथा मेदिनीपुर के बीच में जितने भी हिन्दू मन्दिर हैं उन्हें गिरवा दिया जाए। इनमें तिलकुटी का नवनिर्मित भव्य मंदिर भी सम्मिलित था।

सोमनाथ मंदिर का ध्वंस

सोमनाथ का तीसरी बार निर्मित मन्दिर भी औरंगजेब के आदेश से ध्वस्त कर दिया गया।  ई.1665 में उसने आदेश दिए कि गुजरात का जो मंदिर तोड़ा गया था, उसे हिन्दुओं ने फिर से बनवा लिया है, उसे पुनः तोड़ा जाए।

केशवराय मंदिर की रेलिंग का ध्वंस

ई.1666 में औरंगजेब ने मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर स्थित केशवराय मंदिर के पत्थर के उस कटरे (रेलिंग) को तुड़वाया जिसे दारा शिकोह ने बनवाया था। 

दिल्ली का कालकाजी मंदिर का विध्वंस

28 अगस्त 1667 को आम्बेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु हो जाने के 6 दिन बाद 3 सितम्बर 1667 को औरंगजेब ने सीदी फौलाद खाँ को 100 बेलदार लगाकर 2,000 वर्ष पुराने (ईसा पूर्व तीसरी शती में निर्मित) दिल्ली के कालकाजी शक्तिपीठ तथा उसके क्षेत्र में आने वाले समस्त हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने के आदेश दिए। 12 सितम्बर को सीदी ने औरंगजेब को सूचना दी कि आदेशों की पूर्णतः पालना हो गई है। मंदिर तोड़ने के दौरान एक ब्राह्मण ने सीदी पर तलवार से वार किए जिससे सीदी के शरीर पर तीन घाव लगे। सीदी ने उस ब्राह्मण का सिर पकड़ लिया। ब्राह्मण को वहीं मार दिया गया तथा सीदी बच गया।

समस्त हिन्दू मंदिरों एवं पाठशालाओं को तोड़ने के आदेश

9 अप्रेल 1669 को औरंगजेब ने सम्पूर्ण मुगल सल्तनत में हिन्दुओं के मंदिरों एवं विद्यालयों को पूर्णतः नष्ट करने के आदेश जारी किए। मंदिरों को तोड़ने का औरंगजेब का आदेश प्रत्येक मुगल परगने में भेजा गया। ढाका जिले के धामारी गांव के यशोमाधव मंदिर से इस आदेश की एक प्रति प्राप्त हुई है।

मलारना के शिव मंदिर का विनाश

मई 1669 में सालेह बहादुर को राजपूताना में मोरेल नदी के तट पर स्थित मलारना गांव के शिव मंदिर को तोड़ने भेजा गया।

काशी विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस

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ई.1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। ई.1632 में शाहजहाँ ने इस भव्य मंदिर को तोड़ने के लिए सेना भेजी। हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण शाहजहाँ की सेना विश्वनाथ मंदिर को तो नहीं तोड़ सकी किंतु काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खाँ द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है।

सितम्बर 1669 में औरंगजेब की सेना ने 3,000 वर्ष पुराने काशी (बनारस) में स्थित विश्वनाथ मन्दिर को गिरवाकर विशाल मस्जिद का निर्माण करवाया, जो आज भी विद्यमान है। इस मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण सहित कई प्राचीन पुराणों में मिलता है। इसे ई.1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने तोड़ा। इल्तुतमिश (ई.1211-1266) के शासनकाल में गुजरात के एक व्यापारी ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।

हुसैन शाह शर्की (ई.1447-58) अथवा सिकंदर लोदी (ई.1489-1517) ने इस मंदिर को तोड़ दिया। अकबर के शासनकाल में राजा मानसिंह ने इस मंदिर को फिर से बनवाने की चेष्टा की किंतु हिन्दुओं ने मानसिंह के मंदिर को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह मुसलमान बादशाह अकबर का सम्बन्धी थी।

ई.1585 में राजा टोडरमल ने अकबर से धन लेकर इस मंदिर का निर्माण करवाया। औरंगजेब के काल में इस मंदिर को तोड़ा गया। ई.1780 में मराठा रानी अहिल्या बाई होलकर ने मस्जिद के पास एक शिव मंदिर बनवाया जिसे अब काशी विश्वनाथ कहा जाता है। औरंगजेब ने काशी का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया।

औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन केवल मिट्टी में ही नहीं मिल जाते थे अपितु उनके स्थान पर मस्जिद खड़ी की जाती थी। औरंगजेब के आदेश पर बनारस में बनवाई गई मस्जिद को ‘ज्ञानवापी मस्जिद’ कहा गया। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।

औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन की सामग्री उसी स्थान पर बनाई जाने वाली मस्जिद के निर्माण में प्रयुक्त होती थी। कई बार तो मस्जिद के भीतर की संरचना ज्यों की त्यों रख ली जाती थी और उसका बाह्य रूप मस्जिद जैसा बना दिया जाता था।

काशी विश्वनाथ का मंदिर महाभारत और उपनिषद काल में भी था। हिन्दुओं की मान्यता है कि ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। बाद में विक्रमादित्य नामक किसी चक्रवर्ती राजा ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। इस मंदिर को ई.1194 में मुहम्मद गौरी ने तोड़ दिया। हिन्दुओं ने इस स्थान पर पुनः एक मंदिर का निर्माण किया जिसे ई.1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया।

ई.1752 से ई.1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 को महादजी सिंधिया ने बादशाह शाहआलम से, मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने तथा मंदिर का नवीनीकरण करने का आदेश जारी करा लिया परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया।

बाद में ई.1777-80 की अवधि में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहाँ विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।

ई.1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र था। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा किंतु इस आदेश की पालना नहीं की गई।

ब्रजभूमि के मंदिरों का विनाश

ई.1669 में जैसे ही औरंगजेब ने समस्त हिन्दू मंदिरों को गिराने के आदेश दिए, वैसे ही मथुरा, वृंदावन तथा ब्रज क्षेत्र के प्रमुख मंदिरों के पुजारी एवं सेवादार अपने आराध्य देवों के विग्रहों को मंदिरों से निकालकर अन्य स्थानों को ले जाने लगे। बहुत से पुजारियों ने अपने आराध्य देवों की प्रतिमाओं को लेकर राजपूत रियासतों की ओर पलायन किया।

महाप्रभु वल्लभाचार्यजी के वंशज गिरधर गुसाईंजी, बूंदी नरेश भावसिंह के सरंक्षण में भगवान मथुराधीश की विख्यात प्रतिमा को ब्रज से निकालकर बूंदी ले आए जहाँ से यह प्रतिमा राजा दुर्जनशाल द्वारा कोटा ले जाई गई तथा उसके लिए कोटा में मथुरेशजी का विख्यात मंदिर बनवाया गया।

इस विग्रह का प्राकट्य गोकुल के निकट कर्णावल गांव में हुआ था तथा इस विग्रह को महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपने शिष्य पद्मनाथजी के पुत्र विट्ठलनाथ जी को दिया था। उन्होंने यह प्रतिमा अपने पुत्र गिरधरजी को दी थी। कोटा के मथुरेशजी मंदिर को अब वल्लभ सम्प्रदाय की प्रथम पीठ माना जाता है।

इसी प्रकार ई.1669 में वृंदावन के विशाल गोविंददेव मंदिर के विग्रह को भी वृंदावन से निकालकर जयपुर पहुंचा दिया गया। इस विग्रह का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने अपनी माता के मुख से सुने भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप के आधार पर करवाया था। इस विग्रह को चैतन्य महाप्रभु के आदेश से उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गोमा टीले के नीचे से खोद कर प्राप्त किया था।

ई.1590 में अकबर की अनुमति से राजा मानसिंह ने वृंदावन में इस विग्रह हेतु एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया। यह देवालय पूर्व-पश्चिम में 117 फुट लम्बा और उत्तर-दक्षिण में 105 फुट चैड़ा था। मुगलकाल में इससे अधिक भव्य मंदिर नहीं बना था। अकबर ने इस मंदिर की गायों के चारागाह के लिए 135 बीघा भूमि प्रदान की थी। इसकी सातवीं मंजिल पर जलते हुए दीपों का प्रकाश आगरा तक दिखाई देता था।

जब मंदिर तोड़ने के आदेश हुए तो औरंगजेब के भय से मंदिर के सेवादार श्रीशिवराम गोस्वामी, भगवान श्रीगोविंददेव और राधारानी के विग्रहों को लेकर जंगलों में जा छिपे और बाद में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के पुत्र रामसिंह के संरक्षण में वृंदावन से जयपुर ले आए जहाँ यह प्रतिमा आज भी विराजमान है।

जयपुर के शासक गोविंददेव को राज्य का स्वामी तथा स्वयं को राज्य का दीवान मानते थे। ई.1670 में औरंगजेब के आदेश से वृंदावन में स्थित गोविंददेव का भव्य मंदिर तोड़ा गया। औरंगजेब ने वृंदावन के गोविंददेव मंदिर की तीन मंजिलों को तुड़वा दिया तथा अकबर द्वारा गौशाला के लिए दी गई 135 बीघा भूमि का पट्टा निरस्त कर दिया।

29 सितम्बर 1669 को मथुरा के निकट गोवर्द्धन पर्वत पर स्थित गिरिराज मंदिर के गुंसाई दामोदरजी, अपने चाचा गोविन्दजी एवं अन्य पुजारियों को साथ लेकर गोवर्द्धन से राजपूताने की ओर रवाना हो गए। वे आगरा, बूंदी, कोटा एवं पुष्कर होते हुए किशनगढ़ पहुंचे। किशनगढ़ के महाराजा मानसिंह ने ‘पीताम्बर की गाल’ में भगवान को पूर्ण भक्ति सहित विराजमान करवाया और विविधत् उनकी पूजा की किंतु भगवान को किशनगढ़ में रखने से असर्थता व्यक्त की।

इसलिए यहाँ से श्रीनाथजी जोधपुर राज्य के चैपासनी गांव पहुंचे। उस समय महाराजा जसवंतसिंह जमरूद के मोर्चे पर थे इसलिए राज्याधिकारियों ने आशंका व्यक्त की कि हम श्रीनाथजी के विग्रह की रक्षा नहीं कर पाएंगे। इस पर मेवाड़ नरेश राजसिंह ने गुसाइयों को वचन दिया कि मेवाड़ राज्य में एक लाख हिन्दुओं के सिर काटे बिना औरंगजेब श्रीनाथजी के विग्रह को स्पर्श नहीं कर पाएगा। इसलिए वे श्रीनाथजी को मेवाड़ में ले आएं। राजसिंह के निमंत्रण पर ई.1672 में श्रीनाथजी मेवाड़ पधारे तथा उन्हें सिहाड़ गांव में विराजित किया गया जो अब नाथद्वारा कहलाता है। 

मदनमोहनजी के मंदिर का ध्वंस

वृंदावन में वैष्णव संप्रदाय का मदन मोहनजी का विख्यात मंदिर स्थित था। इसका निर्माण ई.1590 से ई.1627 के बीच मुल्तान निवासी रामदास खत्री या कपूरी द्वारा करवाया गया। समस्त हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के औरंगजेब के आदेश के बाद मदनमोहनजी की प्रतिमा को जयपुर ले जाया गया जहाँ से करौली का राजा उन्हें करौली ले गया। मदनमोहनजी के वृंदावन वाले मंदिर को औरंगजेब के सैनिकों ने तोड़ डाला ई.1819 में नंदलाल वासु ने इसे पुनः बनवाया। प्राचीन निर्माण की तुलना में नया मंदिर छोटा है। इसे लाल पत्थर से बनाया गया है तथा पत्थर पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर ऊँचा किंतु संकरा दिखाई देता है।

श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर का ध्वंस

ई.1670 में औरंगजेब के आदेश से मथुरा के केशवराय मन्दिर को तोड़कर उसके पत्थरों से उसी स्थान पर मस्जिद बनवाई गई तथा मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया गया। इस मंदिर से कई मूल्यवान प्रतिमाएं प्राप्त हुईं जिनमें हीरे-जवाहर लगे हुए थे।

औरंगजेब ने इन प्रतिमाओं को बेगम साहिब की मस्जिद के रास्ते की सीढ़ियों में लगवाया ताकि उन्हें पैरों से ठोकर मारी जा सके। औरंगजेब चाहता था कि मंदिरों, विद्यालयों, पुस्तकों आदि को नष्ट करके, हिन्दुओं के मेलों, त्यौहारों को बंद करके, हिन्दू न्याय एवं विधि को समाप्त करके तथा तीर्थों के वास्तविक नामों को बदलकर हिन्दुओं के मन से हिन्दू धर्म के गौरव को पूर्णतः मिटा दिया जाए।

उज्जैन के मंदिरों का ध्वंस

मथुरा एवं वृंदावन के मंदिर को तोड़ने के बाद औरंगजेब ने गदाबेग को 400 सिपाहियों के साथ उज्जैन के मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। मालवा के सूबेदार वजीर खाँ को भी उज्जैन पहुंचने के आदेश दिए गए। जब मुस्लिम सेना उज्जैन के सुप्रसिद्ध महाकाल मंदिर पर हमला करने पहुंची तो उज्जैन के रावत ने मुस्लिम सेना का प्रबल विरोध किया। उसने गदाबेग तथा उसके 121 सिपाहियों का वध कर दिया। रावत की बहादुरी को आज भी लोकगीतों में स्मरण किया जाता है।

अयोध्या के मंदिरों का विध्वंस

औरंगजेब के सेनापतियों ने अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर ‘त्रेता के ठाकुर’ को नष्ट कर दिया जहाँ भगवान ने अपनी लौकिक देह का त्याग किया था। अयोध्या का ‘स्वर्गद्वारम्’ नामक मंदिर भी तोड़ दिया गया जहाँ भगवान की लौकिक देह का अंतिम संस्कार किया गया।

कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि अयोध्या का ‘जन्मस्थानम्’ नामक मंदिर भी औरंगजेब के शासकाल में तोड़ा गया था जहाँ भगवान ने लौकिक देह में जन्म लिया था जबकि अधिकतर इतिहासकारों की मान्यता है कि जन्मस्थानम् मंदिर को बाबर के शिया सेनापति मीर बाकी ने ई.1528 में ध्वस्त किया था।

शेखावटी के मंदिरों का विध्वंस

ई.1679 में औरंगजेब ने मीर आतिश दाराब खाँ को शेखावाटी क्षेत्र के खण्डेला गांव में स्थित मोहनजी का विशाल मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। 8 मार्च 1679 को आतिश दाराब खाँ ने मंदिर पर हमला किया तो 300 हिन्दू, मंदिर की रक्षा के लिए आगे आए। आतिश खाँ ने उन सभी की हत्या कर दी। इनमें मारवाड़ से विवाह करके लौटा सुजानसिंह नामक एक राजपूत भी था। उसकी प्रशंसा में आज भी शेखावाटी क्षेत्र में लोकगीत गाए जाते हैं।

मुगल सेना ने खण्डेला स्थित मोहनजी का मंदिर, खाटू श्यामजी स्थित सांवलजी का मंदिर एवं निकटवर्ती अन्य मंदिर तोड़ दिए। खण्डेला का राजा बहादुरसिंह अपनी प्रजा एवं सैनिकों के साथ कोट सकराय के पहाड़ी दुर्ग में चला गया तथा मुगलों से भारी मोर्चा लिया।

मारवाड़ राज्य के मंदिरों का विध्वंस

मारवाड़ के राठौड़ राजा वैष्णव धर्म के अनुयाई थे। इसलिए मारवाड़ में विष्णु एवं उनके अवतारों के हजारों मंदिर बने। 25 मई 1679 को खानजहाँ बहादुर मारवाड़ राज्य के मंदिरों को ढहाकर दिल्ली लौटा। वह अपने साथ जोधपुर, फलोदी, मेड़ता, सिवाना, पोकरण, सांचोर, जालोर, भीनमाल तथा मारोठ आदि कस्बों में स्थित प्रसिद्ध मंदिरों की कीमती मूर्तियों की कई बैलगाड़ियां भर कर लाया था। इन मूर्तियों में बहुत सी मूर्तियों पर हीरे-जवाहर लगे हुए थे। बहुत सी मूर्तियों पर सोने चांदी के आभूषण एवं मुकुट आदि थे। औरंगजेब ने इन देव-विग्रहों को जिलाउखाना तथा जामा मस्जिद के रास्ते में लगवा दिया ताकि मुस्लिम इन्हें रोज ठोकरों से मार सकें।

खानजहाँ ने अपनी इस विध्वंस यात्रा में मण्डोर के 8वीं शताब्दी ईस्वी के प्राचीन मंदिर सहित ओसियां के हरिहर मंदिर, महिषसुर मर्दिनी मंदिर, त्रिविक्रम मंदिर सहित अनेक प्राचीन मंदिरों का विनाश किया जिनके ध्वंसावशेष आज भी खड़े हैं। अनेक प्रतिमाओं के चेहरे विकृत कर दिए गए।

पुष्कर के मंदिर का विध्वंस

पुष्कर का मंदिर जहाँगीर के शासनकाल में तोड़ा जा चुका था जिसे हिन्दुओं ने पुनः बना लिया था। अगस्त 1679 में औरंगजेब ने मुगल फौजदार तहव्वर खाँ को पुष्कर का वाराह मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। मेड़तिया राठौड़ों ने मंदिर की रक्षार्थ अपना बलिदान करने का निर्णय लिया और 19 अगस्त को पुष्कर पहुंचकर मुगल फौजदार पर आक्रमण किया। तीन दिनों तक दोनों पक्षों में लड़ाई चलती रही जब तक कि अंतिम हिन्दू सैनिक कटकर नहीं गिर गया।

मेवाड़ के मंदिरों का विध्वंस

फरवरी 1679 में औरंगजेब ने हसन अली खाँ को मेवाड़ क्षेत्र में सेना लेकर पहुंचने के आदेश दिए तथा औरंगजेब स्वयं भी 30 नवम्बर 1679 को अजमेर से मेवाड़ के लिए रवाना हुआ ताकि उदयपुर के मंदिरों को गिराया जा सके। महाराणा राजसिंह उदयपुर छोड़कर पहाड़ों में चला गया। 24 जनवरी 1680 को औरंगजेब उदयसागर झील के किनारे पहुंचा तथा वहाँ स्थित तीनों मंदिर ढहा दिए। वहीं पर औरंगजेब को सूचना मिली कि यहाँ से 5 कोस की दूरी पर एक और झील है जिसके किनारे भी मंदिर बने हुए हैं।

औरंगजेब ने यक्का ताज खाँ, हीरा, हसन अली खाँ तथा रोहिल्ला खाँ को उन्हें भी गिराने का आदेश दिया। उदयपुर नगर में स्थित विख्यात एवं भव्य जगदीश मंदिर पर भी आक्रमण किया गया। इस मंदिर को महाराजा जगतसिंह (ई.1628-52) ने कई लाख रुपयों की लागत से बनवाया था। इसे जगन्नाथराय का मंदिर भी कहते थे। इस मंदिर के सामने 20 माचातोड़ सैनिकों को सुलाया गया। जब मुगलों की सेना आई तो एक-एक करके माचातोड़ उठे तथा शत्रुओं के सिर काटते हुए स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए।

29 जनवरी 1680 को हसन अली खाँ ने औरंगजेब को सूचित किया कि अब तक उदयपुर में 172 मंदिरों को ढहाया जा चुका है। इनमें से उस काल के प्रसिद्ध अनेक मंदिर सदा के लिए नष्ट हो गए और हिन्दू उन्हें पूरी तरह भूल गए। केवल वही मंदिर याद रहे जिनका कुछ अंश टूट जाने से शेष रहा था। 22 फरवरी 1681 को औरंगजेब चित्तौड़ पहुंचा। उसने चित्तौड़ में स्थित 63 प्राचीन मंदिरों को ढहा दिया। इनमें आठवीं शताब्दी के कालिका माता मंदिर (वास्तव में सूर्य मंदिर) सहित आठवीं-दसवीं शताब्दी के अनेक मंदिर भी सम्मिलित थे जिन्हें बेरहमी से ढहाया गया।

इन मंदिरों के साथ ही शिल्प एवं स्थापत्य का एक सुंदर संसार सदा के लिए मानव सभ्यता की आंखों से ओझल हो गया। जून 1681 तक औरंगजेब की सेनाओं ने मेवाड़ राज्य में ताण्डव किया। दुर्ग के भीतर स्थित 63 मंदिरों के अतिरिक्त भी चित्तौड़ क्षेत्र के अन्य मंदिर तोड़े गए।

इनमें परिहारों द्वारा 10वीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित कूकड़ेश्वर महादेव, समिद्धेश्वर महादेव, अन्न्पूर्णा एवं बाणमाता मंदिर भी सम्मिलित थे। 22 मार्च 1680 को औरंगजेब अजमेर लौट गया।

20 अप्रेल 1680 को मेरठ के दारोगा ने सूचित किया कि बादशाह के आदेश से मेरठ के मंदिरों के दरवाजों को तोड़ दिया गया है तथा अब वह चित्तौड़ के काफिरों को दण्ड देने जा रहा है।

आम्बेर के मंदिरों का ध्वंस

जून 1680 में अबू तुराब ने औरंगजेब को सूचित किया कि आम्बेर में 66 हिन्दू मन्दिरों को तोड़ दिया गया है। आम्बेर के राजपूतों ने अकबर के शासन-काल से ही मुगलों की बड़ी सेवा की थी। इस कारण आम्बेर के कच्छवाहों को औरंगजेब के इस कुकृत्य से बहुत ठेस लगी। यह औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा थी।

2 अगस्त 1680 को मालवा का सुप्रसिद्ध सोमेश्वर मंदिर नष्ट कर दिया गया। 28 मार्च 1681 को असद खाँ ने आम्बेर के निकट गोनेर में स्थित जगदीश मंदिर को नष्ट किया। गजसिंह नामक एक राजपूत योद्धा ने अपने पाँच आदमियों सहित मंदिर में मुसलमानों के विरुद्ध मोर्चा जमाया, वे कई मुगल सैनिकों को मारकर वीरगति को प्राप्त हुए।

घोरबंद मंदिर का विनाश

उन्हीं दिनों औरंगजेब को सूचना मिली कि काबुल क्षेत्र में घोरबंद नामक थाने पर नियुक्त राजा मांधाता घोरबंद के दुर्ग में स्थित एक मंदिर में फूलों से मूर्तियों की पूजा करता है तथा आरती एवं भोग लगाता है। इस पर राजा मांधाता को घोरबंद से अन्यत्र भेजा गया तथा मंदिर को तोड़कर वहाँ मस्जिद बनाई गई। उसी वर्ष हसन अली खाँ ने सूचित किया कि उसने इस्लामाबाद (मथुरा) में एक मंदिर को तोड़ा है तथा एक हिन्दू बस्ती को नष्ट करके वहाँ हसनपुर नामक गांव बसाया है।

जगन्नाथ मंदिर का विनाश

जून 1681 में शाइस्ता खाँ को आदेश भेजकर ब्रह्मपुराण में वर्णित पुरी के जगन्नाथ मंदिर को तुड़वाया गया। यह मंदिर पहले भी मुसलमानों द्वारा कई बार तोड़ा गया था एवं हिन्दुओं द्वारा पुनःपुनः बनाया गया। औरंगजेब द्वारा तोड़ा गया मंदिर ई.1085-91 की अवधि में बनाया गया था।

अजमेर से बुरहानपुर तक के मंदिरों का विनाश

21 सितम्बर 1681 को औरंगजेब ने बेलदारों के दारोगा जवाहर चंद को आदेश दिए कि वह बुरहानपुर जाए तथा अजमेर से बुरहानपुर तक के मार्ग में स्थित प्रत्येक मंदिर को तोड़ डाले। ई.1681 के अंतिम महीनों में दक्षिण के मोर्चे पर नियुक्त कोटा नरेश को ज्ञात हुआ कि औरंगजेब अजमेर से कोटा, बूंदी एवं माण्डू होता हुआ बुरहानपुर जाएगा। इसलिए कोटा नरेश ने अपने राज्याधिकारियों को पत्र भेजकर सूचित किया कि वे श्रीनाथजी के सेवकों से कहें कि वे भगवान के विग्रह को लेकर बोराम्बा अथवा बिसलपुर चले जाएं तथा तब तक वहाँ रहें जब तक कि औरंगजेब यहाँ से वापस न लौट जाए।

13 नवम्बर 1681 को औरंगजेब बुरहानपुर पहुंचा तथा उसने बुरहानपुर के मंदिरों की रिपोर्ट मांगी। उसे बताया गया कि बुरहानपुर में काफी संख्या में मंदिर हैं जिनके पुजारी उन्हें बंद करके चले गए हैं। औरंगजेब उन मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाना चाहता था किंतु उसे बताया गया कि बुरहानपुर में इतने मुसलमान नहीं हैं जो इन मंदिरों को तोड़ सकें। चूंकि औरंगजेब को अपनी सेना अपने विद्रोही पुत्र अकबर तथा शिवाजी के पुत्र शंभाजी के विरुद्ध भेजनी थी इसलिए उसने उन मंदिरों के दरवाजे तुड़वाकर उन्हें ईंटों से बंद करवा दिया।

बनारस के नंद-माधव मंदिर का विनाश

ई.1682 में औरंगजेब के आदेशों से बनारस में स्थित सुप्रसिद्ध नंद-माधव (बिंदु-माधव) मंदिर को भी तोड़ डाला गया तथा उसके स्थान पर मस्जिद बनाई गई। इस विशाल मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल एवं राजा मानसिंह द्वारा अकबर की अनुमति से ई.1585 में करवाया गया था।

पेडगांव के शिवमंदिर का विनाश

13 सितम्बर 1682 को औरंगजेब ने शहजादे आजमशाह को आदेश दिए कि वह शंभाजी के राज्य में पेडगांव स्थित शिव मंदिर को तोड़ डाले। आजमशाह द्वारा इस मंदिर को तोड़ दिया गया तथा इस गांव का नाम बदलकर रहमतपुर कर दिया गया।

दक्षिण भारत के मंदिरों का विनाश

2 नवम्बर 1687 को अब्दुल खाँ को हैदराबाद के मंदिरों को तोड़ने के आदेश दिए गए। ई.1690 में औरंगजेब ने एलोरा, त्रयम्बकेश्वर, पंढरपुर जाजुरी तथा यवत के मंदिर तुड़वाए। इस दौरान औरंगजेब द्वारा दक्षिण में नियुक्त अनेक राजपूत राजाओं ने देव-प्रतिमाओं को बचाने के प्रयास भी किए। इनमें बीकानेर नरेश अनूपसिंह का नाम सबसे ऊपर है। उसने अष्टधातु की बहुत सी मूर्तियों की रक्षा की तथा उन्हें अपने बीकानेर स्थित दुर्ग में भिजवा दिया। इन मूर्तियों को तेतीस करोड़ देवताओं के मंदिर में रखा गया। ई.1689 में दक्षिण के मोर्चे पर ही महाराजा अनूपसिंह का निधन हुआ।

वडनगर के मंदिर का विनाश

ई.1693 में औरंगजेब ने गुजरात के वडनगर में स्थित हितेश्वर मंदिर को तोड़ने के आदेश दिए। मंदिर को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया।

सोरों के सीता-राम मंदिर का विनाश

औरंगजेब केआदेशों से उत्तर प्रदेश में स्थित सोरों के सीता-राम मंदिर को भग्न किया गया। मंदिर के पुजारियों की मंदिर में ही हत्या की गई तथा गोंडा में देवी पाटन के नाम पर स्थित देव वन को नष्ट किया गया।

दिल्ली के जयसिंहपुरा का विनाश

जयपुर नरेश जयसिंह ने देश के कई नगरों में निजी सम्पत्तियां खरीदकर जयसिंहपुरा नामक स्थानों का निर्माण करवाया तथा उन्हें अपनी निजी सम्पत्ति बताकर ब्राह्मणों, साधुओं एवं बैरागियों को रहने के लिए दे दिया। ये लोग जयसिंहपुरा में रहकर अपने निजी मंदिर बनाते थे और उनमें देव-विग्रहों की स्थापना कर उनकी पूजा करते थे।

जब दिल्ली के एक जयसिंहपुरा में इस प्रकार की पूजा होने की सूचना मिली तो मुगलों ने उस जयसिंहपुरा को घेर लिया तथा वहाँ के बैरागियों को पकड़ लिया। मुगलों ने उनकी 13 मूर्तियों को जब्त करके दिल्ली के सूबेदार को भेज दिया। इस पर हिन्दुओं की भारी भीड़ इकट्ठी हो गई। उन्होंने बैरागियों को तो छुड़वा लिया किंतु मूर्तियों को नहीं छुड़वाया जा सका।

बीजापुर के मंदिरों का विनाश

ई.1698 में हमीदुद्दीन खाँ को बीजापुर के मंदिरों को तोड़ने भेजा गया। उसने वहाँ के मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दीं। बादशाह उसके काम से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने हमीदुद्दीन खाँ को गुसलखाने का दारोगा बना दिया ताकि वह प्रतिदिन हमीदुद्दीन खाँ को देख सके और उसकी प्रशंसा कर सके।

महाराष्ट्र में पंढरपुर मंदिर का ध्वंस

1 जनवरी 1705 को उसने मुहम्मद खलील और बेलदारों के दारोगा खिदमत राय को आदेश दिया कि महाराष्ट्र में पंढरपुर के मंदिर  को तोड़ डाला जाए तथा कसाइयों को बुलाकर वहाँ गाएं कटवाई जाएं। जैसे ही हिन्दुओं को इस आदेश की जानकारी मिली, उन्होंने विठोबा (भगवान कृष्ण) तथा रुक्मणि की प्रतिमाओं को मंदिर से हटा कर छिपा दिया। मुगल सैनिकों ने मंदिर में गायों को लाकर उनकी हत्या की तथा मंदिर को ढहा दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिन्दुओं ने इस मंदिर को पुनः बनाया जिसमें वही प्राचीन प्रतिमाएं पुनः स्थापित कीं।

मरते दम तक बनी रही मंदिर तोड़ने की लालसा

औरंगजेब के शासनकाल में उसके उन आदेशों की अक्षरशः पालना की गई जिनके अनुसार हिन्दू न तो अपने पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर सकते थे और न नए मंदिर बना सकते थे। पूरे देश के प्रसिद्ध तीर्थों एवं मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को तुड़वाकर दिल्ली तथा आगरा में मस्जिदों की सीढ़ियों तथा मार्गों में डलवाया गया जिससे वे मुसलमानों के पैरों से ठुकराई जाएं और उनका घोर अपमान हो।

हजारों देवमंदिरों को मस्जिदों में बदल दिया गया। यहाँ तक कि छोटे-छोटे चबूतरों तथा पेड़ों के नीचे रखी देव-मूर्तियों एवं पत्थरों को भी तोड़ दिया गया। इस प्रकार औरंगजेब ने हर प्र्रकार से हिन्दुओं की भावनाओं को कुचलने का काम किया। उसकी यह प्रवृत्ति उसकी मृत्यु होने तक बनी रही।

औरंगजेब हिन्दू मंदिरों से कितनी घृणा करता था इसका अनुमान औरंगजेब द्वारा रूहिल्ला खाँ को लिखे गए एक पत्र से भली-भांति होता है जिसमें उसने लिखा कि-

‘महाराष्ट्र के बुतखाने (मंदिर) पत्थर एवं लोहे के बने हुए होते हैं जिन्हें हमारी सेनाएं, मेरे उस रास्ते से होकर निकलने से पहले, पूरी तरह नहीं तोड़ पाती हैं ताकि वे मुझे दिखाई न दें। इसलिए जब मैं वहाँ से होकर निकल जाऊँ तब मंदिर के ध्वंसावशेषों को और अधिक बेलदार लगाकर उन्हें फुर्सत से पूरी तरह तोड़ा जाए। इस कार्य में ऐसे दारोगा को लगाया जाए जो पूरी तरह से कट्टर हो और वह बुतखानों को तोड़ने के बाद उनकी नींवें भी उखाड़ फैंके।’

इस प्रकार हम देखते हैं कि औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन बहुत बड़ी संख्या में थे। औरंगजेब ने इन भवनों को मिट्टी में मिलकार अपनी जेहादी मानसिकता का परिचय दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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