Monday, September 1, 2025
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मध्यकालीन वेशभूषा एवं आभूषण

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मध्यकालीन वेशभूषा एवं आभूषण

मध्यकालीन वेशभूषा एवं आभूषण लोगों की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हैसियत के अनुसार होते थे। विभिन्न समुदायों के लोग प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे।

मध्यकालीन वेशभूषा एवं आभूषण वर्तमान काल की अपेक्षा काफी अलग थे। निर्धन लोगों के पास पूरा तन ढकने के लिए भी कपड़े नहीं होते थे। मध्यमवर्गीय परिवारों के वस्त्राभूषण भी अत्यंत साधारण होते थे। केवल सामंती परिवारों एवं श्रेष्ठि परिवारों के पास अच्छे वस्त्राभूषण उपलब्ध थे।

मध्यकालीन वेशभूषा

जन-सामान्य की वेशभूषा

मध्यकालीन वेशभूषा में हिन्दू पुरुषों में धोती, कुर्ता तथा पगड़ी अधिक प्रचलित थे और हिन्दू औरतों में कांचली, घाघरा ओढ़नी अधिक लोकप्रिय थी किंतु साड़ी-ब्लाउज और पेटीकोट भी समान रूप से प्रचलित थीं। औरतें घर से निकलते समय शरीर को चादर से लपेट लेती थीं। मजदूर और किसान वर्ग के लोग घुटनों से ऊपर तक छोटी सी धोती लपेटते थे।

सर्दियों में साधारण लोग सूती कोट पहना करते थे, जिसमें रुई भरी होती थी। उत्तर भारत में पगड़ी अथवा साफा प्रचलित था किंतु कश्मीर और पंजाब में रुई भरी हुई टोपी का चलन था। अत्यंत निर्धन लोग केवल लंगोट लगाकर जीवन बिताते थे। मुसलमानों के राज्य में ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती चली गई थी।

सरकारी कारिंदों की वेशभूषा

मुसलमान सैनिकों की कोई विशेष पोशाक नहीं थी फिर भी वे चुस्त कपड़े पहनते थे जिन पर तलवार, ढाल, गुप्ती आदि हथियार कसे हुए होते थे। शाही कारिंदे एवं गुलाम कमरबंद, लाल जूते और ‘कुला’ पहनते थे।

तुर्की सुल्तानों के काल की वेशभूषा

दिल्ली सुल्तानों के काल में लम्बी तातारी टोपी पहनने का प्रचलन था किंतु बाद में तातारी टोपी का स्थान पगड़ी ने ले लिया। पगड़ी दोनों समुदायों के लोग सामान्य रूप से धारण करते थे। मुस्लिम सफेद और गोल पगड़ी बांधते थे जबकि हिन्दुओं में रंगीन, ऊँची और नोकदार पगड़ी प्रचलित थी। गर्मी के कारण जुर्राबें बहुत कम पहनी जाती थी।

अधिकांश हिन्दू नंगे पैर रहते थे। बलबन ने अपने गुलामों को जुर्राब पहनने का आदेश दिया था। कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के मुसलमान नमाज आदि में सफाई बनाए रखने के लिए जुर्राबों का इस्तेमाल आवश्यक मानते थे। उस समय तुर्की जूते अधिक प्रचलित थे, जो सामने से नोकदार तथा ऊपर से खुले हुए होते थे। इनको पहनने और उतारने में अधिक सुविधा रहती थी।

अमीर अपने जूते रंगीन मखमल या जरी के बनवाते थे जिन पर रेशम और चमड़े के फीते लगाए जाते थे। कुछ जूतों पर हीरे-जवाहरात भी जड़वाये जाते थे। कालीकट के ब्राह्मण जाड़ों में भूरे चप्पल तथा गर्मियों में काठ की खड़ाऊ पहनते थे। मध्यम-वर्गीय परिवार लाल चमड़े के जूते पहनते थे, जिन पर फूलों की आकृतियां बनी रहती थीं।

साधु-सन्तों, फकीरों एवं दरवेशों को उनकी पोषाक से पहचाना जाता था। मुस्लिम फकीर लम्बी ‘दरवेश-टोपी’ तथा पैरों में ‘काठ की चट्टी’ पहनते थे और शरीर पर एक लम्बा चोगा डालते थे। मुस्लिम दार्शनिक पगड़ी, चोगा तथा पाजामा पहनते थे। हिन्दू संन्यासी एवं योगी केवल लंगोटी से काम चलाते थे। हिन्दू पंडित कमर में रेशमी चादर लपेट लेते थे, जिसका एक छोर पांव तक लटकता रहता था और लाल रंग की रेशमी चादर कन्धों पर डाल लेते थे।

मुगलकाल में शाही अमीरों की वेशभूषा

मध्यकालीन वेशभूषा में उच्च वर्ग के लोगों के वस्त्र महंगे होते थे। अमीर मुसलमान सलवार, सुतन्नी और पाजामा पहनते थे। शरीर के ऊपरी भाग पर कुर्ता, जैकेटनुमा कोट, काबा या लम्बा कोट पहना जाता था जो घुटनों तक लटकता था। यह मलमल या बारीक ऊन का बना होता था। मुगल बादशाह रोएंदार फर के कोट पहनते थे। धनी लोग कन्धे पर रंगीन ऊनी चादर रखते थे।

मध्य-युगीन सुल्तान, अमीर, खान आदि शाही पुरुष जरी वाले रेशमी और मखमली कपड़े पहनते थे। उनकी पोषाकों में दिबा-ए-हफ्तरंग (सप्तरंगी किमखाब), बीसात-ए-जमुरादी (मोतिया रंग की पोशाक), जामा-ए-जारबफ्त (जरी या सोने के तारों से बुना कपड़ा), कतान-ए-रूसी (रूस में बना कपड़ा), कतान-ए-बिरारी, बरकरमान (कई रंगों का ऊनी कपड़ा) आदि का भी प्रयोग होता था।

अकबर की वेशभूषा

अकबर ने अपनी पोशाकों के लिए कुशल दर्जी नियुक्त किए। आइन-ए-अकबरी में ग्यारह प्रकार के कोट का विवरण मिलता है। उनमें ‘टकन चिया पेशवाज’ सर्वाधिक महत्त्व का था। यह गोल-घेरदार कोट था, जो सामने से खुला रहता था और दांयी ओर से बंद होता था।

इसके साथ ही रोएंदार कोट ‘शाह आजीदाह’ का भी महत्त्व था। अकबर मुलायम रेशम की धोती भी पहनता था। मॉन्सेरट ने अकबर की पोशाक के बारे में लिखा है- ‘बादशाह सलामत की पोशाक रेशम की थी, जिस पर सोने का सुन्दर काम किया रहता था। उनकी पोशाक घुटनों तक झूलती थी तथा उसके नीचे पूरे गांव का जूता होता था। वे मोती और सोने के जेवर भी पहनते थे।’

मध्यकालीन महिलाओं की वेशभूषा

मध्यकालीन वेशभूषा में महिलाओं की पोशाक साधारण थी। गरीब स्त्रियां साड़ी पहनती थीं जिसके एक छोर से उनका सिर ढका रहता था। गरीब और अमीर दोनों वर्ग की स्त्रियां वक्ष पर अंगिया पहनती थीं। दक्षिण भारत में निम्न-वर्ग की स्त्रियां सिर नहीं ढकती थीं। गरीब उड़िया स्त्रियां कपड़ा प्राप्त न होने के कारण पत्तियों से शरीर को ढकती थीं। मुसलमान स्त्रियां सलवार-कमीज पहनती थीं, ऊपर से बुर्का डालती थीं।

मध्य-कालीन चित्रों में स्त्रियों को ओढ़नी के साथ पीठ पर बंधने वाली चोली पहने हुए चित्रित किया गया है। स्त्रियां घाघरा भी पहनती थीं, जिनमें किनारी एवं कसीदाकारी का काम होता था। बंगाली स्त्रियां कांचुली या चोली पहनती थीं। यह दो प्रकार की होती थी, एक छोटी होती थी, जिससे केवल स्तन ढकते थे, दूसरी लम्बी होती थी और कमर तक जाती थी।

धनी औरतें कश्मीरी ऊन का बना बारीक ‘कावा’ पहनती थीं। कुछ स्त्रियां उत्तम प्रकार के कश्मीरी शॉल ओढ़ती थीं। हिन्दू और मुसलमान महिलाएं सूती, रेशमी या ऊनी दुपट्टे से सिर ढकती थी। उस काल में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां जूतों का प्रयोग अधिक करती थीं।

मध्यकालीन समाज में सौन्दर्य प्रसाधन

मनुष्य में सुंदर एवं आकर्षक दिखने की ललक आदिकाल से है। इसलिए शरीर पर सुगंधित पदार्थों का लेप करने, अंगराग लगाने, उबटन मलने, बाल संवारने, काजल लगाने, वस्त्रों को रंगने, आभूषण पहनने आदि की परम्पराएं भी अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही हैं। मध्य-कालीन भारतीय समाज में भी ये परम्पराएं प्रचलन में थीं।

स्नान करने और कपड़ा धोने के लिए साबुन का उपयोग किया जाता था। शरीर एवं कपड़ों पर लगाने के लिए कई प्रकार की कीमती सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। केशों को काला करने के लिए ‘वस्मा’ और ‘खिजाब’ का प्रयोग होता था। कपड़ों को सफेद बनाए रखने के लिए नील का प्रयोग होता था। साबुन, पाउडर और क्रीम जैसी प्रसाधन सामग्रियों के रूप में ‘घासूल’, त्रिफला, उबटन और चन्दन का प्रयोग होता था।

अबुल फजल ने मुगल काल में स्त्रियों के सोलह शृंगारों का उल्लेख किया है जिनमें स्नान करना, केशों में तेल, लगाना, चोटी गूँथना, रत्नों से वेणी शृंगार करना, मोतियों से सजाकर बिन्दी लगाना, काजल लगाना, हाथ रंगना, पान खाना तथा स्वयं को फूलमालाओं तथा कर्णफूल, हार, करधनी आदि आभूषणों से सजाना आदि सम्मिलित हैं। हिन्दू महिलाएं अपने केश पीछे की ओर बांधती थीं।

धनी परिवारों की महिलाएं अपनी केशों को सिर के ऊपर शंक्वाकार गूँथकर उनमें सोने-चांदी के कांटे लगाती थीं। नकली केश लगाने का उल्लेख भी मिलता है। हिन्दू स्त्रियां सिन्दूर का टीका लगाने तथा उससे मांग भरने को शुभ मानती थीं। आंखों में काजल लगाती थीं तथा पलकों को रंगने के लिए सुरमे का प्रयोग करती थीं। भारतीय स्त्रियां अपने हाथों और पांवों में मेहन्दी लगाती थीं।

मुंह पर लगाने के लिए ‘गलगुना’ और ‘गाजा’ (लाल रंग) का प्रयोग किया जाता था। केश संवारने में लकड़ी, पीतल एवं हाथी दांत की कंघियों का प्रयोग होता था। अकबर ने शाही परिवार की सुगन्धित पदार्थों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए शेख मन्सूर की अध्यक्षता में ‘खुशबूखाना’ स्थापित किया था। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ की माँ ने गुलाब से एक नवीन इत्र का निर्माण किया था जिसका नाम ‘इत्र-ए-जहाँगीरी’ रखा गया। नूरजहाँ स्वयं भी फूलों से इत्र तैयार करती थी और वह विभिन्न डिजाइनों के सुंदर कपड़े डिजाइन करती थी। उन पर चित्र भी बनाती थी।

मध्यकालीन समाज में आभूषण

सभ्यता के विकास के साथ ही स्त्रियों में आभूषणों के प्रति बोध उत्पन्न हुआ। वे अपने शरीर के विभिन्न अंगों को फूल, कौड़ी, छोटे शंख, मिट्टी, ताम्बे एवं सोने के बने मनकों तथा सिक्कों आदि से सजाती थीं। अत्यंत प्राचीन काल से ही हार, ताबीज एवं मनके मिलने लगते हैं।

मुगलकालीन लेखक अबुल फजल ने सैंतीस आभूषणों का उल्लेख किया है। चौक, मांग, कतबिलादर (संभवतः आधुनिक चंद्रमान), सेकर और बिंदुली आदि आभूषण सिर और ललाट पर धारण किए जाते थे। कर्णफूल, पीपल पत्ती, मोर भांवर और बाली कानों में पहने जाते थे। नाक में पहनने के आभूषणों की शुरुआत संभवतः मुसलमानों ने की थी। इनमें ‘नथ’ और ‘बेसर’ अधिक प्रचलित थे।

हिन्दू स्त्रियां सिर के आगे के भाग में सोने-चांदी का टीका या बोर धारण करती थीं। टीका माथे पर झूलता रहता था जबकि बोर माथे के अगले भाग पर स्थिर रहता था। नाक के बाएं भाग में सोने-चांदी की लौंग पहनी जाती थी जिसके आगे के भाग में मोती, हीरा या अन्य कीमती पत्थर जड़ा जाता था। गले में सोने-चांदी के हार पहने जाते थे जिनमें हीरे, जवाहरात एवं मोती आदि से बने नग जड़े जाते थे।

हार एक लड़ी से लेकर कई लड़ी के भी होते थे। धनी स्त्रियों के हार में पांच-सात लड़ियां होती थीं। हाथ के ऊपरी भाग में बाजूबन्द या तोड़े पहने जाते थे और कलाई में कंगन, चूड़ी एवं गजरा पहने जाते थे। कमर में तगड़ी, क्षुद्र खंटिका, कटि मेखला एवं सोने की पेटी धारण की जाती थी। अंगुलियों में अंगूठियां पहनी जाती थीं। पैरों में जेहर, घुंघरू, पायल आदि पहनते थे। पैरों की अंगुलियों में झांक, बिछुआ तथा आंवट पहने जाते थे।

हिन्दू पुरुष कानों में कर्णफूल, गले में साने की चेन तथा अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनते थे। राजपूत पुरुषों में ‘कर्णफूल’ धारण करना अनिवार्य था। मुसलमान पुरुष आभूषणों के विरोधी थे, फिर भी कुछ मुसलमान ‘ताबीज’ और ‘गण्डा’ आदि पहनते थे। सुल्तान और मुगल बादशाह सोने, चांदी, हीरे, माणिक आदि के आभूषण पहनते थे।

सर टॉमस रो ने उल्लेख किया है कि- ‘जहाँगीर अपने जन्मदिन पर कीमती वस्त्रों तथा हीरे-जवाहर के आभूषणों से सजकर प्रजा के समक्ष आता था। उसकी पगड़ी सुंदर पक्षी के पंखों से सजी रहती थी, जिसमें एक ओर काफी बड़े आकार का माणिक, दूसरी ओर बड़े आकार का हीरा तथा बीच में हृदय की आकृति का पन्ना सुशोभित होता था। कन्धों पर मोतियों और हीरों की लड़ियां झूलती थीं तथा गले में मोतियों के तीन जोड़े हार होते थे। बाजुओं में हीरे के बाजूबन्द तथा कलाई में हीरे के तीन कंगन होते थे। हाथ की प्रायः प्रत्येक अंगुली में अंगूठी होती थी।’

बहूमूल्य हीरों की बनी ‘मांग टीका’ की कीमत पांच लाख टका तक हो सकती थी। सोने और चांदी के काम में गुजराती हिन्दू स्वर्णकार अधिक विख्यात थे। एक चतुर कारीगर की फीस 64 दाम प्रति तोला थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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मध्यकालीन आवास

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मध्यकालीन आवास

भारत में मध्यकालीन आवास धनी, मध्यम एवं निर्धन वर्ग के लिए अलग-अलग प्रकार के थे। मध्यकालीन आवास के भीतर की सुख-सुविधा भी गृहस्वामी की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती थी।

मध्य-कालीन समाज में आज की ही तरह अमीरों के घर बड़े, पक्के एवं महंगे होते थे जबकि गरीबों के घर छोटे, कच्चे एवं सस्ते होते थे। घरों का निर्माण जलवायुवीय आवश्यकताओं के आधार पर होता था। देश के गर्म हिस्सों में जालीदार खिड़कियां और झरोखे अधिक बनाए जाते थे ताकि प्रकाश और वायु का आगमन निर्बाध रूप से हो। जबकि ठण्डे क्षेत्रों में खिड़कियां छोटी रखी जाती थीं। जिन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती थी या बर्फ गिरती थी, उन क्षेत्रों में घरों की छतें ढलवां बनाई जाती थीं।

शाही लोगों के मध्यकालीन आवास

शाही आवास प्रायः किसी दुर्ग के भीतर बनाए जाते थे। ये दुर्ग किसी बड़ी नदी या पहाड़ी झरने के निकट होते थे। राजमहलों एवं शाही महलों में मुख्य प्रवेश द्वार के निकट मर्दाना महल एवं भीतर की ओर ‘जनाना’ महल एवं ड्यौढ़ी बनाए जाते थे। शाही महलों में दीवाने आम, दीवाने-ए-खास, शस्त्रागार, भण्डार, खजाना, घुड़साल, नक्कारखाना आदि भी बनाए जाते थे।

राजसी वर्ग के मध्यकालीन आवास में जनाना महलों में छोटे झरोखे होते थे जिनमें से हरम अथवा अन्तःपुर की औरतें संगीत समारोह, पशुओं की लड़ाई एवं दरबार की कार्यवाही आदि देखती थीं। महलों के चारों ओर बाग, बारादरी, फव्वारे और जलाशय बनाए जाते थे। मुगलों द्वारा बनाए गए भवनों में लाल बलुआ पत्थर एवं संगमरमर का प्रयोग अधिक होता था।

धनी लोगों के मध्यकालीन आवास

धनी लोगों के मध्यकालीन आवास भी ‘मर्दाना’ और ‘जनाना’ दो हिस्सों में बनाए जाते थे। अतिथियों के लिए दीवान या बैठक, सोने के लिए शयनकक्ष, भोजन पकाने के लिए रसोई एवं नहाने के लिए स्नानागार बनाए जाते थे। अमीरों के घरों में शौचालय भी होते थे। प्रायः घर के मध्य में एक बड़ा सा आंगन होता था। औरतों की अधिकतर गतिविधियां प्रायः इसी आंगन में होती थीं।

घरों के ऊपर प्रायः समतल छत होती थी, जहां गर्मियों में रात के समय परिवार के लोग खुले में सोते थे। छत पर प्रायः एक कक्ष या छतदार बरामदा होता था जिसे बरसाती कहते थे जहाँ वर्षा के समय सोया जा सकता था। धनी लोगों के घरों के चारों ओर उद्यान लगाया जाता था। प्रायः साग-सब्जियों एवं पूजा के लिए फूलों की वाटिकाएं भी होती थीं। व्यापारियों के घर ईंट और चूने से बहुमंजिले भवन के रूप में बनते थे। मलाबार में धनिकों के घर टीक की लकड़ी से बनाए जाते थे, जो प्रायः दो मंजिले होते थे।

सोने के लिए खाट और पलंग का प्रयोग होता था। धनी लोगों के घरों में लकड़ी की आराम-कुर्सियां होती थीं। रईस लोगों के पलंगों एवं खाटों पर कीमती बिछावन और तकिए होते थे। वे लोग जाड़ों में कम्बल एवं गर्मियों में मच्छरदानी का प्रयोग करते थे। रईसों की बैठकें कालीनों से सजाई जाती थीं। बैठकों में गोलाकार गाव-तकिये या मसनद होते थे।

हाथ से झलने वाले पंखों का भी चलन था। ये पंखे ताड़पत्र, हाथीदांत, जरी, रेशम, मोटे कागज आदि से बनते थे। अमीरों की हवेलियों में दास-दासियां पंखे झलते थे। छत की कड़ियों से बड़े-बड़े पंखों को लटकाया जाता था जिन्हें कक्ष के बाहर बैठे सेवक डोरी से खींचते थे।  बादशाह या अमीरों के यहाँ पंखे के हत्थे सोने या चांदी के होते थे, जिनमें हीरे-जवाहरात जड़े होते थे।

जन-साधारण के आवास: साधारण आय वाले लोगों के घर रईसों के घरों की तुलना में छोटे और साधारण होते थे। यदि घर मुख्य सड़क पर होता था तो नीचे की मंजिल में दुकानों के लिए कुछ स्थान आगे की ओर निकाल दिया जाता था। घरों की छत के साथ छज्जे भी होते थे जिनसे मकानों की दीवारों पर छाया रहती थी तथा धूप एवं वर्षा से बचाव होता था। दीवारों पर सफेदी पोती जाती थी। मध्यम वर्गीय लोगों के घर प्रायः पक्के एवं एक-दो मंजिल के होते थे जबकि निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के घर कच्चे एवं एक-मंजिले होते थे।

निर्धन लोगों के आवास

निर्धन घास-फूस की झोंपड़ियों में रहते थे जिनमें कोई खिड़की या अलग कोठरी नहीं होती थी। एक झोंपड़ी में ही पूरा परिवार रहता था। दो झोंपड़ियों को मिलाकर बड़ा घर तैयार करना विशेष बात समझी जाती थी। झोंपड़ी का एक दरवाजा प्रवेश द्वार के रूप में होता था। कच्चे घरों एवं झौंपड़ियों के आंगन तथा दीवारें मिट्टी और गोबर से लीपे जाते थे।

कश्मीर में अधिकांश मध्यकालीन आवास में लकड़ी से बनते थे। बहुत-से लोग नावों पर भी रहते थे। झौंपड़ियों एवं कच्चे घरों में सोने के लिए प्रायः चटाई का प्रयोग होता था। गरीब लोग बिछावन के लिए केवल दरी या चादर का प्रयोग करते थे। गरीब लोग ताड़ और नारियल के पत्तों से बने पंखे प्रयोग करते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार

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मध्यकालीन समाज का भोजन

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मध्यकालीन समाज का भोजन - दाल-बाटी

मध्यकालीन समाज का भोजन आधुनिक समाज के भोजन से कई अर्थों में अलग था। अधिकांश लोग घर में बने हुए भोजन एवं व्यंजन उपयोग में लाते थे तथा शुद्धता का बहुत ध्यान रखा जाता था।

मध्यकालीन समाज का भोजन हिन्दुओं एवं मुसलमानों में मांस के अतिरिक्त एक जैसा ही था। हिन्दुओं के भोजन में विभिन्न प्रकार के अनाज एवं दाल, दूध, दही, मक्खन तथा तेल आदि से बने कई तरह के व्यंजन होते थे। धनी लोग अपने भोजन में गेहूँ एवं मक्का का आटा एवं दलिया, चावल, बेसन तथा उबली हुई सब्जियों का प्रयोग करते थे। उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा के धनी लोग पूड़ी और लूची का अधिक प्रयोग करते थे।

वे चावल के साथ बादाम, किशमिश आदि मिलाकर पुलाव तथा अन्य व्यंजन तैयार करते थे। सामान्यतः दाल-भात खाया जाता था। अल्पाहार में दही-चिउड़ा का प्रयोग अधिक होता था। मिष्ठान्न में हलवा, लापसी, खीर, मीठे चावल एवं मीठे दलिया का अधिक प्रचलन था। ब्राह्मण, वैश्य, जैन, बौद्ध-भिक्षु एवं अन्य उच्च वर्ग के लोग मांस, मछली, अण्डा, प्याज, लहसुन जैसे तामसिक भोजन को घृणास्पद मानते थे किंतु राजपूत इनका प्रयोग करते थे।

समाज में निम्न समझी जाने वाली जातियों में मध्यकालीन समाज का भोजन थोड़ा अलग था। ये जातियाँ मांस-मछली एवं अण्डे का प्रयोग करती थीं।

दक्षिणी भारत में मध्यकालीन समाज का भोजन मुख्यतः शाकाहारी था। हिन्दुओं में सामिश भोजन का प्रचलन बहुत कम था। विदेशी यात्रियों का कथन है कि- ‘हिन्दू मांसाहार की कम जानकारी रखते थे तथा वैसा भोजन नहीं करते थे जिसमें रक्त हो।’ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य भारत में ऐसी बहुत सी जातियां थीं जो मांसाहार से दूर रहती थीं जबकि पंजाब, बंगाल और कश्मीर में कुछ ब्राह्मण भी मांस-मछली खाते थे।

मुसलमानों के लिए मध्यकालीन समाज का भोजन विविध प्रकार के मांस से युक्त होता था। अर्थात्मु सलमान सामिष भोजन अधिक करते थे। मुसलमानों को मांस तथा उसके बने हुए विविध व्यंजन अधिक प्रिय थे। वे मांस-मछली से ‘दूजा ब्रियानी’ और ‘कीमा पुलाव’ बनाया करते थे। अकबर एवं उसके बाद के कुछ मुगल बादशाहों ने पवित्र दिनों में पशुवध का निषेध कर रखा था। अकबर ने पहले, शुक्रवार को फिर रविवार को मांसाहार करना छोड़़ दिया था। जहाँगीर ने अपने पिता के जन्मदिन पर पशुवध की मनाही कर दी थी तथा वह स्वयं सप्ताह में एक दिन व्रत रखता था और उस दिन केवल गुजराती खिचड़ी खाता था।

तुर्की सुल्तान और मुगल बादशाह काबुल से सूखी मेवा, बदख्शां से तरबूज, समरकंद से अंगूर और सेव, याज्द से अनार, यूरोप से अनानास और काबुल से बेर एवं जामुन आदि मंगवाते थे। सूखे मेवे में नारियल, खजूर, मखाना, कमलगट्टा, अखरोट, पिस्ता आदि होते थे। पीने के लिए नदी एवं कुएं आदि का ताजा जल काम में लाया जाता था।

साधारण लोग तालाबों एवं ताल-तलैयों का जल भी पीते थे। हिन्दू राजा, मुगल बादशाह तथा कुछ रईस लोग गंगाजल को स्वास्थ्यवर्धक और पवित्र मानते थे। अन्य नदियों का जल भी मंगवाया जाता था। मुगल बादशाह बर्फ के शौकीन थे। अमीर एवं उच्च वर्ग के मुसलमान विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों के मांस एवं अण्डों से विभिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार करवाते थे।

साधारण वर्ग के लोगों के लिए मध्यकालीन समाज का भोजन सामान्यतः सुपाच्य अर्थात् जल्दी पचने वाले दलिया, खिचड़ी, भात एवं पुलाव आदि से युक्त होता था। दक्षिण में लोगों का मुख्य भोजन चावल था। गुजराती लोग चावल और दही पसन्द करते थे। कश्मीरियों के भोजन में उबले चावल तथा नमकीन उबली सब्जियों की प्रमुखता थी। उत्तर के लोगों में गेहूँ, ज्वार या बाजरा की चपातियां खाई जाती थीं। बेझर एवं मिस्सी रोटियों का भी प्रचलन था। धनी एवं मध्यमवर्गीय लोग दिन में तीन बार तथा निर्धन लोग दिन में दो बार भोजन करते थे एवं दोपहर में चने तथा भुने हुए अनाज खाते थे।

माद्रक द्रव्य

मध्य-काल में प्रयोग किए जाने वाले मादक द्रव्यों में मुख्यतः शराब, अफीम, भांग और तम्बाकू थे। कुछ लोग गांजा एवं सुल्फा भी पीते थे। पान, चाय और कॉफी को भी माद्रक द्रव्य माना जाता था। जन-सामान्य मादक द्रव्यों के सेवन को दुर्गुण मानता था। अल्लाउद्दीन खलजी आदि तुर्की सुल्तानों और जहाँगीर एवं औरंगजेब आदि कुछ मुगल बादशाहों ने अपने शासन में मद्य-सेवन पर प्रतिबंध लगाए। बाबर मद्यपान करता था किंतु उसने अपनी सेना पर अपने नैतिक प्रभाव में वृद्धि करने के उद्देश्य से मद्यपान त्याग दिया था।

अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ भी मदिरापान करते थे किंतु औरंगजेब मद्यपान नहीं करता था। अधिकांश मुगल अमीर भी मद्यपान करते थे। मुगल काल में देशी शराब की विख्यात किस्मों में ताड़ी, नीरा, महुआ, खेरा, बधचार और जागरे प्रमुख थीं। पुर्तगाल और फारस से उत्तम किस्म की शराब मंगायी जाती थी।

राजपूतों में अफीम का सेवन अधिक प्रचलित था। वे युद्धकाल में अफीम का सेवन अधिक करते थे। कुछ मुगल बादशाह भी अफीम का सेवन करते थे। आरम्भ में भारत में तम्बाखू पैदा नहीं होता था किंतु पुर्तगाली अपने साथ पहली बार तम्बाखू लेकर आए। जन-साधारण में कुछ ही वर्षों में तम्बाखू पीने की लत इतनी अधिक बढ़ गई कि ई.1617 में जहाँगीर ने तम्बाखू के सेवन पर रोक लगाई किंतु जनता पर इस रोक का कोई असर नहीं हुआ।

इटावली यात्री मानुसी ने लिखा है कि अकेले दिल्ली में तम्बाकू पर लगाई गई चुंगी से प्रतिदिन 5,000 रुपये की आय होती थी। जहाँगीर ने ‘भांग’ को अस्वास्थ्यकर मानकर उसके सेवन पर रोक लगाई। सुसंस्कृत परिवारों में चाय और कॉफी को भी नशा माना जाता था। इनका प्रचलन कोरोमंडल के तटवर्ती क्षेत्रों में अधिक था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज

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मध्यकालीन मकबरा

भारत में मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज विदेशी आक्रांताओं के साथ आए थे। जिन हिन्दुओं को बलपूर्वक या लालच से या स्वेच्छा से मुसलमान बना लिया गया वे भी मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज मानने लगे।

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज

मुस्लिम परिवार में पुत्र का जन्म

हालांकि मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज हिन्दुओं से अलग थे किंतु मुसलमानों में भी हिन्दुओं की तरह पुत्र के पैदा होने को अच्छा समझा जाता था। इस अवसर पर घर में जलसा किया जाता था। सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी में इटली से भारत आए मानसी ने अमीर मुस्लिम परिवार में पुत्र जन्म पर मनाये जाने वाले समारोह का वर्णन किया है।

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार पुत्र-जन्म होने पर शिशु के मुँह में शहद टपकाया जाता था और माँ का स्तन दबाकर उसमें से दूध की बूँद शिशु के मुख में डाली जाती थी। शिशु को अजान सुनाई जाती थी। अकबर ने शहजादों के जन्म पर हिन्दुओं की तरह जन्मकुडली भी बनवाई थी। जन्म के दिन ही शिशु का नाम रखा जाता था। यह कार्य प्रायः दादा के द्वारा किया जाता था।

शिशु जन्म के छठे दिन छठी का समारोह मनाया जाता था। बालक के स्नान के बाद उसे किसी फकीर के द्वारा पहने गए पुराने कपड़े की कमीज पहनाई जाती थी। अकबर का पहला कपड़ा सूफी सन्त सैयद अली शिराजी की पोशक से तैयार किया गया था। शिशु जन्म के सातवें दिन अकिकाह किया जाता था। इस अवसर पर लड़के के लिए दो तथा लड़की के लिए एक बकरा काटा जाता था।

उसी दिन लड़के की पहली हजामत होती थी। अबुल फजल ने मुगलों द्वारा अपनाये गए तुर्की रिवाजों का उल्लेख किया है। जब बच्चा चलने लगता था तो शिशु का दादा शिशु को अपनी पगड़ी से धक्का देता था जिससे वह गिर जाए।

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाजसुन्नत

बालक के चार वर्ष चार महीने तथा चार दिन का होने पर बिस्मिल्लाह या मकतब किया जाता था। खतना या सुन्नत का आयोजन भी बहुत धूमधाम से किया जाता था। अकबर ने 12 वर्ष से पहले खतना करने की मनाही कर दी थी, इसके बाद भी यह काम उस बालक की इच्छा पर छोड़ दिया जाता था कि वह अपनी सुन्नत कब करवाए।

मध्यकालीन मुसलमानों में सुन्नत की परम्परा वस्तुतः यहूदियों से आई थी। यहूदी लोग अपनी संतान की सुन्नत किया करते थे। ईसाइयों ने भी यहूदियों की इस परम्परा को अपनाया तथा ईसाइयों में भी सुन्नत होती थी। बाद में जब इस्लाम का उदय हुआ, तब मुसलमानों के लिए भी सुन्नत का प्रावधान किया गया। मध्यकालीन मुसलमान परिवारों में पुत्र तथा पुत्री दोनों की सुन्नत की जाती थी। बाद में स्त्रीसुन्नत की परम्परा अनिवार्य नही रही। मुसलमानों एवं यहूदियों में आज भी सुन्नत होती है जबकि ईसाई लोग इसे प्रायः छोड़ चुके हैं।

मुसलमानों में विवाह समारोह

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार माँ का दूध टालकर अर्थात् सगी बहिन को छोड़कर किसी भी स्त्री से विवाह किया जा सकता था और कोई भी व्यक्ति चार स्त्रियों तक से विवाह कर सकता था। बहुविवाह के कारण बहुत से परिवारों में कलह और अनैकतिकता आ जाती थी। अकबर से पूर्व किसी भी शासक ने बहुविवाह प्रथा पर अंकुश लगाने का प्रयास नहीं किया था।

यद्यपि अकबर के इबादतखाने के उलेमा ‘निकाह’ के द्वारा चार औरतों से तथा ‘मूता’ के अन्तर्गत कितनी भी औरतों से विवाह के समर्थक थे, किंतु अकबर ने आदेश दिया कि साधारण आय वाले व्यक्ति को केवल एक विवाह करना चाहिए, यदि पहली पत्नी निःसंतान हो तो दूसरे विवाह के बारे में सोचना चाहिए। अकबर का मानना था कि एक से अधिक पत्नी रखना व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए घातक है तथा इससे परिवार में व्यवस्था भी नहीं रहती।

मुसलमानों में वैवाहिक सम्बन्ध ‘कव्वाल’ निर्धारित करते थे। इस कार्य के लिए परिवार से 1 दाम से 10 मुहर तक शुल्क वसूल किया जाता था। उच्च राजकीय अधिकारियों एवं दरबारियों के लड़के-लड़कियों के विवाह से पहले शाही अनुमति ली जाती थी। मुगल बादशाहों ने अपनी लड़कियों की शादी नहीं करने का रिवाज बना रखा था किंतु औरंगजेब ने कुछ मुसलमान फकीरों के कहने पर अपनी दो पुत्रियों मेहरून्निसा और जुबेदामुन्निसा का विवाह किया था।

मुसलमानों में विवाह समारोह दुल्हन के घर से ‘सचाक’ (चार मूल्यवान उपहार) और मेहन्दी भेजने से आरम्भ होता था। सुन्दर तश्तरियों में फल, मिठाईयां और रुपए सजाकर भेजे जाते थे। परिवार की महिलाएं दूल्हे के हाथों पर मेहंदी लगाती थीं। विवाह के मजहबी काम काजी पूरे करता था। इसमें दुल्हन की औपचारिक स्वीकारोक्ति प्राप्त की जाती थी तथा दूल्हे के द्वारा इबादत तथा मेहर की घोषण से शादी की रस्म पूरी होती थी। शाही के अंत में कुरान पढ़ी जाती थी।

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाजतलाक

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार तलाक को अच्छा नहीं समझा जाता था फिर भी उनमें तीन तलाक की प्रथा प्रचलित थी जिसमें पति अपनी पत्नी से असंतुष्ट होने पर तीन बार- ‘तलाक’ शब्द का उच्चारण करके उसे छोड़ देता था। इस अवसर पर उसे अपनी छोड़ी गई पत्नी को मेहर की रकम चुकानी होती थी। यदि पति पुनः उसी स्त्री से विवाह करता चाहता था तो उस स्त्री को किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह करके उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के बाद दूसरे पति को तलाक देकर पुनः पहले पति से विवाह किया जा सकता था। इसे हलाला करना कहते थे।

मुसलमानों के मृतक संस्कार

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार मुसलमानों के मृत्यु संस्कार के नियम अलग थे। मरणासन्न व्यक्ति का मुख मक्का की तरफ फेर दिया जाता था और उसके निकट कुरान के यासीन अध्याय का पाठ किया जाता था। उसे मक्का के जमजम कुएं का पानी या शर्बत पिलाया जाता था, जिससे शरीर से प्राण निकलने में सुविधा हो। व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर मृत्यु की घोषणा की जाती थी।

शाही परिवार के किसी सदस्य या बादशाह के प्रिय व्यक्ति के मरने पर वकील अपनी बांह पर नीला रूमाल बांधकर बादशाह के सामने उपस्थित होता था। मृतक के सम्बन्धी अपने कपड़ों को फाड़ते और अपने सिर पर धूल डालते थे। मृतक के शव को फूल मालाओं तथा सुगन्धित द्रव्यों से सुसज्जित कर कब्रिस्तान ले जाया जाता था।

किसी शाही अधिकारी की मृत्यु होने पर उसके प्रतीक चिह्न, ध्वज तथा हाथी-घोड़े आदि भी शव-यात्रा में शामिल होते थे। कुछ मुसलमान भी अपने प्रियजन की मृत्यु पर सिर मुंडवा लेते थे। चालीस दिनों तक शोक रखा जाता था। शोक में स्वादिष्ट भोजन और सुन्दर पोशाक से परहेज रखा जाता था। शोक की समाप्ति चालीसवें दिन होती थी।

इस दिन मृतक के सम्बन्धी एवं मित्र, मृतक की कब्र पर जाते थे और मृतक के नाम पर गरीबों में खाना, कपड़ा और पैसे बांटते थे। मृत्यु की वार्षिकी भी इसी तरह मनाई जाती थी। जहाँगीर के अनुसार वार्षिकी मनाने का रिवाज मुसलमानों ने हिन्दुओं से ग्रहण किया था। फातिहा पढ़े जाने के बाद गरीबों में भोजन बांटा जाता था। इब्नबतूता ने उल्लेख किया है कि मृतक को उसके जीवन काल के समान ही आवश्यक वस्तुएं भेंट दी जाती थी।

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार अमीर लोग अपने पूर्वजों की कब्र पर रोशनी एवं सजावट करते थे और साधारण लोग मृतक की कब्र पर दीपक जलाते थे। अमीरों की कब्रों के प्रवेश द्वार पर हाथी-घोड़े बांधे जाते थे। कुरान पढ़ने के लिए खतमी (वाचक) नियुक्त किए जाते थे। सन्तों की कब्र पर अमीरों द्वारा दरगाह बनवाई जाती थी, जहाँ उसके अनुयाइयों की भीड़ लगती थी। फीरोज तुगलक की तरह औरंगजेब भी कब्रिस्तान में औरतों के प्रवेश का विरोधी था। वह कब्रों पर छत डालने तथा उसकी दीवारों पर सफेदी पोतने को भी पसन्द नहीं करता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य लेख : मध्यकालीन भारतीय समाज

मध्यकालीन हिन्दू रीति रिवाज

मध्यकालीन मुस्लिम रीति-रिवाज

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मध्यकालीन आवास

मध्यकाल में मनोरंजन के साधन

मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार

मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार

मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार

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मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार

मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार और वर्तमान में मनाए जाने वाले हिन्दू त्यौहारों में विशेष अंतर नहीं है किंतु मध्यकालीन हिन्दू समाज में त्यौहारों की संख्या अधिक थी। आज का हिन्दू समाज बहुत से त्यौहारों को मनाना भूल चुका है।

मध्य-कालीन समाज में त्यौहार, उत्सव और मेले

हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग त्यौहार मनाते थे। ये त्यौहार पूरे देश में एक समय पर मनाये जाते थे किन्तु इन्हें मनाने के ढंग में स्थानीय भिन्नताएं रहती थीं। दीपावली पर दीयों की सजावट, अतिशबाजी तथा सोने-चांदी और जवाहरात के प्रदर्शन होते थे।

अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ होली, दीपावली एवं राखी आदि कुछ हिन्दू त्यौहारों को मनाते थे किन्तु औरंगजेब ने अपने दरबार में कई हिन्दू तथा फारसी त्यौहारों का मनाया जाना बन्द कर दिया। हिन्दुओं के त्यौहार पूरे वर्ष में फैले हुए थे तथा लगभग प्रत्येक माह में आते थे, इन्हें विक्रम कलैण्डर की तिथियों के अनुसार मनाया जाता था।

मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार

चैत्र माह के शुक्ल पक्ष से वर्ष का पहला महीना आरम्भ होता था। इसके शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक चैत्रीय नवरात्रियों का आयोजन किया जाता था। चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा, चैत्रीचन्द्र (चेटीचण्ड) मनाया जाता था। इस प्रकार चैत्र शुक्ला प्रतिपदा वर्ष में आने वाला प्रथम मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार था। यह परम्परा आज तक चल रही है। माना जाता है कि आज के दिन ही ईश्वर ने सृष्टि की रचना की थी।

शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन दुर्गा अष्टमी तथा नवमी को भगवान राम का जन्मदिन अर्थात् रामनवमी का त्यौहार मनाया जाता था। चैत्र-पूर्णिमा को हनुमान जयंती अर्थात् हनुमानजी का जन्म दिवस मनाया जाता था।

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को वट सावित्री का पर्व होता था जिसमें पत्नी अपने पति की दीर्घ आयु की कामना के साथ व्रत करती थी। वट सावित्री का पर्व प्रमुख मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार था। इसका महाराष्ट्र में अधिक महत्व था। आषाढ़ माह की पूर्णिमा को गुरु-पूर्णिमा के रूप में मनाते थे। इस दिन भगवान वेदव्यास का जन्मदिन होता है। इस दिन लोग अपने गुरु की पूजा करके उन्हें दक्षिणा आदि देते थे।

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श्रावण माह की पूर्णिमा को रक्षा-बन्धन मनाया जाता था इस दिन बहिनें अपने भाइयों के घर जाकर उनकी कलाई पर राखी बांधती थीं और उनकी रक्षा की कामना करती थीं। भाद्रपद माह की अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन जन्माष्टमी मनाया जाता था। दिन में निराहार अथवा फलाहार के साथ उपवास करते थे एवं अर्द्ध-रात्रि के समय चंद्रमा को अर्घ्य देकर गुड़-धनिये का प्रसाद बांटते थे। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी मनाते थे। आश्विन (कार्तिक) माह के शुक्ल पक्ष के पहले नौ दिन में शारदीय नवरात्रि का आयोजन किया जाता था। दसवें दिन दशहरा अर्थात् विजयादशमी का आयोजन होता था। इस दिन को भगवान राम द्वारा रावण के वध के दिवस के रूप में मनाया जाता था। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस, चतुर्दशी को रूप चौदस एवं अमावस्या को दीपावली मनाई जाती थी। इस दिन को भगवान राम के अयोध्या में लौटने का दिन माना जाता था और उनके स्वागत में प्रत्येक, गांव, नगर मौहल्ले, गलियों एवं घरों में दिए जलाए जाते थे। रात्रि में माँ लक्ष्मी की पूजा होती थी एवं कुछ लोग द्यूतक्रीड़ा करना अच्छा समझते थे। दीपावली के अगले दिन यम द्वितीया होती थी जिसे भाई दूज के रूप में मनाया जाता था। इस दिन भाई अपनी बहिन के घर जाकर उससे टीका करवाता था।

इसी दिन गोवर्द्धन का आयोजन किया जाता था। गोवर्द्धन पूजा में अकबर भी भाग लेता था। बहुत सी गायों को नहला-धुलाकर एवं आभूषणों से सजाकर बादशाह के सामने लाया जाता था। बादशाह उनकी पूजा करता था। जहाँगीर ने भी इस त्यौहार का उल्लेख किया है। कार्तिक मास की पूर्णिमा को भी दिए जलाए जाते थे। इस दिन त्रिपुरी पूर्णिमा का आयोजन किया जाता था।

माघ माह में जब सूर्य का मकर राशि में प्रवेश होता था तब पूरे देश में मकर संक्रान्ति मनाई जाती थी। इस दिन नदियों में स्नान करके निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान दिया जाता था एवं अपने से बड़ों को भेंट दी जाती थी। इस दिन तमिनाडु में पोंगल का आयोजन किया जाता था।

माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसन्त पंचमी के रूप में सरस्वतीजी का जन्म-दिवस मनाया जाता था। इस दिन पीले कपड़े पहनते थे एवं पीले व्यंजन बनाए जाते थे। माघ माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को महाशिवरात्रि का आयोजन होता था। इस दिन पूरे दिन एवं पूरी रात निराहार रहकर भगवान शिव की पूजा की जाती थी।

फाल्गुन माह वर्ष का अंतिम माह होता था। इसमें सबसे बड़ा त्यौहार होली मनाया जाता था। फाल्गुन माह की पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता था। इस दिन हिरणाकश्यप की बहिन होलिका का दहन किया जाता था तथा प्रहलाद की रक्षा की जाती थी। होली की अग्नि में नया धान सेककर खाया जाता था। अगले दिन रंग खेला जाता था जिसे धुलण्डी कहते थे।

इनके अतिरिक्त करवा चौथ, सकट चौथ, शीतला सप्तमी, बड़ अमावस, हरियाली अमावस आदि अनेक छोटे-छोटे त्यौहार मनाए जाते थे। प्रत्येक एकादशी को निराहार रहकर व्रत किया जाता था तथा अगले दिन प्रदोष का व्रत किया जाता था।

कुछ प्रांतों में कुछ विशिष्ट त्यौहार भी मनाए जाते थे। केरल में ओणम, ओडिसा में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, विषु, बिहार में छठ पूजा, पंजाब में लोहड़ी एवं वैशाखी, बंगाल में काली पूजा इसी प्रकार के विशिष्ट त्यौहार थे।

हिन्दुओं के ये समस्त त्यौहार अत्यंत प्राचीन काल से मनाए जाते रहे थे एवं वर्तमान समय में भी ये त्यौहार सामाजिक जन-जीवन में विशिष्ट स्थान रखते हैं। वर्ष भर में आने वाले सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण भी दान-पुण्य एवं स्नान के कारण पर्व की तरह दिखाई देते थे। अबुल फजल ने राम-नवमी और कृष्ण-जन्माष्टमी का उल्लेख महत्त्वपूर्ण हिन्दू त्यौहारों के रूप में किया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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मध्यकालीन हिन्दू त्यौहार

मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार

दादू दयाल

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दादू दयाल

भारत के मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के संतों में दादू दयाल का नाम आदर से लिया जाता है। दादू दयाल का जन्म ई.1544 में गुजरात के अहमदाबाद नगर में हुआ तथा उनका अधिकांश जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ।

संत कबीर एवं नानकदेव की भाँति दादू ने भी अन्धविश्वास, मूर्ति-पूजा, जाति-पाँति, तीर्थयात्रा, व्रत-उपवास आदि का विरोध किया और जनता को सीधा और सच्चा जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया।

दादू दयाल एक अच्छे कवि थे। उन्होंने भजनों के माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्रेम एवं भाईचारे की भावना बढ़ाने पर जोर दिया। उनका पन्थ दादू-पन्थ के नाम से विख्यात हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों- गरीबदास और माधोदास ने उनके उपदेशों को जनसाधारण में प्रचारित किया।

दादू दयाल हिंदी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत और कवि थे। उन्होंने दादूपंथ की स्थापना की जो कि निर्गुणवादी संप्रदाय है। दादू दयाल का नाम पहले बाहुबली था किंतु इनकी पत्नी का निधन हो जाने के बाद इन्होंने संन्यासी जीवन अपना लिया. पत्नी के निधन के बाद वे राजस्थान में जयपुर के निकट के आमेर में आकर रहे।

इनकी भेंट फतेहपुर सीकरी में अकबर से हुई उसके बाद ये सांभर के निकट नरैना नामक गाँव में रहने लगे। नरैना में ही ई.1603 में दादू दयाल का निधन हुआ। उस स्थान को अब श्री दादू पालकांजी भैराणाधाम कहा जाता है।

इनके गुरु का नाम बुड्डन बाबा था। ज्ञानाश्रयी संत एवं कवि होने के कारण इन्हें राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है। दादूदयाल के 52 मुख्य शिष्य थे जिनमें लालदास, गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य थे।

दादू दयाल हिंदी, गुजराती एवं डिंगल आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने शबद और साकी लिखीं। इनकी रचनाएं प्रेमभाव से पूर्ण हैं। इन्होंने हिन्दुओं से जाति-पांति तोड़ने का आग्रह किया एवं हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी आवाज उठाई।

दादूपंथी साधु विवाह नहीं करते और बच्चों को गोद लेकर अपना पंथ चलाते हैं। दादू पंथ के सत्संग को अलख दरीबा कहा जाता है। दादू पंथ की प्रमुख पीठ राजस्थान के नरैना में भैराणाधाम में स्थित है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को मेला लगता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन

भगवद्भक्ति की अवधारणा

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण

मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदाय

भक्तिआन्दोलन की प्रमुख धाराएँ

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

रामानुजाचार्य

माधवाचार्य

निम्बार्काचार्य

संत नामदेव

रामानंदाचार्य

वल्लभाचार्य

सूरदास

संत कबीर

भक्त रैदास

गुरु नानकदेव

मीरा बाई

तुलसीदास

संत तुकाराम

दादू दयाल

तुलसीदास

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संत तुलसीदास

रामानंद की शिष्य मण्डली के प्रमुख सदस्य नरहरि आनंद के शिष्य तुलसीदास, अकबर के समकालीन संत हुए। उनका जन्म ई.1532 के लगभग हुआ। उन्होंने रामचरित मानस, गीतावली, कवितावली, विनय पत्रिका, एवं हनुमान बाहुक आदि ग्रंथों की रचना की।

उन्होंने भारत की जनता को धनुर्धारी दशरथ-नदंन श्रीराम की भक्ति करने की प्रेरणा दी जो धरती, ब्राह्मण, गाय तथा देवताओं की रक्षा के लिए मनुष्य का शरीर धारण करते हैं- ‘गो द्विज धेनु देव हितकारी, कृपासिंधु मानुष तनुधारी।’ तथा जो जनता को सुखी करने वाले, वैदिक धर्म की रक्षा करने वाले एवं दुष्टों का विनाश करने वाले हैं- ‘जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।’

तुलसी ने जनसामान्य को भगवान में विश्वास रखने की प्रेरणा देते हुए कहा- हे परमात्मा, आप ही मेरे स्वामी, गुरु, पिता और माता हैं, आपके चरण-कमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ- ‘मोरे तुम प्रभु गुर पितु माता, जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता।’

तुलसीदास ने जनसामान्य को सद्ग्रंथों का पठन करने का आह्वान किया तथा विभिन्न गुरुओं द्वारा फैलाए जाने वाले पंथों और मार्गों को निंदनीय बताया ताकि हिन्दू-धर्म को एकता के सूत्र में पिरोए रखा जा सके तथा धर्म-भीरु प्रजा को दुष्ट व्यक्तियों द्वारा धर्म के नाम पर उत्पन्न की जा रही भूल-भुलैयाओं में भटकने से रोका जा सके।

तुलसी ने पाखण्डी गुरुओं को चेतावनी देते हुए कहा- ‘हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई।’ अर्थात् जो गुरु, शिष्य के शोक को नहीं हरता अपितु उसका धन हड़पता है, वह घनघोर नर्क में पड़ता है। उन्होंने राजाओं को भी अपनी अच्छी प्रजा अर्थात् सज्जनों के पालन का निर्देशन करते हुए कहा- ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुःखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।’

उन्होंने ‘कोउ नृप होहु हमें का हानि’ की मानसिकता को दास-दासियों की मानसिकता बताया। तुलसी की रामचरित मानस घर-घर पहुँच गई। करोड़ों लोगों को इसकी चौपाइयां कण्ठस्थ हो गईं तथा घर-घर पाठ होने लगे। रामचरित मानस के श्रीराम पर विश्वास हो जाने से सैंकड़ों वर्षों से दबे-कुचले कोटि-कोटि जनसमुदाय के मन में नवीन साहस का संचार हुआ। लोग ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखनकर अपने धर्म पर अडिग बने रहे।

तुलसीदास द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों में समन्वय के प्रयास: दिल्ली सल्तनत (13वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी) एवं मुगलों के शासन काल (16वीं-18वीं शताब्दी ईस्वी) में हिन्दू-धर्म के शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों के बीच कटुता का वातावरण था। यहाँ तक कि सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच भी कटुता व्याप्त थी। सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बी अपने-अपने मत को श्रेष्ठ बताकर दूसरे के मत को बिल्कुल ही नकारते थे।

गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस के माध्यम से इस कटुता को समाप्त करने का सफल प्रयास किया। इस ग्रंथ में तुलसी ने शैवों के आराध्य देव शिव तथा विष्णु के अवतार राम को एक दूसरे का स्वामी, सखा और सेवक घोषित किया।

राम भक्त तुलसी ने ‘सेवक स्वामि सखा सिय-पिय के, हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के’ कहकर शंकर की स्तुति की। इतना ही नहीं तुलसी ने अपने स्वामी राम के मुख से- ‘औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउं कर जोरि, संकर भजन बिना नर भगति न पावई मोर’ कहलवाकर राम-भक्तों को शिव की पूजा करने का मार्ग दिखाया एवं राम-पत्नी सीता के मुख से शिव-पत्नी गौरी की स्तुति करवाकर शाक्तों एवं वैष्णवों को निकट लाने में सफलता प्राप्त की- ‘जय जय गिरिबर राज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।’

तुलसी ने ‘सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा’ कहकर सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच की खाई को पाटने का प्रयास किया। तुलसी ने भक्तिमार्गियों एवं ज्ञानमार्गियों के बीच की दूरी समाप्त करते हुए कहा- ‘भगतहि ज्ञानही नहीं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा।’

तुलसीदास ब्राह्मणों की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे किंतु उनके राम जन-जन के राम थे जिन्होंने शबर जाति की स्त्री के घर बेर खाए, गृध्र जाति के जटायु का उद्धार किया, निषादराज को अपना मित्र बनाया तथा केवट एवं अहिल्या का उद्धार किया। तुलसी के राम ने ताड़का-वध, शूर्पनखा की नासिका कर्तन तथा सिंहका का वध करके यह स्पष्ट संदेश दिया कि स्त्री यदि अच्छे गुणों से युक्त हो तभी वह पूज्य है, दुष्ट स्त्री उसी प्रकार वध के योग्य है जिस प्रकार बुरा पुरुष।

तुलसी के प्रयासों को बाद में आने वाले अन्य संतों ने भी बल दिया जिसके परिणाम स्वरूप शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों तथा इन सम्प्रदायों के भीतर उपस्थित विभिन्न विचारधाराओं के अनुयाइयों के बीच की दूरियां कम हुई और हिन्दू-धर्म, विदेशी धरती से आने वाले धर्मों के समक्ष साहस पूर्वक खड़ा हो गया। ई.1623 (वि.सं.1680) में तुलसी का देहान्त हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन

भगवद्भक्ति की अवधारणा

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण

मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदाय

भक्तिआन्दोलन की प्रमुख धाराएँ

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

रामानुजाचार्य

माधवाचार्य

निम्बार्काचार्य

संत नामदेव

रामानंदाचार्य

वल्लभाचार्य

सूरदास

संत कबीर

भक्त रैदास

गुरु नानकदेव

मीरा बाई

तुलसीदास

संत तुकाराम

दादूदयाल

संत तुकाराम

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संत तुकाराम

संत तुकाराम का जन्म ई.1608 में महाराष्ट्र के देहू गांव में हुआ। वे अपने समय के महान् संत और कवि थे तथा तत्कालीन भारत में चले रहे भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। उन्हें ‘तुकोबा’ भी कहा जाता है। उनके जन्म आदि के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। तुकाराम को चैतन्य नामक साधु ने ‘राम कृष्ण हरि’ मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया। संत तुकाराम ने 17 वर्ष तक जन-साधारण को उपदेश दिए।

अपने जीवन के उत्तरार्ध में उनके द्वारा गाए गए तथा उनके शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध किए गए लगभग 4000 ‘अभंग’ आज भी उपलब्ध हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में संत ज्ञानेश्वर और नामदेव के ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया। इन तीनों संत कवियों के साहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है। स्वभाव से स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे उनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना था।

संत तुकाराम ने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता एवं अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्म-संरक्षण के साथ-साथ पाखंड-खंडन का कार्य किया। उन्होंने अनुभव-शून्य पोथी-पंडित, दुराचारी-धर्मगुरु इत्यादि समाज-कंटकों की अत्यंत तीव्र आलोचना की है। उनके उपदेशों का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु मानव का प्रयत्न होना चाहिए।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन

भगवद्भक्ति की अवधारणा

भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार एवं उसके कारण

मध्य-युगीन भक्ति सम्प्रदाय

भक्तिआन्दोलन की प्रमुख धाराएँ

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

रामानुजाचार्य

माधवाचार्य

निम्बार्काचार्य

संत नामदेव

रामानंदाचार्य

वल्लभाचार्य

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भक्त रैदास

गुरु नानकदेव

मीरा बाई

तुलसीदास

संत तुकाराम

दादूदयाल

भक्त रैदास

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भक्त रैदास

भक्त रैदास का जन्म काशी के एक चमार परिवार में हुआ। वे रामानन्द के बारह प्रमुख शिष्यों में से थे। वे विवाहित थे तथा जूते बनाकर अपनी जीविका चलाते थे।

भक्त रैदास तीर्थयात्रा, जाति-भेद, उपवास आदि के विरोधी थे। हिन्दू तथा मुसलमानों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानते थे। वे निर्गुण भक्ति में विश्वास रखते थे। रैदास की रचनाओं में ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना स्पष्ट झलकती है।

वैष्णव संतों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला श्री हरि चरणों का अनन्य आश्रय ही भक्त रैदास की साधना का प्राण है। उनके प्रभाव के कारण निम्न जातियों के लोगों में भगवद्-भक्ति में आस्था उत्पन्न हुई। रैदास के शिष्यों ने रैदासी सम्प्रदाय प्रारम्भ किया। लोक मान्यता है कि मीरा बाई उन्हें अपना गुरु मानती थी।

भक्त रैदास की भक्ति भावना व्यापक और गहरी है जो उनके पदों, भजनों और साहित्य से प्रकट होती है। रैदास की भक्ति भावना ईश्वर के प्रति प्रेम, सेवा, समर्पण और ईश्वर में अटूट विश्वास से ओतप्रोत है। उनके लिखे भजन जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय हैं।

भक्त रैदास की भक्ति भावना का मूल तत्व ईश्वर-प्रेम है। अर्थात् वे वैष्णव संतों की प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं।  उनकी भक्ति भावना पर समाधि और अद्वैत की मिली-जुली छाया है। उन्होंने सम्पूर्णता की अनुभूति को ध्यान में रखा और एकाग्रता और समाधि की अवस्था में जीवन को आनंदित किया। भक्त रैदास की भक्ति भावना में द्वैत और अद्वैत का सम्मिश्रण है जिसमें ईश्वर दीपक के समान है तो भक्त बाती के समान है। अर्थात् जिस प्रकार बाती दीपक के बिना अपूर्ण है, उसी प्रकार भक्त अपने अराध्य के बिना अपूर्ण है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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गुरु नानकदेव

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गुरु नानकदेव

पंजाब के सन्तों में गुरु नानकदेव का नाम अग्रणी है। उनका जन्म ई.1469 में लाहैर से 50 किलोमीटर दूर तलवण्डी गांव के खत्री परिवार में हुआ। उनके पिता कालू ग्राम के पटवारी थे। नानक विवाहित थे तथा उनके दो पुत्र भी हुए किंतु बाद में साधु-संतों की संगत में रहने लगे। वे निर्गुण-निराकार ईश्वर की पूजा करते थे।

गुरु नानकदेव एकेश्वरवादी थे और ऊँच-नीच, हिन्दू-मुस्लिम तथा जाति-पाँति के भेद को नहीं मानते थे। वे मूर्ति-पूजा तथा तीर्थ-यात्रा के भी घोर विरोधी थे। सिक्ख धर्म के अनुसार मनुष्य को सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिए। नानक का कहना था कि संसार में रहकर तथा सुन्दर गृहस्थ का जीवन व्यतीत करके भी मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। नानक पर सूफी मत का अधिक प्रभाव था तथा वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और उनके झगड़ों को बेइमानों का काम बताते थे-

बन्दे इक्क खुदाय के, हिन्दू मुसलमान।

दावा राम रसूल का,  लड़दे बेईमान।।

नानक ने अपने हिन्दू शिष्यों से कहा कि- ‘मैंने चारों वेद पढ़े, अड़सठ तीर्थों पर स्नान किया, वनों और जंगलों में निवास किया और सातों ऊपरी एवं निचली दुनियाओं का ध्यान किया और इस नतीजे पर पहुँचा कि मनुष्य चार कर्मों द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता है- भगवान से भय, उचित कर्म, ईश्वर तथा उसकी दया में विश्वास और एक गुरु में विश्वास जो उचित मार्गदर्शन कर सके।’

नानक ने अपने मुसलमान शिष्यों से कहा- ‘दया को अपनी मस्जिद मानो, भलाई एवं निष्कपटता को नमाज की दरी मानो, जो कुछ भी उचित एवं न्याय-संगत है, वही तुम्हारी कुरान है। नम्रता को अपनी सुन्नत मानो, शिष्टाचार को रोजा मानो। इससे तुम मुसलमान बन जाओगे।’

उन्होंने पाँचों नमाजों की व्याख्या करते हुए कहा- ‘पहली नमाज सच्चाई, दूसरी इन्साफ, तीसरी दया, चौथी नेक-नियति और पाँचवीं नमाज अल्लाह की बंदगी है।’

नानक ने विभिन्न स्थानों का भ्रमण करके अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया। नानक के शिष्यों ने सिक्ख धर्म की स्थापना की। वे सिक्ख धर्म के पहले गुरु माने जाते हैं। उनकी शिक्षाएँ आदि ग्रन्थ में पाई जाती हैं जो आगे चलकर गुरु ग्रंथ साहब कहलाया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

गुरु नानकदेव पर यह भी देखें-

सिक्ख गुरु एवं उनका इतिहास

गुरु नानक एवं उनका धर्म

सिक्ख धर्म के ग्रंथ एवं मंदिर

बंदा बैरागी और सिक्ख धर्म

हिन्दू धर्म और सिक्ख पंथ

सिक्खों का नरसंहार

सिक्खिस्तान

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