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भारत के विदेशी शासक – यूनानी, शक, पह्लव

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भारत के विदेशी शासक - www.bharatkaitihas.com
भारत के विदेशी शासक

भारत के विदेशी शासक मुख्यतः यूनानी, शक, पह्लव एवं कुषाण वंश के थे। इस अध्याय में यूनानी, शक एवं पह्लवों पर जानकारी दी गई है। कुषाण वंश के बारे में अगले अध्याय में जानकारी उपलब्ध करवाई गई है।

विदेशी आक्रमण

अशोक की मृत्यु के साथ ही भारत की राजनीतिक विशृंखलता पुनः आरम्भ हो गई। उत्तरकालीन मौर्य शासकों में इतनी शक्ति न थी कि वे पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित रख सकते। इसलिये उत्तर-पश्चिम की ओर से यवन, शक, कुषाण आदि विदेशियों के आक्रमण आरम्भ हो गये और उन्होंने भारत में अपनी सत्ता जमा ली।यूनानी शासक

भारत के विदेशी शासक – यूनानी शासक

यूनानियों को यवन कहा जाता है। भारत पर पहला यूनानी आक्रमण 322 ई.पू. में मकदूनिया के शासक सिकन्दर ने किया किंतु उसे अपना विजय अभियान बीच में ही छोड़ देना पड़ा। उसने सैल्यूकस निकेटर को पंजाब का गवर्नर बनाया था।

सैल्यूकस ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण किया किंतु परास्त होकर संधि करने को विवश हुआ। चंद्रगुप्त ने उसे भारत की सीमा से बाहर कर दिया। सैल्यूकस के उत्तराधिकारी अपनी सेनाओं तथा सैनिक परिवारों के साथ हिन्दूकुश पर्वत तथा आक्सस नदी के मध्य स्थित बैक्ट्रिया में स्थायी रूप से निवास करने लगे। यहीं से वे भारत की राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि लगाये रहते थे।

डिमैट्रियस

अशोक की मृत्यु के उपरान्त जब मौर्य-साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ तब बैक्ट्रिया के यूनानियों के आक्रमण भी भारत पर आरम्भ हो गये। इन दिनों बैक्ट्रिया में डिमेट्रियस नामक राजा शासन कर रहा था। उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उसने 190 ई.पू. में भारत पर आक्रमण किया।

काबुल तथा पंजाब पर अधिकार स्थापित करने के बाद वह तेजी से आगे बढ़ता हुआ पाटलिपुत्र तक पहुँच गया। उसकी यह विजय क्षणिक सिद्ध हुई क्योंकि मध्य-प्रदेश में उसके पैर नहीं जम  सके। कंलिग के खारवेल राजा ने उसे न केवल पूर्वी प्रदेशों से वरन् पंजाब से भी मार भगाया।

मगध के राजा पुष्यमित्र शुंग ने भी यवनों का पीछा किया और उन्हें सिन्धु नदी के उस पार खदेड़ दिया परन्तु भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में यूनानियों के पैर जम गये और डिमेट्रियस पूर्वी पंजाब में शाकल (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाकर वहीं से शासन करता रहा।

मिनैण्डर

इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक मिनैण्डर अथवा मेनेन्द्र था। बौद्ध-ग्रन्थों में उसे मिलिन्द कहा गया है। उसका शासन-काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक माना जाता है। उसने भी शाकल अथवा स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मेनेन्द्र बहुत बड़ा विजेता था। उसने शुंग राजाओं के साथ भी लोहा लिया। नागसेन नामक बौद्ध-भिक्षु ने उसे बौद्ध-धर्म में दीक्षित किया। इससे वह बौद्धों का आश्रयदाता बन गया।

उसने बहुत से बौद्ध मठों, स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। वृद्धावस्था में उसने एक बौद्ध-भिक्षु की तरह जीवन व्यतीत किया और अर्हत् का पद प्राप्त किया। मेनेन्द्र के उत्तराधिकारी निर्बल सिद्ध हुए। उन्होंने 50 ई.पू. तक शासन किया। अन्त में शकों ने उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया।

यूक्रेटिडस

162 ई.पू. में बैक्ट्रिया के शासक यूक्रेटिडस ने भारत पर आक्रमण किया और काबुल की घाटी तथा पश्चिमी पंजाब पर अधिकार जमा लिया। तक्षशिला, पुष्कलावती तथा कपिशा भी उसके अधिकार में थे। 155 ई.पू. में यूक्रेटिडस के पुत्र ने उसका वध कर दिया। इन दिनों यूनानियों पर शकों के आक्रमण हो रहे थे।

शकों ने न केवल भारत से यूनानियों को मार भगाया, अपितु बैक्ट्रिया पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार लगभग 40 ई. पू. में यवनों की सत्ता भारत में समाप्त हो गई और भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में शकों की सत्ता स्थापित हो गई।

भारत के विदेशी शासक – शक शासक

शक पर्यटनशील थे। वे मूलतः मध्य-एशिया में सिकंदरिया के उत्तरी प्रदेश में निवास करते थे। उनके समीप उत्तरी-पश्चिमी चीन में यू-ची नाम की एक दूसरी जाति निवास करती थी। यूचियों के पड़ौस में हूँग-नू नामक दूसरी जाति निवास करती थी। 174-176 ई.पू. में हूँग-नू जाति ने यूचियों पर आक्रमण करके उन्हें अपने निवास-स्थान से मार भगाया।

अब यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में निकल पड़े और अपने पड़ौस में बसने वाले शकों पर टूट पड़े तथा उन्हें वहाँ से मार भगाया। इस प्रकार शक लोग अपनी जन्म-भूमि छोड़ने पर विवश हो गये और दक्षिण की ओर चल पडे। ये लोग कई शाखाओं में विभक्त हो गये और विभिन्न देशों में चले गये।

बैक्ट्रिया पर अधिकार

शकों की एक शाखा ने हेलमन्द नदी की घाटी पर अधिकार जमा लिया और उसका नाम शकस्तान अथवा सीस्तान रखा। यहाँ पर भी ये शान्ति से नहीं रह पाये। यूचियों के दबाव के कारण उन्हें आगे बढ़ना पड़ा। अब वे बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के राज्यों पर टूट पड़े। उन्हें पार्थिया के विरुद्ध विशेष सफलता प्राप्त नहीं हो सकी परन्तु पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बैक्ट्रिया पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया।

शकों का भारत में प्रवेश

शकों ने बैक्ट्रिया से भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया। उन्होंने कन्दहार तथा बिलोचिस्तान से होकर बोलन के दर्रे से सिन्ध के निचले प्रदेश में प्रवेश किया और वहीं पर बस गये। शकों के नाम पर इस प्रदेश का नाम शकद्वीप पड़ गया। इसी को शकों ने अपना आधार बनाया और यहीं से वे भारत के विभिन्न भागों मे फैल गये।

जॉन मार्शल के अनुसार भारत में शकों का पहला शासक मावेज था। मावेज के बाद एवेज शकों का शासक बना। एजीलिसेज उसे गद्दी से हटाकर स्वयं शासक बन गया। उसने 12 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद एवेज द्वितीय ने लगभग 43 ई. तक शासन किया।

भारत के विभिन्न भागों पर अधिकार

सिन्ध में अपनी सत्ता स्थापित कर लेने के उपरान्त शकों ने काठियावाड़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और एक ही वर्ष में वे सौराष्ट्र तक पहुंच गये। इसके बाद उन्होंने उज्जयिनी पर आक्रमण किया और उस पर प्रभुत्व जमा लिया। शक आक्रांता उज्जैन से मथुरा की ओर बढ़े और उस पर भी अधिकार कर लिया।

अब शक लोग दो मार्गों से पंजाब की ओर बढ़े। वे मथुरा से उत्तर-पश्चिम दिशा में और सिन्ध से नदियों के मार्ग द्वारा उत्तर-पूर्व दिशा में आगे बढ़े। कालान्तर में शकों ने पंजाब तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के एक बहुत बड़े भाग पर शकों का आधिपत्य स्थापित हो गया। नासिक तथा मथुरा के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि शकों की सत्ता पूर्व में यमुना नदी तक और दक्षिण में गोदावरी नदी तक व्याप्त थी।

क्षत्रप शासन-व्यवस्था

शकों ने भारत में विस्तृत राज्य स्थापित किया। इस पर नियंत्रण रखने के लिये उन्होंने क्षत्रप शासन-व्यवस्था स्थापित की। सामान्यतः शकों के प्रत्येक प्रांत में दो क्षत्रप होते थे- (1) क्षत्रप तथा (2) महाक्षत्रप।

स्पार्टा में द्वैराज्य की प्रथा थी। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इस बात का उल्लेख किया है। प्रारंभ में भारत के क्षत्रप अथवा महाक्षत्रप, स्वतंत्र राजा नहीं थे। वे प्रान्तीय शासक थे तथा केन्द्रीय शासक की अधीनता में शासन करते थे। क्षत्रप शासन-व्यवस्था पंजाब, मथुरा, महाराष्ट्र तथा उज्जैन में स्थापित हुई। शकों की केन्द्रीय शक्ति समाप्त हो जाने के बाद क्षत्रप एवं महाक्षत्रप स्वतंत्र हो गये।

भारत में शक क्षत्रपों के मुख्य केन्द्रों को चार भागों में बांटा जा सकता है-

(1.) उत्तरी भारत के क्षत्रप, (2.) पश्चिमी भारत के शक क्षहरात, (3.) मथुरा के क्षत्रप और (4.) उज्जयिनी के क्षत्रप।

भारत के विदेशी शासक – उज्जयिनी का चष्टन वंश

उज्जयिनी के शक क्षत्रपों में पहला स्वतंत्र शासक चष्टन था। वह बड़ा पराक्रमी सिद्ध हुआ। उसके नाम पर उज्जयिनी का क्षत्रप वंश चष्टन वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

रुद्रदामन (प्रथम)

चष्टन के पुत्र का नाम जयदाम था जो चष्टन के जीवन काल में ही मर गया था। जयदाम के पुत्र का नाम रुद्रदामन था। चष्टन ने अपने पुत्र जयदाम की मृत्यु हो जाने के कारण, अपने पौत्र रुद्रदामन को अपने जीवन काल में ही अपने साथ क्षत्रप बना लिया था। अन्धौ अभिलेख के अनुसार चष्टन ने तथा जयदाम के पुत्र रुद्रदामन ने साथ-साथ शासन किया।

इस अभिलेख में चष्टन तथा रुद्रदामन दोनों के लिये समान रूप से राजा की उपाधि का उपयोग हुआ है। संभवतः दोनों के अधिकार समान थे। भारत के इतिहास में रुद्रदामन को महाक्षत्रप रुद्रदामन (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। वह उज्जयिनी के क्षत्रप शासकों में सर्वाधिक पराक्रमी था।

रुद्रदामन का शासन काल

अन्धौ अभिलेख की तिथि 52 शक संवत् अर्थात् 130 ई. है। इस समय रुद्रदामन, चष्टन के साथ शासन कर रहा था परंतु कतिपय इतिहासकारों के अनुसार रुद्रदामन 140 ई. के बाद सिंहासनारूढ़ हुआ क्योंकि टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्यॉग्राफी में उज्जैन के राजा चष्टन का ही उल्लेख किया है।

हो सकता है कि टॉलेमी ने दोनों राजाओं में से केवल वयोवृद्ध राजा का ही उल्लेख किया हो क्योंकि उसने भूगोल की पुस्तक लिखी न कि इतिहास की। जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन की प्रशस्ति है। इसकी तिथि 72 शक संवत् अर्थात् 150 ई. है। इससे प्रकट होता है कि रुद्रदामन ने कम से कम 150 ई. तक शासन किया।

रुद्रदामन का राज्य विस्तार

अन्धौ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चष्टन और रुद्रदामन सम्मिलित रूप से कच्छ प्रदेश पर शासन कर रहे थे। जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन को स्ववीर्यजित जनपदों वाला, अर्थात् अपने पराक्रम से राज्यों को जीत कर राज्य करने वाला कहा गया है।

जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार आकर (मालवा), अवन्ति (उज्जयिनी), अनूप (नर्मदा के किनारे महिष्मती), नीवृत (पश्चिमी भारत में स्थित एक मण्डल), आनर्त (उत्तरी गुजरात एवं द्वारिका), सुराष्ट्र (सौराष्ट्र अथवा काठियावाड़), श्वभ्र (आधुनिक खेड़), मरु (मारवाड़ अथवा रेगिस्तान का प्रदेश), कच्छ (आधुनिक कच्छ), सिंधु-सौवीर (सिंधु की निचली घाटी), कुकुर (राजपूताना और गुजरात के कुछ भाग), अपरांत (उत्तरी कोंकण) तथा निषाद (पश्चिमी विंध्य एवं सरस्वती की घाटी) रुद्रदामन के राज्य के अंतर्गत थे।

रुद्रदामन के युद्ध अभियान

(1) यौधेयों पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने उन यौधेयों को परास्त किया जिन्हें समस्त क्षत्रियों ने अपना वीर मान लिया था। सिक्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि यौधेयों ने कुषाणों के विरुद्ध एक संघ बना लिया था तथा समस्त क्षत्रियों ने मिलकर यौधेयों को अपना नेता चुना था।

(2) दक्षिणापथ पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को युद्ध में दो बार पराजित किया किंतु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसके प्राण नहीं लिये। इतिहासकार इस शातकर्णि राजा को वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि मानते हैं।

रुद्रदामन का शासन प्रबंध

जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि रुद्रदामन जन्म से लकर राजत्व की प्राप्ति तक राजगुणों और लक्षणों से विभूषित था। इसलिये सभी वर्णों के लोगों ने उसे अपनी रक्षा के लिये अपना स्वामी चुना। इससे उसकी लोकप्रियता का पता चलता है। उसके साम्राज्य में विभिन्न राजपदों, नगरों और निगमों के लोग दस्युओं, सर्पों, हिंसक पशुओं और रोगों से मुक्त थे।

सम्पूर्ण प्रजा उससे अनुरक्त थी। उसने सुदर्शन झील की मरम्मत अपने ही कोष से बिना कोई कर लगाये, प्रजा की समृद्धि के लिये करवाई। इस प्रकार वह प्रजावत्सल जनप्रिय शासक था। उसका कोष सोना, चांदी, वज्र, वैदूर्य, रत्न और बहुमूल्य वस्तुओं से भरा हुआ था जिसे उसने धर्मानुसार बलि, शुल्क तथा भाग के रूप में प्राप्त किया था।

उसने अपने शासन को विभिन्न प्रांतों में बांट रखा था और प्रत्येक प्रांत में अपने अमात्य नियुक्त कर रखे थे। उसकी शासन पद्धति में सचिवों और अमात्यों का महत्वपूर्ण स्थान था। शासन में सहायता देने के लिये मति सचिव (परामर्शदाता), कर्म सचिव (कार्यकारी अधिकारी) आदि नियुक्त थे। रुद्रदामन की शासन पद्धति प्रचलित सप्तांग राज्य-व्यवस्था पर आधारित थी। राज्य की समृद्धि के लिये सिंचाई का उत्तम प्रबंध किया गया था।

रुद्रदामन का व्यक्तित्व

शक क्षत्रपों में रुद्रदामन सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ। उसकी सबसे प्रसिद्ध लिपि जूनागढ़ अभिलेख ही है जिसमें कहा गया है कि वह महान कुरुओं के सम्पर्क में आया तथा उन्होंने ही उसे रुद्रदामन की संज्ञा दी। इसी लेख में उसे शब्दार्थ, संगीत, न्याय आदि विद्याओं में कुशल होने के कारण यशस्वी कहा गया है।

शब्दार्थ से तात्पर्य शब्द शास्त्र अथवा साहित्य से हो सकता है। इसी लेख में उसे विविध शब्द और अलंकारों से युक्त गद्य-पद्य काव्य विधान में प्रवीण कहा गया है। उसकी वाणी संगीत एवं व्याकरण के नियमों से परिबद्ध तथा शुद्ध थी। इससे सिद्ध होता है कि वह गंधर्व विद्या में भी निपुण था।

जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत भाषा में लिखा गया है जिससे हमें उस युग के संस्कृत गद्यकाव्य के स्वरूप का दर्शन होता है। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि वह घोड़े, हाथी और रथ विद्याओं में भी प्रवीण था। असि-चर्म (तलवार-ढाल) के युद्ध में भी वह कुशल था। वह विजेता अवश्य था किंतु उसने निरर्थक रक्तपात न करने की शपथ ली थी। उसने अनेक स्वयंवरों में अपनी शक्ति, शौर्य तथा सौंदर्य से अनेक राजकन्याओं को प्राप्त किया।

रुद्रदामन के उत्तराधिकारी

रुद्रदामन के बाद उसका पुत्र दामघसद (दामोजदश्री) प्रथम, शासक बना। उसका उत्तराधिकारी जीवदामन था। इस वंश का अंतिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था। उसके समय में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसके शासन पर आक्रमण किया तथा उसे मार डाला।

गुप्तकाल में क्षत्रपों का विलोपन

कालान्तर में जब गुप्त साम्राज्य का उत्थान आरम्भ हुआ, तब समस्त क्षत्रप गुप्त साम्राज्य में समाविष्ट हो गये। इस काल में शकों ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को स्वीकार कर लिया और वे भारतीयों में इतना घुल-मिल गये कि वे अपने अस्तित्त्व को खो बैठे। आज उनका कहीं पर नाम-निशान नहीं मिलता।

भारत के विदेशी शासक – पह्लव (पार्थियन) वंश

बैक्ट्रिया के पश्चिम में पार्थिया नामक प्रदेश स्थित था। यह प्रदेश सिकंदर द्वारा स्थापित साम्राज्य के सीरिया प्रांत के अंतर्गत आता था। पार्थिया के लोग पार्थियन अथवा पह्लव कहलाते थे। जिस समय शकों ने भारत में सत्ता स्थापित की उसी समय पह्लवों ने भी भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर आक्रमण करके उसके कुछ भाग में अपनी सत्ता स्थापित की।

माना जाता है कि पार्थिया का प्रथम स्वतंत्र शासक मिथेडेटस था। उसी के नेतृत्व में भारत पर पहला पार्थियन आक्रमण हुआ। पह्लवों के भारतीय राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक वानेजीज था। वह तक्षशिला के शक शासक मावेज का समकालीन था। उसका सीस्तान एवं दक्षिणी अफगानिस्तान पर भी शासन था।

उसने महाराज रजरस महतस (महाराजाधिराज) की उपाधि धारण की। वानेजीज के बाद स्पैलिरिसिस राजा हुआ। पह्लवों में गाण्डोफर्नीज सबसे प्रतापी शासक हुआ। उसने भारत में अपनी शक्ति का खूब विस्तार किया। उसका राज्य पूर्वी फारस से लेकर भारत में पूर्वी पंजाब तक था। उसकी राजधानी गांधार थी।

वह लगभग 19 ई. में सिंहासन पर बैठा तथा लम्बे समय तक शासन करता रहा। गाण्डोफार्नीज के बाद पह्लवों का राज्य दो भागों में विभक्त हो गया जिससे राज्य के विभिन्न भागों में नियुक्त गवर्नर स्वतंत्र होते चले गये। इसी समय कुषाणों के भारत पर आक्रमण आरम्भ हुए जिनके कारण पह्लवों का राज्य समाप्त हो गया।

पह्लव राजाओं के विषय में बहुत जानकारी मिलती है। जो कुछ जानकारी मिली है, वह भी विवाद-ग्रस्त है। इनका इतिहास शकों के साथ इतना घुल-मिल गया है कि उसे अलग करना कठिन है। शकों की भांति पह्लव भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपनाकर भारतीयों में घुल-मिल गये। पश्चिमोत्तर प्रदेश में पह्लवों, शकों तथा यूनानियों की राज-सत्ता को समाप्त करने का श्रेय एक नई जाति को प्राप्त हुआ जो ‘कुषाण’ के नाम प्रसिद्ध है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत में विदेशी शासक

17. भारत के विदेशी शासक – यूनानी, शक, पह्लव

18. कुषाण वंश का इतिहास

गुप्त वंश

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गुप्त वंश

भारत में गुप्त वंश के शासकों की एक दीर्घ शृंखला ने 320 ईण् से 495 ईण् तक शासन किया। गुप्त वंश के शासन काल को भारतीय पुनर्जागरण का युग तथा भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग भी कहा जाता है।

मौर्य शासन के नष्ट हो जाने के बाद भारत की राजनीतिक एकता भंग हो गई थी, उस राजनीतिक एकता को इस युग में पुनर्जीवित किया गया। इस वंश के समस्त शासकों के नाम के अंत में प्रत्यय की भांति ‘गुप्त’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो कि उन शासकों की जाति अथवा वंश का सूचक है। इसलिये इस वंश को गुप्त-वंश कहा गया है।

गुप्त वंश का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत

साहित्यिक स्रोत

पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

नाटक: विशाखदत्त रचित देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस, शूद्रक रचित मृच्छकटिकम्, कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, कुमारसम्भवम्, रघुवंशम् अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि।

पुरातात्विक स्रोत

स्तम्भलेख, गुहालेख तथा प्रशस्तियां: समुद्रगुप्त के प्रयाग एवं एरण अभिलेख, चंद्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ-लेख, उदयगिरि गुहा अभिलेख। कुमारगुप्त प्रथम का मंदसौर लेख, गढ़वा शिलालेख, बिलसढ़ स्तम्भलेख, स्कन्दगुप्त की जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भ लेख।

ताम्रपत्र: भूमि दान करने सम्बन्धी ताम्रपत्र।

मुद्राएं: गुप्त शासकों की स्वर्ण एवं रजत मुद्राएं।

मंदिर एवं मूर्तियां: उदयगिरि, भूमरा, नचना, कुठार, देवगढ़ एवं तिगवा के मंदिर, सारनाथ बुद्ध मूर्ति, मथुरा की जैन मूर्तियां।

शैलचित्र: अजन्ता एवं बाघ के शैलचित्र।

गुप्त वंश का उद्भव

गुप्त वंश के शासकों का मूल स्थान

गुप्त वंश के मूल स्थान के बारे में इतिहासकारों में एक राय नहीं है। कुछ इतिहासकार, बाद के काल के चीनी लेखक इत्सिंग के वर्णन के आधार पर गुप्तों का मूल स्थान मगध को मानते हैं। कतिपय इतिहासकार प्रयाग-साकेत-अवध के क्षेत्र को गुप्तों का मूल स्थान मानते हैं। प्रयाग से समुद्रगुप्त की प्रशस्ति का प्राप्त होना इसका प्रमाण माना जाता है किंतु प्रयाग प्रशस्ति सहित किसी भी लेख में गुप्त शासकों एवं उनके अधिकारियों ने गुप्तों के मूल स्थान का उल्लेख नहीं किया है।

गुप्त शासकों की जाति

गुप्त-सम्राटों की जाति पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है क्योंकि गुप्त उनकी जाति न होकर उनकी उपाधि प्रतीत होती है। वैदिक काल में ‘राजन्य’ के कोष की रक्षा का कार्य करने वाला मंत्री ‘गोप्ता’ कहलाता था। संभवतः गोप्ता ही आगे चलकर गुप्त कहलाये।

‘विष्णुपुराण’ में ब्राह्मणों की उपाधि शर्मा, क्षत्रियों की उपाधि वर्मा, वैश्यों की उपाधि गुप्त और शूद्रों की उपाधि दास बताई गई है। उपाधि के आधार पर गुप्त सम्राट, वैश्य ठहरते है। यह भारतीय परम्परा के अनुकूल भी लगता है।

गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘गुप्तों की उत्पत्ति रहस्य से घिरी हुई है, परन्तु नामों के अन्त में गुप्त लगे रहने के कारण उन्हें वैश्य वर्ण अथवा वैश्य जाति का कहना उचित ही होगा।’

आर्य वर्ण व्यवस्था के अनुसार राज-पद क्षत्रियों को ग्रहण करना चाहिए परन्तु अवसर आने पर ब्राह्मणों ने, क्षत्रिय शासकों को पदच्युत करके शासक बनना स्वीकार किया। इसी कारण शुंग, कण्व तथा सातवाहन आदि राज-वंशों की स्थापना हुई। सम्भव है कि ब्राह्मणों का अनुसरण करके वैश्यों ने भी अवसर मिलने पर क्षात्रधर्म स्वीकार कर लिया हो और राज्य की स्थापना करके शासन करने लगे हों। गुप्तों से पूर्व भी इसके उदाहरण मिलते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र प्रांत का प्रांतपति पुष्यगुप्त वैश्य था। इसलिये पर्याप्त सम्भव है कि गुप्त-वंश के शासक वैश्य रहे हों।

गुप्त-वंश के प्रारम्भिक शासक श्रीगुप्त तथा घटोत्कच, किसी अन्य स्वतंत्र राजा के अधीन सामंत थे। इसलिये संभव है कि पुष्यगुप्त कि भांति श्रीगुप्त भी वैश्य रहा हो और किसी क्षत्रिय राजा, सम्भवतः नाग-वंश के सामंत के रूप में शासन करता रहा हो। कालान्तर में इस वंश में उत्पन्न चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करके गुप्त राजवंश की स्थापना की।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुप्त-वंश को वैश्य-वंश स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि इस वंश के राजाओं के वैवाहिक सम्बन्ध क्षत्रिय राजवंशों के साथ थे। चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने लिच्छिव वंश की और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने नाग-वंश की राजकुमारियों से विवाह किये। इतिहासकारों की यह आपत्ति इसलिये मान्य नहीं हो सकती कि राजवंशीय विवाह किसी जाति से बंधे हुए नहीं रहते। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सैल्यूकस की कन्या से विवाह किया था, जो यूनानी था।

डॉ. जायसवाल, डॉ. बी. बी. गोखले आदि इतिहासकारों ने गुप्तों को शूद्र प्रमाणित करने का प्रयास किया है। प्रो. हेमचंद्र रायचौधरी उन्हें ब्राह्मण बताते हैं। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि विद्वानों ने गुप्तों को क्षत्रिय बताया है।

निष्कर्ष

गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जब तक कोई सुदृढ़़ प्रमाण नहीं मिल जाता, तब तक यह कहना कठिन है कि वे किस वर्ण अथवा जाति से थे। तब तक उन्हें वैष्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

गुप्त-काल का महत्त्व

गुप्त-साम्राज्य की स्थापना से भारत के प्राचीन इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है, जिसका राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है।

(1) ऐतिहासिक महत्त्व

गुप्त-वंश का शासन काल हमें ऐतिहासिक तथ्यों के अंधकार से प्रकाश में लाता है। कुषाण-साम्राजय के विध्वंस तथा गुप्त-साम्राज्य के उत्थान के मध्य का काल इतिहास की दृष्टि से अंधकारमय माना जाता है परन्तु गुप्त-काल के आरम्भ होते ही यह अन्धकार समाप्त हो जाता है और क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त होने लगता है। तिथि-सम्बन्धी संदेह भी समाप्त हो जाते हैं। स्मिथ ने लिखा है- ‘चौथी शताब्दी में प्रकाश का पुनः आगमन होता है, अन्धकार का पर्दा हट जाता है और भारतीय इतिहास में फिर एकता तथा दिलचस्पी पैदा हो जाती है।’

(2) राजनीतिक महत्त्व

अशोक की मृत्यु के बाद मौर्यों का विशाल साम्राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया और भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई जिसके परिणाम स्वरूप देश के विभिन्न भागों में देशी-विदेशी राज्यों की स्थापना हो गई, जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में अनेक गणराज्य शक्तिशाली बन गये।

इस काल में मालव, यौधेय, अर्जुनायन, मद्र तथा शिवि आदि गणराज्यों ने विदेशी सत्ता पर आघात करके अपनी प्रभुसत्ता का विस्तार किया। विदिशा और मथुरा में नागों की शक्ति का विस्तार हुआ। दक्षिण में वाकाटक शक्तिशाली बन गये। इन्हीं परिस्थितियों में गुप्तों का भी उदय हो रहा था।

गुप्त सम्राटों ने देशव्यापी दिग्विजय के माध्यम से इन गणराज्यों एवं छोटे-छोटे राज्यों को अधीन करके, भारत की विच्छन्नता को समाप्त किया और अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर देश को राजनीतिक एकता प्रदान की।

(3) आर्थिक महत्त्व

गुप्त-सम्राटों ने सम्पूर्ण देश में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर उसमें शांति तथा व्यवस्था स्थापित की और लोक-कल्याण के कार्य करके प्रजा को समृद्ध बनाया। गुप्तकाल, भारत की अभूतपूर्व समृद्धि का युग था। इस काल में विदेशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए।

(4) धार्मिक महत्त्व

इस काल में ब्राह्मण-धर्म का चूड़ान्त विकास हुआ। गुप्त-सम्राटों ने ब्राह्मण-धर्म को राजधर्म बना कर संरक्षण प्रदान किया और अश्वमेध यज्ञ करने लगे। इससे ब्राह्मण-धर्म को बड़ा प्रोत्साहन मिला और उसकी द्रुतगति से उन्नति होने लगी। सौभाग्य से गुप्त-साम्राटों में उच्चकोटि की धर्मिक सहिष्णुता थी और वे समस्त धर्मों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करते थे।

(5) सांस्कृतिक महत्त्व

ब्राह्मण-धर्म का संस्कृत भाषा के साथ अटूट सम्बन्ध है। चूंकि गुप्तकाल में ब्राह्मण-धर्म की उन्नति हुई इसलिये संस्कृत भाषा की भी उन्नत्ति हो गई। वास्तव में गुप्तकाल संस्कृत भाषा के चरमोत्कर्ष का काल है। इस काल में साहित्य तथा कला की बड़ी उन्नति हुई और भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में बड़ा प्रचार हुआ। इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक उन्नयन के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।

उपरोक्त पाठ्य सामग्री के आधार पर 20 महत्वपूर्ण प्रश्न एवं उनके उत्तर तैयार किए गए हैं जिन्हें आप इसी वैबसाइट पर गुप्त वंश पर 20 महत्वपूर्ण प्रश्न अध्याय में पढ़ सकते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

प्रारंभिक गुप्त शासक

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प्रारंभिक गुप्त शासक - www.bharatkaitihas.com
प्रारंभिक गुप्त शासक

प्रारंभिक गुप्त शासक अब भी इतिहास के कुहासे में हैं, उनके बारे में स्पष्ट एवं विस्तृत जानकारी अब तक नहीं जुटाई जा सकी है। फिर भी अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर श्रीगुप्त, घटोत्कच एवं चंद्रगुप्त (प्रथम) को प्रारम्भिक गुप्त शासक माना जाता है।

प्रारंभिक गुप्त शासक

श्रीगुप्त

श्रीगुप्त का काल 275 ई. से 300 ई. माना जाता है। उसी को गुप्त वंश का संस्थापक भी माना जाता है। अभिलेखों में उसे महाराज कहकर सम्बोधित किया गया है। उस काल में महाराज उपाधि का प्रयोग छोटे क्षेत्र के स्वतंत्र शासक के लिये किया जाता था। इसलिये संभव है कि श्रीगुप्त एक सीमित क्षेत्र का स्वतंत्र राजा था।

यह क्षेत्र प्रयाग-साकेत होना संभावित है जिसकी राजधानी अयोध्या रही होगी। चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है कि श्रीगुप्त ने नालंदा से 40 योजन (240 मील) दूर पूर्व की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने महाराज की पदवी धारण की। इत्सिंग लिखता है कि 500 वर्ष पूर्व, महाराज श्रीगुप्त ने चीनियों के ठहरने के लिये एक मंदिर बनवाया तथा 240 गांव दान में दिये।

घटोत्कच

श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी घटोत्कच था। उसने संभवतः 300 ई. से 319 ई. अथवा 320 ई. तक शासन किया। उसके शासन काल की किसी भी घटना की जानकारी नहीं मिलती। उसने भी महाराज की उपाधि धारण की। अनेक अभिलेखों में इसे गुप्तवंश का संस्थापक कहा गया है।

सर्वमान्य मत तथा प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि घटोत्कच, गुप्तवंश का दूसरा राजा था। घटोत्कच के नाम की एक स्वर्ण मुद्रा उपलब्ध हुई है जिसे प्रो.एलन ने किसी बाद के राजा का सिक्का माना है। प्रोफेसर गोयल के अनुसार गुप्त-लिच्छवी सम्बन्घ इसी काल में आरम्भ हुए।

चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)

अनेक इतिहासकार चंद्रगुप्त (प्रथम) को गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक मानते हैं। सिंहासन पर बैठते ही उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। जिन दिनों चन्द्रगुप्त का उत्कर्ष आरम्भ हुआ, उन दिनों मगध में कुषाणों का शासन था। मगध की जनता इस विदेशी शासन को विनष्ट कर देने के लिए आतुर थी।

चन्द्रगुप्त ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और मगध की जनता की सहायता से विदेशी शासन का अंत कर मगध का स्वतंत्र सम्राट बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने द्वितीय मगध-साम्राज्य की स्थापना की। यह घटना 320 ई. में घटी।

अभिलेखीय साक्ष्य

अब तक चंद्रगुप्त (प्रथम) के काल का कोई व्यक्तिगत लेख या प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हो सकी है। इस कारण उसके काल की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के बारे में अत्यंत अल्प जानकारी उपलब्ध होती है।

कुमार देवी से विवाह

अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्रतापी लिच्छवी-राज्य की राजकुमारी, कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिया। उसे गुप्त लेखों में महादेवी कहा गया है जो उसके पटरानी होने का प्रमाण है। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर ‘लिच्छवयः’ शब्द तथा कुमारदेवी की आकृति अंकित है। इस विवाह की पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशसित से भी होती है। लिच्छवी-राज्य से मैत्री हो जाने से गुप्त सम्राटों को अपने राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। कालान्तर में लिच्छवि राज्य भी मगध-राज्य में सम्मिलित हो गया जिससे मगध-राज्य की प्रतिष्ठा तथा शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई।

नये सम्वत् का प्रारंभ

चन्द्रगुप्त ने एक नया सम्वत् चलाया जिसका प्रारम्भ 26 जनवरी 319-20 ई. अर्थात् उसके राज्याभिषेक के दिन से हुआ था। इसे गुप्त संवत के नाम से जाना जाता है।

उत्तराधिकारी की घोषणा

चन्द्रगुत (प्रथम) ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। उसके इस चयन की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की प्रारंभिक स्थिति चाहे जैसी रही हो, वह गुप्त-सम्राटों में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुआ और उसने अपनी सफलताओं से अपने पिता के चयन के औचित्य को प्रमाणित कर दिया। युद्ध तथा आक्रमण के आदर्शों के कारण चन्द्रगुप्त, अशोक के बिल्कुल विपरीत था।’

राज्य विस्तार

पुराणों में आये विवरणों एवं प्रयाग प्रशस्ति से चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है। उसका राज्य पश्चिम में प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग तक विस्तृत था।

इस अध्ययन सामग्री से सम्बन्धित बहुविकल्पीय प्रश्न एवं उनके उत्तर इसी वैबसाइट पर उपलब्ध प्रारंभिक गुप्त शासकों पर बहुविकल्पीय प्रश्न नामक अध्याय में पढ़े जा सकते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

काच

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काच

कुछ स्वर्णमुद्रओं पर काच नामक राजा का नाम लिखा हुआ मिलता है। इन मुद्राओं के सामने की ओर एक राजा अंकित है जो अपने बाएँ हाथ में चक्रध्वज लिए खड़ा है। राजा के बाएँ हाथ के नीचे ब्राह्मी लिपि में एक वर्तुलाकार लेख उत्कीर्ण है- ‘ काचो गामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमैः ’ अर्थात् – पृथ्वी-विजय के उपरांत काच पुण्यकर्मों द्वारा स्वर्ग-विजय करता है।

इन मृद्राओं के पृष्ठ भाग में देवी लक्ष्मी की आकृति बनी रहती है तथा ब्राह्मी लिपि में ‘ सर्व्वराजोच्छेत्ता ’ अर्थात् समस्त राजाओं को नष्ट करने वाला उत्कीर्ण रहता है।

चूंकि ये मुद्राएं स्वर्ण निर्मित हैं, इनमें ब्राह्मी लिपि का प्रयोग हुआ है तथा गुप्तों की कुलदेवी लक्ष्मी की आकृति बनी हुई है तथा पुण्य कर्मों के द्वारा स्वर्ग को जीतने की बात कही गई है, इसलिए ये मुद्राएं गुप्त कालीन राजा की ही सिद्ध होती हैं जिसका नाम काच गुप्त था। इस राजा का इतिहास स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं होता।

चूंकि ये सिक्के गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के सिक्कों से बहुत मिलते हैं तथा समुद्रगुप्त ने भी सर्व्वराजोच्छेत्ता विरुद धारण किया था, इसलिए कुछ इतिहासकारों ने समुद्रगुप्त का ही दूसरा नाम काच माना है। इन इतिहासकारों का मत स्वीकार्य नहीं है। समुद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका नाम समुद्र मिलता है न कि काच। समुद्रगुप्त के किसी भी सिक्के पर वह चक्रध्वज के साथ अंकित नहीं किया गया है। यह चिह्न काच के अतिरिक्त किसी भी अन्य गुप्त शासक की मुद्राओं पर नहीं मिलता।

रामगुप्त नामक शासक की कुछ ताम्रमुद्राएं प्राप्त हुई हैं तथा गुप्त कालीन साहित्य में भी रामगुप्त का उल्लेख मिलता है। इस आधार पर कुछ इतिहासकार रामगुप्त को काच समझते हैं। यह मत भी स्वीकार्य नहीं है। काच तथा रामगुप्त की मुद्राओं में पर्याप्त अंतर है।

प्राप्त तथ्यों के आधार पर अनुमान किया जाता है कि गुप्त शासक चंद्रगुप्त (प्रथम) की मृत्यु के बाद काच नामक किसी शक्तिशाली राजा ने शासन किया। निश्चित रूप से वह गुप्त वंश का राजा था। उसी ने काच नामोल्लेख वाली स्वर्ण मुद्राएं जारी कीं जिन पर गुप्तों की कुल देव लक्ष्मी की आकृति उत्कीर्ण है।

इस मत को पूरी तरह स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त के ही शासन करने के प्रमाण प्राप्त होते हैं। इसलिए काच का कालक्रम अंतिम रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वह चंद्रगुप्त प्रथम के बाद ही हुआ था। किंतु इतना निश्चित है कि गुप्त राजाओं में काच नामक एक प्रतापी राजा हुआ था जिसने कुछ बड़ी विजयें प्राप्त की थीं और वह वैष्णव धर्म का उद्धारक भी था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

समुद्रगुप्त

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समुद्रगुप्त
समुद्रगुप्त

गुप्त सम्राटों में समुद्रगुप्त का बड़ा नाम है। उसने ई.335 से 375 तक भारत के बड़े भूभाग को अपने अधीन किया तथा उस पर सफलता पूर्वक शासन किया।

चन्द्रगुप्त (प्रथम) के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चन्द्रगुप्त (प्रथम) की माता लिच्छवियों की राजकुमारी कुमारदेवी थी। यद्यपि समुद्रगुप्त के और भी कई भाई थे परन्तु उसके अलौकिक गुणों तथा योग्यता से प्रसन्न होकर चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने अपने जीवन काल में ही उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इसलिये समुद्रगुप्त निर्विरोध अपने पिता के साम्राज्य का स्वामी बन गया और उसने उसका विस्तार करना आरम्भ कर दिया।

समुद्रगुप्त के अभिलेखीय साक्ष्य

समुद्रगुप्त की उपलब्धियों की जानकारी उसके मंत्री हरिषेण द्वारा प्रयाग में उत्कीर्ण करवाई गई प्रयाग प्रशस्ति से मिलती है। यह प्रशस्ति, प्रयाग के किले के भीतर अशोक के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त का ऐरण अभिलेख भी महत्वपूर्ण साक्ष्य है। समुद्रगुप्त की मुद्रायें भी उसके शासन काल की तिथियों की सूचना देती हैं। उनसे अभिलेखीय प्रमाणों की पुष्टि होती है। गया एवं नालंदा के ताम्रपत्रों से भी उसके शासन काल की सूचनाएं मिलती हैं।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय

समुद्रगुप्त महत्त्वाकांक्षी शासक था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण किया। प्रयाग प्रशस्ति का लेखक हरिषेण सौ युद्धों में उसके रणकौशल का उल्लेख करता है जिसके कारण उसके सारे शरीर पर घावों के निशान बन गये। इस प्रशस्ति में उसकी विजयों की लम्बी सूची मिलती है।

समुद्रगुप्त की विजयों को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय, (2) पाटलिपुत्र पर विजय, (3)  मध्य भारत के आटविक राज्यों पर विजय, (4) दक्षिण भारत पर विजय, (5) सीमान्त-प्रदेश पर विजय, (6) गण राज्यों पर विजय तथा (7) विदेशी राज्यों का विलय।

(1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय

समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तरी भारत अथवा अर्यावर्त के राज्यों पर आक्रमण किया। उसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन, नन्दिन, अच्युत और बलवर्मा नामक नौ राजाओं के साथ युद्ध किया और उन्हें परास्त कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

इनमें से नागदत्त, गणपति नाग, नागसेन और नन्दिन नागवंशी राजा जान पड़ते हैं जिनके प्रसिद्ध केन्द्र मथुरा तथा पद्मावती थे। अच्युत नामक राजा अहिच्छत्र (उत्तर प्रदेश के बरेली जिले) पर राज्य करता था। अन्य राजाओं की सही पहचान नहीं हो सकी है। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाकर उत्तरी भारत में अपनी स्थिति सुदढ़ कर ली।

(2) पाटलिपुत्र विजय

नाग राजाओं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने कोटकुलज नामक राजा को परास्त करके पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटलिपुत्र विजय गुप्तों के लिये एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।

(2) विध्यांचल क्षेत्र के आटविक राज्यों पर विजय

उत्तर भारत के बाद, समुद्रगुप्त ने मध्य भारत के स्वतंत्र राज्यों पर अभियान किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस काल में जबलपुर तथा नागपुर के आस-पास 18 अटवी राज्य थे। अटवी जंगल को कहते हैं। चंूकि यह प्रदेश पर्वतों तथा जंगलों से भरा पड़ा था इसलिये इन राज्यों को अटवी राज्य कहते थे। प्रयाग के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के राजाओं को अपना परिचारक अथवा सेवक बनाया। इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर लेने से समुद्रगुप्त के लिये दक्षिण-विजय का मार्ग खुल गया।

(3) दक्षिणापथ पर विजय

अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया अपितु उनके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उन्हें विजित राजाओं को लौटा दिया। इन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे अपार धनराशि कर तथा भेंट के रूप में दी।

दक्षिण के इन राजाओं को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं करके समुद्रगुप्त ने दूरदर्शिता का परिचय दिया। उस युग में, गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था। इसलिये उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत पर नियंत्रण रखना असम्भव था। यदि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया होता तो दक्षिण भारत अशान्ति तथा उपद्रव का स्थान बन जाता और इसका कुप्रभाव उत्तरी साम्राज्य पर भी पड़ता।

(4) सीमान्त प्रदेशों पर विजय

अपनी दिग्विजय के चतुर्थ चरण में  समुद्रगुप्त ने सीमांत प्रदेशों- समतट (बांगला देश), डवाक (आसाम का नवगांव), कामरूप (आसाम) तथा कर्तृपुर (गढ़वाल में कुमायूं अथवा पंजाब में जालंधर का क्षेत्र) पर विजय प्राप्त की। सीमांत प्रदेश के कुछ राजाओं ने युद्ध में पराजित होकर और कुछ ने बिना युद्ध किये ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ये राज्य समुद्रगुप्त को कर देने लगे और उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगे।

(5) गणराज्यों पर विजय

गुप्त-साम्राज्य के पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में कुछ ऐसे राज्य थे जिनमें अर्द्ध प्रजातंत्रात्मक अथवा गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी। इनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक, खार्परिक आदि प्रमुख थे। ये राज्य गणराज्य कहलाते थे। इन राज्यों ने समुद्रगुप्त के प्रताप से आतंकित होकर, बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार समुद्रगुप्त की सत्ता सम्पूर्ण भारत में व्याप्त हो गई और वह भारत का एकछत्र सम्राट बन गया।

(6) विदेशी राज्यों का विलय

प्रयाग प्रशस्ति की तेबीसवीं एवं चौबीसवीं पंक्ति में उल्लिखित विदेशी शक्तियों के नामों से ज्ञात होता है कि अनेक विदेशी राज्यों ने समुद्रगुप्त की सेवा में उपहार एवं कन्यायें प्रस्तुत करके उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इन शक्तियों ने समुद्रगुप्त के गरुड़ चिह्न से अंकित आज्ञापत्र लेना स्वीकार किया।

इन विदेशी शक्तियों में प्रमुखतः कुषाण, शक-मुरण्ड, सिंहल तथा अन्यान्य द्वीपवासी थे जिन्हें क्रमशः देवपुत्र-शाहि-शाहानुशाही, शक-मुरण्ड, सिंहलद्वीपवासी तथा सर्वद्वीपवासी नामों से जाना जाता था। पश्चिम के जो छोटे-छोटे राज्य विद्यमान थे उन्होंने भी समुद्रगुप्त की प्रधानता को स्वीकार कर लिया।

समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाएँ

समुद्रगुप्त की उपर्युक्त दिग्विजय के फलस्वरूप उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में यमुना तथा चम्बल नदी से लेकर पूर्व में हुगली नदी तक फैल गया। उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर समुद्रगुप्त स्वयं शासन करता था। स्वशासित प्रदेश के उत्तर व पूर्व में पांच तथा पश्चिम में नौ गणराज्य उसके करद राज्य थे। दक्षिण में बारह राज्यों की स्थिति भी इन्हीं के समान थी। इन करद राज्यों के अतिरिक्त अनेक विदेशी राज्य भी समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे।

अश्वमेध यज्ञ

अपनी दिग्विजय सम्पूर्ण होने के उपलक्ष में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। प्रयाग-प्रशस्ति में इस यज्ञ का उल्लेख नहीं है इससे अनुमान होता है कि प्रयाग प्रशस्ति अश्वमेध यज्ञ से पहले उत्कीर्ण की गई थी। समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ में दान तथा दक्षिणा देने के लिए स्वर्ण-मुद्राएं ढलवाईं। इन मुद्राओं में एक ओर यज्ञ-स्तम्भ अंकित है जिससे एक अश्व बंधा हुआ है। मुद्रा के इसी ओर ‘अश्वमेध पराक्रमः’ अंकित है। इस अवसर पर सम्राट ने असंख्य मुद्राएं तथा गांव दान में दिये। कई गुप्त लेखों में उसे चिरकाल से न होने वाले अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है।

विदेशों से सम्बन्ध

समुद्रगुप्त की दिग्विजय से उसका यश चारों दिशाओं में दूर-दूर तक  विस्तृत हो गया। निकटवर्ती विदेशी राजा उसकी मैत्री की आकांक्षा करने लगे। चीनी अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में श्रीलंका के राजा मेघवर्ण ने दो बौद्ध-भिक्षुओं को बोधिगया भेजा। वहाँ पर इन भिक्षुओं को यथोचित सुविधा न मिल सकी।

जब मेघवर्ण को इसकी सूचना मिली तब उसने समुद्रगुप्त से गया में एक विहार बनवाने की अनुमति मांगी। समुद्रगुप्त ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। मेघवर्ण ने गया में महाबोधि संघाराम नामक विहार का निर्माण करवाया। 631 ई. में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया, तब तक यह विहार सुरक्षित था और इसमें महायान पंथ के लगभग एक हजार भिक्षु निवास करते थे।

समुद्रगुप्त का चरित्र तथा उसके कार्य

समुद्रगुप्त को भारत के इतिहास में उच्च स्थान दिया जाता है। उसके सिक्कों पर मुद्रित पराक्रमांक(पराक्रम है पहचान जिसकी), व्याघ्रपराक्रमः (बाघ के समान पराक्रमी है जो) तथा अप्रतिरथ (प्रतिद्वंद्वी नहीं है जिसका कोई) जैसी उपाधियां उसके प्रचण्ड प्रभाव को इंगित करती हैं।

स्मिथ ने लिखा है ‘गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त, भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा गुण-सम्पन्न सम्राट था।’ उसकी प्रतिभा बुहुमुखी थी। वह न केवल एक महान् विजेता था अपितु अत्यंत कुशल शासक भी था। वह राजनीति का प्रकाण्ड पंडित था। उसकी साहित्य तथा कला में विशेष अनुरक्ति थी और उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था।

डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रसंशा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की सैनिक विजय तो महान् थी ही, उसकी व्यक्तिगत साधनाएं भी कम महान् नहीं थीं। उसके राजकवि ने विजित लोगों के प्रति उसकी उदारता, उसकी परिष्कृत प्रतिभा, उसके धर्मशास्त्रों के ज्ञान, उसके काव्य कौशल और उसकी संगीत योग्यता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है।’

स्मिथ ने भी समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत व्यक्तिगत क्षमता वाला व्यक्ति था और उसमें असाधारण विभिन्न गुण थे। वह एक श्रेष्ठ व्यक्ति, विद्वान, कवि, संगीतज्ञ तथा सेनानायक था।’

(1) महान् विजेता

समुद्रगुप्त की गणना भारत के महान् विजेताओं में होती है। उसने अपने पिता के छोटे से राज्य को, जो साकेत, प्रयाग तथा मगध तक सीमित था, एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने छिन्न-भिन्न भारत को अपनी दिग्विजय द्वारा एक राज-सूत्र में बांध कर फिर से राजनीतिक एकता प्रदान की।

उन दिनों में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, संपूर्ण भारत, मध्य भारत, दक्षिण भारत, सीमान्त प्रदेशों तथा विदेशी राज्यों को नतमस्तक करना, साधारण कार्य नहीं था। उसने सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय कर राजनीतिक एकता स्थापित करने का जो उनुपम आदर्श उपस्थिति किया, उसका अनुगमन उसके बाद के समस्त महात्वाकांक्षी विजेताओं ने किया।

एक विजेता के रूप में समुद्रगुप्त की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘छः सौ वर्ष पूर्व अशोक के काल से इतने बड़े साम्राज्य पर और किसी ने शासन न किया। वह स्वयं को भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट बनाने के महान् कार्य में सफल हुआ।’

(2) महान् सेनानायक

समुद्रगुप्त महान् सेनानायक था। एक मुद्रा पर  वह सैनिक वेश में अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए दिखाया गया है। समुद्रगुप्त की समस्त सैनिक विजयें, उसके अपने बाहुबल से अर्जित की गई थीं। अपने दिग्विजय अभियानों में वह स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व तथा संचालन करता था और रण-स्थल में स्वयं सैनिकों की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। अपने शत्रुओं पर वह बाघ की भांति टूट पड़ता था। इसी से वह व्याघ्र-पराक्रम, पराक्रमांक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया। वह समरशत अर्थात् सौ युद्धों का विजेता था तथा अजेय समझा जाता था।

(3) राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित

समुद्रगुप्त न केवल महान् विजेता तथा सेनानायक था अपितु दूरदर्शी तथा कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने इस बात का अनुभव किया कि उस युग में जब यातायात के साधनों का अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण भारत का शासन करना असंभव था। इसलिये उसने केवल उत्तर भारत के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया।

शेष राजाओं को परास्त करने के बाद उनका उच्छेदन न करके उन्हें अपना अधीनस्थ मित्र बना लिया। उसका व्यवहार इन राज्यों के साथ इतना उदार तथा सौजन्यतापूर्ण था कि कभी किसी राजा ने उसके विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयास नहीं किया।

(4) सफल शासक

यद्यपि समुद्रगुप्त एक महान् विजेता तथा सेनानायक के रूप में अधिक प्रसिद्ध है, तथापि उसमें प्रशासकीय प्रतिभा का अभाव नहीं था। उसके शासन-काल में किसी का विद्रोह अथवा विप्लव न हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि वह अपने साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में पूर्ण रूप से सफल रहा।

उसने जितनी मुद्राएं चलाईं वे सब स्वर्ण निर्मित हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से पूर्ण था और उसकी प्रजा सुखी थी। चूंकि उसका साम्राज्य अत्यंत विशाल था इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि उसने प्रान्तीय शासन की भी व्यवस्था की थी जिन पर वह पूर्ण नियंत्रण रखता था।

शासन को सुचारू रीति से चलाने के लिये विभागीय व्यवस्था भी की गई थी। सेना, शासन, न्याय आदि कार्यों के लिए अलग-अलग विभाग होते थे, जिनके अलग-अलग अध्यक्ष नियुक्त रहते थे। समुद्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दयावान् व्यक्ति था, इसलिये उसने दीन-दुखियों, अनाथों तथा असहायों की सहायता के लिये दान आदि की भी व्यवस्था की थी।

(5) महान् साहित्यानुरागी

समुद्रगुप्त में न केवल उच्च-कोटि की सैनिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा थी वरन् उच्च-कोटि की मानसिक प्रतिभा भी थी। वह उच्च-कोटि का विद्वान तथा विद्या-व्यसनी था। साहित्य में उसकी बड़ी रुचि थी। वह उच्च-कोटि का लेखक तथा कवि था। यह साहित्यकारों तथा कवियों का आश्रयदाता था। बौद्ध-विद्वान वसुबंधु को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।

उसका मंत्री हरिषेण भी उच्च-कोटि का कवि था। वह अपने स्वामी का बड़ा कृपा पात्र था। प्रयाग के स्तम्भ-लेख में हरिषेण ने समुद्रगुप्त की बड़ी प्रशंसा की है। उसने कहा है कि अनेक काव्यों को लिखकर समुद्रगुप्त ने कविराज की उपाधि प्राप्त की। उसका साहित्य विद्वानों के मनन करने योग्य है।

उसकी काव्य-शैली अध्ययन करने योग्य है, उसकी काव्य रचनाएं कवियों के आध्यात्मिक कोष में अभिवृद्धि करती हैं। हरिषेण की इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त को साहित्य से बड़ा प्रेम था।

डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने समुद्रगुप्त की आलौकिक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत प्रतिभा का व्यक्ति था। वह न केवल शस्त्रों में वरन् शास्त्रों में भी कुशल था। वह स्वयं बड़ा ही सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगति प्रिय थी।’

(6) महान् कला प्रेमी

समुद्रगुप्त वीणा बजाने में प्रवीण था। संगीत में उसकी बड़ी रुचि थी। उसकी अनेक स्वर्ण-मुद्राओं पर वीणा अंकित है। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने संगीत में नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था। गायन तथा वादन दोनों में ही उसने प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

(7) भागवत धर्म का अनुयायी

समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ करके ब्राह्मण धर्म तथा यज्ञों की उपयोगिता में विश्वास प्रकट किया। इससे ब्राह्मण धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त हो गया। वह फिर से लोक-धर्म बन गया और उसकी उन्नति होने लगी। समुद्रगुप्त की मुद्राओं पर लक्ष्मी की आकृति अंकित की गई है। उसने परम भागवत की उपाधि धारण की। उसका राज्य-चिन्ह गरुड़ था, जो विष्णु का वाहन है। इन सब तथ्यों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह विष्णु का उपासक था।

(8) धार्मिक सहिष्णुता

संसार के श्रेष्ठ धर्म का अनुयायी होने पर भी वह अन्य धर्मों की प्रजा के साथ सहानुभूति रखता था। वह उन पर किसी प्रकार का भेदभाव अथवा अत्याचार नहीं करता था। वह बौद्ध आदि धर्मों की सहायता करता था। उसने गया में एक बौद्ध-विहार बनावाया जिससे स्पष्ट होता है कि उसका धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा उदार था और उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी।

(9) अलौकिक व्यक्तित्त्व

समुद्रगुप्त के चरित्र तथा उसके कार्यों का विवेचन करने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह साधारण मनुष्य नहीं था। उसे दैवी-शक्तियां प्राप्त थीं। इसी से उसे अमनुज अर्थात् जो मनुष्य न हो तथा अचिंत्य पुरुष आदि कहा गया है जो लोक तथा समय के अनुकूल कार्य करने के लिए ही मुनष्य का स्वरूप धारण किये हुए था। अन्यथा वह धन में कुबेर के समान तथा बुद्धिमत्ता में बृहस्पति के समान था। वह साधु के लिए उदय (आशा) और असाधु के लिए प्रलय (विनाश) था। इसलिये वह देवता का साक्षात् स्वरूप था।

भारत का नेपोलियन

अंग्रेज इतिहासकार डॉ. विसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है। उसने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त ने कलाओं के अभ्यास से चाहे जितनी मात्रा में ख्याति प्राप्त की हो, जिससे उसके न्यूनावकाश की शोभा बढ़ी, यह स्पष्ट है कि वह साधारण शक्तियों में संयुक्त न था। वह वास्तव में विलक्षण प्रतिभा का व्यक्ति था और वह भारतीय नेपोलियन कहलाने का अधिकारी है।’

इसके विपरीत आयंगर ने लिखा है- ‘उसे भारत का नेपोलियन कहना बड़ा ही अनुचित है जो केवल राज्य जितना ही राजा का कर्त्तव्य समझता था।’

समुद्रगुप्त के सम्बन्ध में इन दोनों इतिहासकारों के मतों पर विचार कर लेना आवश्यक है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में समानता

नेपोलियन यूरोप का महान् विजेता तथा सेनानायक था। फ्रांसिसी क्रांति के समय वह फ्रांसिसी सेना का सेनापति था। उसने फ्रांस की समस्त सैन्य शक्ति अपने हाथ में कर ली और वह फ्रांस का सम्राट बन गया। उसने अपने बाहुबल तथा सैन्यबल से न केवल फ्रांस की उसके शत्रुओं से रक्षा की वरन् उसने सम्पूर्ण यूरोप को आतंकित कर उसे नत-मस्तक कर दिया।

स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन केवल इस आधार पर कहा है कि जिस प्रकार नेपोलियन एक महान् विजेता तथा सेनानायक था और उसने सम्पूर्ण फ्रांस को नत-मस्तक कर दिया था, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी अपने अलौकिक पराक्रम से सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त कर उसे नत-मस्तक किया था। इस दृष्टिकोण से समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन मानने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए परन्तु दोनों की समानता यहीं समाप्त हो जाती है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में असमानताएं

दो भिन्न महाद्वीपों के इन दो महान् योद्धाओं तथा विजेताओं के पूरे जीवन में आद्योपरांत भिन्नताएं हैं। इन्हें इस प्रकार से समझा जा सकता है-

(1) वंश का अंतर

नेपोलियन एक सामान्य परिवार में उत्पन्न हुआ एक साधारण सैनिक था, उसने अपने लिये राज्य का निर्माण स्वयं किया जबकि समुद्रगुप्त, राजा का पुत्र था, उसे राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।

(2) सामरिक सफलताओं में अंतर

नेपोलियन को अपने उद्देश्य में केवल आरम्भिक चरण में सफलता प्राप्त हुई। उसकी विजय क्षणिक सिद्ध हुई। उसके विपरीत समुद्रगुप्त को अपने उद्देश्य में आद्योपरांत सफलता प्राप्त हुई।

(3) राज्य के स्थायित्व में अंतर

नेपोलियन ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया वह थोड़े ही समय बाद नष्ट हो गया। जबकि समुद्रगुप्त ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया, वह स्थायी सिद्ध हुआ। उसने न केवल स्वयं जीवन-पर्यन्त उस साम्राज्य का सुखपूर्वक उपभोग किया अपितु उसके उत्तराधिकारियों ने भी डेढ़ शताब्दियों से अधिक समय तक उस मधुर फल का उपभोग किया।

(4) विजित शत्रुओं के साथ सम्बन्धों में अंतर

नेपोलियन, विजय के उपरान्त विजित प्रदेशों में शान्ति स्थापित नहीं कर सका और शत्रुओं को मित्र बनाने में असफल रहा। इसके विपरीत समुद्रगुप्त ने जिन प्रदेशों को जीता वहाँ पर उसने स्थायी शान्ति स्थापित की और अपने शत्रुओं को अभयदान देकर उन्हें अपना मित्र बना लिया। नेपोलियन के विरुद्ध स्पेन तथा जर्मनी ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया परन्तु समुद्रगुप्त को इस प्रकार के किसी आन्दोलन का सामना न करना पड़ा।

(5) उद्देश्यों में अंतर

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त की सफलाताओं और स्थायित्व में अंतर का कारण यह है कि इन दोनों विजेताओं के उद्देश्यों में भी पर्याप्त अंतर था। नेपोलियन केवल समर विजयी योद्धा था और उसकी विजय का नैतिक स्तर अत्यंत निम्नकोटि का था। इसके विपरीत समुद्रगुप्त एक धर्म-विजयी सम्राट था और उसकी विजय का नैतिक स्तर आर्य आदर्शों के अनुरूप अत्यंत ऊँचा था।

(6) जीवन काल के अंत में अंतर

नेपोलियन को अन्त में भयानक पराजयों का आलिंगन करना पड़ा और उसका अन्त बड़ा दुःखद हुआ। ट्राफलर तथा वाटरलू के सामुद्री युद्धों में इंग्लैड की सेनाओं ने उसे बहुत बुरी तरह परास्त किया। उसकी सेनाओं को रूस से हताश होकर वापस लौटना।

अन्त में नेपोलियन बन्दी बनाकर सेन्ट निर्जन हेलेना द्वीप में भेज दिया गया, जहाँ अपमानजनक परिस्थितियों में उसकी जीवन-लीला समाप्त हुई। समुद्रगुप्त के जीवन में ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ। समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में सर्वत्र विजय-लक्ष्मी का ही आलिंगन किया था, पराजय का नहीं। समुद्रगुप्त ने 40 वर्षों के दीर्घकालीन शासन में अपनी विजयों के मधुर फलों का आस्वादन किया।

निष्कर्ष

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त के जीवन में इतना बड़ा अन्तर होने के कारण अधिकांश इतिहासकार स्मिथ के कथन से सहमति नहीं रखते। इतिहासकारों का कहना है कि नेपोलियन कुछ अर्थों में यूरोप का समुद्रगुप्त हो सकता है परन्तु समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहना उचित नहीं है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

रामगुप्त

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रामगुप्त - www.bharatkaitihas.com
रामगुप्त

समुद्रगुप्त के बाद उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त पाटलिपुत्र का राजा हुआ। उसे अपने पिता का विशाल साम्राज्य पैतृक अधिकार में प्राप्त हुआ किंतु वह इतने बड़े साम्राज्य के शासक के रूप में अयोग्य सिद्ध हुआ।

रामगुप्त (375 ई.)

समुद्रगुप्त के कई पुत्र तथा पौत्र थे। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम राम गुप्त था जो उसके बाद मगध के सिंहासन पर बैठा। कतिपय साहित्यिक उल्लेखों तथा पूर्वी मालवा से प्राप्त राम गुप्त के नाम से अंकित तथा गरुड़ चिह्नांकित सिक्कों के आधार पर राम गुप्त की ऐतिहासिकता स्वीकार की गई है। उसके शासन काल के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती है।

सम्भवतः उसके सिंहासन पर बैठते ही शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। राम गुप्त परास्त हो गया और शकों ने उसे बंदी बना लिया। विवश होकर रामगुप्त को शकों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें उसे अपनी रानी ध्रुवदेवी, शकों को समर्पित करने की शर्त स्वीकार करनी पड़ी।

रामगुप्त का छोटा भाई चन्द्रगुप्त बड़ा ही वीर, साहसी तथा स्वाभिमानी राजकुमार था। अपने भ्राता की कायरता से खिन्न होकर चंद्रगुप्त, ध्रुवदेवी के वेश में स्त्री-वेशधारी योद्धाओं के साथ शकों की सैन्य छावनी में गया। जब शक राजा ध्रुवदेवी का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ा तब चन्द्रगुप्त ने उसका वध कर दिया और अपने सैनिकों की सहायता से शकों को गुप्त साम्राज्य से मार भगाया।

सम्राट रामगुप्त की कायरता तथा कापुरुषता से ध्रुवदेवी को बड़ा क्षोभ हुआ। उसने अपने देवर के वीरोचित गुणों का सम्मान करते हुए तथा साम्राज्य के लिये उसका मूल्य एवं उसकी आवश्यकता समझते हुए, चंद्रगुप्त के साथ मिलकर रामगुप्त की हत्या का षड़यंत्र रचा। ध्रुवदेवी के सहयोग से चन्द्रगुप्त ने अपने भाई रामगुप्त का वध कर दिया औरध्रुवदेवी के साथ विवाह करके गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

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चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य - www.bharatkaitihas.com
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की स्वर्णमुद्रा

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को गुप्त शासकों के इतिहास में चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है। वह महान् हिन्दू सम्राट था जिसने भारत भूमि को धन-सम्पदा, ज्ञान-विज्ञान एवं धर्म-अध्यात्म से सम्पन्न बनाने में अद्भुत सफलताएं अर्जित कीं।

चन्द्रगुप्त (द्वितीय) समुद्रगुप्त की रानी दत्तदेवी का पुत्र था। वह बड़ा ही वीर तथा पराक्रमी राजकुमार था। राजा बनने के बाद उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। विक्रम का अर्थ होता है पराक्रम अथवा प्रताप और आदित्य का अर्थ होता है सूर्य। अर्थात् विक्रमादित्य उस व्यक्ति को कहते हैं जो सूर्य के समान प्रतापी हो। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने ऐश्वर्य तथा प्रताप को उसी प्रकार फैलाया जिस प्रकार सूर्य अपने आलोक को सम्पूर्ण विश्व में फैला देता है।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के वैवाहिक सम्बन्ध

स्थायी मित्रों एवं शुभचिंतकों की संख्या में वृद्धि करने के लिये चंद्रगुप्त ने राजनीतिक रूप से शक्ति-सम्पन्न राजकन्याओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया।

(1) ध्रुवदेवी से विवाह

ध्रुवदेवी सम्राट रामगुप्त की पत्नी थी तथा गुप्त साम्राज्य की साम्राज्ञी थी। रामगुप्त का वध करने के बाद राज्य में अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने साम्राज्ञी से विवाह कर लिया।

(2) नाग राजकुमारी से विवाह

नागवंश के साथ गुप्तवंश का वैमनस्य बहुत दिनों से चला आ रहा था। इस वैमनस्य को समाप्त करने के लिए चंद्रगुप्त ने नाग-वंश की राजकुमारी कुबेर नाग के साथ विवाह कर लिया।

(3) राजकुमारी प्रभावती का वाकाटकों से विवाह

चंद्रगुप्त तथा महारानी कुबेर नाग के विवाह से प्रभावती नामक राजकन्या उत्पन्न हुई। जब यह राजकन्या बड़ी हुई तो चन्द्रगुप्त ने उसका विवाह बरार के वाकाटक राजा रुद्रसेन (द्वितीय) के साथ कर दिया। यह विवाह चन्द्रगुप्त ने गुजरात तथा सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों पर विजय प्राप्त करने के पूर्व किया था। इसलिये डॉ. स्मिथ की धारणा है कि शकों पर विजय प्राप्त करने में चन्द्रगुप्त को रुद्रसेन से बड़ी सहायता मिली होगी। इसलिये राजनीतिक दृष्टि से इस विवाह का बड़ा महत्त्व था।

(4) राजकुमार का विवाह

चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र का विवाह महाराष्ट्र प्रान्त में स्थित कुन्तल राज्य के शक्तिशाली राजा काकुस्थवर्मन की कन्या के साथ किया। इस विवाह का भी बहुत बड़ा राजनीतिक महत्त्व था। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाया।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की विजयें

चन्द्रगुप्त को अपने पिता से एक अत्यंत विशाल तथा सुसंगठित साम्राज्य प्राप्त हुआ। इसलिये उसे साम्राज्य-स्थापना के लिए कोई युद्ध नहीं करना पड़ा परन्तु अपने विशाल साम्राज्य की सुरक्षा करने, उसे सुसंगठित बनाये रखने और अपने साम्राज्य की वृद्धि करने के लिए उसे कई युद्ध करने पड़े। इन युद्धों का विवरण इस प्रकार से है-

(1) गणराज्यों का विनाश

गुप्त साम्राज्य के पश्चिमोत्तर में गणराज्यों की एक पतली पंक्ति विद्यमान थी। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था परन्तु इन्हें गुप्त-साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया था। ये राज्य बड़े ही स्वतंत्रता-प्रेमी थे और स्वयं को स्वतंत्र बनाये रखने का प्रयास करते रहते थे। इन गणराज्यों में किसी बाह्य आक्रमण को रोकने की शक्ति नहीं थी।

साम्राज्य की सीमा पर ऐसे कमजोर राज्यों की उपस्थिति, जिनमें गणतंत्रात्मक व्यवस्था विद्यमान थी, चन्द्रगुप्त को उचित प्रतीत नहीं हुई। उदयगिरि से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने इन गणराज्यों पर आक्रमण करके उन्हें गुप्त-साम्राज्य में मिला लिया।

(2) शक-क्षत्रपों का अन्त

अब चन्द्रगुप्त का ध्यान उन शक-क्षत्रपों की ओर गया जो मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र में शासन कर रहे थे। यद्यपि इन क्षत्रपों ने समुद्रगुप्त के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था परन्तु चन्द्रगुप्त ने इस बात का अनुभव किया कि साम्राज्य की सीमा के निकट विदेशी शासन की स्थिति कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है।

इसलिये उसने उन पर आक्रमण कर दिया और शक राजा रुद्रसिंह को परास्त कर उसका वध कर दिया तथा उसके राज्य को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त ने चांदी की मुद्राएं चलवाईं। इसके पूर्व के गुप्त सम्राटों ने केवल स्वर्ण मुद्राएं चलवाई थीं। इस विजय से गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र तट तक पहुंच गई।

इस कारण भारत का विदेशों के साथ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों में विस्तार हुआ। इन विजयों से गुप्त साम्राज्य के आंतरिक व्यापार में भी वृद्धि हो गई। मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र के प्रान्त बड़े उपजाऊ तथा धन-सम्पन्न थे। इसलिये न केवल गुप्त साम्राज्य की सीमाओं में वृद्धि हुई अपितु उसके कोष में भी वृद्धि हो गई।

(3) पूर्वी प्रदेश पर विजय

गुप्त साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर कई छोटे-छोटे राज्य थे जो गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए संगठन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने इन्हें परास्त कर यश प्राप्त किया था।

(4) वाह्लीक राज्य पर आक्रमण

भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में कुषाणों के वंशज अब भी शासन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञाता होता है कि चन्द्रगुप्त ने सिन्ध की सहायक नदियों को पार कर वाह्लीकों को परास्त किया और पंजाब तथा सीमान्त प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर वाह्लीकों को काबुल के उस पार भगा दिया। सम्भवतः इन समस्त विजयों के उपरान्त ही चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

(5) दक्षिणापथ पर पुनर्विजय

महरौली के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि रामगुप्त के शासनकाल में दक्षिण-भारत के राज्यों ने गुप्त साम्राज्य की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था परन्तु चन्द्रगुप्त ने अपने पराक्रम तथा प्रताप के बल से पुनः दक्षिण भारत के राज्यों में गुप्त साम्राज्य की सत्ता स्थापित की।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का साम्राज्य

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी विजयों के फलस्वरूप एक विशाल गुप्त साम्राज्य पर राज्य किया। उसका राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन प्रबंध

साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ चन्द्रगुप्त ने अपने शासन को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का शासन बड़ा उदार तथा दयालु था। उसका शासन प्रबन्ध उस युग में किसी उपलब्धि से कम नहीं था।

(1) सम्राट

सम्राट राज्य का प्रधान था और अपनी राजधानी से ही सम्पूर्ण राज्य के शासन पर नियंत्रण रखता था। वह अपनी सेना का प्रधान सेनापति था और युद्ध के समय रण-क्षेत्र में उपस्थित रहता था। सम्राट न्याय विभाग का भी प्रधान था। उसका निर्णय अन्तिम समझा जाता था। इस प्रकार सेना, शासन तथा न्याय तीनों शक्तियों का केन्द्र-बिन्दु सम्राट स्वयं होता था।

(2) मंत्री

सम्राट को परामर्श देने तथा शासन में सहायता पहुंचाने के लिए कई मन्त्री नियुक्त किये जाते थे। सेना तथा शासन के अधिकारियों में कोई अंतर नहीं था। जो मन्त्री शासन को देखता था वही सैन्य-विभाग को भी संभालता था।

(अ) मंत्रिन्: चन्द्रगुप्त का प्रधान परामर्शदाता मन्त्रिन कहलाता था।

(ब) सन्धिविग्रहिक: सन्धि तथा विग्रह (युद्ध) आदि विषयों को देखने के लिये सन्धिविग्रहिक होता था। यह मन्त्री युद्ध के समय रण-स्थल में सम्राट के साथ उपस्थित रहता था। चन्द्रगुप्त का मन्त्री वीरसेन अपने स्वामी के साथ क्षत्रपों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए गया था।

(स) अक्षपटल अधिकृत: एक मन्त्री राज-पत्रों को रखता था। उसे अक्षपटल अधिकृत कहते थे।

(3) शासन की विभिन्न इकाइयाँ

चंद्रगुप्त द्वितीय का सम्पूर्ण साम्राज्य कई प्रान्तों में, प्रत्येक प्रांत कई जिलों में तथा प्रत्येक जिला कई ग्रामों में विभक्त था।

(अ) प्रांतीय शासन: प्रत्येक प्रान्त ‘देश’ अथवा ‘भुक्ति’ कहलाता था। देश का शासक ‘गोत्री’ और भुक्ति का ‘उपरिक’ कहलाता था। कुछ प्रान्तों के शासक राजकुमार हुआ करते थे।

(ब) जिलों का शासन: प्रत्येक प्रान्त कई जिलों में विभक्त रहता था। ये जिले ‘प्रदेश’ अथवा ‘विषय’ कहलाते थे। इनका शासक ‘विषयपति’ कहलाता था।

(स) ग्राम्य शासन: प्रत्येक विषय कई ग्रामों में विभक्त रहता था। गांव का शासक ग्रामिक अथवा भोजक कहलाता था। इस पद पर गांव का चौधरी अथवा मुखिया ही नियुक्त किया जाता था। उसकी सहायता के लिए ग्राम-वृद्धों की पंचायतें हुआ करती थीं।

(4) दंड विधान

चन्द्रगुप्त उदार तथा दयालु शासक था। उसका दंड विधान कठोर नहीं था। दंड, अपराध की गुरुता के अनुसार दिया जाता था। साधारण अपराध के लिए साधारण शास्ति और बड़े-बड़े़ अपराधों के लिए बड़ी शास्ति आरोपित की जाती थी। अंग-भंग करने का दंड प्रायः नहीं दिया जाता था। केवल राजद्रोहियों का दाहिना हाथ काट दिया जाता था। किसी को भी प्राण दण्ड नहीं दिया जाता था।

(5) व्यापार तथा वाणिज्य

चन्द्रगुप्त के शासन-काल में बाह्य तथा आन्तरिक व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। उसका साम्राज्य पश्चिमी समुद्र तट तक विस्तृत था। इससे भारत का विदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध विस्तारित हो गया। उस काल में बंगाल से सूती तथा रेशमी वस्त्र, बिहार से नील, हिमालय प्रदेश से अंगराग तथा दक्षिण भारत से कपूर, चन्दन और मसाले पश्चिमी समुद्र-तट पर लाये जाते थे और रोम को भेजे जाते थे जहाँ से बहुत-सा सोना प्रतिवर्ष भारत आता था।

(6) मुद्राएं

साधारण व्यापार में कौड़ी का प्रयोग किया जाता था। परन्तु बड़े-बड़े व्यापारों में धातु मुद्राओं का प्रयोग होता था। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने तीन प्रकार की मुद्राएं चलाई थी। उत्तर भारत में सोने तथा तांबे की मुद्राएं प्रचलित थीं परन्तु गुजरात तथा काठियावाड़ में चांदी की मुद्राओं का प्रयोग किया जाता था।

(7) धार्मिक सहिष्णुता

चन्द्रगुप्त भागवत धर्म का अनुयायी एवं परम वैष्णव था परन्तु अन्य संप्रदायों के साथ सहिष्णु था। वह राजकीय पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्तियां करता था। इसलिये राजकीय सेवाओं के द्वार किसी भी सम्प्रदाय को मानने वाली प्रजा के लिए खुले रहते थे। चन्द्रगुप्त का सेनापति बौद्ध और उसका एक मन्त्री वैश्य था।

(8) दान-व्यवस्था

सम्राट चन्द्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दानी था। वह अनाथों तथा दीन-दुखियों की सदैव सहायता करता था। उसने दान का अलग विभाग खोल दिया था और उसके प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त कर दिया था।

चीनी यात्री फाह्यान का आगमन

चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया। उसका बचपन का नाम कुंड् था। जब वह दस वर्ष का था तब उसके पिता का निधन हो गया इसलिये कुंड् के पालन-पोषण का भार उसके चाचा पर पड़ा। उसका चाचा उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश कराना चाहता था, परन्तु कुंड् ने भिक्षु बनने का संकल्प लिया।

कुंड् के पिता की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त कुंड् की माता का भी निधन हो गया। माता तथा पिता के स्नेह से वंचित हो जाने के कारण कुंड् गृहस्थ-जीवन से विमुख हो गया। बड़े होने पर उसने सन्यास ले लिया और वह फाह्यान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फाह्यान दो शब्दों से मिलकर बना है- फा तथा हियान।

चीनी भाषा में फा का अर्थ है धर्म और हियान का अर्थ है आचार्य। इसलिये फाह्यान का अर्थ हुआ धर्माचार्य। चीन में उस समय बौद्ध धर्म का प्रचार अपने चरम पर था। फाह्यान बौद्ध-धर्म में दीक्षित हो गया। जब उसने बौद्ध-ग्रन्थों ‘त्रिपिटक’ तथा ‘विनय-पिटक’ का अध्ययन किया तो वे ग्रंथ उसे अधूरे तथा क्रमहीन प्रतीत हुए।

इसलिये उसने उनकी प्रामाणिक प्रतियां प्राप्त करने तथा बौद्ध धर्म की जन्मभूमि का दर्शन करने के लिए भारत आने का निश्चय किया। फाह्यान ने 400 ई. में चार अन्य भिक्षुओं के साथ भारत के लिए प्रस्थान किया। मार्ग की भयानक कठिनाइयों का सामना करते हुए वह गांधार पहुंचा। वहाँ से वह तक्षशिला गया और वहाँ से पुष्पपुर (पेशावर) पहुंचा। इस यात्रा में उसके साथी उसका साथ नहीं दे पाये और वे अपने देश लौट गये। केवल एक साथी उसके साथ रह गया।

फाह्यान पुष्पपुर से मथुरा, कन्नौज, श्रावस्ती, कुशीनगर, वैशाली, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगृह, काशी, सारनाथ आदि नगरों के दर्शन करता हुआ ताम्रलिप्ति पहुंचा। यहाँ पर उसने दो वर्ष तक निवास किया। ताम्रलिप्ति से वह सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका गया। वहाँ से वह जावा गया और जावा से फिर अपने देश को लौट गया। 414 ई. में वह चीन पहुंच गया।

फाह्यान ने 405 ई. में भारत में प्रवेश किया और 411 ई. में उसने भारत से प्रस्थान किया। इस प्रकार वह लगभग 6 वर्ष तक भारत में रहा और लगभग चौदह वर्ष तक यात्रा करता रहा। जब फाह्यान अपने देश पहुंचा तब उसने अपनी यात्रा का विवरण अपने एक मित्र को सुनाया। फाह्यान के मित्र ने इस विवरण को फो-को-की नामक ग्रंथ में लेखनी-बद्ध कर दिया। यह विवरण, प्रचीन भारत का इतिहास जानने का अच्छा साधन है।

फाह्यान का भारतीय विवरण: फाह्यान 405 से 411 ई. अर्थात् लगभग छः वर्षों तक भारतवर्ष में रहा। उसने भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण किया। यद्यपि वह बौद्ध-ग्रन्थों को प्राप्त करने तथा तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के लिये भारत आया था तथा इस कार्य में वह इतना तल्लीन रहा कि उसने पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक निवास करने के उपरांत अपने विवरण में एक बार भी चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम नहीं लिखा। फिर भी उसके विवरण से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

(1) राजनीतिक दशा

फाह्यान लिखता है कि शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा के जीवन को सुखी बनाना था। चन्द्रगुप्त का शासन बड़ा अच्छा था। उसकी प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। प्रजा को अपना कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता थी। राजा उसके कार्यों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। लोग स्वतंत्रतापूर्वक व्यवसाय करके धन कमा सकते थे। क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था।

बड़े-बड़े नगरों में राज्य की ओर से औषधालयों का प्रबंध रहता था, जहाँ प्रजा को निःशुल्क दवा मिलती थी। प्रजा पर राज्य की ओर से बहुत थोड़े कर लगाये गये थे। भूमि कर राज्य की आय का प्रधान साधन था। दण्ड-विधान कठोर न था। अपराधियों को प्रायः जुर्माने का दण्ड दिया जाता था। राजद्रोहियों का दहिना हाथ काट दिया जाता था।

लोगों को चोरी तथा ठगी का बिल्कुल भय न था। राजा से उसकी प्रजा प्रेम करती थी। यात्रियों को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कें बनी थीं और उनके किनारे पर छायादार वृक्ष लगे थे। स्थान-स्थान पर कुंए खुदे रहते थे और धर्मशालाएं बनी रहती थीं, जिनमें यात्रियों को निःशुल्क भोजन मिलता था।

(2) सामाजिक दशा

फाह्यान के विवरण से भारत की सामाजिक दशा का पर्याप्त परिचय मिलता है। उसने लिखा है कि उत्तरी भारत के लोग बड़े धर्मात्मा तथा धन सम्पन्न थे। वे सदाचारी, विद्या प्रेमी तथा एक दूसरे से सहानुभूति रखने वाले थे। लोग एक दूसरे की सहायता करने के लिए उद्यत रहते थे। वे सत्यवादी होते थे और अपने व्यवहार में सत्य का पालन करते थे। लोग अहिंसात्मक प्रवृत्ति के होते थे।

सज्जन लोग न तो आखेट करते थे और न मांस, लहसुन, प्याज, मदिरा आदि का सेवन करते थे। नगरों में इन वस्तुओं की दुकानें तक नहीं थीं। इन वस्तुओं का प्रयोग केवल चाण्डाल लोग तथा नीच जातियां करती थीं। उन्हें नगर के बाहर रहना पड़ता था। वे समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे। सूअर तथा मुर्गियों को केवल नीच लोग पालते थे।

(3) धार्मिक दशा

फाह्यान के विवरण से भारत की तत्कालीन धार्मिक दशा का भी पता चलता है। उसके विवरण से हमें ज्ञात होता है कि ब्राह्मण धर्म इस समय बड़ी उन्नत दशा में था और मध्य भारत में उसका बड़ा जोर था। सम्राट चन्द्रगुप्त स्वयं परमभागवत तथा वैष्णव धर्म का अनुयायी था। पंजाब, मथुरा तथा बंगाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी।

महायान तथा हीनयान दोनों ही सम्प्रदाय विद्यमान थे। फाह्यान ने देश के विभिन्न भागों में अनेक बौद्ध विहार देखे थे परन्तु बौद्ध-धर्म अब अधःपतन की ओर जा रहा था। मध्य-भारत में तो इसका प्रभाव समाप्त सा हो रहा था। यद्यपि गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था परन्तु अन्य धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करता था।

वह बौद्ध-धर्म को मानने वालों के साथ किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करता था। समस्त सम्प्रदायों वाली प्रजा मेल-जोल के साथ रहती थी। उनमें ईर्ष्या-द्वेष की भावना नहीं थी। सम्राट ब्राह्मणों के साथ-साथ बौद्धों को भी दान-दक्षिणा देता था।

(4) पाटलिपुत्र की दशा

फाह्यान गुप्त-साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक रहा। इस अवधि में उसने संस्कृत भाषा सीखी। उसने लिखा है कि पाटलिपुत्र में दो बड़े ही सुन्दर बौद्ध-विहार थे। इनमें से एक हीनयान सम्प्रदाय का और दूसरा महायान सम्प्रदाय का था। इन विहारों में लगभग छः-सात सौ भिक्षु निवास करते थे। भिक्षु बड़े ज्ञानवान होते थे।

समाज के विभिन्न भागों से लोग ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन विद्वान भिक्षुओं के पास आया करते थे। फाह्यान ने पाटलिपुत्र में अशोक द्वारा बनवाये हुए सुन्दर भवन को देखा था। इस भवन की सुन्दरता से वह आश्चर्यचकित रह गया था। उसने विचार किया वह भवन देवताओं द्वारा बनाया गया है क्योंकि मनुष्य ऐसे भव्य भवन का निर्माण नही कर सकता था।

फाह्यान लिखता है कि नगर में बड़े धनी तथा दानी लोग निवास करते थे। नगर में अनेक संस्थाएं थीं जहाँ दीन-दुखियों, अपाहिजों तथा असहायों को दान मिलता था। पाटलिपुत्र में एक बहुत बड़ा औषधालय था, जहाँ दीन-दुखियों को निःशुल्क औषधि मिलती थी। औषधालय का व्यय नगर के धनी-मानी तथा दानी व्यक्ति वहन करते थे।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के कार्यों का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की गणना भारत के अत्यंन्त योग्य तथा सफल शासकों में होती है। उसने अपने पिता के साम्राज्य को न केवल सुरक्षित तथा सुसंगठित रखा अपितु उसकी सीमाओं में वृद्धि भी की।

महान विजेता

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने शक-क्षत्रपों को परास्त कर मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र को गुप्त-साम्राज्य में मिलाया। उसने वाह्लीकों को पश्चिमोत्तर प्रदेश से मार भगाया और गणराज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित करके गुप्त-साम्राज्य की सीमा में वृद्धि की। उसने दक्षिण भारत पर भी गुप्त-साम्राज्य की सत्ता को फिर से स्थापित किया। इस प्रकार एक विजेता के रूप में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का स्थान बड़ा ऊँचा है।

महान कूटनीतिज्ञ

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने समय का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह समस्त प्रकार के साधनों का प्रयोग कर सकता था। उसने नारी का वेश धारण कर शक-राजा की हत्या की और अपने भाई रामगुप्त का वध कर पाटलिपुत्र का सिंहासन प्राप्त किया। उसने नाग-वंश तथा वाकाटक वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी स्थिति को अत्यंत सुदृढ़़ बनाया। इन सबसे सिद्ध होता है कि वह राजनीति का बहुत बड़ा पंडित था।

कुशल प्रशासक

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कुशल प्रशासक था। फाह्यान के विवरण से ज्ञात होता है कि उसकी प्रजा बड़ी सुखी थी और उससे प्रेम करती थी। उसका शासन उदार था। वह न्याय-प्रिय राजा था। उसका दंड-विधान कठोर नहीं था। मृत्यु दंड का सर्वधा निषेध था।

धार्मिक सहिष्णुता

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, भागवत धर्म का उपासक था जिसे वैष्णव धर्म भी कहते हैं। उसके अभिलेखों में उसे परम भागवत कहा गया है। उसमें उच्च-कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। उसके राज्य में राजकीय नौकरियों के द्वार समस्त प्रजा के लिए खुले रहते थे। उसके मंत्री ‘वीरसेन’ तथा ‘शिखर स्वामी’ शैव धर्म के अनुयायी थे। उसका सेनापति ‘आम्रकार्दव’ बौद्ध था।

महान साहित्य प्रेमी

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने समय का महान साहित्य प्रेमी तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता था। उसकी महानता उसके साम्राज्य निर्माण में नहीं अपितु बौद्धिक पुनरुत्थान में निहित थी। उसकी सभा में नौ महान् विद्वान रहते थे जो नवरत्न कहलाते थे। इनमें कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। चन्द्रगुप्त के शासन-काल में संस्कृत भाषा की बड़ी उन्नति हुई और अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ लिखे गए। कला एवं संस्कृति की उन्नति, प्रजा की सम्पन्नता तथा राज्य में शांति के वातावरण के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहते हैं।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य योग्य तथा सफल शासक था और भारत के इतिहास में राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से उसका बड़ा महत्व है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

गोविंद गुप्त बालादित्य

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नालंदा विश्वविद्यालय

मालव अभिलेख के अनुसार चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की मृत्यु के बाद गोविंद गुप्त बालादित्य राजा हुआ। अतः गोविंदगुप्त अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ किंतु उसका शासन अत्यंत अल्पकाल का रहा।

गोविंद गुप्त बालादित्य (412-415 ई.)

बसाढ़ (वैशाली) से ध्रुवस्वामिनी की एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर एक लेख इस प्रकार उत्कीर्ण है- महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त-पत्नी महाराज गोविन्दगुप्त माता महादेवी श्री ध्रुवस्वामिनी।

इस मुहर से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-

1. किसी रानी की मुहर में उसके शासक पति और उसके युवराज पुत्र के नाम की ही अपेक्षा की जा सकती है। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय चंद्रगुप्त (द्वितीय) जीवित था। अन्यथा धु्रवस्वामिनी ने स्वयं को राजमाता कहा होता।

3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय तक कुमार गुप्त को चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया गया था।

3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गोविंदगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का ज्येष्ठ पुत्र था तथा युवराज होने के कारण इस मुहर पर उसका नाम आया है।

मालव अभिलेख कहता है कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की मृत्यु के बाद गोविंद गुप्त राजा हुआ। अतः अनुमान होता है कि गोविंदगुप्त अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ किंतु उसका शासन अत्यंत अल्पकाल का रहा। अनुमान है कि इस शासन की अधिकतम अवधि दो वर्ष रही। उसने 412 ई. से 415 ई. के बीच की अवधि में शासन किया। संभवतः इसकी उपाधि बालादित्य थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

कुमार गुप्त प्रथम

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कुमार गुप्त प्रथम

कुमार गुप्त प्रथम गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय का कनिष्ठ पुत्र था। उसे महेन्द्रादित्य भी कहते हैं। गोविंद गुप्त बालादित्य के संक्षिप्त शासन काल के बाद कुमारगुप्त प्रथम गुप्तों के सिंहासन पर बैठा।

कुमार गुप्त प्रथम (415-455 ई.)

बिलसड़ अभिलेख के अनुसार कुमारगुप्त की आरम्भिक तिथि 415 ई. तथा उसके चांदी के सिक्कों पर उसकी अंतिम तिथि 455 ई. प्राप्त होती है। इससे अनुमान होता है कि 415 ई. में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का कनिष्ठ पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। उसे महेन्द्रादित्य भी कहते हैं।

साम्राज्य

कुमार गुप्त प्रथम के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा संगठित रखा। 436 ई. के एक अभिलेख में कहा गया है कि कुमारगुप्त का साम्राज्य उत्तर में सुमेरू और कैलाश पर्वत से दक्षिण में विन्ध्या वनों तक और पूर्व तथा पश्चिम में सागर के बीच फैला हुआ था।

प्रजा की स्थिति

कुमार गुप्त प्रथम का राज्य शांतिपूर्ण और समृद्धिशाली था। उसने अपने शासन के 40 वर्ष के शांतिकाल में भी अपनी सेना को बनाये रखा।

अश्वमेध यज्ञ

कुमारगुप्त की मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने एक अश्वमेघ यज्ञ भी किया था।

पुष्यमित्रों पर विजय

कुमार गुप्त के शासनकाल के अन्तिम भाग में नर्मदा नदी के उद्गम के निकट निवास करने वाले पुष्यमित्र वंश के क्षत्रियों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने उनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।

धार्मिक सहिष्णुता

कुमारगुप्त ने अपने पिता की धर्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। वह स्वयं कार्तिकेय का उपासक था तथा अन्य सम्प्रदाय वालों के साथ उदारता का व्यवहार करता था।

निधन

455 ई. में कुमारगुप्त का निधन हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

स्कन्दगुप्त

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स्कन्दगुप्त

कुमारगुप्त की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार वह ई. 455 में गुप्तों के सिंहासन पर बैठा।

जूनागढ़ अभिलेख में स्कन्दगुप्त अपने पिता कुमारगुप्त के नाम का उल्लेख तो करता है किंतु अपनी माता के नाम का उल्लेख नहीं करता जबकि गुप्त शासकों में इस प्रकार के शिलालेखों में अपनी माता का नाम लिखने की अनिवार्य परम्परा थी। इस कारण परमेश्वरीलाल गुप्त ने इससे यह आशय निकाला है कि स्कंद गुप्त को अपनी माता का नाम लिखना गौरवपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ।

स्कन्दगुप्त की उपलब्धियाँ

सिंहासन की प्राप्ति

स्कन्द गुप्त वीर राजा था। अपने पिता के शासनकाल में ही उसने पुष्यमित्रों का दमन किया। जिस समय कुमारगुप्त की मृत्यु हुई, उस समय स्कन्द गुप्त राजधानी से दूर युद्ध में व्यस्त था। इस कारण स्कन्दगुप्त के छोटे भाई घटोत्कच ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। स्कन्द गुप्त ने राजधानी लौटकर कुछ माह में ही अपने पिता के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि लक्ष्मी ने समस्त गुण-दोषों को पूरी तरह छान-बीन करने के बाद अन्य राजपुत्रों को ठुकराकर उनका वरण किया।

शत्रुओं का दमन

भितरी अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने अपने पिता के राज्य का दिग्विजय द्वारा विस्तार किया और पराजितों पर दया दिखाई। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि स्कन्द गुप्त ने मान दर्प से अपने फणों को उठाने वाले सर्प रूपी नरपतियों का दमन किया। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त के सिंहासन पर बैठते ही हूणों का आक्रमण हुआ।

किदार कुषाणों का दमन

जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कंदगुप्त ने म्लेच्छों का दमन किया। परमेश्वरीलाल गुप्त ने इन म्लेच्छों का साम्य किदार कुषाणों से किया है जिन्होंने स्कन्द गुप्त से परास्त होकर उत्तरी पश्चिमी पर्वतीय भूभाग में शरण ली तथा फिर वे छठी शताब्दी में किसी समय वहां से वापस लौटे तथा गांधार के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया।

हूणों का दमन

स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठते ही विपत्तियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि हूणों ने सिन्धु नदी को पार कर उसके साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त कर दिया। इस उपलक्ष्य में उसने देवी-देवताओं को बलि भेंट चढ़ाई तथा विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया जो गाजीपुर के भीतरी नामक गांव में पाया जाता है।

जूनागढ़ अभिलेख स्कन्द गुप्त के राज्यारोहण के बाद एक-दो वर्ष की अवधि में ही लिखा गया है जिसमें कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों का सामना कर उन्हें पराजित कर पृथ्वी को हिला दिया। जूनागढ़ अभिलेख तथा भितरी अभिलेख दोनों ही स्कंदगुप्त की विजय की स्पष्ट घोषणा करते हुए कहते हैं कि स्कन्दगुप्त ने अपने शत्रुओं को पराजित कर पूर्णतः कुचल दिया।

हूणों ने डैन्यूब नदी से सिंधु तक क्रूर विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। उनके नेता अत्तिल ने रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया दोनों ही राजधानियों पर भयानक आक्रमण किया था। उसने ईरान को परास्त करके वहां के राजा को मार डाला था। अतः स्कन्दगुप्त ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की।

स्कन्द गुप्त की इस सेवा का वर्णन करते हुए बी. पी. सिंह ने लिखा- ‘यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों की दासता के बंधन से देश को मुक्त किया तो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने शकों की शक्ति का विनाश किया और स्कन्दगुप्त ने हूणों से साम्राज्य तथा देश की रक्षा की।’

स्कन्दगुप्त को जीवन पर्यन्त उनके साथ संघर्ष करना पड़ा परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए।

शासन प्रबंध

स्कन्दगुप्त उदार शासक था। उसे शास्त्र और न्याय दोनों के प्रति गहरी आस्था थी। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि उसकी प्रजा का कोई व्यक्ति अपने धर्म से च्युत नहीं होता, कोई दारिद्र्य और कदर्य से पीड़ित नहीं है और न किसी दण्डनीय को अनावश्यक पीड़ित किया जाता है। स्कन्दगुप्त के शासन काल में प्रांतपतियों को गोप्ता कहा जाता था। उनका चयन बहुत सोच समझकर किया जाता था। उनमें सर्वलोक हितैषी, विनम्रता तथा न्यायपूर्ण अर्जन की प्रवृत्तियों की परख की जाती थी।

सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार

455 ई. में अतिवृष्टि के कारण सुदर्शन झील का बांध टूट गया। स्कन्दगुप्त ने विपुल धन राशि लगाकर सुदर्शन झील की मरम्मत कराई तथा इसके बांध का पुनः निर्माण करवाया। इस बांध से चंद्रगुप्त (द्वितीय) के समय में ही सिंचाई के लिये नहरें निकाली गई थीं।

स्कन्दगुप्त का धर्म

स्कन्दगुप्त वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने भी अपने पूर्वजों की भांति धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने नालंदा में एक बौद्ध संघाराम बनवाया।

साम्राज्य की सुरक्षा

यद्यपि स्कन्दगुप्त का काल भयानक विपत्तियों का काल था परन्तु वह अपने पूर्वजों के साम्राज्य को सुरक्षित रखने में पूरी तरह सफल रहा। 460 ई. के कहवां अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने नालंदा में बौद्ध संघाराम बनाने में सहायता की इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय तक स्कन्दगुप्त हूणों, शकों एवं कुषाणों को अपने राज्य की सीमाओं से परे धकेल चुका था तथा राज्य में शांति हो गई थी।

मुद्राओं के भार में वृद्धि

स्कन्दगुप्त ने अपने पूर्ववर्ती गुप्त सम्राटों द्वारा जारी की गई मुद्राओं की अपेक्षा अधिक भार की मुद्रायें चलाईं। जबकि धातु की शुद्धता पहले से भी अधिक बढ़ा दी गई। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त का राज्य पूरी तरह समृद्ध था तथा राज्यकोष परिपूर्ण था। अनुमान है कि स्कन्दगुप्त के राज्य में सोना और चांदी सस्ते हो गये थे अतः मुद्रा का मूल्य बनाये रखने के मुद्रा के भार तथा शुद्धता में वृद्धि की गई।

चीन के साथ राजनीतिक सम्बन्ध

चीनी स्रोतों के अनुसार 466 ई. में एक भारतीय राजदूत सांग सम्राट के दरबार में गया। उस समय चीनी सम्राट् ने भारतीय नरेश को एक उपाधि प्रदान की जिसका अर्थ था- ‘अपना अधिकार सुदृढ़ रूप से स्थापित करने वाला सेनापति।’ अनुमान होता है कि यह राजदूत स्कन्दगुप्त द्वारा भेजा गया था क्योंकि इस उपाधि में स्कन्दगुप्त के राज्य की घटनाओं की झलक मिलती है।

उत्तर-पश्चिमी पंजाब का पतन

स्कंदगुप्त के शासन के अंतिम दिनों में हूणों ने उत्तर पश्चिमी पंजाब पर अधिकार कर लिया। यह संभवतः पहली बार था जब किसी आक्रांता ने गुप्तों से धरती छीनी हो।

प्रांतपतियों का विद्रोह

स्कन्दगुप्त के शासन के परवर्ती काल का कोई भी शिलालेख उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी मध्यप्रदेश से आगे नहीं मिलता। उसकी प्रारंभिक मुद्राओं पर परमभागवत महाराजाधिराज की उपधि मिलती है किंतु बाद के सिक्कों पर परहितकारी राजा की उपाधि उत्कीर्ण है।

इससे अनुमान है कि उसके शासन के अंतिम वर्षों में हूणों ने उसके राज्य का बहुत सा भाग दबा लिया जिससे उत्साहित होकर अन्य प्रांतपतियों ने भी विद्रोह करके स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी। काठियावाड़ में मैत्रकों ने वलभी को राजधानी बनाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। स्कंदगुप्त के शासन काल में ही मालवा भी हाथ से निकल गया था।

करद राज्यों का विद्रोह

स्कन्दगुप्त के शासन काल में ही एरण में परिव्राजकों का शासन हो गया था। यह पहले गुप्तों के अधीन एक करद राज्य था।

पश्चिमी राज्यों पर छोटे राज्यों की स्थापना: स्कन्दगुप्त के शासन काल में साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई।

स्कन्दगुप्त की पराजय एवं राज्य बिखरने के कारण

स्कन्दगुप्त के जीवन काल में ही राज्य में आई शिथिलता, हूणों से पराजय एवं राज्य के बिखरने के दो प्रमुख कारण जान पड़ते हैं-

1. उत्तराधिकारी का अभाव

स्कन्दगुप्त के कुछ सिक्के मिले हैं जिनमें एक स्त्री की प्रतिमा उत्कीर्ण है। स्त्री की प्रतिमा वाले सिक्के स्कन्दगुप्त के शासन काल के प्रारंभिक सिक्के हैं बाद के सिक्कों पर इस तरह की प्रतिमा नहीं है। कुछ इतिहासकार इसे स्कन्दगुप्त की रानी मानते हैं तो कुछ उसे लक्ष्मी की मूर्ति मानते हैं।

अधिकांश इतिहासकारों की राय है कि स्कन्दगुप्त अविवाहित था। उसके सिक्कों पर न रानी का उल्लेख मिलता है न किसी राजकुमार का। संभवतः यही कारण था कि सम्राट की वृद्धावस्था तथा उत्तराधिकारी के अभाव के कारण हूणों का सफलता पूर्वक प्रतिरोध नहीं किया जा सका।

सम्राट की वृद्धावस्था, पराजय एवं उत्तराधिकारी के अभाव से उत्साहित होकर करद राज्यों ने कर देना बंद कर दिया तथा प्रांतपतियों ने भी स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

2. बौद्ध धर्म का प्रभाव

स्कन्दगुप्त ने अपने प्रारंभिक सिक्कों में अपने आप को परमभागवत महाराजाधिराज घोषित किया है जबकि बाद के सिक्कों में परहितकारी कहकर अपनी दीनता प्रकट की है। कहला अभिलेख घोषणा करता है कि स्कन्दगुप्त  ने नालंदा में बौद्ध संघाराम का निर्माण करवाया। इन दों तथ्यों से अनुमान होता है कि बौद्ध धर्म में रुचि हो जाने के कारण स्कन्दगुप्त युद्धों के प्रति उदासीन हो गया। इसी कारण हूणों से उसकी पराजय हुई तथा प्रांतीय सामंतों एवं करद राज्यों ने उत्साहित होकर अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

निष्कर्ष

स्कन्दगुप्त की सफलताएं उसे अपने पूर्ववर्ती सम्राटों- चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त (द्वितीय) की पंक्ति में बैठाती हैं। उसके राज्य में पूर्ववर्ती समस्त राजाओं से अधिक समृद्धि थी। उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके कार्य समुद्रगुप्त की भांति महान थे किंतु वृद्धावस्था आ जाने के कारण, बौद्ध धर्म में आस्था होने के कारण, युद्धों से उदासीन होने के कारण तथा उत्तराधिकारी न होने के कारण राज्य के अंतिम वर्षों में शिथिलता आ गई। हूणों से मिली पराजय के बाद  राज्य बिखरने लगा।

स्कन्दगुप्त की मृत्यु

स्कन्दगुप्त की ज्ञात अंतिम तिथि गुप्त संवत् 148 अर्थात् 467 ई. है। विश्वास किया जाता है कि इसी वर्ष उसकी मृत्यु हुई।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल अध्याय – गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश

प्रारंभिक गुप्त शासक

काच

समुद्रगुप्त

रामगुप्त

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

गोविंद गुप्त बालादित्य

कुमार गुप्त प्रथम

स्कन्दगुप्त

गुप्त साम्राज्य का पतन

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

भारत का स्वर्णयुग गुप्त-काल

गुप्त कालीन भारत

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