Wednesday, April 30, 2025
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अशोक महान् (अध्याय 13)

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अशोक महान् - www.bharatkaitihas.com
अशोक महान्

अशोक महान् मौर्य राजवंश का तीसरा राजा था। वह चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र तथा बिन्दुसार का पुत्र था। उसका वास्तविक नाम अशोक था किंतु जवाहरलाल नेहरू ने अशोक को अशोक महान् तथा अकबर को अकबर महान् लिखा है, इस कारण इतिहास में उसे अशोक महान् के नाम से जाना जाता है।

मौर्य सम्राट बिन्दुसार के कई पुत्र तथा कन्याएँ थीं। अशोक उसका ज्येष्ठ पुत्र था जो बड़ा ही वीर तथा साहसी था। बौद्ध ग्रन्थ ‘दिव्यावदान’ में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगतशोक का उल्लेख मिलता है। सुसीम अशोक का सौतेला और विगतशोक उसका सगा भाई था। 273 ई.पू. में बिन्दुसार का निधन हो गया और उसका ज्येष्ठ पुत्र अशोक मगध के सिंहासन पर बैठा।

अशोक महान् का प्रारम्भिक जीवन

अशोक बिन्दुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त का पौत्र था। उसकी माता चम्पा-निवासी एक ब्राह्मण की कन्या थी। वह ब्राह्मण बिन्दुसार को अपनी रूपवती, दर्शनीय कन्या उपहार (भेंट) के रूप में दे गया था। अन्तःपुर की अन्य रानियाँ उसके असीम सौन्दर्य से आतंकित हो उठीं और उन्होंने उसे नाइन (नौकरानी) के रूप में रनिवास में रखा।

कालान्तर में सम्राट को इस रहस्य का पता लग गया और उसने उसे अपनी पटरानी बना लिया। ब्राह्मण-कन्या से बिन्दुसार के दो पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें से एक का नाम अशोक और दूसरे का विगतशोक रखा गया। अशोक की माँ का नाम कई ग्रन्थों में ‘धम्मा’ मिलता है परन्तु कुछ ग्रन्थों में उसे ‘सुभद्रांगी’ अर्थात् ‘अच्छे अंगों वाली’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका बचपन का नाम ‘धम्मा’ था। अत्यन्त रूपवती होने के कारण उसका नाम ‘सुभद्रांगी’ पड़ गया।

कुछ विद्वानों के विचार में अशोक सैल्यूकस की पुत्री का पुत्र था जिसका विवाह उसने चन्द्रगुप्त से परास्त होने के बाद बिन्दुसार के साथ कर दिया था, परन्तु इस बात का कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं है। अशोक के कई पत्नियाँ थी जिनमें से ‘देवी’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह विदिशा के एक श्रेष्ठी (व्यवसायी) की कन्या थी जिसका नाम देवी था। महेन्द्र तथा संघमित्रा इसी देवी की सन्तान थे जिन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ा योगदान दिया।

अशोक की दूसरी पत्नी का नाम पद्मावती था जिससे कुणाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। अशोक ने अपने पिता के जीवन काल में ही शासन का काफी अनुभव प्राप्त कर लिया था। वह अवन्ति (उज्जयिनी) तथा तक्षशिला का प्रान्तपति रह चुका था। इससे स्पष्ट है कि बिन्दुसार को अशोक की कार्य-कुशलता, विवेकशीलता तथा वीरता में पूरा विश्वास हो गया था अन्यथा वह सुदूरस्थ प्रान्तों में इतने महत्त्वपूर्ण पद पर उसे नियुक्त नहीं करता। 

अशोक महान् का सिंहासनारोहण

महावंश टीका में लिखा है कि बिन्दुसार के एक सौ पुत्र थे जिनमें विगतशोक ही अशोक का सगा भाई था। शेष समस्त भाई उसके सगे भाई न थे। इनमें सुमन अथवा सुसीम सबसे बड़ा था। अशोक सुमन से छोटा और शेष भाइयों से बड़ा था। वह अपने समस्त भाइयों से अधिक तेजस्वी था।

कहा जाता है कि अशोक ने अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या कर समस्त जम्बूद्वीप अर्थात् भारतवर्ष पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। यद्यपि भाइयों की हत्या की कथा कपोल-कल्पित और बौद्ध आचार्यों की मन-गढ़न्त प्रतीत होती है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अशोक को अपने बड़े सौतेले भाई सुसीम के साथ संघर्ष करना पड़ा था।

विभिन्न सूत्रों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार सुसीम को अधिक प्यार करता था और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण नैतिक दृष्टि से भी उसी को सिंहासन मिलना चाहिए था परन्तु अशोक अपने भाइयों में सर्वाधिक योग्य था और अवन्ति तथा तक्षशिला में सफलता पूर्वक शासन करके और तक्षशिला के विद्रोह को शान्त करके अपनी वीरता तथा शासन क्षमता का परिचय दे चुका था।

इसलिये प्रधानमन्त्री खल्वाटक तथा अन्य अमात्य उसी को राजा बनाना चाहते थे। फलतः जब बिन्दुसार की मृत्यु हो गई तब अशोक तथा सुसीम में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष का एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि अशोक का राज्याभिषेक उसके सिंहासनारोहण के चार वर्ष बाद हुआ था। सम्भवतः भाइयों के पारस्परिक संघर्ष के कारण ही यह विलम्ब हुआ।

अधिंकाश विद्वानों की धारणा है कि संभवतः इस युद्ध में सुसीम तथा उसके कुछ अन्य भाइयों की हत्या हुई। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके राज्याभिषेक के बाद भी उसके कई भाई जीवित थे। प्रतीत होता है कि बौद्ध आचार्यों ने इस बात को दिखाने के लिए कि बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लेने पर एक क्रूर तथा हत्यारा व्यक्ति भी उदार तथा दयावान् बन सकता है, अशोक द्वारा अपने 99 भाइयों की हत्या की कथा का आविष्कार किया गया।

अशोक महान् की विजयें

सिंहासनारोहण के उपरान्त अशोक ने अपने पिता बिन्दुसार तथा अपने पितामह चन्द्रगुप्त की साम्राज्य विस्तार नीति को जारी रखा। सैल्यूकस पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने विदेशियों के साथ मैत्री रखने तथा सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने का निश्चय किया था।

अशोक ने भी इसी नीति को अपनाया। उसने यूनानियों के साथ मैत्री भाव रखा और उनके साथ राजदूतों का आदान-प्रदान किया। उसने यूनानियों को राजकीय पदों पर भी नियुक्त किया। सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने के लिए उसने दिग्विजय की नीति का अनुसरण किया। उसने उन पड़ोसी राज्यों पर, जो साम्राज्य के बाहर थे, आक्रमण करना आरम्भ कर दिया।

काश्मीर विजय

राजतरंगिणी के अनुसार अशोक काश्मीर का प्रथम मौर्य  सम्राट था। उसने कश्मीर घाटी में श्रीनगर की स्थापना की थी। इससे कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि अशोक ने ही काश्मीर को जीतकर मगध साम्राजय में मिलाया था परंतु अशोक के बारे में विख्यात है कि उसने कलिंग के अतिरिक्त और कोई विजय नहीं की थी।

बिंदुसार ने भी साम्राज्य का विस्तार नहीं किया था। अतः काश्मीर विजय का श्रेय चंद्रगुप्त मौर्य को ही मिलना चाहिये। राजतरंगिणी के अतिरिक्त और किसी स्रोत से अशोक द्वारा काश्मीर जीतने की पुष्टि नहीं होती।

कंलिग विजय

कंलिग का राज्य अशोक के साम्राज्य के दक्षिण-पूर्व में जहाँ आधुनिक उड़ीसा का राज्य है, स्थित था। अशोक के सिंहासनारोहण के समय वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र था और उसकी गणना शक्तिशाली राज्यों में होती थी। कंलिग के राजा ने एक विशाल सेना का संगठन कर लिया था और अपने राज्य को सुदृढ़ बनाने में संलग्न था। ऐसे प्रबल राज्य का मगध-राज्य की सीमा पर रहना मौर्य साम्राज्य के लिये हितकर नहीं था।

इसलिये अपने सिंहासनारोहण के तेरहवें वर्ष और अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में अशोक ने कलिंग पर एक विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया। यद्यपि कंलिग की सेना बड़ी वीरता तथा साहस के साथ लड़ी परन्तु वह अशोक की विशाल सेना के सामने ठहर न सकी और अन्त में परास्त होकर भाग खड़ी हुई। कलिंग पर अशोक का अधिकार स्थापित हो गया। उसने अपने एक प्रतिनिधि को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया। इस प्रकार कंलिग मगध साम्राज्य का अंग बन गया।

कंलिग युद्ध के परिणाम

कंलिगयुद्ध का पहला परिणाम यह हुआ कि मगध साम्राज्य की सीमा में वृद्धि हो गई और अशोक की साम्राज्यवादी नीति पूर्ण रूप से सफल सिद्ध हुई। अब उसका राज्य पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैल गया।

कंलिग विजय का दूसरा परिणाम यह हुआ कि इसमें भीषण हत्याकांड हुआ। कहा जाता है कि इस युद्ध में हताहतों की संख्या दो लाख पचास हजार से अधिक थी जिनमें सैनिकों के साथ-साथ साधारण जनता भी सम्मिलित थी। इस भीषण रक्तपात के पश्चात् कंलिग में भयानक महामारी फैली जिसने असंख्य प्राणियों के प्राण ले लिये।

अशोक के हृदय पर कंलिग-युद्ध के भीषण नर-संहार का गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सकंल्प किया कि भविष्य में वह युद्ध नहीं करेगाा और युद्ध के स्थान पर धर्म-यात्राएँ करेगाा। अब युद्ध-घोष के स्थान पर धर्म-घोष हुआ करेगा और सबसे मैत्री तथा सद्भावना रखी जायेगी। यदि कोई क्षति भी पहुँचायेगाा तो सम्राट् उसे यथा सम्भव सहन करेगा। अशोक ने न केवल स्वयं युद्ध न करने का निश्चय किया वरन् अपने पुत्र तथा पौत्र को भी युद्ध न करने का आदेश दिया।

कुछ इतिहासकारों के विचार में अशोक की युद्ध न करने की नीति का बुरा राजनीतिक प्रभाव पड़ा। जिससे भारत की सैनिक शक्ति उत्तरोत्तर निर्बल होती गई, विदेशियों को भारत पर आक्रमण करने का दुःसाहस हुआ और उन्होंने विभिन्न भागों पर अधिकार स्थापित कर लिया। भारत पर इस युद्ध का गहरा धार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा।

अशोक ने इस युद्ध के उपरान्त बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया और उसके प्रचार का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् विदेशों में भी प्रचार हो गया। अशोक ने जिन देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार करवाया उनके साथ उसने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इससे उन देशों के साथ भारत का व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और उन देशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हो गया।

कंलिग युद्ध का महत्त्व

कंलिग युद्ध का भारत के इतिहास में बहुत बड़ा महत्त्व है। इसका न केवल राजनीतिक वरन् सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बहुत बड़ा महत्त्व है। वास्तव में यहीं से भारत के इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है।

यह युग है शान्ति तथा सदभावना का, सामाजिक सुधार का, नैतिक उन्नति का, धार्मिक प्रचार का, आर्थिक समृद्धि का, साम्राज्य-विस्तार के विराम का, सैनिक हा्रस का तथा बृहत्तर भारत के प्रसार का। यहीं से उस साम्राज्यवादी नीति का अन्त हो जाता है जिसका प्रारम्भ चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था।

राजनीति में अहिंसा की नीति के अनुसारण से भारत का सैनिक बल समाप्त हो गया और वह पतनोन्मुख हो गया परन्तु अशोक ने अपनी सारी शक्ति प्रजा की आर्थिक तथा आध्यात्मिक उन्नति में लगा दी। भारतीय इतिहास में अन्तर्राष्ट्रीयता का युग यहीं से आरम्भ होता है और भारत की कूप-मण्डूकता समाप्त होती है।

प्रायः युद्ध में विजय प्राप्त करने से विजय-कामना प्रबल हो जाती है परन्तु कंलिग-युद्ध, प्रथम उदाहरण है जब इसके विजेता ने सैनिक सन्यास ले लिया और भविष्य में युुद्ध न करने का निश्चय किया। यहीं से अशेक की महानता का बीजारोपण हुआ और यह भारतीय नरेशों का शिरोमणि बन गया।

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने कंलिग युद्ध का महत्त्व बताते हुए लिखा है- ‘कंलिग युद्ध ने अशोक के जीवन को एक नया मोड़ दिया और भारत तथा सम्पूर्ण विश्व के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।’

डॉ. एन. एन. घोष ने लिखा है- ‘अशोक ने अपनी तलवार को म्यान में रख लिया और धर्म-चक्र को ग्रहण कर लिया।’

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘अब भेरि-घोष के स्थान को धर्म-घोष ग्रहण करेगा।’

अशोक महान् का शासन

अशोक की ‘युद्ध-विराम-नीति’ का बड़ा परिणाम यह हुआ कि सारी शक्ति प्रशासकीय विभागों में नियोजित हो गई। अशोक सिंहासन पर बैठने के पूर्व ही, अवन्ति तथा तक्षशिला के प्रान्तपति के रूप में पर्याप्त प्रशासकीय अनुभव प्राप्त कर चुका था। इसलिये उसे अपने पूर्वजों के शासन को संभालने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

अपने शासन के प्रारम्भिक काल में उसने अपने पूर्वजों की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उनके द्वारा स्थापित शासन-व्यवस्था के अनुसार शासन चलाता रहा। शासन का स्वरूप स्वेच्छाचारी, निरंकुश राजतन्त्र था और केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन पूर्ववत् चलता रहा।

पुरानी मन्त्रि-परिषद तथा विभागीय अध्यक्ष अन्य कर्मचारियों की सहायता से शासन को चलाते रहे परन्तु कलिंग-युद्ध के उपरान्त अशोक ने अपने शासन में नये सिद्धान्तों तथा आदर्शों का समावेश किया। ये आदर्श तथा सिद्धान्त निम्नांकित थे-

अशोक ने अपने शासन का आधार प्रजा-पालन तथा उसके हित-चिन्तन को बनाया। उसने अपनी प्रजा को संतान मानकर उसके अनुकूल आचरण करना आरम्भ किया।

अपने द्वितीय कंलिग शिलालेख में अशोक कहता है- ‘समस्त मनुष्य मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार मैं चाहता हूँ कि मेरी सन्तान इस लोक तथा परलोक में सब प्रकार की समृद्धि तथा सुख भोगे, ठीक उसी प्रकार मैं अपनी प्रजा के सुख तथा उसकी समृद्धि की कामना करता हूँ।’

अपने चौथे स्तम्भ-लेख में अशोक ने पितृत्व की भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है- ‘जिस प्रकार मनुष्य अपनी संतान को अपनी चतुर धाय के हाथ में सौप कर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि वह उस बालक को यथा-शक्ति सुख देने की चेष्टा करेगी, उसी प्रकार अपनी प्रजा के सुख तथा हित-चिन्तन के लिए मैने ‘राजुक’ नामक कर्मचारी नियुक्त किये हैं।’

अशोक अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘मैंने यह प्रबन्ध किया है कि सब समय में, चाहे मैं भोजन करता रहूँ, चाहे अन्तःपुर में रहूँ, चाहे शयनागार में, चाहे उद्यान में, सर्वत्र मेरे ‘प्रतिवेदक’ (संवाददाता) प्रजा के कार्य की सूचना मुझे दें। मैं प्रजा का कार्य सर्वत्र करूंगा। मैं समस्त कार्य इस दृष्टि से करता हूँ कि प्राणियों के प्रति मेरा जो ऋण है उससे मैं उऋण हो जाऊँ और न केवल इस लोक में लोगों को सुखी करूँ वरन् परलोक में उन्हें स्वर्ग-लोक का अधिकरी बनाऊँ।’

इस प्रकार अशोक ने शासन में नैतिक तथा लोक-मंगलकारी सिद्धान्तों तथा आदर्शों का सूत्रपात किया।

अशोक को अपने आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिये अपने पूर्वजों की शासन व्यवस्था में थोड़ा बहुत परिवर्तन भी करना पड़ा। चूँकि प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति करना अशोक के शासन का परम आदर्श था, इसलिये उसने नये पदाधिकारियों की नियुक्ति की जो ‘धर्म-महामात्र’ कहलाये।

इनका प्रधान कार्य अकारण दण्डित व्यक्तियों को दण्ड से मुक्त करवाना, ऐसे दण्डित व्यक्तियों के दण्ड को कम करवाना जो वृद्ध हों अथवा जिनके आश्रित बहुत से बाल-बच्चे हों; और विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के हित की चिन्ता करना था। उसने कुछ पुराने पदाधिकारियों के कार्यों में भी वृद्धि कर दी।

अपने तीसरे शिलालेख में अशोक करता है- ‘राज्य के युक्त, राजुक तथा प्रादेशिक नामक पदाधिकारी भविष्य में अपने नियत कार्यों के अतिरिक्त प्रति पांचवें वर्ष दौरा करके धर्म का प्रचार करें।’

उदार तथा लोक-मंगलकारी नीति के कारण अशोक को न्याय व्यवस्था में भी कई परिवर्तन करने पड़े। उसके पूर्वजों के काल का दण्ड विधान बड़ा कठोर था। अशोक ने उसमें उदारता का संचार कर दिया।

उसके चौथे शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने यह आज्ञा दे रखी थी कि यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदण्ड मिलता हो तो उसे मृत्युदंड देने के पहले तीन दिन का अवकाश देना चाहिये, जिससे वह अवकाश के समय में अपने पापों का प्रायश्चित कर सके, अपने विचारों को सुधार सके तथा कुछ धार्मिक कृत्य कर सके जिससे उसका परलोक सुधर सके। उसके पांचवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह प्रति वर्ष अपने राज्याभिषेक दिवस पर बंदियों को मुक्त करता था।

न्याय व्यवस्था में अशोक ने एक और प्रशंसनीय सुधार किया। उसने ‘राजुकों’ (न्यायाधीशों) को पुरस्कार तथा दण्ड देने की पूरी स्वतन्त्रता दे दी जिससे वे आत्म-विश्वास तथा निर्भीकता के साथ अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकें और जनता की अधिक से अधिक सेवा कर सकें। 

अशोक ने अपनी प्रजा के जीवन तथा सम्पति की रक्षा की समुचित व्यवस्था करने के साथ-साथ उसके नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए समुचित वातावरण तैयार करवाया। उसने राज्य के कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का सदैव ध्यान रखें।

अशोक ने उन समारोहों, उत्सवों तथा अनुष्ठानों को बन्द करवा दिया जिनमें मांस, मदिरा तथा नाच गाने का प्रयोग होता था। इनके स्थान पर उसने धर्म समाजों की स्थापना करवाई जिससे प्रजा में धार्मिक भावना तथा नैतिक बल उत्पन्न हो। विहार (आनन्द) यात्राओं के स्थान पर अब उसने धर्म-यात्राओं को प्रोत्साहन दिया और स्वयं धर्म-यात्राएँ करने लगा। अशोक ने स्वयं अपनी प्रजा के समक्ष अपने उच्च एवं पवित्र नैतिक आचरण का आदर्श रखा, जिसका उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा।

अशोक ने अनेक लोक-मंगलकारी कार्य करवाये। उसने सड़कें बनवाईं, उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये और कुएँ तथा बावलियाँ खुदवाईं। पानी में उतरने के लिए उसने सीढ़ियाँ बनवाईं। राज्य की ओर से आम तथा बरगद के पेड़ लगवाये जाते थे जिससे उनकी सघन छाया में मनुष्य तथा पशु दोनों ही विश्राम कर सकें। सम्राट्, रानी तथा राजकुमारों की अपनी अलग-अलग दानशालाएँ होती थीं जिनमें दीन दुखियों को निःशुल्क भोजन तथा वस्त्र मिलता था।

अशोक की उदारता तथा दया केवल मनुष्यों तक ही सीमित न रही वरन् वह पशु-पक्षियों तक पहुँच गई थी। उसने न केवल मनुष्यों वरन् पशु-पक्षियों के लिए भी औषधालय बनवाये। औषधि की सुविधा के लिए जड़ी-बूटियों के पौधे भी लगवाने का प्रबन्ध किया। उसके प्रथम शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने आदेश दे रखा था कि उसकी राजधानी में किसी पशु की हत्या न की जाय। यह आदेश उसके अंहिसात्मक बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने का फल था।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि अशोक का शासन बड़ा उदार तथा लोक-मंगलकारी था। उसने अपनी प्रजा को न केवल भौतिक सुख प्रदान किया वरन् उनकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का भी यथाशक्ति प्रयत्न किया। स्मिथ ने अशोक को बड़ा ही सफल शासक बताया है।

स्मिथ लिखता है- ‘यदि अशोक योग्य न होता तो अपने विशाल साम्राज्य पर चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन न किये होता और ऐसा नाम न छोड़ गया होता जो दो हजार वर्षों के व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी लोगों की स्मृति में अब भी ताजा बना हुआ है।’

अशोक महान् का धम्म

अशोक के शिलालेखों में धम्म शब्द का बार-बार प्रयोग हुआ है। इस धम्म का वास्तविक अर्थ क्या है तथा वह किस धर्म का अनुयायी था, इस विषय पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है। भिन्न-भिन्न इतिहासकारों ने अशोक के धम्म के बारे में भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये हैं। हेरास के विचार में अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था।

डॉ. एफ. डब्लू. टामस के मतानुसार वह जैन धर्म का अनुगमन करता था। डॉ. फ्लीट ने उसके धम्म को राज-धर्म बताया है तथा भण्डारकर ने उसके धम्म को उपासक बौद्ध-धर्म बताया है जिसे महात्मा बुद्ध ने गृहस्थों के लिए प्रतिपादित किया था और जिसमें केवल व्यावहारिक सिद्धान्तों को ग्रहण किया गया था।

विन्सेंट स्मिथ तथा डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अशोक के धम्म को सार्वभौम धर्म माना है जिसमें समस्त धर्मों के अच्छे गुण सन्निहित हैं और जो किसी भी एक धर्म की सीमा में नहीं समा सकता। इन समस्त मतों में सत्य का थोड़ा-बहुत अंश विद्यमान है परंतु वास्तविकता यह है कि अशोक के धार्मिक विचारों में समय-सम पर क्रमिक विकास होता चला गया।

(1) ब्राह्मण धर्म

अपने जीवन के प्रारंभिक-काल में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। काश्मीरी लेखक कल्हण के मतानुसार वह शिव का उपासक था और पशु तथा मनुष्य की हत्या का विरोधी नहीं था। सम्राट के भेजनालय में शोरबा बनाने के लिए प्रतिदिन सहस्रों पशुओं की हत्या की जाती थी।

अपने पूर्वजों की भांति उसकी भी युद्ध में रुचि थी और उसे मनुष्यों का हत्याकांड कराने में संकोच नहीं होता था। अशोक का इस प्रकार का आचरण केवल कलिंग युद्ध तक ही रहा। इसलिये यह कहा जा सकता है कि अपने प्रारंम्भिक जीवन से कलिंग के युद्ध तक अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था तथा उस युग में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार क्षात्र-धर्म का पालन करता था।

(2) बौद्ध धर्म

कलिंग युद्ध में हुए भीषण हत्याकांड के पश्चात् अशोक ने भविष्य में युद्ध न करने तथा प्राणी मात्र पर दया करने का निश्चय किया। अपने इस निश्चय के फलस्वरूप उसे ब्राह्मण धर्म को, जो शत्रुसंहारक अवधारणा पर आधारित था, त्याग देना पड़ा। उसे ऐसे धर्म में दीक्षित होने की आवश्यकता पड़ी, जो अहिंसक-धर्म हो और प्राणी मात्र पर दया करना सिखलाये।

भारतवर्ष में उस समय दो ऐसे धर्म थे, जो अहिंसा के पोषक थे और सत्कर्म तथा सदाचार पर बल देते थे। ये थे- जैन तथा बौद्ध धर्म। अशोक इन्हीं दोनों में से एक का अनुयायी बन सकता था। जैन-धर्म के कठोर नियमों तथा कठिन तपस्या के कारण अशोक ने इस बात का अनुभव किया कि उसकी प्रजा इसका अनुसरण न कर सकेगी।

इसलिये उसने अत्यंत सरल तथा व्यावहारिक बौद्ध धर्म को स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। ‘दीपवंश’ तथा ‘महावंश’ के अनुसार न्यग्रोध नामक व्यक्ति ने अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। ‘दिव्यावदान’ के अनुसार बालपण्डित अथवा समुद्र ने उसे बौद्ध बनाया था।

विभिन्न साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में अशोक एक उपासक के रूप में बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ था परन्तु कलिंग युद्ध के एक वर्ष उपरान्त अर्थात् अपने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में वह बौद्ध-संघ में सम्मिलत हो गया और उसके नियमों का पालन करने लगा।

बौद्ध-धर्म में दीक्षित होने के उपरान्त अशोक ने पहला काम यह किया कि उसने बुद्ध के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले तीर्थ स्थानों की यात्रा की। सर्वप्रथम वह स्थविर उपगुप्त के साथ लुम्बिनी गया, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। उसने लुम्बनी में लगने वाले धार्मिक कर को बंद कर दिया और अन्य करों को भी 1/2 से घटा कर 1/8 कर दिया।

इस प्रकार अशोक महान् ने उपास्य-देव की जन्म भूमि में अपनी दया तथा उदारता का परिचय दिया। लुम्बिनी से अशोक कपिलवस्तु गया, जहाँ बुद्ध का शैशवकाल व्यतीत हुआ था। यहाँ से वह उपगुप्त के साथ बुद्धगया पहुंचा जहाँ उसने बोधि वृक्ष के दर्शन किये जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।

यहाँ से अशोक महान् काशी के निकट सारनाथ गया, जहाँ बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों को अपना प्रथम उपदेश दिया था। अन्त में वह कुशीनगर गया, जहाँ बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था। वह बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अन्य स्थानों पर भी गया। अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को एकत्र किया और उन्हें फिर से वितरित कर उन पर स्मारक बनवाये।

अशोक महान् ने बौद्ध-संघ में उत्पन्न फूट को दूर करने का प्रयत्न किया। उसने संघ में फूट पैदा करने वाले भिक्षुओं को संघ से निष्कासित करने की व्यवस्था की। उसने राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध-संगीति बुलवाई और बौद्ध-धर्म के अनुयायियों में जो मतभेद उत्पन्न हो गया था उसको दूर करने का प्रयत्न किया।

अशोक महान् ने बौद्ध-धर्म के प्रचार का भी तन-मन-धन से प्रयत्न किया। ये सब बातें तथा उसके हिंसा-निषेधक कार्य सिद्ध करते हैं कि अशोक बौद्धधर्म का अनुयायी था। चीनी यात्रियों ने भी उसे बौद्ध धर्म का अनुयायी स्वीकार किया है।

अशोक को बौद्ध-धर्म का अनुयायी स्वीकार कने में केवल यही कठिनाई हो सकती है कि उसने बौद्ध-धर्म के चार आर्य-सत्यों अर्थात् दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध तथा दुःख निरोध मार्ग का कहीं उल्लेख नहीं किया है। इस आपत्ति को यह कहकर दूर किया जा सकता है कि अशोक बौद्ध-धर्म के केवल उन नियमों का पालन कराना चाहता था, जो गृहस्थों के लिये थे, उनका नहीं जो भिक्षुओं के लिए थे।

(3) जैन धर्म

डॉ. एफ. डब्लू. टामस के मतानुसार अशोक जैन धर्म का अनुगमन करता था। इस मत के पक्ष में कहने के लिये अधिक बातें नहीं हैं। यह मत केवल इस अनुमान पर आधारित है कि अशोक का धम्म पूर्ण अहिंसा के सिद्धांत पर खड़ा था जो कि जैन धर्म के अहिंसा के विचार से मेल खाती हैं।

साथ ही इस मत के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम समय में जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इसलिये अशोक ने अपने पिता द्वारा अपनाये गये धर्म का ही पालन किया किंतु अशोक जैन धर्म का अनुयायी था, इस बात के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(4) अशोक का धम्म

अशोक ने अपने ‘धम्म’ की व्याख्या अपने अभिलेखों में की है जिनका अध्ययन करने से उसके ‘धम्म’ के सार का पता लगता है। अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक स्वयं पूछता है कि धम्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह स्वयं कहता है कि धम्म पापहीनता है, बहुकल्याण है, दया है, दान है, सत्य है, शुद्धि है।

अपने धम्म के अन्यान्य आचार तत्वों का उल्लेख करते हुए अशोक अपने द्वितीय लघु शिलालेख में कहता है कि माता-पिता की उचित सेवा, सर्व प्राणियों के प्रति आदर-भाव तथा सत्यता गुरुतर सिद्धांत हैं। इन धर्म-गुणों की वृद्धि होनी चाहिये। इसी भांति शिष्यों को गुरुओं का उचित आदर करना चाहिये तथा सम्बन्धियों से उचित व्यवहार उत्तम है।

ग्यारहवें शिलालेख में अशोक अपने धम्म के अन्यान्य तत्वों का उल्लेख करते हुए कहता है- ‘दासों, भृत्यों तथा वेतन भोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार, माता-पिता की सेवा, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों ब्राह्मणों, श्रमणों और साधुओं के प्रति उदारता, प्राणियों में संयम तथा पशु बलि से विरतता ही धम्म है।’

अशोक के ‘धम्म’ का स्वरूप दो प्रकार का है, एक आदेशात्मक और दूसरा निषेधात्मक। माता पिता की सेवा करना, गुरुजनों का आदर करना; मित्रों, परिजनों, सम्बन्धियों, दासों, भृत्यों तथा वेतन-भोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार करना, ब्राह्मणों, श्रमण तथा साधुओं के प्रति उदारता दिखलाना और प्राणी-मात्र पर दया करना, अशोक के ‘धम्म’ का अभिलेखीय सार तथा उसका आदेशात्मक स्वरूप है।

अशोक ने कुछ दुर्गुणों तथा कुप्रवृत्तियों का भी निषेध किया है जो धर्म में बाधक सिद्ध होती हैं। ये कुप्रवृत्तियां उग्रता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या आदि हैं। इनको अशोक ने पाप कहा है। इन सब कुप्रभावों को मन में नहीं आने देना चाहिए। यही अशोक के ‘धम्म’ का निषेधात्मक स्वरूप है।

प्रत्येक धर्म के दो स्वरूप होते हैं। एक कर्मकांड मूलक और दूसरा आचार मूलक। कर्मकांड में विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान तथा समारोह किये जाते हैं तथा आचार मूलक में अच्छे आचार पर बल दिया जाता है। अशोक ने अपने ‘धम्म’ में कर्मकांडमूलक रूप को हतोत्साहित और आचार मूलक रूप को प्रोत्साहित किया है।

लोग अनेक प्रकार के मंगल-कार्य करते हैं परन्तु अशोक ने इन्हें निस्सार बताया है। वह इनके स्थान पर धर्म-मंगल करने पर बल देता है जो निश्चित रूप से फलदायक होता है। दासों और वेतन भोगी सेवकों से उचित व्यवहार करना, गुरुजनों का आदर करना, प्रणियों के प्रति अहिंसात्मक व्यवहार करना, ब्राह्मण और श्रमणों को दान देना तथा अन्य ऐसे कार्य धर्म-मंगल कहलाते हैं।

इसी प्रकार अशोक ने धर्म-दान को साधारण दान से अधिक उत्तम बताया है। दासों और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार करना, माता-पिता की सेवा करना, मित्रों, परिचितों, संबंधियों, असहायों, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति उदारता दिखलाना और अहिंसा करना ही धर्म-दान हैं। अपने तेरहवें शिला-लेख में अशोक ने धर्म विजय को साधारण विजय से अधिक कल्याणकारी बताया है।

(i) व्यवहारिक धर्म

अशोक महान् ने अपनी प्रजा से जिन आदेशों का अनुसरण करने के लिए कहा, उन उपदेशों को उसने स्वयं अपने जीवन व्यवहार में लाकर चरितार्थ किया। उसने हिंसात्मक परम्पराओं को बन्द करवाया। अशोक ने उन विहार-यात्राओं को त्याग दिया जिनमें आखेट द्वारा मनोरंजन किया जाता था।

अशोक महान् ने विहार यात्राओं के स्थान पर धर्म-यात्राएं आरम्भ की, जिनमें दर्शन, दान तथा उपदेशों का आयोजन रहता था। अशोक के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पूर्व उसकी पाकशाला में सहस्रों पशुओं तथा पक्षियों की हत्या होती थी।

उसके प्रथम शिलालेख से ज्ञात होता है कि अशोक महान् ने यह आज्ञा दे दी थी कि उसकी पाकशाला में केवल तीन पशुओं अर्थात् दो मोर तथा एक मृग का वध हो। वह भी सदैव नहीं। भविष्य में यह भी बन्द कर दिया जाय। इस प्रकार अपने भोजनागार में भी उसने हिंसा को बन्द करवा दिया। सत्य बात तो यह है कि उसका धर्म उसके शासन तथा जीवन का एक अविच्छिन्न अंग बन गया था।

(ii) राज-धर्म

फ्लीट के अनुसार अशोक ने अपने अभिलेखों में जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वह वस्तुतः राज-धर्म है। भारतीय व्यवस्थाकारों ने राजा के लिये कतिपय कर्तव्याकर्तव्यों अथवा विधि निषेधों का उल्लेख किया है। इनके आधार पर ही राजा को अपना शासन संचालित करना चाहिये। महाभारत में इस राज-धर्म का सविस्तार वर्णन है। अशोक के अभिलेखों में वर्णित धम्म भी महाभारत के उस राजधर्म से मेल खाता है। अतः फ्लीट के अनुसार अशोक के धम्म को भी राज-धर्म ही समझना चाहिये।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार अशोक के अभिलेखों में वर्णित धम्म को राजधर्म मानने में कठिनाई यह है कि राजधर्म राजा के लिये होता है, प्रजा के लिये नहीं, जबकि अशोक के शिलालेखों में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, उनमें राजा ने स्वयं द्वारा किये जा रहे धम्म के पालन के साथ-साथ उन बातों पर भी जोर दिया है जिन बातों का पालन वह प्रजा से करवाना चाहता था।

वास्तव में देखा जाये तो महाभारत में वर्णित राजधर्म के अनुसार राजा को प्रजा की भौतिक उन्नति के साथ उसकी नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का भी प्रयास करना चाहिये। अशोक के स्तम्भ लेखों में वर्णित वे बातें जो प्रजा के पालन के लिये लिखी गई हैं, राजधर्म का ही हिस्सा हैं। अतः निष्कर्ष रूप में अशोक के धम्म को यदि राज-धर्म स्वीकार कर लिया जाये, तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।

(iii) सार्वभौम-धर्म

अशोक का धार्मिक विचार तब उच्चता की पराकाष्ठा को पहुंच जाता है और उसका धर्म सार्वभौम धर्म बन जाता है, जब वह विभिन्न धर्मों की बाह्य विभिन्नता की उपेक्षा करके उनके आन्तरिक तत्त्वों पर बल देता है। अब अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण इतना व्यापक हो जाता है कि वह किसी धर्म-विशेष का अनुयायी नही रह जाता वरन् वह एक नये धर्म का संस्थापक बन जाता है जो अशोक के ‘धम्म’ के नाम से विख्यात हुआ।

अशोक महान् का वह ‘धम्म’ सर्व-मंगलकारी है और उसका उद्देश्य प्राणी-मात्र का उद्धार करना है। यह धर्म अत्यंत सरल, व्यावहारिक, सर्वग्राह्य तथा सर्वमान्य है। दान देना, सब पर दया करना, सत्य बोलना, सबके कल्याण की चिन्ता करना, अपनी आत्मा तथा विचारों को शुद्ध रखना और किसी प्रकार के पापकर्म न करना, यही अशोक के ‘धम्म’ के प्रधान लक्षण थे।

अपने बारहवें शिलालेख में अशोक महान् ने सब धर्मों के सार की वृद्धि की कामना की है। यह सब सर्व धर्म सार समन्वित उसका अपना ‘धम्म’ था। सब धर्मों के सार की वृद्धि तभी हो सकती है जब मनुष्य दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु हो। इसी ध्येय से अशोक ने अपने बारहवें शिलालेख में यह परामर्श दिया है कि मनुष्य को दूसरे के भी धर्म को सुनना चाहिए।

अशोक का कहना है कि जो मनुष्य अपने धर्म को पूजता है और अन्य धर्मों की निन्दा करता है वह अपने धर्म को बड़ी क्षति पहुंचाता है। इसलिये लोगों में वाक्-संयम होना चाहिए अर्थात् संभल कर बोलना चाहिए। यह अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का अभिलेखीय प्रमाण है जो आज भी हमारा पथ प्रदर्शन कर सकता है।

अशोक के इन आदेशों तथा कामनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि वह समस्त धर्मों के मध्य बड़ा है और किसी से अपने को संलग्न न करते हुए उनमें मेल तथा सद्भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है। वह अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘सर्वत्र समस्त धर्म वाले एक साथ निवास करें।’

अशोक महान् के अनेक अभिलेखों में ब्राह्मणों तथा श्रमणों को समान रूप से सम्मानित किया गया है। उसके आठवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि अपनी धर्म यात्राओं में वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों दोनों के ही दर्शन करता था और उन्हें दान देता था। उसके बारहवें अभिलेख में कहा गया है कि देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा सब धर्मों तथा सम्प्रदायों, साधुओं और गृहस्थों को दान तथा अन्य प्रकार की पूजा से सम्मानित करता है।

अशोक महान् के धम्म की उपर्युक्तु विवेचना से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि अशोक कलिंग युद्ध के पूर्व ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। कलिंग युद्ध के उपरान्त वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया और अन्त में उसने अपने नये धर्म की स्थापना की जिसे सार्वभौम धर्म कहने में संकोच नहीं होना चाहिए।

वह धर्म अत्यंत सरल, व्यावहारिक तथा आचार-मूलक था, जिसका अनुगमन उसकी प्रजा आसानी से कर सकती थी। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। अशोक के धर्म को राज धर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें न केवल राजा का वरन् प्रजा का हित भी निहित था।

(iv) प्राणी-मात्र का धर्म

अशोक का ‘धम्म’ मानव-जाति के लिए ही नहीं वरन् समस्त प्राणी-मात्र के लिये था। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा उसके ‘धम्म’ का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धन्त था। वह अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘मार्गों में मैंने वट-वृक्ष लगवाये जिससे वे पशुओं तथा मनुष्यों को छाया दें। मनुष्यों तथा पशुओं को सुख देने के लिए मैने अनेक आम्र-कुंज लगवाये।’

अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक कहता है, ‘मैंने मनुष्यों और पशु-पक्षियों तथा जानवारों के प्रति यथेष्ट तथा अनेक प्रकार से उदारता तथा अनुग्रह किये हैं।’

इस प्रकार अशोक ने प्राणी-मात्र पर दया करके अपने ‘धम्म’ की सर्वव्यापकता का परिचय दिया।

अशोक महान् द्वारा धर्म प्रचार

अशोक ने अपनी प्रजा के कल्याण के लिये न केवल धार्मिक उपदेश प्रस्तुत किये अपितु धर्म के प्रचार के लिये भी विशेष प्रयास किये। उसका उद्देश्य था कि उसका धर्म न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित हो जाये। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने निम्नलिखित कार्य किये-

(1) सम्राट द्वारा धर्म का पालन

अशोक ने जिस धर्म का प्रतिपादन तथा प्रचार किया उसका स्वयं अपने जीवन में पालन भी किया। कलिंग-युद्ध के उपरान्त उसने अहिंसा-धर्म को स्वीकार कर लिया और जीवन-पर्यन्त अहिंसा-धर्म का पालन किया। उपदेशक के रूप में वह बौद्ध-धर्म में प्रविष्ट हुआ। उसने जीवन भर सक्रिय रूप से संघ की सेवा की और एक भिक्षु की भांति त्यागमय जीवन व्यतीत किया। अशोक के त्यागमय जीवन, धर्म-परायणता तथा निष्ठा का उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और प्रजा ने सम्राट् के आदर्शों का अनुगमन करना आरम्भ कर दिया।

(2) धम्म को राज-धर्म बनाना

अशोक ने अपने धर्म को राज-धर्म बना दिया। उसने न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन को धर्ममय बनाया वरन् सम्पूर्ण शासन को धर्ममय बना दिया। राज्य उसके लिए साध्य न था वरन् धार्मिक आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए साधन बन गया। उसने अपने राज्य की सम्पूर्ण शक्ति तथा साधनों को धर्म प्रचार में लगा दिया। राज-धर्म बन जाने से अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी इसको अपनाया तथा आश्रय दिया जिससे अशोक की मृत्यु के उपरान्त भी यह जीता-जागता रहा।

(3) धर्म-विभाग की स्थापना

अपने धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने एक अलग धर्म-विभाग की स्थापना की। इस विभाग के प्रधान पदाधिकारी ‘धर्म-महामात्र’ कहलाते थे। इन धर्म-महामात्रों को यह आदेश दिया गया कि वे प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का अधिक से अधिक प्रयत्न करें। धर्म-महामात्र घूम-घूम कर अशोक के धर्म का प्रचार करते थे।

(4) धर्म यात्राएँ

अशोक महान् ने मनोरंजन के लिए की जाने वाली विहार-यात्राओं को बन्द करवा दिया और उनके स्थान पर धर्म-यात्राएं करने लगा। इन धर्म-यात्राओं में ब्राह्मणों तथा श्रमणों का दर्शन किया जाता था और उन्हें दान दिया जाता था। स्थविरों का दर्शन करके उन्हें स्वर्ण-दान दिया जाता था। इन यात्राओं में लोगों से धर्म की चर्चा की जाती थी और उनके प्रश्नों का उत्तर दिया जाता था।

(5) धर्म-श्रावण

अपने धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने धर्म-श्रावण की व्यवस्था की। उसके सातवें स्तंभ लेख से प्रकट होता है कि अशोक समय-समय पर अपनी प्रजा को धर्म का सन्देश देता था। यही सन्देश धर्म-श्रावण कहलाते थे। ऐसे अवसरों पर धर्म के सम्बन्ध में भाषण आदि दिये जाते थे। राजुक, प्रादेशिक, युक्त आदि राज्य कर्मचारी भी इस कार्य में सहायता देते थे।

(6) धार्मिक प्रदर्शन

प्रजा के हृदय में स्वर्ग प्राप्ति की कामना बढ़े और वे धर्म-निष्ठ होकर सदाचार करें, इस उद्देश्य से अशोक ने प्रजा को दिव्य रूपों का दर्शन कराना आरम्भ किया। उसने स्वर्ग में जाते हुए विमानों आदि का प्रदर्शन कराया और उन्हें स्वर्ग-प्राप्ति का के लिये प्रेरित करने का प्रयास दिया।

(7) धर्म-मंगल

अशोक ने सधारण मंगल को, जिसके अनुसार विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्य तथा अनुष्ठान किये जाते थे, अनुचित तथा निष्फल बताकर धर्म-मंगल करने का उपदेश दिया। धर्म-मंगल को अशोक ने सार्थक तथा लाभदायक बतलाया। धर्म-मंगल सदाचार द्वारा किये जा सकते थे। इसलिये सम्राट ने आचरण की सभ्यता पर सर्वाधिक जोर दिया। बौद्ध-धर्म में आचरण की सभ्यता को प्रधानता दी गई है।

(8) दान-व्यवस्था

अशोक द्वारा धर्म-प्रचार के लिये आरम्भ की गई दान व्यवस्था का प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजधानी तथा अन्य स्थानों पर रोगियों, भूखों तथा दुःखी मनुष्यों को राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था की गई। यह दान व्यक्तियों तक ही सीमित न था, वरन् संस्थाओं को भी दिया जाता था। इन संस्थाओं में धार्मिक संस्थाओं का प्रमुख स्थान था। इस राजकीय सहायता से धर्मिक संस्थाओं को धर्म के प्रचार में बड़ा प्रोत्साहन मिला।

(9) लोक-हित के कार्य

अशोक ने लोक-हित के अनेक कार्यों को करके अहिंसा-धर्म को अत्यंत प्रिय बना दिया। उसने मुनष्य तथा पशुओं की चिकित्सा के लिए देश तथा विदेशों में भी औषधालय बनवाये और औषधियों के उद्यान लगवाये। इसी प्रकार के अन्य लोक-मंगलकारी कार्यों को करके अशोक ने प्राणी-मात्र पर दया दिखाने का उपदेश दिया।

(10) पशु-वध-निषेध

अशोक ने पशुओं के वध का निषेध करके तथा प्राणी मात्र पर दया दिखलाने का उपदेश देकर अहिंसा-धर्म के प्रचार में बड़ा योग दिया। अन्य प्रकार से भी पशु-पक्षियों की जो हिंसा होती थी उसे अशोक ने बन्द करवा दिया। वास्तव में अहिंसा तथा प्राणीमात्र पर दया करना उसके शासन का मूल मन्त्र बन गया था।

(11) निज्झाति अथवा आत्म-चिन्तन

अशोक का विश्वास था कि मनुष्य सदैव अपने सत्कार्मों को देखता है, अपने कुकर्मों पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसका परिणाम यह होता है कि उसके पाप कर्म बढ़ते जाते हैं और वह धर्म पर नहीं चल पाता। इसलिये अशोक ने आत्म-परीक्षण, आत्म निरीक्षण तथा आत्म-चिंतन की व्यवस्था की, जिससे मुनष्य अपने पापों को देख सके और अपना सुधार कर सके। इसी को निज्झाति कहा गया है।

(12) धर्म अनुशासन

अशोक ने ‘धम्म’ के अनुशासन सम्बन्धी कुछ नियम बनाये और उन्हें प्रकाशित करवाया। इन नियमों के प्रचार तथा उसका पालन करवाने के लिए उसके पदाधिकारी भी नियुक्त किये जो राज्य में दौरा किया करते थे और देखते थे कि लोग धर्म के अनुशासन का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं।

(13) बौद्ध-संगीति

अशोक ने अपने शासन-काल में अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध-संगीति बुलवाई। इस संगीति में बौद्ध-धर्म ग्रन्थों का संशोधन किया गया। बौद्ध-संघ में जो दोष आ गये थे उनको दूर करने का प्रयत्न किया गया। इन संशोधनों तथा सुधारों से बौद्ध-धर्म में जो शिथिलता आ रही थी वह दूर हो गई। अशोक के इस कार्य के सम्बन्ध में हण्टर ने लिखा है- ‘इस संगीति के माध्यम से लगभग आधी मानव जाति के लिए साहित्य और धर्म का सृजन किया गया और शेष आधी मानव-जाति के विश्वासों को प्रभावित किया गया।’

(14) मठों का निर्माण तथा उनकी सहायता

अशोक ने देश के विभिन्न भागों में अनेक मठों का निर्माण करवाया और उनकी सहायता की। इन मठों में बहुत बड़ी संख्या में भिक्षु-भिक्षुणी तथा धर्मोपदेशक निवास करते थे जो सदैव धर्म के चिन्तन तथा प्रचार में संलग्न रहा करते थे। ऐसी सुव्यवस्था में धर्म के प्रचार का क्रम तेजी से चलता रहा।

(15) धर्म-लिपि की व्यवस्था

अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए धम्म के सिद्धान्तों तथा आदर्शों को पर्वतों की चट्टानों, पत्थरों के स्तम्भों तथा पर्वतों की गुफाओं में लिखवाकर उन्हें सबके लिए तथा सदैव के लिए सुलभ बना दिया। ये अभिलेख जन-साधारण की भाषा में लिखवाये गये थे जिससे समस्त प्रजा उन्हें समझ सके और उनका पालन कर सके। इस प्रकार के अभिलेखों से धम्म के प्रचार में बड़ी सहायता मिली।

(16) पाली भाषा में ग्रंथ रचना

अशोक के आदेश से बौद्ध-ग्रन्थों की रचना पाली भाषा में की गई जो जन-साधारण की तथा अत्यंत लोकप्रिय भाषा थी। चूंकि इस भाषा को साधारण लोग भी सरलता से समझ लेते थे इसलिये इससे बौद्ध-धर्म के प्रचार में बड़ा योग मिला।

(17) धर्म-विजय का आयोजन

अशोक ने धम्म का दूर-दूर तक प्रचार करने के लिए धर्म विजय का आयोजन किया। उसने भारत के भिन्न-भिन्न भागों तथा विदेशों में अपने धर्म के प्रचार का प्रयत्न किया। उसने दूरस्थ विदेशी राज्यों के साथ मैत्री की और वहाँ पर मनुष्यों तथा पशुओं की चिकित्सा का प्रबंध किया। उसने इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने तथा हिंसा को रोकने के लिये उपदेशक भेजे।

अशोक महान् ने अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म का प्रचार करने के लिए सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका भेजा। अशोक के धर्म प्रचारक बड़े ही उत्साही तथा निर्भीक थे। उन्होंने मार्ग की कठिनाईयों की चिन्ता न कर श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, जापान, कोरिया तथा पूर्वी द्वीप-समूहों में धर्म का प्रचार किया। अशोक द्वारा किये गये प्रयत्नों के फलस्वरूप उसके शासनकाल में बौद्ध-धर्म को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो गया।

भण्डारकर ने इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘इस काल में बौद्ध-धर्म को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया कि अन्य समस्त धर्म पृष्ठभूमि में चले गए… परन्तु इसका सर्वाधिक श्रेय तीसरी शताब्दी ई.पू. के बौद्ध सम्राट, चक्रवर्ती धर्मराज को मिलना चाहिए।’

वर्तमान में यद्यपि बौद्ध-धर्म अपनी जन्मभूमि में उन्मूलित सा हो गया है परन्तु उन देशों में वह अब भी अपना अस्तित्त्व बनाये हुए है।

अशोक महान् के अभिलेख

अशोक ने अपने जीवन-काल में अनेक शिलालेख तथा स्तम्भलेख लिखवाए जिनका बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है। इन स्तम्भलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा निश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती है। इनसे यह भी पता लग जाता है कि किन विदेशी राज्यों के साथ अशोक ने अपना मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया था। ये अभिलेख अशोक महान् के धर्म, उसके चरित्र तथा शासन पर भी बहुत बड़ा प्रकाश डालते हैं।

डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने अशोक के अभिलेखों के महत्त्व को बताते हुए लिखा है- ‘अशोक के अभिलेख लेख-संग्रह अनूठे हैं। उनसे उसकी आन्तरिक भावनाओं और आदर्शों का पता लगता है। वे उस महान् सम्राट के शब्दों को ही शताब्दियों से वहन करते आये हैं।’

अशोक के अभिलेखों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) शिलालेख तथा (2) स्तम्भलेख।

शिलालेख स्तम्भ लेख से अधिक प्राचीन हैं। शिलालेख सीमान्त प्रदेश में पाये जाते हैं जबकि स्तम्भ लेख आन्तरिक प्रान्तों में पाये जाते हैं। विन्सेन्ट स्मिथ ने अशोक के अभिलेखों को तिथि क्रमानुसार आठ भागों में विभक्त किया है-

(1) लघु शिलालेख

इसके अन्तर्गत नं. 1 तथा नं. 2 के शिलालेख आते हैं। ये मैसूर तथा अन्य राज्यों में भी पाये जाते हैं। इनसे सम्राट् के व्यक्तिगत जीवन तथा धर्म के लक्षणों का पता चलता है।

(2) भब्रू शिलालेख

यह शिलालेख जयपुर राज्य में मिला था। इसमें बौद्ध-धर्म ग्रन्थों से लिये गए सात ऐसे उद्धरण हैं जिन्हें अशोक चाहता था कि उसकी प्रजा पढ़े और उसके अनुसार आचरण करे।

(3) चतुर्दश शिलालेख

ये संख्या में चौदह हैं। इन शिलालेखों में अशोक के नैतिक तथा राजनैतिक विचार अंकित किये गए हैं। इनमें तेरहवां शिलालेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कलिंग-युद्ध के उपरान्त अशोक के मन में जो दुःख उत्पन्न हुआ वह इसी अभिलेख में अंकित है।

(4) दो कलिंग शिलालेख

इन शिलालेखों में उन सिद्धन्तों का उल्लेख मिलता है जिनके अनुसार कलिंग के विभिन्न प्रान्तों तथा सीमान्त-प्रदेश के अविजित लोगों के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए था।

(5) तीन गुहा लेख

ये गया के निकट की बराबर नामक पहाड़ी में मिले हैं। इन शिलालेखों में सम्राट अशोक द्वारा दिये गये दानों का उल्लेख है जो उसने आजीवकों को दिये थे। इनसे अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का पता चलता है।

(6) दो तराई स्तम्भ लेख

ये स्तम्भ लेख नेपाल की तराई में विद्यमान हैं। इन स्तम्भ लेखों में सम्राट अशोक की उन तीर्थ-यात्राओं का वर्णन है जो उसने बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थानों के दर्शन के लिए की थी।

(7) सप्त स्तम्भ लेख

ये संख्या में सात हैं और छः स्थानों में पाये गये हैं। इनमें से दो दिल्ली में हैं। इन स्तम्भ लेखों में सम्राट के उन उपायों का उल्लेख है जो उसने धर्म-प्रचार के लिए किये थे।

(8) चार गौरा-स्तम्भ

इनमें से दो लेख सांची तथा सारनाथ की लाटों पर खुदे हुए हैं और दो प्रयाग में हैं। इन स्तम्भ लेखों को सम्भवतः बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर करने के लिये उत्कीर्ण कराया गया था।

क्या अशोक महान् सम्राट था ?

अशोक की गणना न केवल भारत के वरन् विश्व के महान सम्राटों में की जाती है। अशोक के सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन कर लेने के उपरान्त उसकी महानता के कारणों का पता लगाना कठिन नहीं रह जाता।

उसकी महानता उसके साम्राज्य की विशालता, उसकी सेना की अजेयता, उसके शासन की सुदृढ़़ता अथवा उसके राज-वैभव में नहीं पायी जाती वरन् उसकी महानता उसके अलौकिक व्यक्तित्त्व, उसकी अगाध धर्मपरायणता, उसके धार्मिक विचारों की उदारता, उसके सिद्धान्तों तथा आदर्शों की उच्चता, राष्ट्र-निर्माण की योजनाओं, साहित्य तथा कला की अपूर्व सेवाओं तथा उसकी धर्म विजय में पाई जाती हैं।

समस्त मानव-समाज तथा समस्त प्राणियों के कल्याण की विराट चेष्टा उसे न केवल भारत वरन् सम्पूर्ण विश्व के महान सम्राटों में सर्वोत्कृष्ट स्थान प्रदान करती है। अशोक की महानता को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य उपस्थित किये जा सकते हैं-

(1) महान् व्यक्तित्त्व

अशोक की महानता का सबसे प्रथम प्रमाण उसका महान् व्यक्तित्त्व है। कलिंग युद्ध के उपरान्त वह समस्त राजसी सुखों तथा विलासों को त्याग कर सन्त जैसा सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करने लगा। उसका जीवन शुद्ध, पवित्र तथा दयामय बन गया। आत्म-संयम तथा आत्म-नियंत्रण में वह पूर्णरूप से सफल रहा और आत्म-त्याग उसके जीवन का मूलमंत्र बन गया।

वह अहिंसा का पुजारी बन गया। उसने मांस-भक्षण बंद कर दिया। वह सत्यनिष्ठ, दयालु, सहिष्णु तथा शांतिमय बन गया। उसमें उच्च कोटि की कर्त्तव्य परायणता आ गई। वह अपनी प्रजा के हित-चिंतन में संलग्न रहता था और उसकी नैतिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति का अथक प्रयास करता था। शिलाओं तथा स्तम्भों पर अंकित अशोक के उपदेशों से ज्ञात होता है कि वह अपने युग का भद्रतम तथा श्रेष्ठतम व्यक्ति था।

(2) महान् धर्मतत्त्ववेत्ता

अशोक ने धर्म के वास्तविक तत्त्व को समझा था। उसकी महानता का सबसे बड़ा कारण उसकी धर्म-निष्ठा तथा धर्म-परायणता है। उसकी धार्मिक धारणा संकीर्ण न थी। वह कट्टरपंथी अथवा धर्मान्ध नहीं था। उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था। उसकी धार्मिक धारणा का मूलाधार ईश्वर का पितृत्व तथा मानव का भ्रातृत्व था।

वह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त का अनन्य अनुयायी था। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। यद्यपि बौद्ध धर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था और इसके प्रचार के लिए उसने तन-मन-धन से प्रयत्न किया परन्तु अन्य धर्म वालों के साथ उसने किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं किया।

समस्त धर्म तथा सम्प्रदाय अशोक की सहानुभूति तथा सहायता के पात्र थे। समस्त धर्मों के उत्तम तत्त्वों के संग्रह से उसका धम्म, सार्वभौम धर्म बन गया था जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण तथा प्राणी मात्र का उद्धार करना था। अशोक की अगाध धर्म-निष्ठा तथा धर्म-तत्त्व-ज्ञान उसे महान् धर्माचार्यों में स्थान प्रदान करते हैं।

(3) महान् धर्म-प्रचारक

अशोक न केवल एक महान् धर्मोपदेशक था। वरन् वह एक महान् धर्म-प्रचारक भी था। अशोक ने धर्म का प्रचार न केवल भारत के कोने-कोने में किया वरन् उसके धर्म का आलोक विदेशों में भी पहुंचा जहाँ वह अब भी जीवित है और असंख्य व्यक्तियों की आत्मा को शांति दे रहा है। एक स्थानीय धर्म को अशोक ने अन्तर्राष्ट्रीय धर्म बना दिया।

इसी से डॉ. भण्डारकर ने लिखा है- ‘अशोक के आदर्श बड़े ऊँचे थे। उसने अपनी बुद्धिमत्ता तथा कलन-शक्ति को, संकीर्ण प्रांतीय बौद्ध सम्प्रदाय को, विश्वव्यापी धर्म बना देने में लगा दिया।’

धर्म-प्रचार का यह कार्य बाहुबल से नहीं वरन् आत्मबल से शान्तिपूर्वक, प्रेम तथा सद्भावना के साथ किया गया। यही बात अशोक के धर्म प्रचार की विशेषता थी जो उसे धर्म प्रचारकों में सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है।

अशोक ने धर्मप्रचारकों की सहायता से धर्मप्रचार का जो श्लाघनीय कार्य किया उसकी प्रशंसा करते हुए के. जे.सौन्डर्स ने लिखा है- ‘विश्व इतिहास में सम्राट अशोक के धर्म प्रचारकों द्वारा सभ्यता के प्रचार का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया क्योंकि इन लोगों ने ऐसे देशों में प्रवेश किया जो अधिकांशतः बर्बर तथा अन्धविश्वासपूर्ण थे।’

(4) महान् धर्म-विजेता

अशोक एक महान् धर्म-विजेता था। कलिंग युद्ध के उपरान्त उसने भेरिघोष को सदैव के लिए शान्त करके धर्म-घोष करने का संकल्प लिया। उसने रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने के स्थान पर धर्मक्षेत्र में विजय पताका फहराने का निश्चय किया। यह विजय सरल नहीं थी, क्योंकि यह विजय शरीर पर नहीं, वरन् आत्मा पर प्राप्त करनी थी।

यह विजय बाहुबल अथवा सैन्यबल की विजय नहीं थी, वरन् आत्मबल तथा तथा प्रेमबल की विजय थी। यह विजय थोड़े से व्यक्तियों पर नहीं, वरन् प्रणिमात्र पर प्राप्त करनी थी। वह शांति विजय थी, अशांति की नहीं थी। अशोक ने धर्माचार्यों तथा धर्म-प्रचारकों की एक विशाल सेना संगठित की और उन्हें प्रेमायुध से सुसज्जित किया।

सत्य, सत्कर्म, सद्भावना, तथा सद्व्यवहार की यह चतुरंगिणी सेना धर्म-विजय के लिए निकल पड़ी। इस सेना के प्रेमायुद्ध के सामने न केवल सम्पूर्ण भारत नत-मस्तक हो गया वरन् उसकी विजय पताका विदेशों में भी फहराने लगी। यह विजय आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक विजय थी जो स्थायी सिद्ध हुई।

अशोक ने जिन देशों पर धर्म-विजय प्राप्त की उन्हें भारत के साथ प्रेम के ऐसे प्रबल बन्धन में बांध दिया कि अब तक वह अविच्छिन रूप से चलता आ रहा है। यह अशोक की अद्वितीय विजय थी जिसकी समता संसार का अन्य कोई विजयी सम्राट नहीं कर सकता।

(5) महान् शासक

अशोक की गणना विश्व के महान् शासकों में होती है। कलिंग युद्ध के उपरान्त अशोक के राजनीतिक आदर्श अत्यंत ऊँचे हो गये। प्रजा-पालन तथा उसके हित चिन्तन को अशोक ने अपने जीवन का महान् लक्ष्य बना लिया। वह अपनी प्रजा को सन्तानवत् समझने लगा और उसी के कल्याण की चिन्ता में दिन रात संलग्न रहने लगा।

डॉ. हेमचन्द्र राज चौधरी ने लिखा है- ‘वह अपने उत्साह में सुदृढ़़ और प्रयासों में अथक था। उसने अपनी सारी शक्ति अपनी प्रजा की आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति में लगा दी जिसे वह अपनी सन्तान-सदृश समझता था।’

उसने विहार-यात्राएं बन्द करवा दीं जो आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन का साधन थीं और उनके स्थान पर धर्म-यात्राएं आरम्भ कीं जिनमें धर्मिक उपदेश दिये जाते थे। तीर्थ स्थानों के दर्शन किये जाते थे और ब्राह्मणों, श्रमणों तथा दीन-दुःखियों को दान दिये जाते थे।

उसका शासन इतना सुसंगठित, सुव्यवस्थित एवं लोक-मंगलकारी था कि उसके शासनकाल में कोई आन्तरिक उपद्रव नहीं हुआ और प्रजा ने अधिक सुख तथा शान्ति का उपभोग किया। अशोक ने अपनी प्रजा की न केवल भौतिक अभिवृद्धि का भगीरथ प्रयास किया वरन् उसकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का भी यथा शक्ति प्रयास किया।

अशोक ने प्रजा के नैतिक तथा आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए धर्म-महामात्रों को नियुक्त किया और राजकीय कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे घूम-घूमकर प्रजा के आचरण का निरीक्षण करें और उसे सदाचारी तथा धर्म-परायण बनाने का प्रयत्न करें। शासक के रूप में अशोक की महानता इस बात में पायी जाती है कि देश के राजनीतिक जीवन में उसने आदर्श, पवित्रता तथा कर्त्तव्य-परायणता का समावेश किया।

अशोक ने एक भिक्षु जैसा सादा जीवन व्यतीत कर और राज-सुलभ समस्त सुखों का त्याग कर प्रजा के इहलौकिक तथा पारलौकिक हित-चिन्तन में संलग्न रहकर विश्व के सम्राटों के समक्ष ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो सर्वथा अनुकरणीय है। एच. जी. वेल्स ने लिखा है- ‘प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र इस प्रकार के सम्राट को उत्पन्न नहीं कर सकता है। अशोक अब भी विश्व के इतिहास में अद्वितीय है।’

(6) महान् राष्ट्र निर्माता

अशोक महान् राष्ट्र-निर्माता था। उसने राष्ट्र की एकता तथा संगठन के लिए सम्पूर्ण राज्य में एक राष्ट्र-भाषा का प्रयोग किया। इस तथ्य की पुष्टि उसके अभिलेखों में प्रयुक्त पाली भाषा से होती है। अशोक महान् ने अपने साम्राज्य के अधिकांश भाग में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग कराया था। केवल पश्चिमोत्तर प्रदेश में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया जाता था।

इस प्रकार भाषा तथा लिपि की एकता ने राजनीतिक एकता को सजीव बना दिया। देश के कोने-कोने में धर्म का प्रचार कर उसने सांस्कृतिक एकता की चेतना को जागृत किया। सम्पूर्ण राज्य के लिए एक जैसी न्याय व्यवस्था लागू करके उसने समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया था। अशोक ने शिल्प तथा स्थापत्य कला के विकास में भी बड़ा योग दिया। उसके काल के बने स्तंभ आज भी भारतीय कला का मस्तक ऊँचा किये हुए है।

(7) महान् आदर्शवादी

अशोक की महानता उसके उच्चादर्शों तथा महान् सिद्धान्तों में पाई जाती है। अशोक महान् ने राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में ऐसे नवीन आदर्शों की स्थापना की जिनकी कल्पना उस काल का अन्य कोई महान् सम्राट नहीं कर सका।

राजनीतिक क्षेत्र में उसके आदर्श थे- युद्धविराम, शान्ति तथा सद्भावना की स्थापना, पड़ौसियों के साथ मैत्री तथा सहयोग स्थापित करना, विदेशों में युद्ध संदेश के स्थान पर शान्ति तथा सद्भावना के संदेश भेजना, प्रजा के हित-चिन्तन में दिन-रात संलग्न रहना और अपने सम्पूर्ण आमोद-प्रमोद तथा सुखों को प्रजा के हित के लिए त्याग देना, अपनी प्रजा का सच्चा सेवक बनना।

सामाजिक क्षेत्र में अशोक महान् लोकतंत्रवादी था और ‘वसुधैव कुटुम्कम’ अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही परिवार है, सिद्धान्त का अनुयायी था। समानता, स्वतंत्रता तथा विश्व बंधुत्व उसके सामाजिक जीवन की आधार-शिलाएं थीं।

धार्मिक जीवन में अशोक महान् का आदर्श सहिष्णुता तथा समन्वयन था। तत्कालीन प्रचलित धर्मों के उत्तम तथ्यों के संग्रह से उसने एक ऐसे धर्म की स्थापना की जो सर्वमान्य हो। इस धर्म में न कोई दुरूह दर्शन था और न कोई आडम्बर। यह बड़ा ही सरल तथा व्यावहारिक धर्म था जिसमें आचरण की शुद्धता तथा कर्त्तव्य-पालन पर बल दिया जाता था।

सारांश रूप में कहा जा सकता है कि लोक-कल्याण, भौतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति ही अशोक के जीवन के प्रधान लक्ष्य थे। एच.जी वेल्स ने अशोक की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सहस्र सम्राटों के नामों के मध्य, जो इतिहास के पन्नों को भरे हुए हैं अशोक का नाम एक सितारे की भांति प्रकाशमान है।’

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने भी इतिहास में अशोक महान् का स्थान निर्धारित करते हुए लिखा है कि भारत के इतिहास में अशोक दिलचस्प व्यक्ति था। उसमें चन्द्रगुप्त जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी विलक्षण प्रतिभा और अकबर जैसी व्यापक उदारता थी।

अशोक महान् के उत्तराधिकारी

लगभग चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 232 ई.पू. में अशोक महान् की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र कुणाल सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठने से पहले वह गान्धार का शासक रह चुका था। कुणाल के शासनकाल में मगध साम्राज्य का पश्चिमोत्तर भाग स्वतन्त्र हो गया और अशोक के दूसरे पुत्र जालौक ने काश्मीर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।

कुणाल के बाद अशोक का पोता दशरथ मगध के सिंहासन पर बैठा। वह बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने नागार्जुनी की पहाड़ि़यों में आजीवकों के लिए गुहामन्दिर बनवाए। उसके शासनकाल में कलिंग ने मगध साम्राज्य से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।

दशरथ के बाद सम्प्रति मगध के सिंहासन पर बैठा। वह एक योग्य तथा शक्तिशाली शासक था। वह जैन-धर्म का अनुयायी तथा आश्रयदाता था। सम्प्रति के बाद कई अयोग्य एवं शक्तिहीन राजा मगध के सिंहासन पर बैठे जिनके शासन-काल में साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। वृहद्रथ अन्तिम मौर्य सम्राट था जिसकी हत्या उसके ही सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की और स्वयं मगध का शासक बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा संस्थापित साम्राज्य का सदा के लिये अन्त हो गया।

मौर्य-साम्राज्य के पतन के कारण

अशोक महान् की मृत्यु के साथ ही मौर्य साम्राज्य के अंत का प्रारंभ हो गया। इसके लिये स्वयं अशोक से लेकर उसके उत्तराधिकारी भी जिम्मेदार थे। मौर्य-साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1) अशोक की अहिंसा की नीति

अशोक ने अहिंसा की नीति को शासन का आधार बनाया। इस नीति पर चलकर वह अपने जीवनकाल में साम्राज्य को सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित रख सका परन्तु अहिंसा की नीति के अन्तिम परिणाम अच्छे न हुए। उसने जिस आध्यात्मिकता का वायुमंडल उत्पन्न किया, वह सैनिक दृष्टिकोण से साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। अशोक के शासनकाल में ही सैनिक-शक्ति व्यर्थ समझी जाने लगी। इससे वह निश्चय ही क्षीण हो गयी होगी। उसके उत्तराधिकारी भी सैनिक शक्ति को बढ़ा नहीं सके होंगे।

(2) ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया

मौर्य साम्राज्य के समस्त सम्राट प्रायः जैन अथवा बौद्ध धर्म के अनुयायी हुए और इन्हीं दो धर्मों को प्रश्रय तथा प्रोत्साहन देते रहे। इससे ब्राह्मणों में मौर्यों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और वे मौर्य-साम्राज्य के शत्रु हो गये। इससे राज्य की शक्ति निरंतर क्षीण होती चली गई।

(3) अशोक महान् के अयोग्य उत्तराधिकारी

अशोक के उत्तराधिकारियों में एक भी इतना योग्य न था जो उसके विशाल केन्द्रीभूत शासन को संभाल सकता। केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होते ही राज्य के सुदूर भागों के प्रान्तपतियों ने विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया और स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। अशोक के उत्तराधिकारियों में कुछ बड़े ही अत्याचारी हुए। अतः प्रजा की भी मौर्य शासकों के प्रति कोई सहानुभूति न रही। अशोक के कई पुत्र थे जिनमें परस्पर संघर्ष चला करता था। यह सब मौर्य-साम्राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

(4) अन्तःपुर तथा दरबार के षड्यन्त्र

अशोक के अनेक पुत्र तथा रानियां थीं, जो प्रायः एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचा करती थीं। इसका भी साम्राज्य पर अच्छा प्रभाव न पड़ा। वृहदृथ के शासन-काल में राज दरबार में दो दल हो गए थे। एक दल सेनापति का था और दूसरा प्रधानमन्त्री का। यह दल-बन्दी साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। अन्त में सेनापति पुष्यमित्र शुंग, मौर्य-सम्राट वृहद्रथ की हत्या करके स्वयं मगध के सिंहासन पर बैठ गया। इस प्रकार मौर्य-साम्राज्य का दीपक सदैव के लिए बुझ गया।

(5) यवनों के आक्रमण

मौर्य-साम्राज्य की शक्ति को क्षीण होते देख बैक्ट्रिया के यवनों ने भी मगध राज्य के पश्चिमोत्तर प्रदेश पर आक्रमण करना आरम्भ किया और उसको छिन्न-भिन्न करने में बड़ा योग दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

अध्याय – 14 मौर्य-कालीन भारत

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मौर्य-कालीन समाज एवं संस्कृति को जानने के तीन प्रमुख साधन हैं- (1) मेगस्थनीज का भारतीय विवरण, (2) कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा (3) अशोक के अभिलेख।

मौर्य कालीन समाज

वर्ण-व्यवस्था: मौर्य-कालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम-धर्म दोनों ही सुदृढ़़ रूप से स्थापित थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से हमें चार जातियों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का पता लगता है। ब्राह्मण सर्वाधिक आदरणीय थे। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान देता था और उनका बड़ा सम्मान करता था। भारतीय वर्ण व्यवस्था की समझ न होने से मेगस्थनीज ने सात जातियों- दार्शनिक, किसान, ग्वाले, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक तथा अमात्य का वर्णन किया है। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि अन्तर्जातीय विवाह तथा खान-पान का निषेध था, परन्तु अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य कालीन समाज में ये दोनों ही प्रथाएं प्रचलित थीं। मौर्य-काल में शूद्रों की दशा अच्छी नहीं थी, वे नीची दृष्टि से देखे जाते थे।

वैवाहिक परम्पराएँ: विवाह के समय कन्या की न्यूनतम आयु बारह वर्ष और वर की सोलह वर्ष होनी आवश्यक थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया है- ब्राह्म, शौल्क, प्रजापत्य, दैव, गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच। मेगस्थनीज ने भारतीयों के लिये विवाह के तीन लक्ष्य बताये हैं- जीवन-संगिनी प्राप्त करना, भोग करना तथा कई सन्तानें प्राप्त करना। इस युग में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। अशोक की कई रानियां थीं। स्त्रियों को भी, पति के मर जाने अथवा घर छोड़कर चले जाने और बहुत दिनों तक वापस नहीं आने पर पुनर्विवाह की आज्ञा थी। पति के दुराचारी, हत्यारा, नपुंसक आदि होने पर विवाह-विच्छेद की भी आज्ञा थी। कौटिल्य ने नियोग की भी आज्ञा दी है अर्थात् संतानहीन स्त्री किसी अन्य व्यक्ति के साथ संसर्ग कर संतान उत्पन्न कर सकती थी।

स्त्रियों की दशा: मौर्यकाल में स्त्रियों की दशा बहुत संतोषजनक नहीं थी। वे संतान उत्पन्न करने का साधन-मात्र समझी जाती थीं। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र चूल्हा-चक्की समझा जाता था। वे प्रायः घर के भीतर ही रहती थीं। डॉ. भण्डारकर के विचार में इस युग में पर्दे की प्रथा थी। कौटिल्य के मतानुसार स्त्रियों को उच्च-शिक्षा देना उचित ही है। मेगस्थनीज के कथनानुसार स्त्रियों को दार्शनिक ज्ञान देना इस युग में उचित नहीं समझा जाता था। स्त्रियों में अन्धविश्वास व्याप्त था और वे विभिन्न प्रकार के मंगल-अनुष्ठान किया करती थीं। स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी कुछ अधिकार प्राप्त थे। स्त्री अपने पति के अत्याचारों के विरुद्ध न्यायालय में जा सकती थी। स्त्री-हत्या महापाप समझा जाता था। कुछ ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि स्त्रियों का एक ऐसा भी वर्ग था जो अच्छी दशा में था। राज-महिलाएं दान दिया करतीं थीं। स्त्रियां सैनिक तथा गुप्तचर का कार्य करती थीं। चन्द्रगुप्त मौर्य की संरक्षिकाएं स्त्रियां होती थीं। वे धर्मप्रचार का कार्य भी करती थीं। अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था। अनेक स्त्रियां नृत्य, संगीत तथा ललित कलाओं में निष्णात होती थीं। इस काल में वेश्यावृत्ति का भी प्रचलन था।

दास प्रथा: मौर्य-काल में दास प्रथा का भी प्रचलन था। दास अपने स्वामी की विभिन्न प्रकार से सेवा करते थे। दास प्रायः अनार्य हुआ करते थे जिनका पशुओं की भांति क्रय-विक्रय होता था। आर्थिक संकट के कारण कभी-कभी आर्य लोग भी दास बन जाते थे। दासों के साथ अच्छा व्यवहार होता था। उन्हें गाली देना अथवा मारना-पीटना उचित नहीं समझा जाता था। दासों को अपनी माता की सम्पत्ति में पूरा अधिकार रहता था। स्वामी को मूल्य चुका देने पर दासों की दासता समाप्त भी हो जाती थी और वे फिर पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जाते थे।

मांस भक्षण: मौर्य-काल में मांस भक्षण का प्रचलन था। सम्राट अशोक के भोजनालय में अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों का मांस बनता था। बाजार में कच्चा तथा पकाया हुआ दोनों प्रकार का मांस बिकता था। अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के उपरान्त मांस-भक्षण बहुत कम हो गया था। इस काल में मदिरापान का भी प्रचलन था। अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार की मदिराओं का वर्णन है। मदिरापान केवल मदिरालय में ही होता था। बाहर केवल वही लोग मदिरा ले जा सकते थे जो बड़े ही विश्वसनीय तथा चरित्रवान होते थे। मदिरापान समाज में बुरा समझा जाता था इसलिये इसका प्रयोग सीमित था। मदिरापान प्रायः अनुष्ठानों के अवसर पर होता था।

आमोद-प्रमोद: अशोक के अभिलेखों से पता लगता है कि मौर्य कालीन समाज में ‘विहार-यात्राएं’ आमोद-प्रमोद की प्रधान साधन थीं। इन यात्राओं में पशु-पक्षियों का शिकार किया जाता था। ‘समाज’ भी आमोद-प्रमोद के प्रधान साधन थे। इन समाजों में मनुष्य तथा पशुओं के द्वन्द्व युद्ध होते थे। अशोक ने अहिंसा-धर्म स्वीकार करने के उपरान्त विहार-यात्राओं तथा समाज के आयोजन बन्द करवा दिये थे। रथ-दौड़, खेल-कूद तथा नाच गाने, आमोद-प्रमोद के अन्य साधन थे।

नैतिक आचरण: मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य-काल में भारतीयों का नैतिक स्तर बड़ा ऊँचा था। लोगों का जीवन सरल था और उनमें फिजूल-खर्ची नहीं थी। इससे उनका जीवन सुखी था। चोरी का नामोनिशान नहीं था। लोग प्रायः अपने घरों को अरक्षित छोड़कर चले जाते थे। लोग सामाजिक नियमों का पालन करते थे जिससे न्यायालय की शरण में जाने की बहुत कम आवश्यकता पड़ती थी। समाज में योग्यता का बड़ा आदर होता था। वृद्ध तभी आदरणीय समझे जाते थे जब उनमें ज्ञान तथा योग्यता होती थी। सत्य तथा गुण का बड़ा आदर होता था। अतिथि-सत्कार पर बल दिया जाता था। अशोक के शासन-काल में समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊँचा उठ गया था क्योंकि अशोक ने गुरुजनों का आदर करना, माता-पिता की सेवा करना, मित्रों, परिचितों तथा सम्बन्धियों के साथ उदारता बरतना तथा ब्राह्मणों एवं श्रमणों के दर्शन करना तथा दान देना आदि उपदेशों पर बल दिया था।

मौर्य कालीन धार्मिक दशा

धर्म के प्रति शासकों का दृष्टिकोण: मौर्य-कालीन शासकों का धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा ही उदार तथा व्यापक था। यद्यपि उनमें से कुछ ने जैन-धर्म तथा कुछ शासकों ने बौद्ध-धर्म को अपनाया तथा राजकीय आश्रय प्रदान किया परन्तु अन्य धर्मों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। समस्त धर्म उनकी सहानुभूति एवं सम्मान के पात्र बने रहे, उनसे सहायता पाते रहे और अपनी उन्नति में लगे रहे।

ब्राह्मण-धर्म: कौटिल्य तथा मेगस्थनीज दोनों के विवरणों से ज्ञात होता है कि उस काल में नये-नये धर्मों का प्रचार हो जाने पर भी ब्राह्मण-धर्म सर्वाधिक प्रबल था। वैदिक कर्मकाण्डों अर्थात् यज्ञ तथा बलि का बड़ा जोर था। यज्ञ के अवसर पर मद्यपान किया जाता था। स्त्रियाँ अनेक प्रकार के मंगल कार्य करती थीं। ब्राह्मणों का बड़ा आदर सत्कार होता था। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण, आत्मा तथा परमात्मा के चिन्तन में संलग्न रहते थे। ब्राह्मण-धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती थी। कौटिल्य ने वर्णाश्रम-धर्म के पालन पर जोर दिया है। स्वर्ग की प्राप्ति अब भी जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझा जाता था।

भागवत धर्म: मौर्य कालीन समाज में, ब्राह्मण-धर्म से निःसृत शैव सम्प्रदाय तथा भागवत धर्म भी प्रचलन में थे। मेगस्थनीज ने शिव तथा कृष्ण की पूजा का उल्लेख किया है। वासुदेव की पूजा का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है। स्पष्ट है कि उस काल में भक्ति-प्रधान भागवत-धर्म का प्रचलन था।

आजीवक धर्म: अशोक के शिलालेखों में आजीवकों का उल्लेख मिलता है। जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि आजीवक-सम्प्रदाय ब्राह्मण सम्प्रदाय से भिन्न था किंतु डॉ. भण्डारकर के विचार में आजीवक सम्प्रदाय ब्राह्मणों से भिन्न कोई अन्य संप्रदाय नहीं था। आजीवक लोग नंगे संन्यासियों की भाँति जीवन व्यतीत करते थे। उनका विश्वास था कि समस्त बातें तथा घटनाएँ एक नियति अर्थात् नियम के अनुसार घटती हैं और मनुष्य उनमें कोई परिवर्तन नही कर सकता। अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार ने आजीवकों को अपना संरक्षण प्रदान किया था। अशोक ने भी आजीवक संन्यासियों को बरार की गुफाएं दान में दी थीं। मौर्य सम्राट दशरथ भी आजीवकों का आश्रयदाता था।

जैन धर्म: मौर्य-काल में जैन धर्म भी उन्नत दशा में था। जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन-धर्म का अनुयायी तथा आश्रयदाता था। अशोक के पौत्र सम्प्रति ने भी जैन-धर्म को संरक्षण प्रदान किया और स्वयं उसका अनुयायी बन गया। अशोक के अभिलेखों में जैनियों को निर्ग्रन्थ कहा गया है।

बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म की इस काल में समस्त धर्मों से अधिक उन्नति हुई। चूंकि अशोक इस धर्म का अनुयायी हो गया था और उसने बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाकर उसका तन, मन, धन से प्रचार किया इसलिये न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् विदेशों में भी इसका प्रचार हो गया। अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था। वह कट्टरपन्थी बिल्कुल नहीं था। बौद्ध-धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म-वालों को भी वह दान देता था और उन्हें आदर की दृष्टि से देखता था। वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों के दर्शन करता था और उन्हें दान देता था। वास्तव में अशोक का धर्म एक सार्वभौम धर्म था जिसमें समस्त धर्मों की अच्छी बातें विद्यमान थी।

मूर्ति पूजा: कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मूर्तियों तथा मन्दिरों का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि इस काल में मूर्ति-पूजा का प्रचलन था। मूर्ति बनाने वाले लोग ‘देवता कारू’ कहलाते थे। महर्षि पंतजलि ने भी शिव, विशाख आदि की मूर्तियों का उल्लेख किया है। बौद्ध लोग बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियों की पूजा करते थे।

नदियों की पूजा: मौर्यकालीन समाज में नदियों को पवित्र माना जाता था। मेगस्थनीज ने गंगा को अत्यन्त पवित्र नदी बताया है। इस काल में तीर्थ-यात्रा का भी प्रचलन था। लोग पवित्र पर्वों के अवसरों पर तीर्थ-स्थानों में दर्शन तथा स्नान के लिए जाते थे। अशोक के समय से राज्य ने तीर्थों से तीर्थ कर लेना बन्द कर दिया था।

मौर्य कालीन आर्थिक दशा

कृषि

मौर्य-कालीन समाज में कृषि प्रधान व्यवसाय था। मेस्थनीज ने लिखा है कि दूसरी जाति कृषकों की है जो संख्या में सबसे अधिक है। किसानों को समाज के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाता था और उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था। युद्ध के समय भी कृषि को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई जाती थी। मेस्थनीज के अनुसार भूमि उर्वर थी तथा सिंचाई की व्यवस्था उत्तम थी। खेती परम्परागत विधि से की जाती थी। कृषक लोहे के उपकरण काम में लेते थे। वे विभिन्न प्रकार की मिट्टियों की प्रकृति तथा गुणों से परिचित थे।

प्रमुख फसलें: मेस्थनीज के अनुसार भारत में एक साल में दो बार वर्षा होती है- एक बार जाड़े में जबकि गेहूँ, बोया जाता है और दूसरी बार गर्मी में जबकि तिल, ज्वार आदि बोया जाता है। इसके साथ-साथ फल एवं मूल भी उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों को प्रचुर खाद्य सामग्री प्रदान करते हैं। मगध के कई क्षेत्रों में धान, गेहूँ तथा जौ की खेती होती थी। बौद्ध ग्रं्रथों में धान की भरपूर फसलों के कई उल्लेख मिलते हैं। पतंजलि ने भी धान का उल्लेख मगध में उगायी जाने वाली प्रमुख फसल के रूप में किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में गेहूँ, जौ, चना, चावल, सहजन, तरबूज, खरबूज, आम, जामुन, अनार, अंगूर, फालसा, नींबू आदि फसलों एवं फलों का उल्लेख किया गया है। पुरातात्विक खुदाइयों में भी मौर्य काल में गेहूं तथा जौ की बड़े स्तर पर खेती होने के प्रमाण मिले हैं।

सिंचाई: मौर्य काल में राज्य की ओर से सिंचाई का प्रबन्ध किया जाता था और कुएं, तालाब, झील आदि खुदवाये जाते थे। इस सुविधा के बदले में राज्य किसानों से सिंचाई-कर लेता था। सौराष्ट्र से प्राप्त दूसरी शतब्दी ई.पू. के जूनागढ़ अभिलेख से प्रकट होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के प्रांतपति पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया तथा उससे सिंचाई के लिये नहरें निकालीं। मेगस्थनीज ने भी मौर्य साम्राज्य में प्रयुक्त सिंचाई पद्धतियों का उल्लेख किया है। उसने नहरों एवं खेतों को पानी के संभरण का निरीक्षण करने के लिये नियुक्त अधिकारियों का भी उल्लेख किया है। कौटिल्य ने सिंचाई के कई साधनों का उल्लेख किया है- 1. नदी, सर, तड़ाग् और कूप द्वारा सिंचाई, 2. ढोल या चरस द्वारा कुएँ से पानी निकालकर सिंचाई, 3. बैलों द्वारा खींचे जानेे वाले रहट या चरस द्वारा कुएँ से सिंचाई, 4. बांध बनाकर नहरों द्वारा सिंचाई, 5. वायु द्वारा संचालित चक्की द्वारा सिंचाई।

खाद: मौर्य काल में भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के लिए खादों का प्रयोग किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विभिन्न प्रकार की खादों का वर्णन मिलता है। अर्थशास्त्र में घी, शहद, चर्बी, मछलियों का चूर्ण, गोबर, राख, आदि का खाद के रूप में उपयोग होने का उल्लेख है। किसान विभिन्न प्रकार के अन्न, फल तथा तरकारियों की कृषि करते थे।

पशुपालन

भारत में पशुपालन का कार्य, मानव के आदिम अवस्था से बाहर निकलते ही आरंभ हो गया थ। मौर्य कालीन समाज में भी व्यापक स्तर पर पशुपालन होता था। मेगस्थनीज ने ग्वालों की जाति का उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट है कि दूध के लिए पशुपालन किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य शासन में अलग से पशु विभाग की व्यवस्था की गई थी। इस विभाग का कार्य बंजर भूमि में चारागाहों का विकास करना, रोगी पशुओं की चिकित्सा की व्यवस्था करना, पशुओं के साथ अमानुषिक व्यवहार रोकना, उनका पंजीयन करना होता था। अर्थशास्त्र में गोअध्यक्ष तथा अश्वाध्यक्ष के उल्लेख मिलते हैं। चूंकि कृषि तथा सिंचाई काफी उन्नत दशा में पहुंच चुकी थी इसलिये अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि के लिये खेत जोतने, भार ढोने एवं कुओं से सिंचाई का पानी निकालने के काम में पशुओं की सहायता ली जाती थी। उस काल में खेतों में विभिन्न प्रकार की खादों का उपयोग हो रहा था इसलिये पशुओं के गोबर एवं मींगनी भी काम में ली जाती रही होगी। मांसाहारी लोग बकरी तथा मुर्गा पालते थे। ऊन एवं मांस के लिये भेड़पालन होता था।

उद्योग-धन्धे

मौर्य-काल में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे प्रचलन में थे। इनमें सूती एवं ऊनी वस्त्र निर्माण, धातु निर्माण तथा धातुओं से कृषि उपकरण, बरतन तथा हथियारों का निर्माण, मिट्टी के बर्तनों एवं मूर्तियों का निर्माण, कीमती धातुओं, लकड़ी का काम, चंदन की लकड़ी एवं हाथी दांत के आभूषणों का निर्माण आदि प्रमुख उद्योग धंधे थे। कुछ लोग मदिरा बनाने एवं बेचने का काम करते थे।

वस्त्र निर्माण: कपास की अच्छी खेती होती थी। इसलिये सूती वस्त्र का व्यवसाय बड़ी उन्नत दशा में था। सूती कपड़े के लिये काशी, वत्स, अपरान्त, बंग और मदुरा विशेष रूप से विख्यात थे। सूत कातने के लिये चरखों तथा कपड़ा बुनने के लिये करघों का उपयोग किया जाता था। मेगस्थनीज तथा कौटिल्य दोनों के द्वारा दिये गये विवरण के अनुसार देश में कपास की खेती प्रचुरता में होती थी इसलिये तंतुवाह (जुलाहे) काफी व्यस्त रहते थे। वस्त्र बनाने के लिए सन का भी प्रयोग किया जाता था। मगध तथा काशी सन के वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। वृक्षों के पत्तों तथा उनकी छाल के रेशों से भी वस्त्र बनाये जाते थे। अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य-काल में कई प्रकार के ऊनी वस्त्र बनते थे। मेगस्थनीज ने कई प्रकार के बहुमूल्य वस्त्रों का उल्लेख किया है। उसने मलमल के कामदार वस्त्रों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा की है। उस काल में बंगाल उच्चकोटि के मलमल वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था।

धातु उद्योग: मौर्यकाल में विभिन्न प्रकार की धातुओं के निर्माण एवं उन पर आधारित उद्योग उन्नत दशा में थे। सोना, चांदी, ताम्बा और लोहा प्रचुर मात्रा में निकाला एवं गलाया जाता था। जस्ता एवं कुछ अन्य धातुएं भी काम में ली जाती थीं। राज्य की खानों के कार्य का अध्यक्ष आकराध्यक्ष कहलाता था। 

आभूषण निर्माण: पुरुष तथा स्त्री दोनों ही आभूषण पहनते थे। इस काल में हाथी-दाँत के सुन्दर आभूषण बनते थे। मेगस्थनीज से पता लगता है कि समृद्ध लोग बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे। उनके वस्त्रों पर सोने का काम किया जाता था। एरियन का कथन है कि भारत में धनी लोग अपने कानों में हाथीदांत के उच्च कोटि के आभूषण पहनते थे। समुद्रों से मणि, मुक्ता, रत्न, सीप आदि निकालने का काम राजकीय अधिकारियों की देखरेख में होता था। इन सबका प्रयोग आभूषण निर्माण में होता था।

सुरा उद्योग: इस काल में सुरा का निर्माण एवं व्यापार बड़े स्तर पर होता था। अर्थशास्त्र में छः प्रकार की सुराओं- मेदक, प्रसन्न, आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु का उल्लेख है। सुरा के निर्माण एवं प्रयोग पर सुराध्यक्ष का नियंत्रण रहता था।

लकड़ी तथा चमड़े का काम: वनों एवं पशुओं की प्रचुर उपलब्धता के कारण मौर्य काल में इमारती लकड़ी, चंदन की लकड़ी, पशुओं से प्राप्त ऊन और चमड़े पर आधारित उद्योग एवं व्यवसाय भी उन्नत दशा में थे।

व्यापार

मौर्य काल में आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार उन्नत दशा में था। व्यापारिक सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था थी। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि विदेशियों की सुरक्षा करने तथा उन्हें हर प्रकार की सुविधा देने के लिए पाटलिपुत्र में पाँच सदस्यों की एक समिति काम करती थी। विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे करने वालों को भी सुरक्षा दी जाती थी। यदि कोई व्यक्ति श्रमिकों अथवा कारीगरों का अंग-भंग कर देता था तो उसे मृत्युदंड दिया जाता था। यदि कोई व्यापारी नाप-तौल में बेईमानी करता था अथवा मिलावट करता था तो उसे कठोर दंड दिया जाता था। नावों द्वारा नदियों के मार्ग से भी व्यापार होता था। देश के विभिन्न भाग विभिन्न प्रकार के व्यवसायों तथा व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे। विदेशी व्यापार, स्थल तथा सामुद्रिक मार्गों से होता था। चीन तथा मिस्र आदि देशों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध था। अशोक ने जिन देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार किया उनके साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। विदेशों के साथ राजदूतों का आदान-प्रदान करके भी मौर्य सम्राटों ने व्यापार में बड़ी उन्नति की।

व्यापारिक मार्ग: मौर्य काल में देश में आन्तरिक व्यापार की सुविधा के लिए बड़े-बड़े राजमार्ग बनवाये गये थे। पाटलिपुत्र से पश्चिमोत्तर को जाने वाला मार्ग 1500 कोस लम्बा था। दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग हैमवतपथ था जो हिमालय की ओर जाता था। दक्षिण भारत को भी अनेक मार्ग गये थे। कौटिल्य के अनुसार दक्षिणापथ में भी वह मार्ग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जो खानों से होकर जाता है जिस पर गमनागमन बहुत होता है और जिस पर परिश्रम कम पड़ता है। विभिन्न नगरों तथा प्रमुख मार्गों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए कई छोटे-छोटे मार्ग बनवाये गये थे। राज्य की ओर से इन मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता था।

मुद्रा: व्यापार के लिए विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता था। अर्थशास्त्र में मौर्य काल में प्रचलित अनेक मुद्राओं के नाम दिये गये हैं- सुवर्ण (सोने का), कार्षापण या पण या धरण (चांदी का), माषक (ताम्बे का), काकणी (ताम्बे का)। कौटिल्य ने उस काल की समस्त मुद्राओं को दो भागों में बांटा है- प्रथम कोटि में ‘कीष प्रवेष्य’ मुद्राएं आती थीं। ये लीगल टेण्डर के रूप में थीं। सम्पूर्ण राजकीय कार्य इन्हीं मुद्राओं में होता था। द्वितीय कोटि में व्यावहारिक मुद्राएं आती थीं। ये टोकन मनी के रूप में थीं। जनता का साधारण लेन-देन इन मुद्राओं में हो सकता था किंतु ये मुद्राएं राजकीय कोष में प्रवेश नहीं कर पाती थीं। मुद्र निर्माण राजकीय टकसालों में ही हो सकता था। परंतु यदि कोई व्यक्ति चाहे तो अपनी धातु ले जाकर राजकीय टकसाल से अपने लिये मुद्राएं बनवा सकता था। इस कार्य के लिये उसे एक निश्चित शुल्क देना पड़ता था।

मौर्य कालीन साहित्य तथा शिक्षा

भाषा: मौर्य-काल में दो प्रकार की भाषाओं का प्रचलन था। पहली भाषा संस्कृत थी तथा दूसरी पाली। संस्कृत विद्वानों की और पाली जन-साधारण की भाषा थी। संस्कृत साहित्यिक भाषा थी। इसमें ग्रन्थ लिखना गौरवपूर्ण समझा जाता था। बौद्ध-धर्म के प्रचार के साथ, पाली में भी ग्रन्थ रचना आरम्भ हो गयी। प्रारम्भिक बौद्ध-ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे गये हैं। अशोक के अभिलेख पाली भाषा में खुदे हैं।

लिपि: मौर्य-काल में दो प्रकार की लिपियों का प्रयोग होता था- ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि। अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। अशोक ने खरोष्ठी लिपि का प्रयोग पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अभिलेखों में किया। सम्भवतः उस प्रदेश में इस लिपि का प्रयोग होता था। यह लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था। आज भी कुछ प्रान्तीय भाषाओं में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता है।

साहित्य: मौर्य-काल में रचित संस्कृत का सबसे प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक ग्रन्थ कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ है। इसी काल में वात्सायन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कामसूत्र’ की रचना की। कुछ विद्वान कौटिल्य, वात्सायन, विष्णुगुप्त तथा चाणक्य एक ही व्यक्ति के चार नाम होना बताते हैं। इसी काल में कात्यायन ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर अपने वार्तिक लिखे। इस काल में कुछ सूत्र ग्रन्थों तथा धर्म-शास्त्रों की भी रचना हुई। संभवतः रामायण तथा महाभारत का परिवर्द्धन भी इसी काल में हुआ। बौद्ध-धर्म के त्रिपिटक ग्रन्थों तथा अनेक जैन ग्रन्थों का संकलन इसी युग में हुआ था। अनेक ग्रंथों में सुबंधु नामक एक ब्राह्मण विद्वान का उल्लेख आता है जो बिंदुसार का मंत्री था। उसने वासवदत्ता नाट्यधारा नामक नाटक की रचना की। संस्कृत का परम विद्वान वररुचि इसी काल में हुआ। बृहत्कथा कोष के अनुसार इस काल में कवि नामक एक अन्य विद्वान भी हुआ। जैन-धर्म का प्रसिद्ध आचार्य भद्रबाहु इसी काल की विभूति था। जैन धर्म के आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, समवायांग सूत्र आदि की रचना इसी काल में हुई।

शिक्षा: मौर्य-कालीन सम्राटों ने शिक्षा की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की थी। स्मिथ के विचार में ब्रिटिश-काल में भी उतनी विस्तृत शिक्षा की योजना न थी जितनी मौर्य-काल में थी। तक्षशिला उच्च-शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था जहाँ धनी तथा निर्धन दोनों ही शिक्षा प्राप्त करते थे। धनी परिवारों के बच्चे शुल्क देकर दिन में अध्ययन करते थे। निर्धनों के बच्चे दिन में गुरु की सेवा करते थे तथा रात में अध्ययन करते थे। गुरुकुलों, मठों तथा विहारों में भी शिक्षा दी जाती थी। इन संस्थाओं को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी।

मौर्य कालीन कला

मौर्य काल की कला उच्चकोटि की थी। उस काल में कलात्मक अभिव्यक्ति के लिये काष्ठ, हाथीदांत, मिट्टी, कच्ची ईंटें तथा धातुएं काम में ली गई थीं। इस काल में शिल्पकला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस कारण मौर्य-काल पाषाण मूर्तियों एवं भवनों के लिये अधिक प्रसिद्ध है। इस काल की शिल्प कला को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) स्थापत्य कला तथा (2) मूर्ति कला।

स्थापत्य कला

मौर्य कालीन स्थापत्य कला के स्मारक चार स्वरूपों में प्राप्त होते हैं-

(1) आवासीय भवन (2) राजप्रासाद (3) गुहा-गृह (4) स्तम्भ तथा (5) स्तूप।

(1) आवासीय भवनों का निर्माण: अशोक के पूर्व जो आवासीय भवन बने थे, वे ईटों तथा लकड़ी से निर्मित हुए। अशोक के शासन-काल में भवन निर्माण में लकड़ी तथा ईटों के स्थान पर पाषाण का प्रयोग आरम्भ हो गया। जो काम लकड़ी तथा ईटों पर किया जाता था, इस काल में वह पत्थर पर किया जाने लगा। अशोक बहुत बड़ा भवन निर्माता था। काश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में ललितपाटन नामक नगरों की स्थापना उसी के शासन-काल में हुई थी।

 (2) राजप्रासाद का निर्माण: मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र में बने सुंदर राजप्रासाद का वर्णन किया है। यह राजप्रासाद इतना सुन्दर था कि इसके निर्माण के सात सौ वर्ष बाद जब फाह्यान ने इसे देखा तो वह आश्चर्य चकित रह गया। उसने लिखा है कि अशोक के महल एवं भवनों को देखकर लगता है कि इस लोक के मनुष्य इन्हें नहीं बना सकते। ये तो देवताओं द्वारा बनवाये गये होंगे। पटना से इस मौर्यकालीन विशाल राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं। एरियन के अनुसार यह राजप्रासाद कारीगरी का एक आश्चर्यजनक नमूना है। राजप्रसाद के अवशेषों में चंद्रगुप्त मौर्य की राजसभा भी मिली है। पतंजलि ने इस राजसभा का वर्णन किया है। यह सभा एक बहुत ही विशाल मण्डप के रूप में है। मण्डप के मुख्य भाग में, पूर्व से पश्चिम की ओर 10-10 स्तम्भों की 8 पंक्तियां हैं। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार यह ऐतिहासिक युग का प्रथम विशाल अवशेष है जिसके दिव्य स्वरूप को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाता है। उसके विभ्राट स्वरूप की स्थायी छाप मन पर पड़े बिना नहीं रह सकती।

(3) गुहा स्थापत्य: बिहार में गया के पास बराबर एवं नागार्जुनी की पहाड़ियों में मौर्यकालीन सात गुहा-गृह प्राप्त हुए हैं। बराबर पर्वत समूह से चार गुफाएं मिली हैं- कर्ण चोपड़ गुफा, सुदामा गुफा, लोमस ऋषि गुफा तथा विश्व झौंपड़ी गुफा। नागार्जुनी पहाड़ियों से तीन गुफाएं मिली हैं- गोपी गुफा, वहियका गुफा तथा वडथिका गुफा। इन गुहा-गृहों का निर्माण अशोक तथा दशरथ के शासन काल में किया गया था। ये गुहा-गृह शासकों की ओर से आजीवकों को दान में दिये गये थे। इन गुहा-गृहों की दीवारें आज भी शीशे की भाँति चमकती हैं।

(4) स्तम्भ: सांची तथा सारनाथ में अशोक के काल में बने तीस से चालीस स्तम्भ आज भी विद्यमान हैं। इनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थरों से किया गया है। इन स्तम्भों पर की गई पॉलिश शीशे की तरह चमकती है। ये स्तम्भ चालीस से पचास फीट लम्बे हैं तथा एक ही पत्थर से निर्मित हैं। इनका निर्माण शुण्डाकार में किया गया है। ये स्तम्भ नीचे से मोटे तथा ऊपर से पतले हैं। इन स्तम्भों के शीर्ष पर अंकित पशुओं की आकृतियाँ सुंदर एवं सजीव हैं। शीर्ष भाग की पशु आकृतियों के नीचे महात्मा बुद्ध के धर्म-चक्र प्रवर्तन का आकृति चिह्न उत्कीर्ण है। इन स्तम्भों के शीर्ष पर अत्यंत सुंदर, चिकनी एवं चमकदार पॉलिश की गई है जो मौर्य काल की विशिष्ट उपलब्धि है। लौरिया नंदन स्तम्भ के शीर्ष पर एक सिंह खड़ा है। संकिसा स्तम्भ के शीर्ष पर एक विशाल हाथी है तथा रामपुरवा के स्तम्भ शीर्ष पर एक वृषभ है। अशोक के स्तम्भों में सबसे सुंदर एवं सर्वोत्कृष्ट सारनाथ के स्तम्भ का शीर्षक है। सारनाथ स्तम्भ के शीर्ष पर चार सिंह एक दूसरे की ओर पीठ किये बैठे हैं। मार्शल के अनुसार ईस्वी शती पूर्व के संसार में इसके जैसी श्रेष्ठ कलाकृति कहीं नहीं मिलती। ऊपर की ओर बने सिंहों में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है, उनकी फूली हुई नसों में जैसी प्राकृतिकता है, और उनकी मांसपेशियों में जो तनाव है और उनके नीचे उकेरी गई आकृतियों में जो प्राणवंत वास्तविकता है, उसमें कहीं भी आरम्भिक कला की छाया नहीं है।

(5) स्तूप: मौर्य कालीन स्थापत्य कला में स्तूपों का स्थान भी महत्वपूर्ण है। स्तूप निर्माण की परम्परा लौह कालीन तथा महापाषाणकालीन बस्तियों के समय से आरंभ हो चुकी थी किंतु अशोक के काल में इस परम्परा को विशेष प्रोत्साहन मिला। स्तूप ईंटों तथा पत्थरों के ऊँचे टीले तथा गुम्बदाकार स्मारक हैं। कुछ स्तूपों के चारों ओर पत्थर, ईंटें अथवा ईंटों की जालीदार बाड़ लगाई गई है। इन स्तूपों का निर्माण बुद्ध अथवा बोधिसत्व (सत्य-ज्ञान प्राप्त बौद्ध मतावलम्बी) के अवशेष रखने के लिये किया जाता था। बौद्ध साहित्य के अनुसार अशोक ने लगभग चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था। इनमें से कुछ स्तूपों की ऊँचाई 300 फुट तक थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत तथा अफगानिस्तान के विभिन्न भागों में इन स्तूपों को खड़े देखा था। वर्तमान में कुछ स्तूप ही देखने को मिलते हैं। इनमें मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट स्थित सांची का स्तूप प्रसिद्ध है। इसकी ऊँचाई 77.5 फुट, व्यास 121.5 फुट तथा इसके चारों ओर लगी बाड़ की ऊँचाई 11 फुट है। इस स्तूप का निर्माण अशोक के काल में हुआ तथा इसका विस्तार अशोक के बाद के कालों में भी करवाया गया। इस स्तूप की बाड़ और तोरणद्वार कला की दृष्टि से आकर्षक एवं सजीव हैं।

मूर्ति कला

प्रस्तर मूर्तियां: पाटलिपुत्र, मथुरा, विदिशा तथा अन्य कई क्षेत्रों से मौर्यकालीन पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। इन पर मौर्य काल की विशिष्ट चमकदार पॉलिश मिलती है। इन मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां सर्वाधिक सजीव एवं सुंदर हैं। इन्हें मौर्यकालीन लोक कला का प्रतीक माना जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध दीदारगंज, पटना से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी की मूर्ति है जो 6 फुट 9 इंच ऊँची है। यक्षी का मुखमण्डल अत्यंत सुंदर है। अंग-प्रत्यंग में समुचित भराव रेखा और कला की सूक्ष्म छटा है। मथुरा के परखम गांव से प्राप्त यक्ष की मूर्ति भी 8 फुट 8 इंच की है। इसके कटाव में सादगी है तथा अलंकरण कम है। बेसनगर की स्त्री मूर्ति भी इस काल की मूर्तियों में विशिष्ट स्थान रखती है। अशोक के स्तम्भ शीर्षों पर बनी हुई पशुओं की मूर्तियां उस युग के संसार में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।

मृण्मूर्तियाँ: पटना, अहच्छत्र, मथुरा, कौशाम्बी आदि में मिले भग्नावशेषों से बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियां भी प्राप्त की गई हैं। ये कला की दृष्टि से सुंदर हैं तथा उस युग के परिधान, वेशभूषा तथा आभूषणों की जानकारी देती हैं। मौर्य काल की, बुलंदीबाग (पटना) से प्राप्त एक नर्तकी की मृण्मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

चित्रकला

मौर्य काल में चित्रकला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। बौद्ध शैली के चित्रों की रचना इस काल में प्रारम्भ हो गई थी। अभाग्यवश उस काल की चित्रकला के पर्याप्त नमूने उपलब्ध नहीं हो सके हैं।

मौर्यकाल की कला पर विदेशी प्रभाव

स्पूनर, मार्शल तथा निहार रंजन रे आदि अनेक विद्वानों ने मौर्यकाल की कला को भारतीय नहीं माना है। इन विद्वानों ने मौर्य काल की कला पर ईरानी कला का प्रभाव माना है। स्पूनर ने लिखा है कि पाटलिपुत्र का राजभवन फारस के राजमहल का प्रतिरूप था। स्मिथ ने लिखा है कि मौर्यों की कला ईरान तथा यवनों से प्रभावित हुई है। सिकंदर के आक्रमण के समय विदेशी सैनिक तथा शिल्पी भारत में बस गये थे, उन्हीं के द्वारा अशोक ने स्तम्भों का निर्माण करवाया। स्मिथ की मान्यता है कि अशोक से पहले, भारत में भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग नहीं किया जाता था। विदेशी कलाकारों द्वारा इसे संभव किया गया। इन विद्वानों की धारणा को नकारते हुए अरुण सेन ने लिखा है कि मौर्य कला तथा फारसी कला में पर्याप्त अंतर है। फारसी स्तम्भों में नीचे की ओर आधार बनाया जाता था जबकि अशोक के स्तम्भों में कोई आधार नहीं बनाया गया है। मौर्य स्तम्भ का लम्बा भाग गोलाकार है एवं चमकदार पॉलिश से युक्त है जबकि फरसी स्तम्भों में चमकदार पॉलिश का अभाव है। अतः मौर्य कला पर फारसी प्रभाव होने की बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। मौर्य कला अपने आप में पूर्णतः भारत में विकसित होने वाली कला है।

अध्याय – 15 ब्राह्मण राज्य (शुंग, कण्व और सातवाहन)

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मौर्य-साम्राज्य भारत का प्रथम विशाल साम्राज्य था। मौर्य काल में भारत को जो राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक एकता प्राप्त हुई वह इसके पूर्व कभी नहीं थी। अशोक के काल में यह एकता चरम पर पहुंच गई परन्तु अशोक की मृत्यु के पश्चात राष्ट्र में फिर से विच्छिन्नता आरम्भ हो गई। लगभग पांच शताब्दियों तक यह स्थिति रही जिससे भारत न केवल राजनीतिक वरन् सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी छिन्न-भिन्न हो गया। मौर्य साम्राज्य के नष्ट हो जाने पर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। राजनीतिक विच्छिन्नता के परिणाम स्वरूप भारत पर पुनः विदेशी आक्रमण आरम्भ हो गये और भारत के विभिन्न भागों में विदेशियों के राज्य स्थापित हो गये। राष्ट्र की राजनीतिक एकता के लिये बौद्ध धर्म और जैन धर्म के अहिंसात्मक सिद्धांतों के दुष्परिणाम सामने आ चुके थे। इस कारण मौर्योत्तर युग में वर्णाश्रम धर्म ने फिर से जोर पकड़ा और ब्राह्मण धर्म का महत्त्व पुनः बढ़ने लगा। संस्कृत भाषा का महत्त्व फिर से बढ़ा और उसी में साहित्य रचना होने लगी।

शुंग वंश और उसकी उपलब्धियाँ

शुंग वंश का प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग था। वह मौर्य वंश के अन्तिम शासक वृहद्रथ का सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में एक सैनिक निरीक्षण के समय अपने स्वामी का वध कर दिया तथा स्वयं पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठ गया। पतंजलि के महाभाष्य, विभिन्न पुराण, कालिदास के मालविकाग्निमित्रम्, बाणभट्ट के हर्षचरित, जैन लेखक मेरुतुंग के थेरावली, बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान एवं तारानाथ लिखित बौद्ध धर्म का इतिहास आदि साहित्यिक स्रोतों से शुंग वंश की जानकारी मिलती है। खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख, धनदेव के अयोध्या अभिलेख से इस जानकारी की पुष्टि होती है तथा भरहुत एवं सांची के स्तूपों से शुंग वंश की कलात्मक प्रगति का ज्ञान होता है।

शुंग वंश

पतंजलि के महाभाष्य, पाणिनी की अष्टाध्यायी, गार्गी संहिता, विभिन्न पुराण, बाणभट्ट का हर्षचरित आदि ग्रंथ निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि शुंग ब्राह्मण थे। तिब्बती आचार्य तारानाथ भी उन्हें ब्राह्मण बताता है।

पुष्यमित्र शुंग

प्राचीन भारतीय शासकों में पुष्यमित्र शुंग महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसने उत्तरमौर्य कालीन शासकों के समय गिरती हुई राजसत्ता के गौरव को पुनः स्थापित किया। सैन्य शक्ति एवं बौद्धिक क्षमता के बल पर उसने भारत की राजनीतिक एकता को पुनः सृजित करने का प्रयास किया। वह सेनापति से शासक बना था इसलिये उसने अंतिम समय तक अपनी सेना से सम्बन्ध बनाये रखा। उसने कभी भी सम्राट की उपाधि धारण नहीं की तथा स्वयं को सेनापति ही कहता रहा। तत्कालीन समस्त साक्ष्यों में उसे सेनानी ही कहा गया है जबकि उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अग्निमित्र के लिये राजा शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके काल की तीन प्रमुख घटनाएँ है- (1) विदर्भ के राजा को युद्ध में परास्त करना (2) यूनानियों के आक्रमणों को रोकना और (3) अश्वमेध यज्ञ करना।

(1) विदर्भ विजय: जिस समय पुष्यमित्र मगध का राजा बना, उस समय विदर्भ पर यज्ञसेन का शासन था जो कि मौर्यों की राजसभा के एक मंत्री का सम्बन्धी था। मालविकाग्निमित्र नामक नाटक से पुष्यमित्र तथा यज्ञसेन के मध्य हुए संघर्ष की सूचना मिलती है। संभवतः यज्ञसेन ने अंतिम मौर्य सम्राट की हत्या से उत्पन्न हुई उथल-पुथल की स्थिति का लाभ उठाने की चेष्टा की तथा स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने यज्ञसेन को परास्त करके विदर्भ को पुनः शंुग साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

(2) यूनानियों की पराजय: पुष्यमित्र शुंग के समय में यवनों ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण किया। पतंजलि के महाभाष्य, मालविकाग्निमित्र तथा गार्गी संहिता के यज्ञ पुराण से इस आक्रमण की सूचना मिलती है कि यवन सेनाएं साकेत, पांचाल तथा मथुरा को रौंदते हुई पाटलिपुत्र तक पहुंच गईं। पुष्यमित्र ने इस युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ किया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यवनों के साथ हुए युद्ध में पुष्यमित्र शुंग की विजय हुई। मालविकाग्निमित्र के अनुसार वसुमित्र ने यवनों को सिंधु नदी के तट पर पराजित किया था।

(3) अश्वमेध यज्ञ: वैदिक काल से ही आर्य राजा अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने और स्वयं को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राजा घोषित करने के लिये अश्वमेध यज्ञ करते थे। चूंकि पुष्यमित्र शुंग स्वयं ब्राह्मण था इसलिये उसने वैदिक परम्परा के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया ताकि उसके अधीनस्थ राजा उसे सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट स्वीकार कर लें।

पुष्यमित्र का साम्राज्य

विदर्भ विजय से मगध राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त हुई। यवनों को परास्त करके उसने अपने राज्य की पश्चिमी सीमा स्यालकोट तक बढ़ा ली। साकेत से यूनानियांे को भगा देने से मध्य प्रदेश में उसके राज्य को स्थायित्व मिल गया। विदर्भ विजय ने उसका राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत कर दिया। इस प्रकार पुष्यमित्र का राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी तक विस्तृत था।

पुष्यमित्र की उपलब्धियाँ

ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार: चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म को तथा अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्याश्रय दिया। इस कारण ब्राह्मण धर्म का वेग मंद पड़ गया। पुष्यमित्र शुंग स्वयं ब्राह्मण था इसलिये उसने ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के लिये प्रयास किया। पुष्यमित्र के राजपुरोहित का यह कथन उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणों एवं श्रमणों में शाश्वत विरोध है। पतंजलि पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे। इतिहासकारों का मानना है कि पतंजलि ने संस्कृत भाषा को बोधगम्य एवं सरल बनाने के लिये अष्टाध्यायी के महाभाष्य की रचना पुष्यमित्र के शासन काल में की। मनुस्मृति भी इसी काल में लिखी गई। इसमें भावी ब्राह्मण व्यवस्था की रूपरेखा थी। महर्षि पंतजलि के महाभाष्य से हमें ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने ब्राह्मण-धर्म को संरक्षण प्रदान किया और उसे राज धर्म बना दिया। ब्राह्मण धर्म और व्यवस्था के पुनरुद्धार का यह कार्य कण्वों और सातवाहनों के समय में भी चलता रहा।

बौद्ध धर्म का दमन: बौद्ध-ग्रन्थ ‘दिव्यावदान’ के अनुसार पुष्यमित्र, बौद्धों का विरोधी था और उनके साथ अत्याचार करता था। पुष्यमित्र ने 84 हजार स्तूपों को नष्ट करके ख्याति प्राप्त करने का प्रयत्न किया तथा बहुत से स्तूपों को नष्ट कर दिया। उसने यह घोषणा करवाई कि जो कोई व्यक्ति उसे बौद्ध भिक्षु का सिर लाकर देगा, उसे 100 दीनार देगा। तिब्बती लेखक तारानाथ लिखता है कि पुष्यमित्र ने मध्य प्रदेश से जालंधर तक बहुत से बौद्धों का वध किया और उनके स्तूपों तथा विहारों को भूमिसात किया। आर्य मंजूश्रीमूलकल्प में भी इसी प्रकार का वर्णन है। अधिकांश विद्वानों ने इन कथनों का विरोध करते हुए लिखा है कि चूंकि वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था इसलिये बौद्धों ने उसके विरुद्ध इस तरह की अनर्गल बातें लिखीं। भारतीय इतिहास में इस तरह की परम्परा कभी भी देखने को नहीं मिलती जब किसी भारतीय आर्य राजा ने दूसरे धर्मावलम्बियों की हत्या करवाई हो। पुष्यमित्र के समय भारतवासी दीनार शब्द से परिचित ही नहीं थे इसलिये दीनार देने की घोषणा करने वाली बात मिथ्या है तथा बाद के किसी काल में गढ़ी गई है।

सहिष्णु शासक: अधिकांश इतिहासकार पुष्यमित्र को सहिष्णु राजा स्वीकार करते हैं। पुष्यमित्र ने भरहुत, बोध गया तथा सांची के स्तूपों को नया रूप दिया और उनके आकार को बढ़ाया। भरहुत स्तूप के प्राचीर पर सुगनं रजे लिखा हुआ है जिसका अर्थ है कि स्तूप का यह भाग शुंग शासक के काल में निर्मित हुआ। दिव्यावदान में उल्लेख है कि उसने कई बौद्धों को अपना मंत्री बनाया। मालविकाग्निमित्र से विदित होता है कि पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र की राजसभा में एक बौद्ध धर्मावलम्बी भगवती कौशिकी नामक महिला थी जिसे बहुत सम्मान दिया जाता था। अतः स्पष्ट है कि पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा आर्य परम्पराओं के अनुसार उसने दूसरे धर्मों के लोगों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार किया।

पुष्यमित्र का शासन काल

वायु पुराण तथा कतिपय अन्य पुराणों में पुष्यमित्र द्वारा 60 वर्ष तक शासन किया जाना बताया गया है जो कि सत्य प्रतीत नहीं होता। संभवतः इसमें वह अवधि भी जोड़ ली गई है जिस अवधि में उसने अवंति के गवर्नर के रूप में शासन किया। कुछ इतिहासकार पुष्यमित्र के शासन की अवधि 36 वर्ष तथा कुछ इतिहासकार 33 वर्ष मानते हैं। माना जाता है कि 148 ई. पू. में उसका निधन हुआ।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी: शुंग-वंश में कुल दस शासक हुए, जिन्होंने लगभग 112 वर्ष तक शासन किया। इनके नाम इस प्रकार से हैं- (1) पुष्यमित्र, (2) अग्निमित्र, (3) वसुज्येष्ठ, (4) वसुमित्र, (5) आन्ध्रक, (6) पुलिन्डक, (7) घोष, (8) वज्रमित्र, (9) भाग और (10) देवभूति।

शुंगकालीन कला

शुंग-काल में यद्यपि मौर्यकालीन अनेक भवनों एवं स्तूपों के निर्माण को पूरा किया गया था किन्तु इस काल में ब्राह्मण-धर्म के प्रभाव से मन्दिरों एवं मूर्तियों का अधिक बाहुल्य दिखाई पड़ता है। हिन्दू देवी-देवताओं विष्णु, शिव, ब्रह्मा, बलराम, लक्ष्मी, वासुदेव आदि की मूर्तियों की बहुतायत है। बेसनगर में गरुड़ध्वज के साथ खड़ी विष्णु मूर्ति इसी काल में निर्मित हुई।

शुंग वंश का अंत

कहा जाता है कि शुंगवंश का अंतिम शासक देवभूति अत्यंत कामुक राजा था। 72 ई.पू. में देवभूति के मन्त्री वसुदेव कण्व ने देवभूति का वध करके नये राजवंश की स्थापना की।

कण्व-वंश

इस वंश का संस्थापक वसुदेव कण्व था। इतिहासकार अब तक इस वंश के समय की किसी उल्लेखनीय घटना अथवा विशेष उपलब्धि का पता नहीं लगा पाये हैं। इस वंश में कुल चार शासक- वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण तथा सुशर्मा हुए जिन्होंने कुल 45 वर्षों तक शासन किया। इस वंश का अन्तिम शासक सुशर्मा था। पुराणों में कहा गया है कि कण्व वंश के शासक धर्मानुकूल शासन करेंगे। इससे अनुमान होता है कि शुंगों के शासन काल में ब्राह्मण धर्म व्यवस्था चलती रही। इस वंश के शासन के बारे में इससे अधिक जानकारी नहीं मिलती। पुराणों से ज्ञात होता है कि 28 ई.पू. अथवा 27 ई.पू. में आन्ध्र अथवा सातवाहन वंश के सिमुक ने सुशर्मा का वध करके कण्व वंश का अन्त कर दिया और स्वयं मगध का शासक बन गया। कण्व काल में संस्कृत के प्रसिद्ध कवि भास ने ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’ नाटक की रचना की।

आन्ध्र अथवा सातवाहन-वंश

आन्ध्र एक जाति का नाम था जो गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मध्य-भाग में निवास करती थी। वायु पुराण के अनुसार आन्ध्र जाति में उत्पन्न सिन्धुक, कान्वायन सुशर्मा एवं शुंगों की अवशिष्ट शक्ति को नष्ट कर राज्य प्राप्त करेगा। इस कथन से अनुमान होता है कि सिमुक ने कण्व तथा शुंग दोनों वंशों की शक्ति को नष्ट किया। इससे यह भी अनुमान होता है कि कण्वों के समय में भी शुंग किसी न किसी भू-भाग पर किसी न किसी रूप में शासन कर रहे थे।

आर्य अथवा अनार्य ?

निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आन्ध्र लोग आर्य थे अथवा अनार्य! कुछ विद्वानों के विचार से ये मूलतः अनार्य थे परन्तु आर्यों के घनिष्ठ सम्पर्क में आ जाने से इन्होंने आर्य-सभ्यता तथा संस्कृति को अपना लिया था। इससे यह बताना कठिन हो गया कि ये लोग आर्य थे अथवा अनार्य। आंयगर के अनुसार आन्ध्र लोग अनार्य प्रजाति के थे जो धीरे-धीरे आर्य बना लिये गये। वे दक्षिण भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में निवास करते थे और काफी शक्तिशाली थे।’

भारतीय पुराण इस राजवंश को आन्ध्रजातीय अथवा आन्ध्रभृत्य लिखते हैं किंतु इस वंश के लेखों में कहीं पर भी आन्ध्र नाम का प्रयोग नहीं हुआ है। इस वंश के राजा स्वयं को सातवाहन लिखते थे। लिखित साहित्य में इस वंश के लिये कहीं-कहीं शालिवाहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथ दक्षिणी भारत में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के बीच के प्रदेश को आन्ध्र जाति का निवास स्थान बताते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार यह प्रदेश आर्य संस्कृति से बाहर था। पुराणों में आन्ध्रों की गणना पुण्ड्र, शबर और पुलिंद आदि अनार्यों के साथ हुई है। उपरोक्त तथ्यों के अनुसार यदि इस वंश को आन्ध्र वंश माना जाये तो यह राजवंश अनार्य सिद्ध होता है।

क्या सातवाहन ब्राह्मण थे ?

जहां पुराण एक ओर आंध्र वंश को अनार्य बताते हैं वहीं वे, सातवाहन राजाओं को ब्राह्मण बताते हैं जो मगध पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने से पहले दक्षिण भारत में निवास करते थे। कुछ सातवाहन राजाओं के नामों में गौतम और वसिष्ठ लगा हुआ है। ये ब्राह्मण गोत्र हैं। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता गौतमी बलश्री को राजर्षिवधू कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह ब्राह्मण-कन्या नहीं थी यदि ब्राह्मण-कन्या होती तो उसे ब्रह्मर्षि कन्या लिखा जाता। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को एकबम्हन कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह एक ब्राह्मण था। सेनार, ब्यूलर आदि अधिकांश विद्वानों ने सातवाहनों को ब्राह्मण माना है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने सातवाहनों को आन्ध्र का भृत्य बताते हुए लिखा है- ‘यह विश्वास करने योग्य बात है कि आन्ध्र-भृत्य अथवा सातवाहन राजा ब्राह्मण थे जिनमें कुछ नाग-रक्त का सम्मिश्रण था।’

यदि यह वंश, आर्य वंश था तथा ब्राह्मण जाति का था फिर भी ब्राह्मण ग्रंथों ने इसे अनार्य क्यों कहा ? इसका कारण यह था कि यह वंश पहले, महाराष्ट्र में राज्य करता था परंतु कालान्तर में शकों ने इस राजवंश को परास्त करके महाराष्ट्र से निकाल दिया। पराजित राजवंश महाराष्ट्र को छोड़कर गोदावरी एवं कृष्णा के बीच आन्ध्र प्रदेश में जाकर बस गया। आंध्र देश पर राज्य करने के कारण यह राजवंश आन्ध्र कहलाने लगा। अतः आन्ध्र नाम, प्रादेशिक संज्ञा है, जातीय संज्ञा नहीं है।

आंध्र अथवा सातवाहन ?

बृहद्देशी नामक ग्रंथ में आन्ध्री और सातवाहनी नामक दो पृथक-पृथक रागिनियों का उल्लेख है। इससे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि आन्ध्र तथा सातवाहन दो पृथक जातियां थीं किंतु कतिपय विद्वानों के अनुसार आन्ध्र जाति में सातवाहन नामक राजकुमार हुआ, जिसके वंशज सातवाहन कहलाये। इस प्रकार आन्ध्र ‘जाति’ का और सातवाहन ‘कुल’ का नाम था।

सिमुक

सातवाहन-वंश का पहला राजा सिमुक था। उसे सिसुक सिंधुक, शिशुक तथा शिप्रक आदि नामों से भी पुकारा गया है। इसे भृत्य भी कहा गया है। अतः अनुमान होता है कि वह आरंभ में किसी राजा का सामन्त था। बाद में स्वतंत्र शासक बना। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान अथवा पैठन थी जो गोदावरी नदी के तट पर स्थित थी। 28 ई.पू. में सिन्धुक ने कण्व-वंश के अन्तिम शासक देवभूति की हत्या करके मगध पर अधिकार कर लिया। डॉ. राय चौधरी ने इसे 60 ई.पू. से 37 ई.पू. के बीच के कालखण्ड का माना है।

कृष्ण

पुराणों के अनुसार सिमुक का भाई कृष्ण, सिमुक का उत्तराधिकारी था। कुछ इतिहासकार नासिक गुहा लेख में वर्णित कन्ह को इस कृष्ण से मिलाते हैं। उसके समय में एक श्रमण महामात्र ने नासिक में एक गुफा का निर्माण करवाया। इससे प्रकट होता है कि नासिक पर कृष्ण का शासन था।

शातकर्णि (प्रथम)

सातवाहन वंश का प्रथम शक्तिशाली राजा शातकर्णि था। इसके शासन के अनेक साक्ष्य मिलते हैं। पुराण इसे कृष्ण का पुत्र कहते हैं किंतु नानाघाट शिलालेख में उसे सिमुक सातवाहनस वंसवधनस (सिमुक सातवाहन के वंश को बढ़ाने वाला) कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह सिमुक का पुत्र था। शातकर्णि की रानी का नाम नागानिका था जो अंगीय वंश के राजा की पुत्री थी। शातकर्णि ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किये। नानाघाट अभिलेख द्वितीय अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख करता है। प्रथम अश्वमेध यज्ञ के उल्लेख वाला अभिलेख अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। द्वितीय अश्वमेध यज्ञ में उसने बड़ी संख्या में गाय, घोड़े, हाथी, गांव, सुवर्ण आदि का दान किया। सांची अभिलेख में भी राजा शातकर्णि का उल्लेख मिलता है। जिससे प्रकट होता है कि शातकर्णि का शासन मालवा पर भी था। यह प्रदेश स्वयं शातकर्णि ने जीता था। शातकर्णि ने मालवा शैली की गोल मुद्राएं चलाई थीं। शातकर्णि ने एक विशाल राज्य की स्थापना की जिसमें महाराष्ट्र का अधिकांश भाग, उत्तरी कोंकण और मालवा सम्मिलित थे। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी। शातकर्णि ही प्रथम सातवाहन राजा था जिसने दक्षिण भारत में सातवाहनों की प्रभुसत्ता स्थापित की।

शातकर्णि के उत्तराधिकारी

शातकर्णि की मृत्यु के समय उसके दो पुत्र अल्पवयस्क अवस्था में थे इसलिये शातकर्णि की रानी नागानिका ने संरक्षिका के रूप में शासन भार संभाला। शातकर्णि के निर्बल उत्तराधिकारियों को शकों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। यहीं से शक-सातवाहन संघर्ष आरम्भ हुआ जो दीर्घकाल तक चलता रहा। शकों ने महाराष्ट्र, राजपूताना के कुछ भाग, अपरान्त, गुजरात, काठियावाड़ और मालवा पर अधिकार कर लिया। इनमें से कुछ प्रदेश पहले सातवाहनों के अधीन थे। शातकर्णि प्रथम तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच का लगभग 100 वर्ष का इतिहास अंधकार मय है। इस अवधि में सातवाहन राजाओं के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। इस अवधि में सातवाहनों का एकच्छत्र राज्य बिखर गया तथा उनकी कई शाखाएं विकसित हो गईं। पौराणिक विवरणों में शातकर्णि तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच 10, 12, 13, 14 अथवा 19 राजाओं के नाम मिलते हैं।

गौतमी-पुत्र शातकर्णि

106 ई. के लगभग सातवाहन वंश में महापराक्रमी नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि का उदय हुआ जिसने सातवाहन वंश का पुनरुद्धार किया। पुराणों के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि, सातवाहन वंश का तेइसवाँ राजा था। वह सातवाहन वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली राजा था। उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और सम्पूर्ण दक्षिणापथ तथा मध्य भारत पर अधिकार कर लिया। एक विजेता के रूप में उसका सबसे अधिक प्रशंसनीय कार्य यह था कि उसने शकों को महाराष्ट्र से मार भगाया। गौतमी-पुत्र शातकर्णि महान् विजेता ही नहीं, वरन् कुशल शासक भी था। वह अपने राज्य में पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में सफल रहा। उसने 106 ई. से 130 ई. तक शासन किया।

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियाँ

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियां सम्पूर्ण सातवाहन वंश को गौरव प्रदान करती हैं। गौतमीपुत्र शातकर्णि की सफलताओं का विवरण गौतमीपुत्र शातकर्णि के पुत्र वसिष्ठीपुत्र पुलमावी के नासिक अभिलेख तथा गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में मिलता है। उसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन निम्नलिखित तथ्यों के आलोक में किया जा सकता है-

(1) सातवाहन वंश की पुनर्स्थापना: गौतमीपुत्र शातकर्णि ने विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से पतन की ओर जा रहे सातवाहन वंश का उद्धार करके इस वंश की पुनर्स्थापना की। गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में उसे अपराजितविजय पताकः कभी परास्त न होने वाला कहा गया है।

(2) शक, यवन और पह्लवों पर विजय: वसिष्ठीपुत्र पुलमावी के नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को सातवाहन कुल के यश को फिर से स्थापित करने वाला बताया गया है। इस कार्य को पूर्ण करने के लिये उसे क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन करना पड़ा। शक, यवन और पह्लवों का नाश करना पड़ा और क्षहरात वंश का निर्मूलन करना पड़ा।

(3) क्षत्रियों के दर्प का मर्दन: गौतमीबलश्री के नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को ‘खतिय-दप-मान-मदनस’ अर्थात क्षत्रियों के दर्प एवं मान का मर्दन करने वाला कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि उसने बहुत से तत्कालीन क्षत्रिय राजाओं को परास्त करके अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

(4) क्षहरात वंश पर विजय: नासिक के दो अभिलेखों से प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने क्षहरात वंश को पराजित करके अपने वंश का राज्य स्थापित कर लिया। जोगलथम्भी-मुद्रा-भाण्ड में ऐसी 9000 मुद्रायें मिली हैं जिन पर नहपान तथा गौतमीपुत्र दोनों के नाम अंकित हैं। इससे प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नहपान को पराजित करने के पश्चात् उसकी मुद्राओं पर अपना नाम अंकित करने के पश्चात् उन्हें फिर से प्रसारित किया। कुछ विद्वान यह नहीं मानते कि नहपान तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि समकालीन थे। स्मिथ के अनुसार जोगलथम्भी-मुद्रा- भाण्ड में नहपान की जो 13 हजार मुद्राएं मिली हैं तथा जिनमें से 9000 मुद्राओं को गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा फिर से चलाया गया था, वे बहुत पहले से चल रही थीं तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में भी चल रही थीं। इन मुद्राओं से यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नहपान को परास्त किया था। नहपान तो गौतमीपुत्र शातकर्णि से पहले ही मर चुका था।

(5) सम्पूर्ण दक्षिणापथ पर विजय: नासिक अभिलेख के अनुसार उसके साम्राज्य में गोदावरी और कृष्णा के मध्य का प्रदेश (असिक), गोदावरी का तटीय प्रदेश (अश्मक), पैठान के चतुर्दिक प्रदेश (मूलक), दक्षिणी काठियावाड़ (सुराष्ट्र), उत्तरी काठियावाड़ (कुकुर), बम्बई का उत्तरी प्रदेश (अपरांत), नर्मदा नदी पर महिष्मति प्रदेश (अनूप), बरार (विदर्भ), पूर्वी मालवा (आकर), पश्चिमी मालवा (अवन्ति) सम्मिलित थे।

(6) तीनों समुद्रों तक सीमा का विस्तार: गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि का राज्य सम्पूर्ण दक्षिणापथ में विस्तृत था। इस अभिलेख में उसे कभी परास्त न होने वाला कहा गया है। इसी अभिलेख में उसे त्रिसमुद्र तोय-पीत-वाहनस्य कहा गया है। अर्थात् उसके वाहनों (हाथियों) ने तीनों समुद्रों (अरब सागर, बंगाल की खाड़ी तथा हिन्द महासागर) का जल पिया। यह हो सकता है कि यह केवल एक काव्यात्मक अतिरंजना हो किंतु निश्चय ही इतनी विजयों के बाद उसका प्रभाव सम्पूर्ण दक्षिण भारत ने स्वीकार कर लिया होगा।

(7) वर्णाश्रम धर्म की पुनर्स्थापना: गौतमी बलश्री के अभिलेख  के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि को राम, केशव, अर्जुन और भीम के सदृश पराक्रम वाला बताया गया है। वह विजयोन्मत्त नहीं था। उसका निर्भय हाथ अभयोदक देने में आर्द्र रहता था। शत्रुओं की प्राण हिंसा में उसकी रुचि नहीं थी। वह आगमों का ज्ञाता था, श्रेष्ठ पुरुषों का आश्रयदाता था और सदाचारी था। वह धर्मशास्त्र सम्मत कर ही लेता था। वह द्विज एवं द्विजेत्तर समस्त कुलों का पोषक था। उसने वर्ण संकरता को रोककर वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थिरता प्रदान की।

(8) शकों से वैवाहिक सम्बन्ध: शकों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए गौतमीपुत्र शातकर्णि ने उनसे वैवाहिक सम्बन्ध बनाये ताकि उसके वंशजों का भविष्य सुरक्षित हो सके और उसके साम्राज्य को स्थायित्व मिल सके। उसने अपने पुत्र वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि का विवाह शक क्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री के साथ किया।

वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि

पौराणिक विवरणों के अनुसार गौतमीपुत्र के बाद वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि सातवाहन सम्राट बना। वह 130 ई. में सिंहासन पर बैठा। टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्योग्राफी में प्रतिष्ठान का शासक सिरोपोलेमायु को बताया है। पुराणों में उसे पुलोमा कहा गया है। उसकी कुछ मुद्राओं पर उसका नाम वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि मिलता है। 150 ई. के रुद्रदामन अभिलेख में जूनागढ़, पूर्वी मालवा, महिष्मती का निकटवर्ती प्रदेश, कठियावाड़, पश्चिमी राजस्थान और उत्तरी कोंकण आदि क्षेत्र रुद्रदामन के राज्यक्षेत्र में बताये गये हैं। ये प्रदेश गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में सातवाहनों के अधिकार में थे। अतः अनुमान होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि की मृत्यु के बाद शकों ने फिर से सिर उठा लिया तथा सातवाहनों के कई प्रदेश छीन लिये। रुद्रदामन का अभिलेख कहता है कि रुद्रदामन ने शातकर्णि राजा को दो बार परास्त किया किंतु उससे वैवाहिक सम्बन्ध होने के कारण उसे नष्ट नहीं किया। वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि ने अपने क्षेत्रों की भरपाई करने के लिये आंध्र, विदर्भ तथा कोरोमण्डल तट तक अपना राज्य विस्तृत किया। प्रतिष्ठान उसकी राजधानी बनी रही। नासिक भी उसके अधीन बना रहा। नासिक अभिलेख में उसे दक्षिणापथेश्वर कहा गया है। पुलुमावि ने 130 ई. से 154 ई. अथवा 159 ई. तक शासन किया। उसके उत्तराधिकारी निर्बल थे। उनमें से कइयों का तो अब विवरण भी नहीं मिलता।

यज्ञश्री शातकर्णी

इस वंश का अन्तिम उल्लेखनीय शासक यज्ञश्री शातकर्णी था। पुराणों के अनुसार वह, गौतमीपुत्र के 35 वर्ष बाद सिंहासन पर बैठा तथा उसने 29 वर्ष शासन किया। अनुमान होता है कि वह 165 ई. से 194 ई. तक शासन करता रहा। अपरांत की राजधानी सोपारा से उसके सिक्के मिले हैं जो रुद्रदामन के सिक्कों का प्रतिरूप मात्र हैं इससे अनुमान होता है कि उसने शकों से अपरान्त फिर से छीन लिया था। यज्ञश्री शातकर्णि की मुद्रायें गुजरात, काठियावाड़, पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा, मध्यप्रदेश और आन्ध्र प्रदेश में पाई गईं। वे शक मुद्राओं के प्रारूप पर बनी हैं इससे अनुमान होता है कि उसने शकों पर विजय प्राप्त की। उसके काल में सातवाहन राज्य अरबसागर तक विस्तृत था। उसके काल में व्यापारिक उन्नति हुई। उसकी कुछ मुद्राओं पर दो मस्तूल वाले जहाज, मछली एवं शंख आदि का अंकन मिलता है। सातवाहन शक संघर्ष का यह अंतिम चरण था। इसके बाद दोनों के संघर्ष के उल्लेख अप्राप्य हैं।

अंतिम शासक

यज्ञश्री शातकर्णी के बाद सातवाहन वंश का उत्तरोत्तर पतन ही होता गया। सातवाहन वंश का अंतिम शासक पुलुमावि चतुर्थ था। पुराणों के अनुसार उसने सात वर्ष शासन किया। उसका शासन काल सम्भवतः 220 ईस्वी से 227 ईस्वी तक था। कालान्तर में महाराष्ट्र पर आभीर-वंश ने और दक्षिणापथ पर इक्ष्वाकु तथा पल्लव-वंश ने अधिकार स्थापित कर लिये। इस प्रकार तीसरी शताब्दी तक सातवाहन वंश का अन्त हो गया।

सातवाहनों के शासन काल का साहित्य

अनेक सातवाहन राजा उच्च कोटि के विद्वान थे और विद्वानों के आश्रयदाता थे। हाल नामक सातवाहन राजा अपने समय में प्राकृत का विख्यात कवि था जिसने श्ृगांर-रस की ‘गाथा सप्तसती’ नामक ग्रन्थ की रचना की। हाल की राजसभा में गुणाढ्य नामक विद्वान् रहता था जिसने ‘वृहत्कथा’ नामक ग्रंथ की रचना की।

सातवाहनों के शासन काल में धर्म

सातवाहन-काल में भारत में बौद्ध तथा ब्राह्मण, दोनों ही धर्म उन्नत दशा में थे। शासक वर्ग में अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञ करने तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देने का प्रचलन था। इस काल में दक्षिण भारत में शैव-धर्म का सर्वाधिक प्रचार हुआ। उत्तर भारत में शिव तथा कृष्ण की आराधना विशेष रूप से होती थी। इस काल में धार्मिक-सहिष्णुता उच्च कोटि की थी।

भारत के विदेशी शासक

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भारत के विदेशी शासक

भारत के विदेशी शासक – रुद्रदामन एवं कनिष्क की उपलब्धियों का मूल्यांकन अध्याय – 16

विदेशी आक्रमण

अशोक की मृत्यु के साथ ही भारत की राजनीतिक विशृंखलता पुनः आरम्भ हो गई। उत्तरकालीन मौर्य शासकों में इतनी शक्ति न थी कि वे पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित रख सकते। इसलिये उत्तर-पश्चिम की ओर से यवन, शक, कुषाण आदि विदेशियों के आक्रमण आरम्भ हो गये और उन्होंने भारत में अपनी सत्ता जमा ली।यूनानी शासक

यूनानी शासक

यूनानियों को यवन कहा जाता है। भारत पर पहला यूनानी आक्रमण 322 ई.पू. में मकदूनिया के शासक सिकन्दर ने किया किंतु उसे अपना विजय अभियान बीच में ही छोड़ देना पड़ा। उसने सैल्यूकस निकेटर को पंजाब का गवर्नर बनाया था।

सैल्यूकस ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण किया किंतु परास्त होकर संधि करने को विवश हुआ। चंद्रगुप्त ने उसे भारत की सीमा से बाहर कर दिया। सैल्यूकस के उत्तराधिकारी अपनी सेनाओं तथा सैनिक परिवारों के साथ हिन्दूकुश पर्वत तथा आक्सस नदी के मध्य स्थित बैक्ट्रिया में स्थायी रूप से निवास करने लगे। यहीं से वे भारत की राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि लगाये रहते थे।

डिमैट्रियस: अशोक की मृत्यु के उपरान्त जब मौर्य-साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ तब बैक्ट्रिया के यूनानियों के आक्रमण भी भारत पर आरम्भ हो गये। इन दिनों बैक्ट्रिया में डिमेट्रियस नामक राजा शासन कर रहा था। उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उसने 190 ई.पू. में भारत पर आक्रमण किया।

काबुल तथा पंजाब पर अधिकार स्थापित करने के बाद वह तेजी से आगे बढ़ता हुआ पाटलिपुत्र तक पहुँच गया। उसकी यह विजय क्षणिक सिद्ध हुई क्योंकि मध्य-प्रदेश में उसके पैर नहीं जम  सके। कंलिग के खारवेल राजा ने उसे न केवल पूर्वी प्रदेशों से वरन् पंजाब से भी मार भगाया।

मगध के राजा पुष्यमित्र शुंग ने भी यवनों का पीछा किया और उन्हें सिन्धु नदी के उस पार खदेड़ दिया परन्तु भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में यूनानियों के पैर जम गये और डिमेट्रियस पूर्वी पंजाब में शाकल (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाकर वहीं से शासन करता रहा।

मिनैण्डर: इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक मिनैण्डर अथवा मेनेन्द्र था। बौद्ध-ग्रन्थों में उसे मिलिन्द कहा गया है। उसका शासन-काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक माना जाता है। उसने भी शाकल अथवा स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मेनेन्द्र बहुत बड़ा विजेता था। उसने शुंग राजाओं के साथ भी लोहा लिया। नागसेन नामक बौद्ध-भिक्षु ने उसे बौद्ध-धर्म में दीक्षित किया। इससे वह बौद्धों का आश्रयदाता बन गया।

उसने बहुत से बौद्ध मठों, स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। वृद्धावस्था में उसने एक बौद्ध-भिक्षु की तरह जीवन व्यतीत किया और अर्हत् का पद प्राप्त किया। मेनेन्द्र के उत्तराधिकारी निर्बल सिद्ध हुए। उन्होंने 50 ई.पू. तक शासन किया। अन्त में शकों ने उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया।

यूक्रेटिडस: 162 ई.पू. में बैक्ट्रिया के शासक यूक्रेटिडस ने भारत पर आक्रमण किया और काबुल की घाटी तथा पश्चिमी पंजाब पर अधिकार जमा लिया। तक्षशिला, पुष्कलावती तथा कपिशा भी उसके अधिकार में थे। 155 ई.पू. में यूक्रेटिडस के पुत्र ने उसका वध कर दिया। इन दिनों यूनानियों पर शकों के आक्रमण हो रहे थे।

शकों ने न केवल भारत से यूनानियों को मार भगाया, अपितु बैक्ट्रिया पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार लगभग 40 ई. पू. में यवनों की सत्ता भारत में समाप्त हो गई और भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में शकों की सत्ता स्थापित हो गई।

शक शासक

शक पर्यटनशील थे। वे मूलतः मध्य-एशिया में सिकंदरिया के उत्तरी प्रदेश में निवास करते थे। उनके समीप उत्तरी-पश्चिमी चीन में यू-ची नाम की एक दूसरी जाति निवास करती थी। यूचियों के पड़ौस में हूँग-नू नामक दूसरी जाति निवास करती थी। 174-176 ई.पू. में हूँग-नू जाति ने यूचियों पर आक्रमण करके उन्हें अपने निवास-स्थान से मार भगाया।

अब यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में निकल पड़े और अपने पड़ौस में बसने वाले शकों पर टूट पड़े तथा उन्हें वहाँ से मार भगाया। इस प्रकार शक लोग अपनी जन्म-भूमि छोड़ने पर विवश हो गये और दक्षिण की ओर चल पडे। ये लोग कई शाखाओं में विभक्त हो गये और विभिन्न देशों में चले गये।

बैक्ट्रिया पर अधिकार: शकों की एक शाखा ने हेलमन्द नदी की घाटी पर अधिकार जमा लिया और उसका नाम शकस्तान अथवा सीस्तान रखा। यहाँ पर भी ये शान्ति से नहीं रह पाये। यूचियों के दबाव के कारण उन्हें आगे बढ़ना पड़ा। अब वे बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के राज्यों पर टूट पड़े। उन्हें पार्थिया के विरुद्ध विशेष सफलता प्राप्त नहीं हो सकी परन्तु पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बैक्ट्रिया पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया।

शकों का भारत में प्रवेश

शकों ने बैक्ट्रिया से भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया। उन्होंने कन्दहार तथा बिलोचिस्तान से होकर बोलन के दर्रे से सिन्ध के निचले प्रदेश में प्रवेश किया और वहीं पर बस गये। शकों के नाम पर इस प्रदेश का नाम शकद्वीप पड़ गया। इसी को शकों ने अपना आधार बनाया और यहीं से वे भारत के विभिन्न भागों मे फैल गये।

जॉन मार्शल के अनुसार भारत में शकों का पहला शासक मावेज था। मावेज के बाद एवेज शकों का शासक बना। एजीलिसेज उसे गद्दी से हटाकर स्वयं शासक बन गया। उसने 12 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद एवेज द्वितीय ने लगभग 43 ई. तक शासन किया।

भारत के विभिन्न भागों पर अधिकार

सिन्ध में अपनी सत्ता स्थापित कर लेने के उपरान्त शकों ने काठियावाड़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और एक ही वर्ष में वे सौराष्ट्र तक पहुंच गये। इसके बाद उन्होंने उज्जयिनी पर आक्रमण किया और उस पर प्रभुत्व जमा लिया। शक आक्रांता उज्जैन से मथुरा की ओर बढ़े और उस पर भी अधिकार कर लिया।

अब शक लोग दो मार्गों से पंजाब की ओर बढ़े। वे मथुरा से उत्तर-पश्चिम दिशा में और सिन्ध से नदियों के मार्ग द्वारा उत्तर-पूर्व दिशा में आगे बढ़े। कालान्तर में शकों ने पंजाब तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के एक बहुत बड़े भाग पर शकों का आधिपत्य स्थापित हो गया। नासिक तथा मथुरा के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि शकों की सत्ता पूर्व में यमुना नदी तक और दक्षिण में गोदावरी नदी तक व्याप्त थी।

क्षत्रप शासन-व्यवस्था

शकों ने भारत में विस्तृत राज्य स्थापित किया। इस पर नियंत्रण रखने के लिये उन्होंने क्षत्रप शासन-व्यवस्था स्थापित की। सामान्यतः शकों के प्रत्येक प्रांत में दो क्षत्रप होते थे- (1) क्षत्रप तथा (2) महाक्षत्रप।

स्पार्टा में द्वैराज्य की प्रथा थी। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इस बात का उल्लेख किया है। प्रारंभ में भारत के क्षत्रप अथवा महाक्षत्रप, स्वतंत्र राजा नहीं थे। वे प्रान्तीय शासक थे तथा केन्द्रीय शासक की अधीनता में शासन करते थे। क्षत्रप शासन-व्यवस्था पंजाब, मथुरा, महाराष्ट्र तथा उज्जैन में स्थापित हुई। शकों की केन्द्रीय शक्ति समाप्त हो जाने के बाद क्षत्रप एवं महाक्षत्रप स्वतंत्र हो गये।

भारत में शक क्षत्रपों के मुख्य केन्द्रों को चार भागों में बांटा जा सकता है-

(1.) उत्तरी भारत के क्षत्रप, (2.) पश्चिमी भारत के शक क्षहरात, (3.) मथुरा के क्षत्रप और (4.) उज्जयिनी के क्षत्रप।

उज्जयिनी का चष्टन वंश

उज्जयिनी के शक क्षत्रपों में पहला स्वतंत्र शासक चष्टन था। वह बड़ा पराक्रमी सिद्ध हुआ। उसके नाम पर उज्जयिनी का क्षत्रप वंश चष्टन वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

रुद्रदामन (प्रथम)

चष्टन के पुत्र का नाम जयदाम था जो चष्टन के जीवन काल में ही मर गया था। जयदाम के पुत्र का नाम रुद्रदामन था। चष्टन ने अपने पुत्र जयदाम की मृत्यु हो जाने के कारण, अपने पौत्र रुद्रदामन को अपने जीवन काल में ही अपने साथ क्षत्रप बना लिया था। अन्धौ अभिलेख के अनुसार चष्टन ने तथा जयदाम के पुत्र रुद्रदामन ने साथ-साथ शासन किया।

इस अभिलेख में चष्टन तथा रुद्रदामन दोनों के लिये समान रूप से राजा की उपाधि का उपयोग हुआ है। संभवतः दोनों के अधिकार समान थे। भारत के इतिहास में रुद्रदामन को महाक्षत्रप रुद्रदामन (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। वह उज्जयिनी के क्षत्रप शासकों में सर्वाधिक पराक्रमी था।

रुद्रदामन का शासन काल

अन्धौ अभिलेख की तिथि 52 शक संवत् अर्थात् 130 ई. है। इस समय रुद्रदामन, चष्टन के साथ शासन कर रहा था परंतु कतिपय इतिहासकारों के अनुसार रुद्रदामन 140 ई. के बाद सिंहासनारूढ़ हुआ क्योंकि टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्यॉग्राफी में उज्जैन के राजा चष्टन का ही उल्लेख किया है।

हो सकता है कि टॉलेमी ने दोनों राजाओं में से केवल वयोवृद्ध राजा का ही उल्लेख किया हो क्योंकि उसने भूगोल की पुस्तक लिखी न कि इतिहास की। जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन की प्रशस्ति है। इसकी तिथि 72 शक संवत् अर्थात् 150 ई. है। इससे प्रकट होता है कि रुद्रदामन ने कम से कम 150 ई. तक शासन किया।

रुद्रदामन का राज्य विस्तार

अन्धौ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चष्टन और रुद्रदामन सम्मिलित रूप से कच्छ प्रदेश पर शासन कर रहे थे। जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन को स्ववीर्यजित जनपदों वाला, अर्थात् अपने पराक्रम से राज्यों को जीत कर राज्य करने वाला कहा गया है।

जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार आकर (मालवा), अवन्ति (उज्जयिनी), अनूप (नर्मदा के किनारे महिष्मती), नीवृत (पश्चिमी भारत में स्थित एक मण्डल), आनर्त (उत्तरी गुजरात एवं द्वारिका), सुराष्ट्र (सौराष्ट्र अथवा काठियावाड़), श्वभ्र (आधुनिक खेड़), मरु (मारवाड़ अथवा रेगिस्तान का प्रदेश), कच्छ (आधुनिक कच्छ), सिंधु-सौवीर (सिंधु की निचली घाटी), कुकुर (राजपूताना और गुजरात के कुछ भाग), अपरांत (उत्तरी कोंकण) तथा निषाद (पश्चिमी विंध्य एवं सरस्वती की घाटी) रुद्रदामन के राज्य के अंतर्गत थे।

रुद्रदामन के युद्ध अभियान

(1) यौधेयों पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने उन यौधेयों को परास्त किया जिन्हें समस्त क्षत्रियों ने अपना वीर मान लिया था। सिक्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि यौधेयों ने कुषाणों के विरुद्ध एक संघ बना लिया था तथा समस्त क्षत्रियों ने मिलकर यौधेयों को अपना नेता चुना था।

(2) दक्षिणापथ पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को युद्ध में दो बार पराजित किया किंतु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसके प्राण नहीं लिये। इतिहासकार इस शातकर्णि राजा को वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि मानते हैं।

रुद्रदामन का शासन प्रबंध

जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि रुद्रदामन जन्म से लकर राजत्व की प्राप्ति तक राजगुणों और लक्षणों से विभूषित था। इसलिये सभी वर्णों के लोगों ने उसे अपनी रक्षा के लिये अपना स्वामी चुना। इससे उसकी लोकप्रियता का पता चलता है। उसके साम्राज्य में विभिन्न राजपदों, नगरों और निगमों के लोग दस्युओं, सर्पों, हिंसक पशुओं और रोगों से मुक्त थे।

सम्पूर्ण प्रजा उससे अनुरक्त थी। उसने सुदर्शन झील की मरम्मत अपने ही कोष से बिना कोई कर लगाये, प्रजा की समृद्धि के लिये करवाई। इस प्रकार वह प्रजावत्सल जनप्रिय शासक था। उसका कोष सोना, चांदी, वज्र, वैदूर्य, रत्न और बहुमूल्य वस्तुओं से भरा हुआ था जिसे उसने धर्मानुसार बलि, शुल्क तथा भाग के रूप में प्राप्त किया था।

उसने अपने शासन को विभिन्न प्रांतों में बांट रखा था और प्रत्येक प्रांत में अपने अमात्य नियुक्त कर रखे थे। उसकी शासन पद्धति में सचिवों और अमात्यों का महत्वपूर्ण स्थान था। शासन में सहायता देने के लिये मति सचिव (परामर्शदाता), कर्म सचिव (कार्यकारी अधिकारी) आदि नियुक्त थे। रुद्रदामन की शासन पद्धति प्रचलित सप्तांग राज्य-व्यवस्था पर आधारित थी। राज्य की समृद्धि के लिये सिंचाई का उत्तम प्रबंध किया गया था।

रुद्रदामन का व्यक्तित्व

शक क्षत्रपों में रुद्रदामन सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ। उसकी सबसे प्रसिद्ध लिपि जूनागढ़ अभिलेख ही है जिसमें कहा गया है कि वह महान कुरुओं के सम्पर्क में आया तथा उन्होंने ही उसे रुद्रदामन की संज्ञा दी। इसी लेख में उसे शब्दार्थ, संगीत, न्याय आदि विद्याओं में कुशल होने के कारण यशस्वी कहा गया है।

शब्दार्थ से तात्पर्य शब्द शास्त्र अथवा साहित्य से हो सकता है। इसी लेख में उसे विविध शब्द और अलंकारों से युक्त गद्य-पद्य काव्य विधान में प्रवीण कहा गया है। उसकी वाणी संगीत एवं व्याकरण के नियमों से परिबद्ध तथा शुद्ध थी। इससे सिद्ध होता है कि वह गंधर्व विद्या में भी निपुण था।

जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत भाषा में लिखा गया है जिससे हमें उस युग के संस्कृत गद्यकाव्य के स्वरूप का दर्शन होता है। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि वह घोड़े, हाथी और रथ विद्याओं में भी प्रवीण था। असि-चर्म (तलवार-ढाल) के युद्ध में भी वह कुशल था। वह विजेता अवश्य था किंतु उसने निरर्थक रक्तपात न करने की शपथ ली थी। उसने अनेक स्वयंवरों में अपनी शक्ति, शौर्य तथा सौंदर्य से अनेक राजकन्याओं को प्राप्त किया।

रुद्रदामन के उत्तराधिकारी

रुद्रदामन के बाद उसका पुत्र दामघसद (दामोजदश्री) प्रथम, शासक बना। उसका उत्तराधिकारी जीवदामन था। इस वंश का अंतिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था। उसके समय में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसके शासन पर आक्रमण किया तथा उसे मार डाला।

गुप्तकाल में क्षत्रपों का विलोपन

कालान्तर में जब गुप्त साम्राज्य का उत्थान आरम्भ हुआ, तब समस्त क्षत्रप गुप्त साम्राज्य में समाविष्ट हो गये। इस काल में शकों ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को स्वीकार कर लिया और वे भारतीयों में इतना घुल-मिल गये कि वे अपने अस्तित्त्व को खो बैठे। आज उनका कहीं पर नाम-निशान नहीं मिलता।

पह्लव (पार्थियन) वंश

बैक्ट्रिया के पश्चिम में पार्थिया नामक प्रदेश स्थित था। यह प्रदेश सिकंदर द्वारा स्थापित साम्राज्य के सीरिया प्रांत के अंतर्गत आता था। पार्थिया के लोग पार्थियन अथवा पह्लव कहलाते थे। जिस समय शकों ने भारत में सत्ता स्थापित की उसी समय पह्लवों ने भी भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर आक्रमण करके उसके कुछ भाग में अपनी सत्ता स्थापित की।

माना जाता है कि पार्थिया का प्रथम स्वतंत्र शासक मिथेडेटस था। उसी के नेतृत्व में भारत पर पहला पार्थियन आक्रमण हुआ। पह्लवों के भारतीय राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक वानेजीज था। वह तक्षशिला के शक शासक मावेज का समकालीन था। उसका सीस्तान एवं दक्षिणी अफगानिस्तान पर भी शासन था।

उसने महाराज रजरस महतस (महाराजाधिराज) की उपाधि धारण की। वानेजीज के बाद स्पैलिरिसिस राजा हुआ। पह्लवों में गाण्डोफर्नीज सबसे प्रतापी शासक हुआ। उसने भारत में अपनी शक्ति का खूब विस्तार किया। उसका राज्य पूर्वी फारस से लेकर भारत में पूर्वी पंजाब तक था। उसकी राजधानी गांधार थी।

वह लगभग 19 ई. में सिंहासन पर बैठा तथा लम्बे समय तक शासन करता रहा। गाण्डोफार्नीज के बाद पह्लवों का राज्य दो भागों में विभक्त हो गया जिससे राज्य के विभिन्न भागों में नियुक्त गवर्नर स्वतंत्र होते चले गये। इसी समय कुषाणों के भारत पर आक्रमण आरम्भ हुए जिनके कारण पह्लवों का राज्य समाप्त हो गया।

पह्लव राजाओं के विषय में बहुत जानकारी मिलती है। जो कुछ जानकारी मिली है, वह भी विवाद-ग्रस्त है। इनका इतिहास शकों के साथ इतना घुल-मिल गया है कि उसे अलग करना कठिन है। शकों की भांति पह्लव भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपनाकर भारतीयों में घुल-मिल गये। पश्चिमोत्तर प्रदेश में पह्लवों, शकों तथा यूनानियों की राज-सत्ता को समाप्त करने का श्रेय एक नई जाति को प्राप्त हुआ जो ‘कुषाण’ के नाम प्रसिद्ध है।

कुषाण वंश

कुषाणों का प्राचीन इतिहास चीनी ग्रंथों में मिलता है। ये लोग यू-ची अथवा यूह्ची जाति की एक शाखा से थे। यू-ची लोग प्रारम्भ में चीन के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश में कानसू नामक प्रान्त में निवास करते थे। लगभग 165 ई.पू. में हूँग-नू (हूण) नामक जाति ने उन्हें वहाँ से मार भगाया।

इससे यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में पश्चिम की ओर बढ़ते हुए सिरदरया के प्रदेश में जा पहुँचे। यहाँ पर उन दिनों शक निवास करते थे। इसलिये यूचियों की शकों से मुठभेड़ हुई जिसमें यू-ची विजयी रहे। शकों को विवश होकर वहाँ से भाग जाना पड़ा परन्तु यू-ची लोग इस नये प्रदेश में शान्ति से नहीं रह सके। उनके पुराने शत्रु वू-सुन ने हूँग-नू जाति की सहायता से लगभग 140 ई.पू. में यू-ची लोगों को वहाँ से मार भगाया।

यू-ची लोग फिर नये प्रदेश की खोज मे आगे बढ़े। उन्होंने आक्सस नदी को पार कर लिया और ताहिया प्रदेश में पहुंच गये। यहाँ के लोगों ने उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। यू-ची, ताहिया-विजय से ही संतुष्ट न हुए। उन्होंने बैक्ट्रिया तथा उनके पड़ौस के प्रदेशों पर भी अधिकार स्थापित कर लिया।

कुजुल कदफिस

इस समय यू-ची, पाँच शाखाओं में विभक्त थे जिनके अलग-अलग नाम थे। इन्हीं में से एक का नाम कई-सांग अथवा कुषाण था। इस शाखा का नेता कुजुल कदफिस बड़ा ही साहसी योद्धा था। उसने यूचियों की अन्य शाखाओं पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इस प्रकार वह यूचियों का एकछत्र सम्राट् बन गया। उसका वंश कुषाण वंश कहलाया।

बैक्ट्रिया तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त कुजुल ने अपनी विशाल सेना के साथ भारत की ओर प्रस्थान किया। उसने सबसे पहले काबुल-घाटी में प्रवेश किया और यूनानियों की रही-सही शक्ति को नष्ट कर उस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने पूर्वी गान्धार प्रदेश पर अधिकार किया। लगभग अस्सी वर्ष की अवस्था में कुजुल का निधन हुआ।

विम कदफिस

कुजुल कदफिस के बाद उसका पुत्र विम कदफिस उसके साम्राज्य का स्वामी बना। विम कदफिस भी अपने पिता की भाँति वीर तथा साहसी था। उसके शासन-काल में कुषाणों की सत्ता भारत में बड़ी तेजी से आगे बढ़ने लगी। उसने थोड़े ही दिनों में पंजाब, सिन्ध, काश्मीर तथा उत्तर प्रदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। कुषाण लोग अपनी भारतीय विजय के साथ-साथ यहाँ की सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होते जा रहे थे। कुजुल कदफिस बौद्ध-धर्म का और उसका पुत्र विम कदफिस जैन-धर्म अनुयायी था।

कनिष्क (प्रथम)

विम कदफिस के बाद कनिष्क (प्रथम), कुषाण वंश का शासक हुआ। वह इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था। कनिष्क कौन था? विम के साथ उसका क्या सम्बन्ध था। वह कब सिंहासन पर बैठा? ये प्रश्न अब तक विवादग्रस्त हैं परन्तु यह निश्चय है कि कनिष्क कुषाण वंश का ही शासक था और विम कदफिस के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। कनिष्क 78 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसका शासनकाल, विजय तथा शासन दोनों ही दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी उसका शासनकाल महत्त्वपूर्ण है। कनिष्क ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को इस सीमा तक स्वीकार किया कि उसे भारतीय शासक कहना अनुचित न होगा।

कनिष्क की दिग्विजय

काश्मीर विजय: कनिष्क ने सिंहासन पर बैठते ही साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने सबसे पहले काश्मीर पर विजय प्राप्त की और उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कश्मीरी लेखक कल्हण का कथन है कि कनिष्क ने काश्मीर में कई विहारों एवं नगरों का निर्माण करवाया।

साकेत तथा मगध विजय: चीनी तथा तिब्बती ग्रंथों से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने साकेत तथा मगध पर आक्रमण किया और उन पर विजय प्राप्त की।

बंगाल विजय: कनिष्क की मुद्राएँ बंगाल में भी प्राप्त हुई हैं। इससे इतिहासकारों का अनुमान है कि पूर्व दिशा में उसका साम्राज्य बंगाल तक फैला था।

सिंधु घाटी पर अधिकार: एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने सिन्धु नदी घाटी पर अधिकार स्थापित कर लिया था।

अफगानिस्तान पर विजय: जेंदा और तक्षशिला लेखों से ज्ञात होता है कि कनिष्क का अधिकार कम्बोज, गान्धार, काहिरा तथा काबुल पर था। कनिष्क का राज्य अफगानिस्तान की सीमा तक फैला था।

पार्थिया पर विजय : कनिष्क के पूर्वज कुजुल कदफिस ने पार्थयन राजा को पराजित किया था। उस पराज का बदला लेने के लिये पार्थिया के राजा ने कनिष्क पर आक्रमण किया। इस युद्ध में पार्थिया का राजा परास्त हुआ।

चीन पर विजय: कनिष्क ने चीन के राजा के साथ भी लोहा लिया। उन दिनों चीन में हो-ती नामक राजा शासन कर रहा था। कनिष्क ने अपने एक राजदूत के साथ हो-ती के पास यह प्रस्ताव भेजा कि वह अपनी कन्या का विवाह कनिष्क के साथ कर दे। हो-ती ने इस प्रस्ताव को अपमानजनक समझा और कनिष्क के राजदूत को बन्दी बना लिया।

इस पर कनिष्क ने चीन के राजा पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कनिष्क को सफलता नहीं मिली। और वह परास्त होकर वापस लौट आया। कुछ समय पश्चात् हो-ती के मर जाने पर कनिष्क ने दूसरी बार चीन पर आक्रमण किया। इस बार उसे सफलता प्राप्त हुई।

वह दो चीनी राजकुमारों को बन्दी बना कर अपनी राजधानी में ले आया और उनके रहने के लिए समुचित व्यवस्था की। चीनी साक्ष्यों से पता लगता है कि कनिष्क ने काशगर, खेतान तथा यारकन्द पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार कनिष्क का साम्राज्य न केवल भारत के वरन् दक्षिण-पश्चिमी एशिया के भी बहुत बड़े भाग में फैला था।

कनिष्क का शासन प्रबन्ध

कनिष्क के शासन प्रबन्ध के विषय में अधिक ज्ञात नही है परन्तु जो थोड़े-बहुत साक्ष्य प्राप्त होते हैं उनसे ज्ञात होता है कि उसने पुष्पपुर अथवा पेशावर को अपनी राजधानी बनाया, जो उसके साम्राज्य के केन्द्र में स्थित था। यहीं से वह अपने सम्पूर्ण साम्राज्य पर शासन करता था।

चूंकि कनिष्क का साम्राज्य अत्यन्त विशाल था और वह पूर्व तथा पश्चिम में दूर-दूर तक फैला था, इसलिये कनिष्क ने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त किया तथा उनमें प्रान्तपति नियुक्त किये जो छत्रप तथा महाक्षत्रप कहलाते थे। सारनाथ के अभिलेख से उसके क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों के नाम भी ज्ञात होते हैं। इसलिये यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उसने शकों की क्षत्रपीय शासन-व्यवस्था का अनुसारण किया।

कनिष्क का धर्म

कनिष्क के धार्मिक विश्वासों का ज्ञान उसकी मुद्राओं से होता है। उसकी प्रथम कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर यूनानी देवता, सूर्य, तथा चन्द्रमा के चित्र मिलते हैं। उसकी दूसरी कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर ईरानी देवता अग्नि के चित्र मिलते हैं तथा उसकी तीसरी कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर बुद्ध के चित्र मिलते हैं।

इससे अनुमान होता है कि कनिष्क आरम्भ में यूनानी धर्म को मानता था, उसके बाद उसने ईरानी धर्म स्वीकार किया और अन्त में वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी बन गया। उसकी मुद्राओं से ज्ञात होता है कि कनिष्क में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वह समस्त धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था।

इसी से उसने अपनी मुद्राओं में यूनानी, ईरानी तथा भारतीय तीनों देवताओं को स्थान देकर उन्हे सम्मानित किया। कुछ विद्वानों की यह भी धारणा है कनिष्क की मुद्राओं पर अंकित देवताओं से ज्ञात होता है कि उसके साम्राज्य में कौन-कौन से धर्म प्रचलित थे। ये मुद्राएं कनिष्क के व्यक्तिगत धर्म की द्योतक नहीं हैं।

कनिष्क और बौद्ध धर्म: कनिष्क प्रारम्भ में चाहे जिस धर्म को मानता रहा हो परन्तु वह मगध विजय के उपरान्त निश्चित रूप से बौद्ध हो गया था। पाटलिपुत्र में कनिष्क की भेंट बौद्ध-आचार्य अश्वघोष से हुई। वह अश्वघोष की विद्वता तथा व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपने साथ अपनी राजधानी पुष्पपुर अथवा पेशावर ले गया और उससे बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक की भाँति कनिष्क भी बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने से पूर्व, क्रूर तथा निर्दयी था परन्तु बौद्ध धर्म का आलिंगन कर लेने के उपरान्त वह भी अशोक की भांति उदार तथा दयालु हो गया था।

धार्मिक सहिष्णुता: अशोक की भांति कनिष्क में भी उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। इन दोनों सम्राटों ने बौद्ध धर्म को आश्रय दिया परन्तु अन्य धर्मों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। अन्य धर्मों को भी आदर की दृष्टि से देखा और उनकी सहायता की। कनिष्क की मुद्राओं में बुद्ध के साथ-साथ भगवान शिव की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। वह हवन भी किया करता था जिससे स्पष्ट है कि वह ब्राह्मण धर्म में भी विश्वास रखता था। अशोक की भाँति कनिष्क ने भी बौद्ध-धर्म को दूर-दूर प्रचारित किया।

अशोक तथा कनिष्क के धर्म में अंतर: अशोक तथा कनिष्क दोनों ही बौद्ध धर्म में विश्वास रखते थे किंतु उन दोनों के धार्मिक विश्वासों में बड़ा अन्तर था। अशोक ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लेने के उपरान्तयुद्ध करना बन्द कर दिया था परन्तु कनिष्क बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के बाद भी युद्ध करता रहा। अशोक हीनयान का अनुयायी था और कनिष्क महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था।

चतुर्थ बौद्ध संगीति: जिस प्रकार अशोक ने तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में बुलाई थी उसी प्रकार कनिष्क ने भी चतुर्थ बौद्ध-संगीति काश्मीर के कुण्डलवन में बुलाई। इस संगीति को बुलाने का ध्येय बौद्ध धर्म में उत्पन्न हुए मतभेदों को दूर करना और बौद्ध-ग्रन्थों का सकंलन कर उन पर प्रामाणिक टीका एवं भाष्य लिखवाना था।

इस संगीति में लगभग 500 भिक्षु तथा बौद्ध-आचार्य सम्मिलित हुए। यह सभा बौद्ध-आचार्य वसुचित्र के सभापतित्त्व में हुई। आचार्य अश्वघोष ने उप-सभापति का आसन ग्रहण किया। इस सभा की कार्यवाही संस्कृत भाषा में हुई थी जिससे स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा का सम्मान इस समय बढ़ रहा था।

इस सभा में बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया गया और त्रिपिटक-ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखी गईं। कनिष्क ने इन टीकाओं को ताम्र-पत्रों पर लिखवाकर उन्हें पत्थर के सन्दूक में रखवाकर उन पर स्तूप बनवा दिया।

महायान को मान्यता: चतुर्थ बौद्ध संगीति की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसमें बौद्ध-धर्म के ‘महायान’ संप्रदाय को मान्यता प्रदान की गई। महायान सम्प्रदाय बौद्ध-धर्म का प्रगतिशील तथा सुधारवादी सम्प्रदाय था जो देश तथा काल के अनुसार बौद्ध-धर्म में परिवर्तन करने के पक्ष में था। अब बौद्ध-धर्म का प्रचार विदेशों में हो गया था। भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशियों ने बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में बौद्ध धर्म में थोड़ा बहुत परिवर्तन आवश्यक हो गया था।

इसके अतिरिक्त भारत में भक्ति-मार्ग  का प्रचार हो रहा था। इससे बौद्ध-धर्म प्रभावित हुए बिना न रहा। इस समय ब्राह्मण-धर्म का प्रचार भी जोरों से चल रहा था। इसलिये उसकी अपेक्षा बौद्ध-धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए बौद्ध-धर्म में संशोधन की आवश्यकता थी। इन्हीं सब कारणों से बौद्धधर्म में ‘महायान’ पन्थ चलाया गया था। यह पन्थ भक्तिवादी, अवतारवादी तथा मूर्तिवादी बन गया।

महायान सम्प्रदाय वाले, बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी तथा बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी उपासना करने लगे। यद्यपि महायान सम्प्रदाय का बीजारोपण कनिष्क के पहले ही चुका था परन्तु उसे मान्यता बौद्धों की चतुर्थ संगीति में दी गई और उसे कनिष्क ने राज-धर्म बना लिया। यह कनिष्क के शासन-काल की महत्त्वपूर्ण घटना थी।

कनिष्क कालीन साहित्य

कनिष्क के काल में बड़े-बड़े विद्वान् तथा साहित्यकार हुए जिनका कनिष्क से घनिष्ठ सम्पर्क था। बौद्ध-धर्म के आचार्य वसुमित्र, अश्वघोष तथा नागार्जुन इसी काल की महान् विभूतियाँ थीं। वसुमित्र बहुत बड़े धर्माचार्य तथा वक्ता थे। संगीति के आयोजन में भी उनकी बड़ी रुचि थी उनकी विद्वता के कारण ही उन्हें चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष बनाया गया था।

उन्होंने बौद्ध-ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखीं। अश्वघोष इस काल की दूसरी महान् विभूति थे जिनकी गणना बौद्ध-धर्म के महान् आचार्यों में होती है। वे उच्च कोटि के कवि, दार्शनिक, उपदेशक तथा नाटककार थे। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ बुद्ध-चरित्र है जिसकी रचना संस्कृत में हुई। इस महाकाव्य में बुद्ध के चरित्र तथा उनकी शिक्षाओं का वर्णन किया गया है।

नागार्जुन महायान पन्थ का प्रकाण्ड पण्डित तथा प्रवर्तक था। वह विदर्भ का रहने वाला कुलीन ब्राह्मण था परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया और महायान सम्प्रदाय का प्रचारक बन गया। बौद्ध-धर्म का उच्चकोटि का विद्वान् पार्श्व, कनिष्क का गुरु था। आयुर्वेद के आचार्य चरक कनिष्क के राजवैद्य थे। उनकी चरक-संहिता भारतीय आयुर्वेद का अमूल्य ग्रन्थ है।

कनिष्क कालीन कला

कनिष्क के काल में कला की उन्नति हुई। कुषाण काल में कला की जो उन्नति हुई, उस ओर संकेत करते हुए रॉलिसन ने लिखा है- ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास में कुषाण काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण युग है।’

नये नगरों की स्थापना: अशोक की भाँति कनिष्क भी बहुत बड़ा निर्माता था। उसने दो नगरों का निर्माण करवाया। एक नगर उसने तक्षशिला के समीप बनवाया जिसके खंडहर आज भी विद्यमान हैं। यह नगर ‘सिरपक’ नामक स्थान पर बसाया गया था। कनिष्क ने दूसरा नगर काश्मीर में बसाया था जिसका नाम कनिष्कपुर था।

विहारों की स्थापना: अपनी राजधानी पुष्पपुर में उसने 400 फुट ऊँचा लकड़ी का स्तम्भ तथा बौद्ध-विहार बनवाया। यहीं पर उसने एक पीतल की मंजूषा में बुद्ध के अवशेष रखवाकर एक स्तूप बनवाया। इस स्तूप का निर्माण कनिष्क ने एक यूनानी शिल्पकार से करवाया।

अपने साम्राज्य के अन्य भागों में भी कनिष्क ने बहुत से विहार तथा स्तूप बनवाये। चीनी यात्री फाह्यान ने गान्धार में कनिष्क द्वारा बनवाये गये विहारों तथा स्तूपों को देखा था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 170 विहारों तथा स्तूपों का वर्णन किया है।

मथुरा कला शैली: कनिष्क के काल में मूर्तिकला की बड़ी उन्नति हुई। मथुरा में इस काल की कई मूर्तियाँ मिली हैं। गुप्तकाल की श्रेष्ठ मूर्तिकला शैली को मथुरा शैली का ही विकसित रूप माना जाता है। मथुरा शैली की समस्त कृतियां सरलता से पहचानी जा सकती हैं क्योंकि इनके निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग किया जाता था जो मथुरा के निकट सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था।

मथुरा शैली की मूर्तियां आकार में विशालाकाय हैं। इन मूर्तियों पर मूंछें नहीं हैं। बालों और मूछों से रहित मूर्तियों के निर्माण की परम्परा विशुद्ध रूप से भारतीय है। मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों के दाहिने कंधे पर वस्त्र नहीं रहता। दाहिना हाथ अभय की मुद्रा में उठा हुआ होता है। मथुरा शैली की कुषाण कालीन मूर्तियों में बुद्ध सिंहासन पर बैठे हुए दिखाये गये हैं।

गांधार कला शैली: इस काल में गान्धार-कला की भी बड़ी उन्नति हुई। कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों ने जो बौद्ध-मूर्तियाँ बनवाईं, उनमें से अधिकांश मूर्तियां, गान्धार जिले में मिली हैं। इसी से इस कला का नाम गान्धार-कला रखा गया है। गान्धार-कला की बहुत सी प्रतिमाएँ मुद्राओं पर भी उत्कीर्ण मिलती हैं।

गान्धार-कला को इण्डो-हेलेनिक कला अथवा इण्डो-ग्रीक कला भी कहा जाता है, क्योंकि इस पर यूनानी कला की छाप है। बुद्ध की मूर्तियों में यवन देवताओं की आकृतियों का अनुसरण किया गया है। इस कला को ग्रीक बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस शैली की मूर्तियों में बुद्ध कमलासन मुद्रा में मिलते हैं किंतु मुखमण्डल और वस्त्रों से बुद्ध, यूनानी राजाओं की तरह लगते हैं।

बुद्ध की ये मूर्तियां यूनानी देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्य रखती हैं। महाभिनिष्क्रण से पहले के काल को इंगित करती हुई बुद्ध की जो मूर्तियां बनाई गई हैं, उनमें बुद्ध को यूरोपियन वेश-भूषा तथा रत्नाभूषणों से युक्त दिखाया गया है।

कनिष्क कालीन व्यापार

कनिष्क का साम्राज्य न केवल भारत के बहुत बड़े भाग में अपितु भारत से बाहर उत्तर-पश्चिम एशिया के बहुत बड़े भाग में फैला हुआ था। इस कारण इस काल में भारत का ईरान, मध्य एशिया, चीन, तिब्बत आदि देशों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हो गया। चूँकि कनिष्क ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपना लिया था और बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो गया था, इसलिये इन देशों में उसने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करने का प्रयत्न किया।

सांस्कृतिक सम्बन्ध के साथ-साथ इन देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और इन देशों के साथ स्थायी रूप से व्यापार होने लगा। मुद्राओं से ज्ञात होता है कि इस काल में भारत का रोम साम्राज्य के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध था। भारत से बड़ी मात्रा में वस्त्र, आभूषण तथा शृंगार की वस्तुएँ रोम भेजी जाती थीं और वहाँ से सोना भारत आता था।

कनिष्क की उपलब्धियाँ

कुषाण-वंश के शासकों में कनिष्क सर्वाधिक वीर, साहसी तथा कुशल सेनानायक था। उसने जितने विशाल साम्राज्य पर शासन किया उतने विशाल साम्राज्य पर शासन करने का अवसर किसी अन्य कुषाण शासक को प्राप्त नहीं हुआ। किसी अन्य कुषाणकालीन शासक में प्रशासकीय प्रतिभा भी उतनी नहीं थी जितनी कनिष्क में थी। सांस्कृतिक दृष्टि से भी किसी कुषाण शासक की तुलना कनिष्क से नहीं की जा सकती।

किसी भी अन्य कुषाण शासक में न तो कनिष्क जितनी धर्म परायणता थी और न उतनी सहृदयता तथाा सहिष्णुता थी। कनिष्क का धार्मिक दृष्टिकोण अशोक की भांति व्यापक था। साहित्य तथा कला में भी कनिष्क के समान किसी अन्य कुषाण शासक में रुचि नहीं थी।

कनिष्क की गणना न केवल कुषाण-वंश के वरन् भारत के महान सम्राटों में होनी चाहिये। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के गुणों का समन्वय बताते हुए लिखा है- ‘निस्सन्देह भारत के कुषाण-सम्राटों में कनिष्क का व्यक्तित्त्व सबसे आकर्षक है। वह एक महान् विजेता और बौद्ध-धर्म का आश्रयदाता था। उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य की सामरिक योग्यता और अशोक के धार्मिक उत्साह का समन्वय था।’

उसकी महत्वपूर्ण उपलब्ध्यिाँ निम्नलिखित प्रकार से हैं-

(1) महान् विजेता: कनिष्क की गणना महान् विजेताओं में होनी चाहिये। वह अत्यंत महत्त्वकांक्षी राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और जीवन-पर्यन्त साम्राज्य की वृद्धि करने में लगा रहा। यद्यपि उसने अहिंसात्मक बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था परन्तु अपना विजय अभियान बन्द नहीं किया।

इससे भारत के एक बड़े भाग पर तथा भारत की सीमाओं के बाहर एशिया के बहुत बड़े भाग पर भी उसका शासन हो गया। कनिष्क के अतिरिक्त भारत के अन्य किसी सम्राट् को भारत के बाहर इतने बड़े भू-भाग पर शासन करने का श्रेय प्राप्त नहीं है। उनका साम्राज्य उत्तर में काश्मीर से दक्षिण में सौराष्ट्र तक और पूर्व में बंगाल से पश्चिम में पार्थिया तक विस्तृत था।

उसने काश्गर, यारकन्द तथा खोतन को अपने साम्राज्य में मिला लिया। स्मिथ ने उसकी इन विजयों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘कनिष्क को सर्वाधिक आकर्षक सैनिक सफलता उसकी काशगर, यारकन्द तथा खोतन पर विजय थी।’ चीन के शासन को नत-मस्तक कर उसने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की। इसलिये कनिष्क की गणना भारत के महान् शासकों में करना उचित ही है।

(2) कुशल शासक: प्रशासकीय दृष्टि से भी कनिष्क का स्थान बहुत ऊँचा है। अशोक की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारत में जो कुव्यवस्था तथा अराजकता फैली हुई थी उसे दूर करने में वह सफल रहा। इतने विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखना इस बात का प्रमाण है कि वह शासन करने में अत्यन्त कुशल था।

वह अपने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों पर नियन्त्रण करने में भी सफल रहा। वह अपने साम्राज्य को आन्तरिक उपद्रवों तथा विद्रोहों से मुक्त रख सका। उसकी मुद्राओं, स्तूपों तथा विहारों से ज्ञात होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण था। उसकी प्रजा सुखी थी। उसके शासन काल में विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाने से भारत के उद्योग-धन्धों तथा व्यापार में बड़ी उन्नति हुई। इसलिये एक शासक के रूप में भी कनिष्क को भारतीय इतिहास में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त होना चाहिये।

(3) महान् धर्म-तत्त्ववेत्ता: कनिष्क में उच्चकोटि की धर्म-पराणयता थी। उसने बौद्ध-धर्म की उसी प्रकार सेवा की जिस प्रकार अशोक ने की थी। अशोक की भांति उसने अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया और भिक्षुओं तथा आचार्यों की सहायता की।

उसने चतुर्थ बौद्ध-संगीति बुलाकर बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया और बौद्ध ग्रन्थों पर टीकाएँ तथा भाष्य लिखवाये। महायान सम्प्रदाय को मान्यता देकर, उसे राज धर्म बनाकर और विदेशों में उसका प्रचार करवा कर उसने महायान सम्प्रदाय की बड़ी सेवा की।

उसने महायान को विदेशों में अमर बना दिया। एन. एन. घोष ने लिखा है- ‘महायान सम्प्रदाय के आश्रयदाता तथा समर्थक के रूप में उसे उतना ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जितना अशोक को हीनयान सम्प्रदाय के संरक्षक तथा समर्थक के रूप में प्राप्त था।’ कनिष्क के धार्मिक विचार संकीर्ण नहीं थे और वह कट्टरपन्थी नहीं था। उसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वह अशोक की भांति समस्त धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था।

उसकी मुद्राओं से स्पष्ट हो जाता है कि वह यूनानी, ईरानी तथा ब्राह्मण-धर्म का भी सम्मान करता था। आयंगर ने कनिष्क के सम्बन्ध में लिखा है- ‘वह पारसीक तथा यूनानी देवताओं को भी आदर की दृष्टि से देखता था। इन कथाओं को, कि वह बौद्ध-धर्म का भक्त था, बड़े ही सीमित अंश में स्वीकार करना चाहिए।’ इस प्रकार धार्मिक दृष्टिकोण से कनिष्क, अशोक का समकक्षी ठहरता है।

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘कनिष्क की ख्याति उसकी विजयों पर उतनी आधारित नहीं जितनी शाक्यमुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।’

(4) महान् निर्माता: यद्यपि कनिष्क का सम्पूर्ण जीवन युद्ध करने तथा अपने साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखने में व्यतीत हुआ था परन्तु उसने शान्ति कालीन कार्यों की ओर भी ध्यान दिया। काश्मीर का कनिष्कपुर नगर उसी ने बसाया। राजधानी पुष्पपुर के समीप उसने एक दूसरे नगर का निर्माण करवाया। राजधानी पुष्पपुर में तथा अपने राज्य के अन्य भागों में उसने कई स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया।

पुष्पपुर में उसने लकड़ी का जो स्तम्भ बनवाया था वह लगभग 400 फीट ऊँचा था। इसलिये एक निर्माता के रूप में भी कनिष्क को यश प्राप्त होना चाहिए। स्मिथ ने एक निर्माता के रूप में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘स्थापत्यकला को उसकी सहायक शिल्प के साथ कनिष्क का उदार संरक्षण प्राप्त था जो अशोक की भांति एक महान् निर्माता था।’

(5) साहित्य तथा कला का महान् प्रेमी: कनिष्क ने अपने युग के बड़े-बड़े विद्वानों, लेखकों तथा धर्माचार्यों को आश्रय प्रदान किया। अपने समय के विख्यात धर्माचार्य वसुमित्र तथा अश्वघोष को चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष बनवा कर उन्हें सम्मानित किया।

कनिष्क ने बौद्ध-आचार्य पार्श्व की शिष्यता ग्रहण कर बौद्ध धर्म को प्रतिष्ठित किया। नागार्जुन जैसा महायान धर्म का आचार्य उसके सम्पर्क में था। यह श्रेय कनिष्क को ही प्राप्त है कि गान्धार-शैली की प्रतिष्ठा उसके शासन-काल में बढ़ी और अन्यत्र भी उसका अनुकरण होने लगा।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि विजेता, शासक, निर्माता, धर्मवेत्ता, साहित्य एवं कला-प्रेमी के रूप में भारतीय इतिहास में कनिष्क को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त होना चाहिए। इस सम्बन्ध में स्मिथ का यह कथन उल्लेखनीय है- ‘कुषाण सम्राटों मे केवल कनिष्क ही अपना नाम छोड़ गया है जो भारत की सीमाओं के सुदूर बाहर भी विश्रुत था और जिसकी समता के करने लिए लोग लालायित रहते आये हैं।’

कनिष्क की हत्या

कनिष्क के शासन काल की अलग-अलग अवधियां अनुमानित की गई हैं। कुछ इतिहासकारों ने आरा अभिलेख के आधार पर उसके शासनकाल की अवधि 45 वर्ष मानी है। अधिकांश विद्वान इस अवधि को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार कनिष्क ने केवल 23 वर्ष तक शासन किया।

दंत कथाओं से ज्ञात होता है कि कनिष्क की प्रजा उसकी सामरिक प्रवृत्ति तथा साम्राज्यवादी नीति से अप्रसन्न हो गयी और उसके सैनिकों ने षड्यंत्र रचकर उसकी हत्या कर दी। यदि उसके शासन की अवधि 45 वर्ष मानते हैं तो उसकी हत्या 123 ई. में हुई और यदि उसके शासन की अवधि 23 वर्ष मानते हैं तो कनिष्क की हत्या 101 ई. में होनी निश्चित होती है।

कनिष्क के उत्तराधिकारी

कनिष्क की मृत्यु के उपरान्त वसिष्क, हुविष्क तथा कनिष्क (द्वितीय) नाम के कुषाण राजा हुए। इन शासकों के सम्बन्ध में अधिक ज्ञात नहीं होता है।

अंतिम कुषाण शासक वासुदेव

कुषाण-वंश का अन्तिम शासक वासुदेव था। उसका राज्य केवल मथुरा तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों तक सीमित था। वह भगवान शिव का उपासक था। उसकी मुद्राओं पर नन्दी का चित्र अंकित है। वासुदेव के शासन-काल में कुषाण साम्र्राज्य छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो गया और उत्तरी भारत में कई राज-वंशों का उदय हुआ जिन्होंने कुषाण-साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। कुषाण साम्राज्य के पश्चिमोत्तर भाग पर शकों तथा पार्थियनों ने अधिकार जमा लिया।

कुषाण साम्राज्य का पतन

कुषाण-साम्राज्य के पतन का मूल कारण इसके अन्तिम सम्राटों की अयोग्यता थी परन्तु किस शक्ति ने कुषाणों का उन्मूलन किया, इस पर विद्वानों में मतभेद है। काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार कुषाण साम्राज्य के उन्मूलन का कार्य नागों और वाकाटकों द्वारा सम्पन्न किया गया था परन्तु डॉ. अल्तेकर के विचार में यह कार्य यौधेय, कुणिन्द, मालव, नाग और माघ जातियों के द्वारा सम्पन्न किया गया। वास्तव में वह युग विदेशी सत्ता के विरुद्ध एक प्रबल प्रतिरोध का युग था। अनेक तत्कालीन गणराज्यों ने यौधेय राज्य के नेतृत्व में कुषाण-साम्राज्य के उन्मूलन का प्रयत्न किया और वे उसमें सफल रहे।

कुषाण काल में कला एवं संस्कृति

कुषाण-काल में बड़े-बड़े विद्वान् तथा साहित्यकार हुए। वसुमित्र, अश्वघोष, चरक, पार्श्व तथा नागार्जुन इसी काल की विभूतियाँ है। वसुमित्र ने ‘महाविभाषा-शास्त्र’ की रचना की और चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। बौद्ध-धर्म के महान् आचार्य, कवि, दार्शनिक, उपदेशक तथा नाटककार अश्वघोष ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बुद्ध चरित्र’ की रचना की।

आयुर्वेद के आचार्य चरक कनिष्क के राजवैद्य थे जिन्होने ‘चरक-संहिता’ की रचना की। बौद्ध-धर्म का उच्च कोटि का विद्धान पार्श्व, कनिष्क का गुरु था। नागार्जुन महान् आचार्य एवं दार्शनिक था। इन्हीं उद्भट विद्वानों की ओर संकेत करते हुए  डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘अश्वघोष, नार्गाजुन तथा अन्य लोगों की कृतियों से यह सिद्ध हो जाता है कि कुषाण-काल महती क्रियाशीलता का युग था। यह धार्मिक उत्तेजना तथा धर्म-प्रचार का भी युग था।’

रॉलिन्स ने लिखा है- ‘इस काल में नूतन साहित्यिक स्वरूप प्रकाश में आते है, नाटक तथा महाकाव्य सामने आते हैं और प्रतिष्ठित संस्कृत का विकास होता है।’

अन्धकार का युग

कुषाण साम्राज्य के बाद और गुप्त साम्राज्य के उदय के पूर्व के युग को भारतीय इतिहास में ‘अन्धकार का युग’ कहा गया है। डॉ. स्मिथ ने लिखा है- ‘कुषाण तथा आन्ध्र राजवंशों के विनाश और साम्राज्यवादी गुप्त साम्राज्य के उदय के मघ्य काल का समय, भारत के सम्पूर्ण इतिहास में सर्वाधिक अन्धकारमय है।’

स्मिथ का यह कथन सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि आधुनिक काल में मुद्राओं तथा अभिलेखों के आधार पर जो शोध का कार्य हुआ है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह अन्धकार का युग नहीं था। इस युग में भारत में अनेक राजतन्त्र तथा गणतन्त्र विद्यमान थे। इस समय सात राजतन्त्र तथा नौ गणतन्त्र विद्यमान थे।

राजतन्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- नाग, अहिक्षत्र, अयोध्या, कौशाम्बी, वाकाटक, मौखरि और गुप्त। गणतन्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- आर्जुनायन, मालव, यौधेय, शिवि, लिच्छवि, कुणिन्द, कुलूट, औदुम्बर और मद्र। राजतन्त्रों में नाग-राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था और गणराज्यों में यौधेय गणराज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था। इन्ही राज्यों के ध्वंशावशेषों पर गुप्तों के विशाल साम्राज्य का निर्माण होना था।

अध्याय – 17 : गुप्त साम्राज्य

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(प्रारम्भिक गुप्त शासक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त, गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण, गुप्त कला, स्थापत्य कला, साहित्य, दर्शन, धर्म, विज्ञान और तकनीक)

320 ई. से 495 ई. तक भारत में गुप्त शासकों की एक दीर्घ श्ृंखला ने शासन किया जिसे ‘गुप्त-वंश’ के नाम से जाना जाता है। इसे भारतीय पुनर्जागरण का युग तथा भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। मौर्य शासन के नष्ट हो जाने के बाद भारत की राजनीतिक एकता भंग हो गई थी, उस राजनीतिक एकता को इस युग में पुनर्जीवित किया गया। इस वंश के समस्त शासकों के नाम के अंत में प्रत्यय की भांति ‘गुप्त’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो कि उन शासकों की जाति अथवा वंश का सूचक है। इसलिये इस वंश को गुप्त-वंश कहा गया है।

गुप्त काल का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत

साहित्यिक स्रोत

पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

नाटक: विशाखदत्त रचित देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस, शूद्रक रचित मृच्छकटिकम्, कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, कुमारसम्भवम्, रघुवंशम् अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि।

पुरातात्विक स्रोत

स्तम्भलेख, गुहालेख तथा प्रशस्तियां: समुद्रगुप्त के प्रयाग एवं एरण अभिलेख, चंद्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ-लेख, उदयगिरि गुहा अभिलेख। कुमारगुप्त प्रथम का मंदसौर लेख, गढ़वा शिलालेख, बिलसढ़ स्तम्भलेख, स्कन्दगुप्त की जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भ लेख।

ताम्रपत्र: भूमि दान करने सम्बन्धी ताम्रपत्र।

मुद्राएं: गुप्त शासकों की स्वर्ण एवं रजत मुद्राएं।

मंदिर एवं मूर्तियां: उदयगिरि, भूमरा, नचना, कुठार, देवगढ़ एवं तिगवा के मंदिर, सारनाथ बुद्ध मूर्ति, मथुरा की जैन मूर्तियां।

शैलचित्र: अजन्ता एवं बाघ के शैलचित्र।

गुप्त वंश का उद्भव

गुप्तों का मूल स्थान: गुप्त वंश के मूल स्थान के बारे में इतिहासकारों में एक राय नहीं है। कुछ इतिहासकार, बाद के काल के चीनी लेखक इत्सिंग के वर्णन के आधार पर गुप्तों का मूल स्थान मगध को मानते हैं। कतिपय इतिहासकार प्रयाग-साकेत-अवध के क्षेत्र को गुप्तों का मूल स्थान मानते हैं। प्रयाग से समुद्रगुप्त की प्रशस्ति का प्राप्त होना इसका प्रमाण माना जाता है किंतु प्रयाग प्रशस्ति सहित किसी भी लेख में गुप्त शासकों एवं उनके अधिकारियों ने गुप्तों के मूल स्थान का उल्लेख नहीं किया है।

गुप्तों की जाति: गुप्त-सम्राटों की जाति पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है क्योंकि गुप्त उनकी जाति न होकर उनकी उपाधि प्रतीत होती है। वैदिक काल में ‘राजन्य’ के कोष की रक्षा का कार्य करने वाला मंत्री ‘गोप्ता’ कहलाता था। संभवतः गोप्ता ही आगे चलकर गुप्त कहलाये। ‘विष्णुपुराण’ में ब्राह्मणों की उपाधि शर्मा, क्षत्रियों की उपाधि वर्मा, वैश्यों की उपाधि गुप्त और शूद्रों की उपाधि दास बताई गई है। उपाधि के आधार पर गुप्त सम्राट, वैश्य ठहरते है। यह भारतीय परम्परा के अनुकूल भी लगता है। गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘गुप्तों की उत्पत्ति रहस्य से घिरी हुई है, परन्तु नामों के अन्त में गुप्त लगे रहने के कारण उन्हें वैश्य वर्ण अथवा वैश्य जाति का कहना उचित ही होगा।’

आर्य वर्ण व्यवस्था के अनुसार राज-पद क्षत्रियों को ग्रहण करना चाहिए परन्तु अवसर आने पर ब्राह्मणों ने, क्षत्रिय शासकों को पदच्युत करके शासक बनना स्वीकार किया। इसी कारण शुंग, कण्व तथा सातवाहन आदि राज-वंशों की स्थापना हुई। सम्भव है कि ब्राह्मणों का अनुसरण करके वैश्यों ने भी अवसर मिलने पर क्षात्रधर्म स्वीकार कर लिया हो और राज्य की स्थापना करके शासन करने लगे हों। गुप्तों से पूर्व भी इसके उदाहरण मिलते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र प्रांत का प्रांतपति पुष्यगुप्त वैश्य था। इसलिये पर्याप्त सम्भव है कि गुप्त-वंश के शासक वैश्य रहे हों।

गुप्त-वंश के प्रारम्भिक शासक श्रीगुप्त तथा घटोत्कच, किसी अन्य स्वतंत्र राजा के अधीन सामंत थे। इसलिये संभव है कि पुष्यगुप्त कि भांति श्रीगुप्त भी वैश्य रहा हो और किसी क्षत्रिय राजा, सम्भवतः नाग-वंश के सामंत के रूप में शासन करता रहा हो। कालान्तर में इस वंश में उत्पन्न चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करके गुप्त राजवंश की स्थापना की।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुप्त-वंश को वैश्य-वंश स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि इस वंश के राजाओं के वैवाहिक सम्बन्ध क्षत्रिय राजवंशों के साथ थे। चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने लिच्छिव वंश की और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने नाग-वंश की राजकुमारियों से विवाह किये। इतिहासकारों की यह आपत्ति इसलिये मान्य नहीं हो सकती कि राजवंशीय विवाह किसी जाति से बंधे हुए नहीं रहते। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सैल्यूकस की कन्या से विवाह किया था, जो यूनानी था।

डॉ. जायसवाल, डॉ. बी. बी. गोखले आदि इतिहासकारों ने गुप्तों को शूद्र प्रमाणित करने का प्रयास किया है। प्रो. हेमचंद्र रायचौधरी उन्हें ब्राह्मण बताते हैं। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि विद्वानों ने गुप्तों को क्षत्रिय बताया है।

निष्कर्ष: गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जब तक कोई सुदृढ़़ प्रमाण नहीं मिल जाता, तब तक यह कहना कठिन है कि वे किस वर्ण अथवा जाति से थे। तब तक उन्हें वैष्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

गुप्त-काल का महत्त्व

गुप्त-साम्राज्य की स्थापना से भारत के प्राचीन इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है, जिसका राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है।

(1) ऐतिहासिक महत्त्व: गुप्त-वंश का शासन काल हमें ऐतिहासिक तथ्यों के अंधकार से प्रकाश में लाता है। कुषाण-साम्राजय के विध्वंस तथा गुप्त-साम्राज्य के उत्थान के मध्य का काल इतिहास की दृष्टि से अंधकारमय माना जाता है परन्तु गुप्त-काल के आरम्भ होते ही यह अन्धकार समाप्त हो जाता है और क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त होने लगता है। तिथि-सम्बन्धी संदेह भी समाप्त हो जाते हैं। स्मिथ ने लिखा है- ‘चौथी शताब्दी में प्रकाश का पुनः आगमन होता है, अन्धकार का पर्दा हट जाता है और भारतीय इतिहास में फिर एकता तथा दिलचस्पी पैदा हो जाती है।’

(2) राजनीतिक महत्त्व: अशोक की मृत्यु के बाद मौर्यों का विशाल साम्राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया और भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई जिसके परिणाम स्वरूप देश के विभिन्न भागों में देशी-विदेशी राज्यों की स्थापना हो गई, जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में अनेक गणराज्य शक्तिशाली बन गये। इस काल में मालव, यौधेय, अर्जुनायन, मद्र तथा शिवि आदि गणराज्यों ने विदेशी सत्ता पर आघात करके अपनी प्रभुसत्ता का विस्तार किया। विदिशा और मथुरा में नागों की शक्ति का विस्तार हुआ। दक्षिण में वाकाटक शक्तिशाली बन गये। इन्हीं परिस्थितियों में गुप्तों का भी उदय हो रहा था। गुप्त सम्राटों ने देशव्यापी दिग्विजय के माध्यम से इन गणराज्यों एवं छोटे-छोटे राज्यों को अधीन करके, भारत की विच्छन्नता को समाप्त किया और अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर देश को राजनीतिक एकता प्रदान की।

(3) आर्थिक महत्त्व: गुप्त-सम्राटों ने सम्पूर्ण देश में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर उसमें शांति तथा व्यवस्था स्थापित की और लोक-कल्याण के कार्य करके प्रजा को समृद्ध बनाया। गुप्तकाल, भारत की अभूतपूर्व समृद्धि का युग था। इस काल में विदेशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए।

(4) धार्मिक महत्त्व: इस काल में ब्राह्मण-धर्म का चूड़ान्त विकास हुआ। गुप्त-सम्राटों ने ब्राह्मण-धर्म को राजधर्म बना कर संरक्षण प्रदान किया और अश्वमेध यज्ञ करने लगे। इससे ब्राह्मण-धर्म को बड़ा प्रोत्साहन मिला और उसकी द्रुतगति से उन्नति होने लगी। सौभाग्य से गुप्त-साम्राटों में उच्चकोटि की धर्मिक सहिष्णुता थी और वे समस्त धर्मों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करते थे।

(5) सांस्कृतिक महत्त्व: ब्राह्मण-धर्म का संस्कृत भाषा के साथ अटूट सम्बन्ध है। चूंकि गुप्तकाल में ब्राह्मण-धर्म की उन्नति हुई इसलिये संस्कृत भाषा की भी उन्नत्ति हो गई। वास्तव में गुप्तकाल संस्कृत भाषा के चरमोत्कर्ष का काल है। इस काल में साहित्य तथा कला की बड़ी उन्नति हुई और भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में बड़ा प्रचार हुआ। इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक उन्नयन के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।

प्रारंभिक गुप्त शासक

श्रीगुप्त

श्रीगुप्त का काल 275 ई. से 300 ई. माना जाता है। उसी को गुप्त वंश का संस्थापक भी माना जाता है। अभिलेखों में उसे महाराज कहकर सम्बोधित किया गया है। उस काल में महाराज उपाधि का प्रयोग छोटे क्षेत्र के स्वतंत्र शासक के लिये किया जाता था। इसलिये संभव है कि श्रीगुप्त एक सीमित क्षेत्र का स्वतंत्र राजा था। यह क्षेत्र प्रयाग-साकेत होना संभावित है जिसकी राजधानी अयोध्या रही होगी। चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है कि श्रीगुप्त ने नालंदा से 40 योजन (240 मील) दूर पूर्व की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने महाराज की पदवी धारण की। इत्सिंग लिखता है कि 500 वर्ष पूर्व, महाराज श्रीगुप्त ने चीनियों के ठहरने के लिये एक मंदिर बनवाया तथा 240 गांव दान में दिये।

घटोत्कच

श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी घटोत्कच था। उसने संभवतः 300 ई. से 319 ई. अथवा 320 ई. तक शासन किया। उसके शासन काल की किसी भी घटना की जानकारी नहीं मिलती। उसने भी महाराज की उपाधि धारण की। अनेक अभिलेखों में इसे गुप्तवंश का संस्थापक कहा गया है। परंतु सर्वमान्य मत तथा प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि घटोत्कच, गुप्तवंश का दूसरा राजा था। घटोत्कच के नाम की एक स्वर्ण मुद्रा उपलब्ध हुई है जिसे प्रो.एलन ने किसी बाद के राजा का सिक्का माना है। प्रोफेसर गोयल के अनुसार गुप्त-लिच्छवी सम्बन्घ इसी काल में आरम्भ हुए।

चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)

अनेक इतिहासकार चंद्रगुप्त (प्रथम) को गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक मानते हैं। सिंहासन पर बैठते ही उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। जिन दिनों चन्द्रगुप्त का उत्कर्ष आरम्भ हुआ, उन दिनों मगध में कुषाणों का शासन था। मगध की जनता इस विदेशी शासन को विनष्ट कर देने के लिए आतुर थी। चन्द्रगुप्त ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और मगध की जनता की सहायता से विदेशी शासन का अंत कर मगध का स्वतंत्र सम्राट बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने द्वितीय मगध-साम्राज्य की स्थापना की। यह घटना 320 ई. में घटी।

अभिलेखीय साक्ष्य

अब तक चंद्रगुप्त (प्रथम) के काल का कोई व्यक्तिगत लेख या प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हो सकी है। इस कारण उसके काल की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के बारे में अत्यंत अल्प जानकारी उपलब्ध होती है।

कुमार देवी से विवाह: अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्रतापी लिच्छवी-राज्य की राजकुमारी, कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिया। उसे गुप्त लेखों में महादेवी कहा गया है जो उसके पटरानी होने का प्रमाण है। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर ‘लिच्छवयः’ शब्द तथा कुमारदेवी की आकृति अंकित है। इस विवाह की पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशसित से भी होती है। लिच्छवी-राज्य से मैत्री हो जाने से गुप्त सम्राटों को अपने राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। कालान्तर में लिच्छवि राज्य भी मगध-राज्य में सम्मिलित हो गया जिससे मगध-राज्य की प्रतिष्ठा तथा शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई।

नये सम्वत् का प्रारंभ: चन्द्रगुप्त ने एक नया सम्वत् चलाया जिसका प्रारम्भ 26 जनवरी 319-20 ई. अर्थात् उसके राज्याभिषेक के दिन से हुआ था। इसे गुप्त संवत के नाम से जाना जाता है।

उत्तराधिकारी की घोषणा: चन्द्रगुत (प्रथम) ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। उसके इस चयन की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की प्रारंभिक स्थिति चाहे जैसी रही हो, वह गुप्त-सम्राटों में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुआ और उसने अपनी सफलताओं से अपने पिता के चयन के औचित्य को प्रमाणित कर दिया। युद्ध तथा आक्रमण के आदर्शों के कारण चन्द्रगुप्त, अशोक के बिल्कुल विपरीत था।’

राज्य विस्तार: पुराणों में आये विवरणों एवं प्रयाग प्रशस्ति से चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है। उसका राज्य पश्चिम में प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग तक विस्तृत था।

समुद्रगुप्त (335-375 ई.)

चन्द्रगुप्त (प्रथम) के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चन्द्रगुप्त (प्रथम) की माता लिच्छवियों की राजकुमारी कुमारदेवी थी। यद्यपि समुद्रगुप्त के और भी कई भाई थे परन्तु उसके अलौकिक गुणों तथा योग्यता से प्रसन्न होकर चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने अपने जीवन काल में ही उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इसलिये समुद्रगुप्त निर्विरोध अपने पिता के साम्राज्य का स्वामी बन गया और उसने उसका विस्तार करना आरम्भ कर दिया।

अभिलेखीय साक्ष्य

समुद्रगुप्त की उपलब्धियों की जानकारी उसके मंत्री हरिषेण द्वारा प्रयाग में उत्कीर्ण करवाई गई प्रयाग प्रशस्ति से मिलती है। यह प्रशस्ति, प्रयाग के किले के भीतर अशोक के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त का ऐरण अभिलेख भी महत्वपूर्ण साक्ष्य है। समुद्रगुप्त की मुद्रायें भी उसके शासन काल की तिथियों की सूचना देती हैं। उनसे अभिलेखीय प्रमाणों की पुष्टि होती है। गया एवं नालंदा के ताम्रपत्रों से भी उसके शासन काल की सूचनाएं मिलती हैं।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय

समुद्रगुप्त महत्त्वाकांक्षी शासक था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण किया। प्रयाग प्रशस्ति का लेखक हरिषेण सौ युद्धों में उसके रणकौशल का उल्लेख करता है जिसके कारण उसके सारे शरीर पर घावों के निशान बन गये। इस प्रशस्ति में उसकी विजयों की लम्बी सूची मिलती है। समुद्रगुप्त की विजयों को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय, (2) पाटलिपुत्र पर विजय, (3)  मध्य भारत के आटविक राज्यों पर विजय, (4) दक्षिण भारत पर विजय, (5) सीमान्त-प्रदेश पर विजय, (6) गण राज्यों पर विजय तथा (7) विदेशी राज्यों का विलय।

(1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय: समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तरी भारत अथवा अर्यावर्त के राज्यों पर आक्रमण किया। उसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन, नन्दिन, अच्युत और बलवर्मा नामक नौ राजाओं के साथ युद्ध किया और उन्हें परास्त कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इनमें से नागदत्त, गणपति नाग, नागसेन और नन्दिन नागवंशी राजा जान पड़ते हैं जिनके प्रसिद्ध केन्द्र मथुरा तथा पद्मावती थे। अच्युत नामक राजा अहिच्छत्र (उत्तर प्रदेश के बरेली जिले) पर राज्य करता था। अन्य राजाओं की सही पहचान नहीं हो सकी है। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाकर उत्तरी भारत में अपनी स्थिति सुदढ़ कर ली।

(2) पाटलिपुत्र विजय: नाग राजाओं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने कोटकुलज नामक राजा को परास्त करके पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटलिपुत्र विजय गुप्तों के लिये एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।

(2) विध्यांचल क्षेत्र के आटविक राज्यों पर विजय: उत्तर भारत के बाद, समुद्रगुप्त ने मध्य भारत के स्वतंत्र राज्यों पर अभियान किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस काल में जबलपुर तथा नागपुर के आस-पास 18 अटवी राज्य थे। अटवी जंगल को कहते हैं। चंूकि यह प्रदेश पर्वतों तथा जंगलों से भरा पड़ा था इसलिये इन राज्यों को अटवी राज्य कहते थे। प्रयाग के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के राजाओं को अपना परिचारक अथवा सेवक बनाया। इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर लेने से समुद्रगुप्त के लिये दक्षिण-विजय का मार्ग खुल गया।

(3) दक्षिणापथ पर विजय: अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया अपितु उनके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उन्हें विजित राजाओं को लौटा दिया। इन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे अपार धनराशि कर तथा भेंट के रूप में दी। दक्षिण के इन राजाओं को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं करके समुद्रगुप्त ने दूरदर्शिता का परिचय दिया। उस युग में, गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था। इसलिये उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत पर नियंत्रण रखना असम्भव था। यदि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया होता तो दक्षिण भारत अशान्ति तथा उपद्रव का स्थान बन जाता और इसका कुप्रभाव उत्तरी साम्राज्य पर भी पड़ता।

(4) सीमान्त प्रदेशों पर विजय: अपनी दिग्विजय के चतुर्थ चरण में  समुद्रगुप्त ने सीमांत प्रदेशों- समतट (बांगला देश), डवाक (आसाम का नवगांव), कामरूप (आसाम) तथा कर्तृपुर (गढ़वाल में कुमायूं अथवा पंजाब में जालंधर का क्षेत्र) पर विजय प्राप्त की। सीमांत प्रदेश के कुछ राजाओं ने युद्ध में पराजित होकर और कुछ ने बिना युद्ध किये ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ये राज्य समुद्रगुप्त को कर देने लगे और उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगे।

(5) गणराज्यों पर विजय: गुप्त-साम्राज्य के पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में कुछ ऐसे राज्य थे जिनमें अर्द्ध प्रजातंत्रात्मक अथवा गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी। इनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक, खार्परिक आदि प्रमुख थे। ये राज्य गणराज्य कहलाते थे। इन राज्यों ने समुद्रगुप्त के प्रताप से आतंकित होकर, बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार समुद्रगुप्त की सत्ता सम्पूर्ण भारत में व्याप्त हो गई और वह भारत का एकछत्र सम्राट बन गया।

(6) विदेशी राज्यों का विलय: प्रयाग प्रशस्ति की तेबीसवीं एवं चौबीसवीं पंक्ति में उल्लिखित विदेशी शक्तियों के नामों से ज्ञात होता है कि अनेक विदेशी राज्यों ने समुद्रगुप्त की सेवा में उपहार एवं कन्यायें प्रस्तुत करके उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इन शक्तियों ने समुद्रगुप्त के गरुड़ चिह्न से अंकित आज्ञापत्र लेना स्वीकार किया। इन विदेशी शक्तियों में प्रमुखतः कुषाण, शक-मुरण्ड, सिंहल तथा अन्यान्य द्वीपवासी थे जिन्हें क्रमशः देवपुत्र-शाहि-शाहानुशाही, शक-मुरण्ड, सिंहलद्वीपवासी तथा सर्वद्वीपवासी नामों से जाना जाता था। पश्चिम के जो छोटे-छोटे राज्य विद्यमान थे उन्होंने भी समुद्रगुप्त की प्रधानता को स्वीकार कर लिया।

समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाएँ

समुद्रगुप्त की उपर्युक्त दिग्विजय के फलस्वरूप उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में यमुना तथा चम्बल नदी से लेकर पूर्व में हुगली नदी तक फैल गया। उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर समुद्रगुप्त स्वयं शासन करता था। स्वशासित प्रदेश के उत्तर व पूर्व में पांच तथा पश्चिम में नौ गणराज्य उसके करद राज्य थे। दक्षिण में बारह राज्यों की स्थिति भी इन्हीं के समान थी। इन करद राज्यों के अतिरिक्त अनेक विदेशी राज्य भी समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे।

अश्वमेध यज्ञ

अपनी दिग्विजय सम्पूर्ण होने के उपलक्ष में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। प्रयाग-प्रशस्ति में इस यज्ञ का उल्लेख नहीं है इससे अनुमान होता है कि प्रयाग प्रशस्ति अश्वमेध यज्ञ से पहले उत्कीर्ण की गई थी। समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ में दान तथा दक्षिणा देने के लिए स्वर्ण-मुद्राएं ढलवाईं। इन मुद्राओं में एक ओर यज्ञ-स्तम्भ अंकित है जिससे एक अश्व बंधा हुआ है। मुद्रा के इसी ओर ‘अश्वमेध पराक्रमः’ अंकित है। इस अवसर पर सम्राट ने असंख्य मुद्राएं तथा गांव दान में दिये। कई गुप्त लेखों में उसे चिरकाल से न होने वाले अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है।

विदेशों से सम्बन्ध

समुद्रगुप्त की दिग्विजय से उसका यश चारों दिशाओं में दूर-दूर तक  विस्तृत हो गया। निकटवर्ती विदेशी राजा उसकी मैत्री की आकांक्षा करने लगे। चीनी अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में श्रीलंका के राजा मेघवर्ण ने दो बौद्ध-भिक्षुओं को बोधिगया भेजा। वहाँ पर इन भिक्षुओं को यथोचित सुविधा न मिल सकी। जब मेघवर्ण को इसकी सूचना मिली तब उसने समुद्रगुप्त से गया में एक विहार बनवाने की अनुमति मांगी। समुद्रगुप्त ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। मेघवर्ण ने गया में महाबोधि संघाराम नामक विहार का निर्माण करवाया। 631 ई. में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया, तब तक यह विहार सुरक्षित था और इसमें महायान पंथ के लगभग एक हजार भिक्षु निवास करते थे।

समुद्रगुप्त का चरित्र तथा उसके कार्य

समुद्रगुप्त को भारत के इतिहास में उच्च स्थान दिया जाता है। उसके सिक्कों पर मुद्रित पराक्रमांक(पराक्रम है पहचान जिसकी), व्याघ्रपराक्रमः (बाघ के समान पराक्रमी है जो) तथा अप्रतिरथ (प्रतिद्वंद्वी नहीं है जिसका कोई) जैसी उपाधियां उसके प्रचण्ड प्रभाव को इंगित करती हैं।

स्मिथ ने लिखा है ‘गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त, भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा गुण-सम्पन्न सम्राट था।’ उसकी प्रतिभा बुहुमुखी थी। वह न केवल एक महान् विजेता था अपितु अत्यंत कुशल शासक भी था। वह राजनीति का प्रकाण्ड पंडित था। उसकी साहित्य तथा कला में विशेष अनुरक्ति थी और उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था।

डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रसंशा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की सैनिक’ विजय तो महान् थी ही, उसकी व्यक्तिगत साधनाएं भी कम महान् नहीं थीं। उसके राजकवि ने विजित लोगों के प्रति उसकी उदारता, उसकी परिष्कृत प्रतिभा, उसके धर्मशास्त्रों के ज्ञान, उसके काव्य कौशल और उसकी संगीत योग्यता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है।’ स्मिथ ने भी समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत व्यक्तिगत क्षमता वाला व्यक्ति था और उसमें असाधारण विभिन्न गुण थे। वह एक श्रेष्ठ व्यक्ति, विद्वान, कवि, संगीतज्ञ तथा सेनानायक था।’

(1) महान् विजेता: समुद्रगुप्त की गणना भारत के महान् विजेताओं में होती है। उसने अपने पिता के छोटे से राज्य को, जो साकेत, प्रयाग तथा मगध तक सीमित था, एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने छिन्न-भिन्न भारत को अपनी दिग्विजय द्वारा एक राज-सूत्र में बांध कर फिर से राजनीतिक एकता प्रदान की। उन दिनों में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, संपूर्ण भारत, मध्य भारत, दक्षिण भारत, सीमान्त प्रदेशों तथा विदेशी राज्यों को नतमस्तक करना, साधारण कार्य नहीं था। उसने सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय कर राजनीतिक एकता स्थापित करने का जो उनुपम आदर्श उपस्थिति किया, उसका अनुगमन उसके बाद के समस्त महात्वाकांक्षी विजेताओं ने किया। एक विजेता के रूप में समुद्रगुप्त की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘छः सौ वर्ष पूर्व अशोक के काल से इतने बड़े साम्राज्य पर और किसी ने शासन न किया। वह स्वयं को भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट बनाने के महान् कार्य में सफल हुआ।’

(2) महान् सेनानायक: समुद्रगुप्त महान् सेनानायक था। एक मुद्रा पर  वह सैनिक वेश में अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए दिखाया गया है। समुद्रगुप्त की समस्त सैनिक विजयें, उसके अपने बाहुबल से अर्जित की गई थीं। अपने दिग्विजय अभियानों में वह स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व तथा संचालन करता था और रण-स्थल में स्वयं सैनिकों की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। अपने शत्रुओं पर वह बाघ की भांति टूट पड़ता था। इसी से वह व्याघ्र-पराक्रम, पराक्रमांक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया। वह समरशत अर्थात् सौ युद्धों का विजेता था तथा अजेय समझा जाता था।

(3) राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित: समुद्रगुप्त न केवल महान् विजेता तथा सेनानायक था अपितु दूरदर्शी तथा कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने इस बात का अनुभव किया कि उस युग में जब यातायात के साधनों का अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण भारत का शासन करना असंभव था। इसलिये उसने केवल उत्तर भारत के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। शेष राजाओं को परास्त करने के बाद उनका उच्छेदन न करके उन्हें अपना अधीनस्थ मित्र बना लिया। उसका व्यवहार इन राज्यों के साथ इतना उदार तथा सौजन्यतापूर्ण था कि कभी किसी राजा ने उसके विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयास नहीं किया।

(4) सफल शासक: यद्यपि समुद्रगुप्त एक महान् विजेता तथा सेनानायक के रूप में अधिक प्रसिद्ध है, तथापि उसमें प्रशासकीय प्रतिभा का अभाव नहीं था। उसके शासन-काल में किसी का विद्रोह अथवा विप्लव न हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि वह अपने साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में पूर्ण रूप से सफल रहा। उसने जितनी मुद्राएं चलाईं वे सब स्वर्ण निर्मित हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से पूर्ण था और उसकी प्रजा सुखी थी। चूंकि उसका साम्राज्य अत्यंत विशाल था इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि उसने प्रान्तीय शासन की भी व्यवस्था की थी जिन पर वह पूर्ण नियंत्रण रखता था। शासन को सुचारू रीति से चलाने के लिये विभागीय व्यवस्था भी की गई थी। सेना, शासन, न्याय आदि कार्यों के लिए अलग-अलग विभाग होते थे, जिनके अलग-अलग अध्यक्ष नियुक्त रहते थे। समुद्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दयावान् व्यक्ति था, इसलिये उसने दीन-दुखियों, अनाथों तथा असहायों की सहायता के लिये दान आदि की भी व्यवस्था की थी।

(5) महान् साहित्यानुरागी: समुद्रगुप्त में न केवल उच्च-कोटि की सैनिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा थी वरन् उच्च-कोटि की मानसिक प्रतिभा भी थी। वह उच्च-कोटि का विद्वान तथा विद्या-व्यसनी था। साहित्य में उसकी बड़ी रुचि थी। वह उच्च-कोटि का लेखक तथा कवि था। यह साहित्यकारों तथा कवियों का आश्रयदाता था। बौद्ध-विद्वान वसुबंधु को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था। उसका मंत्री हरिषेण भी उच्च-कोटि का कवि था। वह अपने स्वामी का बड़ा कृपा पात्र था। प्रयाग के स्तम्भ-लेख में हरिषेण ने समुद्रगुप्त की बड़ी प्रशंसा की है। उसने कहा है कि अनेक काव्यों को लिखकर समुद्रगुप्त ने कविराज की उपाधि प्राप्त की। उसका साहित्य विद्वानों के मनन करने योग्य है। उसकी काव्य-शैली अध्ययन करने योग्य है, उसकी काव्य रचनाएं कवियों के आध्यात्मिक कोष में अभिवृद्धि करती हैं। हरिषेण की इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त को साहित्य से बड़ा प्रेम था। डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने समुद्रगुप्त की आलौकिक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत प्रतिभा का व्यक्ति था। वह न केवल शस्त्रों में वरन् शास्त्रों में भी कुशल था। वह स्वयं बड़ा ही सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगति प्रिय थी।’

(6) महान् कला प्रेमी: समुद्रगुप्त वीणा बजाने में प्रवीण था। संगीत में उसकी बड़ी रुचि थी। उसकी अनेक स्वर्ण-मुद्राओं पर वीणा अंकित है। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने संगीत में नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था। गायन तथा वादन दोनों में ही उसने प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

(7) भागवत धर्म का अनुयायी: समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ करके ब्राह्मण धर्म तथा यज्ञों की उपयोगिता में विश्वास प्रकट किया। इससे ब्राह्मण धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त हो गया। वह फिर से लोक-धर्म बन गया और उसकी उन्नति होने लगी। समुद्रगुप्त की मुद्राओं पर लक्ष्मी की आकृति अंकित की गई है। उसने परम भागवत की उपाधि धारण की। उसका राज्य-चिन्ह गरुड़ था, जो विष्णु का वाहन है। इन सब तथ्यों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह विष्णु का उपासक था।

(8) धार्मिक सहिष्णुता: संसार के श्रेष्ठ धर्म का अनुयायी होने पर भी वह अन्य धर्मों की प्रजा के साथ सहानुभूति रखता था। वह उन पर किसी प्रकार का भेदभाव अथवा अत्याचार नहीं करता था। वह बौद्ध आदि धर्मों की सहायता करता था। उसने गया में एक बौद्ध-विहार बनावाया जिससे स्पष्ट होता है कि उसका धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा उदार था और उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी।

(9) अलौकिक व्यक्तित्त्व: समुद्रगुप्त के चरित्र तथा उसके कार्यों का विवेचन करने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह साधारण मनुष्य नहीं था। उसे दैवी-शक्तियां प्राप्त थीं। इसी से उसे अमनुज अर्थात् जो मनुष्य न हो तथा अचिंत्य पुरुष आदि कहा गया है जो लोक तथा समय के अनुकूल कार्य करने के लिए ही मुनष्य का स्वरूप धारण किये हुए था। अन्यथा वह धन में कुबेर के समान तथा बुद्धिमत्ता में बृहस्पति के समान था। वह साधु के लिए उदय (आशा) और असाधु के लिए प्रलय (विनाश) था। इसलिये वह देवता का साक्षात् स्वरूप था।

भारत का नेपोलियन

अंग्रेज इतिहासकार डॉ. विसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है। उसने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त ने कलाओं के अभ्यास से चाहे जितनी मात्रा में ख्याति प्राप्त की हो, जिससे उसके न्यूनावकाश की शोभा बढ़ी, यह स्पष्ट है कि वह साधारण शक्तियों में संयुक्त न था। वह वास्तव में विलक्षण प्रतिभा का व्यक्ति था और वह भारतीय नेपोलियन कहलाने का अधिकारी है।’ इसके विपरीत आयंगर ने लिखा है- ‘उसे भारत का नेपोलियन कहना बड़ा ही अनुचित है जो केवल राज्य जितना ही राजा का कर्त्तव्य समझता था।’ समुद्रगुप्त के सम्बन्ध में इन दोनों इतिहासकारों के मतों पर विचार कर लेना आवश्यक है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में समानता: नेपोलियन यूरोप का महान् विजेता तथा सेनानायक था। फ्रांसिसी क्रांति के समय वह फ्रांसिसी सेना का सेनापति था। उसने फ्रांस की समस्त सैन्य शक्ति अपने हाथ में कर ली और वह फ्रांस का सम्राट बन गया। उसने अपने बाहुबल तथा सैन्यबल से न केवल फ्रांस की उसके शत्रुओं से रक्षा की वरन् उसने सम्पूर्ण यूरोप को आतंकित कर उसे नत-मस्तक कर दिया। स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन केवल इस आधार पर कहा है कि जिस प्रकार नेपोलियन एक महान् विजेता तथा सेनानायक था और उसने सम्पूर्ण फ्रांस को नत-मस्तक कर दिया था, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी अपने अलौकिक पराक्रम से सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त कर उसे नत-मस्तक किया था। इस दृष्टिकोण से समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन मानने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए परन्तु दोनों की समानता यहीं समाप्त हो जाती है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में असमानताएं: दो भिन्न महाद्वीपों के इन दो महान् योद्धाओं तथा विजेताओं के पूरे जीवन में आद्योपरांत भिन्नताएं हैं। इन्हें इस प्रकार से समझा जा सकता है-

(1) वंश का अंतर: नेपोलियन एक सामान्य परिवार में उत्पन्न हुआ एक साधारण सैनिक था, उसने अपने लिये राज्य का निर्माण स्वयं किया जबकि समुद्रगुप्त, राजा का पुत्र था, उसे राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।

(2) सामरिक सफलताओं में अंतर: नेपोलियन को अपने उद्देश्य में केवल आरम्भिक चरण में सफलता प्राप्त हुई। उसकी विजय क्षणिक सिद्ध हुई। उसके विपरीत समुद्रगुप्त को अपने उद्देश्य में आद्योपरांत सफलता प्राप्त हुई।

(3) राज्य के स्थायित्व में अंतर: नेपोलियन ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया वह थोड़े ही समय बाद नष्ट हो गया। जबकि समुद्रगुप्त ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया, वह स्थायी सिद्ध हुआ। उसने न केवल स्वयं जीवन-पर्यन्त उस साम्राज्य का सुखपूर्वक उपभोग किया अपितु उसके उत्तराधिकारियों ने भी डेढ़ शताब्दियों से अधिक समय तक उस मधुर फल का उपभोग किया।

(3) विजित शत्रुओं के साथ सम्बन्धों में अंतर: नेपोलियन, विजय के उपरान्त विजित प्रदेशों में शान्ति स्थापित नहीं कर सका और शत्रुओं को मित्र बनाने में असफल रहा। इसके विपरीत समुद्रगुप्त ने जिन प्रदेशों को जीता वहाँ पर उसने स्थायी शान्ति स्थापित की और अपने शत्रुओं को अभयदान देकर उन्हें अपना मित्र बना लिया। नेपोलियन के विरुद्ध स्पेन तथा जर्मनी ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया परन्तु समुद्रगुप्त को इस प्रकार के किसी आन्दोलन का सामना न करना पड़ा।

उद्देश्यों में अंतर: नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त की सफलाताओं और स्थायित्व में अंतर का कारण यह है कि इन दोनों विजेताओं के उद्देश्यों में भी पर्याप्त अंतर था। नेपोलियन केवल समर विजयी योद्धा था और उसकी विजय का नैतिक स्तर अत्यंत निम्नकोटि का था। इसके विपरीत समुद्रगुप्त एक धर्म-विजयी सम्राट था और उसकी विजय का नैतिक स्तर आर्य आदर्शों के अनुरूप अत्यंत ऊँचा था।

जीवन काल के अंत में अंतर: नेपोलियन को अन्त में भयानक पराजयों का आलिंगन करना पड़ा और उसका अन्त बड़ा दुःखद हुआ। ट्राफलर तथा वाटरलू के सामुद्री युद्धों में इंग्लैड की सेनाओं ने उसे बहुत बुरी तरह परास्त किया। उसकी सेनाओं को रूस से हताश होकर वापस लौटना। अन्त में नेपोलियन बन्दी बनाकर सेन्ट निर्जन हेलेना द्वीप में भेज दिया गया, जहाँ अपमानजनक परिस्थितियों में उसकी जीवन-लीला समाप्त हुई। समुद्रगुप्त के जीवन में ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ। समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में सर्वत्र विजय-लक्ष्मी का ही आलिंगन किया था, पराजय का नहीं। समुद्रगुप्त ने 40 वर्षों के दीर्घकालीन शासन में अपनी विजयों के मधुर फलों का आस्वादन किया।

निष्कर्ष: नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त के जीवन में इतना बड़ा अन्तर होने के कारण अधिकांश इतिहासकार स्मिथ के कथन से सहमति नहीं रखते। इतिहासकारों का कहना है कि नेपोलियन कुछ अर्थों में यूरोप का समुद्रगुप्त हो सकता है परन्तु समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहना उचित नहीं है।

रामगुप्त (375 ई.)

समुद्रगुप्त के कई पुत्र तथा पौत्र थे। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम रामगुप्त था जो उसके बाद सिंहासन पर बैठा। कतिपय साहित्यिक उल्लेखों तथा पूर्वी मालवा से प्राप्त रामगुप्त के नाम से अंकित तथा गरुड़ चिह्नांकित सिक्कों के आधार पर रामगुप्त की ऐतिहासिकता स्वीकार की गई है। उसके शासन काल के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। सम्भवतः उसके सिंहासन पर बैठते ही शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। रामगुप्त परास्त हो गया और शकों ने उसे बंदी बना लिया। विवश होकर रामगुप्त को शकों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें उसे अपनी रानी ध्रुवदेवी, शकों को समर्पित करने की शर्त स्वीकार करनी पड़ी। रामगुप्त का छोटा भाई चन्द्रगुप्त बड़ा ही वीर, साहसी तथा स्वाभिमानी राजकुमार था। अपने भ्राता की कायरता से खिन्न होकर चंद्रगुप्त, धु्रवदेवी के वेश में स्त्री-वेशधारी योद्धाओं के साथ शकों की सैन्य छावनी में गया। जब शक राजा धु्रवदेवी का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ा तब चन्द्रगुप्त ने उसका वध कर दिया और अपने सैनिकों की सहायता से शकों को गुप्त साम्राज्य से मार भगाया।

सम्राट रामगुप्त की कायरता तथा कापुरुषता से धु्रवदेवी को बड़ा क्षोभ हुआ। उसने अपने देवर के वीरोचित गुणों का सम्मान करते हुए तथा साम्राज्य के लिये उसका मूल्य एवं उसकी आवश्यकता समझते हुए, चंद्रगुप्त के साथ मिलकर रामगुप्त की हत्या का षड़यंत्र रचा। धु्रवदेवी के सहयोग से चन्द्रगुप्त ने अपने भाई रामगुप्त का वध कर दिया और धु्रवदेवी के साथ विवाह करके गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन गया।

अध्याय – 18 : चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-414 ई.)

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चन्द्रगुप्त (द्वितीय) समुद्रगुप्त की रानी दत्तदेवी का पुत्र था। वह बड़ा ही वीर तथा पराक्रमी राजकुमार था। राजा बनने के बाद उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। विक्रम का अर्थ होता है पराक्रम अथवा प्रताप और आदित्य का अर्थ होता है सूर्य। अर्थात् विक्रमादित्य उस व्यक्ति को कहते हैं जो सूर्य के समान प्रतापी हो। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने ऐश्वर्य तथा प्रताप को उसी प्रकार फैलाया जिस प्रकार सूर्य अपने आलोक को सम्पूर्ण विश्व में फैला देता है।

वैवाहिक सम्बन्ध

स्थायी मित्रों एवं शुभचिंतकों की संख्या में वृद्धि करने के लिये चंद्रगुप्त ने राजनीतिक रूप से शक्ति-सम्पन्न राजकन्याओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया।

(1) धु्रवकुमारी से विवाह: धु्रवकुमारी सम्राट रामगुप्त की पत्नी थी तथा गुप्त साम्राज्य की साम्राज्ञी थी। रामगुप्त का वध करने के बाद राज्य में अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने साम्राज्ञी से विवाह कर लिया।

(2) नाग राजकुमारी से विवाह: नागवंश के साथ गुप्तवंश का वैमनस्य बहुत दिनों से चला आ रहा था। इस वैमनस्य को समाप्त करने के लिए चंद्रगुप्त ने नाग-वंश की राजकुमारी कुबेर नाग के साथ विवाह कर लिया।

(3) राजकुमारी प्रभावती का वाकाटकों से विवाह: चंद्रगुप्त तथा महारानी कुबेर नाग के विवाह से प्रभावती नामक राजकन्या उत्पन्न हुई। जब यह राजकन्या बड़ी हुई तो चन्द्रगुप्त ने उसका विवाह बरार के वाकाटक राजा रुद्रसेन (द्वितीय) के साथ कर दिया। यह विवाह चन्द्रगुप्त ने गुजरात तथा सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों पर विजय प्राप्त करने के पूर्व किया था। इसलिये डॉ. स्मिथ की धारणा है कि शकों पर विजय प्राप्त करने में चन्द्रगुप्त को रुद्रसेन से बड़ी सहायता मिली होगी। इसलिये राजनीतिक दृष्टि से इस विवाह का बड़ा महत्त्व था।

(4) राजकुमार का विवाह: चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र का विवाह महाराष्ट्र प्रान्त में स्थित कुन्तल राज्य के शक्तिशाली राजा काकुस्थवर्मन की कन्या के साथ किया। इस विवाह का भी बहुत बड़ा राजनीतिक महत्त्व था। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें

चन्द्रगुप्त को अपने पिता से एक अत्यंत विशाल तथा सुसंगठित साम्राज्य प्राप्त हुआ। इसलिये उसे साम्राज्य-स्थापना के लिए कोई युद्ध नहीं करना पड़ा परन्तु अपने विशाल साम्राज्य की सुरक्षा करने, उसे सुसंगठित बनाये रखने और अपने साम्राज्य की वृद्धि करने के लिए उसे कई युद्ध करने पड़े। इन युद्धों का विवरण इस प्रकार से है-

(1) गणराज्यों का विनाश: गुप्त साम्राज्य के पश्चिमोत्तर में गणराज्यों की एक पतली पंक्ति विद्यमान थी। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था परन्तु इन्हें गुप्त-साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया था। ये राज्य बड़े ही स्वतंत्रता-प्रेमी थे और स्वयं को स्वतंत्र बनाये रखने का प्रयास करते रहते थे। इन गणराज्यों में किसी बाह्य आक्रमण को रोकने की शक्ति नहीं थी। साम्राज्य की सीमा पर ऐसे कमजोर राज्यों की उपस्थिति, जिनमें गणतंत्रात्मक व्यवस्था विद्यमान थी, चन्द्रगुप्त को उचित प्रतीत नहीं हुई। उदयगिरि से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने इन गणराज्यों पर आक्रमण करके उन्हें गुप्त-साम्राज्य में मिला लिया।

(2) शक-क्षत्रपों का अन्त: अब चन्द्रगुप्त का ध्यान उन शक-क्षत्रपों की ओर गया जो मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र में शासन कर रहे थे। यद्यपि इन क्षत्रपों ने समुद्रगुप्त के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था परन्तु चन्द्रगुप्त ने इस बात का अनुभव किया कि साम्राज्य की सीमा के निकट विदेशी शासन की स्थिति कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है। इसलिये उसने उन पर आक्रमण कर दिया और शक राजा रुद्रसिंह को परास्त कर उसका वध कर दिया तथा उसके राज्य को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त ने चांदी की मुद्राएं चलवाईं। इसके पूर्व के गुप्त सम्राटों ने केवल स्वर्ण मुद्राएं चलवाई थीं। इस विजय से गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र तट तक पहुंच गई। इस कारण भारत का विदेशों के साथ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों में विस्तार हुआ। इन विजयों से गुप्त साम्राज्य के आंतरिक व्यापार में भी वृद्धि हो गई। मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र के प्रान्त बड़े उपजाऊ तथा धन-सम्पन्न थे। इसलिये न केवल गुप्त साम्राज्य की सीमाओं में वृद्धि हुई अपितु उसके कोष में भी वृद्धि हो गई।

(3) पूर्वी प्रदेश पर विजय: गुप्त साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर कई छोटे-छोटे राज्य थे जो गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए संगठन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने इन्हें परास्त कर यश प्राप्त किया था।

(4) वाह्लीक राज्य पर आक्रमण: भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में कुषाणों के वंशज अब भी शासन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञाता होता है कि चन्द्रगुप्त ने सिन्ध की सहायक नदियों को पार कर वाह्लीकों को परास्त किया और पंजाब तथा सीमान्त प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर वाह्लीकों को काबुल के उस पार भगा दिया। सम्भवतः इन समस्त विजयों के उपरान्त ही चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

(5) दक्षिणापथ पर पुनर्विजय: महरौली के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि रामगुप्त के शासनकाल में दक्षिण-भारत के राज्यों ने गुप्त साम्राज्य की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था परन्तु चन्द्रगुप्त ने अपने पराक्रम तथा प्रताप के बल से पुनः दक्षिण भारत के राज्यों में गुप्त साम्राज्य की सत्ता स्थापित की।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का साम्राज्य

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी विजयों के फलस्वरूप एक विशाल गुप्त साम्राज्य पर राज्य किया। उसका राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन प्रबंध

साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ चन्द्रगुप्त ने अपने शासन को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का शासन बड़ा उदार तथा दयालु था। उसका शासन प्रबन्ध उस युग में किसी उपलब्धि से कम नहीं था।

(1) सम्राट: सम्राट राज्य का प्रधान था और अपनी राजधानी से ही सम्पूर्ण राज्य के शासन पर नियंत्रण रखता था। वह अपनी सेना का प्रधान सेनापति था और युद्ध के समय रण-क्षेत्र में उपस्थित रहता था। सम्राट न्याय विभाग का भी प्रधान था। उसका निर्णय अन्तिम समझा जाता था। इस प्रकार सेना, शासन तथा न्याय तीनों शक्तियों का केन्द्र-बिन्दु सम्राट स्वयं होता था।

(2) मंत्री: सम्राट को परामर्श देने तथा शासन में सहायता पहुंचाने के लिए कई मन्त्री नियुक्त किये जाते थे। सेना तथा शासन के अधिकारियों में कोई अंतर नहीं था। जो मन्त्री शासन को देखता था वही सैन्य-विभाग को भी संभालता था। (अ) मंत्रिन्: चन्द्रगुप्त का प्रधान परामर्शदाता मन्त्रिन कहलाता था। (ब) सन्धिविग्रहिक: सन्धि तथा विग्रह (युद्ध) आदि विषयों को देखने के लिये सन्धिविग्रहिक होता था। यह मन्त्री युद्ध के समय रण-स्थल में सम्राट के साथ उपस्थित रहता था। चन्द्रगुप्त का मन्त्री वीरसेन अपने स्वामी के साथ क्षत्रपों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए गया था। (स) अक्षपटल अधिकृत: एक मन्त्री राज-पत्रों को रखता था। उसे अक्षपटल अधिकृत कहते थे।

(3) शासन की विभिन्न इकाइयाँ: चंद्रगुप्त द्वितीय का सम्पूर्ण साम्राज्य कई प्रान्तों में, प्रत्येक प्रांत कई जिलों में तथा प्रत्येक जिला कई ग्रामों में विभक्त था। (अ) प्रांतीय शासन: प्रत्येक प्रान्त ‘देश’ अथवा ‘भुक्ति’ कहलाता था। देश का शासक ‘गोत्री’ और भुक्ति का ‘उपरिक’ कहलाता था। कुछ प्रान्तों के शासक राजकुमार हुआ करते थे। (ब) जिलों का शासन: प्रत्येक प्रान्त कई जिलों में विभक्त रहता था। ये जिले ‘प्रदेश’ अथवा ‘विषय’ कहलाते थे। इनका शासक ‘विषयपति’ कहलाता था। (स) ग्राम्य शासन: प्रत्येक विषय कई ग्रामों में विभक्त रहता था। गांव का शासक ग्रामिक अथवा भोजक कहलाता था। इस पद पर गांव का चौधरी अथवा मुखिया ही नियुक्त किया जाता था। उसकी सहायता के लिए ग्राम-वृद्धों की पंचायतें हुआ करती थीं।

(4) दंड विधान: चन्द्रगुप्त उदार तथा दयालु शासक था। उसका दंड विधान कठोर नहीं था। दंड, अपराध की गुरुता के अनुसार दिया जाता था। साधारण अपराध के लिए साधारण शास्ति और बड़े-बड़े़ अपराधों के लिए बड़ी शास्ति आरोपित की जाती थी। अंग-भंग करने का दंड प्रायः नहीं दिया जाता था। केवल राजद्रोहियों का दाहिना हाथ काट दिया जाता था। किसी को भी प्राण दण्ड नहीं दिया जाता था।

(5) व्यापार तथा वाणिज्य: चन्द्रगुप्त के शासन-काल में बाह्य तथा आन्तरिक व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। उसका साम्राज्य पश्चिमी समुद्र तट तक विस्तृत था। इससे भारत का विदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध विस्तारित हो गया। उस काल में बंगाल से सूती तथा रेशमी वस्त्र, बिहार से नील, हिमालय प्रदेश से अंगराग तथा दक्षिण भारत से कपूर, चन्दन और मसाले पश्चिमी समुद्र-तट पर लाये जाते थे और रोम को भेजे जाते थे जहाँ से बहुत-सा सोना प्रतिवर्ष भारत आता था।

(6) मुद्राएं: साधारण व्यापार में कौड़ी का प्रयोग किया जाता था। परन्तु बड़े-बड़े व्यापारों में धातु मुद्राओं का प्रयोग होता था। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने तीन प्रकार की मुद्राएं चलाई थी। उत्तर भारत में सोने तथा तांबे की मुद्राएं प्रचलित थीं परन्तु गुजरात तथा काठियावाड़ में चांदी की मुद्राओं का प्रयोग किया जाता था।

(7) धार्मिक सहिष्णुता: चन्द्रगुप्त भागवत धर्म का अनुयायी एवं परम वैष्णव था परन्तु अन्य संप्रदायों के साथ सहिष्णु था। वह राजकीय पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्तियां करता था। इसलिये राजकीय सेवाओं के द्वार किसी भी सम्प्रदाय को मानने वाली प्रजा के लिए खुले रहते थे। चन्द्रगुप्त का सेनापति बौद्ध और उसका एक मन्त्री वैश्य था।

(8) दान-व्यवस्था: सम्राट चन्द्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दानी था। वह अनाथों तथा दीन-दुखियों की सदैव सहायता करता था। उसने दान का अलग विभाग खोल दिया था और उसके प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त कर दिया था।

चीनी यात्री फाह्यान का आगमन

चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया। उसका बचपन का नाम कुंड् था। जब वह दस वर्ष का था तब उसके पिता का निधन हो गया इसलिये कुंड् के पालन-पोषण का भार उसके चाचा पर पड़ा। उसका चाचा उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश कराना चाहता था, परन्तु कुंड् ने भिक्षु बनने का संकल्प लिया। कुंड् के पिता की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त कुंड् की माता का भी निधन हो गया। माता तथा पिता के स्नेह से वंचित हो जाने के कारण कुंड् गृहस्थ-जीवन से विमुख हो गया। बड़े होने पर उसने सन्यास ले लिया और वह फाह्यान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फाह्यान दो शब्दों से मिलकर बना है- फा तथा हियान। चीनी भाषा में फा का अर्थ है धर्म और हियान का अर्थ है आचार्य। इसलिये फाह्यान का अर्थ हुआ धर्माचार्य। चीन में उस समय बौद्ध धर्म का प्रचार अपने चरम पर था। फाह्यान बौद्ध-धर्म में दीक्षित हो गया। जब उसने बौद्ध-ग्रन्थों ‘त्रिपिटक’ तथा ‘विनय-पिटक’ का अध्ययन किया तो वे ग्रंथ उसे अधूरे तथा क्रमहीन प्रतीत हुए। इसलिये उसने उनकी प्रामाणिक प्रतियां प्राप्त करने तथा बौद्ध धर्म की जन्मभूमि का दर्शन करने के लिए भारत आने का निश्चय किया।

फाह्यान ने 400 ई. में चार अन्य भिक्षुओं के साथ भारत के लिए प्रस्थान किया। मार्ग की भयानक कठिनाइयों का सामना करते हुए वह गांधार पहुंचा। वहाँ से वह तक्षशिला गया और वहाँ से पुष्पपुर (पेशावर) पहुंचा। इस यात्रा में उसके साथी उसका साथ नहीं दे पाये और वे अपने देश लौट गये। केवल एक साथी उसके साथ रह गया। फाह्यान पुष्पपुर से मथुरा, कन्नौज, श्रावस्ती, कुशीनगर, वैशाली, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगृह, काशी, सारनाथ आदि नगरों के दर्शन करता हुआ ताम्रलिप्ति पहुंचा। यहाँ पर उसने दो वर्ष तक निवास किया। ताम्रलिप्ति से वह सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका गया। वहाँ से वह जावा गया और जावा से फिर अपने देश को लौट गया। 414 ई. में वह चीन पहुंच गया।

फाह्यान ने 405 ई. में भारत में प्रवेश किया और 411 ई. में उसने भारत से प्रस्थान किया। इस प्रकार वह लगभग 6 वर्ष तक भारत में रहा और लगभग चौदह वर्ष तक यात्रा करता रहा। जब फाह्यान अपने देश पहुंचा तब उसने अपनी यात्रा का विवरण अपने एक मित्र को सुनाया। फाह्यान के मित्र ने इस विवरण को फो-को-की नामक ग्रंथ में लेखनी-बद्ध कर दिया। यह विवरण, प्रचीन भारत का इतिहास जानने का अच्छा साधन है।

फाह्यान का भारतीय विवरण: फाह्यान 405 से 411 ई. अर्थात् लगभग छः वर्षों तक भारतवर्ष में रहा। उसने भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण किया। यद्यपि वह बौद्ध-ग्रन्थों को प्राप्त करने तथा तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के लिये भारत आया था तथा इस कार्य में वह इतना तल्लीन रहा कि उसने पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक निवास करने के उपरांत अपने विवरण में एक बार भी चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम नहीं लिखा। फिर भी उसके विवरण से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

(1) राजनीतिक दशा: फाह्यान लिखता है कि शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा के जीवन को सुखी बनाना था। चन्द्रगुप्त का शासन बड़ा अच्छा था। उसकी प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। प्रजा को अपना कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता थी। राजा उसके कार्यों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। लोग स्वतंत्रतापूर्वक व्यवसाय करके धन कमा सकते थे। क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था। बड़े-बड़े नगरों में राज्य की ओर से औषधालयों का प्रबंध रहता था, जहाँ प्रजा को निःशुल्क दवा मिलती थी। प्रजा पर राज्य की ओर से बहुत थोड़े कर लगाये गये थे। भूमि कर राज्य की आय का प्रधान साधन था। दण्ड-विधान कठोर न था। अपराधियों को प्रायः जुर्माने का दण्ड दिया जाता था। राजद्रोहियों का दहिना हाथ काट दिया जाता था। लोगों को चोरी तथा ठगी का बिल्कुल भय न था। राजा से उसकी प्रजा प्रेम करती थी। यात्रियों को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कें बनी थीं और उनके किनारे पर छायादार वृक्ष लगे थे। स्थान-स्थान पर कुंए खुदे रहते थे और धर्मशालाएं बनी रहती थीं, जिनमें यात्रियों को निःशुल्क भोजन मिलता था।

(2) सामाजिक दशा: फाह्यान के विवरण से भारत की सामाजिक दशा का पर्याप्त परिचय मिलता है। उसने लिखा है कि उत्तरी भारत के लोग बड़े धर्मात्मा तथा धन सम्पन्न थे। वे सदाचारी, विद्या प्रेमी तथा एक दूसरे से सहानुभूति रखने वाले थे। लोग एक दूसरे की सहायता करने के लिए उद्यत रहते थे। वे सत्यवादी होते थे और अपने व्यवहार में सत्य का पालन करते थे। लोग अहिंसात्मक प्रवृत्ति के होते थे। सज्जन लोग न तो आखेट करते थे और न मांस, लहसुन, प्याज, मदिरा आदि का सेवन करते थे। नगरों में इन वस्तुओं की दुकानें तक नहीं थीं। इन वस्तुओं का प्रयोग केवल चाण्डाल लोग तथा नीच जातियां करती थीं। उन्हें नगर के बाहर रहना पड़ता था। वे समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे। सूअर तथा मुर्गियों को केवल नीच लोग पालते थे।

(3) धार्मिक दशा: फाह्यान के विवरण से भारत की तत्कालीन धार्मिक दशा का भी पता चलता है। उसके विवरण से हमें ज्ञात होता है कि ब्राह्मण धर्म इस समय बड़ी उन्नत दशा में था और मध्य भारत में उसका बड़ा जोर था। सम्राट चन्द्रगुप्त स्वयं परमभागवत तथा वैष्णव धर्म का अनुयायी था। पंजाब, मथुरा तथा बंगाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी। महायान तथा हीनयान दोनों ही सम्प्रदाय विद्यमान थे। फाह्यान ने देश के विभिन्न भागों में अनेक बौद्ध विहार देखे थे परन्तु बौद्ध-धर्म अब अधःपतन की ओर जा रहा था। मध्य-भारत में तो इसका प्रभाव समाप्त सा हो रहा था। यद्यपि गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था परन्तु अन्य धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करता था। वह बौद्ध-धर्म को मानने वालों के साथ किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करता था। समस्त सम्प्रदायों वाली प्रजा मेल-जोल के साथ रहती थी। उनमें ईर्ष्या-द्वेष की भावना नहीं थी। सम्राट ब्राह्मणों के साथ-साथ बौद्धों को भी दान-दक्षिणा देता था।

(4) पाटलिपुत्र की दशा: फाह्यान गुप्त-साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक रहा। इस अवधि में उसने संस्कृत भाषा सीखी। उसने लिखा है कि पाटलिपुत्र में दो बड़े ही सुन्दर बौद्ध-विहार थे। इनमें से एक हीनयान सम्प्रदाय का और दूसरा महायान सम्प्रदाय का था। इन विहारों में लगभग छः-सात सौ भिक्षु निवास करते थे। भिक्षु बड़े ज्ञानवान होते थे। समाज के विभिन्न भागों से लोग ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन विद्वान भिक्षुओं के पास आया करते थे। फाह्यान ने पाटलिपुत्र में अशोक द्वारा बनवाये हुए सुन्दर भवन को देखा था। इस भवन की सुन्दरता से वह आश्चर्यचकित रह गया था। उसने विचार किया वह भवन देवताओं द्वारा बनाया गया है क्योंकि मनुष्य ऐसे भव्य भवन का निर्माण नही कर सकता था। फाह्यान लिखता है कि नगर में बड़े धनी तथा दानी लोग निवास करते थे। नगर में अनेक संस्थाएं थीं जहाँ दीन-दुखियों, अपाहिजों तथा असहायों को दान मिलता था। पाटलिपुत्र में एक बहुत बड़ा औषधालय था, जहाँ दीन-दुखियों को निःशुल्क औषधि मिलती थी। औषधालय का व्यय नगर के धनी-मानी तथा दानी व्यक्ति वहन करते थे।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के कार्यों का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की गणना भारत के अत्यंन्त योग्य तथा सफल शासकों में होती है। उसने अपने पिता के साम्राज्य को न केवल सुरक्षित तथा सुसंगठित रखा अपितु उसकी सीमाओं में वृद्धि भी की।

महान विजेता: चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने शक-क्षत्रपों को परास्त कर मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र को गुप्त-साम्राज्य में मिलाया। उसने वाह्लीकों को पश्चिमोत्तर प्रदेश से मार भगाया और गणराज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित करके गुप्त-साम्राज्य की सीमा में वृद्धि की। उसने दक्षिण भारत पर भी गुप्त-साम्राज्य की सत्ता को फिर से स्थापित किया। इस प्रकार एक विजेता के रूप में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का स्थान बड़ा ऊँचा है।

महान कूटनीतिज्ञ: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने समय का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह समस्त प्रकार के साधनों का प्रयोग कर सकता था। उसने नारी का वेश धारण कर शक-राजा की हत्या की और अपने भाई रामगुप्त का वध कर पाटलिपुत्र का सिंहासन प्राप्त किया। उसने नाग-वंश तथा वाकाटक वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी स्थिति को अत्यंत सुदृढ़़ बनाया। इन सबसे सिद्ध होता है कि वह राजनीति का बहुत बड़ा पंडित था।

कुशल प्रशासक: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कुशल प्रशासक था। फाह्यान के विवरण से ज्ञात होता है कि उसकी प्रजा बड़ी सुखी थी और उससे प्रेम करती थी। उसका शासन उदार था। वह न्याय-प्रिय राजा था। उसका दंड-विधान कठोर नहीं था। मृत्यु दंड का सर्वधा निषेध था।

धार्मिक सहिष्णुता: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, भागवत धर्म का उपासक था जिसे वैष्णव धर्म भी कहते हैं। उसके अभिलेखों में उसे परम भागवत कहा गया है। उसमें उच्च-कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। उसके राज्य में राजकीय नौकरियों के द्वार समस्त प्रजा के लिए खुले रहते थे। उसके मंत्री ‘वीरसेन’ तथा ‘शिखर स्वामी’ शैव धर्म के अनुयायी थे। उसका सेनापति ‘आम्रकार्दव’ बौद्ध था।

महान साहित्य प्रेमी: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने समय का महान साहित्य प्रेमी तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता था। उसकी महानता उसके साम्राज्य निर्माण में नहीं अपितु बौद्धिक पुनरुत्थान में निहित थी। उसकी सभा में नौ महान् विद्वान रहते थे जो नवरत्न कहलाते थे। इनमें कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। चन्द्रगुप्त के शासन-काल में संस्कृत भाषा की बड़ी उन्नति हुई और अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ लिखे गए। कला एवं संस्कृति की उन्नति, प्रजा की सम्पन्नता तथा राज्य में शांति के वातावरण के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहते हैं।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य योग्य तथा सफल शासक था और भारत के इतिहास में राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से उसका बड़ा महत्व है।

अध्याय – 19 गोविंदगुप्त, कुमारगुप्त (प्रथम) एवं स्कंदगुप्त

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गोविंद गुप्त बालादित्य (412-415 ई.)

बसाढ़ (वैशाली) से ध्रुवस्वामिनी की एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर एक लेख इस प्रकार उत्कीर्ण है- महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त-पत्नी महाराज गोविन्दगुप्त माता महादेवी श्री धु्रवस्वामिनी। इस मुहर से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-

1. किसी रानी की मुहर में उसके शासक पति और उसके युवराज पुत्र के नाम की ही अपेक्षा की जा सकती है। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय चंद्रगुप्त (द्वितीय) जीवित था। अन्यथा धु्रवस्वामिनी ने स्वयं को राजमाता कहा होता।

3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय तक कुमार गुप्त को चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया गया था।

3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गोविंदगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का ज्येष्ठ पुत्र था तथा युवराज होने के कारण इस मुहर पर उसका नाम आया है।

मालव अभिलेख कहता है कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की मृत्यु के बाद गोविंद गुप्त राजा हुआ। अतः अनुमान होता है कि गोविंदगुप्त अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ किंतु उसका शासन अत्यंत अल्पकाल का रहा। अनुमान है कि इस शासन की अधिकतम अवधि दो वर्ष रही। उसने 412 ई. से 415 ई. के बीच की अवधि में शासन किया। संभवतः इसकी उपाधि बालादित्य थी।

कुमार गुप्त प्रथम (415-455 ई.)

बिलसड़ अभिलेख के अनुसार कुमारगुप्त की आरम्भिक तिथि 415 ई. तथा उसके चांदी के सिक्कों पर उसकी अंतिम तिथि 455 ई. प्राप्त होती है। इससे अनुमान होता है कि 415 ई. में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का कनिष्ठ पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। उसे महेन्द्रादित्य भी कहते हैं।

साम्राज्य: कुमारगुप्त के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा संगठित रखा। 436 ई. के एक अभिलेख में कहा गया है कि कुमारगुप्त का साम्राज्य उत्तर में सुमेरू और कैलाश पर्वत से दक्षिण में विन्ध्या वनांे तक और पूर्व तथा पश्चिम में सागर के बीच फैला हुआ था।

प्रजा की स्थिति: कुमारगुप्त का राज्य शांतिपूर्ण और समृद्धिशाली था। उसने अपने शासन के 40 वर्ष के शांतिकाल में भी अपनी सेना को बनाये रखा।

अश्वमेध यज्ञ: कुमारगुप्त की मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने एक अश्वमेघ यज्ञ भी किया था।

पुष्यमित्रों पर विजय: कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम भाग में नर्मदा नदी के उद्गम के निकट निवास करने वाले पुष्यमित्र वंश के क्षत्रियों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने उनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।

धार्मिक सहिष्णुता: कुमारगुप्त ने अपने पिता की धर्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। वह स्वयं कार्तिकेय का उपासक था तथा अन्य सम्प्रदाय वालों के साथ उदारता का व्यवहार करता था।

निधन: 455 ई. में कुमारगुप्त का निधन हो गया।

स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

कुमारगुप्त की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त 455 ई. में गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। इस अभिलेख में स्कन्दगुप्त अपने पिता कुमारगुप्त के नाम का उल्लेख तो करता है किंतु अपनी माता के नाम का उल्लेख नहीं करता जबकि गुप्त शासकों में इस प्रकार के शिलालेखों में अपनी माता का नाम लिखने की अनिवार्य परम्परा थी। इस कारण परमेश्वरीलाल गुप्त ने इससे यह आशय निकाला है कि स्कंदगुप्त को अपनी माता का नाम लिखना गौरवपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ।

स्कन्दगुप्त की उपलब्धियाँ

सिंहासन की प्राप्ति: स्कन्दगुप्त वीर राजा था। अपने पिता के शासनकाल में ही उसने पुष्यमित्रों का दमन किया। जिस समय कुमारगुप्त की मृत्यु हुई, उस समय स्कन्दगुप्त राजधानी से दूर युद्ध में व्यस्त था। इस कारण स्कन्दगुप्त के छोटे भाई घटोत्कच ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। स्कन्दगुप्त ने राजधानी लौटकर कुछ माह में ही अपने पिता के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि लक्ष्मी ने समस्त गुण-दोषों को पूरी तरह छान-बीन करने के बाद अन्य राजपुत्रों को ठुकराकर उनका वरण किया।

शत्रुओं का दमन: भितरी अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने अपने पिता के राज्य का दिग्विजय द्वारा विस्तार किया और पराजितों पर दया दिखाई। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि स्कन्दगुप्त ने मान दर्प से अपने फणों को उठाने वाले सर्प रूपी नरपतियों का दमन किया। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त के सिंहासन पर बैठते ही हूणों का आक्रमण हुआ।

किदार कुषाणों का दमन: जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कंदगुप्त ने म्लेच्छों का दमन किया। परमेश्वरीलाल गुप्त ने इन म्लेच्छों का साम्य किदार कुषाणों से किया है जिन्होंने स्कन्दगुप्त से परास्त होकर उत्तरी पश्चिमी पर्वतीय भूभाग में शरण ली तथा फिर वे छठी शताब्दी में किसी समय वहां से वापस लौटे तथा गांधार के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया।

हूणों का दमन: स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठते ही विपत्तियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि हूणों ने सिन्धु नदी को पार कर उसके साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त कर दिया। इस उपलक्ष्य में उसने देवी-देवताओं को बलि भेंट चढ़ाई तथा विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया जो गाजीपुर के भीतरी नामक गांव में पाया जाता है।

जूनागढ़ अभिलेख स्कन्दगुप्त के राज्यारोहण के बाद एक-दो वर्ष की अवधि में ही लिखा गया है जिसमें कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों का सामना कर उन्हें पराजित कर पृथ्वी को हिला दिया। जूनागढ़ अभिलेख तथा भितरी अभिलेख दोनों ही स्कंदगुप्त की विजय की स्पष्ट घोषणा करते हुए कहते हैं कि स्कन्दगुप्त ने अपने शत्रुओं को पराजित कर पूर्णतः कुचल दिया।

हूणों ने डैन्यूब नदी से सिंधु तक क्रूर विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। उनके नेता अत्तिल ने रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया दोनों ही राजधानियों पर भयानक आक्रमण किया था। उसने ईरान को परास्त करके वहां के राजा को मार डाला था। अतः स्कन्दगुप्त ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की।

स्कन्दगुप्त की इस सेवा का वर्णन करते हुए बी. पी. सिंह ने लिखा- ‘यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों की दासता के बंधन से देश को मुक्त किया तो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने शकों की शक्ति का विनाश किया और स्कन्दगुप्त ने हूणों से साम्राज्य तथा देश की रक्षा की।’ स्कन्दगुप्त को जीवन पर्यन्त उनके साथ संघर्ष करना पड़ा परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए।

शासन प्रबंध: स्कन्दगुप्त उदार शासक था। उसे शास्त्र और न्याय दोनों के प्रति गहरी आस्था थी। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि उसकी प्रजा का कोई व्यक्ति अपने धर्म से च्युत नहीं होता, कोई दारिद्र्य और कदर्य से पीड़ित नहीं है और न किसी दण्डनीय को अनावश्यक पीड़ित किया जाता है। स्कन्दगुप्त के शासन काल में प्रांतपतियों को गोप्ता कहा जाता था। उनका चयन बहुत सोच समझकर किया जाता था। उनमें सर्वलोक हितैषी, विनम्रता तथा न्यायपूर्ण अर्जन की प्रवृत्तियों की परख की जाती थी।

सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार: 455 ई. में अतिवृष्टि के कारण सुदर्शन झील का बांध टूट गया। स्कन्दगुप्त ने विपुल धन राशि लगाकर सुदर्शन झील की मरम्मत कराई तथा इसके बांध का पुनः निर्माण करवाया। इस बांध से चंद्रगुप्त (द्वितीय) के समय में ही सिंचाई के लिये नहरें निकाली गई थीं।

स्कन्दगुप्त का धर्म: स्कन्दगुप्त वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने भी अपने पूर्वजों की भांति धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने नालंदा में एक बौद्ध संघाराम बनवाया।

साम्राज्य की सुरक्षा: यद्यपि स्कन्दगुप्त का काल भयानक विपत्तियों का काल था परन्तु वह अपने पूर्वजों के साम्राज्य को सुरक्षित रखने में पूरी तरह सफल रहा। 460 ई. के कहवां अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने नालंदा में बौद्ध संघाराम बनाने में सहायता की इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय तक स्कन्दगुप्त हूणों, शकों एवं कुषाणों को अपने राज्य की सीमाओं से परे धकेल चुका था तथा राज्य में शांति हो गई थी।

मुद्राओं के भार में वृद्धि: स्कन्दगुप्त ने अपने पूर्ववर्ती गुप्त सम्राटों द्वारा जारी की गई मुद्राओं की अपेक्षा अधिक भार की मुद्रायें चलाईं। जबकि धातु की शुद्धता पहले से भी अधिक बढ़ा दी गई। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त का राज्य पूरी तरह समृद्ध था तथा राज्यकोष परिपूर्ण था। अनुमान है कि स्कन्दगुप्त के राज्य में सोना और चांदी सस्ते हो गये थे अतः मुद्रा का मूल्य बनाये रखने के मुद्रा के भार तथा शुद्धता में वृद्धि की गई।

चीन के साथ राजनीतिक सम्बन्ध: चीनी स्रोतों के अनुसार 466 ई. में एक भारतीय राजदूत सांग सम्राट के दरबार में गया। उस समय चीनी सम्राट् ने भारतीय नरेश को एक उपाधि प्रदान की जिसका अर्थ था- ‘अपना अधिकार सुदृढ़ रूप से स्थापित करने वाला सेनापति।’ अनुमान होता है कि यह राजदूत स्कन्दगुप्त द्वारा भेजा गया था क्योंकि इस उपाधि में स्कन्दगुप्त के राज्य की घटनाओं की झलक मिलती है।

उत्तर-पश्चिमी पंजाब का पतन: स्कंदगुप्त के शासन के अंतिम दिनों में हूणों ने उत्तर पश्चिमी पंजाब पर अधिकार कर लिया। यह संभवतः पहली बार था जब किसी आक्रांता ने गुप्तों से धरती छीनी हो।

प्रांतपतियों का विद्रोह: स्कन्दगुप्त के शासन के परवर्ती काल का कोई भी शिलालेख उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी मध्यप्रदेश से आगे नहीं मिलता। उसकी प्रारंभिक मुद्राओं पर परमभागवत महाराजाधिराज की उपधि मिलती है किंतु बाद के सिक्कों पर परहितकारी राजा की उपाधि उत्कीर्ण है। इससे अनुमान है कि उसके शासन के अंतिम वर्षों में हूणों ने उसके राज्य का बहुत सा भाग दबा लिया जिससे उत्साहित होकर अन्य प्रांतपतियों ने भी विद्रोह करके स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी। काठियावाड़ में मैत्रकों ने वलभी को राजधानी बनाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। स्कंदगुप्त के शासन काल में ही मालवा भी हाथ से निकल गया था।

करद राज्यों का विद्रोह: स्कन्दगुप्त के शासन काल में ही एरण में परिव्राजकों का शासन हो गया था। यह पहले गुप्तों के अधीन एक करद राज्य था।

पश्चिमी राज्यों पर छोटे राज्यों की स्थापना: स्कन्दगुप्त के शासन काल में साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई।

स्कन्दगुप्त की पराजय एवं राज्य बिखरने के कारण

स्कन्दगुप्त के जीवन काल में ही राज्य में आई शिथिलता, हूणों से पराजय एवं राज्य के बिखरने के दो प्रमुख कारण जान पड़ते हैं-

1. उत्तराधिकारी का अभाव: स्कन्दगुप्त के कुछ सिक्के मिले हैं जिनमें एक स्त्री की प्रतिमा उत्कीर्ण है। स्त्री की प्रतिमा वाले सिक्के स्कन्दगुप्त के शासन काल के प्रारंभिक सिक्के हैं बाद के सिक्कों पर इस तरह की प्रतिमा नहीं है। कुछ इतिहासकार इसे स्कन्दगुप्त की रानी मानते हैं तो कुछ उसे लक्ष्मी की मूर्ति मानते हैं। अधिकांश इतिहासकारों की राय है कि स्कन्दगुप्त अविवाहित था। उसके सिक्कों पर न रानी का उल्लेख मिलता है न किसी राजकुमार का। संभवतः यही कारण था कि सम्राट की वृद्धावस्था तथा उत्तराधिकारी के अभाव के कारण हूणों का सफलता पूर्वक प्रतिरोध नहीं किया जा सका। सम्राट की वृद्धावस्था, पराजय एवं उत्तराधिकारी के अभाव से उत्साहित होकर करद राज्यों ने कर देना बंद कर दिया तथा प्रांतपतियों ने भी स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

2. बौद्ध धर्म का प्रभाव: स्कन्दगुप्त ने अपने प्रारंभिक सिक्कों में अपने आप को परमभागवत महाराजाधिराज घोषित किया है जबकि बाद के सिक्कों में परहितकारी कहकर अपनी दीनता प्रकट की है। कहला अभिलेख घोषणा करता है कि स्कन्दगुप्त  ने नालंदा में बौद्ध संघाराम का निर्माण करवाया। इन दों तथ्यों से अनुमान होता है कि बौद्ध धर्म में रुचि हो जाने के कारण स्कन्दगुप्त युद्धों के प्रति उदासीन हो गया। इसी कारण हूणों से उसकी पराजय हुई तथा प्रांतीय सामंतों एवं करद राज्यों ने उत्साहित होकर अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

निष्कर्ष

स्कन्दगुप्त की सफलताएं उसे अपने पूर्ववर्ती सम्राटों- चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त (द्वितीय) की पंक्ति में बैठाती हैं। उसके राज्य में पूर्ववर्ती समस्त राजाओं से अधिक समृद्धि थी। उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके कार्य समुद्रगुप्त की भांति महान थे किंतु वृद्धावस्था आ जाने के कारण, बौद्ध धर्म में आस्था होने के कारण, युद्धों से उदासीन होने के कारण तथा उत्तराधिकारी न होने के कारण राज्य के अंतिम वर्षों में शिथिलता आ गई। हूणों से मिली पराजय के बाद  राज्य बिखरने लगा।

स्कन्दगुप्त की मृत्यु

स्कन्दगुप्त की ज्ञात अंतिम तिथि गुप्त संवत् 148 अर्थात् 467 ई. है। विश्वास किया जाता है कि इसी वर्ष उसकी मृत्यु हुई।

अध्याय – 20 : गुप्त साम्राज्य का पतन

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उत्तरकालीन गुप्त सम्राट

स्कन्दगुप्त के बाद उसका विमात-पुत्र पुरुगुप्त वृद्धावस्था में सिंहासन पर बैठा। पुरुगुप्त ने 467 ई. से 473 ई. तक शासन किया। उसने धनुर्धर प्रकार की स्वर्ण मुद्रायें चलाईं। डॉ. रायचौधरी ने भरसार से पाये गये सिक्कों पर अंकित प्रकाशादित्य को पुरुगुप्त अथवा उसके किसी तात्कालिक उत्तराधिकारी की गौण उपाधि माना है। पुरुगुप्त साम्राज्य को विश्ृंखलित होने से नहीं बचा सका। उसका चाचा गोविन्दगुप्त, जो मालवा में शासन करता था, स्वतंत्र हो गया। उसका अनुसरण करके अन्य प्रान्तपति भी स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगे। उसके बाद कई शक्तिहीन राजा हुए जो गुप्त-साम्राज्य को नष्ट होने से नहीं बचा सके। गुप्त सम्राटों में अंतिम सम्राट कुमारगुप्त (तृतीय) तथा विष्णुगुप्त हुए। इनकी अंतिम तिथि 570 ई. के लगभग मिलती है। इसके बाद गुप्तवंश के किसी राजा का उल्लेख नहीं मिलता है।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण

गुप्त सम्राटों ने 275 ई. से 550 ई. तक पूरी शक्ति एवं ऊर्जा से शासन किया। उसके बाद उनकी अवनति आरंभ हो गई तथा 570 ई. के लगभग उनका राज्य पूरी तरह नष्ट हो गया। गुप्तों के पतन के कई कारण थे जिनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-

(1) अयोग्य उत्तराधिकारी: गुप्त साम्राज्य के पतन का सर्वप्रथम कारण यह था कि स्कन्दगुप्त की मृत्यु के उपरान्त पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त (द्वितीय), भानुगुप्त आदि गुप्त-सम्राट् अयोग्य तथा शक्तिहीन थे। उनमें विशाल गुप्त-साम्राज्य को सुरक्षित रखने की क्षमता नहीं थी। केन्द्रीभूत शासन की सुरक्षा तथा सुदृढ़़ता सम्राट् की योग्यता पर ही निर्भर रहती है। इसलिये अयोग्य शासकों के शासन-काल में साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना स्वाभाविक था।

(2) हूणों के आक्रमण: गुप्त-साम्राज्य के पतन का दूसरा कारण हूणों का आक्रमण था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने सफलतापूर्वक इन आक्रमणों का सामना किया परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए। उत्तरकालीन निर्बल गुप्त-सम्राटों के शासन-काल में ये आक्रमण और अधिक बढ़ गये।

(3) निश्चित सीमा नीति का अभाव: परवर्ती गुप्त-सम्राटों ने विदेशी आक्रमणों को रोकने के लिए किसी निश्चत सीमा नीति का अनुसरण नहीं किया। न ही सीमाओं पर नियुक्त सेनाओं के सुदृढ़़ीकरण पर ध्यान दिया। इसलिये वे हूणों के लगातार हो रहे आक्रमणों को लम्बे समय तक रोक नहीं सके।

(4) प्रान्तपतियों की महत्त्वाकांक्षाएँ: गुप्त-साम्राज्य के पतन का तीसरा कारण प्रान्तपतियों की महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। स्कन्दगुप्त के बाद जब अयोग्य शासक सिंहासन पर बैठे तब प्रान्तपतियों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करना आरम्भ कर दिया। सबसे पहले बल्लभी के मैत्रकों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया। इसके बाद सौराष्ट्र, मालवा, बंगाल आदि के शासकों ने भी स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया जिससे गुप्त-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

(5) आर्थिक विपन्नता: गुप्त-साम्राज्य के पतन का चौथा करण आर्थिक विपन्नता थी। यह विपन्नता स्कन्दगुप्त के शासन-काल में ही आरम्भ हो गई थी। ब्राह्य-आक्रमणों को रोकने में परवर्ती गुप्त-सम्राटों को विपुल धन व्यय करना पड़ा। जिससे राज-कोष धीरे-धीरे रिक्त हो गया और शासन का सुचारू रीति से संचालित करना असम्भव हो गया। फलतः सर्वत्र कुव्यवस्था फैल गई और गुप्त-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

(6) बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाना: गुप्त-साम्राज्य के पतन का पांचवां तथा अन्तिम कारण यह था कि गुप्त वंश के परवर्ती शासकों ने ब्राह्मण धर्म त्याग कर बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया। बौद्ध-धर्म अंहिसा-धर्म है इसलिये वह सैन्य-शक्ति को बल नहीं प्रदान करता। इसका परिणाम यह हुआ कि गुप्त-साम्राज्य की सैन्य-शक्ति दिन पर दिन क्षीण होती गई और साम्राज्य हूणों की सैन्य शक्ति का शिकार बनकर नष्ट हो गया।

(7) यशोवर्मन का उत्कर्ष: कुमारगुप्त (तृतीय) के शासनकाल में मंदसौर के क्षेत्रीय शासक यशोवर्मन ने अपनी शक्ति बढ़ाई। उसने हूणों को परास्त किया तथा मगध तक धावा बोला। गुप्त साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यशोवर्मन का पूर्वी भारत का सैनिक अभियान ही था।

अध्याय – 21 : गुप्त कालीन भारत

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गुप्त-कालीन समाज में बाह्य संस्कृति को आत्मसात् करने की अपूर्व क्षमता थी। यही कारण है कि शक, कुषाण, पह्लव आदि विदेशी संस्कृतियां, जो गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पूर्व से भारत में निवास कर रही थीं, गुप्तों के प्रतापी शासन काल में भारतीयों में घुल-मिल कर अपना अस्तित्त्व खो बैठीं।

सामाजिक जीवन

गुप्तकालीन भारतीय समाज बड़ा ही प्रगतिशील था। गुप्त शासकों द्वारा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किये जाने के कारण समाज में वैदिक धर्म की प्रधानता व्याप्त हो गई। इससे लोगों का सामाजिक जीवन सुख, शांति, सदाचरण एवं सहयोग से परिपूर्ण हो गया।

जाति प्रथा: मौर्य काल से भी पहले से चले आ रहे बौद्ध तथा जैन-धर्मों के प्रचार के कारण गुप्त काल आते-आते, समाज में जाति-प्रथा के बन्धन शिथिल पड़ गये थे परन्तु इस काल में जाति-प्रथा अपने पूर्व स्वरूप में सुदृढ़ बन गई। ब्राह्मणों को फिर से सर्वश्रेष्ठ माना जाने लगा। समाज में उनका आदर-सत्कार फिर से बहुत बढ़ गया। फाह्यान के विवरण से ज्ञात होता है कि उस काल में चाण्डालों की निकृष्ट जाति पैदा हो गई जो घृणा की दृष्टि से देखी जाती थी। चाण्डाल, नगर से बाहर रहते थे। जब वे नगर में प्रवेश करते थे तब उन्हें लकड़ी बजाते हुए चलना पड़ता था जिससे लोगों को चाण्डालों के आने की सूचना मिल जाय और वे मार्ग से अलग हो जायें।

विवाह: वैदिक वर्ण व्यवस्था का प्रचार होने से उस काल में जाति के भीतर विवाह अच्छे समझे जाते थे किंतु अन्तर्जातीय विवाहों का भी प्रचलन था। क्षत्रिय गुप्त सम्राटों ने ब्राह्मण माने जाने वाले वाकाटक वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। इस काल में विधवा विवाह का भी प्रचलन था। चन्द्रगुुप्त द्वितीय ने अपने भाई रामगुप्त की विधवा ध्रुवदेवी के साथ विवाह किया था। बहु-विवाह की प्रथा का भी प्रचलन इस युग में था। इस काल में अनमेल वृद्ध-विवाहों के उदाहरण भी मिलते हैं।

स्त्रियों की दशा: इस काल में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी थी। उन पर किसी तरह के अत्याचार नहीं थे। पर्दे की प्रथा प्रचलन में नहीं थी और स्त्रियाँ स्वतंत्रता पूर्वक बाहर आ जा सकती थीं, परन्तु घर से बाहर निकलते समय वे अपनी देह पर अलग से कपड़े का आवरण डाल लेती थीं। उस काल के विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में सती प्रथा की ओर भी संकेत किया है।

दास-प्रथा: गुप्तकाल में दास-प्रथा का प्रचलन था। युद्ध बंदी प्रायः दास बना लिये जाते थे। ऋण न चुकाने पर ऋणी लोग अपने ऋणदाता के दास बन जाते थे। यदि कोई जुआरी जुए में हार जाता था तो वह भी दासता के बन्धन में फँस जाता था परन्तु यह दासता आजीवन नहीं होती थी। कैद से छूट जाने, ऋण चुका देने तथा जुए में हारे हुए धन को चुका देने पर दासता समाप्त हो जाती थी।

खान-पान: अंहिसा-धर्म के प्रचार के कारण भारतीय समाज धीरे-धीरे शाकाहारी होता जा रहा था और मांस-भक्षण धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। चीनी यात्री फाह्यान ने तो यहाँ तक लिखा है कि चाण्डालों के अतिरिक्त (जो समाज में बड़ी घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे) कोई भी व्यक्ति मांस, मदिरा लहसुन, प्याज आदि का सेवन नहीं करता था। इससे यह प्रकट है कि हिन्दू लोग खान-पान में शुद्धता तथा सात्त्विकता का ध्यान रखते थे।

आर्थिक दशा

गुप्त-काल आर्थिक दृष्टि से बड़े़ गौरव का युग था। इस काल में देश धन-धान्य पूर्ण था। जनता बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी।

कृषि: इस काल में कृषि ही लोगों का मुुख्य व्यवसाय था। मनुस्मृति में पांच प्रकार की भूमियों का उल्लेख किया गया है। विभिन्न प्रकार के अनाजों के साथ-साथ फल तथा मसालों आदि की भी कृषि होती थी। गुप्तकाल में चावल, गेहूँ, अदरक, सरसों, तरबूज, इमली, नारियल, नाशपाती आडू़, खुबानी, अंगूर, संतरा आदि की खेती होती थी। गांधार अभिलेख में कुओं, तालाबों, पीने का पानी एकत्र करने, उद्यानों, झीलों, पुलों आदि नगरीय सुविधाओं का उल्लेख किया गया है।

उद्योग धंधे: गुप्त काल में विभिन्न प्रकार के कुटीर-उद्योग एवं विविध प्रकार के धन्धे उन्नत दशा में थे।

आंतरिक व्यापार: गुप्त साम्राज्य में आन्तरिक व्यापार उन्नत दशा में था और वह नदियों तथा सड़कों द्वारा होता था। गुप्त-साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित हो जाने के कारण व्यापारी निर्भय होकर व्यापार करते थे। इन व्यापारियों की अपनी श्रेणियाँ बनी हुई थीं जिन्हें बड़े़ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इन श्रेणियों के अपने प्रधान होते थे और इनकी कार्यकारिणी भी होती थी। इससे व्यापार बड़े़ संगठित रूप में चलता था।

विदेशी व्यापार: गुप्त काल में ताम्रलिप्ति बंगाल का प्रसिद्ध बन्दरगाह था। उत्तरी भारत का सारा व्यापार इसी बन्दरगाह द्वारा चीन, वर्मा तथा पूर्वी-द्वीप-समूह से होता था। इन देशों के साथ दक्षिण-भारत के राज्यों से भी व्यापार होता था। यह व्यापार गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मुहानों पर स्थित बन्दरगाहों के द्वारा होता था। गुप्त-साम्राज्य पश्चिमी समुद्र-तट तक पहँुच गया था। भड़ौंच इस ओर का सबसे प्रसिद्ध बन्दरगाह था। इस बन्दरगाह से पाश्चात्य देशों, विशेषतः रोम-साम्राज्य के साथ व्यापार होता था।

आयात-निर्यात: इस युग में भारत में सोने चाँदी का उत्पादन कम होता था। इसलिये विदेशों में बहुत बड़ी मात्रा में भारतीय माल भेजा जाता था और वहाँ से सोना-चाँदी मँगाया जाता था। भारत से चंदन, लौंग, सुगंधि, लाल मिर्च, शीशम की लकड़ी, मोती, रत्न, सुगन्धि, शंख, चंदन, अगर, सूती किमखाब, चावल तथा वस्त्र आदि का निर्यात किया जाता था। इनके बदले में विदेशों से रेशम, सोना-चांदी, दास दासियों एवं घोड़ों का आयात किया जाता था।

धार्मिक दशा

धार्मिक दृष्टि से गुप्त-काल का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस काल में भारत में कई धर्म प्रचलन में थे।

भागवत धर्म: इस काल में भागवत धर्म की बड़ी तेजी से उन्नति हुई जिसे वैष्णव धर्म भी कहते हैं। गुप्त राजाओं ने वैदिक परम्पराओं के अनुसार अश्वमेध यज्ञ किये जिनमें ब्राह्मणों तथा अन्य धर्मों को मानने वालों को बड़े-बड़े दान दिये गये। गुप्त-साम्राज्य भागवत धर्म के अनुयायी थे। इसी धर्म को उन्होंने अपना राजधर्म बनाया। राजधर्म हो जाने के कारण भागवत धर्म का खूब प्रचार हुआ। लोगों का बौद्ध बनना रुक गया। इस काल में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया और श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्तों का खूब प्रचार हुआ।

शैव धर्म: वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म का भी इस काल में खूब प्रचार हुआ। वाकाटक, मैत्रक, कदम्ब आदि राजाओं ने शैव धर्म को स्वीकार कर उसे प्रश्रय दिया। इस काल में अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण हुआ। शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की कल्पना इसी काल में हुई तथा अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की मूर्तियों का निर्माण हुआ।

बौद्ध धर्म: इस काल में देश में बड़ी संख्या में बौद्ध प्रजा निवास करती थी। बौद्ध धर्म में भी महायान का अधिक बोलबाला था।

जैन धर्म: गुप्त काल में जैन धर्म भी उन्नत अवस्था में था। बड़ी संख्या में जैन साधु देश के विभिन्न भागों में घूमते रहते थे। देश के विभिन्न भागों में जैन धर्म को मानने वाली प्रजा भी बड़ी संख्या में निवास करती थी।

धार्मिक सहिष्णुता: गुप्त सम्राट् ने भागवत् धर्म को स्वीकार किया और उसे राज्याश्रय प्रदान किया। उनमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वे समस्त धर्मों तथा उनके मतावलम्बियों को आदर की दृष्टि से देखते थे। समस्त धर्मों तथा मतों को मानने वाली प्रजा उनकी कृपा की पात्र थी। समस्त धर्मों के साधु-संत तथा उपासक गुप्त सम्राटों से दान-दक्षिणा पाते थे। गुप्त सम्राटों ने राजकीय सेवाओं का द्वार समस्त धर्मों के लोगों के लिए खोल रखा था। वे योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ दिया करते थे।

मूर्ति पूजा का विस्तार: गुप्त सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिणाम यह हुआ कि बौद्ध तथा जैन-धर्म का अस्तित्त्व बना रहा और वे शान्तिपूर्वक अपनी धार्मिक क्रियाओं को करते रहे। इस काल में बौद्ध तथा जैन दोनों ही धर्म भागवत धर्म से प्रभावित हुए। इस कारण बौद्ध धर्म के अनुयायी, बुद्ध तथा बोधिसत्वों को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी मूर्तियाँ बनाकर चैत्यों (मन्दिरों) में उनकी पूजा करने लगे। इसी प्रकार जैन-धर्म के मानने वाले भी जैन मन्दिर बनवा कर तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा करने लगे।

मंदिरों का निर्माण: इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, बुद्ध, बोधिसत्वों तथा तीर्थकरों की पूजा का महत्व बढ़ गया इस कारण उनकी पूजा के लिए बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण किया गया। इन मन्दिरों में पूजा-पाठ तथा देवताओं की उपासना की जाती थी। बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण होने से इस काल में शिल्प-कला तथा चित्र-कला की बड़ी उन्नति हुई। चूँकि इन मन्दिरों में कीर्तन तथा नृत्य हुआ करते थे इसलिये इस युग में संगीत तथा नृत्यकला की भी बड़ी उन्नति हुई।

गुप्त कालीन साहित्य

साहित्य तथा कला की दृष्टि से भी गुप्त युग का बड़ा महत्त्व है। यह साहित्य के पुनरूत्थान तथा पुनर्जागरण का युग माना जाता है। इस युग में संस्कृत-साहित्य की आशातीत वृद्धि हुई। उसे एक बार फिर से देश की एकमात्र साहित्यिक भाषा बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इस काल में पाली तथा प्राकृत भाषाओं में साहित्य की रचना बन्द हो गई और संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यंजना का माध्यम रह गई। मौर्य काल एवं उसके बाद के समय में, भारतीय कला पर जो विदेशी प्रभाव आ गया था, वह प्रभाव इस युग में हट गया तथा विशुद्ध भारतीय कला की पुनर्प्रतिष्ठा हुई।

संस्कृत-साहित्य का पुनरुद्धार: चूँकि गुप्त-काल में वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना हुई इसलिये उसके साथ-साथ संस्कृत भाषा की उन्नति होनी भी अनिवार्य थी। इस कारण गुप्त काल संस्कृत साहित्य के पुनरुद्धार का युग माना जाता है। इस युग में संस्कृत भाषा में ऐसे उच्चकोटि के ग्रन्थ लिखे गये जो विश्व साहित्य में अमर हो गये। इस काल में संस्कृत को एकमात्र साहित्यिक भाषा बनने का गौरव फिर से प्राप्त हो गया। पाली तथा प्राकृत भाषाओं में साहित्य-रचना की जो मनोवृत्ति आरम्भ हुई थी वह बन्द हो गई। ब्राह्मणों के साथ-साथ अन्य सम्प्रदाय वालों ने भी संस्कृत भाषा में ही साहित्य रचना आरम्भ कर दिया। इतना ही नहीं, विदेशी लेखक एवं यात्री भी संस्कृत भाषा की ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने संस्कृत सीखी।

साहित्यकारों को आश्रय: गुप्त-सम्राट् विद्या-व्यसनी थे और साहित्य में उनकी बड़ी रुचि थी। समुद्रगुप्त स्वयं उच्चकोटि का विद्वान् एवं साहित्यकार था और कविताएँ लिखता था। इसी से वह कविराज ‘अर्थात् कवियों का राजा’ कहा गया है। समुद्रगुप्त का मन्त्री हरिषेण भी उच्चकोटि का कवि था। उसकी प्रशस्ति प्रयाग के स्तम्भ लेख में अब भी विद्यमान है। समुद्रगुप्त विद्वानों तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता माना जाता है। बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धु तथा बौद्ध-नैयापिक दिड्नाग को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।

नव रत्नों की स्थापना: समुद्रगुप्त का पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी बड़ा विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। कहा जाता है कि उसने अपनी राज-सभा को नौ महान् विद्वानों से सुशोभित कर रखा था, जो उसकी राज-सभा के ‘नवरत्न’ कहलाते थे। इन विद्वानों में महाकवि कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। कालिदास की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे इस युग के सबसे बड़े कवि तथा नाटककार माने जाते है। कालिदास के लिखे हुए सात ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। इनमें रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत तथा ऋतुसंहार काव्य ग्रन्थ हैं और अभिज्ञानशाकुतलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्र नाटक ग्रन्थ हैं। शाकुन्तलम् संसार का सर्वोत्कृष्ट नाटक-ग्रन्थ माना जाता है। ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक के रचियता विशाखदत्त इसी काल की विभूति माने जाते है। ‘अमरकोष’ के रचयिता अमर सिंह तथा भारतीय आयुर्वेद के प्रकाण्ड पण्डित एवं चिकित्सक चरक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में थे।

गुप्तकालीन प्रमुख रचनायें

(1) कालिदास: काव्य ग्रंथ- रघुवंशम्, कुमारसम्भवम्, मेघदूतम् तथा ऋतुसंहार। नाटक ग्रंथ- अभिज्ञानशाकुंतलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्रम्।

(2) भास: स्वप्नवासवदत्तम्, चारुदत्तम्, प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्।

(3) शूद्रक: मृच्छकटिकम्।

(4) विशाखदत्त: देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस।

(5) भट्टी: भट्ठिकाव्य, रावण वध।

(6) वात्स्यायन: कामसूत्र। (वात्स्यायन को मौर्यकालीन चाणक्य भी माना जाता है।)

(7) दण्डि: दशकुमार चरितम्।

(8) सुबंधु: वासवदत्ता।

(9) भारवि: किरातार्जुनीयम्।

(10) विष्णु शर्मा: पंचतंत्रम्।

(11) पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

(12) स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

(13) बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

(14) जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

(15) विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

ब्राह्मण ग्रन्थों का पुनरुद्धार: गुप्त काल में अनेक ब्राह्मण-ग्रन्थों का पुनरुद्धार हुआ। पुराणों का सम्वर्द्धन किया गया और मनुस्मृति, याज्ञवलक्य स्मृति, बृहस्पति स्मृति तथा नारद स्मृति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन तथा संशोधन किया गया। सूत्रों पर भी टीकाएँ तथा भाष्य लिखे गये और उन्हें समयानुकूल बनाया गया।

हिन्दू दर्शन का विकास: डॉ. अल्तेकर ने गुप्त-कालीन दर्शन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘उस काल के हिन्दू, भारतीय दर्शन की नूतन तथा साहसिक पद्धति को विकसित करने में उतने ही सफल रहे जितने समुद्र पार सामान ले जाने के लिए विशाल तथा सुदृढ़़ पोतों को बनाने में।’

गणित तथा ज्योतिष की उन्नति: उत्तर-कालीन गुप्त सम्राटों के शासन काल में गणित तथा ज्योतिष की अत्यधिक उन्नति हुई। आर्यभट्ट तथा ब्रह्मगुप्त इस काल के बड़े गणितज्ञ और वराहमिहिर बहुत बड़े ज्योतिषी तथा खगोल शास्त्री थे। स्मिथ ने लिखा है- ‘गणित और ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तकाल आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर के महान् नामों से अलकृंत था।’ आर्यभट्ट ने सूर्य का सिद्धांत नामक ग्रंथ लिखा। वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने दशमलव प्रणाली का विकास किया।

विज्ञान एवं चिकित्सा की उन्नति: गुप्तकाल में विज्ञान तथा चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांग हृदय की रचना की। चंद्रगुप्त के दरबार में प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि रहते थे। गुप्तकालीन चिकित्सकों को शल्य-शास्त्र के विषय में भी ज्ञान था। इस काल में अणु सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ।

बौद्धिक सक्रियता का विस्फोट: गुप्त काल में साहित्य तथा कला के विकास पर टिप्पणी करते हुए डॉ. स्मिथ ने लिखा है- ‘गुप्त वंश के योग्य तथा लम्बे शासन-काल में बौद्धिक सक्रियता का असाधारण विस्फोट हुआ। यह काल सामान्य साहित्यिक उद्रेक से ओतप्रोत था जिसके परिणाम काव्य एवं विधि-ग्रन्थों तथा अनेक अन्य प्रकार के साहित्य में परिलक्षित होते हैं।’

विदेशी शासकों से तुलना: गुप्तकालीन साहित्यिक उन्नति की विवेचना करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपठी ने लिखा है- ‘गुप्त काल की तुलना प्रायः यूनान के इतिहास में पेरिक्लीज के काल से अथवा इंगलैंड में एलिजाबेथ के युग से की जाती है। इन काल ने भारत को अनेक बुद्धिमान विभूतियों से विभूषित किया, जिनकी देन से भारतीय साहित्य की विभिन्न शाखाएँ अत्यधिक सम्पन्न हो गईं। गुप्त-सम्राटों ने विद्वता को प्रोत्साहित किया। वे स्वयम् भी वे अत्यधिक सुसंस्कृत थे।’

गुप्त कालीन कलाएँ

गुप्त-काल में विभिन्न प्रकार की कलाओं की अत्यधिक उन्नति हुई।

स्थापत्य कला: गुप्त काल में स्थापत्य कला अर्थात् भवन निर्माण कला की बड़ी उन्नति हुई। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सम्बन्ध में स्मिथ ने लिखा है- ‘इस कथन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त जानकारी प्राप्त है कि वास्तु कला का बड़े परिणाम में बड़ी सफलता पूर्वक अभ्यास किया जाता था।’ यद्यपि इस काल के अधिकांश भवन नष्ट हो गये हैं परन्तु कई मन्दिर, विहार तथा चैत्य अब भी विद्यमान हैं जो तत्कालीन कला की उच्चता के प्रमाण हैं। इस युग में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन तीनों ही धर्म अपने-अपने उपास्य देवों की प्रतिमाओं की देवालयों में उपासना करते थे। इस कारण मंदिरों का बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। सारनाथ के स्तूप, अजन्ता तथा एलोरा के गुहा विहार, भीतरगाँव का मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर आदि गुप्तकालीन कला सौन्दर्य के प्रमाण हैं। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का शिखर आरंभ में 40 फुट ऊँचा था। गुप्तकालीन मंदिरों के मुख्य आकर्षण केन्द्र मूर्तिस्थान का प्रवेश द्वार था। गुप्तकालीन मंदिरों में तिगवा का विष्णु मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, खोह का शिव मंदिर, नचना-कुठार का पार्वती मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर तथा भीतरगांव का लक्ष्मण मंदिर उल्लेखनीय हैं

शिल्प कला: गुप्त-काल में शिल्प-कला की भी बड़ी उन्नति हुई। गुप्त कालीन शिल्प कला के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘कुल मिला कर गुप्त काल के शिल्पकारों की कृतियों की यह विशेषता है कि उनमें ओज, अंसयम का अभाव तथा शैली का सौष्ठव पाया जाता है।’ गुप्त काल की शिल्पकला तथा चित्रकला के सम्बन्ध में डॉ. नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘शिल्प कला तथा चित्रकला के क्षेत्र में गुप्त कालीन कला भारतीय प्रतिभा में चूड़ान्त विकास की प्रतीक है और इसका प्रभाव सम्पूर्ण एशिया पर दीप्तिमान है।’ डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने गुप्त कालीन शिल्प की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘सामान्यतः उच्चकोटि का आदर्श और माधुर्य तथा सौन्दर्य की उच्चकोटि की विकसित भावना गुप्त काल की शिल्प कला की विशेषता है।’

मूर्तिकला: गुप्त काल में मूर्ति पूजा का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। इसलिये देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बड़ी संख्या में बनाई जाने लगीं। इससे इस काल में मूर्ति निर्माण कला की बड़ी उन्नति हुई। इस काल की मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर है। उनकी पहली विशेषता यह है कि वे विदेशी प्रभाव से मुक्त हैं और विशुद्ध भारतीय बन गई हैं। इनकी दूसरी विशेषता यह है कि इनमें नैतिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। इस काल में नग्न मूर्तियों का निर्माण बन्द हो गया और उन्हें झीने वस्त्र पहनाये गये। इनकी तीसरी विशेषता यह है कि ये बड़ी ही सरल हैं। इन्हें अत्यधिक अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। इस काल की सारनाथ की बौद्ध प्रतिमा बड़ी सुन्दर तथा सजीव है। मथुरा से प्राप्त भगवान विष्णु की मूर्ति गुप्तकाल की कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। गुप्तकाल में बनारस, पाटलिपुत्र एवं मथुरा मूर्तिकला के प्रसिद्ध केन्द्र थे।

चित्रकला: इस युग में मूर्तिकला के साथ-साथ चित्रकला की भी बड़ी उन्नति हुई। अजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं की दीवारों में इस काल की चित्रकारी के सुन्दर उदाहरण विद्यमान हैं। इन चित्रों कोे वज्रलेप से बनाया गया है। लताओं, फूलों, पशुओं तथा मनुष्यों के जो चित्र इस युग में बने हैं, वे बड़े ही स्वाभाविक, सजीव तथा चित्ताकर्षक हैं। अजन्ता की चित्रकारी के विषय में श्रीमति ग्राबोस्का ने लिखा है- ‘अजन्ता की कला भारत की प्राचीन कला है। चित्रकारियों का सौन्दर्य आश्चर्यजनक है और वह भारतीय चित्रकारी की चरमोन्नति का प्रतीक है।’

संगीत कला: गुप्त-सम्राटों ने संगीत कला को राज्याश्रय प्रदान किया। इस कारण इस काल में संगीत-कला की बड़ी उन्नति हुई। समुद्रगुप्त को संगीत से बड़ा प्रेम था। वह इस कला में प्रवीण था। अपनी मुद्राओं में वह वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि संगीत-कला में उसने नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था।

नाट्य कला: गुप्त-काल में नाट्य कला की भी उन्नति हुई। इस काल में बहुत से नाटक-ग्रन्थ लिखे गये जिनसे स्पष्ट है कि इन नाटकों को रंगमंच पर खेला जाता रहा होगा।

मुद्रा कला: गुप्त-काल में मुद्रा कला की भी उन्नति हुई। प्रारम्भ में तो गुप्त कालीन सम्राटों ने विदेशी मुद्राओं का अनुसरण किया परन्तु बाद में विशुद्ध भारतीय मुद्राएँ चलाईं। गुप्त-सम्राटों की अधिकांश मुद्राएँ स्वर्ण निर्मित हैं परन्तु बाद में उन्होंने चाँदी की मुद्राएँ भी चलाईं। ये मुद्राएँ बड़ी सुन्दर तथा चिताकर्षक हैं। इनका आकार तथा इन पर अंकित मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर हैं। इन मुद्राओं पर गुप्त-सम्राटों का यशोगान किया गया है तथा अश्वमेध यज्ञ आदि सूचनाएं दी गई हैं।

विदेशी प्रभाव से मुक्त

गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पूर्व भारत में यूनानी, शक, कुषाण, सीथियन आदि जातियाँ प्रवेश कर गई थीं और भारत के विभिन्न भागों में शासन कर रही थीं। इस कारण भारतीय कला पर विदेशी कला, विशेषकर गान्धार-शैली का बहुत प्रभाव हो गया था। गुप्त-कालीन कला ने विदेशी प्रभाव को उखाड़ फेंका और वह विशुद्ध भारतीय स्वरूप में विकसित हुई।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्तकाल भारत के सर्वतोमुखी विकास का काल था। इस काल में भारत में नवजीवन तथा नवोल्लास का संचार हुआ जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रस्फुटित हुआ। महर्षि अरविन्द ने लिखा है- ‘भारत ने अपने इतिहास में कभी भी जीवन की शक्ति का इतना बहुमुखी विकास नहीं देखा।’ हैवेल ने भी गुप्त काल की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘भारतवर्ष उन दिनों शिष्यता की स्थिति में न था वरन् वह सम्पूर्ण एशिया का शिक्षक था और पाश्चात्य सुझावों को लेकर उसने उन्हें सुधारणा के अनुकूल बना लिया।’

भारत के इतिहास में गुप्तों का स्थान

इतिहासकार बर्नेट ने लिखा है- भारतीय इतिहास में गुप्तकाल का वही स्थान है, जो यूनानी इतिहास में परीक्लीज का है और रोमन इतिहास में आगस्टस सीजर का।

अध्याय – 22 भारत भूमि का स्वर्ण-युग: गुप्त काल

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इतिहास में स्वर्ण युग का तात्पर्य उस युग से होता है जो अन्य युगों से अधिक गौरवपूर्ण तथा ऐश्वर्यवान रहा हो, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से देश का चूड़ान्त विकास हुआ हो, जिसमें प्रजा को भौतिक तथा नैतिक विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ हो, जिसमें समृद्धि तथा सम्पन्नता का बाहुल्य रहा हो, जिसमें साहित्य तथा कला का विकास हुआ हो।       

गुप्त-काल स्वर्ण युग क्यों

गुप्त काल को भारतीय इतिहास में ‘स्वर्णयुग’ कहा गया है। इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1) राजनीतिक एकता का युग: इस काल में भारत को जो राजनीतिक एकता प्राप्त हुई, वह इसके पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुई थी। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने गुप्त-सम्राटों द्वारा स्थापित की गई राजनीतिक एकता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘गुप्त साम्राज्य बड़ा ही सुसंगठित राज्य था जिसे अपनी सार्वभौम सम्प्रभुता की छत्रछाया में भारत के बहुत बड़े भाग पर राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई और इतने बड़े क्षेत्र पर अपना प्रभाव स्थापित किया जो उससे भी बड़ा था जो प्रत्यक्ष रूप में उसके साम्राज्य तथा शासन के अन्तर्गत था।’ इस काल का प्रतापी तथा दिग्विजयी सम्राट् समुद्रगुप्त था। उसने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को जीत कर सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित राज्य की स्थापना की थी। उसने अटवी प्रदेश, दक्षिणापथ तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के राज्यों को नत-मस्तक कर उन्हें अपना प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए विवश किया। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने उस राजनीतिक एकता को फिर स्थापित कर दिया जो अशोक की मृत्यु के उपरान्त समाप्त हो गई थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने पिता के साम्राज्य में वृद्धि की। उसने शकों को ध्वस्त करके ‘शकारि’ की उपाधि धारण की। उसने वाह्लीकों को नत-मस्तक किया। उसने विक्रमादित्य की

उपाधि धारण की। स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमणों का सफलता पूर्वक सामना किया और अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित रखा। इस प्रकार राजनीतिक एकता की दृष्टि से गुप्त-काल को स्वर्णयुग कहना उचित है।

(2) शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग: गुप्त-काल शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग था जिसमें प्रजा को अपनी चरमोन्नति का अवसर प्राप्त हुआ। इसी से डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने लिखा है- ‘देश की जो भौतिक तथा नैतिक उन्नति हुई वह सुव्यवस्थित राजनीति दशा का ही परिणाम था।’ गुप्त शासन बड़ा ही उदार तथा दयापूर्ण था। प्रजा को अपनी उन्नति के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। बाह्य तथा आन्तरिक विपत्तियों से प्रजा की रक्षा करने के लिए राज्य की ओर से पूर्ण व्यवस्था की गई थी। न्याय की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की गई थी किंतु कठोर दण्ड विधान का प्रावधान नहीं किया गया था। किसी अपराधी को प्राण-दण्ड नहीं दिया जाता था। गुप्त-सम्राटों ने यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था करके व्यापार की उन्नति में बड़ा योग दिया। इस काल में न केवल आन्तरिक वरन् बाह्य-व्यापार की भी बहुत बड़ी उन्नति हुई। कृषि की उन्नति की समुचित व्यवस्था की गई। जलाशयों तथा जल-कुण्डों का निर्माण कर सिंचाई की समुचित व्यवस्था की गई जिससे अनावृष्टि होने पर कृषि की रक्षा हो सकती थी। गुप्त सम्राटों के काल में देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया और सोने की चिड़िया कहलाने लगा। गुप्त-सम्राटों ने स्वर्ण-मुद्राओं का प्रचलन कर वास्तव में इसे स्वर्ण युग बना दिया। राज्य की ओर से प्रजा की दैहिक, नैतिक तथा आघ्यात्मिक उन्नति का प्रयत्न किया गया। राज्य की ओर से दीन-दुखियों तथा रोगियों की सहायता का भी समुचित प्रबन्ध किया गया था। गुप्त-काल में स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त थी और स्वायत्त शासन को प्रोत्साहन दिया जाता था। अल्तेकर ने गुप्त कालीन शासन की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसलिये गुप्त शासन व्यवस्था पर गर्व कर सकते हैं जो अपने काल के तथा बाद के राज्यों के लिए आदर्श व्यवस्था बन गई।’ इसलिये प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को ‘स्वर्ण युग’ कहना सर्वथा उचित है।

(3) धार्मिक सहिष्णुता का युग: धार्मिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह ब्राह्मण-धर्म के पुनरुद्धार तथा विकास का स्वर्णयुग था। इस काल में न केवल भारत के कोने-कोने में ब्राह्मण-धर्म का प्रसार हुआ अपितु इण्डोचीन तथा पूर्वी-द्वीप समूह में भी इसका प्रचार हो गया। ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी होते हुए भी गुप्तवंश के सम्राटों में उच्च-कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। उन्होंने अन्य धर्मों के अनुयायियों को प्रश्रय दिया। स्मिथ ने लिखा है- ‘यद्यपि गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे परन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुकूल वे समस्त भारतीय धर्मों को समान दृष्टि से देखते थे।’ इसलिये धार्मिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को ‘स्वर्ण युग’ कहना सर्वथा उचित है।

(4) वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग: गुप्त-काल वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग माना जाता है। स्मिथ ने लिखा है- ‘इतना ही बता देना पर्याप्त है कि ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्धार के साथ-साथ ब्राह्मणों की पवित्र भाषा संस्कृत का भी विस्तार हुआ।’ वैदिक धर्म, जो निष्प्राण-सा हो गया था, उसे गुप्त सम्राटों ने फिर अनुप्राणित किया और उसे स्वीकार कर, उसे राज्य का आश्रय प्रदान कर उसका विकास किया। समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) तथा स्कन्दगुप्त ने अश्वमेध यज्ञों को कराकर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया। ब्राह्मणों को दान देकर एवं उनका सम्मान कर गुप्त सम्राटों ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उन्होंने अनेक शैव तथा वैष्णव मन्दिरों का निर्माण करा कर ‘परम भागवत’ होने का परिचय दिया। गुप्त साम्राटों ने वैदिक धर्म के साथ-साथ वैदिक भाषा अर्थात् संस्कृत के विकास में भी बड़ा योग दिया। गुप्त काल में संस्कृत फिर से राष्ट्र की भाषा बन गई। गुप्त सम्राटों ने अपने अभिलेखों तथा मुद्राओं पर संस्कृत भाषा में ही श्लोक लिखवाये। इस कारण संस्कृत ही एक मात्र साहित्यिक भाषा हो गई। बौद्ध तथा जैन धर्मों के लेखक भी संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ रचना करने लगे। इसलिये वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से निश्चय ही यह काल स्वर्ण युग था।

(5) साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति का युग: साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति के दृष्टिकोण से भी गुप्त काल ‘स्वर्ण युग’ था। इस काल के साहित्यिक गौरव की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिख है- ‘गुप्त युग अनेक क्षेत्रों में अद्वितीय क्रियाशीलता का युग था। यह ऐसा युग था जिसकी तुलना इंगलैण्ड के एलिजाबेथ और स्टुवर्ट के काल से करना अनुचित न होगा। जिस प्रकार इंगलैण्ड में शेक्सपियर अन्य समस्त लेखकों का सिरमौर था, उसी प्रकार भारत में कालिदास सर्वोपरि था। जिस प्रकार यदि शेक्सपियर ने कुछ भी नहीं लिखा होता तो भी एलिजाबेथ का काल साहित्य-सम्पन्न रहा होता, उसी प्रकार यदि भारत में कालिदास का साहित्य जीवित न रहा होता तो भी अन्य लेखकों की रचनाएं इतनी प्रचुर हैं कि वे इस काल की अद्वितीय साहित्यिक सफलता प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त हैं।’ गुप्तकाल में देश में साहित्य तथा दर्शन का चूड़ान्त विकास हुआ। इस युग में अनेक महाकवि, नाटककार तथा दार्शनिक हुए जिनमें कालिदास, हरिषेण, वसुबन्धु, विशाखदत्त, वराहमिहिर आदि अग्रगण्य हैं। साहित्य की चरमोन्नति के कारण ही इसकी तुलना एलिजाबेथ तथा पेरिक्लीज के युग से की गई है। गुप्तकाल में भौतिक, आध्यात्मिक तथा दार्शनिक समस्त प्रकार की साहित्य की उन्नति हुई। विज्ञान की भी इस काल में बड़ी उन्नति हुई। गणित, ज्योतिष, वैदिक, रसायन विज्ञान, पदार्थ विज्ञान तथा धातु विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। आर्यभट्ट इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ तथा ज्योतिषी था। वराहमिहिर भी इस काल का बहुत बड़ा ज्योतिषी था। चरक तथा सुश्रुत इस काल के विख्यात वैद्य थे।

(6) कला की चरमोन्नति का युग: गुप्तकाल भारतीय कलाओं का स्वर्ण युग था। इस काल में वास्तु कला, शिल्प कला, मूर्ति निर्माण कला, वाद्य कला, संगीत कला तथा अन्य समस्त कलाओं की उन्नति हुई। अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी, बौद्ध तथा हिन्दू मूर्तियाँ, शैव तथा वैष्णव मन्दिर, विहार, चैत्य तथा स्तूप इस कला की उच्चता के ज्वलंत प्रमाण हैं। इस काल की कला बड़ी ही स्वाभाविक, सरल तथा विदेशी प्रभाव से मुक्त है। सॉण्डर्स ने लिखा है- ‘सारनाथ की बौद्ध प्रतिमाएं इस जागरण का उतना ही प्रतिनिधित्व करती हैं जितना कालिदास की कविताएं। गुप्त काल में एक नवीन बौद्धिकता व्याप्त थी जो वास्तु तथा स्थापत्य कलाओं में उतनी ही प्रतिबिम्बित होती है जितनी साहित्य और विज्ञान में। एक प्रकार का तार्किक सौन्दर्य जो अनेक रूपों में अपनी पूर्ण पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए यूनान की याद दिलाता है और जीवन के प्रति उत्साह तथा साहसिकता की भावना में यह हमें एलिजाबेथ के काल की याद दिलाता है।’ इसलिये कला के दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को स्वर्ण-युग मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

(7) विदेशों पर भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रभाव: गुप्त काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का खूब प्रचार हुआ और विदेशों में भारतीय उपनिवेशों की स्थापना हुई। जावा की एक अनुश्रुति के अनुसार इस काल में गुजरात के एक राजकुमार ने कई हजार मनुष्यों के साथ समुद्र पार कर जावा में उपनिवेश की स्थापना की। गुप्तकाल में पूर्वी द्वीप समूहों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। गुप्तकाल में सुमात्रा, जावा, बोर्निया, चम्पा कम्बोडिया आदि द्वीपों में भारतीय भाषा, साहित्य तथा शिक्षा का खूब प्रचार हुआ। इन द्वीपों में भारतीय सामाजिक प्रथाओं, धर्म, कला तथा शासन पद्धति का अनुसरण होने लगा। डॉ. अल्तेकर ने लिखा है- ‘यदि एक ओर भारत और दूसरी ओर चीन के बीच कोई सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, यदि मूल्यवान स्मारक, जो भारत की संस्कृति के गौरव के मूक साक्षी हैं, समस्त इंडोचीन, जावा, सुमात्रा तथा बोर्निया में विकीर्ण परिलक्षित होते हैं तो इसका श्रेय गुप्तकाल को ही प्राप्त है, जिसने भारतीय संस्कृति को बाहर विस्तारित करने की प्रेरणा प्रदान की।’ इसलिये विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार के दृष्टिकोण से गुप्त-काल निःसंदेह ‘स्वर्ण युग है।’

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्त काल में भारत की जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक उन्नति हुई वह न तो उसके पूर्व कभी हो सकी थी और न उसके बाद कभी हो सकी। हर्ष के भगीरथ प्रयास करने पर भी भारत पतनोन्मुख होने से न बच सका। इसलिये गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहना सर्वथा उचित है। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘साम्राज्यवादी गुप्त सम्राटों का काल हिन्दू इतिहास में प्रायः स्वर्ण युग बताया जाता है। इस काल में कई योग्य, विलक्षण प्रतिभाशाली तथा शक्तिशाली राजाओं ने शासन किया, जिन्होंने उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग का संगठन करके उसे एक राजनीतिक छत्र के नीचे ला दिया और एक व्यवस्थित तथा उन्नतिशील युग का प्रादुर्भाव किया। उनके शक्तिशाली शासन के अन्दर बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही प्रकार के व्यापार की उन्नति हुई और देश की सम्पन्नता बढ़ गई। इसलिये यह स्वाभाविक था कि आन्तरिक सुरक्षा तथा भौतिक सम्पन्नता की अभिव्यक्ति धर्म, साहित्य, कला तथा विज्ञान के विकास में उन्नति हुई हो।’

इस प्रकार गुप्त काल भारत की सर्वतोमुखी उन्नति का काल था। इसी कारण इतिहासकारों ने इसे स्वर्ण काल कहा है। स्मिथ ने गुप्त काल के ऐश्वर्य तथा वैभव की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हिन्दू भारत के इतिहास में महान् गुप्त सम्राटों का युग जितना सुन्दर और सन्तोषजनक है उतना अन्य कोई युग नहीं। साहित्य, कला तथा विज्ञान की असाधारण मात्रा में उन्नति हुई और बिना अत्याचार के धर्म में क्रमागत परिवर्तन किये गये।’

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

शासन व्यवस्था के मूल तत्व

शासन का आदर्श: गुप्त-सम्राटों के शासन का आदर्श बहुत ऊँचा था। वे स्वयं को प्रजा का ऋणी समझते थे और प्रजा की सेवा करके ही इस ऋण से मुक्त होना चाहते थे। इसलिये गुप्त-साम्राज्य ने लोक-हित के अनेक कार्य किये। गमनागमन की सुविधा के लिए सड़कें बनवाईं। उनके किनारे पर छायादार वृक्ष लगवाये। स्थान-स्थान पर कुएँ खुदवाये। धर्मशालाएँ बनवाईं। सिंचाई की सुविधा के लिए झीलें तथा तालाब खुदवाये। रोगियों की चिकित्सा के लिए औषधालय खुलवाये जिनमें रोगियों को निःशुल्क औषधि दी जाती थी। राज्य की ओर से शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था की गई। साहित्य तथा कला को प्रोत्साहन दिया गया। राज्य के इन उदार तथा लोकोपकारी कार्यों का परिणाम यह हुआ कि प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करती थी।

सामंती व्यवस्था: गुप्त-साम्राज्य अत्यन्त विशाल साम्राज्य था। इसलिये उस युग में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण शासन को चलाना सम्भव न था। फलतः गुप्त सम्राटों ने सामन्ती शासन व्यवस्था का अनुसरण किया और साम्राज्य के सुदूरस्थ प्रान्तों का शासन अपने सामन्तों को सौंप दिया, जिन पर वे कड़ा नियन्त्रण रखते थे। शासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को कई छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त किया गया था और प्रत्येक इकाई के लिए अलग-अलग पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे परन्तु इन सब पर केन्द्रीय सरकार का कड़ा नियन्त्रण रहता था जिससे साम्राज्य सुसंगठित बना रहे।

संघीय शासन व्यवस्था: गुप्त साम्राज्य मौर्यों के साम्राज्य की भांति सम्राटों के सीधे एवं कठोर अनुशासन में नहीं था। साम्राज्य में अनेक महाराजा, राजा और गणराज्य सम्मिलित थे जो सम्राट की अधीनता मानते थे किंतु आंतरिक शासन में स्वतंत्र थे। विशाल गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत यद्यपि उत्तरी भारत के अधिकांश भागों पर गुप्त नरेशों का प्रत्यक्ष शासन स्थापित था। अन्य क्षेत्रों में उनके शासन का स्वरूप संघीय था। जहां उनके अधीनस्थ राजा अर्द्ध स्वतंत्र शासकों की तरह राज्य करते थे। ऐसे क्षेत्रों में गुप्तों का शासन प्रबंध पूरी तरह प्रभावी नहीं था।

केन्द्रीय प्रशासन

            सम्राट: गुप्त कालीन शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी। राजा ही शासन का प्रधान होता था और विभिन्न विभागों पर पूरा नियन्त्रण रखता था। वह शासन के तीनों अंगों- सेना, शासन तथा न्याय का प्रधान होता था। सम्राट अपने मंत्रियों तथा पदाधिकारियों के परामर्श तथा सहायता से शासन चलाता था। राज्य की राजधानी में केन्द्रीय राजकीय कार्यालय होता था। केन्द्रीय शासन कई उपविभागों में विभक्त था जिनमें- सैन्य विभाग, विदेश विभाग, पुलिस विभाग, माल विभाग, न्याय विभाग, धर्म विभाग आदि प्रमुख रहे होंगे। प्रशासनिक कार्यों के लिये अधिकारियों एवं कर्मचारियों का एक बड़ा वर्ग होता था।

मंत्रिपरिषद्: सम्राट शासन के समस्त महत्वपूर्ण कार्यों में मंत्रिपरिषद् से परामर्श लेता था। केन्द्रीय विभागों के कार्य प्रधानमंत्री, अमात्य, कुमारामात्य, युवराज-कुमारामात्य आदि पदाधिकारी करते थे। मंत्रिपरिषद के विभिन्न विभागों के निश्चित स्वरूप की जानकारी नहीं मिलती किंतु गुप्त अभिलेखों से दो प्रमुख मंत्रियों- संधिविग्रहिक (युद्ध एवं संधि सम्बन्धी मंत्री) तथा अक्षपटलाधिकृत (शासकीय पत्रों से सम्बन्धित मंत्री) के बारे में जानकारी मिलती है।

शासन के वरिष्ठ अधिकारी: गुप्त कालीन अभिलेखांे से कुछ अन्य केन्द्रीय पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं- विनयस्थितिस्थापक (न्यायाधीश), दण्डपाशिक (पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी), कुमारामात्य (शासन का वरिष्ठ अधिकारी), महासेनापति (सेना का सर्वोच्च अधिकारी), भाण्डारिक (सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला) आदि।

सैनिक शासन: गुप्त-काल साम्राज्यवाद का युग था। गुप्त सम्राटों ने अत्यन्त विशाल साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य की स्थापना विशाल, प्रशिक्षित तथा सुसज्जित सेना की सहायता से की गई थी। इस सेना के चार प्रधान अंग थे- हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल। सम्राट स्वयं सैनिकों को भर्ती करता था। वह अपनी सेना का प्रधान सेनापति होता था और रणस्थल में सेना की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। सैनिक विभाग का मुख्य अधिकारी संधि-विग्रहिक था जिसे संधि और युद्ध करने का अधिकार प्राप्त होता था। उसके अधीन महासेनापति अथवा महादण्डनायक (प्रमुख सेनापति), रण भाण्डारिक (सैन्य सामग्री की आपूर्ति करने वाला अधिकारी), बलाधिकृत (सैनिकों की नियुक्ति करने वाला अधिकारी), भटाश्वपति (पैदल सेना और घुड़सवारों का अध्यक्ष) आदि अधिकारी होते थे। सेना का कार्यालय बलाधिकरण कहलाता था।

प्रांतीय शासन

शासन की सुविधा के लिये साम्राज्य को अनेक इकाइयों में विभक्त किया गया था। सबसे बड़ी इकाई प्रांत थी जिसे देश या भुक्ति कहते थे। सौराष्ट्र, अवन्ति (पश्चिमी मालवा), ऐरण (पूर्वी मालवा), तीरभुक्ति (उत्तरी बिहार), पुण्ड्रवर्द्धन (उत्तरी बंगाल) आदि गुप्त साम्राज्य के प्रमुख प्रांत थे। प्रान्तीय शासक भोगिक, भोगपति, गोप्ता, उपरिक, महाराज या राजस्थानीय कहलाते थे। प्रांत से छोटी इकाई को प्रदेश कहा जाता था। उससे छोटी इकाई विषय कहलाती थी। विषयों के अधिकारी विषयपति कहलाते थे। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।

स्थानीय शासन

नगर प्रशासन: गुप्तों के साम्राज्य में दशपुर, गिरिनार, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र आदि प्रसिद्ध नगर थे। नगरों को पुर भी कहा जाता था। नगर या पुर के शासक को नगरपति या पुरपाल कहते थे। गुप्तों के नगर प्रशासन के सम्बन्ध में दामोदरपुर (बंगाल) के ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है। नगर प्रशासन में स्थानीय श्रेणियों, नियमों, आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता था। मंदसौर अभिलेख में कपड़ा बनाने वालों की पट्टवाय श्रेणी द्वारा एक सूर्यमंदिर बनवाने का उल्लेख मिला है। वैशाली मोहरों से श्रेष्ठि, सार्थवाह, निगमों के अस्तित्व का ज्ञान होता है।

ग्राम प्रशासन: ग्राम प्रशासन के मुखिया को ग्रामिक कहते थे। ग्राम सभा के सदस्य महत्तर कहलाते थे। जंगलों की देखभाल करने वाला गौल्मिक कहलाता था। ग्राम परिषद या ग्राम सभा पर ग्राम प्रशासन का दायित्व होता था।

            न्याय व्यवस्था: राजा, सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। राजा के न्यायालय को सभा, धर्मस्थान अथवा धर्माधिकरण कहा जाता था। गुप्त काल में लिखी गई नारद स्मृति में चार प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख है- (1.) कुल, (2.) श्रेणी, (3.) गण और (4.) राजकीय न्यायालय। न्याय विभाग के अधिकारी को विनस्थितिस्थापक कहा गया है।

दण्ड विधान: अपराधों का पता लगाने के लिये गुप्तचर और अपराधियों को दण्ड देने के लिए दंडाधिकारी होते थे। दंड-विधान कठोर नहीं था। अपराध की गुरुता के आधार पर न्यूनाधिक अर्थदण्ड ही दिया जाता था। शारीरिक यातनायें प्रायः नहीं दी जाती थीं और प्राणदण्ड देने का निषेध था।

आय-व्यय के साधन

आय: राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था, जिसे भाग, भोग या उद्रेग कहते थे। यह उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त एक दूसरा कर उपरिकर था जो राजा के व्यक्तिगत उपयोग के लिये सामान के रूप में लिया जाता था। आय के अन्य स्रोत सिंचाई कर, अर्थदण्ड, सामन्ती राजाओं से कर, उपहार इत्यिादि थे।

व्यय: राजकीय कर्मचारियों को राज्यकोष से वेतन दिया जाता था। राज्य के कोष का बहुत बड़ा भाग इस वेतन में चला जाता था। राज्य द्वारा किये गगये लोकोपकारक कार्यों, सेना व पुलिस विभाग पर भी राज्य का काफी धन खर्च होता था।

निष्कर्ष

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘गुप्तकालीन शासन तथा उसकी सफलता के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त है और यह निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तों का शासन बड़ा ही सुव्यवस्थित था।’

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