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हड़प्पा सभ्यता (अध्याय 4)

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हड़प्पा सभ्यता - www.bharatkaitihas.com
हड़प्पा सभ्यता

इस अध्याय में हड़प्पा सभ्यता की शुरुआत, उसकी प्रमुख विशेषताएं, नगर नियोजन तथा पतन आदि का इतिहास लिखा गया है। हड़प्पा सभ्यता को सिंधुघाटी सभ्यता भी कहा जाता है।

सिन्धु-घाटी

सिन्धु नदी हिमालय पर्वत से निकलकर पंजाब तथा सिन्धु प्रदेश (अब पाकिस्तान में) से होती हुई अरब सागर में जाकर मिलती है। इस नदी के दोनों ओर के क्षेत्र को सिंधु घाटी कहते हैं। इस घाटी से एक अत्यंत विकसित सभ्यता का पता लगा है। इसे सर्वप्रथम 1921 ई. में पश्चिमी पंजाब प्रांत के हड़प्पा नामक स्थान पर खोजा गया था।

हड़प्पा सभ्यता

हड़प्पा संस्कृति ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों से पुरानी थी फिर भी ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी। इस संस्कृति का उदय भारतीय उप-महाखंड के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। इस बात का अभी ठीक-ठीक निश्चय नहीं हो पाया है कि इस सभ्यता को जन्म देने वाले कौन लोग थे। इसलिये इस सभ्यता को किसी जाति-विशेष की सभ्यता अथवा काल विशेष की सभ्यता न कहकर, सिन्धु-घाटी की सभ्यता के नाम से पुकारा गया है।

कुछ विद्वान इसे प्रमुख नगरों हड़प्पा तथा मोहेन-जोदड़ो के नाम पर हड़प्पा तथा मोहेन-जोदड़ो की सभ्यता भी कहते हैं। इस सभ्यता के बारे में सर्वप्रथम जानकारी हड़प्पा नगर से प्राप्त हुई थी। इसलिये इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है। हड़प्पा पश्चिमी पंजाब के मान्टगोमरी जिले और मोहेनजोदड़ो सिन्धु के लरकाना जिले में स्थित है। वर्तमान में ये दोनों नगर पाकिस्तान में हैं।

हड़प्पा सभ्यता का भौगोलिक विस्तार

हड़प्पा संस्कृति का विस्तार हरियाणा, पंजाब, सिन्ध, राजस्थान, गुजरात तथा बिलोचिस्तान के हिस्सों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती भाग तक था। इसका प्रसार उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक और पश्चिम में बिलोचिस्तान के मकरान समुद्रतट से लेकर उत्तर-पूर्व में मेरठ तक था।

यह सम्पूर्ण क्षेत्र एक त्रिभुज के आकार का है और लगभग 12,99,600 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है। यह क्षेत्र आज के पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, साथ ही प्राचीन मिश्र और मेसीपोटामिया से भी बड़ा है। 3000 ई.पू. एवं 2000 ई.पू. में संसार का कोई भी अन्य सांस्कृतिक क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र से बड़ा नहीं था।

हड़प्पा सभ्यता में सिंधु नदी का योगदान

सिंधु सभ्यता के नगरों की रक्षा के लिए खड़ी की गई पक्की ईटों की दीवारों से प्रकट होता है कि सिंधु नदी में हर साल बाढ़ आती थी। इस बाढ़ के साथ लाखों टन उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी बहकर आती थी। सिन्धु नदी, मिस्र की नील नदी की अपेक्षा कहीं अधिक जलोढ़ मिटटी ढोती थी और इसे बाढ़ के मैदानों में छोड़ती थी। नील ने जिस प्रकारमिस्र का निर्माण किया और वहाँ के लोगों का भरण-पोषण किया, उसी प्रकार सिन्धु नदी ने सिन्ध क्षेत्र का निर्माण किया और वहाँ के लोगों का भरण-पोषण किया।

हड़प्पा सभ्यता में सरस्वती नदी का योगदान

इतिहासकारों ने हड़प्पा सभ्यता को सिंधु सभ्यता कहकर पुकारा है जबकि इस सभ्यता के अब तक प्राप्त 1400 स्थलों में से अधिकांश स्थल सरस्वती नदी की घाटी में मिले हैं। इस सभ्यता की दो प्रमुख राजधानियों में से हड़प्पा रावी के किनारे तथा मोहेनजोदड़ो सिंधु के किनारे स्थित है। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि इस सभ्यता का उदय सिंधु नदी की घाटी में हुआ और बाद में इसका विस्तार सरस्वती नदी की घाटी में हुआ।

हड़प्पा सभ्यता की खोज

हड़प्पा टीले का सर्वप्रथम उल्लेख चार्ल्स मैसन ने किया था। इसके बाद डॉ. दयाराम साहनी ने 1821 ई. में हड़प्पा सभ्यता की खोज की। उसके बाद 1822 ई. में राखलदास बनर्जी की अध्यक्षता में इन दोनों स्थानों में खुदाइयाँ हुईं। आगे इसी स्थान पर जान मार्शल के नेतृत्व में हुई खुदाइयों में जो वस्तुएँ मिलीं, उनके अध्ययन से भारत की एक ऐसी सभ्यता का पता लगा है जो ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पहिले की है अर्थात् वैदिक कालीन सभ्यता से भी कहीं अधिक पुरानी।

सिन्धु नदी घाटी के प्रदेश में तथा कुछ अन्य स्थानों में भी खुदाइयाँ हुई हैं जहाँ से वही वस्तुएँ मिली हैं जो हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो से मिली थीं। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि सिन्धु-घाटी के सम्पूर्ण प्रदेश की सभ्यता एक-सी थी।

हड़प्पा सभ्यता के निर्माता

हड़प्पा सभ्यता के निर्माता कौन थे, इस विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। विद्वानों की धारणा है कि सिन्धु-सभ्यता के निर्माता वही आर्य थे जिन्होंने वैदिक सभ्यता का निर्माण किया था परन्तु यह मत ठीक नही लगता क्योंकि सिन्धु-सभ्यता तथा वैदिक-सभ्यता में इतना बड़ा अन्तर है कि एक ही जाति के लोग इन दोनों के निर्माता नहीं हो सकते।

कुछ विद्वानों के विचार में सिन्धु-सभ्यता के निर्माता सुमेरियन जाति के थे। एक विद्वान के विचार में सिन्धु-सभ्यता के निर्माता वही असुर थे जिसका वर्णन वेदों में मिलता है। प्रो. रामलखन बनर्जी के विचार में सिन्धु-सभ्यता के निर्माता द्रविड़ थे।

चूँकि दक्षिण भारत के द्रविड़ों के मिट्टी और पत्थर तथा उनके आभूषण सिन्धु-घाटी के लोगों के बर्तन तथा आभूषणों से मिलते-जुलते हैं, अतः यह मत अधिक ठीक प्रतीत होता है। परन्तु खुदाई में जो हड्डियाँ मिली हैं वे किसी एक जाति की नहीं होकर विभिन्न जातियों की हैं। इसलिये कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिन्धु-घाटी के निर्माता मिश्रित जाति के थे। यही मत सर्वाधिक ठीक लगता है।

हड़प्पा सभ्यता का कालक्रम

सिन्धु-घाटी की सभ्यता कितनी पुरानी है, इसका ठीक-ठीक निश्चय नहीं हो पाया है। कुछ विद्वानों ने इसे ईसा से 5,000 वर्ष पूर्व, कुछ ने 4,000 वर्ष पूर्व, कुछ ने 3,000 वर्ष पूर्व और कुछ ने केवल 2,500 वर्ष पूर्व की बतलाया है परन्तु प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर इस सभ्यता को ईसा से 3,200 वर्ष पूर्व का सिद्ध किया गया है ।

डा. राधकुमुद मुकर्जी ने इसे विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता बताते हुए लिखा है- सिन्धु-घाटी की सभ्यता का न तो मेसोपोटामिया की सभ्यता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और न वह उसकी ऋणी है। अब यह धारणा दृढ़ होती जा रही है कि सिन्धु-सभ्यता विश्व की प्राचीन सभ्यता है। डी. पी. अग्रवाल ने रेडियो कार्बन पद्धति के आधार पर इसका समय 2300 ई.पू. से 1750 ई.पू. तक बताया है।

हड़प्पा सभ्यता के तीन स्तर

हड़प्पा सभ्यता के तीन स्तर पाये गये हैं-

(1.) प्रारंभिक काल (3500 ई.पू. से 2800 ई.पू.),

(2.) मध्यकाल या चरमोत्कर्ष काल (2800 ई.पू. से 2200 ई.पू.) तथा

(3.) अवनति काल (2200 ई.पू. से 1500 ई.पू.)

कांस्य कालीन सभ्यता

यह सभ्यता प्रधानतः कांस्य कालीन सभ्यता थी तथा उस काल के तृतीय चरण की सभ्यता है। इसका गम्भीरता पूर्वक अध्ययन करने पर इसमें कांस्य-काल की चरमोन्नति दिखाई देती है। कांस्य कालीन सभ्यता कालक्रम के अनुसार ताम्र कालीन सभ्यता के बाद की तथा लौह कालीन सभ्यता के पूर्व की ठहरती है।

समकालीन सभ्यताओं से सम्पर्क

हड़प्पा सभ्यता का तत्कालीन अन्य सभ्यताओं से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा। ये लोग पहिये वाली बैलगाड़ियों एवं जल-नौकाओं का उपयोग करते थे। अरब सागर में तट के पास उनकी नौकाएं चलती थीं। बैलगाड़ियों के पहिए ठोस होते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोग आधुनिक इक्के जैसे वाहन का भी उपयोग करते थे। इस कारण अन्य स्थानों के लिये इनका आवागमन एवं परिवहन पहले की सभ्यताओं की तुलना में अधिक सुगम था।

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की खुदाइयों में बहुत सी ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जो सिन्धु घाटी में नहीं होती थीं। ये वस्तुएँ बाहर से मंगाई जाती होंगी और उन देशों से हड़प्पावासियों के व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे। सोना, चांदी, ताम्बा आदि सिन्धु-प्रदेश में नहीं मिलता था।

इन धातुओं को ये लोग अफगानिस्तान तथा ईरान से प्राप्त करते होंगे। हड़प्पावासी ताम्बा राजस्थान से, सीपी और शंख काठियावाड़ से तथा देवदारु की लकड़ी हिमालय पर्वत से प्राप्त करते होंगे।

अनुमान है कि हड़प्पा संस्कृति के राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान की मानव बस्तियों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे। हड़प्पा संस्कृति के लोगों के, दजला तथा फरात प्रदेश के नगरों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध थे। सिन्धु सभ्यता की कुछ मुहरें मेसोपोटामिया के नगरों से मिली हैं।

अनुमान होता है कि मेसोपोटामिया के नगर-निवासियों द्वारा प्रयुक्त कुछ शृंगार साधनों को हड़प्पावासियों ने अपनाया था। लगभग 2350 ई.पू. से आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुह्द के साथ व्यापारिक सम्बन्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। यह सम्भवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम था।

हड़प्पा संस्कृति के प्रमुख स्थल

हड़प्पा संस्कृति के 1400 से भी अधिक स्थलों का उद्घाटन हो चुका है। इनमें से अधिकांश स्थल सरस्वती नदी घाटी क्षेत्र में थे। अब तक ज्ञात स्थलों में से केवल छः स्थलों को ही नगर माना जाता है। इन नगरों में दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नगर थे- पंजाब में हड़प्पा और सिन्ध में मोहेनजोदड़ो।

इन दोनों स्थलों के बीच 483 किलोमीटर की दूरी है और सिन्धु नदी इन्हें एक दूसरे से जोड़ती है। तीसरा नगर सिन्ध प्रांत में चहुन्दड़ो है जो मोहेनजोदड़ो से लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण में है। चौथा नगर गुजरात में खम्भात की खाड़ी के ऊपर लोथल नामक स्थान पर है।

पांचवा नगर उत्तरी राजस्थान में कालीबंगा नामक स्थान पर तथा छठा नगर हरियाणा के हिसार जिले में बनवाली नामक स्थल पर है। कालीबंगा की तरह यहाँ भी दो सांस्कृतिक अवस्थाओं- हड़प्पा पूर्व सभ्यता और हड़प्पा-कालीन सभ्यता के दर्शन होते हैं। बिना पकी ईटों के चबूतरों, सड़कों और मोरियों के अवशेष हड़प्पा-पूर्व युग के हैं।

इन समस्त स्थलों पर उन्नत और समृद्ध हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं। सुत्कांगडोर और सुरकोटड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति के उन्नत रूप के दर्शन होते हैं जहाँ नगर दुर्ग स्थित हैं। गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी, कच्छ क्षेत्र में धौलावीरा, नामक स्थलों पर इस संस्कृति की उत्तरावस्था के दर्शन होते हैं। हरियाणा में राखीगढ़ी तथा कुणाल एवं उत्तर प्रदेश में हिण्डन नदी के किनारे आलमगीरपुर में भी इस संस्कृति के दर्शन होते हैं।

हड़प्पा

इस नगर के अवशेष रावी नदी के बायें तट पर मोंटमोगरी जिले से 25 किलोमीटर दूर प्राप्त हुए हैं। ये अवशेष 5 किलोमीटर के घेरे में उपलब्ध हुए हैं। यहाँ पर दो प्रमुख टीले मिले हैं। पश्चिम में दुर्ग टीला तथा पूर्व में नगर टीला स्थित है। हड़प्पा का दुर्ग क्षेत्र सुरक्षा प्राचीर से घिरा हुआ था।

हड़प्पा के दुर्ग के बाहर 6 मीटर ऊँचे टीले को एफ नाम दिया गया है जहाँ पर अन्नागार, अनाज कूटने के वृत्ताकार चबूतरे और श्रमिक आवास के साक्ष्य मिले हैं। हड़प्पा से प्राप्त विशिष्ट अवशेषों में मृद्भाण्ड, ताम्बे और कांसे के उपकरण, पकाई हुई ईंटों की आकृतियां तथा अलग-अलग आकार की मुहरें प्राप्त हुई हैं। यहाँ से ताम्बे की बनी एक इक्कागाड़ी मिली है। हड़़प्पा में मोहेनजोदड़े के विपरीत, पुरुष मूर्तियां, नारी मूर्तियों की तुलना में अधिक हैं।

मोहेनजोदड़ो

मोहनजोदड़ो शब्द, सिंधी भाषा के ‘मुएन जो दड़ो’ से लिया गया है जिसका अर्थ होता है- मृतकांे का टीला। इसकी खोज 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने की थी। यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लरकाना जिले में सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है।

यहाँ पर भी दो टीले मिले हैं- दुर्ग टीला तथा नगर टीला। दुर्ग टीले में अनेक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्मारक एवं भवन स्थित थे, जैसे- विशाल स्नानागार, अन्नागार, सभाभवन। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण भवन विशाल स्नानागार है। नगर भाग में योजनबद्ध विधि से बने हुए भवन मिलते हैं। यहाँ से कांसे की नग्न नृत्यांगना की प्रतिमा प्राप्त हुई है। मोहेनजोदड़ो से प्राप्त नगर-निर्माण योजना, भवन, मृदभाण्ड, मोहरें तथा अन्य कलाकृतियां अत्यंत विकसित सभ्यता की सूचक हैं।

कालीबंगा

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी के किनारे पर स्थित कालीबंगा सिंधु सभ्यता का प्रमुख स्थल है। इसकी खोज 1951 ई. में अमलानंद घोष ने की थी। कालीबंगा से प्राक् सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।इस स्थल से जुते हुए खेत का प्रमाण भी मिला है जो और कहीं से प्राप्त नहीं किया जा सका है।

कालीबंगा से लघुपाषाण उपकरण, माणिक एवं मनके, छः विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों के अवशेष मिले हैं। कालीबंगा से प्राप्त एक मृद्भाण्ड के टुकड़़े पर लिखे लेख के चिह्नों से यह ज्ञात होता है कि हड़प्पा लिपि दायें से बायीं ओर लिखी जाती थी। यहाँ से बड़ी संख्या में मिट्टी से निर्मित एवं आग में पकाई हुई चूड़ियों के टुकड़़े मिले हैं। इन्हीं चूड़ियों के कारण इस स्थान के नाम में बंगा शब्द लगा हुआ है।

लोथल

लोथल, सिंधु सभ्यता का महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। इसकी खोज 1954 ई. में एस. आर. राव ने की थी। यह स्थल गुजरात प्रांत के अहमदाबाद नगर से 80 किलोमीटर दक्षिण में भोगवा नदी के तट पर स्थित है। लोथल का टीला 3.25 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।

इस स्थल से सिंधु सभ्यता के विशिष्ट मृद्भाण्ड, उपकरण, मोहरें, बाट तथा माप भी प्राप्त हुए हैं। लोथल के पूर्वी भाग में पकाई हुई ईंटों से बना हुआ एक निर्माण क्षेत्र है जिसका आधार 214 मीटर गुणा 36 मीटर गुणा 3.3 मीटर है। इसकी पहचान पुरतत्वविदों ने बंदरगाह के हिस्से ‘गोदी’ अर्थात् डॉकयार्ड के रूप में की है।

हड़प्पा संस्कृति की विशेषताएँ

नगर योजना

हड़प्पा संस्कृति की प्रमुख विशेषता इसकी नगर-योजना थी। हड़प्पा और मोहेनजोदड़ो, दोनों नगरों के अपने दुर्ग थे जहाँ सम्भवतः शासक-वर्ग के सदस्य रहते थे। खुदाइयों से पता लगाा है कि हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो दोनों ही विशाल नगर थे। इन नगरों का निर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार किया गया था।

नगरों की सड़कें उत्तर से दक्षिण को अथवा पूर्व से पश्चिम को, एक दूसरे को सीधे समकोण पर काटती हुई जाती थीं। इस प्रकार इन सड़कों द्वारा नगर कई वर्गाकार अथवा आयताकार भागों में विभक्त हो जाता था। सड़कें बड़ी चौड़ी होती थीं। नगर की प्रमुख सड़कें 33 फीट तक चौड़ी पाई गई हैं जिससे स्पष्ट है कि सड़कों पर एक साथ कई गाड़ियाँ आ-जा सकती थीं।

बड़ी-बड़ी सड़कों को मिलाने वाली गलियाँ भी काफी चौड़ी होती थीं। जो गलियाँ कम-से-कम चौड़ी होती थीं उनकी भी चौड़ाई चार फीट की पाई गयी है। आश्चर्य की बात है कि ये सड़कें कच्ची हैं। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर निचले स्तर पर ईटों के भवनों वाला नगर बसा था, जहाँ सामान्य लोग रहते थे। नगरों के इन भवनों के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह बसाए गए थे। यह बात सिंधु बस्तियों के समस्त स्थलों पर लागू होती है, चाहे वे बड़े स्थल हों अथवा छोटे।

भवन निर्माण

सड़कों के दोनों किनारों पर मकान होते थे जो पक्की ईटों के बने होते थे। ईटें लकड़ी से पकाई जाती थीं। हड़प्पा संस्कृति के नगरों में पकाई हुई ईटों का उपयोग होना एक अदभुत बात है, क्योंकि मिस्र के समकालीन भवनों में मुख्यतः धूप में सुखाई गई ईटों का उपयोग होता था।

समकालीन मैसोपोटामिया में भी सीमित मात्रा में पकाई हुई ईटों का उपयोग होता था किन्तु हड़प्पा संस्कृति के नगरों में पकाई हुई ईटों का उपयोग बहुत बड़े स्तर पर हुआ है। अधिकांश भवन दो मंजिलों के होते थे परन्तु दीवारों की मोटाई से पता लगता है कि दो से भी अधिक मंजिलों के मकान बनते थे।

नीचे की मंजिल से ऊपर की मंजिल में जाने के लिये सीढ़ियाँ बनी होती थीं। अधिकांश सीढ़ियाँ संकीर्ण हैं परन्तु कुछ काफी चौड़ी तथा सुविधाजनक भी हैं। बड़े मकानों के दरवाजे बड़े तथा चौडे़ होते थे। कुछ मकानों के दरवाजे तो इतने चौड़े थे कि उनमें रथ तथा बैलगाड़ियाँ भी आ-जा सकती थीं।

कमरों में दीवारों के साथ अलमारियाँ भी लगी होती थीं। हड्डियों तथा शंख की बनी कुछ ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि कमरों में खूंटियाँ भी लगी होती थीं। भवन में खिड़कियों तथा दरवाजों का पूरा प्रबन्ध रहता था जिससे हवा तथा प्रकाश की कमी न हो। दरवाजे तथा खिड़कियां भीतर की दीवारों में बने होते थे।

जो दीवारें सार्वजनिक सड़कों की ओर होती थीं, उनमें दरवाजे तथा खिड़कियाँ नही होती थीं। घर के बीच में एक आंगन होता था जिसके एक कोने में रसोईघर बना होता था। रसोईघर के चूल्हे ईटों के बने होते थे।

धान्य संग्रहण

मोहेनजोदड़ो का सबसे बड़ा भवन यहाँ का धान्य-कोठार है जो 45.71 मीटर लंबा और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः धान्य-कोठारों के लिए ईटों के चबूतरे बनाए गए थे। प्रत्येक धान्य-कोठार 15.23 मीटर लंबा और 6.09 मीटर चौड़ा है। ये नदी तट से चंद मीटरों की दूरी पर थे।

इन बारह इकाइयों का समूचा तलक्षेत्र लगभग 838.1025 वर्गमीटर होता है। यह लगभग उतना ही क्षेत्र है जितना कि मोहेनजोदड़ो के विशाल धान्य-कोठार का। हड़प्पा के धान्य कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इस पर दो कतारों में ईटों के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं। इनका उपयोग फसल दाबने के लिए होता होगा।

इन चूबतरों के फर्श की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी बनाए गए थे, जो सम्भवतः मजदूरों के रहने के लिए थे। कालीबंगा में भी नगर के दक्षिणी भाग में ईटों के चबूतरे मिले हैं। इनका सम्बन्ध भी धान्य-कोठारों से रहा होगा। अतः अनुमान होता है कि धान्य-कोठार हड़प्पा संस्कृति के नगरों के महत्त्वपूर्ण अंग थे।

कुओं का प्रबन्ध

घरों एवं मानव बस्तियों में सुगमता से जल प्राप्त करने के लिए सिन्धु-घाटी के लोगों ने कुओं का प्रबन्ध किया था। खुदाई में ऐसे कुएँ मिले हैं जिनकी चौड़ाई दो फीट से सात फीट तक है। सार्वजनिक कुओं के साथ-साथ लोग अपने घरों में व्यक्तिगत उपयोग के लिए भी कुएँ बनवाते थे। कालीबंगा के अनेक घरों में कुएं खुदे हुए थे।

सार्वजनिक जलाशय तथा स्नानागार

मोहेनजोदड़ो के दुर्ग की खुदाई में एक बहुत बड़ा जलाशय मिला है। ईंटों के स्थापत्य का यह एक सुंदर नमूना है। यह स्नानागार 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। यह पक्की ईटों का बना हुआ है और इसकी दीवारें बड़ी मजबूत हैं। जलाशय के चारों और एक बारामदा है जिसकी चौड़ाई 5 मीटर है।

जल-कुण्ड के दक्षिण-पश्चिम की ओर आठ स्नानागार बने हुए हैं। इन स्नानागारों के ऊपर कमरे बने हुए थे जिनमें सम्भवतः पुजारी रहते थे। जलाशय के निकट एक कुआं भी मिला है। सम्भवतः इसी कुएँ के पानी से जलाशय को भरा जाता था। जलाशय को भरने तथा खाली करने के लिए नल बने होते थे।

जलाशय के दोनों सिरों पर स्नानागार की सतह तक सीढ़ियां बनी हुई हैं। अनुमान है कि इस विशाल स्नानागार का उपयोग आनुष्ठानिक स्नान के लिए होता था। आज भी भारत के धार्मिक कृत्यों में ऐसे स्नान का बड़ा महत्त्व है।

जल निकास प्रणाली

मोहेनजोदड़ो की जल-निकास प्रणाली बड़ी प्रभावशाली थी। घरों का पानी बाहर सड़कों तक आता था जहाँ इनके नीचे मोरियां बनी हुई थीं। कम चौड़ी नालियाँ ईटों से और अधिक चौड़ी नालियाँ पत्थर के टुकड़ों से ढँकी जाती थी। ईटों को जोड़ने के लिए मिट्टी मिले चूने का प्रयोग किया जाता था।

ऊपर की मंजिल का गन्दा पानी नीचे लाने के लिए मिट्टी के पाइपों का प्रयोग किया जाता था। सड़कों की इन नालियों में नरमोखे (मेन होल) भी बनाए गए थे। सड़कों और नालियों के अवशेष बनवाली में भी मिले हैं। यह निकास-प्रणाली, भवनों में स्नानकक्षों और मोरियों की व्यवस्था अनोखी है। हड़प्पा की निकास-प्रणाली तो और भी विलक्षण है।

सफाई व्यवस्था

हड़प्पा सभ्यता की सफाई व्यवस्था बहुत प्रभावशाली थी। प्रत्येक घर में एक स्नानागार होता था। इन स्नानागारों में मिट्टी के बर्तनों में पानी रखा रहता था। स्नानागारों का फर्श, पक्की ईटों का बना होता था और उसकी सफाई का बड़ा ध्यान रखा जाता था। बहुत से स्नानागारों के समीप शौचालय भी मिले हैं। सम्भवतः किसी भी दूसरी सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्त्व नहीं दिया जितना कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने दिया था।

नगर की सुरक्षा का प्रबन्ध

हड़प्पा सभ्यता के लोग अपने नगरों को शत्रुओं से सुरक्षित रहने के लिए नगर के चारों और खाई तथा दीवार का भी प्रबन्ध करते थे। यह चहारदीवारी सम्भवतः दुर्ग का भी काम देती थी।

सामाजिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता सामाजिक तथा आर्थिक साम्य-प्रधान सभ्यता थी। इस सभ्यता में लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली होने के संकेत मिलते हैं। इस कारण इस सभ्यता में समानता का आभास मिलता है। इस सभ्यता के लोगों में बहुत बड़ा सामाजिक तथा धार्मिक वैषम्य नहीं होना अनुमानित किया जाता है। हड़प्पा, मोहेनजोदड़ो, अमरी, चन्हूदड़ो तथा झूकरदड़ो आदि स्थानों में उत्खनन के फलस्वरूप प्राप्त वस्तुओं के अध्ययन से हड़प्पा सभ्यता के सामाजिक जीवन पर विस्तार से प्रकाश पड़ता है-

(1) नगर तथा व्यापार-प्रधान सभ्यता

हड़प्पा सभ्यता नगरीय तथा व्यापार-प्रधान सभ्यता थी जिसमें बड़े-बड़े नगरों की स्थापना की गयी थी और अन्य देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किया गया था।

(2) समाज का सगंठन

मोहेनजोदड़ो के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सिन्धु-घाटी के लोगों का समाज चार वर्गों में विभक्त था। पहला वर्ग विद्वानों का था जिसमें पुजारी, वैद्य, ज्योतिषी आते थे। दूसरे वर्ग में योद्धा थे जिनका कर्त्तव्य समाज की रक्षा करना होता था। तीसरे वर्ग में व्यवसायी थे। ये लोग विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे करते थे। चौथे वर्ग में घरेलू नौकर तथा मजदूर थे।

(3) भोजन

खुदाई में गेहूँ, जौ, चावल तथा खजूर आदि के बीज मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि यही वस्तुएँ सिन्धु-घाटी के लोग खाते रहे होंगे। खुदाई में कुछ अधजली हड्डियाँ तथा छिलके भी मिले हैं जिनसे अनुमान होता है कि ये लोग मछली, मांस, अंडे आदि का प्रयोग करते थे। साथ ही फल, दूध तथा तरकारी का भी प्रयोग करते थे।

(4) केश विन्यास

सिन्धु-घाटी के निवासी छोटी दाढ़ी तथा मूँछें रखते थे परन्तु कुछ लोग मूँछें मुंडवाते भी थे। कुछ लोगों के बाल छोटे होते थे और कुछ लोगों के लम्बे। जिन लोगों के बाल लम्बे होते थे वे चोटी बांधते थे। ये लोग बालों में कंघी करते थे और पीछे की ओर फेरे रहते थे।

(5) वेश-भूषा

सिन्धु-घाटी के लोग ऊनी तथा सूती दोनों प्रकार के वस्त्र पहनते थे। उनके वस्त्र साधारण हुआ करते थे। खुदाई में एक पुरुष की मूर्ति मिली है जिसमें वह एक शॉल ओढ़े हुए है। शॉल बाएँ कन्धे के ऊपर से दाहिनी कांख के नीचे जाता है। विद्वानों का अनुमान है कि इनके दो मुख्य वस्त्र रहे होंगे।

एक शरीर के नीचे के भाग को ढँकने के लिए और दूसरा ऊपर के भाग के लिए। हड़प्पा की खुदाई में मिली सामग्री से अनुमान होता है कि स्त्रियाँ सिर पर एक विशेष प्रकार का वस्त्र पहिनती थीं जो सिर के पीछे की ओर पंखे की तरह उठा रहता था। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रियों तथा पुरुषों के वस्त्रों में विशेष अन्तर नहीं होता था।

(6) आभूषण एवं सौंदर्य प्रसाधन

सिन्धु-घाटी के लोग विभिन्न प्रकार के आभूषणों का प्रयोग करते थे। स्त्री-पुरुष दानों ही हार, भुज-बन्द, कंगन तथा अंगूठी पहिनते थे। स्त्रियाँ करधनी, नथुनी, बाली तथा पायजेब पहिनती थीं। धनी लोगों के आभूषण सोने, चांदी तथा जवाहरात के बने होते थे परन्तु गरीबों के आभूषण ताम्बे, हड्डी तथा पकी हुई मिट्टी से बनते थे। पीतल के दर्पण तथा हाथी दाँत की कंघियाँ भी खुदाई में मिली हैं। ओष्ठ पर लगाने के लिए लेपन-पदार्थ भी होता था।

(7) आमोद-प्रमोद के साधन

इन लोगों के आमोद-प्रमोद का प्रधान साधन शिकार था। ये लोग धनुष-बाण से जंगली बकरों तथा हिरनों का शिकार करते थे। चिड़ियों को पाला तथा उड़ाया जाता था। बच्चे मिट्टी की वस्तुएँ बना कर खेलते थे। हड़प्पा सभ्यता में शतरंज तथा जुआ भी खेला जाता था। मुर्गों तथा बैलों को लड़ाया जाता था। इन लोगों को नाचने गाने का भी शौक था।

(8) खिलौने

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की खुदाइयों में विभिन्न प्रकार के खिलौने मिले हैं। बच्चों को मिट्टी की छोटी-छोटी गाड़ियों से खेलने का बड़ा शौक था। मनुष्य तथा पशुओं के आकार के विभिन्न प्रकार के खिलौने बच्चों के खेलने के लिए बनाये जाते थे। चिड़ियों के भी खिलौने होते थे। बच्चों के बजाने के लिए भोंपू भी बनाये जाते थे।

(9) यातायात के साधन

सिन्धु-घाटी के लोग कच्ची सड़कें बनाते थे। खुदाइयों से पता लगता है कि बैलगाड़ी मुख्य सवारी होती थी। हड़प्पा में एक ताम्बे का वाहन मिला है जो इक्के के आकार का है। नौकाएं भी यातायात एवं परिवहन का साधन थीं।

(10) स्त्रियों की दशा

हड़प्पा सभ्यता का मानव मातृ देवी की पूजा करता था। इससे अनुमान होता है कि हड़प्पा समाज में स्त्रियाँ बड़े आदर की दृष्टि से देखी जाती थीं और माता के रूप में स्त्री का ऊँचा स्थान था। शिशु-पालन तथा घर का प्रबन्ध करना स्त्री का प्रधान कार्य होता था। इस युग में सम्भवतः पर्दे की प्रथा नहीं थी। धार्मिक तथा सामाजिक उत्सवों में स्त्री-पुरुष समान रूप से भाग लेते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोग मिòवासियों की तरह मातृसत्तात्मक थे या नहीं, इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

(11) औषधि

रोगों से मुक्ति पाने के लिए सिंधुवासी विभिन्न प्रकार की औषधियों का प्रयोग करते थे। आंख, कान आदि के रोगों में वे लोग मछली की हड्डियों का प्रयोग करते थे। हिरन के सींग, मूंगा तथा नीम की पत्ती का भी औषधि के रूप में प्रयोग होता था।

(12) शव-विसर्जन

मोहेनजोदड़ो की खुदाई से सर जॉन मार्शल ने शव-विसर्जन की तीन विधियों का पता लगाया। पहली विधि के अनुसार सम्पूर्ण मृतक शरीर को जमीन में गाड़ दिया जाता था। दूसरी विधि के अनुसार पशु-पक्षियों के खा लेने के उपरान्त जो हाड़-मांस बचता था वह जमीन में गाड़ दिया जाता था। तीसरी विधि यह थी कि मृत्यु के उपरान्त मृतक शरीर को जला दिया जाता था। प्रायः तीसरी ही विधि का अनुसरण किया जाता था।

आर्थिक जीवन

सिन्धु घाटी में वर्तमान में लगभग 15 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है। इसलिए यह प्रदेश अधिक उपजाऊ नहीं है किंतु सिंधु सभ्यता के उत्खनन स्थलों को देखने से अनुमान होता है कि उस काल में यह प्रदेश अधिक उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकंदर का एक समकालीन इतिहासकार जानकारी देता है कि सिन्ध क्षेत्र उपजाऊ प्रदेश था।

इससे भी पहले के काल में सिन्धु प्रदेश में प्राकृतिक वनस्पति अधिक थी और इस कारण यहाँ वर्षा भी अधिक होती थी। इस कारण पूरे प्रदेश में घने जंगल थे जिनसे व्यापक स्तर पर जलाऊ लकड़ी प्राप्त की जाती थी। इस लकड़ी का उपयोग ईंटें पकाने, कृषि उपकरण बनाने, युद्ध के औजार बनाने तथा भवन बनाने में होता था।

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो जैसे विशाल तथा वैभवपूर्ण नगर जिस संस्कृति में विद्यमान थे वह निश्चय ही बड़ा सम्पन्न रहा होगा। चूंकि यह सभ्यता कृषि-प्रधान न थी इसलिये यहाँ के निवासियों का आर्थिक जीवन प्रमुखतः व्यापार तथा उद्योग-धन्धों पर आधारित था। व्यापार तथा उद्योग उन्नत दशा में था।

सिन्धु-वासियों का आर्थक जीवन औद्योगिक विशिष्टीकरण तथा स्थानीकरण पर आधारित था। उनमें श्रम-विभाजन तथा संगठन की कल्पना की भी जा सकती है। एक प्रकार का व्यवसाय करने वाले लोग एक ही क्षेत्र में निवास करते थे। यदि इस सभ्यता को औद्योगिक सभ्यता कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हड़प्पा सभ्यता में निम्नलिखित व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धे होते थे-

(1) कृषि

सिन्धु सभ्यता के लोग सिंधु नदी में बाढ़ के उतर जाने पर नवंबर के महीने में बाढ़ के मैदानों में गेंहूू और जौ के बीज बो देते थे और आगामी बाढ़ आने से पहले, अप्रेल के महिने में गेंहूू और जौ की फसल काट लेते थे। इस क्षेत्र से कोई फावड़ा या फाल नहीं मिला है, परन्तु कालीबंगा में हड़प्पा-पूर्व अवस्था के जिन कूँडों की खोज हुई है, उनसे पता चलता है कि हड़प्पा-काल में राजस्थान के खेतों में हल जोते जाते थे।

हड़प्पा संस्कृति के लोग सम्भवतः लकड़ी के हल का उपयोग करते थे। इस हल को आदमी खींचते थे या बैल, इस बात का पता नहीं चलता। फसल काटने के लिए पत्थर के हँसियों का उपयोग होता होगा। गबरबंदों अथवा नालों को बांधों से घेरकर जलाशय बनाने की बिलोचिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में प्रथा रही है, परन्तु अनुमान होता है कि सिन्धु सभ्यता में नहरों से सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी।

हड़प्पा संस्कृति के गांव, जो प्रायः बाढ़ के मैदानों के समीप बसे होते थे, न केवल अपनी आवश्यकता के लिए अपितु नगरों में रहने वाले कारीगरों, व्यापारियों और दूसरे नागरिकों के लिए भी पर्याप्त अनाज पैदा करते थे।

सिन्धु सभ्यता के किसान गेहूँ, जौ, राई, मटर, आदि पैदा करते थे। वेे दो किस्मों का गेहूँ और जौ उगाते थे। बनवाली से बढ़िया किस्म का जौ मिला है। वे तिल और सरसों भी पैदा करते थे। हड़प्पा-कालीन लोथल के लोग 1800 ई.पू. में भी चावल का उपयोग करते थे। लोथल से चावल के अवशेष मिले हैं।

मोहेनजोदड़ो, हड़प्पा और सम्भवतः कालीबंगा में भी विशाल धान्य कोठारों में अनाज जमा किया जाता था। किसानों से सम्भवतः करों के रूप में यह अनाज प्राप्त किया जाता था और पारिश्रमिक के रूप में धान्य-कोठारों से इसका वितरण होता था।

यह बात हम मेसोपोटामिया के नगरों के सादृश्य के आधार पर कह सकते हैं जहाँ पारिश्रमिक का भुगतान जौ के रूप में होता था। सिन्धु सभ्यता के लोग कपास पैदा करने वाले सबसे पुराने लोगों में से थे। इसीलिए यूनानियों ने कपास को सिंडोन नाम दिया जिसकी व्युत्पत्ति सिन्ध शब्द से हुई है।

(2) शिकार

सिन्धु-घाटी के लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी थे। वे मांस, मछली तथा अंडे आदि का प्रयोग करते थे। मांस प्राप्त करने के लिये वे पशुओं का शिकार करते थे। पशुओं के बाल, खाल तथा हड्डी से भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाई जाती थीं।

(3) पशुपालन

सिन्धु सभ्यता के लोग खेती करने के साथ-साथ बड़ी संख्या में पशु पालते थे। खुदाई से प्राप्त मुहरों पर पशुओं के चित्र मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, कुत्ता और सूअर उनके पालतू पशु थे। सिन्धुवासियों को बड़े कूबड़ वाला सांड विशेष रूप से पसंद था। आरम्भ से ही कुत्ते दुलारे पशु थे।

बिल्ल्यिों को भी पालतू बना लिया गया था। कुत्ता और बिल्ली, दोनों के पैरांे के निशान मिले हैं। बैलों और गधों का उपयोग भारवहन के लिए होता था। आश्चर्य की बात है कि खुदाई में ऊँट की हड्डियाँ नही मिली हैं। घोड़े के अस्तित्त्व के बारे में भी केवल तीन प्रमाण मिले हैं।

मोहेनजोदड़ो की एक ऊपरी सतह से और लोथल से एक-एक संदिग्ध लघु मूण्मूर्ति मिली है जिसे घोड़े की मूर्ति कहा जा सकता है। घोड़े के अवशेष, जो 2000 ई.पू. के आसपास के हैं, गुजरात के सुरकोटड़ा नामक स्थान से मिले हैं। अनुमान होता है कि हड़प्पा-काल में ऊँट तथा घोड़े का उपयोग आम तौर पर नहीं होता था।

हड़प्पा संस्कृति के लोग हाथी तथा गेंडे से भली-भांति परिचित थे। मेसोपोटामिया के समकालीन सुमेर सभ्यता के नगरों के लोग भी प्रायः सिन्धु प्रदेश जैसे ही अनाज पैदा करते थे और उनके पालतू पशु भी प्रायः वही थे जो हड़प्पा संस्कृति वालों के थे परन्तु गुजरात में बसे हुए हड़प्पा संस्कृति के लोग चावल पैदा करते थे और पालतू हाथी भी रखते थे। मेसोपोटामिया के नगरवासियों के लिए ये दोनों बातें सम्भव नहीं थी।

(4) शिल्प तथा व्यवसाय

हड़प्पा संस्कृति कांस्य-युग की है। हड़प्पा सभ्यता का मानव कुशल शिल्पी तथा व्यसायी था। हड़प्पावासी पत्थर के अनेक प्रकार के औजारों का उपयोग करते थे। वे कांस्य के निर्माण और उपयोग से भी भली-भांति परिचित थे। धातुकर्मी तांबे के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार करते थे।

चूँकि हड़प्पावासियों के लिए ये दोनों धातुएं सुलभ नहीं थीं। इसलिए हड़प्पा में कांस्य-वस्तुओं का निर्माण बड़े पैमाने पर नहीं हुआ। खनिजों के मिश्रणों से पता चलता है कि तांबा राजस्थान में खेतड़ी कीे खानों से प्राप्त किया जाता था। यद्यपि यह बिलोचिस्तान से भी मंगाया जा सकता था।

टिन बड़ी कठिनाई से सम्भवतः अफगानिस्तान से प्राप्त किया जाता था। टिन की कुछ पुरानी खदानें बिहार के हजारी बाग में पाई गई हैं। हड़प्पा संस्कृति के स्थलों से कांसे के जो औजार और हथियार मिले हैं उनमें टिन का अनुपात कम है। फिर भी इस सभ्यता से बहुत सारी कांस्य वस्तुएँ मिली हैं, जिनसे स्पष्ट है कि हड़प्पा समाज के कारीगरों में कसेरों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उन्होंने मूर्तियां और बर्तन ही नहीं, विविध प्रकार के औजार और कुल्हाड़ियां, आरियां, छुरे और भाले जैसे हथियार भी बनाए।

हड़प्पा संस्कृति के नगरों में दूसरे कई शिल्पों का विकास हुआ। मोहेनजोदड़ो से बुने हुए सूती कपड़़े का एक टुकड़़ा मिला है और कई वस्तुओं पर कपड़़े के छापे देखने को मिले हैं। कताई के लिए तकलियों का उपयोग होता था। बुनकर सूती और ऊनी कपड़़ा बुनते थे।

ईटों की विशाल ईमारतों से ज्ञात होता है कि राजगीरी एक महत्त्वपूर्ण कौशल था। इनसे राजगीरों के एक वर्ग के अस्तित्त्व की भी सूचना मिलती है। हड़प्पा संस्कृति के लोग नौकाएं बनाना जानते थे। मुहरें और मृण्मूर्तियां बनाना महत्त्वपूर्ण शिल्प-व्यवसाय थे। सुनार, चांदी, सोना और कीमती पत्थरों के आभूषण बनाते थे।

चांदी और सोना अफगानिस्तान से आता होगा और कीमती पत्थर दक्षिणी भारत से। हड़प्पा संस्कृति के कारीगर मणियों के निर्माण में भी निपुण थे। कुम्हार के चाक का खूब उपयोग होता था। उनके मिट्टी के बर्तनों की अपनी विशेषता थी। बर्तनों को चिकना और चमकीला बनाया जाता था। उन पर चित्रकारी की जाती थी।  हाथी-दाँत की भी विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाई जाती थीं।

(5) व्यापार

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की खुदाइयों में बहुत सी ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जो सिन्धु घाटी में नहीं होती थीं। अतः यह अनुमान लगाया गया है कि ये वस्तुएँ बाहर से मंगाई जाती थीं और इन लोगों का विदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध था। सोना, चांदी, ताम्बा आदि सिन्धु-प्रदेश में नही मिलता था। इन धातुओं को ये लोग अफगानिस्तान तथा ईरान से प्राप्त करते थे। यहाँ के निवासी सम्भवतः ताम्बा राजपूताना से, सीपी, शंख आदि काठियावाड़ से और देवदारु की लकड़ी हिमालय पर्वत से प्राप्त करते थे।

हड़प्पा संस्कृति का मानव धातु की मुद्राओं का उपयोग नहीं करता था। बहुत सम्भव है कि व्यापार वस्तु-विनियम से चलता था। निर्मित वस्तुओं और सम्भवतः अनाज के बदले में वह पड़ोसी प्रदेशों से धातुएं प्राप्त करता था और उन्हें नौकाओं तथा बैलगाड़ियों से ढोकर लाता था।

अरब सागर में तट के पास उनकी नौकाएं चलती थीं। वह पहिए का उपयोग जानता था। बैलगाड़ियों के पहिए ठोस होते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोग आधुनिक इक्के जैसे वाहन का उपयोग करते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोगों के राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे।

हड़प्पा संस्कृति के लोगों के, दजला तथा फरात प्रदेश के नगरों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध थे। सिन्धु सभ्यता की कुछ मुहरें मेसोपोटामिया के नगरों से मिली हैं। अनुमान होता है कि मेसोपोटामिया के नगर-निवासियों द्वारा प्रयुक्त कुछ शृंगार साधनों को हड़प्पा वासियों ने अपनाया था।

लगभग 2350 ई.पू. से आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुद्दह के साथ व्यापारिक सम्बन्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। यह सम्भवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम था।

(6) नाप तथा तौल

खुदाई में बाट बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं। कुछ बाट तो इतने बड़े हैं कि वे रस्सी से उठाये जाते रहे होगे और कुछ इतने छोटे हैं कि उनका प्रयोग जौहरी करते होंगे। अधिकांश बाट घनाकार हुआ करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि लम्बाई नापने के लिये फुट होता था। क्योंकि मोहेनजोदड़ो की खुदाई में सीपी का बना हुआ एक फुट के बराबर माप का टुकड़ा मिला है। हड़प्पा में कांसे की बनी एक शलाका मिली है जिस पर छोटे-छोटे भाग अंकित हैं। यह भी फुट ही प्रतीत होता है। तौलने के लिए तराजू का प्रयोग किया जाता था।

धार्मिक जीवन

खुदाई में जो मुहरें, ताम्र-पत्र तथा पत्थर, मिट्टी एवं धातु की मूर्तियाँ मिली हैं उनसे सिन्धु-घाटी के निवासियों के धार्मिक जीवन की काफी जानकारी हो जाती है। इन साक्ष्यों से इन लोगों के धार्मिक जीवन पर निम्नलिखित प्रकाश पड़ता है-

(1) द्विदेववाद

सिन्धु-घाटी के लोग दो परम शक्तियों में विश्वास करते थे। एक शक्ति परम-पुरुष की थी और दूसरी परम-नारी की। यही दोनों शक्तियाँ सृष्टि की रचना तथा उनका पालन करती थीं। इस प्रकार हिन्दू-धर्म के पार्वती-परमेश्वर का दर्शन हमें सिन्धु-घाटी में होता है।

(2) शिव की उपासना

हड़प्पा में एक ऐसी मुहर मिली है जिनमें एक ऐसे देवता की मूर्ति अंकित है जिसके तीन मुख और बड़े-बड़े सींग हैं। यह मूर्ति एक सिंहासन पर स्थित है और योग-मुद्रा में लीन है। देवता का एक पैर दूसरे पैर पर रखा हुआ है। यह देवता एक हाथी, एक बाघ और एक गैंडे से घिरा हुआ है और इसके सिंहासन के नीचे एक भैंस है। पैरों के नीचे दो हरिण हैं।

इस मुहर को देखने से हमारे मस्तिष्क में पशुपति-महादेव का परम्परागत चित्र उभरता है। देवता को घेरे हुए पशु, पृथ्वी की चार दिशाओं की ओर देख रहे हैं। ये पशु, उस देवता के वाहन रहे होंगे, क्योंकि बाद के हिन्दू धर्म में प्रत्येक देवता का एक विशिष्ट वाहन कल्पित किया गया है। सर जॉन मार्शल के विचार में यह शिव की मूर्ति है।

(3) महादेवी की उपासना

हड़प्पा की खुदाई में ऐसी मुहरें तथा लघु मृण्मूर्तियाँ मिली है जिसमें खड़ी हुई नारी का चित्र अंकित है। सर जॉन मार्शल के विचार में यह महादेवी का चित्र है जिसकी उपासना हड़प्पा सभ्यता के लोग किया करते थे। यही महादेवी आगे चल कर शक्ति हो गई जिसकी पूजा आज-भी हिन्दू लोग करते है।

(4) प्रजनन-शक्ति की उपासना

सिन्धु-घाटी के लोग प्रजनन-शक्ति की पूजा किया करते थे। खुदाई में पत्थर के ऐसे टुकड़े मिले है जो योनि तथा शिश्न प्रतीत होते है। सम्भवतः इनकी पूजा होती थी। कालान्तर में लिंग पूजा, शिव पूजा का अटूट अंग बन गई। ऋग्वेद में ऐसे आर्येतर लोगों के विषय में सूचना मिलती है जो लिंग पूजक (शिश्नदेवाः) थे। हड़प्पा युग में आरम्भ हुई यह लिंग-पूजा, हिन्दू समाज में एक सामान्य पूजा-विधि हो गई। विद्वानों की धारणा है सिन्धु-घाटी के लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास रखते थे।

(5) धरती की पूजा

सिंधु सभ्यता से प्राप्त एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है। यह सम्भवतः धरती-देवी की मूर्ति है। पौधों की उत्पत्ति एवं विकास से इसका गहरा सम्बन्ध समझा जाता होगा। अनुमान होता है कि हड़प्पावासी धरती को उर्वरता की देवी समझकर उसकी पूजा करते थे जिस प्रकार मिò के लोग नील नदी की देवी आइसिस की पूजा करते थे।

(6) सूर्य, अग्नि तथा जल की पूजा

सिन्धु-घाटी के लोग विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक पदार्थो की भी पूजा किया करते थे। ये लोग सूर्य तथा अग्नि की पूजा किया करते थे। इन लोगों में जल-पूजा भी प्रचलित थी।

(7) वृक्ष पूजा

ये लोग कुछ वक्षों को भी पवित्र मानते थे तथा उनकी पूजा  करते थे। एक मुहर पर पीपल की टहनियों के बीच में किसी देवता की प्रतिमा उकेरी गई है। पीपल तथा तुलसी की पूजा आज भी हिन्दुओं में प्रचलित है।

(8) पशु पूजा

हड़प्पा सभ्यता के स्थलों की खुदाई में पशु-मूर्तियाँ भी मिली हैं। अनेक पशुओं को मुहरों पर अंकित किया गया है। इनमें सबसे प्रमुख है डिल्ले वाला या कूबड़ वाला सांड। आज भी ऐसा कोई सांड जब बाजार की सड़कों से गुजरता है तो श्रद्धालु भारतीय उसके लिए रास्ता छोड़ देते हैं। इसी प्रकार, सिन्धु मुहर पर अंकित पशुपति-महादेव को घेरे हुए पशुओं की भी पूजा होती होगी। हिन्दू धर्म में आज भी गाय को पवित्र एवं पूज्य माना जाता है।

(9) मंदिरों का अभाव

हड़प्पा सम्भ्यता का मानव वृक्ष, पशु और मानव रूप में देवताओं की पूजा करता था परन्तु वह देवताओं के लिए मंदिर नहीं बनाता था। जबकि हड़प्पा की समकालीन मिस्र और मेसोपोटामिया सभ्यताओं में मंदिर बनाये जाते थे।

(10) भूत-प्रेत में विश्वास

सैंधव स्थलों से बड़ी संख्या में ताबीज मिले हैं। हड़प्पावासी सम्भवतः भूत-प्रेत में विश्वास रखते थे और इनसे भय खाते थे, इसलिए रक्षात्मक ताबीज पहनते थे। अथर्ववेद में, जिसे आर्येतरों की कृति समझा जाता है, अनेक तंत्र-मंत्र दिए गए हैं, और इसमें रोगों और भूत-प्रेतों के निवारण के लिए ताबीज धारण करने का भी सुझाव दिया गया है।

(11) धार्मिक विश्वासों की जानकारी का अभाव

यद्यपि मुहरों, मूर्तियों और लिंगों के आधार पर हड़प्पा वासियों के धार्मिक विश्वासों के बारे में कई महत्त्वपूर्ण अनुमान लगा लिये गये हैं तथापि जब तक सिन्धु लिपि पढ़ी नहीं जाती, तब तक हड़प्पावासियों के धार्मिक विश्वासों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिल सकती।

(12) हिन्दू धर्म पर प्रभाव

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वर्तमान हिन्दू-धर्म पर हड़प्पा वासियों का काफी प्रभाव है। उनके द्वारा अपनाई गई बहुत सी परम्परायें आज भी प्रचलन में हैं तथा उस काल के देवताओं का पूजन आज भी हो रहा है।

कलाओं का विकास

सिन्धु-घाटी के लोगों ने विभिन्न प्रकार की कलाओें में भी बड़ी कुशलता प्राप्त कर ली थी। जिन कलाओं का इन लोगों ने विकास किया, वे निम्नलिखित थीं-

(1) लेखन-कला

यद्यपि इस कला का कोई लिखित पत्र, पत्थर अथवा मिट्टी का बर्तन नहीं मिला है परन्तु लगभग 550 ऐसी मुहरें मिली हैं जिन पर कुछ लिखा हुआ है। माना जाता है कि प्राचीन मेसोपोटामिया वासियों की तरह हड़प्पा वासियों ने भी लेखन-कला का आविष्कार किया था।

(अ.) लिपि

यद्यपि 1853 ईस्वी में ही प्राचीन सिन्धु लिपि के नमूने देखने को मिले थे और 1923 ईस्वी में इस लिपि के बारे में पूरी जानकारी मिल चुकी थी, फिर भी अभी तक इस लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। इस लिपि में कुल 250 से 400 लिपि संकेत पहचाने गए हैं। प्रत्येक चित्र संकेत किसी ध्वनि, वस्तु अथवा विचार का द्योतक है। सिन्धु लिपि वर्णमालात्मक नहीं, अपितु भावचित्रात्मक है।

(ब.) भाषा

कुछ विद्वानों का मत है कि सिंधु लिपि में प्राक्द्रविड़ भाषा छिपी है। अन्य विद्वानों का मत है कि इसमें संस्कृत भाषा है और कुछ विद्वानों का  मत है कि इन लेखों की भाषा सुमेरी है। ये समस्त प्रयास अधूरे सिद्ध हुए हैं। मेसोपोटामिया और मिò आदि पश्चिम एशियाई सम्यताओं की समकालीन लिपियों के साथ सिंधु लिपि का मेल बिठाने के भी प्रयत्न हुए किंतु उसमें भी सफलता नहीं मिली। इससे सिद्ध होता है कि यह सिंधु प्रदेश की अपनी लिपि है जिसका स्वतंत्र रूप से विकास हुआ था।

(स.) लम्बे लेखों का अभाव

मिस्र अथवा मेसोपोटामिया में लम्बे अभिलेख मिले हैं किंतु हड़प्पा सभ्यता से लंबे अभिलेख नहीं मिले हैं। अधिकांश अभिलेख मुहरों पर उत्कीर्ण हैं और प्रत्येक लेख में चंद लिपि-संकेत हैं। अनुमान लगाया जाता है कि धनी लोग अपनी निजी सम्पत्ति पर पहचान के लिए इन मुहरों के छापे लगाते होंगे। चूँकि अभी तक सिन्धु लिपि को पढ़ पाने में सफलता नहीं मिली है, इसलिए हड़प्पा संस्कृति के साहित्य और उनके विचारों एवं विश्वासों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।

(2) नृत्य तथा संगीत कला

सिन्धु-घाटी के लोग नाचनेे-गाने में बड़े कुशल थे। खुदाई में एक नर्तकी की मूर्ति मिली है। नर्तकी का शरीर नग्न है परन्तु उस पर बहुत से आभूषण बनाये गये हैं। इस मूर्ति के सिर के बालों को बड़ी उत्तमता से संवारा गया है। खुदाई में जो छोटे-छोटे बाजे मिले हैं उनसे भी यह ज्ञात होता है कि इस संस्कृृति के लोग संगीत-कला में रुचि रखते थे। तबले तथा ढोल के भी चिह्न कुछ स्थानों में मिले हैं।

(3) चित्रकारी

सिन्धु-घाटी के लोग चित्र-कला में बड़े कुशल थे। मुहरों की सबसे अच्छी चित्रकारी सांड तथा भैंसों की है। सांडों के चित्र अत्यन्त सजीव तथा सुन्दर हैं।

(4) मूर्ति-निर्माण-कला

सिन्धु-घाटी के लोग मूर्तियाँ बनाने में बड़े सिद्धहस्त थे। मूर्तियाँ मुलायम पत्थर तथा चट्टानों को काट कर बनाई जाती थीं। इन मूर्तियों की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं कि इनके गालों की हड्डियाँ स्पष्ट रहती हैं। इनकी गर्दन छोटी, मोटी तथा मजबूत होती है और आंखें पतली तथा तिरछी होती हैं।

(5) पात्र-निर्माण-कला

सिन्धु-घाटी के लोग मिट्टी के बर्तन बनाने की कला में निपुण थे। ये बर्तन चाक पर बनाये जाते थे और बड़े सादे होते थे। मिट्टी के विभिन्न प्रकार के खिलौने भी बनाये जाते थे।

(6) कताई तथा रंगाई कला

अनेक स्थलों की खुदाई में टेकुए तथा टेकुओं की मेखलाएँ मिली हैं, जिससे स्पष्ट है कि सिन्धु-घाटी के लोग सूत तथा ऊन कातने की कला में प्रवीण थे। वे कपड़़ों की रंगाई में बड़े कुशल होते थे।

(7) मुहर-निर्माण-कला

अनेक स्थलों की खुदाई में बहुत-सी मुहरें मिली हैं। ये मुहरें भिन्न-भिन्न प्रकार के पत्थरों, धातुओं, हाथी-दाँत तथा मिट्टी की बनी होती थीं। अधिकांश मुहरें वर्गाकार हैं जिन पर पशुओं के चित्र बने हैं और दूसरी ओर लेख लिखे हुए हैं।

(8) ताम्र-पत्र निर्माण कला

अनेक स्थलों की खुदाई में बहुत से ताम्र-पत्र मिले हैं। ये ताम्र-पत्र वर्गाकार एवं आयताकार हैं। इनमें एक ओर मनुष्य अथवा पशुओं के चित्र बने हैं और दूसरी ओर लेख लिखे हैं।

(9) धातु-कला

सिंधुवासी विभिन्न प्रकार की धातुओं से भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं के बनाने में बड़े कुशल थे। मूल्यवान रत्नों को काट-छांट कर यह लोग आभूषण बनाते थे। सोने, चांदी, ताम्बे आदि के भी आभूषण बनाये जाते थे। शंख तथा सीप से भी विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाई जाती थीं।

राजनीतिक जीवन

खुदाई में जो वस्तुएँ मिली हैं उनसे हड़प्पा सभ्यता के लोगों के राजनीतिक जीवन पर बहुत कम प्रकाश पड़ा है परन्तु उनके राजनीतिक संगठन का अनुमान लगाना असंभव नहीं है।

(1) व्यापक राजनीतिक संगठन

ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्ध, पंजाब, पूर्वी-बिलोचिस्तान तथा काठियावाड़ तक विस्तृत सिन्धु-सभ्यता के क्षेत्र में एक संगठन, एक व्यवस्था तथा एक ही प्रकार का शासन था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र में एक ही प्रकार की नाप तथा तौल प्रचलित थी, एक ही प्रकार के भवनों का निर्माण होता था, एक ही प्रकार की मूर्तियाँ बनाई जाती थी तथा एक ही प्रकार की लिपि का प्रचार था।

(2) दो राजधानियाँ

इस विशाल सिंधु साम्राज्य की सम्भवतः दो राजधानियाँ थी, एक हड़प्पा में और दूसरी मोहेनजोदड़ो में। इन्हीं दोनों केन्द्रों से उत्तर तथा दक्षिण का शासन चलता था। हड़प्पा उत्तरी साम्राज्य की और मोहेनजोदड़ो दक्षिणी साम्राज्य की राजधानी थी।

(3) शान्ति-प्रधान सभ्यता

खुदाई में कवच, शिरस्त्राण, ढाल, तलवार आदि के स्थान पर अधिकतर भाला, कुल्हाड़ी, धनुष-बाण आदि मिले है जो उनकी सामरिक प्रवृत्ति के द्योतक न होकर उनके आखेटीय जीवन की ओर संकेत करते हैं। इसलिये हम यह कह सकते हैं कि यह सभ्यता शान्ति-प्रधान सभ्यता थी और यहाँ के निवासी शान्ति का जीवन व्यतीत करते थे। उपर्युक्त शस्त्रास्त्रों का प्रयोग सम्भवतः वे केवल आखेट तथा आत्म-रक्षा के लिए करते थे।

(4) लोकतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था

खुदाई में विशाल सभा-भवनों तथा स्नानागारों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि इस सभ्यता में राजाओं तथा उनके राज-प्रसादों का कोई अस्तित्त्व न था। सिन्धु-सभ्यता की प्राप्त सामग्रियाँ उनके सामूहिक जीवन की द्योतक हैं। इस प्रकार यह सभ्यता लोकतन्त्रात्मक भावना को प्रकट करती है किन्तु लोकतन्त्रात्मक होने पर भी यह सभ्यता सशक्त केन्द्रीयभूत शासन की द्योतक है जो दो प्रधान केन्द्रों में विभक्त थी। उत्तरी क्षेत्र का शासन हड़प्पा से तथा दक्षिणी क्षेत्र का शासन मोहेनजोदड़ो से संचालित होता था।

सिन्धु-सभ्यता का विनाश

विद्वानों की धारणा है कि ईसा से लगभग 1,000 वर्ष पूर्व इस सभ्यता का विनाश हो गया। यद्यपि इस सभ्यता के विनाश के कारणों का निश्चित रूप से पता नहीं लगता है परन्तु विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि सिन्धु-नदी में बाढ़ आ जाने, अकाल पड़ जाने, भूकम्प आ जाने, जलवायु के परिवर्तन होने, विदेशी आक्रमण होने अथवा राजनीतिक एवं आर्थिक विघटन होने के कारण इस सभ्यता का विनाश हुआ होगा।

इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली लकड़ी का, मिट्टी की ईंटें पकाने और भवन बनाने में बड़े स्तर पर उपयोग होता था। लंबे समय तक कृषि का विस्तार, बड़े पैमाने पर चराई और ईंधन के लिए लकड़ी का उपयोग होते रहने के कारण यहाँ की प्राकृतिक वनस्पति नष्ट हो गई होगी जिससे बाढ़ एवं अकाल का खतरा लगातार बढ़ता चला गया होगा। विभिन्न विद्वानों ने सिंधु सभ्यता के विनाश के अलग-अलग कारण बताये हैं-

(1) जलप्लावन एवं भूकम्प

मार्शल, एम. आर. साहनी तथा रेइक्स आदि विद्वानोें के अनुसार सिंधु सभ्यता का विनाश, जलप्लावन अथवा शक्तिशाली भूकम्प के कारण हुआ होगा किंतु यह विचार उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि जल प्लावन अथवा भूकम्प से एक या कुछ नगर प्रभावित हो सकते हैं न कि पंजाब से लेकर सिंध, गुजरात, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश तक का विशाल क्षेत्र।

(2) जलवायु परिवर्तन

आरेल स्टीन एवं अमलानंद घोष आदि विद्वानों का मत है कि जलवायु परिवर्तन एवं अनावृष्टि के कारण सिंधु सभ्यता का विनाश हुआ। इस कारण को अंतिम रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इस मत को स्वीकार करने का अर्थ यह बात स्वीकार करना है कि जलवायु परिवर्तन एवं अनावृष्टि के कारण सिंधु सभ्यता के पूरे क्षेत्र के मानव अपनी बस्तियों को खाली करके चले गये जिससे दीर्घ काल के लिये यह क्षेत्र निर्जन हो गया। जबकि हम जानते हैं कि इसी क्षेत्र एवं उसके आसपास के क्षेत्र में उस काल में आर्य बस्तियां अस्तित्व में थीं।

(3) बाह्य आक्रमण

1934 ई. में गार्डन चाइल्स ने एक संभावना व्यक्त की थी कि हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिये आर्यों का आक्रमण उत्तरदायी है। इस मत को स्वीकार करने वाले विद्धान अपने मत के समर्थन में सैंधव नगरों के उत्खननों में विशाल संख्या में प्राप्त कंकालों का उल्लेख करते हैं जिन पर कुछ पैने हथियारों द्वारा बने हुए घावों के निशान हैं।

चूंकि हड़प्पा सभ्यता शांति प्रिय सभ्यता थी जहाँ से अधिक संख्या में हथियार नहीं मिले हैं, इसलिये यह संभावना व्यक्त की गई है कि हड़प्पा सभ्यता के विस्तृत साम्राज्य पर किसी बड़ी शक्ति ने योजनाबद्ध तरीके से आक्रमण किया होगा जिसके कारण सैंधव लोगों को अपनी बस्तियां खाली करके अन्य स्थानों को जाना पड़ा होगा।

इस मत को पूर्णतः स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि किसी बाह्य शक्ति अथवा पड़ौसी के आक्रमण करने से इतनी बड़ी सभ्यता नष्ट होनी संभव नहीं है जिसका क्षेत्रफल आज के पश्चिमी यूरोप अथवा आज के पाकिस्तान से भी बड़ा हो।

(4.) सिंधु तथा सरस्वती द्वारा मार्ग परिवर्तन

हड़प्पा सभ्यता के अब तक लगभग 1400 स्थल खोजे गये हैं, इनमें से अधिकांश स्थल सरस्वती नदी के किनारे मिले हैं। सरस्वती नदी ने विगत कुछ हजार वर्षों में कई बार अपना मार्ग बदला। सिंधु ने भी अपना मार्ग कई बार बदला है। इसलिये संभव है कि सिंधु तथा सरस्वती के मार्ग में बड़ा परिवर्तन आने के कारण ही हड़प्पा सभ्यता के लोग अपनी बस्तियां खाली करके अन्य स्थानांे को चले गये हों। यही कारण अधिक उचित लगता है।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट है कि आज से लगभग पाँच सहस्र वर्ष पूर्व सिन्धु-सरस्वती की घाटी में एक ऐसी समुन्नत सभ्यता अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित तथा फलान्वित हुई जिसकी उत्कृष्टता का अवलोकन कर विश्व के देश आज भी आश्चर्य-चकित हो जाते हैं। हड़प्पा सभ्यता ने हिन्दू धर्म को बहुत कुछ दिया जिसका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है।

हड़प्पा सभ्यता लगभग दो हजार साल तक फली फूली किंतु किसी कारण से काल के गर्त में समा गई। जब तक इस सभ्यता की लिपि को पढ़ नहीं लिया जाता, तब तक इस सभ्यता की बहुत सी बातों पर रहस्य का पर्दा पड़ा ही रहेगा। एक संभावना यह भी है कि चूंकि इस क्षेत्र से केवल बर्तनों एवं उपकरणों पर छोटे-छोटे लेख ही प्राप्त हुए हैं।

इसलिये संभवतः सिंधु लिपि को पढ़ लिये जाने के बाद भी इस सभ्यता के बहुत से रहस्य हमेशा के लिये रहस्य ही बने रहेंगे। कम से कम इस रहस्य को खोल पाना अत्यंत दुष्कर होगा कि इस सभ्यता का अंत क्यों हुआ।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

भारत में लौह युगीन संस्कृति (अध्याय 5)

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भारत में लौह युगीन संस्कृति

भारत में लौह युगीन संस्कृति ताम्र-कांस्य काल की संस्कृति के काफी बाद प्रकट हुई। चूंकि धातु के रूप में सबसे पहले ताम्बा खोजा गया और उसके बाद कांस्य की खोज हुई एवं अंत में लोहे की खोज हुई इसलिए धरती भर पर लौह युगीन संस्कृतियां काफी समय बाद ही प्रकट हो सकीं। कुछ बस्तियां पाषाण काल के बाद सीधे ही लौह संस्कृति में प्रवेश कर गईं क्योंकि वे ताम्र एवं कांस्य से परिचित नहीं थी किंतु अन्य बस्तियों के लोग जब लौह संस्कृति में प्रवेश कर चुके थे, तब वे आक्रांताओं अथवा घुमक्कड़ों के रूप में अपने साथ लोहा लेकर आ गए।

भारत में ताम्र-कांस्य काल के बाद भारत में लौह युगीन संस्कृति आरम्भ हुआ। हुई। इसे लौह-काल भी कहा जाता है। विद्वानों के अनुसार लौह-काल का आरम्भ उत्तर तथा दक्षिण भारत में एक साथ नही हुआ। दक्षिण भारत में पाषाण-काल के बाद ही लोहे का प्रयोग आरम्भ हो गया था, परन्तु उत्तर भारत में ताम्र-काल के बाद इसका प्रयोग हुआ।

लोहे की खोज

विश्व में सर्वप्रथम हित्ती नामक जाति ने लोहे का उपयोग करना आरम्भ किया जो एशिया माइनर में 1800 ई.पू.-1200 ई.पू. के लगभग निवास करती थी। 1200 ई.पू. के लगभग इस शक्तिशाली साम्राज्य का विघटन हुआ और उसके बाद ही भारत में लोहे का प्रयोग आरंभ हुआ।

भारत में लौह युगीन संस्कृति के जन्म-दाता

विद्वानों की धारणा है कि लौह-काल के लोग पामीर पठार की ओर से आये थे और धीरे-धीरे महाराष्ट्र में फैल गये। कालान्तर में मध्य प्रदेश के वनों को पार कर ये लोेग बंगाल की ओर फैल गये।

मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन

लौह-काल में मनुष्य के जीवन का वैज्ञानिक विकास आरम्भ हो गया और उसके जीवन में बड़े क्रान्तिकारी परिवर्तन होने लगे। मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने तथा उसकी सभ्यता तथा संस्कृति की उन्नति में अन्य किसी धातु से उतनी सहायता नहीं मिली जितनी लोहे से मिली है। लोहे के उपकरण कांस्य उपकरणों की अपेक्षा अधिक मजबूत सिद्ध हुए। प्रारंभिक लौह युगीन बस्तियों के अवशेष भी अपेक्षाकृत अधिक स्थलों से प्राप्त हुए हैं।

भारत में लौह युगीन संस्कृति का काल निर्धारण

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कुछ विद्वानों के अनुसार भारत में लोहे का प्रयोग हिमालय पर्वत के पामीर पठार क्षेत्र से आने वाले लोगों ने आरम्भ किया। यह घटना ई.पू. 1000 से लेकर ई.पू. 800 के बीच कभी हुई होगी। अन्य विद्वानों की धारणा है कि उत्तर भारत में लौह धातु का प्रारम्भ ईसा से लगभग 1,000 वर्ष पूर्व हुआ होगा। जबकि दक्षिण भारत में लोहे का प्रयोग ई.पू. 800 से प्रचुर मात्रा में किया जाने लगा। लौह उत्पादन की प्रक्रिया का ज्ञान भारत में बाहर से नहीं आया। कतिपय विद्वानों के अनुसार लौह उद्योग का प्रारंभ मालवा एवं बनास संस्कृतियों से हुआ। कर्नाटक के धारवार जिले से ई.पू. 1000 के लोहे के अवशेष मिले हैं। लगभग इसी समय गांधार (अब पाकिस्तान में) क्षेत्र में लोहे का उपयोग होने लगा। यहाँ से मृतकों के साथ शवाधानों में गाढ़े गये लौह उपकरण भारी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। ऐसे औजार बिलोचिस्तान में मिले हैं। लगभग इसी काल में पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी लोहे का प्रयोग हुआ। खुदाई में तीर के नोंक, बरछे के फल आदि मिले हैं जिनसे अनुमान होता है कि लगभग ई.पू.800 से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लौहास्त्रों का प्रयोग आमतौर पर होने लगा था। लोहे का उपयोग पहले युद्ध में और बाद में कृषि में हुआ।

भारत में लौह युगीन संस्कृति के साहित्यिक प्रमाण

भारत में लोहे की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये हमें साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों ही प्रमाण मिलते हैं। यूनानी साहित्य में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भारतीयों को सिकंदर के भारत आने से पहले से ही लोहे का ज्ञान था। भारत के कारीगर लोहे के उपकरण बनाने में निष्णात थे। उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में हमें इस धातु के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ई.पू. आठवीं शताब्दी में भारतीयों को लोहे का ज्ञान प्राप्त हो चुका था।

भारत में लौह युगीन संस्कृति के पुरातात्विक प्रमाण

लोहे की प्राचीनता के सम्बन्ध में साहित्यिक उल्लेखों की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से होती है। अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, काम्पिल्य आदि स्थलों के उत्खननों में लौह युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस काल का मानव एक विशेष प्रकार के मृद्भाण्डों का प्रयोग करता था जिन्हें चित्रित धूसर भाण्ड कहा गया है।

इन स्थानों से लोहे के औजार तथा उपकरण यथा तीर, भाला, खुरपी, चाकू, कटार, बसुली आदि मिलते हैं। अतरंजीखेड़ा की खुदाई से धातु शोधन करने वाली भट्टियों के अवशेष मिले हैं। इस संस्कृति का काल 1000 ई.पू. माना गया है। पूर्वी भारत में सोनपूर, चिरांद आदि स्थानों पर की गई खुदाई में लोहे की बर्छियां, छैनी तथा कीलें आदि मिली हैं जिनका समय 800 ई.पू. से 700 ई.पू. माना गया है।

भारत में लौह युगीन संस्कृति की प्रारंभिक बस्तियां

1. सिन्धु-गंगा विभाजक तथा ऊपरी गंगा घाटी क्षेत्र

चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति इस क्षेत्र की विशेषता है। अहिच्छत्र, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोह, काम्पिल्य, जखेड़ा आदि से इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। चित्रित धूसर भाण्ड एक महीन चूर्ण से बने हुए हैं। ये चाक निर्मित हैं। इनमें अधिकांश प्याले और तश्तरियां हैं।

मृद्भाण्डों का पृष्ठ भाग चिकना है तथा रंग धूसर से लेकर राख के रंग के बीच का है। इनके बाहरी तथा भीतरी तल काले और गहरे चॉकलेटी रंग से रंगे गये हैं। खेती के उपकरणों में जखेड़ा में लोहे की बनी कुदाली तथा हंसिया प्राप्त हुई हैं। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अन्य सभी क्षेत्रों में लोहे की वस्तुएं मिली हैं।

अतरंजीखेड़ा से लोहे की 135 वस्तुएं प्राप्त की गई हैं। हस्तिनापुर तथा अतरंजीखेड़ा में उगाई जाने वाली फसलों के प्रमाण मिले हैं। हस्तिनापुर में केवल चावल और अजरंजीखेड़ा में गेहूँ और जौ के अवशेष मिले हैं। हस्तिनापुर से प्राप्त पशुओं की हड्डियों में घोड़े की हड्डियां भी हैं।

2. मध्य भारत

मध्य भारत में नागदा तथा एरण इस सभ्यता के प्रमुख स्थल हैं। इस युग में इस क्षेत्र में काले भाण्ड प्रचलित थे। पुराने ताम्रपाषाण युगीन तत्व इस काल में भी प्रचलित रहे। इस स्तर से 112 प्रकार के सूक्ष्म पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। कुछ नये मृद्भाण्डों का भी इस युग में प्रचलन रहा। घर कच्ची ईंटों से बनते थे।

ताम्बे का प्रयोग छोटी वस्तुओं के निर्माण तक सीमित था। नागदा से प्राप्त लोहे की वस्तुओं में दुधारी, छुरी, कुल्हाड़ी का खोल, चम्मच, चौड़े फलक वाली कुल्हाड़ी, अंगूठी, कील, तीर का सिरा, भाले का सिरा, चाकू, दरांती इत्यादि सम्मिलित हैं। एरण में लौहयुक्त स्तर की रेडियो कार्बन तिथियां निर्धारित की गई हैं जो 100 ई.पू. से 800 ई.पू. के बीच की हैं।

3. मध्य निम्न गंगा क्षेत्र

इस क्षेत्र के प्रमुख स्थल पाण्डु राजार ढिबि, महिषदल, चिरण्ड, सोनपुर आदि हैं। यह अवस्था पिछली ताम्र-पाषाण-कालीन अवस्था के क्रम में आती है, जिसमें काले-लाल मृद्भाण्ड देखने को मिलते हैं। लोहे का प्रयोग नई उपलब्धि है। महिषदल में लौहयुक्त स्तर पर सूक्ष्म पाषाण उपकरण भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। यहाँ से धातु मल के रूप में लोहे की स्थानीय ढलाई का प्रमाण मिलता है। महिषदल में लोहे की तिथि 750 ई.पू. के लगभग की है।

4. दक्षिण भारत

दक्षिण भारत में प्रारंभिक कृषक समुदायों की बस्तियां 3000 ई.पू. में दिखाई देती हैं। यहाँ मानव के आखेट संग्रहण अर्थव्यवस्था से, खाद्योत्पादक अर्थव्यवस्था की ओर क्रमबद्ध विकास के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। यहाँ से प्राप्त साक्ष्य संकेत देते हैं कि उस काल में गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा, पेनेरू तथा कावेरी नदियों के निकट मानव की बसावट हो चुकी थी।

ये क्षेत्र शुष्क खेती तथा पशुचारण के लिये उपयुक्त थे। इस युग में पत्थरों की कुल्हाड़ियों को घिसकर तथा चमकाकर तैयार किया गया था। इस युग का उद्योग, पत्थरों की कुल्हाड़ियों का उद्योग कहा जा सकता है। इन बस्तियों के लोग ज्वार-बाजरा की खेती करते थे।

इन बस्तियों में सभ्यता के तीन चरण मिले हैं- प्रथम चरण (2500 ई.पू. से 1800 ई.पू.) में पत्थर की कुल्हाड़ियां मिलती हैं। द्वितीय चरण (1800 ई.पू. से 1500 ई.पू.) में ताम्र एवं कांस्य औजारों की प्राप्ति होती है। तृतीय चरण (1500 ई.पू. से 1100 ई.पू.) में इनका बाहुल्य दिखाई देता है तथा इसके बाद लौह निर्मित औजारों की प्राप्ति होती है।

दक्षिण भारत में नव-पाषाण-कालीन बस्तियां तथा ताम्र-पाषाण-कालीन बस्तियां, लौह युग के आरंभ होने तक अपना अस्तित्व बनाये रहीं। महाराष्ट्र में भी ताम्र-पाषाण-कालीन बस्तियां, लौह युग के आरंभ होने तक अपना अस्तित्व बनाये रहीं। ब्रह्मगिरि, पिक्लीहल, संगनाकल्लू, मास्की, हल्लूर, पोयमपल्ली आदि में भी ऐसी ही स्थिति थी।

दक्षिणी भारत में लौह युग का प्राचीनतम चरण पिक्लीहल तथा हल्लूर की खुदाई एवं ब्रह्मगिरि के शवाधानों के आधार पर निश्चित किया गया है। इन शवाधानों के गड्ढों में पहली बार लोहे की वस्तुएं, काले एवं लाल मृद्भाण्ड तथा फीके रंग के भूरे तथा लाल भाण्ड प्राप्त हुए हैं। ये मृदभाण्ड जोरवे के मृद्भाण्डों जैसे हैं। टेकवाड़ा (महाराष्ट्र) से भी ऐसे ही पाषाण प्राप्त हुए हैं। कुछ बस्तियों में पत्थरों की कुल्हाड़ियों एवं फलकों का प्रयोग, लौहकाल में भी होता रहा।

भारत में लौह युगीन संस्कृति का प्रारंभ दक्षिण भारत में हुआ

कुछ विद्वानों की धारणा है कि भारत में लोहे का सर्वप्रथम प्रयोग दक्षिण भारत में हुआ। लौह-काल के लोग पामीर पठार की ओर से आये थे और धीरे-धीरे महाराष्ट्र में फैल गये। कालान्तर में मध्य प्रदेश के वनों को पार कर ये लोेग बंगाल की ओर फैल गये।

दक्षिण में ताम्रकांस्य काल पर भ्रांति

प्रारंभिक खोजों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि दक्षिण भारत में लौह संस्कृति का प्रारम्भ, पाषाण काल के बाद ही हो गया। दक्षिण में ताम्र-कांस्य काल नहीं आया। हमारी राय में यह कहना उचित नहीं है कि दक्षिण भारत में पाषाण काल के बाद सीधा ही लौह काल आ गया, वहां ताम्र-कांस्य काल नहीं आया।

हम देखते हैं कि दक्षिण भारत की कृषक बस्तियों के दूसरे चरण (1800 ई.पू. से 1500 ई.पू.) में ताम्र एवं कांस्य औजारों की प्राप्ति होती है। तृतीय चरण (1500 ई.पू. से 1100 ई.पू.) में इनका बाहुल्य दिखाई देता है तथा इसके बाद के काल में लौह निर्मित औजारों की प्राप्ति होती है। अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत में ताम्र-कांस्य काल नहीं आया ?

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

महा-पाषाण संस्कृति (अध्याय 6)

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महा-पाषाण संस्कृति

भारत के विभिन्न स्थानों से महा-पाषाण संस्कृति के महापाषाणीय शवाधान (मेगालिथस्) प्राप्त हुए हैं। महा-पाषाण संस्कृति के लोग अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे तथा उनकी सुरक्षा के लिये बड़े-बड़े पाषाणों का प्रयोग करते थे। इस कारण इन्हें वृहत्पाषाण अथवा महापाषाण कहा गया है। इन शवाधानों की खुदाइयों में लोहे के औजार, हथियार तथा उपकरण प्रचुरता से मिलते हैं।

महापाषाण संस्कृति का काल निर्धारण

महा-पाषाण संस्कृति का उदय ई.पू. 1000 के आसपास दक्षिण भारत में हुआ। यह संस्कृति दक्षिण भारत में कई शताब्दियों तक अस्तित्व में रही। बाद में महा-पाषाण संस्कृति का प्रसाद उत्तर भारत में भी हुआ। माना जाता है कि दक्षिण भारत में लौह युग आरंभ होने के साथ ही महापाषाणीय शवाधानों के निर्माण की परम्परा आरंभ हुई।

ब्रह्मगिरि से प्राप्त महापाषाणीय शवाधानों का काल ईसा पूर्व तीसरी सदी से ईसा पूर्व पहली सदी के बीच किया गया है। इस प्रकार महा-पाषाण संस्कृति का काल निर्धारण अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है।

महापाषाण संस्कृति के प्रमुख क्षेत्र

दक्षिण भारत

इस तरह के शवाधान महाराष्ट्र में नागपुर के पास, कर्नाटक में मास्की, आंध्र प्रदेश में नागार्जुन कोंडा तथा तमिलनाडु में अदिचलाल्लूर तथा केरल में पाई गई है। महापाषाणीय शवाधानों के निर्माण के तरीकों ने बस्तियों की योजनाओं को भी प्रभावित किया किंतु खेती और पशुचारण के काम परम्परागत रूप से होते रहे।

मद्रास के तिन्नेवेली जिले के आदिचल्लूर नामक स्थान से कुछ पात्र मिले हैं। इन पात्रों में हथियार, औजार, आभूषण और अन्य सामग्री रख दी जाती थी। इस प्रकार के पात्रों का उल्लेख तमिल साहित्य में भी मिलता है। ब्रह्मगिरि, कोयम्बटूर जिले के सुलर, पाण्डिचेरी के अरिकमेडु से भी महापाषाणीय शवाधान मिले हैं।

उत्तर भारत

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महा-पाषाण संस्कृति के महा-पाषाणीय शवाधान उत्तर प्रदेश के बांदा और मिर्जापुर जिलों में भी देखने को मिलते हैं। उत्तरी गुजरात के दारापुट में एक महापाषाणिक रचना मिली है जो एक प्राचीन चैत्य भी हो सकती है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में कराची जिले के कलक्टर कैप्टेन प्रीडी ने कहा था कि सम्पूर्ण पर्वतीय जिले में बड़ी संख्या में प्रस्तर की कब्रें मौजूद हैं जो हमारी पश्चिमी सीमा तक बढ़ आई हैं। इन कब्रों में द्वार का अभाव है अन्यथा ये शेष बातों में दक्षिण भारत की कब्रों के समान ही हैं। 1871 से 1873 ईस्वी की अवधि में कार्लाइल ने पूर्वी राजथान का दो बार भ्रमण किया। उन्होंने फतहपुर सीकरी के पास अनेक संगोरा शवाधानों की उपस्थिति का उल्लेख किया परन्तु वे महापाषाणिक शवाधान नहीं हैं। वे प्रस्तरों के आयताकार ढेर हैं जिनमें प्रस्तरों के ही छोटे शवाधान कक्ष बने हुए हैं। इन शवाधानों की छतें भी प्रस्तरों की हैं। इन संगोरों में अधिकतर राख एवं निस्तप्त हड्डियां भरी हुई हैं। कार्लाइल ने देवसा में भी महापाषाण समूहों को देखा था। कश्मीर के बुर्झामा नामक स्थान पर भी महापाषाणिक पांच विशालाकाय पत्थर मिले हैं। अनुमान है कि इन्हें 400 ई.पू. से 300 ई.पू. के काल में रखा गया होगा। बहुत से शवाधान खेती एवं मानव बस्तियों का प्रसार होने के कारण काल के गाल में समा गए हैं।

महापाषाण शवाधानों का निर्माण

महा-पाषाण संस्कृति के महापाषाणीय शवाधानों के निर्माण के कई तरीके देखने में आते हैं। कभी-कभी मृतकों की हड्डियां बड़े कलशों में जमा करके गड्ढे में गाड़ी जाती थीं। इस गड्ढे को ऊपर से पत्थरों अथवा केवल पत्थर से ढंक दिया जाता था। कभी-कभी दोनों ही तरीके अपनाए जाते थे। कलश तथा गड्ढों में कुछ वस्तुएं रखी जाती थीं।

कुछ शवों को पकाई हुई मिट्टी की शव पेटिकाओं में भी रखा जाता था। कुछ मामलों में मृतक के शवाधान पत्थरों से बनाये गये हैं। ग्रेनाइट पत्थरों की पट्टिकाओं से बने ताबूतनुमा शवाधानों में भी शवों को दफनाया गया है। भारत में चार प्रकार के महापाषाण-युगीन शवाधानों के अवशेष मिले हैं-

1. संगौरा वृत्त

इस प्रकार के शवाधान अनेक गोलाकार पत्थरों को सम्मिलित कर बनाये गये हैं। इन संगौरा वृत्तों को देखकर लगता है कि उस समय शव को लोहे के औजारों, मृत्तिका पात्र या कलश और पालतू जानवरों की अस्थियों के साथ दफना दिया जाता था। उसके बाद समाधि के चारों ओर गोल पत्थरों को जड़ दिया जाता था। इस प्रकार के संगौरा वृत्त नयाकुण्ड बोरगांव (महाराष्ट्र) तथा चिंगलपेट (तमिलनाडु) में मिलते हैं।

2. ताबूत

यह भी अंत्येष्टि की एक विधि है। इसमें पहले शव को दफनाकर चारों ओर से छोटे-छोटे पत्थरों के खम्भों से घेर दिया जाता था। फिर इन खम्भों के ऊपर एक बड़ी पत्थर की सिल्ली रखकर समाधि पर छाया-छत्र जैसी आकृति बना दी जाती थी। इस प्रकार के शवाधान उत्तर प्रदेश के बांदा और मिर्जापुर जिलों में मिलते हैं।

3.  मैनहरि

इस प्रकार के शवाधानों में शव को गाड़कर उसके ऊपर एक बड़ा सा स्तम्भाकार स्मारक पत्थर लगा दिया जाता था जो उस स्थान पर समाधि होने का संकेत देता था। इन स्तम्भाकार पत्थरों की लम्बई 1.5 मीटर से 5.5 मीटर तक पाई जाती है। इस प्रकार की समाधियां कर्नाटक के मास्की और गुलबर्गा क्षेत्रों से मिली हैं।

4. महापाषाण तुम्ब

इस प्रकार के शवाधानों के निर्माण में सर्वप्रथम पत्ािर की पट्टियों से घिरे हुए चबूतरे जैसे स्थान पर शव एक पत्थर की सिल्ली पर रखा जाता था। फिर शव के चारों कोनों पर स्थित खम्भों पर एक और पत्थर की पट्टी रखी जाती थी। उपरोक्त बनावट किसी मेज का आभास देती है। इसी कारण इस प्रकार की समाधियों को तुम्ब कहा जाता है जिसका अर्थ है- पत्थर की मेज। इस प्रकार की समाधियां कर्नाटक के ब्रह्मगिरि एवं तमिलनाडु के चिंगलपेट नामक स्थानों पर प्रायः देखी गई हैं।

5. अन्य समाधियां

महा-पाषाण संस्कृति स्थलों से उपरोक्त चार प्रकार की समाधियों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के शवाधान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पाये गये हैं। डॉ. विमलचंद्र पाण्डेय ने आठ प्रकार के महापाषाणीय शवाधानों का वर्णन किया है- (1) सिस्ट समाधि, (2) पिट सर्किल, (3) कैर्न सर्किल, (4) डोल्पेन, (5) अम्बेला स्टोन, (6) हुड स्टोन, (7) कन्दराएं और (8) मोहिर।

शवाधानों से प्राप्त सामग्री

इन शवाधानों से जो सामग्री मिली है उसका प्रयोग तत्कालीन उत्तर-पश्चिम भारत तथा दक्षिण भारत में किया जाता था। कुछ विशेष प्रकार के बर्तन भी पाये गये हैं। इन शवाधानों से प्राप्त, ‘पायों वाले प्याले’ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि उन दिनों की तथा उनसे भी पुरानी भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र तथा ईरान की कब्रों से मिले हैं।

घोड़ों की हड्डियां और घोड़ों से सम्बन्धित सामग्री का मिलना इस बात की ओर संकेत करता है कि घुड़सवारी वाले लोग इस क्षेत्र में पहुंच गये थे। घोड़ों को दफनाने के उदाहरण नागपुर के निकट जूनापानी से प्राप्त होते हैं। ये महापाषाणीय उदाहरण विशेष रूप से मृतकों के अंतिम संस्कार के तरीके तथा देशी एवं विदेशी परम्पराओं का मिश्रण प्रस्तुत करते हैं।

महापाषाण सभ्यता की लौह सामग्री

महा-पाषाण संस्कृति के स्थलों, विदर्भ में नागपुर के निकट जूनापानी से लेकर दक्षिण में आदिचनल्लूर तक लगभग 1500 किलोमीटर क्षेत्र में लोहे की वस्तुएं समान रूप से पाई गई हैं। लोहे की विभिन्न प्रकार की वस्तुएं, जैसे चपटी लोहे की कुल्हाड़ियां, जिसमें पकड़ने के लिये लोहे का दस्ता होता था, फावड़े, बेल्चे, खुरपी, कुदालें, हंसिये, फरसे, फाल, सब्बल, बरछे, छुरे, छैनी, तिपाइयां, स्टैण्ड, तश्तरियां, लैम्प, कटारें, तलवारें, तीर के फल तथा बरछे के फल, त्रिशूल आदि प्राप्त हुए हैं।

इन औजारों के अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार की वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। जैसे- घोड़े के सामान जिनमें लगाम का लोहे का वह हिस्सा जो घोड़े के मुंह में होता है, फंदे के आकार वाली नाक तथा मुंह पर लगाने वाली छड़ें आदि। धातु की अन्य वस्तुओं में सबसे अधिक संख्या में पशुओं की गर्दन में बांधी जाने वाली ताम्र व कांस्य की घंटियां प्राप्त हुई हैं। इस संस्कृति के लोग काले व लाल रंग के बर्तनों का उपयोग करते थे।

दक्षिण भारत की महापाषाण सभ्यता से चित्रित धूसर भाण्ड परम्परा के साथ लोहे के जो उपकरण मिले हैं, उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि महा-पाषाण संस्कृति के मानव द्वारा लौह उपकरणों का उपयोग सीमित कार्य के लिये ही किया गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

वैदिक सभ्यता का प्रसार (अध्याय 7)

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वैदिक सभ्यता का प्रसार

इस अध्याय में वैदिक राजन्य तथा उनकी अर्थव्यवस्था के विशेष संदर्भ में वैदिक सभ्यता का प्रसार विषय पर पाठ्य-सामग्री प्रस्तुत की गई है। वैदिक सभ्यता का प्रसार आर्य जाति के द्वारा किया गया। यह सभ्यता बहुत विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी। वैदिक सभ्यता का प्रसार भारत के पश्चिम में वर्तमान अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक विस्तृत था।

आर्य जाति

‘आर्य’ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- श्रेष्ठ अथवा अच्छे कुल में उत्पन्न। व्यापक अर्थ में आर्य एक जाति का नाम है जिसके रूप, रंग, आकृति तथा शरीर का गठन विशेष प्रकार का होता है। आर्य लम्बे डील-डौल के, हष्ट-पुष्ट, गोरे-रंग के, लम्बी नाक वाले वीर तथा साहसी होते थे।

भारत, ईरान तथा यूरोप के विभिन्न देशों के निवासी आर्यों के वंशज माने जाते हैं। आर्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वेदों में हुआ है। आर्यों ने स्वयं को आर्य और अपने विरोधियों को दस्यु अथवा दास कहना आरम्भ किया क्योंकि आर्य स्वयं को, अनार्यों से अधिक श्रेष्ठ तथा कुलीन समझते थे।

आर्य लोग शीतोष्ण कटिबन्ध के निवासी थे और दूध, मांस तथा गेहूँ इनके मुख्य खाद्य-पदार्थ थे। ठंडी जलवायु में रहने तथा पौष्टिक पदार्थ खाने के कारण ये बलिष्ठ, वीर तथा साहसी होते थे। ये लोग सभ्यता के आरम्भिक काल में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमा करते थे।

आर्य जाति के लोग विभिन्न प्रकार के पशुओं को पालते थे और कृषि करना भी जानते थे। आर्य बड़ेे युद्ध-प्रिय होते थे और अपने हथियारों को बड़ी चतुरता से चला सकते थे। आर्यों को प्रकृति से बड़ा प्रेम था। ये लोग नवीन विचारों तथा भावों को ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।

आर्यों का आदि देश

आर्यों का मूल निवास स्थान कहाँ था, यह एक अत्यन्त विवाद-ग्रस्त प्रश्न है। वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘आर्यों के मूल स्थान या निवास स्थान की विवेचना जान-बूझकर नहीं की गई है, क्योंकि इस विषय पर कोई भी धारणा स्थापित नहीं हो सकी है।’

इनके आदि देश के अन्वेषण करने में विद्वानों ने भाषा-विज्ञान, पुरातत्त्व तथा जातीय विशेषताओं का सहारा लिया है। चूंकि इन विद्वानों ने विभिन्न साधनों का सहारा लिया है और विभिन्न दृष्टिकोणों से इस समस्या पर विचार किया है इसलिये ये विद्धान विभिन्न निष्कर्षों पर पहुंचे हैं।

विद्वानों ने आर्यों के आदि देश के सम्बन्ध में चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है- (1) यूरोपीय सिद्धान्त, (2) मध्य एशिया सिद्धान्त, (3) आर्कटिक प्रदेश का सिद्धान्त तथा (4) भारतीय सिद्धान्त।

(1) यूरोपीय सिद्धान्त

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भाषा तथा संस्कृति की समानता के आधार पर कुछ विद्वानों ने यूरोप को आर्यों का आदि-देश बतलाया है। आर्य लोग सर्वाधिक संख्या में भारतवर्ष, ईरान तथा यूरोप के विभिन्न देशों में पाये जाते हैं। इनकी भाषा में बड़ी समानता पायी जाती है। पितृ, पिदर, पेटर तथा फादर और मातृ, मादर, मेटर तथा मदर शब्द एक ही अर्थ में संस्कृत, फारसी, लैटिन तथा अंग्रेजी भाषाओं में प्रयोग किये जाते हैं। इन भाषाओं को हिन्द-यूरोपीय परिवार की भाषाएं कहते हैं। अपने परिवर्तित रूपों में ये भाषाएं आज भी समस्त यूरोप, ईरान और भारतीय उप-महाखंड के अधिकतर हिस्सों में बोली जाती हैं। अज, श्वान तथा अश्व जैसे पशुवाचक शब्द और भूर्ज, पीतदारू तथा द्विफल जैसे वृक्षों के नाम समस्त हिंद-यूरोपीय भाषाओं में एक समान पाए जाते हैं। ये समान शब्द यूरेशिया की वनस्पति और पशुओं के सूचक हैं। इनसे ज्ञात होता है कि आर्य लोग नदियों और जंगलों से परिचित थे। एक रोचक बात यह है कि आर्यों ने अनेक पर्वतों को पार किया फिर भी पहाड़ों के लिए समान शब्द कुछ ही आर्य-भाषाओं में मिलते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले मानवों के पूर्वज कभी एक स्थान पर रहते रहे होंगे।

डॉ. पी. गाइल्स के विचार में आस्ट्रिया-हंगेरी का मैदान आर्यों का आदि-देश था क्योंकि यह मैदान समशीतोष्ण कटिबन्ध में स्थित है और वे समस्त पशु अर्थात् गाय, बैल, घोड़ा, कुत्ता तथा वनस्पति अर्थात् गेहूँ, जौ आदि इस मैदान में पाये जाते हैं, जिनसे प्राचीन आर्य परिचित थे।

पेन्का ने जर्मनी प्रदेश को और नेहरिंग ने दक्षिणी रूस के घास के मैदान को आर्यों का आदि-प्रदेश बताया है। कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यों का मूल निवास आलप्स पर्वत के पूर्वी क्षेत्र में यूरेशिया में कहीं पर था। जिन विद्वानों ने यूरोप को आर्यों का आदि देश बताया है उनका तर्क है कि यह मैदान उन स्थानों के निकट है जहाँ यूरोप के आर्यों की भिन्न-भिन्न शाखाएँ निवास कर रही हैं।

चूंकि यूरोप में आर्यों की संख्या एशिया के आर्यों से अधिक है, इसलिये यह सम्भव है कि आर्य लोग पश्चिम से पूर्व की ओर गये हों। इस क्षेत्र में ऐसे सघन वन, मरूभूमि अथवा पर्वतमालाएँ नही हैं जिन्हें पार नहीं किया जा सकता। अतः पश्चिम की ओर से पूर्व को जाना अत्यन्त सरल है। यूरोपीय सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि प्रव्रजन प्रायः पश्चिम से पूर्व को हुआ है, पूर्व से पश्चिम को नहीं।

(2) मध्य एशिया का सिद्धान्त

जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने मध्य-एशिया को आर्योंं का आदि-देश बताया है। उनके अनुसार आर्य जाति तथा उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान हमें वेदों तथा अवेस्ता से प्राप्त होता है जो क्रमशः भारतीय तथा ईरानी आर्यों के धर्म ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से अनुमान होता है कि भारतीय तथा ईरानी आर्य बहुत दिनों तक साथ निवास करते होंगे।

इनका आदि-देश भारत तथा ईरान के सन्निकट कहीं रहा होगा। वहीं से एक शाखा ईरान को, दूसरी भारतवर्ष को और तीसरी यूरोप को गई होगी। वेदों तथा अवेस्ता से ज्ञात होता है कि प्राचीन आर्य पशु पालते थे तथा कृषि करते थे। इसलिये ये एक लम्बे मैदान में रहते रहे होंगे।

ये लोग अपने वर्ष की गणना हिम से करते थे, जिससे यह स्पष्ट है कि वह प्रदेश शीत-प्रधान रहा होगा। कालान्तर में ये लोग अपने वर्ष की गणना शरद से करने लगे जिसका यह तात्पर्य है कि ये लोग बाद में दक्षिण की ओर चले गये जहाँ कम सर्दी पड़ती थी और सुन्दर वसन्त ऋतु रहती थी।

ये लोग घोड़े रखते थे जिन्हें वे सवारी के काम में लाते थे और रथों में जोतते थे। आर्य-ग्रन्थों में गेहूँ तथा जौ का भी उल्लेख मिलता है। इन तथ्यों के आधार पर मैक्समूलर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मध्य एशिया ही आर्यों का आदि-देश था क्योंकि ये समस्त वस्तुएँ वहाँ पर पाई जाती हैं।

मध्य एशिया से ईरान, यूरोप तथा भारतवर्ष, तीनों जगह जाना सम्भव तथा सरल भी है। यह सम्भव है कि जन-संख्या की वृद्धि, भोजन तथा चारे के अभाव अथवा प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण ये लोग अपनी जन्म-भूमि त्यागने के लिए विवश हो गये हों।

मध्य एशिया में जल का न होना, भूमि का अनुपजाऊ होना तथा आर्यों का वहाँ से चले जाना आदि इस मत के स्वीकार करने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं क्योंकि आर्यों के आदि देश में जल की कमी न थी। वह बड़ा ही उपजाऊ तथा सम्पन्न प्रदेश था।

(3) आर्कटिक प्रदेश का सिद्धान्त

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचार में उत्तर ध्रुव-प्रदेश आर्यों का आदि देश था। अपने मत के समर्थन में तिलक ने वेदों तथा अवेस्ता का सहारा लिया है। ऋग्वेद में छः महीने की रात तथा छः महीने के दिन का वर्णन है। वेदों में उषा की स्तुति की गई है जो बड़ी लम्बी होती थी। ये सब बातें केवल उत्तरी ध्रुव प्रदेश में पायी जाती हैं।

अवेस्ता में लिखा है कि उनके देवता अहुरमज्द ने जिस देश का निर्माण किया था उसमें दस महीने सर्दी और केवल दो महीने गर्मी पड़ती थी। इससे अनुमान होता है कि आर्यों का मूल प्रदेश उत्तरी ध्रुव-प्रदेश के निकट रहा होगा। अवेस्ता में यह भी लिखा है कि उस प्रदेश में एक बहुत बड़ा तुषारापात हुआ जिससे उन लोगों को अपनी जन्म-भूमि त्याग देनी पड़ी।

बाल गंगाधर तिलक का कहना है कि जिस समय आर्य लोग उत्तरी-धु्रव प्रदेश में रहते थे, उन दिनों वहाँ पर बर्फ न थी और वहाँ पर सुहावना बसन्त रहता था। कालान्तर में वहाँ पर बड़े जोरों की बर्फ गिरी और सम्भवतः इसी का उल्लेख अवेस्ता में किया गया है। इस तुषारापात के कारण आर्यों ने अपनी जन्म-भूमि को त्याग दिया और उनकी एक शाखा ईरान को और दूसरी भारतवर्ष को चली गई। यहाँ से चले जाने पर भी वे लोग अपनी मातृ-भूमि का विस्मरण न कर सके और इसी से इन्होंने इसका गुणगान अपने धर्म-ग्रन्थों में किया है। बहुत कम इतिहासकार तिलक के मत का समर्थन करते हैं।

(4) भारतीय सिद्धान्त

कुछ विद्वानों के विचार में भारत आर्यों का आदि देश था और वे कहीं बाहर से नही आये थे। डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी ने लिखा है- ‘अब आर्यों के आक्रमण और भारत के मूल निवासियों के साथ उनके संघर्ष की प्राक्कल्पना को धीरे-धीरे त्याग दिया जा रहा है।’ अविनाश चन्द्र दास के विचार में सप्त-सिन्धु ही आर्यों का आदि देश था।

कुछ अन्य विद्वानों के विचार में काश्मीर तथा गंगा का मैदान आर्र्यों का आदि-देश था। भारतीय सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि आर्य-ग्रन्थों में आर्यों के कहीं बाहर से आने की चर्चा नहीं है और न अनुश्रुतियों में कहीं बाहर से आने के संकेत मिलते हैं। इन विद्वानों का यह भी कहना है कि वैदिक-साहित्य आर्यों का आदि साहित्य है।

यदि आर्य सप्त-सिन्धु में कहीं बाहर से आये तो इनका साहित्य अन्यत्र क्यों नही मिलता। ऋग्वेद की भौगोलिक स्थिति से भी यही प्रकट होता है कि ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना करने वालों का मूल स्थान पंजाब तथा उसके समीप का देश ही था। आर्य-साहित्य से हमें ज्ञात होता है गेहूँ तथा जौ प्राचीन आर्यों के प्रमुख खाद्यान्न थे।

यह ध्यान देने की बात है पंजाब में इन दोनों अन्नों का ही बाहुल्य है। अतः यही आर्यों का आदि-देश रहा होगा। इस मत को स्वीकार करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि ऐतिहासिक युग में बाहर से भारत में विभिन्न जातियों के आने के प्रमाण मिलते हैं परन्तु एक भी जाति के भारत से बाहर जाने का प्रमाण नही मिलता।

दूसरी कठिनाई यह है कि हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की सभ्यता, आर्य-सभ्यता से भिन्न तथा अधिक प्राचीन है। जब सिन्धु-प्रदेश की प्राचीनतम सभ्यता अनार्य थी तब सप्त-सिन्धु कैसे आर्यों का आदि-देश हो सकता है!

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि आर्यों के आदि-देश के सम्बन्ध में जितने सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं वे समस्त संदिग्ध हैं, क्योंकि किसी भी सिद्धान्त के समर्थन में अकाट्य तर्क उपस्थित नहीं किये जा सके हैं फिर भी वर्तमान में जो इतिहास स्थिर किया गया है, उसमें पश्चिमी इतिहासकारों ने माना है कि आर्य भारत में बाहर से आये। कुछ भारतीय इतिहासकार इसी मत का समर्थन करते हैं जबकि बहुत कम इतिहासकार भारत को आर्यों का मूल देश मानते हैं।

आर्यों का मूल स्थान से पलायन

जब आर्यों ने अपने मूल स्थानों को त्यागा, तब वे तीन प्रमुख शाखाओं में विभक्त हो गये। उनकी एक शाखा पश्चिम की ओर बढ़ी और धीरे-धीरे यूनान में पहुंच गई। ईराक से प्राप्त 1600 ई.पू. के कस्सी अभिलेखों में और ईसा पूर्व चौदहवीं सदी के मितन्नी अभिलेखों में जिन आर्य नामों का उल्लेख मिलता है उनसे सूचित होता है कि आर्यों की एक ईरानी शाखा पश्चिम की ओर चली गई थी। कालान्तर में ये लोग यूनानी आर्य कहलाने लगे और यहीं से वे यूरोप के अन्य देशों में फैल गये।

आर्यों की दूसरी शाखा एशिया की ओर बढ़ी। घोड़े की तेज गति के कारण आर्यों को आगे बढ़ने में कोई कठिनाई नहीं हुई। लगभग 2000 ई.पू. के बाद आर्यों ने पश्चिमी एशिया में प्रवेश किया। एशिया में आर्य लोग सबसे पहले ईरान पहुंचे जिसे फारस भी कहते हैं। ये लोग ईरानी आर्य कहलाये। यहाँ हिन्दू-ईरानी आर्य लंबे समय तक रहे।

आर्यों की तीसरी शाखा, दूसरी अर्थात् ईरानी शाखा में से अलग होकर भारत की ओर बढ़ी। भारत में आने वाले आर्य मुख्यतः पशुपालक थे। कृषि उनका गौण पेशा था। उनका जीवन स्थायी नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने पीछे कोई ठोस भौतिक अवशेष नहीं छोडे़। आर्यों ने यद्यपि अनेक पशुओं को पालतू बनाया तथापि उनके जीवन में घोड़े का महत्त्व सर्वाधिक था।

भारत में आगमन

पश्चिमी विद्वानों के अनुसार भारत में आर्यों का आगमन 1500 ई.पू. के कुछ पहले हुआ किंतु हमें उनके आगमन के बारे में स्पष्ट एवं ठोस पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिलते। पश्चिमोत्तर भारत से मिले हथियारों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में आने वाले आर्य कोटरवाली कुल्हाड़ियाँ, कांसे की कटारें और खड्ग का उपयोग करते थे।

आरंभिक आर्यों का निवास पूर्वी अफगानिस्तान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती भूभाग में था। ऋग्वेद में अफगानिस्तान की कुभा तथा अन्य नदियों के उल्लेख मिलते हैं। भारत में आर्यों की अनेक लहरें आईं। प्राचीनतम लहर उन ऋग्वैदिक लोगों की थी जो 1500 ई.पू. के आसपास इस उपमहाखंड में पहुंचे थे।

ईरानी तथा भारतीय आर्यों में समानता

ईरानी तथा भारतीय आर्यों में बड़ी समानता है जिससे अनुमान लगाया गया है कि आर्यों की ये दोनों शाखाएँ कभी एक ही स्थान पर निवास करती रही होंगी। हिन्दू-यूरोपीय  भाषा की सबसे प्राचीन कृति ऋग्वेद से हमें भारतीय आर्यों के बारे में जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद में ऋषियों के विभिन्न परिवारों द्वारा अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुति में रची गई प्रार्थनाओं का संकलन है। ऋग्वेद में दस मंडल हैं जिनमें से दो से सात तक के मंडल प्राचीन हैं। पहला और दसवां मंडल सम्भवतः बाद में जोड़ा गया। ईरानी भाषा के सबसे प्राचीन ग्रंथ अवेस्ता और आर्यों के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में अनेक समानताएं हैं।

दोनों में न केवल अनेक देवताओं के अपितु सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं। इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि जो भारतीय आर्यों के देवता हैं, ईरानी आर्यों के भी देवता थे। ईरानी आर्यों के धर्म-ग्रन्थ ‘अवेस्ता’ के प्रधान देवता अहुरमज्द हैं।

विद्वानों की धारणा है कि अहुर शब्द का रूपान्तर असुर है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में बार-बार किया गया है। सम्भवतः देवासुर-संग्राम, जिसका वर्णन भारतीय आर्यों के साहित्य में मिलता है, ईरानी तथा भारतीय आर्यों का ही संघर्ष था। इस प्रकार भारतीय आर्य ‘देव’ और ईरानी आर्य ‘असुर’ कहलाये।

आर्यों का विस्तार

यद्यपि आर्यों के मूल निवास-स्थान का ठीक-ठीक पता नहीं लग सका है परन्तु इतना निश्चित है कि जनसंख्या में वृद्धि हो जाने तथा आवश्यकताओं की पूर्ति न होने के कारण उन्हें अपना आदि-देश त्याग देना पड़ा। वे अपनी जन्मभूमि को छोड़कर उपजाऊ भूमि की ओर बढ़े। आर्यों को उस उपजाऊ प्रदेश के मूल निवासियों से संघर्ष करना पड़ा। आर्यों ने उस प्रदेश के मूल निवासियों को अनार्य दास तथा दस्यु कहा क्योंकि वे डील-डौल, रूप-रंग, रहन-सहन आदि में आर्यों से भिन्न थे।

दस्युओं अथवा आर्यपूर्वों से संघर्ष

इंद्र ने आर्यों के शत्रुओं को अनेक बार हराया। ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर कहा गया है जिसका अर्थ होता है दुर्गों को तोड़ने वाला परंतु आर्यपूर्वों के इन दुर्गों को पहचान पाना सम्भव नहीं है। आर्यों के शत्रुओं के हथियारों के बारे में भी बहुत थोड़ी जानकारी मिलती है। इनमें से कुछ हड़प्पा संस्कृति के लोगों की बस्तियां हो सकती हैं परन्तु आर्यों की सफलता के बारे में संदेह नहीं है।

इस सफलता का मुख्य कारण वे रथ थे जिनमें घोड़े जोते जाते थे। आर्यों के साथ ही पश्चिमी एशिया और भारत में घोड़ों का आगमन हुआ। आर्य सैनिक सम्भवतः कवच (वर्म) पहनते थे और उनके हथियार श्रेष्ठ थे। ऋग्वेद से जानकारी मिलती है कि दिवोदास ने, जो भरत कुल का था, शंबर को हराया था। यहाँ दिवोदास के नाम के साथ दास शब्द जुड़ा हुआ है।

ऋग्वेद के दस्यु सम्भवतः इस देश के मूल निवासी थे, और इन्हें हराने वाला सदस्य एक आर्य-मुखिया था। यह आर्य-मुखिया दासों से तो सहानुभुति रखता था, किन्तु दस्युओं का कट्टर शत्रु था। ऋग्वेद में दस्युहंता शब्द का बार-बार उल्लेख आया है दस्यु सम्भवतः लिंग-पूजक थे और दूध-दही, घी आदि के लिए गाय, भैंस नहीं पालते थे।

(1) सप्त सिन्धु में निवास

भारतीय आर्य चाहे भारत के मूल-निवासी रहे हों और चाहे विदेशों से भारत में आये हों परन्तु इतना निश्चित है कि प्रारम्भ में वे सप्त-सिन्धु नामक प्रदेश में निवास करते थे और यहीं से वे शेष भारत में फैले। सप्त-सिन्धु वही प्रदेश था जिसे वर्तमान में पंजाब कहा जाता है। पंजाब, पन्चाम्बु शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है- पंच + अम्बु अर्थात् पाँच जलों अथवा नदियों का देश।

सप्त-सिन्धु का भी अर्थ है, सात नदियों का देश। उन दिनों इस प्रदेश में सात नदियाँ पाई जाती थीं। उनमें से पाँच-शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास), परुष्णी (रावी), चिनाब (असिक्नी) तथा झेलम (वितस्ता) तो अब भी विद्यमान हैं और दो नदियाँ- सरस्वती तथा दृशद्वती, विलुप्त हो गई हैं। प्राचीन आर्यों ने अपने ग्रन्थों में इसी सप्त-सिन्धु का गुणगान किया है। इसी जगह उन्होंने वेदों की रचना की और यहीं पर उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का सृजन हुआ। यहीं से भारतीय आर्य शेष भारत में फैले।

(2) ब्रह्मावर्त में प्रवेश

सप्त सिन्धु से आर्य पूर्व की ओर बढ़े। सप्त-सिन्धु से प्रस्थान करने के इनके दो प्रधान कारण हो सकते हैं। प्रथम कारण यह हो सकता है कि इनकी जन-संख्या में वृद्धि हो गई, जिससे इन्हें नये स्थान को खोजने की आवश्यकता पड़ी और दूसरा कारण यह हो सकता है कि अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार करने के लिए ये लोग आगे बढ़े।

सप्त-सिन्धु से प्रस्थान करने का जो भी कारण रहा हो, इतना तो निश्चित है कि वे बड़ी मन्द-गति से आगे बढ़े क्योंकि अनार्यों के साथ उन्हें भीषण संघर्ष करना पड़ा। अनार्यों से अधिक बलिष्ठ, वीर, साहसी तथा रण-कुशल होने के कारण आर्यों ने उन पर विजय प्राप्त कर ली और उन्होंने कुरुक्षेत्र के निकट के प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर लिया। इस प्रदेश को उन्होंने ब्रह्मावर्त के नाम से पुकारा।

(3) ब्रह्मर्षि-देश में प्रवेश

शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद आर्यों ने अपनी युद्ध-यात्रा जारी रखी। अब उन्होंने आगे बढ़कर पूर्वी राजस्थान, गंगा तथा यमुना के दो-आब और उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर लिया। इस सम्पूर्ण प्रदेश को उन्होंने ब्रह्मर्षि-देश कहा।

(4) मध्य-देश में प्रवेश

ब्रह्मर्षि-देश पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद आर्य और आगे बढ़े तथा हिमालय एवं विन्ध्य-पर्वत के मध्य की भूमि पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। आर्यों ने इस प्रदेश का नाम मध्य-देश रखा।

(5) सुदूर-पूर्व में प्रवेश

बिहार तथा बंगाल के दक्षिण-पूर्व का भाग आर्यों के प्रभाव से बहुत दिनों तक मुक्त रहा, परन्तु अन्त में उन्होंने इस भू-भाग पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। आर्यों ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को आर्यावर्त कहा।

(6) दक्षिणा-पथ में प्रवेश

विन्ध्य पर्वत तथा घने वनों के कारण दक्षिण भारत में बहुत दिनों तक आर्यों का प्रवेश न हो सका। इन गहन वनों तथा पर्वतमालाओं को पार करने का साहस सर्वप्रथम ऋषि-मुनियों ने किया। सबसे पहले अगस्त्य ऋषि दक्षिण-भारत में गये। इस प्रकार आर्यों की दक्षिण विजय केवल सांस्कृतिक विजय थी। वह राजनीतिक विजय नहीं थी। धीरे-धीरे आर्य सम्पूर्ण दक्षिण भारत में पहुँच गये और उसके कोने-कोने में आर्य-सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हो गया। आर्यों ने दक्षिण-भारत को ‘दक्षिणा-पथ’ नाम दिया।

आर्यों के परस्पर युद्ध

पंचजनों का युद्ध

प्राचीन आर्यों का कोई संगठित राज्य नहीं था। आर्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त थे जिनमें परस्पर वैमनस्य था। फलतः आर्यों को न केवल अनार्यों से युद्ध करना पड़ा वरन् उनमें आपस में भी युद्ध होता था। इस प्रकार आर्य दोहरे संघर्ष में फंसे हुए थे। आर्यों के भीतर के संघर्ष के कारण उनके जीवन में लंबे समय तक उथल-पुथल मची रही।

पांच प्रमुख कबीलों अथवा पंचजनों की आपस में लड़ाइयां हुईं और इसके लिए उन्होंने आर्येतरों की भी सहायता ली। ‘भरत’ और ‘तत्सु’ आर्य-कुल के शासक थे। वसिष्ठ उनके समर्थक थे। भरत नाम का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में आया है। इसी के आधार पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

दाशराज्ञ अथवा दस राजाओं का युद्ध

ऋग्वैदिक उल्लेख के अनुसार सरस्वती नदी के किनारे भारत नाम का एक राज्य था, जिस पर सुदास नामक राजा शासन करता था। विश्वामित्र, राजा सुदास के पुरोहित थे। राजा तथा पुरोहित में अनबन हो जाने के कारण राजा सुदास ने विश्वामित्र के स्थान पर वसिष्ठ को अपना पुरोहित बना लिया। इससे विश्वामित्र बड़े अप्रसन्न हुए। उन्होंने दस राजाओं को संगठित करके, राजा सुदास के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।

दस राजाओं के इस समूह में पांच आर्य-राजा थे और पांच अनार्य-राजा थे। भरतों और दस राजाओं का जो युद्ध हुआ उसे दाशराज्ञ युद्ध कहते हैं। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। इसमें भरत कुल के राजा सुदास की विजय हुई और भरतों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। जिन कबीलों की हार हुई उनमें पुरुओं का कबीला सबसे महत्त्वपूर्ण था।

कुरुओं का उदय

कालांतर में भरतों और पुरुओं का मेल हुआ और परिणामतः कुरुओं का एक नया शासक कबीला अस्तित्त्व में आया। कुरु बाद में पांचालों के साथ मिल गए और उन्होंने उत्तरी गंगा की द्रोणी में अपना शासन स्थापित किया। उत्तर वैदिक काल में उन्होंने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आर्यों में परस्पर अन्य युद्ध भी हुए। जिनमें कौरवों एवं पाण्डवों के बीच हुआ महाभारत का युद्ध प्रमुख है।

आर्यों का साहित्य

वैदिक ग्रन्थ

भारतीय आर्यों द्वारा वैदिक ग्रन्थों की रचना 2,500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक के काल में होना अनुमानित है। इनमें से ऋग्वेद की रचना 2500 से 1000 ई.पू. के काल में तथा उत्तर वैदिक ग्रंथों की रचना 1000 से 600 ई.पू. में होना अनुमानित है।

वैदिक ग्रन्थों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) संहिता अथवा वेद, (2) ब्राह्मण तथा (3) सूत्र। प्रथम दो अर्थात् संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों को श्रुति भी कहा गया है। श्रुति का अर्थ है जो सुना गया हो। प्राचीन आर्यों का विश्वास था कि संहिता और ब्राह्मण किसी मनुष्य की कृति न थे। उनमें दिये गये उपदेशों को ऋषियों तथा मुनियों ने ब्रह्मा के मुख से सुना था। इसी से इन ग्रन्थों को श्रुति कहा जाता है।

इन ग्रन्थों में दिये गये उपदेश ब्रह्म-वाक्य हैं इसलिये वे सर्वथा सत्य हैं। उन पर संदेह नहीं किया जा सकता। इनका विरोध करने का दुस्साहस किसी को नहीं होता था। संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों में जो उपदेश दिये गये हैं वे बहुत लम्बे हैं। अतः आर्य-विद्वानों ने जन-साधारण के लिए उपदेशों को संक्षेप में छोटे-छोेटे वाक्यों में लिख दिया। इन्हीं रचनाओं को सूत्र कहते हैं। सूत्र का अर्थ होता है संक्षेप में कहना। चूंकि इन ग्रन्थों में बड़ी-बड़ी बातें संक्षेप में लिखी गई हैं इसलिये इन्हें सूत्र कहा गया।

(1) संहिता अथवा वेद

संहिता का अर्थ होता है संग्रह। चूंकि इन ग्रन्थों में मन्त्रों का संग्रह है, इसलिये इन्हें संहिता कहा गया। संहिता को वेद भी कहते हैं। वेद संस्कृत की विद् धातु से निकला है जिसका अर्थ है- जानना अथवा ज्ञान प्राप्त करना। वेद उन ग्रन्थों को कहते हैं जो ज्ञान की प्राप्ति के एकमात्र साधन समझे जाते थे।

वेद-वाक्य ब्रह्म-वाक्य होने के कारण चिरन्तन सत्य थे और उनके अनुसार जीवन व्यतीत करने से इहलोक तथा परलोक दोनों ही सुधरता था। अर्थात् इस संसार में सुख की प्राप्ति होती थी और मृत्यु हो जाने पर मोक्ष मिलता था। संहिता अर्थात् वेदों का भारतीयों के जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है।

वेदों को संस्कृत-साहित्य की जननी कहा जाता है। यद्यपि सिन्धु-घाटी की सभ्यता भारत की प्राचीनतम सभ्यता थी परन्तु उस सभ्यता के वसुन्धरा में अन्तर्भूत हो जाने के उपरान्त भारतीय सभ्यता का पुनः शिलान्यास संहिता द्वारा ही किया गया था।

संहिता को हम भारतीय समाज का प्राण कह सकते हैं जिसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता था। वेदों के उपरान्त जितने साहित्य लिखे गये उन सब का आधार संहिता ही है। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। पहले इनमें से केवल प्रथम तीन वेदों की रचना की गई। इसलिये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद को सम्मिलित रूप से त्रयी कहा गया। सबसे अन्त में अथर्ववेद की रचना हुई।

ऋग्वेद

यह दो शब्दों से मिलकर बना है- ऋक् तथा वेद। ऋक् का अर्थ होता है स्तुति-मन्त्र। स्तुति-मन्त्र को ऋचा भी कहते हैं। जिस वेद में स्तुति मन्त्रों अर्थात् ऋचाओं का संग्रह किया गया है उसे ऋग्वेद कहते हैं। सूर्य, वायु, अग्नि आदि ऋग्वेद के प्रधान देवता हैं। इसलिये ये ऋचाएँ इन्हीं देवताओं की स्तुति में लिखी गयीं।

ऋचाओं का संग्रह किसी एक ऋषि ने नहीं किया। वरन् वे विभिन्न ऋषियों द्वारा विभिन्न समय में संकलित की गईं। ऋग्वेद दस मण्डलों अथवा भागों में विभक्त है। प्रत्येक मण्डल कई अनुवाकों में विभक्त है। अनुवाक् का अर्थ होता है जो बाद में कहा गया है।

चूंकि इनका स्थान मण्डल के बाद है, इसलिये इन्हें अनुवाक् कहा गया है। प्रत्येक अनुवाक् कई सूक्तों में विभक्त है। सूक्त का अर्थ होता है अच्छी उक्ति अर्थात् जो अच्छी प्रकार कहा गया हो। ऋग्वेद में कुल 1008 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त कई ऋचाओं अर्थात् स्तुति-मन्त्रों में विभक्त है, ऋचाओं की कुल संख्या 10,580 है।

ऋग्वेद आर्यों का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी रचना सम्भवतः 2,500 ई.पू. से 1,000 ई.पू. तक के काल में हुई थी। यद्यपि ऋग्वेद स्तुति-मन्त्रों का संग्रह है जिनका प्रधानतः धार्मिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व है परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी इसका बहुत बड़ा महत्त्व है क्योंकि इस काल का इतिहास जानने के लिए यही ग्रन्थ एकमात्र साधन है।

कुछ मन्त्रों से आर्यों के पारस्परिक तथा अनार्यों से किये गये युद्धों का पता लगता है। यह भारत ही नही, वरन् विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। इसकी प्राचीनता के कारण ही भारत का मस्तक ऊँचा है। इसकी रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई।

मैक्समूलर ने लिखा है- ‘विश्व के इतिहास में वेद उस रिक्त स्थान की पूर्ति करता है जिसे किसी भी भाषा का कोई भी साहित्यिक ग्रन्थ नहीं भर सकता। यह हमें अतीत के उस काल में पहुँचा देता है जिसका कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता और उस पीढ़ी के लोगों के वास्तविक शब्दों से परिचित करा देता है जिसका हम इसके अभाव में केवल धुधंला ही मूल्यांकन कर सकते थे।’

यजुर्वेद

यह दो शब्दों से मिलकर बना है- यजुः तथा वेद। यज् शब्द का अर्थ होता है यजन करना। यजुः उन मन्त्रों को कहते थे जिसके द्वारा यजन अथवा पूजन किया जाता था अर्थात् यज्ञ किये जाते थे। इसलिये यजुर्वेद उस वेद को कहते हैं जिसमें यज्ञों का विधान है। मूलतः यह कर्म-काण्ड प्रधान ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ में बलि की प्रथा, उसकी महत्ता तथा विधियों का वर्णन है। यजुर्वेद में सूक्तों के साथ-साथ अनुष्ठान भी हैं जिन्हें सस्वर पाठ करते जाने का विधान है। ये अनुष्ठान अपने समय की उन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के परिचायक हैं जिनमें इनका उद्गम हुआ था। यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। पहला भाग शुक्ल यजुर्वेद कहलाता है जो स्वतन्त्र रूप से लिखा गया है और दूसरा भाग कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है जिसमें पूर्व साहित्य का संकलन है।

यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुए थी। इस वेद की ऐतिहासिक उपयोगिता भी है। इसमें आर्यों के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन की झांकी मिलती है। इस वेद से ज्ञात होता है कि अब आर्य, सप्त-सिन्धु से कुरुक्षेत्र में चले आये थे। इस ग्रन्थ से यह भी ज्ञात होता है कि अब प्रकृति पूजा की उपेक्षा होने लगी थी और जाति-प्रथा का प्रादुर्भाव हो गया था।

सामवेद

साम के दो अर्थ होते हैं- शान्ति तथा गीत। यहाँ पर साम का अर्थ है गीत। इसलिये सामवेद का अर्थ हुआ वह वेद जिसके पद गेय हैं और जो संगीतमय हैं। सामवेद में केवल 66 मन्त्र नये हैं। शेष मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं। सामवेद के मन्त्र गेय होने के कारण मन को बड़ी शान्ति देते हैं। यज्ञादि अवसरों पर इन मन्त्रों का पाठ किया जाता है।

अथर्ववेद

अथ का अर्थ होता है मंगल अथवा कल्याण, अथर्व का अर्थ होता है अग्नि और अथर्वन् का अर्थ होता है पुजारी। इसलिये अथर्ववेद उस वेद को कहते है जिसमें पुजारी मन्त्रों तथा अग्नि की सहायता से भूत-पिशाचों से रक्षा कर मनुष्य का मंगल अथवा कल्याण करते हैं। इस ग्रन्थ में बहुत से प्रेतों तथा पिशाचों का उल्लेख है जिनसे बचने के लिए मन्त्र दिये गये हैं।

विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए अथर्ववेद में मंत्र-तंत्र दिए गए हैं। ये मन्त्र जादू-टोने की सहायता से मनुष्य की रक्षा करतेे हैं। इस ग्रन्थ में कुछ मन्त्र ऋग्वेद के हैं और कुछ सामवेद के। इस वेद में आर्येतरों के विश्वासों तथा उनकी प्रथाओं के बारे में जानकारी मिलती है। यह ग्रन्थ आर्यों के पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन पर भी प्रकाश डालता है। इसकी रचना प्रथम तीन वेदों की रचना के बहुत बाद में हुई थी।

(2) ब्राह्मण

ब्रह्मण, ब्रह्म शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है वेद। इसलिये ब्राह्मण उन ग्रन्थों को कहते है जिनमें वैदिक मन्त्रों की व्याख्या की गई है। इनमें यज्ञों के स्वरूप तथा उनकी विधियों का वर्णन किया गया है। चूंकि यज्ञ करने तथा कराने का कार्य पुरोहित करते थे जो ब्राह्मण होते थे, इसलिये केवल ब्राह्मणों से संबंधित होने के कारण इन ग्रन्थों का नाम ब्राह्मण रखा गया। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना ब्रह्मर्षि देश में हुई थी।

यद्यपि ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना याज्ञिकों के पथ-प्रदर्शन के लिए की गई परन्तु इनसे आर्यों के सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना प्रधानतः गद्य में की गई है परन्तु कहीं-कहीं पद्य भी विरल रूप से मिलते हैं। ऐतरेय, कौषीतकी, तैतिरीय, शतपथ आदि मुख्य ब्राह्मण-ग्रन्थ हैं। आरण्यक तथा उपनिषद् भी ब्राह्मण-ग्रन्थों के अन्तर्गत आते हैं।

(3) आरण्यक

अरण्य शब्द का अर्थ होता है- जंगल। आरण्यक उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनकी-रचना जंगलों के अत्यन्त शान्तिमय वातावरण में हुई और जिनका अध्ययन तथा चिन्तन भी जंगलों में एकान्तवास द्वारा शान्तिमय वातावरण में किया जाना चाहिये। ये ग्रन्थ वानप्रस्थाश्रमियों के लिए होते थे। वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करने पर लोग जंगलों में चले जाते थे और वहीं पर चिन्तन तथा मनन किया करते थे। अध्यात्म-चिन्तन आरण्यक ग्रन्थों की सबसे बड़ी विशेषता है। इसमें आत्मा तथा ब्रह्म के सम्बन्ध में उच्च कोटि का चिंतन किया गया है।

(4) उपनिषद्

यह तीन शब्दों से मिलकर बना है- उप+नि+षद्। उप का अर्थ होता है समीप, नि का अर्थ होता है नीचे और षद् का अर्थ होता है बैठना। इसलिये उपनिषद् उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनका अध्ययन गुरु के समीप नीचे बैठकर श्रद्धापूर्वक किया जाना चाहिये। उपनिषद ब्राह्मण ग्रन्थ के अन्तिम भाग में आते हैं। ये ज्ञान प्रधान ग्रन्थ हैं। इनमें उच्च कोटि का दार्शनिक विवेचन मिलता है।

उपनिषदों की तुलना में संसार में कोई अन्य श्रेष्ठ दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है। उपनिषदों से हमें ज्ञात होता है कि इस युग में वर्ण तथा वर्णाश्रम व्यवस्था दृढ़ रूप से स्थापित हो गये थे तथा मानव की सभ्यता एवं संस्कृति में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था। उपलब्ध उपनिषद ग्रन्थों की संख्या लगभग दो सौ है किन्तु उनमें से केवल बारह का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनके नाम हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैतिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, कौषितकी और श्वेताश्वतर।

(5) सूत्र

सूत्र का शाब्दिक अर्थ होता है धागा। इसलिये सूत्र उन ग्रन्थों को कहते हैं जो इस प्रकार लिखे जाते थे मानो कोई चीज धागे में पिरो दी गई हो। और उनमें एक क्रम स्थापित हो गया हो। जब वैदिक साहित्य का रूप अत्यन्त विशाल हो गया तो उसे कंठस्थ करना बहुत कठिन हो गया। इसलिये एक ऐसी रचना-शैली का विकास किया गया जिसमें वाक्य तो छोटे-छोटे हों परन्तु उनमें बड़े-बड़े भावों तथा विचारों का समावेश हो। इन्हीं रचनाओं को सूत्र कहा गया।

महर्षि पाणिनि ने सूत्रों की तीन विशेषताएँ बताई हैं- वे कम अक्षरों में लिखे जाते हैं, वे असंदिग्ध होते हैं और वे सारगर्भित होते हैं। इन सूत्रों में कल्प-सूत्र सर्वाधिक महत्त्व का है। सूत्रों की रचना करने वालों में पाण्निि प्रमुख हैं। इन ग्रन्थों की रचना 700 ई.पू. से 200 ई.पू. तक के काल में हुई थी। सूत्रों में आर्यों के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन का पर्याप्त परिचय मिलता है।

अन्य ग्रन्थ

आर्यों ने अन्य ग्रन्थों की भी रचना की, जिनका उनके जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

दर्शन शास्त्र

कई मुनियों ने दर्शन-शास्त्रों का निर्माण किया, जिनकी संख्या 6 है- (1) कपिल मुनि का सांख्य-दर्शन, (2) पतन्जलि का योग-दर्शन, (3)  कण्व का वैशेषिक दर्शन, (4) गौतम का न्याय-दर्शन, (5) जैमिनि का पूर्व मीमांसा तथा (6) बादरायण का उत्तर-मीमांसा दर्शन। हिन्दू धर्म के अध्यात्मवाद का भवन इन्हीं दर्शन शास्त्रों के स्तम्भों पर खड़ा है।

महाकाव्य

आर्यों के दो प्रमुख महाकाव्य हैं- (1) रामायण- इस ग्रंथ की रचना महर्षि वाल्मिीकि ने की। (2) महाभारत- इस ग्रंथ की रचना महर्षि वेदव्यास ने की। महाभारत का एक अंश गीता कहलाता है जिसमें निष्काम कर्म करने का उपदेश दिया गया है। इस ग्रन्थ का और इससे भी अधिक रामायण का हिन्दू-समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है।

धर्मशास्त्र तथा पुराण

धर्मशास्त्रों तथा पुराणों का भी भारतीय समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। पुराणों की संख्या 18 है जिनमें विष्णु पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण तथा भागवत पुराण अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। महाकाव्यों तथा पुराणों में वैदिक आदर्शों का प्रतिपादन किया गया है। अन्तर यह है कि महाकाव्यों में इसे मनुष्य के मुख से और पुराणों मे देवताओं के मुख से प्रतिपादित बताया गया है। आर्यों ने स्मृतियों की भी रचना की। स्मृतियों में नारद स्मृति, मनु स्मृति तथा याज्ञवलक्य स्मृति प्रमुख हैं।

वैदिक साहित्य का महत्त्व

(1) विश्व इतिहास में सर्वोच्च स्थान

वैदिक ग्रन्थों का, विशेषतः ऋग्वेद का विश्व इतिहास में सर्वोच्च स्थान है। वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनकी रचना भारत की पवित्र भूमि में हुई, इसलिये इन ग्रन्थों के कारण भारत का मस्तक ऊँचा है। ये ग्रन्थ सिद्ध करते हैं कि भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति, विश्व में सर्वाधिक प्राचीन है। पूरे विश्व को भारतीय संस्कृति से आलोक प्राप्त हुआ।

(2) उत्कृष्ट जाति के इतिहास की झांकी

वैदिक साहित्य से हमें उत्कृष्ट आर्य जाति की झांकी प्राप्त होती है। आर्यों का विश्व की विभिन्न जातियों में बड़ा ऊँचा स्थान है। यह जाति शारीरिक बल, मानसिक प्रतिभा तथा आध्यात्मिक चिन्तन में अन्य जातियों से कहीं अधिक श्रेष्ठ रही है इसलिये जिन ग्रन्थों में इन आर्यों के जीवन की झांकी मिलती है वे निश्चय ही बड़े महत्त्वपूर्ण हैं।

(3) प्रारम्भिक आर्यों का इतिहास जानने का एकमात्र साधन

आर्यों के मूल-स्थान तथा उनके प्रारम्भिक जीवन का परिचय प्राप्त करने का एकमात्र साधन वैदिक ग्रन्थ हैं। यदि ये ग्रन्थ उपलब्ध न होते तो भारतीय आर्यों का सम्पूर्ण प्रारम्भिक इतिहास अन्धकारमय होता और उसका कुछ भी ज्ञान हमें प्राप्त नहीं हो सकता था।

(4) हमारे पूर्वजों के जीवन का प्रतिबिम्ब

यदि हम वैदिक ग्रन्थों को अपने पूर्वजों के जीवन का प्रतिबिम्ब कहें तो कुछ अनुचित न होगा। वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन कर लेने पर हमें पूर्वजों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का परिचय मिलता है। यदि वैदिक ग्रन्थ न होते तो हमें भी किसी बर्बर तथा असभ्य जाति की सन्तान कहा जा सकता था परन्तु इन ग्रन्थों ने हमें अत्यन्त सभ्य तथा सुसंस्कृत जाति की सन्तान होने का गौरव प्रदान किया है।

(5) हमारी सभ्यता का मूलाधार

वैदिक ग्रन्थ ही हमारी सभ्यता तथा संस्कृति के मूलाधार तथा प्रबल स्तम्भ हैं। जिन आदर्शों तथा सिद्धान्तों का इन ग्रन्थों में निरूपण किया गया है वे आदर्श तथा सिद्धांत भारतीयों के जीवन के पथ-प्रदर्शक बन गये। इन ग्रन्थों ने हमारे जीवन को सुंदर सांचे में ढाल दिया। यद्यपि भारत पर अनेक बर्बर जातियों के आक्रमण हुए जिन्होंने इसको बदलने का प्रयत्न किया परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। अनेक शताब्दियों के बीत जाने पर भी हमारे जीवन के आदर्श तथा सिद्धान्त वही हैं जिन्हें वैदिक ऋषियों तथा मुनियों ने निर्धारित किया था।

(6) हिन्दू धर्म का प्राण

यदि हम वैदिक ग्रन्थों को हिन्दू-धर्म का प्राण कहंे तो अनुचित न होगा। हिन्धू धर्म के मूल सिद्धान्तों का दर्शन हमें वैदिक ग्रन्थों में ही होता है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य वास्तव में धर्ममय है। इसका कारण यह है कि ऋषियों ने भौतिक जीवन की अपेक्षा आध्यात्मिक जीवन को अधिक महत्त्व दिया था। वे इस जगत को नाशवान तथा निस्सार समझते थे। इसी से उन्होंने जीवन के प्रत्येक अंग पर धर्म की छाप डाल दी। हमारे ऋषियों ने समाज को धर्म की एक ऐसे लकुटी प्रदान की जिसके सहारे यह समाज आज तक सुरक्षित चला आ रहा है।

(7) आध्यात्मिक विवेचन के कोष

हमारे वैदिक ग्रन्थ आध्यात्मिक विवेचन के विशाल कोष हैं। विश्व की किसी भी जाति के इतिहास में इतने विस्तृत तथा गहन रूप से आघ्यात्मिक विवेचन नहीं हुआ जितना वैदिक ग्रन्थों में हुआ है।

(8) हिन्दू समाज के स्तम्भ

वैदिक ग्रन्थों को हम हिन्दू समाज का स्तम्भ कह सकते हैं। वैदिक ऋषियों ने हमारे समाज को सुचारू रीति से संचालित करने के लिए दो व्यवस्थाएँ की थीं। इनमें से एक थी वर्ण-व्यवस्था और दूसरी थी वर्णाश्रम धर्म। इन्हीं दोनों स्तम्भों पर भारतीय समाज को खड़ा किया गया था और इन्हीं का अनुसरण कर समाज का चूड़ान्त विकास किया जाना था।

(9) भारतीय भाषाओं की जननी

वैदिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। संस्कृत से ही भारत की अधिकांश भाषाएँ निकली हैं। भारत की समस्त भाषाओं पर संस्कृत का थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य पड़ा है। वास्तव में आर्य-परिवार की समस्त भाषाएँ इसकी पुत्रियां हैं तथा संस्कृत उनकी जननी है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

ऋग्वैदिक सभ्यता (अध्याय 8)

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चतुर्मुखी ब्रह्मा जो प्रत्येक मुख से वेदों का उच्चारण करते हैं।

वैदिक सभ्यता उस काल की सभ्यता को कहते हैं जिसमें आर्यों ने वैदिक ग्रंथों की रचना की। ऋग्वैदिक सभ्यता उस सभ्यता को कहते हैं जिसमें आर्यों ने ऋग्वेद के मंत्रों की रचना की। इस काल में आर्य प्राकृतिक शक्तियों से अत्यंत प्रभावित थे और प्रत्येक प्राकृतिक शक्ति में मानवीय गुणों का अधिरोपण करके उनकी स्तुतियां करते थे।

वेद चार हैं तथा चारों वेद एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं और इनका क्रमिक विकास हुआ है। सबसे पहले ऋग्वेद तथा उसके बाद अन्य वेदों की रचना की गई। वेदों की रचना के बाद उनकी व्याख्या करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना की गई।

वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों की संख्या जब इतनी अधिक हो गई और उनका स्वरूप जब इतना विशाल हो गया कि उन्हें कंठस्थ करना कठिन हो गया तो उन्हें संक्षिप्त स्वरूप देने के लिए सूत्रों की रचना की गई। इस सम्पूर्ण वैदिक साहित्य की रचना में सहस्रों वर्ष लगे। विद्वानों की मान्यता है कि वैदिक साहित्य की रचना 2,500 से 600 ई.पू. के बीच हुई। इसलिये इस काल को वैदिक काल कहा जाता है तथा इस काल में आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहा जाता है।

ऋग्वैदिक सभ्यता का काल विभाजन

वैदिक काल को दो भागों में विभक्त किया गया है-

(1) ऋग्वैदिक सभ्यता (2,500 ई.पू. से 1000 ई.पू.): चारों वेदों में ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। इसलिये ऋग्वेद की सभ्यता सर्वाधिक पुरानी है। ऋग्वेद काल में आर्य लोग सप्त-सिन्धु क्षेत्र में निवास करते थे। इस काल की सभ्यता को ऋग्वैदिक सभ्यता कहते हैं।

(2) उत्तर वैदिक सभ्यता (1000 ई.पू. से 600 ई.पू.): उत्तर-वैदिक काल में आर्य लोग सरस्वती तथा गंगा नदियों के मध्य की भूमि में पहुँच गये थे और उन्होंने वहाँ पर अपने राज्य स्थापित कर लिये थे। इस प्रदेश का नाम कुरुक्षेत्र था। उत्तर-वैदिक काल के आर्यों की सभ्यता का यहीं विकास हुआ। यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद की रचना इसी क्षेत्र में हुई। उत्तर-वैदिक काल में ऋग्वैदिक सभ्यता का क्रमशः विकास होता गया और इसमें अनेक परिवर्तन होते चले गये।

ऋग्वैदिक सभ्यता

ऋग्वैदिक सभ्यता का उद्भव सप्त सिंधु क्षेत्र तथा सरस्वती नदी के निकट हुआ था। ऋग्वेद में सप्त-सैन्धव तथा सरस्वती का अनेक मंत्रों में गुण-गान किया गया है। यद्यपि अब सरस्वती नदी विद्यमान नहीं है, और उसे प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर अद्दश्य रूप से प्रस्थापित कर दिया गया है, परन्तु उन दिनों वह सतजल तथा कुरुक्षेत्र के मध्य बहती थी।

राजनीतिक दशा

यद्यपि ऋग्वेद एक धार्मिक ग्रन्थ है तथा उसमें प्रधानतः स्तुति-मन्त्रों का संग्रह है तथापि कुछ मंत्रों से तत्कालीन राजनीतिक दशा पर भी प्रकाश पड़ता है। इस काल की राजनीतिक दशा निम्नांकित थी-

(1) राजनीतिक विभाजन

ऋग्वैदिक सभ्यता में राजनीतिक व्यवस्था का मूलाधार कुटुम्ब था जो पैतृक होता था। कुटुम्ब को आधुनिक इतिहासकारों ने कबीला कहकर पुकारा है। कुटुम्ब का प्रधान, पिता अथवा अन्य कोई बड़ा-बूढ़ा पुरुष होता था जो कुटुम्ब के अन्य सदस्यों पर नियन्त्रण रखता था। कई कुटुम्बों को मिला कर एक ग्राम बनता था। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी’ कहलाता था। कई ग्रामों को मिला कर ‘विस’ बनता था। विस का प्रधान ‘विसपति’ कहलाता था। कई विसों को मिला कर ‘जन’ बनता था। जन का रक्षक ‘गोप’ अथवा ‘राजन्य’ कहलाता था।

(2) राजनीतिक संगठन

ऋग्वैदिक सभ्यता में राजनीतिक संगठन राजतंत्रात्मक था। ऋग्वेद में अनेक राजन्यों का उल्लेख मिलता है। राजन्य का पद आनुवंशिक था और वह उसे उत्तराधिकार के नियम से प्राप्त होता था। अर्थात् राजन्य के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र सिंहासन पर बैठता था।

राजन्य का पद यद्यपि वंशानुगत होता था, तथापि हमें समिति अथवा सभा द्वारा किए जाने वाले चुनावों के बारे में भी सूचना मिलती है। राज्य में राजन्य का स्थान सर्वोच्च था। वह सुन्दर वस्त्र धारण करता था और भव्य राज-भवन में निवास करता था जिसमें राज्य के बड़े-बड़े पदाधिकारी, पण्डित, गायक तथा नौकर-चाकर उपस्थित रहते थे। चूँकि उन दिनों गमनागमन के साधनों का अभाव था इसलिये राज्य बहुत छोटे हुआ करते थे।

(3) राजन्य के कर्त्तव्य

राजन्य को कबीले का संरक्षक (गोप्ता जनस्य) कहा गया है। वह गोधन की रक्षा करता था, युद्ध का नेतृत्व करता था और कबीले की ओर से देवताओं की आराधना करता था। प्रजा की रक्षा करना, शत्रुओं से युद्ध करना, राज्य में शान्ति स्थापित करना और शान्ति के समय यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान करना, राजन्य के मुख्य कर्त्तव्य होते थे।

राजन्य अपनी प्रजा की न केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखता था। वरन् वह उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखता था। राजन्य अपनी प्रजा के आचरण की देखभाल के लिए गुप्तचर रखता था जो प्रजा के आचरण के सम्बन्ध में राज्य की सूचना देते थे। राजन्य, आचरण-भ्रष्ट प्रजा को दण्डित करता था।

(4) राज्य के प्रमुख पदाधिकारी

ऋग्वैदिक सभ्यता में राजन्य की सहायता के लिए बहुत से पदाधिकारी हाते थे जिनमें पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी प्रधान थे।

पुरोहित

समस्त पदाधिकारियों में पुरोहित का स्थान सबसे ऊँचा था। उसका पद प्रायः वंशानुगत होता था परन्तु कभी-कभी वह किसी अन्य कुटुम्ब से भी चुन लिया जाता था। पुरोहित को बहुत से कर्त्तव्य करने होते थे। वह राजन्य का धर्मगुरु तथा परामर्शदाता होता था। इसलिये राज्य में उसका बड़ा प्रभाव रहता था।

वह रण-क्षेत्र में भी राजन्य के साथ जाता था और अपनी प्रार्थनाओं तथा मन्त्रों द्वारा राजन्य की विजय का प्रयत्न करता था। ऋग्वैदिक काल में वसिष्ठ और विश्वामित्र नामक दो प्रमुख पुरोहित हुए। उन्होंने राजाओं का पथ-प्रदर्शन किया, उनका गुणगान किया और बदले में गायों और दासियों के रूप में भरपूर दक्षिणाएं प्राप्त कीं।

सेनानी

राज्य का दूसरा प्रमुख अधिकारी सेनानी होता था। वह भाला, कुल्हाड़ी, कृपाण आदि का उपयोग करना जानता था। वह सेना का संचालन करता था। उसकी नियुक्ति सम्भवतः राजन्य स्वयं करता था। जिन युद्धों में राजन्य की उपस्थिति आवश्यक नहीं समझी जाती थी, उनमें सेनानी ही सेना का प्रधान होता था जो रण-क्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था।

ग्रामणी

ग्रामणी तीसरा प्रधान पदाधिकारी होता था। वह गाँव के प्रबन्ध के लिए उत्तरदायी होता था। आरम्भ में ग्रामणी योद्धाओं के एक छोटे समूह का नेता होता था परन्तु जब गांव स्थायी रूप से बस गए तो ग्रामणी गांव का मुखिया हो गया और कालांतर में उसका पद व्राजपति के समकक्ष हो गया।

कुलप

परिवार अथवा कुल का मुखिया कुलप कहलाता था।

व्राजपति

गोचर-भूमि के अधिकारी को व्राजपति कहा गया है। वह युद्ध में कुलपों और ग्रामणियों का नेतृत्व करता था।

(5) युद्ध-विधि

भारत में ऋग्वैदिक आर्यों की सफलता के दो प्रमुख कारण थे- घोड़ों से चलने वाले रथ और लोहे से बनने वाले हथियार। युद्ध में समस्त लोगों को भाग लेना पड़ता था। साधारण लोग पैदल युद्ध करते थे परन्तु राजन्य तथा क्षत्रिय लोग रथों पर चढ़कर युद्ध करते थे।

युद्ध में आत्म-रक्षा के लिए कवच आदि का प्रयोग किया जाता था। आक्रमण करने का प्रधान शस्त्र धनुष-बाण था परन्तु आवश्यकतानुसार भालों, फरसों तथा तलवारों का भी प्रयोग किया जाता था। ध्वजा, पताका, दुन्दुभि आदि का भी प्रयोग किया जाता था। युद्ध प्रायः नदियों के तट पर हुआ करते थे।

(6) समिति तथा सभा

यद्यपि राजन्य राज्य का प्रधान होता था परन्तु वह स्वेच्छाचारी तथा निंरकुश नहीं होता था। उसे परामर्श देने के लिए कुछ संस्थायें विद्यमान थीं। ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ और गण-जैसी अनेक कबीलाई परिषदों के उल्लेख मिलते हैं। इन परिषदों में जनता के हितों, सैनिक अभियानों और धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में विचार-विमर्श होता था।

ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विदथ में भाग लेती थीं। राजतंत्र की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व की परिषदें सम्भवतः सभा और समिति थीं। सम्भवतः समिति में सारी प्रजा, सदस्य होती थी परन्तु सभा में केवल उच्च-वंश के वयोवृद्धों को सदस्यता मिलती थी। ये दोनों परिषदें इतने महत्त्व की थीं कि राजन्य भी इनका सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करता था।

(7) न्याय व्यवस्था

राजन्य अपने सहायकों की सहायता से विवादों एवं झगड़ों का निर्णय करता था। न्यायिक कार्य में उसे पुरोहित से बड़ी सहायता मिलती थी। जिन अपराधों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, वे चोरी, डकैती, सेंध लगाना आदि हैं। पशुओं की बड़ी चोरी हुआ करती थी। अपराधियों को उस व्यक्ति की इच्छानुसार दण्ड मिलता था जिसे क्षति पहुँचती थी। जल तथा अग्नि-परीक्षा का भी इस युग में प्रचार था।

(8) गुप्तचर

उस काल में चोरियां भी होती थीं, विशेषतः गायों की। आपराधिक गतिविधियों पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे। कर वसूल करने वाले किसी अधिकारी के बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती। सम्भवतः ये कर राजाओं को भेंट के रूप में, स्वेच्छा से दिए जाते थे। इस भेंट को बलि कहते थे।

(9) अन्य पदाधिकारी

राजन्य कोई नियमित सेना नहीं खड़ी करता था किंतु युद्ध के अवसर पर जो सेना एकत्र की जाती थी उसमें व्रात, गण, ग्राम और शर्ध नामक विभिन्न सैनिक समूह सम्मिलित होते थे। कुल मिलाकर यह एक कौटुम्बिक अथवा कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना का प्राधान्य था। नागरिक व्यवस्था अथवा प्रादेशिक व्यवस्था का अस्तित्त्व नहीं था। लोग अपने स्थान बदलते हुए निरन्तर फैलते जा रहे थे।

ऋग्वैदिक सभ्यता की सामाजिक दशा

ऋग्वेद के अध्ययन से तत्कालीन समाज का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है। सामाजिक संरचना का आधार सगोत्रता थी। अनेक ऋग्वैदिक राजाओं के नामों से प्रकट होता है कि व्यक्ति की पहचान उसके कुल अथवा गोत्र से होती थी। लोग जन (कबीले) के हित को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है परन्तु जनपद शब्द का एक बार भी प्रयोग नहीं हुआ।

लोग, जन के सदस्य थे, क्योंकि अभी राज्य की स्थापना नहीं हुई थी। ऋग्वेद में कुटुम्ब अथवा कबीले के अर्थ में जिस दूसरे महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है, वह है विश्। इस शब्द का उल्लेख 170 बार हुआ है। सम्भवतः विश् को लड़ाई के उद्देश्य से ग्राम नामक छोटी इकाइयों में बांटा गया था। जब ये ग्राम एक-दूसरे से लड़ते थे तो संग्राम हो जाता था। बहुसंख्यक वैश्य वर्ण का उद्भव विश् से ही हुआ।

(1) पारिवारिक जीवन

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ऋग्वेद में परिवार के लिये कुल शब्द का प्रयोग हुआ है किंतु इस शब्द का प्रयोग भी बहुत कम हुआ है। कुल में न केवल माता, पिता, पुत्र, दास आदि का समावेश होता था अपितु कई अन्य लोग भी होते थे। अनुमान होता है कि पूर्व वैदिक काल में परिवार के लिए गृह शब्द का प्रयोग होता था। प्राचीनतम हिन्द-यूरोपीय भाषाओं में इसी शब्द का उपयोग भांजे, भतीजे, पोते आदि के लिए भी हुआ है। इसका अर्थ यह है कि पृथक् कुटुम्बों (अर्थात् कबीलों) की स्थापना की दिशा में पारिवारिक सम्बन्धों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं हुआ था, और कुटुम्ब एक बड़ी सम्मिलित इकाई था। रोमन समाज की तरह यह एक पितृतंत्रात्मक परिवार था, जिसमें पिता मुखिया था। एक परिवार की अनेक पीढ़ियां एक घर में रहती थीं। इस काल के सामाजिक संगठन का मूलाधार भी कुटुम्ब ही था। पिता ही कुटुम्ब का प्रधान होता था। वह अपने कुटुम्ब के सदस्यों पर दया तथा सहानुभूति रखता था परन्तु अयोग्य सन्तान के साथ कठोर व्यवहार करता था। कुटुम्ब में पिता को बहुत अधिकार प्राप्त थे। पुत्र तथा पुत्री के विवाह में पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता था। विवाह के उपरान्त भी पुत्र को अपनी पत्नी के साथ अपने पिता के घर में रहना होता था। वधू को अपने श्वसुर गृह के अनुशासन में रहना होता था। इस प्रकार इस काल में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी।

अतिथि सत्कार पर बल दिया जाता था और इसकी गणना पाँच महायज्ञों में होती थी। भगवानपुुरा में तेरह कमरों वाला एक कच्चा भवन मिला है। इससे यह प्रमाणित हो सकता है कि इस भवन में या तो बड़ा परिवार रहता था या कबीले अथवा कुटुम्ब का मुखिया रहता था।

(2) सन्तान की स्थिति

विवाह का प्रधान लक्ष्य सन्तान उत्पन्न करना होता था। ऋग्वैदिक आर्य युद्धों में लड़ने के लिए अनेक बहादुर पुत्रों की प्राप्ति हेतु भगवान से प्रार्थना करते थे। पुत्र उत्पन्न होने पर बड़ा उत्सव मानाया जाता था। लोग कन्या की आकांक्षा नहीं करते थे परन्तु उत्पन्न हो जाने पर उसके साथ सहानुभूति रखते थे और उसकी शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था करते थे।

विश्ववारा, घोषा, अपाला आदि स्त्रियों को इतनी उच्च-कोटि की शिक्षा दी गई थी कि वे वेद-मन्त्रों की भी रचना कर सकती थीं। ऋग्वेद में संतान और गोधन की प्राप्ति के लिए बार-बार इच्छा व्यक्त की गई है, किन्तु किसी भी सूक्त में पुत्री की प्राप्ति के लिए इच्छा व्यक्त नही की गई है।

(3) विवाह की व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में विवाह संस्था की स्थापना हो चुकी थी। जन-साधारण में बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन नहीं था परन्तु राजवंशों में बहु-विवाह की प्रथा थी। यद्यपि भाई-बहिन तथा पिता-पुत्री में विवाह वर्जित था तथापि आदिम प्रथाओं के प्रतीक बचे हुए थे। यम की जुड़वां बहन यमी ने यम के सम्मुख प्रेम का प्रस्ताव रखा था किंतु यम ने इसका विरोध किया था।

बहुपतित्त्व के बारे में भी कुछ सूचना मिलती है। मरूतों ने रोदसी को मिलकर भोगा, और अश्विनी भाई सूर्य-पुत्री सूर्या के साथ रहते थे परन्तु ऐसे उदाहरण बहुत थोड़े मिलते हैं। सम्भवतः ये मातृतंत्रात्मक अवस्था के अवशेष थे। पुत्र को, माता का नाम दिए जाने के भी कुछ उदारहण मिलते है, जैसे, मामतेय।

यद्यपि विवाह पर पिता का नियंत्रण रहता था परन्तु वर-कन्या को भी काफी स्वतन्त्रता रहती थी। कुछ लोग दहेज देकर और कुछ लोग दहेज लेकर कन्यादान करते थे। दहेज वही लोग देते थे जिनकी कन्या में कुछ त्रुटि होती थी। इसी प्रकार धन देकर वही लोग विवाह करते थे जिनके पुत्र में कोई त्रुटि होती थी। विवाह एक पवित्र बन्धन समझा जाता था और एक बार इस बन्धन में बंध जाने पर, आजीवन बन्धन नहीं टूट सकता था।

विधवा विवाह का ऋग्वेद में कहीं संकेत नहीं मिलता। दस्युओं के साथ विवाह का निषेध था। ऋग्वेद में नियोग प्रथा और विधवा-विवाह के अस्तित्त्व के बारे में भी जानकारी मिलती है। बाल-विवाह के अस्तित्त्व का कोई उदाहरण नहीं मिलता। अनुमान होता है कि ऋग्वैदिक काल में 16-17 वर्ष की आयु में विवाह होते थे।

(4) स्त्रियों की दशा

इस युग में स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता था। स्त्रियाँ गृहस्वामिनी समझी जाती थीं और वे समस्त धार्मिक कार्यों में अपने पति के साथ भाग लेती थीं। पर्दा प्रथा नहीं थी। स्त्रियाँ समस्त उत्सवों में भाग ले सकती थीं।

स्त्रियाँ स्वतन्त्र नहीं होती थीं, उन्हें अपने पुरुष-सम्बन्धियों के सरंक्षण तथा नियंत्रण में रहना पड़ता था। विवाह के पूर्व कन्याओं को अपने पिता के संरक्षण तथा नियंत्रण में रहना पड़ता था। पिता के न रहने पर वह अपने भाई के संरक्षण में रहती थी। विवाह हो जाने पर वह पति के और विधवा हो जाने पर पुत्र के संरक्षण में रहती थी।

इस प्रकार स्त्री को सदैव किसी न किसी पुरुष का संरक्षण प्राप्त था। स्त्रियां सभा-समिति में भाग लेती थीं। वे पुत्रियों के साथ यज्ञों में भी सम्मिलित होती थीं। सूक्तों की रचना करने वाली पांच स्त्रियों के बारे में जानकारी मिलती है, किन्तु बाद के ग्रंथों में ऐसी 20 स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं। स्पष्ट है कि सूक्तों की रचना मौखिक रूप में होती थी। उस काल की कोई लिखित सामग्री नहीं मिलती।

(5) वेश-भूषा

ऋग्वैदिक आर्य सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण धारण करते थे। ये लोग प्रायः तीन वस्त्र पहिनते थे। एक नीचे का वस्त्र था जिसे नीवि कहते थे। इनका दूसरा वस्त्र काम और तीसरा वस्त्र अधिवास कहलाता था। ये लोग रंग-बिरंगे ऊनी तथा सूती वस्त्र पहिनते थे। कुछ वस्त्रों पर सोने का भी काम किया जाता था जिन्हें वे उत्सव के अवसर पर पहिनते थे।

स्त्री एवं पुरुष लम्बे बाल रखते थे जिनमें वे तेल डालते थे और कंघी करते थे। स्त्रियाँ चोटी बांधती थीं और पुरुष अपने बाल कुण्डल के आकार के रखते थे। यद्यपि दाढ़ी रखने की प्रथा थी परन्तु कुछ लोग दाढ़ी मुंडवा भी लेते थे। ऋग्वैदिक आर्य, आभूषणों का भी प्रयोग करते थे जो प्रायः सोने के बने होते थे। भुजबन्ध, कान की बाली, कंगन, नूपुर आदि का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते थे।

(6) खाद्य-पदार्थ

चावल, जौ, घी, दूध तथा मांस, ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य भोजन था। अनाज को भूनकर अथवा पीसकर, घी-दूध के साथ खाया जाता था। ये लोग फल तथा तरकारी का अधिक प्रयोग करते थे। पशुओं की बलि दी जाती थी जिनका मांस खाया जाता था।

(7) पेय-पदार्थ

ऋग्वैदिक आर्य दो प्रकार के पेय पदार्थों का प्रयोग करते थे। एक को सोम कहते थे और दूसरे को सुरा। सोम एक वृक्ष के रस से बनाया जाता था जिसमें मादकता नहीं होती थी। यज्ञ के अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता था। सुरा में मादकता होती थी और यह अन्न से बनाई जाती थी। सुरापान घृणित समझा जाता था। आर्य ग्रंथों में सुरापान को अपराध बताया गया है। ब्राह्मण इसे घोर घृणा की दृष्टि से देखते थे।

(8) मनोरंजन

रथ-संचालन, जुआ खेलना, नाच-गाना, बाजे बजाना, पशु-पक्षियों का शिकार करना, ऋग्वैदिक आर्यों के आमोद-प्रमोद के प्रधान साधन थे।

(9) शिक्षा

इस काल में शिक्षा मौखिक होती थी इसलिये स्मरण-शक्ति का बड़ा महत्त्व था। गुरु, शिष्यों को वेद-मन्त्रों की शिक्षा देते थे। विद्यार्थी उन्हें कण्ठाग्र करने का प्रयत्न करते थे। शिक्षा का उद्देश्य बुद्धि को बढ़ाना तथा आचरण को शुद्ध बनाना होता था।

(10) औषधि

ऋग्वैदिक आर्य, स्वास्थ्य के प्रति सचेत थे। अश्विन औषधि-शास्त्र के देवता माने जाते थे और उनकी पूजा की जाती थी। औषधियाँ जड़ी-बूटियों की होती थीं। चिकित्सा करना एक प्रकार का व्यवसाय बन गया था।

(11) आश्रम-व्यवस्था

इस काल में आश्रम-व्यवस्था स्थापित होनी आरंभ हो चुकी थी किंतु उसका स्वरूप स्पष्टतः निर्धारित नहीं हुआ था। आश्रम व्यवस्था की प्रारंभिक अवधारणा में तीन ही आश्रम थे- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम तथा वानप्रस्थ आश्रम। आश्रम व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिये ही थी।

(12) गृह की व्यवस्था

ऋग्वैदिक आर्यों के मकान बांस के बने होते थे। इनको बनाने में लकड़ी तथा सरपत का भी प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक घर में अग्निशाला का प्रबन्ध रहता था जिसमें सदैव अग्नि जलती रहती थी। प्रत्येक घर में एक बैठक और स्त्रियों के लिए अलग कमरा होता था।

(13) शव विसर्जन

इस काल में आर्य, मृतक शरीर को या तो जलाते थे या गाड़ते थे परन्तु विधवाओं को जलाया नहीं जाता था वरन् उन्हें गाड़ा जाता था।

सामाजिक वर्गीकरण

(1) आर्य-अनार्य का विभेद

ऋग्वेद में लगभग 1500-1000 ई.पू. के पश्चिमोत्तर भारत के लोगों के शारीरिक रूप-रंग के बारे में जानकारी मिलती है। रंग के लिए वर्ण शब्द का उपयोग हुआ है। अनुमान होता है कि आर्य गौर वर्ण के थे जबकि भारत के मूल निवासी काले वर्ण के थे। रंग-भेद ने सामाजिक वर्गीकरण में आंशिक योग दिया होगा किंतु सामाजिक विभेद का सबसे बड़ा कारण, आर्याें की स्थानीय निवासियों पर विजय प्राप्त करना था। आर्यों ने काले वर्ण के स्थानीय निवासियों को अनार्य कहा।

(2) आर्यों में विभेद

आर्य कबीलों के मुखिया और पुरोहित लूट का अधिकांश धन परस्पर बांट लेते थे। युद्ध की लूट के असमान वितरण के कारण सामाजिक असमानताएं पैदा हुईं। परिणामतः सामान्य जनों की अपेक्षा मुखिया और पुरोहित अधिक ऊंचे उठे। सामान्य जन बचा-खुचा धन प्राप्त करते थे। इसलिये कबीले में सामाजिक एवं आर्थिक असमानताएं उत्पन्न हुईं। धीरे-धीरे कबीलाई समाज तीन समूहों में बंट गया- योद्धा, पुरोहित और सामान्य जन।

(3) व्यवसाय आधारित विभेद

आर्य अपने कार्यानुसार चार वर्णों में विभक्त हो गये। पढ़ने तथा यज्ञ का कार्य करने वाले ब्राह्मण, युद्ध तथा शासन करने वाले क्षत्रिय अथवा राजन्य, कृषि तथा व्यापार करने वाले वैश्य और सेवा का कार्य करने वाले शूद्र कहलाये। पुरुष सूक्त में लिखा है कि ब्राह्मण आदि-पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जंघा से तथा शूद्र उसके चरणों से निकले हैं।

इस प्रकार चार वर्णों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है परन्तु यह व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी और इसमें जटिलता नहीं थी। अन्तर्जातीय विवाह तथा सहभोज का प्रचलन था, छुआछूत का भेदभाव नहीं था। ऋग्वेदिक काल में व्यवसाय पर आधारित विभाजन प्रारंभ हो चुका था परन्तु यह विभाजन अभी सुस्पष्ट नहीं था।

ऋग्वेद में एक परिवार के सदस्य का कथन है- ‘मैं कवि हूूँ, मेरा पिता वैद्य है, और मेरी माँ पत्थर की चक्की चलाती है। धन की कामना करने वाले नाना कर्मों वाले हम एक साथ रहते हैं…।’

(4) दास व्यवस्था

ऋग्वेद के चौथे एवं दसवें मंडल में पहली बार शूद्रों का उल्लेख मिलता है। आर्याें ने दासों और दस्युओं को जीतकर अधीन बनाया तथा उन्हें शूद्र कहा। ऋग्वेद में पुरोहितों को दास सौंपने के उल्लेख बार-बार मिलते हैं। घर का काम करने वाली मुख्यतः दासियां थीं। घरेलू दासों के तो उल्लेख मिलते हैं किंतु श्रमिकों के नहीं। अतः अनुमान होता है कि ऋग्वैदिक काल के दासों को कृषि अथवा अन्य उत्पादन कार्याें में नहीं लगाया जाता था।

ऋग्वैदिक सभ्यता में आर्थिक-दशा

ऋग्वैदिक आर्यों का आर्थिक जीवन सरल था, उसमें जटिलता उत्पन्न नहीं हुई थी। प्रारंभिक ऋग्वैदिक आर्यों की अर्थ-व्यवस्था मुख्यतः पशुचारी थी, अन्न-उत्पादक नहीं थी, इसलिए लोगों से नियमित करों की उगाही बहुत कम होती थी। भूमि अथवा अनाज के दान के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता।

समाज में कबीलाई बंधन शक्तिशाली थे। करों की उगाही अथवा भू-संपत्ति के आधार पर सामाजिक वर्ग अभी अस्तित्त्व में नहीं आए थे। इस काल की आर्थिक दशा इस प्रकार से थी-

(1) गाँवों की व्यवस्था

ऋग्वैदिक आर्य गाँवों में रहते थे। ऋग्वेद में नगरों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। गाँव पास-पास होते थे। वन्य पशुओं एवं शत्रुओं से सुरक्षा के लिए मिट्टी के घरों वाली बस्तियों की झाड़ियों अथवा अन्य कांटों आदि से किलेबंदी की जाती थी। अधिकांश घर बांस तथा लकड़ी के बने होते थे।

(2) कृषि

ऋग्वैदिक आर्यों का प्रधान व्यवसाय कृषि था। परिवार का अलग खेत होता था परन्तु चरागाह सबका एक होता था। खेती हल से की जाती थी। ऋग्वेद के आरंभिक भाग में फाल के उल्लेख मिलते हैं। उनके फाल सम्भवतः लकड़ी के बने होते थे। ऋग्वैदिक लोग बुवाई, कटाई और मंडाई से परिचित थे। उन्हें विभिन्न ऋतुओं की भी अच्छी जानकारी थी। ये लोग प्रधानतः गेहूँ तथा जौ की खेती करते थे। इस काल के आर्य, फल तथा तरकारी भी पैदा करते थे।

(3) पशु-पालन

ऋग्वैदिक आर्यों का दूसरा प्रमुख व्यवसाय पशु-पालन था। पशुओं में गाय का सर्वाधिक महत्त्व था, क्योंकि यह सर्वाधिक उपयोगी होती थी। गाय को अध्न्या कहा गया है अर्थात् जो मारी न जाय। ऋग्वेद में गाय के बारे में आए बहुत सारे उल्लेखों से यही सिद्ध होता है कि आर्य पशुपालक थे।

अधिकांश लड़ाइयां उन्होंने गायों के लिए लड़ी थीं। ऋग्वेद में युद्ध के लिए गविष्टि शब्द का उपयोग हुआ हैं। जिसका अर्थ ‘गायों की खोज’ होता है। गाय को सबसे बड़ी सम्पत्ति समझा जाता था। बैलों से हल जोतने तथा गाड़ी खींचने के काम लिया जाता था। घोड़ों का प्रयोग रथों में किया जाता था। आर्यों द्वारा पाले जाने वाले अन्य पशु, भेड़, बकरी तथा कुत्ते थे। कुत्ते घरों तथा बस्तियों की रखवाली करते थे।

(4) पशुओं का शिकार

ऋग्वैदिक आर्य मांस खाते थे। इसलिये वन्य पशुओं का शिकार भी उनकी जीविका का साधन था। ये लोग धनुष-बाण तथा लोहे के भालों द्वारा सूअर, हरिण तथा भैंसों का शिकार करते थे और पक्षियों को जाल में फंसा कर पकड़ते थे। शेरों को चारों ओर से घेर कर मारा जाता था।

(5) मृद्भाण्ड

हरियाणा के भगवानपुरा से और पंजाब के तीन स्थलों से चित्रित धूसर मृदभांड और बाद के काल के हड़प्पा के मिट्टी के बर्तन मिले हैं। भगवानपुरा में मिली वस्तुओं का तिथि निर्धारण 1600 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक किया गया है। लगभग यही काल ऋग्वेद का भी है। इन चारों स्थानों का भौगोलिक क्षेत्र वही है जो ऋग्वेद में दर्शाया गया है।

यद्यपि इन चारों स्थलों पर चित्रित धूसर पात्र मिले हैं फिर भी न तो लौह सामग्री और न ही अनाज यहाँ मिले हैं। अतः हम चित्रित धूसर मृद्भांड की एक लौह पूर्व अवस्था के बारे में सोच सकते हैं जो ऋग्वैदिक अवस्था के समकालिक हैं।

(6) दस्तकारी के कार्य

ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पकारों के उल्लेख मिलते हैं। इनसे पता चलता है कि आर्य लोग इन शिल्पों से भली-भांति परिचित थे। तांबे अथवा कांसे के लिए प्रयुक्त अयस शब्द से ज्ञात होता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी। जब वे उप-महाखंड के पश्चिमी भाग में बसे हुए थे तब वे सम्भवतः राजस्थान के खेतड़ी की खानों से तांबा प्राप्त करते होंगे।

ऋग्वैदिक काल के बढ़ई रथ तथा गाड़ियाँ बनाते थे। ये लोग लकड़ी के प्याले भी बनाते थे और उन पर बहुत अच्छी नक्काशी करते थे। लोहार, लोहे, ताम्बे तथा पीतल के विभिन्न प्रकार के बर्तन, अन्य-शस्त्र और अन्य उपयोगी वस्तुएँ बनाते थे। सुनार, सोने-चांदी के आभूषण बनाते थे। चर्मकार लोग चमड़े की वस्तुएँ बनाते थे। सीना-पिरोना, चटाइयां बुनना, ऊनी तथा सूती कपड़े बनाना आदि भी जीविका के साधन थे। कुम्हार चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते थे।

(7) व्यापार

ऋग्वैदिक आर्यों की जीविका का एक साधन व्यापार भी था। ये लोग विदेशी तथा आन्तरिक दोनों प्रकार का व्यापार करते थे। प्रारम्भ में व्यापार वस्तु-विनिमय द्वारा होता था। बाद में गाय द्वारा मूल्य आंका जाने लगा और अन्त में सोने-चांदी से बनी मुद्राओं का प्रयोग होने लगा।

इस काल में निष्क नामक मुद्रा का व्यवहार होने लगा। कपड़े, चमड़े तथा चद्दरें व्यापार की मुख्य वस्तुएँ होती थीं। माल ले जाने के लिए गाड़ियों तथा रथों का प्रयोग किया जाता था। नदियों को पार करने के लिए नावों का प्रयोग होता था।

(8) ऋण की प्रथा

ऋग्वैदिक काल में ब्याज पर ऋण देने की प्रथा थी। वैश्य, साहूकार तथा महाजन यह कार्य करते थे और यह उनकी जीविका का प्रमुख साधन होता था। ऋण चुकाना एक धार्मिक कर्त्तव्य समझा जाता था और न चुकाने पर उसे निश्चित समय तक महाजन की सेवा करनी पड़ती थी।

ऋग्वैदिक सभ्यता में विभिन्न कलाओं का विकास

बौद्धिक परिपक्वता विकसित हो जाने से ऋग्वैदिक काल के लोगों की विभिन्न प्रकार की रचनात्मक कलाओं में रुचि थी।

(1) काव्य कला

ऋग्वैदिक आर्य, काव्य-कला में बड़े कुशल थे। ऋग्वेद पद्य शैली में लिखा गया है। ऋग्वेद का अधिंकाश काव्य धार्मिक गीति-काव्य है। इस काल की कविता में स्वाभाविकता तथा सौन्दर्य है। उषा की प्रशंसा में ऋषियों ने बड़ी भावुकता प्रकट की है।

(2) लेखन कला

यह निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक आर्य लेखन-कला से परिचित थे अथवा नहीं परन्तु कुछ विद्वानों की धारणा है कि वे इस कला को जानते थे।

(3) अन्य कलाएँ

ऋग्वैदिक आर्य अन्य कई कलाओं में प्रवीण थे। गृह निर्माण-कला में वे इतने निपुण थे कि सहस्र-स्तम्भ तथा सहस्र-द्वार के मकान तक बनाते थे। ऋग्वैदिक आर्य कताई, बुनाई, रगांई, धातु-कला, संगीत कला, नृत्य कला एवं गायन कला में भी निपुण थे।

ऋग्वैदिक सभ्यता में धार्मिक जीवन

ऋग्वैदिक आर्यों का जीवन वास्तव में धर्ममय था। जीवन का ऐसा कोई अंग नहीं था जिस पर धर्म की गहरी छाप न हो। इस काल का धर्म बड़ी उच्च-दशा में था। इस काल में प्राकृतिक शक्तियों एवं उनके नियामक देवताओं की पूजा होती थी।

(1) ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास

ऋग्वैदिक आर्यों का ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास था जो इस जगत् का निर्माण तथा पालन करने वाला है। अनेक देवतओं में विश्वास करते हुए भी ऋग्वैदिक आर्यों के धर्म का मूलाधार एकेश्वरवाद ही था और उनका एक ही ईश्वर था जिसे वे प्रजापति कहते थे जो सर्वव्यापी था।

(2) प्राकृतिक शक्तियों की उपासना

प्राकृतिक घटनायें यथा- वर्षारंभ, सूर्य एवं चंद्र का उदय, नदियों तथा पर्वतों आदि का अस्तित्त्व, आर्यों के लिए पहेली-जैसे थे। इसलिए उन्होंने इन प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। उनमें मानव अथवा पशु गुणों का आरोपण करके उन्हें जीवित शक्तियाँ माना।

ऋग्वेद में ऐसी अनेक दैवी शक्तियों का समावेश है जिनकी स्तुति में विभिन्न ऋषि-कुलों ने सूक्तों की रचना की। इस प्रकार ऋग्वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा आरंभ हुई। ऋग्वैदिक आर्यों का विश्वास था कि सूर्य, चन्द्र, वायु, मेघ आदि में ईश्वर निवास करता है। इसलिये वे इन सबकी उपासना करते थे।

(3) देवताओं का वर्गीकरण

ऋग्वेद में 33 देवताओं की प्रार्थना की गई है। इन देवताओं को तीन भागों में बांटा गया है- (1) आकाश के देवता, (2) मध्य-स्थान के देवता तथा (3) पृथ्वी के देवता। प्रत्येक वर्ग में 11 देवता हैं, जिनमें से एक सर्वप्रधान है।

आकाश के सर्वश्रेष्ठ देवता सूर्य, मध्य-स्थान के वायु अथवा इन्द्र और पृथ्वी के प्रधान देवता अग्नि हैं। ऋग्वेद का सबसे प्रमुख देवता इन्द्र है। इन्द्र आर्यों का युद्ध नेता था जिसने असुरों के विरुद्ध युद्धों में आर्याें का नेतृत्व किया और उन्हें विजय दिलाई। उसे वर्षा का देवता भी माना गया है। ऋग्वेद में इंद्र की स्तुति में 250 सूक्त हैं।

दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता अग्नि है, जिसकी स्तुति में 200 सूक्त मिलते हैं। आदिम लोगों के जीवन में अग्नि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि खाना पकाने तथा जंगलों को जलाकर साफ करने में इसका उपयोग होता था। वैदिक काल में अग्नि ने देवताओं और मानवों के बीच एक प्रकार से मध्यस्थ की भूमिका निभाई। समझा जाता था कि अग्नि को दी जाने वाली आहुति धुंआ बनकर आकाश में जाती है, और इस प्रकार अंत में देवताओं के पास पहुंच जाती है।

तीसरा प्रमुख देवता वरुण था, जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करता था। वरुण को प्राकृतिक घटनाक्रम का संयोजक समझा जाता था। माना जाता था कि विश्व में सब कुछ वरुण की इच्छा से होता है। वरुण पहले सुर था किंतु बाद में असुरों का मित्र हो गया था। जब वरुण को वृत्रासुर ने बंदी बना लिया तब इंद्र ने वृत्रासुर को मारकर वरुण को मुक्त करवाया तथा तथा उसे पुनः देवत्व प्रदान किया।

सोम वनस्पति का देवता था। सोम नाम का एक मादक पेय भी था। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में वनस्पति से इस पेय के तैयार करने की विधि का वर्णन मिलता है परन्तु इस वनस्पति की सही पहचान अभी तक नहीं हो पाई है। देवताओं के अनुरोध पर सोम चंद्रमा में समा गया जहाँ से वह जल एवं वनस्पतियों को प्राप्त हुआ। तूफान का प्रतिनिधित्व करने वाले मरुद्गण नामक अनेक देवताओं की जानकारी मिलती है।

(4) देवताओं की विशेषताएँ

ऋग्वैदिक काल के देवताओं में कुछ निश्चित विशेषताएँ पाई जाती हैं- (1) समस्त देवता दयावान तथा शुभचिन्तक हैं। कोई भी देवता दुष्ट स्वभाव का नहीं है। (2) समस्त देवता अलग-अलग स्वभाव के हैं और इनके कार्य भी विभिन्न प्रकार के हैं। (3) समस्त देवता जन्म लेते हैं परन्तु फिर अमर हो जाते हैं। (4) समस्त देवता वायु में भ्रमण करते हैं जिनके रथों में घोड़े अथवा अन्य पशु अथवा पक्षी जुते रहते हैं। (5) इन्हें मानव-स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है तथा इन्हें मनुष्य के खाद्य-पदार्थ, यथा दूध, अन्न, मांस आदि की बलि दी जाती है।

(5) देवियों की तुलना में देवताओं को प्रमुखता

आर्यों ने उषा काल का प्रतिनिधित्व करने वाली उषस् और अदिति जैसी देवियों की भी पूजा की किंतु ऋग्वैदिक काल में इन देवियों को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। पितृतंत्रात्मक समाज के वातावरण में देवियों की अपेक्षा इन्द्र एवं वरुण आदि देवताओं को अधिक महत्त्व मिलना स्वाभाविक था।

(6) धार्मिक कृत्य

देवताओं की आराधना मुख्यतः स्तुतिपाठ और यज्ञाहुति से की जाती थी। ऋग्वैदिक काल में स्तुति पाठ का बड़ा महत्त्व था। स्तुति पाठ अकेले और सामूहिक रूप में होते थे। आर्यों का विश्वास था कि प्रार्थना ईश्वर तक पहुंचती है और ईश्वर प्रार्थनाओं से प्रसन्न होता है। गायत्री मन्त्र का बड़ा महत्त्व था और इसका पाठ दिन में तीन बार अर्थात् प्रातःकाल, मध्याह्न तथा सन्ध्या समय किया जाता था।

आरम्भ में प्रत्येक कबीले अथवा कुल का अपना एक विशिष्ट देवता होता था। अनुमान होता है कि सम्पूर्ण कबीले के सदस्य इस स्तुतिगान में भाग लेते थे। यज्ञाहुतियों के बारे में भी यही होता था। सम्पूर्ण जन अथवा कबीले द्वारा दी जाने वाली यज्ञबलि को ग्रहण करने के लिए अग्नि और इंद्र का आह्नान किया जाता था।

देवताओं को वनस्पति, जौ आदि की आहुति दी जाती थी परन्तु ऋग्वैदिक काल में यज्ञाहुति के अवसर पर कोई अनुष्ठान अथवा मंत्रपाठ नहीं होता था। उस समय शब्द की चमत्कारिक शक्ति को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता था जितना कि उत्तर वैदिक काल में दिया जाने लगा था। ऋग्वैदिक काल में आर्य, आध्यात्मिक उन्नति अथवा मोक्ष के लिए देवताओं की आराधना नहीं करते थे। वे इन देवताओं से मुख्यतः संतति, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि मांगते थे।

(7) पितरों की पूजा

ऋग्वैदिक आर्यों में पितरों की पूजा प्रचलित थी। उनका मानना था कि पितरों की कृपा प्राप्त करने से कष्ट क्षीण होते हैं।

(8) सदाचार पर बल

ऋग्वैदिक आर्यों में सदाचार पर बहुत बल दिया जाता था। चोरी, डकैती, मिथ्या भाषण, निरपराधों एवं निःशक्तों की हत्या, पराये धन का हरण आदि कार्य निकृष्ट माने जाते थे।

(9) दान

ऋग्वैदिक आर्यों में दान देने की परम्परा थी। आर्य अपने पुरोहितों को गाय, रथ, घोड़े, दास-दासियां दान करते थे। पुरोहितों को दान देने के जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनमें गायों और स्त्री दासों के रूप में दान देना बताया गया है, भूखंड के रूप में कभी नहीं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

उत्तर-वैदिक सभ्यता (अध्याय 9)

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उत्तर-वैदिक सभ्यता

ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथों एवं सूत्र ग्रन्थों की रचना हुई। ऋग्वेद के बाद में लिखे गये, इन ग्रन्थों के रचना काल को उत्तर-वैदिक काल कहते हैं। इस काल की सभ्यता उत्तर-वैदिक सभ्यता कहलाती है। उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथ, उत्तरी गंगा की घाटी में लगभग 1000-600 ई.पू. में रचे गए थे।

ऋग्वैदिक सभ्यता तथा उत्तर-वैदिक काल की सभ्यता एवं संस्कृति में पर्याप्त अन्तर है। उत्तर वैदिक स्थलों की पुरातात्त्विक खुदाइयों एवं अन्वेषण के परिणाम स्वरूप 500 बस्तियाँ के अवशेष मिले हैं। इन्हें चित्रित धूसर भाण्ड वाले स्थल कहते हैं क्योंकि इन स्थलों पर बसे हुए लोगों ने मिट्टी के चित्रित एवं भूरे कटोरों और थालियों का उपयोग किया।

वे लोहे के औजारों का भी उपयोग करते थे। बाद के वैदिक ग्रंथों और चित्रित धूसर भाण्डों के लौह अवस्था वाले पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर हम ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध के पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्र, हरियाणा और राजस्थान के लोगों के जीवन के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

उत्तर-वैदिक सभ्यता की बस्तियाँ

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कृषि और विविध शिल्पों के कारण उत्तर वैदिक काल के लोग अब स्थायी जीवन बिताने लग गए थे। पुरातात्त्विक खुदाई तथा अन्वेषण से हमें उत्तर वैदिक काल की बस्तियों के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। चित्रित धूसर भांडों वाले स्थान न केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली (कुरु-पांचाल) में, अपितु पंजाब एवं हरियाणा के समीपवर्ती क्षेत्र मद्र और मत्स्य (राजस्थान) में भी मिले हैं। कुल मिलाकर ऐसे 500 स्थल मिले हैं जो प्रायः ऊपरी गंगा की घाटी में में स्थित हैं। इनमें से हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा और नोह जैसे चंद स्थलों की ही खुदाई हुई है। चूँकि यहाँ की बस्तियों के भौतिक अवशेष एक मीटर से तीन मीटर की ऊँचाई तक व्याप्त हैं, इसलिए अनुमान होता है कि यहाँ एक से तीन सदियों तक बसवाट रही। ये अधिकतर नई बस्तियाँ थीं। इनके पहले इन स्थानों पर बस्तियाँ नहीं थीं। लोग मिट्टी की ईटों के घरों में अथवा लकड़ी के खंभों पर आधारित टट्टर और लेप के घरों में रहते थे। यद्यपि उनकेे घर घटिया प्रकार के थे परन्तु चूल्हों और अनाजों (चावल) के अवशेषों से पता चलता है कि चित्रित धूसर भांडों का उपयोग करने वाले उत्तर वैदिक कालीन लोग खेती करते थे और स्थायी जीवन बिता रहे थे। वे लोग लकड़ी के फालों वाले हल से खेत जोतते थे, इसलिए किसान अधिक पैदा नहीं कर पाते थे। इस समय का किसान, नगरों के उत्थान में अधिक योगदान करने में समर्थ नहीं था।

उत्तर-वैदिक सभ्यता में राजनीतिक दशा

उत्तर-वैदिक सभ्यता में आर्यों की राजनीतिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो गया था। इस काल में राजन्य ने शेष तीन वर्णों पर अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया। ऐतरेय ब्राह्मण में राजन्य के सापेक्ष, ब्राह्मण को जीविका-खोजी और दान ग्रहण करने वाला कहा गया है। राजन्य द्वारा उसे हटाया जा सकता था। वैश्य को दान देने वाला कहा गया है। राजन्य द्वारा उसका इच्छापूर्वक दमन किया जा सकता था। सबसे कठोर बातें शूद्रों के बारे में पढ़ने को मिलती हैं। उसे दूसरों का सेवक, दूसरों के आदेश पर काम करने वाला और दूसरों द्वारा मनमर्जी से पीटने योग्य कहा गया है।

(1) शासन क्षेत्र में परिवर्तन

ऋग्वैदिक आर्यों की राज-सत्ता केवल सप्त-सिन्धु क्षेत्र तक सीमित थी, परन्तु उत्तर-वैदिक सभ्यता में वे पंजाब से लेकर गंगा-यमुना के दोआब में स्थित समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैल गए थे। भरत और पुरु नामक दो प्रमुख कबीले एकत्र हुए और इस प्रकार कुरु-जन कहलाए।

आरम्भ में ये लोग दोआब के सीमांत में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश में बसे हुए थे परन्तु कुरुओं ने शीघ्र ही दिल्ली और दोआब के उत्तरी भाग पर अधिकार जमा लिया। इस क्षेत्र को कुरुदेश कहते हैं। शनैःशनैः ये लोग पंचालों से मिलते गए। वर्तमान बरेली, बदायूं और फर्रूखाबाद जिलों में फैला हुआ, उस समय का पंचाल राज्य अपने दार्शनिक राजाओं और ब्राह्मण पुरोहितों के लिये प्रसिद्ध था।

कुरु-पंचालों का दिल्ली और उत्तरी तथा मध्य दोआब पर अधिकार स्थापित हो गया। मेरठ जिले के हस्तिनापुर स्थान पर उन्होंने अपनी राजधानी स्थापित की। महाभारत युद्ध की दृष्टि से कुरु कबीले के इतिहास का बड़ा महत्त्व है, और यही युद्ध महाभारत की प्रमुख घटना है।

समझा जाता है कि यह युद्ध 950 ई.पू. के आसपास कौरवों और पाण्डवों के बीच लड़ा गया था। ये दोनों ही कुरु जन के सदस्य थे। परिणामतः लगभग सम्पूर्ण कुरु कबीला नष्ट हो गया। कालान्तर में आर्यों ने दक्षिण-भारत में भी अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार आरम्भ किया।

उत्तर-वैदिक सभ्यता के अंतिम चरण में, 600 ई. पू. के आसपास, वैदिक लोग दोआब से पूर्व की ओर कोशल (पूर्वी उत्तर प्रदेश) और विदेह (उत्तरी बिहार) में फैल चुके थे। यद्यपि कोसल का रामकथा से बड़ा सम्बन्ध है, पर वैदिक साहित्य में राम का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में इन वैदिक लोगों को ऐसे लोगों का सामना करना पड़ा जो ताम्बे के औजारों और काले व लाल रंग के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। ये लोग यहाँ लगभग 1800 ई.पू. में बसे हुए थे। आर्यों को इस क्षेत्र में सम्भवतः ऐसे लोगों की बस्तियां भी जहां-तहां मिलीं जो काले और लाल बर्तनों का उपयोग करते थे।

अनुमान होता है कि ये लोग एक मिश्रित संस्कृति वाले थे जिसे हड़प्पा कालीन संस्कृति नहीं कहा जा सकता। उत्तर वैदिक लोगों के शत्रु जो भी रहे हों, उनका प्रत्यक्षतः किसी बड़े और सुसम्बद्ध क्षेत्र पर अधिकार नहीं था और उनकी संख्या उत्तरी गंगा की घाटी में बहुत अधिक नहीं थी, विस्तार के दूसरे चरण में भी उत्तर वैदिक आर्यों की सफलता का कारण लोहे के औजारों और घोड़ों वाले रथों का उपयोग किया जाना था।

(2) राजन्य की शक्तियों में वृद्धि

ऋग्वैदिक काल में राज्य का आकार बहुत छोटा होता था परन्तु उत्तर-वैदिक सभ्यता में बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना की गई और राजन्य अर्थात् राजा पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली हो गये। अब वीर विजयी राजन्य स्वयं को र्साभौम, एकराट् आदि उपाधियों से विभूषित करने लगे।

राजन्य अपने प्रभाव में वृद्धि के लिये राजसूय, वाजपेय, अश्वमेध आदि यज्ञ करने लगे। ये यज्ञ राजन्य की सार्वभौम सत्ता के सूचक होते थे। समझा जाता था कि राजसूय यज्ञों से राजाओं को दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। अश्वमेध यज्ञ में जितने क्षेत्र में राजा का घोड़ा निर्बाध विचरण करता था उतने क्षेत्र पर उस राजा का अधिकार हो जाता था।

वाजपेय यज्ञ में अपने सगोत्रीय बंधुओं के साथ रथों की दौड़ होती थी। इन सब आयोजनों और अनुष्ठानों से लोग प्रभावित होते थे। साथ ही राजा की शक्ति और प्रभाव भी बढ़ता था। अब राजन्य को देवता का स्वरूप समझा जाने लगा। राजन्य की आज्ञा का पालन करना आवश्यक था। यद्यपि राजन्य का पद अब भी वंशानुगत था परन्तु निर्वाचन-प्रणाली भी आरम्भ हो गई थी। निर्वाचन राजवंश तक ही सीमित था।

(3) जनपद एवं राष्ट्र की धारणा का उदय

राज्य के विस्तार के साथ राजन्य अथवा राजा की शक्ति बढ़ती गई। कबीलाई अधिकार प्रदेश-विशेष तक सीमित थे। राजन्य का शासन कई कबीलों पर होता था परन्तु आर्यों के प्रमुख कबीलों ने उन प्रदेशों पर भी अधिकार जमा लिया जहाँ दूसरे कबीले बसे हुए थे।

आरम्भ में प्रत्येक प्रदेश को वहाँ बसे हुए कबीले का नाम दिया गया था, पर अंत में जनपद नाम, प्रदेश नाम के रूप में रूढ़ हो गया। आरम्भ में पंचाल एक कबीले का नाम था परन्तु बाद में यह एक प्रदेश का नाम हो गया। राष्ट्र शब्द, जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इसी काल में प्रकट हुआ।

(4) सीमित राजतंत्र

यद्यपि उत्तर-वैदिक सभ्यता में राजन्य ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा अधिक स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश हो गया था परन्तु राजन्य पर पुरोहित का नियन्त्रण होता था। पुरोहित सोम को अपना राजन्य मानता था और वह राजन्य की समस्त आज्ञाएँ मानने के लिए बाध्य न था। कभी-कभी पुरोहित, राजन्य के विरुद्ध विद्रोह भी कर देता था। राजन्य को यह शपथ लेनी पड़ती थी कि वह पुरोहित के साथ कभी भी धोखा नहीं करेगा। राज्य के नियमों की पालना करना तथा ब्राह्मणों की रक्षा करना राजन्य का परम धर्म होता था। राजन्य पर धर्म का भी बहुत बड़ा नियन्त्रण रहता था। अतः उसे धर्मानुकूल शासन करना होता था। 

(5) पदाधिकारियों की संख्या में वृद्धि

उत्तर-वैदिक सभ्यता में ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा पदाधिकारियों की संख्या तथा उनके अधिकारों में बड़ी वृद्धि हो गयी। ऋग्वैदिक काल में केवल तीन पदाधिकरी थे- पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी परन्तु अब स्थपति, निषाद-स्थपति, शतपति आदि नये पदाधिकारी भी उत्पन्न हो गये थे।

स्थपति सम्भवतः राज्य के एक भाग का शासक होता था और उसे शासन के साथ-साथ न्यायिक कार्य भी करने होतेे थे। निषाद-स्थपति सम्भवतः उस पदाधिकरी को कहते थे जो उन आदिवासियों पर शासन करता था, जिन पर आर्यों ने विजय प्राप्त कर ली थी।

शतपति नामक पदाधिकरी के अनुशासन में सम्भवतः सौ गाँव रहते थे। अब पुराने पदाधिकारियों के अधिकारों में भी वृद्धि हो गयी थी। राजन्य अपने सिंहासन से उतर कर पुरोहित को प्रणाम करता था। अब राजन्य रण-क्षेत्र में कम ही जाया करता था, इसलिये सेनानी रण-क्षेत्र में सेना का संचालन करता था। फलतः उसके प्रभाव में भी वृद्धि हो गयी थी।

उत्तर वैदिक काल में भी राजन्य की कोई स्थायी सेना नहीं होती थी। युद्ध के अवसर पर जन से सैनिक टुकड़ियां एकत्र की जाती थीं। युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए एक अनुष्ठान यह था कि राजन्य को अपनी प्रजा (विश्) के साथ एक पात्र में भोजन करना पड़ता था। ग्रामणी के अधिकार तथा प्रभाव में तो इतनी वृद्धि हो गयी थी कि उसे राजकृत अर्थात् राजन्य को बनाने वाला कहने लगे थे। राजकाज चलाने में राजमहिषी भी राजन्य की सहायता करती थी।

(6) सभा तथा समिति के अधिकारों में कमी

यद्यपि सभा तथा समिति का अस्तित्त्व उत्तर-वैदिक काल में भी बना रहा परन्तु अब उनके अधिकार तथा प्रभाव में बड़ी कमी हो गयी। समिति बड़ी संस्था थी और सभा छोटी। अब राज्य-विस्तार बढ़ जाने के कारण समिति का जल्दी-जल्दी बुलाया जाना सम्भव नहीं था। इसलिये राजन्य उसके परामर्श की उपेक्षा करने लगा और अधिकांश कार्य अपने निर्णय से करने लगा। सभा का महत्त्व भी घट गया।

(7) न्याय व्यवस्था में सुधार

उत्तर-वैदिक कालीन न्याय-व्यवस्था ऋग्वैदिक काल की न्याय-व्यवस्था की अपेक्षा अधिक सुदृढ़़ तथा व्यापक हो गई थी। अब राजन्य न्यायिक कार्य में पहले से अधिक रुचि लेने लगा परन्तु वह अपने न्यायिक अधिकारों को प्रायः अपने पदाधिकारियों को दे देता था।

गाँवों के झगड़ों का निर्णय ग्राम्यवादिन करता था जो गाँव का न्यायाधीश होता था। ब्राह्मण की हत्या बहुत बड़ा अपराध समझा जाता था। ब्राह्मण को प्राण-दण्ड नहीं दिया जाता था। सोने की चोरी तथा सुरापान भी बहुत बड़ा अपराध समझा जाता था। दीवानी मुकदमों का निर्णय प्रायः पंचों द्वारा किया जाता था।

(8) जनपद राज्यों का आरम्भ

उत्तर वैदिक काल में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। जनपद राज्यों का आरम्भ हुआ। न केवल गोधन की प्राप्ति के लिए, अपितु भूमि पर अधिकार के लिए भी युद्ध होने लगे। कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया महाभारत युद्ध सम्भवतः इसी काल में हुआ।

(9) राजन्य को भेंट व्यवस्था

वैदिक काल का प्रधानतः पशुपालक समाज, अब कृषक बन गया। अब वह अपने राजन्य को प्रायः भेंट देने में समर्थ था। कृषकों के बल पर राजाओं की शक्ति बढ़ी और उन्होंने उन पुरोहितों को खूब दान-दक्षिणा दी जिन्होंने वैश्यों यानी सामान्य जनता के विरोध में अपने आश्रयदाताओं की सहायता की। शूद्रों के छोटे समुदाय का काम सेवा करना था।

(10) कर व्यवस्था

इस काल में करों की वसूली और दक्षिणा आम बात हो गई। इन्हें सम्भवतः संगृहित्री नामक अधिकारी के पास जमा किया जाता था।

उत्तर-वैदिक सभ्यता में सामाजिक दशा

यद्यपि उत्तर-वैदिक काल के आर्यों के गृह-निर्माण, वेश-भूषा, खान-पान, मनोरंजन आदि में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, परन्तु सामाजिक जीवन के कई क्षेत्रों में बहुत बड़े परिवर्तन हुए।

(1) पिता की शक्तियों में वृद्धि

उत्तर वैदिक काल में, परिवार में पिता की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई थी। यहाँ तक कि पिता अपने पुत्र को भी उत्तराधिकार से वंचित रख सकता था। राज-परिवारों में ज्येष्ठाधिकार को अधिकाधिक महत्त्व दिया जाने लगा तथा पूर्व-पुरुषों की पूजा होने लगी।

(2) गोत्र व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था दृढ़ हुई। गोत्र शब्द का अर्थ है गोष्ठ अथवा वह स्थान जहाँ समस्त कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ हो गया- एक मूल पुरुष के वंशज। गोत्रीय बहिर्विवाह की प्रथा आरम्भ हो गई। एक ही गोत्र अथवा पूर्व-पुरुष वाले समुदाय के सदस्यों के बीच विवाह पर प्रतिबंध लग गया।

(3) नगरों का प्रादुर्भाव

ऋग्वैदिक आर्य केवल गाँवों में ही निवास करते थे। उन्होंने नागरिक जीवन को नहीं अपनाया था। ऋग्वेद में नगर शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु जब उत्तर वैदिक आर्य गंगा-यमुना के उपजाऊ मैदानों में आ गये तब उन्होंने बड़े-बड़े नगरों को बसाया तथा नगरों में निवास करना आरम्भ किया। अब यही नगर, राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन के केन्द्र बन गये।

नगरों की वास्तविक शुरूआत का आभास उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में मिलता है। हस्तिनापुर और कौशाम्बी को उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर के आदिम पद्धति के नगर माना जा सकता है। इन्हें प्राक्-नगरीय स्थल कहा जा सकता है।

(4) भोजन में परिवर्तन

उत्तर-वैदिक काल के आर्यों ने अपने भोजन में भी थोड़ा बहुत परिवर्तन कर लिया। अब मांस-भक्षण को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा और ब्राह्मणों के लिए इसका निषेध हो गया। अथर्ववेद के एक सूक्त में मांस-भक्षण तथा सुरापान को पाप बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि इस काल में अंहिसा के विचार का बीजारोपण हो गया था। अब सोम के स्थान पर मासर, पूतिका, अर्जुनानी आदि अन्य पेय पदार्थों का प्रयोग होने लगा था।

(5) स्त्रियों की दशा में परिवर्तन

उत्तर-वैदिक काल में स्त्रियों की दशा पहले से बिगड़ गई। अब राजवंशों तथा सम्पन्न परिवारों में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित हो गई थी। इसलिये घरों में स्त्रियों का जीवन कलहपूर्ण हो गया। अब कन्याओं को दुःख का कारण समझा जाने लगा। कन्या का जन्म होने पर लोग दुःखी होते थे परन्तु कन्याओं की शिक्षा पर अब भी ध्यान दिया जाता था।

इस काल में गार्गी तथा मैत्रेयी आदि विदुषी स्त्रियों के नाम मिलते हैं जो वैदिक वाद-विवादों में भाग लेती थीं। यद्यपि यज्ञादि धार्मिक अवसरों पर स्त्रियों को भाग लेने का अधिकार था परन्तु अब वे सार्वजनिक सभाओं आदि में नहीं आ-जा सकती थीं। बाल-विवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी थी।

(6) वैवाहिक सम्बन्ध में जटिलता

उत्तर-वैदिक काल में विवाह सम्बन्धी नियम कठोर हो गये। अब सगोत्री विवाह अच्छा नही समझा जाता था। भिन्न गोत्र में विवाह करना अच्छा समझा जाता था। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि विधवा-विवाह तथा बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन हो गया था। मनु की दस पत्नियाँ थीं। उच्च-वर्ण की कन्या का विवाह निम्न-वर्ण में नहीं होता था। यदा-कदा कन्याओं का विक्रय होता था और दहेज-प्रथा प्रचलित हो गई थी।

(7) वर्ण-व्यवस्था में जटिलता

उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच में एक विभाजन रेखा देखने को मिलती हैं। तीनों उच्च वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों का उपनयन संस्कार होता था। चौथे वर्ण का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। शूद्रों पर प्रतिबंध लगने आरम्भ हो गए। फिर भी राज्याभिषेक से सम्बन्धित ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान थे जिनमें शूद्र, सम्भवतः मूल कबीले के सदस्यों की हैसियत से भाग लेते थे।

कुछ विशेष वर्गों के शिल्पियों को, जैसे रथकारों को, समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था, और उन्हें उपनयन संस्कार के अधिकारियों की सूची में सम्मिलित किया गया था। वर्ण-व्यवस्था जाति-प्रथा का रूप लेती जा रही थी। कार्य अथवा व्यवसाय के स्थान पर जन्म, जाति का आधार होने लगा था।

उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल की चार जातियों के अतिरिक्त दो और जातियाँ बन गयी थीं। इनमें से एक निषाद कहलाती थी और दूसरी व्रात्य। निषाद लोग अनार्य थे। सम्भवतः ये लोग भील जाति के थे। व्रात्य लोग सम्भवतः वे आर्य थे जो ब्राह्मण धर्म को नहीं मानते थे। विभिन्न व्यवसायों के अनुसार बढ़ई, लोहार, मोची आदि उपजातियाँ बनने लगी थीं और अन्तर्जातीय विवाह को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा था।

(8) आश्रम-व्यवस्था की दृढ़ता

वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था ठीक से स्थापित नहीं हुई थी। उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में केवल तीन आश्रमों की जानकारी मिलती है, अंतिम अथवा चौथे आश्रम की स्पष्ट रूप से स्थापना नहीं हुई थी। वैदिकोत्तर ग्रंथों में चार आश्रमों के बारे में जानकारी मिलती है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। उच्च वर्ण वालों को निश्चित रूप से आश्रम व्यवस्था का पालन करना पड़ता था।

(9) वंशानुगत उद्योग-धन्धे

अब व्यवसाय वंशानुगत हो गया था और एक परिवार के लोग एक ही व्यवसाय करने लगे थे। यही कारण था कि उपजातियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी।

(10) शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि

वैदिक यज्ञों में वृद्धि हो जाने के कारण शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि हो गई। यद्यपि शिक्षा का मुख्य विषय वेदों का अध्ययन ही था परन्तु वैदिक मन्त्रों के साथ-साथ विज्ञान, गणित, भाषा, युद्ध-विद्या आदि की भी शिक्षा दी जाने लगी। विद्यार्थी, गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करता था और ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करता था। शिक्षा समाप्त हो जाने पर वह गुरु को दक्षिणा देकर घर आता था और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था।

उत्तर-वैदिक सभ्यता में आर्थिक दशा

उत्तर-वैदिक काले में आर्यों की आर्थिक दशा में क्रमशः परिवर्तन होता गया था तथा अब उसमें जटिलता आने लगी थी। अब वे गाँवों के अतिरिक्त नगरों में भी निवास करने लगे थे और उनका जीवन अधिक सम्पन्न हो गया था।

(1) धातु-ज्ञान में वृद्धि

आर्यों को ऋग्वैदिक काल में लौह, स्वर्ण तथा अयस् आदि धातुओं का ज्ञान प्राप्त था परन्तु उत्तर वैदिक काल में उन्हें रांगा, सीसा तथा चांदी का भी ज्ञान प्राप्त हो गया था। इस काल में लाल-अयस् तथा कृष्ण-अयस् का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः लाल-अयस का तात्पर्य ताम्बे से और कृष्ण-अयस् का तात्पर्य लोहे से था।

(2) लोहे के उपयोग में वृद्धि

उत्तर वैदिक काल में लोहे का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। पाकिस्तान के गांधार प्रदेश में 1000 ई.पू. के आसपास गाढ़े गये शवों के साथ लोहे के बहुत सारे औजार और उपकरण मिले हैं। इस प्रकार की लौह निर्मित वस्तुएं बिलोचिस्तान से भी मिली हैं। लगभग उसी समय से पूर्र्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी लोहे का उपयोग हो रहा था।

पुरातात्विक अन्वेषण से ज्ञात होता है कि 800 ई.पू. के लगभग पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तीरों के फलक और भालों के फलक जैसे लोहे के औजार बनने लग गये थे। लोहे के इन हथियारों से उत्तर वैदिक आर्यों ने उत्तरी दो आब में बसे अपने बचे-खुचे शत्रुओं को परास्त किया होगा।

उत्तरी गंगा की घाटियों के जंगलों को साफ करने के लिये लोहे की कुल्हाड़ी का उपयोग हुआ होगा। उस काल में वर्षामान 35 से 65 सेंटीमीटर तक होने से ये जंगल बहुत घने नहीं रहे होंगे। वैदिक काल के अंतिम चरण में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैल गया था। ई.पू. सातवीं सदी से इन प्रदेशों में लोहे के औजार मिलने लग जाते हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का प्रयोग सर्वाधिक हुआ। लोहे के हथियारों का उपयोग लगातार बढ़ते जाने के के कारण योद्धा-वर्ग महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा। नए कृषि औजारों और उपकरणों की सहायता से किसान आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करने लगे।

राजा, सैनिक और प्रशासकीय आवश्यकताओं के लिए, इस अतिरिक्त उपज को एकत्र कर सकता था। इस अतिरिक्त उपज को ईसा-पूर्व छठी सदी में स्थापित हुए नगरों के लिए भी जमा किया जा सकता था। इन भौतिक लाभों के कारण किसान का कृषि कार्य में लगातार लगे रहना स्वाभाविक था।

लोग अपनी पुरानी बस्तियों से बाहर निकलकर समीप के नए क्षेत्रों में फैलने लगे। इस प्रकार लोहे का उपयोग बढ़ते जाने से आर्यों का ग्राम्य प्रधान जीवन नगरीकरण की ओर बढ़ने लगा तथा छोटे-छोटे जन के स्थान पर बड़े-बड़े जनपद राज्यों की स्थापना का मार्ग खुल गया।

(3) भूमिपतियों का प्रादुर्भाव

ऋग्वैदिक काल में भूमिपतियों का कहीं नाम नहीं था परन्तु अब बड़े-बड़े भूमिपतियों का प्रादुर्भाव हो रहा था। बहुत से भूमिपति सम्पूर्ण गाँव के स्वामी होते थे। गाँव के लोगों पर उनका बड़ा प्रभाव रहता था।

(4) वैश्यों के काम का निर्धारण

उत्तर वैदिक काल में वैश्य वर्ग के अंतर्गत सामान्य प्रजा का समावेश होता था। उन्हें कृषि और पशुपालन जैसे उत्पादक कार्य सौंपे गए थे। कुछ वैश्य शिल्पकार भी थे। वैदिक काल के अंत में वे व्यापार में जुट गए। उत्तर वैदिक काल में सम्भवतः केवल वैश्य ही भेंट अथवा उपहार देते थे।

क्षत्रिय, वैश्यों से प्राप्त भेंट पर अपनी जीविका चलाते थे। सामान्य कबीलाई प्रजा को भेंट देने वालों की स्थिति में पहुंचने में लंबा समय लगा। कई ऐसे अनुष्ठान थे जिनके माध्यम से विश् अथवा वैश्यों को राजन्य के अधीन बनाया जाता था।

(5) कृषि में आमूलचूल परिवर्तन

वैदिक काल के आर्य मुख्यतः पशुपालक थे किंतु उत्तर वैदिक काल मे कृषि में बड़ी उन्नति हो गयी थी। अब आर्य लोग गंगा-यमुना की अत्यन्त उपजाऊ भूमि में पहुँच गये थे। अब वे बड़े-बड़े हलों का प्रयोग करने लगे थे। कृषि सम्बन्धी लोहे के औजार बहुत थोड़े मिले हैं किंतु इसमें संदेह नहीं कि उत्तर वैदिक कालीन लोगों की जीविका का मुख्य साधन कृषि ही था।

कुछ वैदिक ग्रंथों में छः आठ, बारह और चौबीस बैलों द्वारा जोते जाने वाले हलों के उल्लेख मिलते हैं। इसमें अतिश्योक्ति हो सकती है। हलों के फाल लकड़ी के होते थे। उत्तरी गंगा की नरम मिट्टी में इनसे संभवतः काम चल जाता था। यज्ञों में होने वाली पशु बलि के कारण पर्याप्त बैल उपलब्ध नहीं हो सकते थे। इसलिये कृषि आदिम स्तर की थी परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह व्यापक स्तर पर होती थी।

शतपथ ब्राह्मण में हल की जुताई से सम्बन्धित अनुष्ठानों के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। प्राचीन आख्यानों के अनुसार सीता के पिता विदेहराज जनक भी स्वयं हल जोतते थे। उस जमाने में राजन्य और राजकुमार भी शारीरिक श्रम करने में संकोच नहीं करते थे। कृष्ण के भाई बलराम को हलधर कहा जाता है। बाद में उच्च वर्णों के लोगों द्वारा हल जोतने पर निषेध लग गया।

इस काल के कृषक विभिन्न प्रकार की खादों का भी प्रयोग करने लगे थे। वैदिक लोग जौ पैदा करते रहे परंतु इस काल में उनकी मुख्य पैदावार धान और गेहूँ बन गया। कालांतर में गेहूँ का स्थान प्रमुख हो गया। आज भी उत्तर प्रदेश और पंजाब के लोगों का मुख्य अनाज गेहूँ ही है। दोआब में पहुँचने पर वैदिक लोगों को चावल की भी जानकारी मिली।

वैदिक ग्रंथों में चावल को व्रीहि कहा गया है। हस्तिनापुर से चावल के जो अवशेष मिले हैं वे ईसा पूर्व आठवीं सदी के हैं। अनुष्ठानों में चावल के उपयोग के विधान मिलते हैं परन्तु अनुष्ठानों में गेहूँ का बहुत कम उपयोग होता था। उत्तर वैदिक काल में कई तरह की दालें भी उगाई जाती थीं।

(6) वाणिज्य तथा व्यापार में उन्नति

उत्तर-वैदिक काल में, ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा व्यापार तथा वाणिज्य में अधिक वृद्धि हो गयी थी। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि अब वे एक विशाल मैदान के निवासी बन गये थे जो बड़ा ही उपजाऊ तथा धन-सम्पन्न था। इस काल में व्यापारियों का एक अलग वर्ग बन गया था जिन्हें वणिक कहते थे। धनी व्यापारी श्रेष्ठिन् कहलाता था।

आर्य लोगों का आन्तरिक व्यापार पहाड़ियों में रहने वाले किरातों के साथ होता था, जिन्हें ये कपड़े देकर औषधि के लिए जड़ी-बूटियाँ प्राप्त करते थे। अब ये लोग समुद्र से भी परिचित हो गये थे और बड़ी-बड़ी नावों द्वारा सामुद्रिक व्यापार भी करते थे। अब आर्य लोग निष्क, शतमान तथा कृष्णाल नाम की मुद्राओं का प्रयोग करने लगे थे जिससे व्यापार में बड़ी सुविधा होने लगी।

(7) अन्य व्यवसायों की उन्नति

ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा अब उद्योग धन्धों में भी अधिक वृद्धि हो गई थी और कार्य विभाजन का सिद्धान्त दृढ़ हो गया था। यजुर्वेद में उन सब व्यवसायों का उल्लेख है जिन्हें इस काल की आर्य प्रजा करती थी। इनमें शिकारी, मछुए, पशुपालक, हलवाह, जौहरी, चटाई बनाने वाले, धोबी, रंगरेज, जुलाहे, कसाई, सुनार, बढ़ई आदि आते हैं।

उत्तर-वैदिक सभ्यता में कलाओं का विकास

उत्तर-वैदिक काल में कला के क्षेत्र में भी कई परिवर्तन दिखाई देते हैं। काव्य-कला का स्वरूप अत्यन्त व्यापक हो गया था।

(1) गृह निर्माण कला

हस्तिनापुर में 900 ई.पू. से 500 ई.पू. के स्तरों के बीच की जो खुदाई हुई है, उसमें बस्ती के अस्तित्व और नगरीय जीवन के प्रारंभ होने के प्रमाण मिलते हैं परंतु पुरातत्व की यह जानकारी हस्तिनापुर के बारे में महाभारत से मिलने वाली जानकारी से मेल नहीं खाती।

क्योंकि इस महाकाव्य का संकलन बहुत बाद में, ईसा की चौथी सदी में, उस समय हुआ था जब भौतिक जीवन की काफी उन्नति हो चुकी थी। उत्तर वैदिक काल के लोग पकी हुई ईंटों का उपयोग करना नहीं जानते थे। हस्तिनापुर की खुदाई में मिट्टी के जो स्मारक मिले हैं वे भव्य और टिकाऊ नहीं रहे होंगे। हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया था इसलिये बचे-खुचे कुरु लोग प्रयाग के समीप कौशाम्बी में जाकर बस गये थे।

(2) धातु शिल्प कला

उत्तर वैदिक काल में अनेक कलाओं और शिल्पों का उदय हुआ। हमें लुहारों और धातुकारों के बारे में जानकारी मिलती है। लगभग 1000 ई.पू. के आसपास निश्चय ही इनका सम्बन्ध लोहे के उत्पादन से रहा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार से 1000 ई.पू. के पहले के तांबे के कई औजार मिले हैं उनसे वैदिक और अवैदिक दोनों ही समाजों में ताम्रकारों का अस्तित्त्व सूचित होता है।

वैदिक लोगों ने सम्भवतः राजस्थान के खेतड़ी की तांबे की खानों का उपयोग किया था। वैदिक लोगों ने सर्वप्रथम ताम्र धातु का उपयोग किया था। चित्रित धूसर भांडों वाले स्थलों से भी तांबे के औजार मिले हैं। इन ताम्र-वस्तुओं का उपयोग मुख्यतः युद्ध, आखेट और आभूषणों के लिए भी होता था।

(3) बर्तन निर्माण कला

उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मिट्टी के बर्तनों से परिचित थे- काले एवं लाल भांड, काले रंग के भांड, चित्रित धूसर भांड और लाल भांड। अंतिम किस्म के भांड उन्हें अधिक प्रिय थे। ये भांड प्रायः पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मिले हैं परन्तु इस युग के विशिष्ठ भांड हैं- चित्रित धूसर भांड।

इनमें कटोरे और थालियां मिली हैं जिनका उपयोग उच्च वर्णों के लोगों द्वारा पूजा-पाठ अथवा भोजन अथवा दोनों कामों के लिए होता था। चित्रित धूसर भांडों के साथ कांच की वस्तुएं और कंकण मिले हैं। उनका उपयोग भी उच्च वर्ग के सदस्य ही करते होंगे।

(4) आभूषण निर्माण कला

पुरातात्त्विक खुदाई और वैदिक ग्रंथों से विशिष्ट शिल्पों के अस्तित्त्व के बारे में जानकारी मिलती है। उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में जौहरियों के भी उल्लेख मिलते हैं। ये सम्भवतः समाज के धनी लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।

(5) बुनाई कला

बुनाई का काम केवल स्त्रियाँ करती थीं, फिर भी यह काम बड़े पैमाने पर होता था।

(6) काव्य कला

ऋग्वेद में केवल स्तुति-मन्त्रों का संग्रह है, परन्तु यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा सूत्रों की रचना के द्वारा काव्य-क्षेत्र को अत्यन्त विस्तृत कर दिया गया। यजुर्वेद में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है। सामवेद गीति-काव्य है। संगीत-कला पर उसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

अथर्ववेद में भूत-प्रेत से रक्षा तथा तन्त्र-मन्त्र का विधान है। ब्राह्मण-ग्रन्थों में उच्चकोटि की दार्शनिक विवेचना है। सूत्रों की रचना इसी काल में हुई। सूत्रों के प्रादुर्भाव से, सूचनाओं को संक्षेप में लिखने की कला की उन्नति हुई।

(7) खगोल विद्या

इस काल में खगोल विद्या भी बड़ी उन्नति कर गई। इस काल के आर्यों को नये-नये नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त हो गया।

(8) अन्य कलायें

उत्तर वैदिक काल में चर्मकार, कुम्हार तथा बढ़ई आदि शिल्पों ने बहुत उन्नति की।

(9) औषधि विज्ञान

औषधि-विज्ञान अब भी अवनत दशा में था।

उत्तर-वैदिक सभ्यता में धार्मिक दशा

ऋग्वैदिक काल का धर्म, सरल तथा आडम्बरहीन था परन्तु उत्तर-वैदिक काल का धर्म जटिल तथा आडम्बरमय हो गया। इस काल में उत्तरी दोआब में ब्रह्माण धर्म के प्रभाव के अंतर्गत आर्य संस्कृति का विकास हुआ। अनुमान होता है कि सम्पूर्ण उत्तर वैदिक साहित्य का संकलन कुरु-पांचाल प्रदेश में हुआ। यज्ञकर्म और इससे सम्बन्धित अनुष्ठान और विधियां इस संस्कृति की मेरूदंड थीं।

(1) ब्राह्मणों की प्रधानता

इस युग में ब्राह्मणों की प्रधानता तथा उनका महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना इसी काल में हुई। इन ग्रन्थों के रचयिता ब्राह्मण थे और इनका सम्बन्ध भी ब्राह्मणों से ही था। वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों के सच्चे ज्ञान का अधिकारी ब्राह्मणों को ही समझा जाता था। ब्राह्मण ही यज्ञ करता और कराता था, इसलिये उसका आदर-सम्मान भी अधिक था।

इस काल में ब्राह्मण का स्थान इतना ऊँचा हो गया था कि वह भू-सुर, भू-देव आदि नामों से सम्बोधित किया जाने लगा। यज्ञों के प्रसार के कारण ब्राह्मणों की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई थी। आरम्भ में पुरोहितों के सोलह वर्गों में से ब्राह्मण एक वर्ग मात्र था, परन्तु शनैः शनैः इन्होंने दूसरे पुरोहित-वर्गोंं को पछाड़ दिया और ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग बन गए।

ये अपने और अपने यजमानों के लिए पूजा-पाठ और यज्ञ करते थे। साथ ही, कृषि कर्म से सम्बन्धित समारोहों का आयोजन भी करते थे। ये अपने आश्रयदाता राजा के लिये युद्ध में सफलता की कामना करते थे और बदले में राजा की ओर से दान-दक्षिणा तथा सुरक्षा का वचन मिलता था।

उच्चाधिकार के लिए ब्राह्मणों का कभी-कभी योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले क्षत्रियों से संघर्ष भी होता था परन्तु जब इन दो उच्च वर्णों का निम्न वर्णों से मुकाबला होता था तो ये आपसी मतभेदों को भुला देते थे। उत्तर वैदिक काल के अंत समय से इस बात पर बल दिया जाने लगा था कि इन दो उच्च वर्णों को परस्पर सहयोग करके शेष समाज पर शासन करना चाहिए।

(2) यज्ञ के महत्त्व में वृद्धि

इस युग में यज्ञों के महत्त्व में इतनी अधिक वृद्धि हो गई थी कि यदि इसे यज्ञों का युग कहा जाय तो कुछ अनुचित न होगा। इस काल में रचा जाने वाला यजुर्वेद, यज्ञ प्रधान ग्रन्थ है। उसमें यज्ञों के विधान की विस्तृत विवेचना की गई है। यज्ञों को करने में भी सरलता न रह गई थी।

गृहस्थ स्वयं यज्ञ नहीं कर सकता था वरन् उसे याज्ञिकों की आवश्यकता पड़ती थी। यज्ञ में समय भी अधिक लगता था। बहुत से यज्ञ वर्ष भर चलते थे और उनमें बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ता था। राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ केवल राजा ही कर सकते थे। इस कारण सर्वसाधारण के लिये यज्ञ करवाना कठिन कार्य हो गया।

यज्ञों का आयोजन सामूहिक रूप से और निजी रूप से भी होता था। सामूहिक यज्ञों में राजन्य और उस जन-समुदाय के समस्त सदस्य भाग लेते थे। निजी यज्ञ अलग-अलग लोगों द्वारा अपने-अपने घरों में आयोजित किए जाते थे, क्यांेकि इस काल में वैदिक लोग स्थायी जीवन बिताते थे और उनके अपने सुव्यवस्थित कुटुम्ब थे। अग्नि को व्यक्तिगत रूप से आहुति दी जाती थी और ऐसी प्रत्येक क्रिया एक अनुष्ठान अथवा यज्ञ का रूप धारण कर लेती थी।

(3) यज्ञों में बलि का चलन

ऋग्वेद काल में यज्ञ में केवल फल तथा दूध की बलि दी जाती थी परन्तु अब यज्ञ में पशु तथा सोम की बलि का महत्त्व हो गया। बड़ी-बड़ी बलियों और यज्ञों के अवसर पर राजाओं की ओर से प्रचुर मात्रा में भोजन सामग्री वितरित की जाती थी। समाज के समस्त वर्गों के लोगों को जिमाया जाता था।

(4) याज्ञिक वर्ग की उत्पति

यज्ञों की संख्या तथा महत्त्व में वृद्धि हो जाने तथा उनमें जटिलता आ जाने से ब्राह्मणों में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो यज्ञों का विशेषज्ञ होता था। इस वर्ग का एकमात्र व्यवसाय अपने यजमान के यहाँ यज्ञ कराना तथा उससे यज्ञ-शुल्क एवं दान प्राप्त करना हो गया। ब्राह्मण उन सोलह प्रकार के पुरोहितों में से एक थे जो यज्ञों का नियोजन करते थे।

समस्त पुरोहितों को उदारतापूर्वक दान-दक्षिणा दी जाती थी। यज्ञों के अवसर पर जो मंत्र पढ़े जाते थे, उनका यज्ञकर्ता को बड़ी सावधानी से उच्चारण करना होता था। यज्ञकर्ता को यजमान कहते थे। यज्ञ की सफलता यज्ञ के अवसर पर उच्चारित चमत्कारिक शक्ति वाले शब्दों पर निर्भर करती थी। वै

दिक आर्यों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठान दूसरे हिन्द-यूरोपीय लोगों में भी देखने को मिलते हैं परन्तु अनेक अनुष्ठानों का विकास भारत भूमि में हुआ। यज्ञ विधियों का आविष्कार, संयोजन एवं विकास ब्राह्मण पुरोहितों ने किया। उन्होंने बहुत सारे अनुष्ठानों का आविष्कार किया, इनमें से अनेक अनुष्ठान आर्येतर प्रजाओं से लिए गए थे। उत्तरवैदिक साहित्य में मिलने वाले उल्लेखों के अनुसार राजसूय यज्ञ करने वाले प्रधान पुरोहित को 2,40,000 गायें दक्षिणा के रूप में दी जाती थीं।

पुरोहितों को यज्ञों में, गायों के साथ-साथ सोना, कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे। यद्यपि पुरोहित दक्षिणा के रूप में कभी-कभी भूमि भी मांगते थे, तथापि यज्ञ की दक्षिणा के रूप भूमि-दान की प्रथा उत्तर वैदिक काल में भली-भाँति स्थापित नहीं हुई थी।

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि अश्वमेध यज्ञ में उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन समस्त दिशाओं का, पुरोहित को दान कर देना चाहिए। बड़े स्तर पर पुरोहितों को भूमि-दान किया जाना सम्भव नही था। एक उल्लेख ऐसा भी मिलता है कि पुरोहितों को दी जाने वाली भूमि ने अपना हस्तांतरण सम्भव नहीं होने दिया।

(4) उच्चकोटि का दार्शनिक विवेचन

600 ई.पू. के आसपास, उत्तर वैदिक काल का अंतिम चरण आरंभ हुआ। इस काल में, विशेषतः पंचाल और विदेह में, पुरोहितों के आधिपत्य, कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरुद्ध प्रबल आंदोलन आरम्भ हुआ तथा उपनिषदों की रचना हुई। इन दार्शनिक ग्रंथों में अनुष्ठानों की आलोचना की गई और सम्यक् विश्वासों एवं ज्ञान पर बल दिया गया।

इस काल के याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों द्वारा आत्मन् को पहचानने और आत्मन् तथा ब्रह्म के सम्बन्ध को सही रूप में समझने पर बल दिया गया। ब्रह्मा सर्वोच्च देव के रूप में उदित हुए। पंचाल और विदेह के कुछ क्षत्रिय राजाओं ने भी इस प्रकार के चिन्तन में भाग लिया और पुरोहितों के एकाधिकार वाले धर्म में सुधार करने के लिए वातावरण तैयार किया।

उनके उपदेशों से स्थायित्व और एकीकरण की विचारधारा को बल मिला। आत्मा की अपरिवर्तनशीलता और अमरता पर बल दिए जाने से स्थायित्व की संकल्पना मजबूत हुई, राजशक्ति को इसी की आवश्यकता थी। आत्मा और ब्रह्मा के सम्बन्धों पर बल दिए जाने से उच्च अधिकारियों के प्रति स्वामिभक्ति की विचारधारा को बल मिला।

इस काल की दार्शनिक विवेचना के अन्य प्रधान ग्रन्थ आरण्यक हैं। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का अनुमोदन भी इसी युग में किया गया। इसके अनुसार मनुष्य का आगामी जन्म उसके कर्मों पर निर्भर रहता है तथा अच्छा कार्य करने वाला, अच्छी योनि में और बुरा कार्य करने वाला बुरी योनि में जन्म लेता है।

इस युग में ज्ञान की प्रधानता पर बल दिया गया। मोक्ष प्राप्त करने के लिए ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक समझा गया। षड्दर्शन अर्थात् सांख्य, योग, न्याय वैशेषिक, पूर्व-मीमांसा तथा उत्तर-मीमांसा की रचना इसी काल में हुई।

(5) स्तुति पाठ

जिन भौतिक कारणों से लोग पूर्वकाल में देवताओं की आराधना करते थे, उन्हीं कारणों से अब भी करते थे परन्तु पूजा-पद्धति में काफी परिवर्तन हो गया था। स्तुति पाठ पहले की तरह ही होते थे, पर देवताओं को संतुष्ट करने की दृष्टि से अब उनका उतना महत्त्व नहीं रह गया था।

(6) देवताओं के महत्त्व में परिवर्तन

उत्तर-वैदिक सभ्यता में ऋग्वैदिक काल के देवताओं का महत्त्व घट रहा था और उनका स्थान अन्य नये देवता ग्रहण कर रहे थे। इन्द्र और अग्नि को, पहले जैसा महत्त्व नहीं था। इस युग में प्रजापति का महत्त्व देवताओं से अधिक हो गया। ऋग्वैदिक काल के दूसरे कई गौण देवताओं को भी उच्च स्थान प्रदान किए गए।

पशुओं के देवता रुद्र, उत्तर वैदिक काल में एक महत्त्वपूर्ण देवता बन गये। रुद्र को महादेव तथा पशुपति के नाम से पुकारा जाने लगा। रुद्र के साथ-साथ शिव का महत्त्व बढ़ने लगा। विष्णु अब उन लोगों के संरक्षक देवता समझे जाने लगे जो ऋग्वैदिक काल में अर्द्ध-घुमंतू जीवन बिताते थे और अब स्थायी जीवन बिताने लगे थे। विष्णु, वासुदेव कहलाने लगे।

भागवत सिद्धान्त का बीजारोपण भी इसी युग में हो गया था। जब समाज चार वर्गों- ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र में विभाजित हो गया तो प्रत्येक वर्ण के पृथक देवता अस्तित्त्व में आ गए। पूषन जिसे गौरक्षक समझा जाता था, बाद में शूद्रों का देवता बन गया।

(7) आडम्बर तथा अन्ध विश्वासों में वृद्धि

उत्तर-वैदिक सभ्यता के आर्यों के उत्तरी मैदान में बस जाने के कारण वे मानसून पर अत्यधिक निर्भर रहने लगे। फलतः उन्हें अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि का सामना करना पड़ा। कृषि पर कीट-पतंगों एवं रोगों का आक्रमण होता था। अतः फसलों को नष्ट होने से बचाने के लिए मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग होने लगा जिनका उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।

ऋग्वैदिक काल का विशुद्ध धर्म अब धीरे-धीरे आडम्बरों तथा अन्ध-विश्वासों का जाल बनने लगा था। अब यह विश्वास हो गया था कि यज्ञों तथा मन्त्रों द्वारा न केवल देवताओं को वश में किया जा सकता है वरन् उन्हें समाप्त भी किया जा सकता है। अब भूत-प्रेत तथा मन्त्र-तन्त्र में लोगों का विश्वास बढ़ता जा रहा था।

अथर्ववेद में भूत-प्रेतों का वर्णन है और तन्त्र-मन्त्रों द्वारा इनसे रक्षा का उपाय भी बताया गया है। इसके साथ-साथ कुछ प्रतीक-वस्तुओं की भी पूजा होने लगी। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति-पूजा भी आरम्भ हो गई।

वैदिक सभ्यता तथा द्रविड़ सभ्यता में अन्तर

वैदिक सभ्यता तथा द्रविड़ सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करने पर इनमें कई अन्तर दिखाई देते हैं। मुख्य अंतर इस प्रकार से हैं-

(1) काल सम्बन्धी अन्तर

सिन्धु-घाटी की सभ्यता, वैदिक सभ्यता से अधिक प्राचीन है। माना जाता है कि सिन्धु-सभ्यता, वैदिक सभ्यता से लगभग दो हजार वर्ष अधिक पुरानी है। सिंधु घाटी सभ्यता ताम्र-कांस्य कालीन सभ्यता है जबकि वैदिक सभ्यता लौह युगीन सभ्यता है।

(2) नृवंशीय अंतर

द्रविड़ लोग छोटे, काले तथा चपटी नाक वाले होते थे परन्तु आर्य लोग लम्बे, गोरे तथा सुन्दर शरीर के होते थे।

(3) स्थान सम्बन्धी अंतर

सिंधु घाटी सभ्यता सिंधु नदी की घाटी में पनपी। इसकी बस्तियां पंजाब में हड़प्पा से लेकर सिंध में मोहनजोदड़ो, राजस्थान में कालीबंगा तथा गुजरात में सुत्कांगडोर तक मिली हैं जबकि आर्य सभ्यता सप्तसिंधु क्षेत्र में पनपी तथा इसका विस्तार गंगा-यमुना के दोआब, मध्य भारत तथा पूर्व में बिहार तथा बंगाल के दक्षिण-पूर्व तक पाया गया है।

(4) सभ्यताओं के स्वरूप में अन्तर

सिन्धु-घाटी की सभ्यता नगरीय तथा व्यापार प्रधान थी जबकि वैदिक सभ्यता ग्रामीण तथा कृषि प्रधान थी। सिन्धु-घाटी के लोगों को सामुद्रिक जीवन प्रिय था और वे सामुद्रिक व्यापार में कुशल थे परन्तु आर्यों को स्थलीय जीवन अधिक प्रिय था। सिंधु घाटी की सभ्यता एवं संस्कृति उतनी उन्नत तथा प्रौढ़ नहीं थी जितनी आर्यों की थी।

(5) सामाजिक व्यवस्था में अन्तर

द्रविड़ों का कुटुम्ब मातृक था अर्थात् माता कुटुम्ब की प्रधान होती थी, परन्तु आर्यों का कुटुम्ब पैतृक था जिसमें पिता अथवा कुटुुम्ब का अन्य कोई वयोवृद्ध पुरुष प्रधान होता था।

(6) विवाह पद्धति में अंतर

सिन्धु-घाटी के लोगों में चचेरे भाई-बहिन में विवाह हो सकता था, परन्तु आर्यों में इस प्रकार के विवाहों का निषेध था।

(7) उत्तराधिकार सम्बन्धी परम्पराओं में अंतर

सिन्धु-घाटी सभ्यता के निवासी, अपनी माता के भाई की सम्पति के उत्तराधिकारी होते थे। जबकि आर्य, अपने पिता की सम्पति के उत्तराधिकारी होते थे।

(8) जाति व्यवस्था में अन्तर

सिंधु घाटी के लोगों में जाति व्यवस्था नहीं थी जबकि आर्यों के समाज का मूलाधार जाति-व्यवस्था थी जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के कार्य अलग-अलग निश्चित थे।

(9) आवास सम्बन्धी अन्तर

सिन्धु-घाटी के लोग नगरों में पक्की ईटों के मकान बनाकर रहते थे किंतु वैदिक आर्य गाँवों में बांस के पर्ण-कुटीर बनाकर रहते थे।

(10) धातुओं के प्रयोग में अन्तर

सिन्धु-घाटी के लोग पाषाण उपकरणों के साथ-साथ सोने-चांदी का प्रयोग करते थे तथा लोहे से अपरिचित थे परन्तु वैदिक काल के आर्य प्रारम्भ में सोने तथा ताम्बे का और बाद में चांदी, लोहे तथा कांसे का भी प्रयोग करने लगे थे।

(11) अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग में अन्तर

सिन्धु-घाटी के लोग युद्ध कला में प्रवीण नहीं थे। इसलिये उनके अस्त्र-शस्त्र साधारण कोटि के थे। वे युद्ध क्षेत्र में कवच (वर्म) तथा शिरस्त्राण आदि का उपयोग नहीं करते थे जबकि वैदिक आर्य युद्ध कला में अत्यंत प्रवीण थे तथा युद्ध क्षेत्र में आत्मरक्षा के लिए कवच और शिरस्त्राण आदि का प्रयोग करते थे।

(12) भोजन में अन्तर

सिन्धु सभ्यता के लोगों का प्रधान आहार मांस-मछली था। वैदिक आर्य भी प्रारम्भ में मांस-भक्षण करते थे, परन्तु उत्तर वैदिक काल में मांस भक्षण घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा।

(13) पशुओं के ज्ञान तथा महत्त्व में अन्तर

सिन्धु-घाटी के लोग बाघ तथा हाथी से भली-भांति परिचित थे किंतु ऊँट तथा घोड़े से अपरिचित थे। सिन्धु-घाटी के लोग साण्ड को गाय से अधिक महत्त्व देते थे। वैदिक आर्य बाघ तथा हाथी से अनभिज्ञ थे। हाथी का वेदों में बहुत कम उल्लेख मिलता है। वैदिक आर्य घोड़े पालते थे जिन्हे वे अपने रथों में जोतते थे तथा रणक्षेत्र में काम लेते थे। वैदिक काल के आर्य गाय को बड़ा पवित्र मानते थे और उसे पूजनीय समझते थे।

(14) धार्मिक धारणा में अन्तर

सिन्धु-घाटी के लोगों में मूर्ति-पूजा की प्रतिष्ठा थी। वे शिव तथा शक्ति की पूजा करते थे और देवी को देवता से अधिक ऊँचा स्थान प्रदान करते थे। वे लिंग-पूजक थे तथा अग्नि को विशेष महत्त्व नहीं देते थे। वे भूत-प्रेतों की भी पूजा करते थे। वैदिक आर्यों ने भी देवी-देवताओं में मानवीय गुणों का आरोपण किया था परन्तु वे मूर्ति-पूजक नहीं थे।

ऋग्वैदिक काल के आर्यों में शिव को कोई स्थान प्राप्त न था तथा वे लिंग-पूजा के विरोधी थे। आर्य लोग सर्वशक्तिमान दयालु ब्रह्म को मानते थे तथा अग्नि-पूजक थे। उनके प्रत्येक घर में अग्निशाला होती थी।

(15) कला के ज्ञान में अन्तर

सिन्धु-घाटी के लोग लेखन-कला से परिचित थे और अन्य कलाओं में भी अधिक उन्नति कर गये थे, परन्तु वैदिक आर्य सम्भवतः लेखन-कला से परिचित न थे और अन्य कलाओं में भी उतने प्रवीण नहीं थे परन्तु काव्य-कला में वे सैंधवों से बढ़कर थे।

(16) लिपि एवं भाषागत अंतर

सिन्धु-घाटी के लोगों की लिपि अब तक नहीं पढ़ी जा सकी है किंतु अनुमान है कि वह एक प्रकार की चित्रलिपि थी। इस लिपि के अब तक नहीं पढ़े जाने के कारण सिन्धु-घाटी की भाषा के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं हो सकी है जबकि आर्यों की लिपि वर्णलिपि तथा भाषा संस्कृत थी।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सिन्धु-घाटी सभ्यता तथा वैदिक-सभ्यता में पर्याप्त अन्तर था। दोनों सभ्यताओं का अलग-अलग कालों में और विभिन्न लोगों द्वारा विकास किया गया था परन्तु दोनों ही सभ्यताएँ, भारत की उच्च कोटि की सभ्यताएँ थीं। दोनों सभ्यताओं में इतना अन्तर होने पर शताब्दियों के सम्पर्क से दोनों ने एक दूसरे की संस्कृति को अत्यधिक प्रभावित किया और उनमें साम्य हो गया। यह साम्य आज भी भारत की संस्कृति पर दिखाई पड़ता है।

सैंधव एवं आर्य सभ्यताओं के अनसुलझे प्रश्न

सिंधु सभ्यता एवं आर्य सभ्यता के सम्बन्ध में पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है कि-

1. हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक उचित नाम सिंधु सभ्यता है क्योंकि यह सभ्यता, सिंधु नदी घाटी के क्षेत्र में पनपी।

2. सैंधव सभ्यता, भारतीय आर्य सभ्यता से लगभग दो हजार साल पुरानी थी।

3. सिंधु सभ्यता नगरीय थी।

4. सिंधु सभ्यता के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।

5. सिंधु सभ्यता के लोग लोहे का प्रयोग करना नहीं जानते थे।

6. सिंधु सभ्यता के लोगों के, मेसोपाटामिया (ईराक) के लोगों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे।

7.  भारत में आने से पहले आर्य ईरान में रहते थे।

8. आर्यों ने सैंधव लोगों पर आक्रमण किया तथा उनकी बस्तियों को नष्ट कर दिया। आर्य ऐसा इसलिये कर पाये क्योंकि आर्यों के पास तेज गति की सवारी के लिये घोड़े तथा लड़ने के लिये लोहे के हथियार थे।

यदि पश्चिमी इतिहासकारों की उपरोक्त बातों को स्वीकार कर लिया जाये तो इतिहास में अनेक उलझनें पैदा हो जाती हैं। इनमें से कुछ विचारणीय बिंदु शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की सहायता के लिये यहाँ दिये जा रहे हैं-

1. अब तक सैंधव सभ्यता के 1400 से अधिक स्थलों की खोज की गई है। इनमें से केवल 6 नगर हैं, शेष गांव हैं। ऐसी स्थिति में सैंधव सभ्यता को नगरीय सभ्यता कैसे कहा जा सकता है ?

2. सिंधु सभ्यता के स्थलों में से अधिकांश स्थल सरस्वती नदी की घाटी में पाये गये हैं न कि सिंधु नदी की घाटी में। अतः इस सभ्यता का नाम सिंधु घाटी सभ्यता कैसे हो सकता है ?

3. यदि सिंधु सभ्यता के लोगों के, मेसोपाटामिया के लोगों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे तो सिंधु घाटी तथा मेसोपाटिमया का मार्ग, ईरान अथवा उसके आसपास से होकर जाने का रहा होगा जहाँ आर्यों की प्राचीन बस्तियां थीं। ऐसी स्थिति में भी सैंधव लोग, घोड़े अथवा लोहे से परिचित क्यों नहीं हुए ?

4.  यदि आर्यों ने सैंधवों पर आक्रमण किया था, तो इस दौरान उनके घोड़े मरे भी होंगे। युद्ध के अतिरिक्त, बीमारी एवं स्वाभाविक मृत्यु से भी घोड़े मरे होंगे किंतु पूरी सैंधव सभ्यता के क्षेत्र से घोड़ों की केवल दो संदिग्ध मूर्तियां मिली हैं तथा एक घोड़े के अस्थिपंजर मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि आर्यों के आने से पहले ही सैंधव सभ्यता नष्ट हो चुकी थी।

5. यदि आर्यों ने सैंधवों पर आक्रमण किया था तो उनके द्वारा प्रयुक्त लोहे के कुछ हथियार युद्ध के मैदानों अथवा सैंधव बस्तियों में गिरे होंगे अथवा छूट गये होंगे अथवा टूटने के कारण आर्य सैनिकों द्वारा फैंक दिये गये होंगे किंतु सैंधव बस्तियों से लोहे के हथियार नहीं मिले हैं। अतः स्पष्ट है कि आर्यों ने सैंधवों पर आक्रमण नहीं किया।

6. आर्यों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने साथ भारत में लोहा लेकर आये। यदि ऐसा था तो लौह बस्तियां सबसे पहले उत्तर भारत में स्थापित होनी चाहिये थीं किंतु आर्यों के आने के बाद उत्तर भारत में ताम्र-कांस्य कालीन बस्तियां बसीं जबकि उसी काल में दक्षिण भारत में लौह बस्तियां बस रही थीं। यह कैसे हुआ कि भारत में लोहे को लाने वाले आर्यों की बस्तियां उत्तर भारत में बस रही थीं जबकि लौह बस्तियां दक्षिण भारत में बस रही थीं ?

निष्कर्ष

उपरोक्त विवेचन से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि –

1. सैंधव सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता अथवा सरस्वती सभ्यता कहा जाना चाहिये।

2. सैंधव सभ्यता, आर्य सभ्यता से प्राचीन होने के कारण भले ही लोहे एवं घोड़े से अपिरिचित रही हो किंतु वह लोहे के हथियारों से सुसज्जित एवं घोड़ों पर बैठकर आने वाले आर्यों के आक्रमण में नष्ट नहीं हुई।

3. चूंकि यूरोपीय इतिहासकारों को यह सिद्धांत प्रतिपादित करना था कि ब्रिटेनवासियों की तरह आर्य भी भारत में बाहर से आये हैं, इसलिये उन्होंने सैंधव सभ्यता को आर्यों के आक्रमण में नष्ट होने का मिथक गढ़ा।

4. सुदूर संवेदी उपग्रहों द्वारा उपलब्ध कराये गये सिंधु तथा सरस्वती नदी के प्राचीन मार्गों के चित्र बताते हैं कि सरस्वती नदी द्वारा कई बार मार्ग बदला गया। इससे अनुमान होता है कि इसी कारण सिंधु सभ्यता की बस्तियां भी अपने प्राचीन स्थानों से हटकर दूसरे स्थानों को चली गई होंगी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

जनपद राज्य और प्रथम मगधीय साम्राज्य (अध्याय 10)

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जनपद राज्य

जनपद राज्य

वैदिक आर्यों ने जन अर्थात् कबीलों की स्थापना की थी। जन का आकार बढ़ने एवं नगरीय जीवन का प्रादुर्भाव होने से, बड़े राज्यों अर्थात् जनपद राज्य का उदय हुआ। धीरे-धीरे लोगों की निष्ठा जन अथवा अपने कबीले के प्रति नहीं रहकर उस जनपद राज्य के प्रति हो गई जिसमें वे बसे हुए थे। एक जनपद पर एक राजा का शासन होता था।

महाजनपद

छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में अधिकांश जनपद राज्य अपना आकार बढ़ाने लगे जिससे महाजनपदों की स्थापना हुई। छोटे-छोटे जनपद राज्य बड़े महाजनपदों में समाहित होने लगे। अधिकतर महाजनपद विंध्य के उत्तर में स्थित थे और भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा से लेकर पूर्व में बिहार तक फैले हुए थे। इनमें मगध, कोसल, वत्स और अवन्ति काफी शक्तिशाली राज्य थे। सबसे पूर्व की ओर अंग जनपद था जो बाद में मगध में समाहित हो गया।

महात्मा बुद्ध के जीवन काल (563 ई.पू. से 483 ई.पू.) में भारत में 16 महाजनपद थे। इनके नाम इस प्रकार से हैं- (1) अंग, (2) मगध, (3) काशी, (4) कोसल, (5) वज्जि, (6) मल्ल, (7) चेदि, (8) वत्स, (9) कुरु, (10) पांचाल, (11) मत्स्य, (12) सूरसेन, (13) अश्मक, (14) अवन्ति, (15) गान्धार, (16) काम्बोज।

महाजनपदों का थोड़ा-बहुत इतिहास पुराणों में यत्र-तत्र मिलता है किंतु वह शृंखलाबद्ध नहीं है। पुराणों में मिलने वाली बहुत सी सूचनाएं विरोधाभासी हैं। महाजनपदों के साथ-साथ अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र एवं अर्द्धस्वतंत्र राज्य एवं गणराज्य भी अस्तित्व में थे जिनमें परस्पर द्वेष होने के कारण प्रायः युद्ध हुआ करते थे। भारत में महाजनपद छठी शताब्दी ई.पू. से लेकर चौथी शताब्दी ई.पू. तक अपना अस्तित्व बनाये रहे।

(1) अंग

यह राज्य मगध के पश्चिम में था। मगध और अंग के बीच में चम्पा नदी बहती थी। अंग की राजधानी चम्पा भी चम्पा नदी के तट पर स्थित थी। बुद्ध कालीन छः बड़े नगरों में चम्पा की गणना की जाती थी। पहले राजगृह भी अंग राज्य का ही हिस्सा था किंतु बाद में अंग राज्य, मगध में मिल गया।

(2) मगध

मगध राज्य में आधुनिक पटना तथा गया जिले और शाहाबाद जिले के कुछ भाग सम्मिलित थे। यह अपने समय का सबसे प्रमुख राज्य था। बुद्ध से पूर्व, बृहद्रथ तथा जरासंध इस राज्य के प्रसिद्ध राजा हुए। प्रारंभ में मगध की राजधानी गिरिब्रज थी किंतु बाद में पाटलिपुत्र हो गई।

(3) काशी

वैशाली के पश्चिम में काशी जनपद था जिसकी राजधानी वाराणसी थी। राजघाट में की गई खुदाई से पता चलता है कि यह बस्ती 700 ई.पू. के आसपास बसनी आरम्भ हुई। ईसा पूर्व छठी सदी में इस नगरी को मिट्टी की दीवार से घेरा गया था। अनुमान होता है कि आरम्भ में काशी सबसे शक्तिशाली राज्य था परन्तु बाद में इसने कोसल की शक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

(4) कोसल

कोसल जनपद के अंतर्गत पूर्वी उत्तर प्रदेश का समावेश होता था। इसकी राजधानी श्रावस्ती थी। इसे उत्तर-प्रदेश के गोंडा और बहराइच जिलों की सीमा पर स्थित सहेठ-महेठ स्थान के रूप में पहचाना गया है। खुदाई से जानकारी मिली है कि ईसा पूर्व छठी सदी में यहाँ कोई बड़ी बस्ती नहीं थी।

कोसल में एक महत्त्वपूर्ण नगरी अयोध्या भी थी, जिसका सम्बन्ध रामकथा से जोड़ा जाता है किंतु इस स्थान पर अब तक हुए उत्खनन में, ईसा पूर्व छठी सदी की किसी भी बस्ती का पता नहीं चलता है। कोसल में शाक्यों का कपिलवस्तु गणराज्य भी सम्मिलित था। यहीं बुद्ध पैदा हुए थे। राजधानी कपिलवस्तु की खोज, बस्ती जिले के पिपरहवां स्थान पर हुई है। उनकी दूसरी राजधानी पिपरहवा से 15 किलोमीटर दूर नेपाल में लुम्बिनी स्थान पर थी।

(5) वज्जि संघ

गंगा के उत्तर में तिरहुत संभाग में वज्जियों का राज्य था। वह आठ जनों का संघ था। इनमें लिच्छवि सर्वाधिक शक्तिशाली थे। इनकी राजधानी वैशाली थी। वैशाली को आधुनिक वैशाली जिले के बसाढ़ गांव के रूप में पहचाना जाता है। पुराण, वैशाली को अधिक प्राचीन नगरी घोषित करते हैं परन्तु पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अनुसार बसाढ़ की स्थापना ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पहले नहीं हुई थी।

(6) मल्ल

कोसल के पड़ोस में मल्लों का गणराज्य था, इसकी सीमा वज्जी राज्य की उत्तरी सीमा से जुड़ी हुई थी। मल्लों की एक राजधानी कुसीनारा में थी जहाँ बुद्ध का निधन हुआ था। कुसीनारा की पहचान देवरिया जिले के कसियां स्थान से की गई है। मल्लों की दूसरी राजधानी पावा में थी।

(7) चेदि

आधुनिक बुंदेलखण्ड तथा उसका सीमपवर्ती प्रदेश इसके अंतर्गत था। इसकी राजधानी शक्तिमती थी। जातकों में वर्णित सोत्थवती यही नगरी थी। चेदि राज्य का महाभारत में भी उल्लेख है। शिशुपाल यहीं का राजा था जिसका भगवान श्रीकृष्ण ने शिरोच्छेदन किया था।

(8) वत्स

पश्चिम की ओर, यमुना के तट पर, वत्स जनपद था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। वत्स लोग वही कुरुजन थे जो हस्तिनापुर छोड़कर प्रयाग के समीप कोशाम्बी में आकर बसे थे। कौशाम्बी को इसलिए पसंद किया गया क्योंकि यह स्थल गंगा-यमुना के संगम के निकट था। उत्खननों से ज्ञात हुआ है कि ईसा पूर्व छठी सदी में राजधानी कौशाम्बी की मजबूत किलेबन्दी की गई थी।

(9) कुरु

वर्तमान दिल्ली तथा मेरठ के समीपवर्ती प्रदेश कुरुराज्य के अंतर्गत थे। इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। महमूतसोम जातक के अनुसार इस राज्य में तीन सौ संघ थे। पाली ग्रंथों के अनुसार यहाँ के शासक युधिष्ठिता गोत्र के थे। हस्तिनीपुर नामक एक अन्य प्रमुख नगर भी इसी राज्य में था।

संभवतः महाभारत कालीन हस्तिनापुर ही अब हस्तिनीपुर कहलाने लगा था। जैनों के उत्तराध्ययन सूत्र में इक्ष्वाकु नामक राजा का नाम मिलता है जो कुरु प्रदेश का राजा था। इस राज्य में पहले राजतंत्रात्मक शासन था किंतु बाद में यहां गणतंत्र की स्थापना हो गई।

(10) पांचाल

वर्तमान रुहेलखण्ड तथा उसके समीप के जिले पांचाल प्रदेश में आते थे। यह दो भागों में विभक्त था। इनमें से उत्तर-पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी तथा दक्षिण-पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी।

(11) मत्स्य

इसकी राजधानी विराट नगर थी। यह यमुना के पश्चिम में तथा कुरु देश के दक्षिण में स्थित था। पहले तो चेदि राज्य ने मत्स्य राज्य पर अपना अधिकार जमाया, उसके बाद मगध ने मत्स्य राज्य को अपने अधीन कर लिया।

(12) सूरसेन

सूरसेन राज्य यमुना के किनारे था। मथुरा इसकी राजधानी थी। बुद्ध के समय अवन्तिपुत्र मथुरा का राजा था। यहां पहले गणतंत्र राज्य था किंतु बाद में इसमें राजतंत्र की स्थापना हुई। मेगस्थनीज के समय तक सूरसेन वंश के राजा शांति से शासन करते थे।

(13) अश्मक

दक्षिण भारत की प्रमुख नदी गोदावरी के तट पर अश्मक राज्य स्थित था। यह भारत का प्रमुख राज्य था तथा पोतन इसकी राजधानी थी। पुराणों के अनुसार इस राज्य के राजा इक्ष्वाकु वंश के थे। एक जातक के अनुसार किसी समय यह राज्य काशी के निकट था।

(14) अवन्ति

मध्य मालवा और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती नगरों में अवन्ति राज्य स्थित था। इस राज्य के दो भाग थे, उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन में थी और दक्षिण भाग की महिष्मती में। उत्खननों से जानकारी मिली है कि ईसा पूर्व छठी सदी से ये दोनों नगर महत्त्व प्राप्त करते गए। अंततोगत्वा उज्जैन ने महिष्मती को पछाड़ दिया। उज्जैन में बड़े पैमाने पर लौहकर्म का विकास हुआ और इसकी मजबूत किलेबन्दी की गई।

(15) गांधार

गांधार राज्य में तक्षशिला, काश्मीर तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित थे। कुंभकार जातक के अनुसार तक्षशिला इसकी राजधानी थी। बुद्ध के समय पुमकुसाती गांधार का राजा था।

(16) काम्बोज

यह गांधार के पड़ौस में स्थित था। हाटक इसकी राजधानी थी। कुछ समय पश्चात् यहां भी गणतंत्र की स्थापना हुई।

ब्राह्मण धर्म के प्रति क्षत्रियों का विद्रोह

महाजनपद काल में क्षत्रियों का ब्राह्मण धर्म के प्रति विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के चलते बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इन धर्मों की स्थापना करने वाले क्षत्रिय राजकुमार थे। इन धर्मों की स्थापना के फलस्वरूप भारत में वैदिक चिंतन से अलग, नये रूपों में धार्मिक चिंतन की परम्पराएं आरम्भ हुईं। बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के उत्थान का इतिहास अन्य पुस्तक में यथा-स्थान लिखा गया है।

मगध साम्राज्य की स्थापना और विस्तार

ईसा पूर्व छठी सदी के आगे का भारत का राजनीतिक इतिहास जनपद राज्यों में प्रभुता के लिए हुए संघर्ष का इतिहास है। मगध राज्य ने इस संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई। अंततः मगध राज्य ने कई जनपदों को परास्त कर अपने भीतर मिला लिया तथा वह भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बन गया। इस प्रकार मगध साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो गया।

हर्यक वंश

इतिहासकारों के अनुसार हर्यक वंश के राजा बिम्बिसार ने मगध साम्राज्य की स्थापना की। इस वंश के तीन प्रमुख राजाओं- बिम्बिसार, अजातशत्रु तथा उदायिन् के पश्चात् कुछ निर्बल शासकों ने भी मगध पर शासन किया।

बिम्बिसार

बिम्बिसार के शासनकाल में मगध ने पर्याप्त उन्नति की। वह महात्मा बुद्ध का समकालीन था। उसके द्वारा विजय और विस्तार की नीति आरम्भ की गई। बिम्बिसार ने अंग देश पर अधिकार कर लिया और अंग देश का शासन अपने पुत्र अजातशत्रु को सौंप दिया।

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बिम्बिसार ने वैवाहिक सम्बन्धों से भी अपनी स्थिति को मजबूत बनाया। उसने तीन विवाह किए। उसकी प्रथम पत्नी कोसल के राजा की पुत्री और प्रसेनजित की बहन थी। कोसलदेवी के साथ दहेज के रूप में प्राप्त काशी ग्राम से उसे एक लाख रुपये की आय होती थी। इससे पता चलता है कि उस काल में राजस्व, मुद्राओं में वसूल किया जाता था। इस विवाह से कोसल के साथ उसकी शत्रुता समाप्त हो गई और दूसरे राज्यों से निबटने के लिए उसे छुट्टी मिल गई। उसकी दूसरी पत्नी वैशाली की लिच्छवि राजकुमारी चल्हना थी और तीसरी रानी पंजाब के मद्रकुल के मुखिया की पुत्री थी। विभिन्न राजकुलों से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण बिम्बिसार को अत्यधिक राजनीतिक प्रतिष्ठा मिली। इससे मगध राज्य के पश्चिम और उत्तर की ओर विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ। मगध की असली शत्रुता अवन्ति से थी। उस समय चण्डप्रद्योत महासेन अवन्ति का राजा था। मगध के राजा बिम्बिसार ने उस पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध का संभवतः कोई परिणाम नहीं निकला इस पर दोनों राजाओं ने मित्र बन जाना ही उपयुक्त समझा। बाद में चण्डप्रद्योत जब पीलिया से पीड़ित हुआ तो बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उज्जैन भेजा।

चण्डप्रद्योत को गांधार के राजा के साथ हुए युद्ध में भी विजय नहीं मिली किन्तु गांधारराज ने बिम्बिसार के पास एक पत्र और दूत-मंडली भेजकर उससे मित्रता कर ली। इस प्रकार विजय और कूटनीति से बिम्बिसार ने मगध को ईसा पूर्व छठी सदी में सर्वशक्तिमान राज्य बना दिया। उसके राज्य में 80,000 गांव थे।

मगध की आरंभिक राजधानी राजगीर में थी, उस समय इसे गिरिव्रज कहते थे। यह स्थल पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ था और इनके खुले भागों को पत्थरों की दीवारों से चारों ओर से घेर दिया गया था। इन पहाड़ियों ने राजगीर को अजेय बना दिया। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिम्बिसार ने 544 ई.पू. से 492 ई.पू. तक (लगभग बावन साल) शासन किया।

अजातशत्रु

बिम्बिसार के बाद उसका पुत्र अजातशत्रु (492 ई.पू. से 460 ई.पू.) मगध के सिंहासन पर बैठा। उसने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके सिंहासन पर अधिकार किया। उसके शासनकाल में मगध के राजकुल का वैभव अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। उसने दो लड़ाइयाँ लड़ीं और तीसरी के लिए तैयारियां कीं।

अजातशत्रु ने विस्तार की आक्रामक नीति से काम लिया। उसकी इस नीति का काशी और कोसल ने मिलकर प्रतिरोध किया। मगध ओर कोसल के बीच लंबे समय तक संघर्ष जारी रहा। अंत में अजातशत्रु की विजय हुई। कोसल नरेश को अजातशत्रु के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने और अपने जामाता को काशी सौंपकर समझौता करने के लिए विवश होना पड़ा।

अजातशत्रु ने वैवाहिक सम्बन्धों का कोई लिहाज नहीं रखा। यद्यपि उसकी माँ लिच्छवि राजकुमारी थी तथापि उसने वैशाली पर आक्रमण किया। बहाना यह ढूंढा गया कि लिच्छवि कोसल के मित्र हैं। उसने लिच्छवियों में फूट डालने के लिए षड्यंत्र रचा, और अंत में उन पर आक्रमण करके उनके स्वातंत्र्य को नष्ट कर दिया।

वैशाली को नष्ट करने में उसे सोलह साल का लंबा समय लगा। अंत में उसे इसलिए सफलता मिली क्योंकि उसने पत्थरों को फेंक सकने वाले प्रस्तर-प्रक्षेपक जैसे एक युद्ध-यंत्र का उपयोग किया। उसके पास एक ऐसा रथ था, जिसमें गदा जैसा हथियार जुड़ा हुआ था। इससे युद्ध में लोगों को बड़ी संख्या में मारा जा सकता था।

काशी और वैशाली को मिला लेने के बाद मगध साम्राज्य का और अधिक विस्तार हुआ। अजातशत्रु की तुलना में अवन्ति का शासक अधिक शक्तिशाली था। अवन्तों ने कौशाम्बी के वत्सों को हराया था और अब वे मगध पर आक्रमण करने की धमकी दे रहे थे। इस खतरे का सामना करने के लिए अजातशत्रु ने राजगीर की किलेबन्दी की, इन दीवारों के अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं परन्तु अजातशत्रु के जीवनकाल में अवन्ति को मगध पर आक्रमण करने का अवसर नहीं मिला।

उदायिन्

अजातशत्रु के बाद उदायिन् (460-444 ई.पू.) मगध की गद्दी पर बैठा। उसने पटना में गंगा और सोन के संगम पर एक दुर्ग बनवाया। पटना, मगध साम्राज्य के केन्द्र में स्थित था। मगध का साम्राज्य अब उत्तर हिमालय से लेकर दक्षिण में छोटा नागपुर की पहाड़ियों तक फैला हुआ था। पटना की स्थिति, सामरिक दृष्टि से बड़े महत्त्व की थी।

शिशुनाग वंश

मगध के राज्याधिकारियों द्वारा हर्यक वंश के अंतिम शासक नागदासक को सिंहासन से उतार कर बनारस के प्रांतपति शिशुनाग को मगध का शासक बनाया गया। उसने 18 वर्ष तक मगध पर शासन किया। उसका वंश शिशुनाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अवन्ति की शक्ति को तोड़ देना शिशुनाग की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

इसके बाद से अवन्ति राज्य, मगध साम्राज्य का भाग बन गया और मौर्य साम्राज्य के अंत समय तक बना रहा। शिशुनाग के बाद कालाशोक अथवा काकवर्ण मगध का राजा हुआ। उसने 28 वर्ष शासन किया। कालाशोक के शासन के 10वें वर्ष में दूसरी बौद्ध संगीति हुई। कालाशोक की हत्या गले में छुरा मारकर की गई।

कालाशोक के बाद उसके 10 पुत्रों ने एक-एक करके कुल 22 वर्ष तक मगध पर शासन किया। शिशुनाग राजा अपनी राजधानी को कुछ समय के लिए वैशाली ले गए।

नंद वंश

शिशुनागों के बाद नन्दों का शासन आरम्भ हुआ। इस वंश का संस्थापक महापद्म था जिसके बारे में इतिहासकारों की धारणा है कि वह शूद्र माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् के अनुसार वह नापित पिता तथा वेश्या माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।

माना जाता है कि उसने शिशुनागवंश के अंतिम राजा की धोखे से हत्या करके मगध के शासन पर अधिकार जमा लिया। कर्टिअस आदि इतिहासकारों के अनुसार महापद्म नंद ने कालाशोक की ही हत्या की थी तथा कालाशोक के दस पुत्रों ने महापद्म नंद के संरक्षण में 22 वर्ष तक शासन किया।

बाद में महापद्मनंद ने मगध का शासन हथिया लिया। महाबोधि वंश में महापद्मनंद का नाम उग्रसेन भी मिलता है। महापद्मनंद ने 28 साल तक शासन किया। उसके बाद उसके 8 पुत्रों ने 12 वर्ष तक शासन किया।

नंद मगध के सबसे शक्तिशाली शासक सिद्ध हुए। इनका शासन इतना शक्तिशाली था कि सिकंदर ने, जो उस समय पंजाब पर आक्रमण कर चुका था, पूर्व की ओर आगे बढ़ने का साहस नहीं किया। नन्दों ने कलिंग को जीतकर मगध की शक्ति को बढ़ाया, विजय के स्मारक रूप में वे कलिंग से जिन की मूर्ति उठा लाए थे।

ये समस्त घटनाएं महापद्म नन्द के शासन काल में घटित हुईं। उसने अपने को एकराट् कहा है। अनुमान होता है कि उसने न केवल कलिंग पर अधिकार किया, अपितु उसके विरुद्ध विद्रोह करने वाले कोसल को भी हथिया लिया।

नन्द शासक अत्यंत धनी और बड़े शक्तिशाली थे। उनकी सेवा में 2,00,000 पदाति, 60,000 घुड़सवार और 6,000 हाथी थे। इतनी विशाल सेना का रख-रखाव एक अच्छी और प्रभावी कराधान प्रणाली से ही सम्भव है। परवर्ती नन्द शासक दुर्बल और अप्रिय सिद्ध हुए।

मगध की सफलता के कारण

मौर्यों के उत्थान के पहले की दो सदियों में मगध साम्राज्य के रूप में भारत में सबसे बड़े राज्य की स्थापना बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे कई साहसी और महत्त्वाकांक्षी शासकों के प्रयासों से हुई। उन्होंने अपने राज्यों का निरंतर विस्तार किया और उसे सशक्त बनाया परन्तु मगध के विस्तार का यही एक कारण नहीं था। कुछ दूसरे महत्त्वपूर्ण कारण भी थे।

लोहे के समृद्ध भण्डार मगध की आरंभिक राजधानी राजगीर के निकट स्थित थे। इस कारण मगध के शासक अपनी सेना के लिये लिए प्रभावी हथियार बनवा सके। उनके शत्रु सरलता से ऐसे हथियार प्राप्त नहीं कर सकते थे। लोहे की खानें पूर्वी मध्यप्रदेश में भी मिलती हैं, जो उज्जैन के अवन्ति राज्य से अधिक दूर नहीं थी।

500 ई.पू. के आसपास उज्जैन में निश्चय ही लोहे को गलाने और तपाकर ढालने का भी काम होता था। वहाँ के लौहार अच्छी किस्म के हथियार तैयार करते थे। यही कारण है कि उत्तर भारत की प्रभुता के लिए अवन्ति और मगध के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। उज्जैन पर अधिकार करने में मगध को लगभग सौ साल का समय लगा।

मगध के लिए कुछ और भी अनुकूल परिस्थितियाँ थी। मगध की दोनों राजधानियाँ- पहली राजगीर और दूसरी पाटलिपुत्र, सामरिक दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित स्थानों पर थीं। राजगीर पांच पहाड़ियों के एक समूह से घिरा होने के कारण दुर्भेद्य थी। तोपों का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। उन दिनों राजगीर जैसे दुर्ग को तोड़ना सरल काम नहीं था।

ईसा पूर्व पांचवीं सदी में मगध के शासक अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गए। केन्द्र भाग में स्थित इस स्थल के साथ समस्त दिशाओं से संचार-सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते थे। पाटलिपुत्र गंगा, गंडक और सोन नदियों के संगम पर स्थित था। पाटलिपुत्र से थोड़ी दूरी पर सरयू नदी भी गंगा से मिलती थी।

पूर्व-औद्योगिक दिनों में, जब संचार में बड़ी कठिनाइयाँ थीं, नदी मार्गों का अनुसरण करते हुए सेना उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, और पूर्व की ओर आगे बढ़ती थी। इसके अतिरिक्त लगभग चारों ओर से नदियों द्वारा घिरे होने के कारण पटना की स्थिति भी अभेद्य बन गई थी।

सोन और गंगा इसे उत्तर तथा पश्चिम की ओर से घेरे हुए थीं, तो पुनपुन इसे दक्षिण और पूर्व की ओर से घेरे हुए थी। इस प्रकार, पाटलिपुत्र सही अर्थों में एक जलदुर्ग था। उन दिनों इस नगर पर अधिकार करना सरल नहीं था।

मगध राज्य मध्य गंगा के मैदान में स्थित था। इस अत्यधिक उपजाऊ प्रदेश से जंगल साफ हो चुके थे। भारी वर्षा होती थी, इसलिए सिंचाई के बिना भी इलाके को उत्पादक बनाया जा सकता था। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों के उल्लेखों के अनुसार इस प्रदेश में कई प्रकार के चावल पैदा होते थे। प्रयाग के पश्चिम की ओर के प्रदेश की अपेक्षा यह प्रदेश कहीं अधिक उपजाऊ था। परिणामतः यहाँ के किसान काफी अतिरिक्त अनाज पैदा करते थे जिसे शासक अपनी सेना के लिये एकत्रित कर लेते थे।

मगध के शासकों ने नगरों के उत्थान और मुद्राचलन से भी लाभ उठाया। उत्तर-पूर्वी भारत में व्यापार-वणिज्य की वृद्धि के कारण शासक पण्य-वस्तुओं पर मार्ग-कर लगा सकते थे और इस प्रकार अपनी सेना के खर्च के लिए धन एकत्र कर सकते थे। सैनिक संगठन के मामले में मगध को एक विशेष सुविधा प्राप्त थी।

भारतीय राज्य घोड़े और रथ के उपयोग से भलीभांति परिचित थे किंतु मगध ही पहला राज्य था जिसने अपने पड़ोसियों के विरुद्ध हाथियों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया। देश के पूर्वी भाग से मगध के शासकों के पास हाथी पहुंचते थे। यूनानी स्रोतों से जानकारी मिलती है कि नन्दों की सेना में 6000 हाथी थे।

दुर्गों को भेदने, सड़कों तथा यातायात की दूसरी सुविधाओं से रहित प्रदेशों और कच्छी क्षेत्रों में हाथियों का उपयोग किया जा सकता था। इन्हीं सब कारणों से मगध को दूसरे राज्यों को हराने और भारत में प्रथम साम्राज्य स्थापित करने में सफलता मिली।

-डॉ. मोहन लाल गुप्ता

पश्चिमी देशों से भारत का सम्पर्क (अध्याय 11)

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पश्चिमी देशों से भारत का सम्पर्क

मानव सभ्यता के प्रथम चरण में घुमक्कड़ प्रवृत्ति का था। वह छोटे-छोटे समूहों में दूर-दूर तक यात्राएं किया करता था और शिकार करके अपना पेट भरता था। इस कारण पश्चिमी देशों से भारत का सम्पर्क अत्यंत प्राचीन काल से था।

उत्तर-पूर्व भारत के छोटे रजवाड़ों और गणराज्यों का विलयन धीरे-धीरे मगध साम्राज्य में हो गया परन्तु उत्तर-पश्चिम भारत की स्थिति ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पूर्वार्र्द्ध के दौरान भिन्न थी। कम्बोज, गांधार और मद्र आदि अनेक छोटे-छोटे राज्य परस्पर संघर्षरत रहते थे।

इस क्षेत्र में मगध जैसा कोई शक्तिशाली साम्राज्य नहीं था जो इन परस्पर संघर्षरत राज्यों को एक संगठित साम्राज्य के अधीन कर सके। यह क्षेत्र पर्याप्त समृद्ध था तथा हिन्दुकुश के दर्रों से इस क्षेत्र में बाहर से सरलता से घुसा जा सकता था।

ईरानी राजाओं का भारत पर अधिकार

530 ई.पू. से कुछ पहले, ईरान के हखामनी सम्राट साइरस ने हिन्दुकुश पर्वत को पार करके काम्बोज तथा गांधार को अपने अधीन किया। ईरानी शासक दारयवह (देरियस) प्रथम 516 ई.पू. में उत्तर-पश्चिम भारत में घुस गया। उसने पंजाब, सिन्धु नदी के पश्चिमी क्षेत्र और सिन्धु को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया।

हखमानी अभिलेखों में गांधार और हिंदुश (सिंधु) का उल्लेख क्षत्रपियों (प्रांतों) के रूप में हुआ है। हेरोडोटस ने लिखा है कि गांधार हखामनी साम्राज्य का बीसवां क्षत्रपी था। फारस साम्राज्य में कुल अट्ठाईस क्षत्रपी थे। भारतीय क्षत्रपी में सिन्ध, उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती इलाका तथा पंजाब का सिन्धु नदी के पश्चिम वाला हिस्सा सम्मिलित था।

यह क्षेत्र फारस साम्राज्य का सर्वाधिक जनसंख्या वाला तथा उपजाऊ हिस्सा था। यह क्षेत्र 360 टैलण्ट (मुद्रा तथा भार का एक प्राचीन माप) सोना भेंट देता था, जो फारस के समस्त एशियायी प्रांतों से मिलने वाले मूल राजस्व का एक तिहाई था। पांचवी शताब्दी ई.पू. में फारसी सेना को यूनानियों के विरुद्ध सैनिकों की आवश्यकता होती थी जिसकी पूर्ति गांधार से की जाती थी।

दायबहु के उत्तराधिकारी क्षयार्ष (जरसिस) ने यूनानियों के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ने के लिये भारतीयों को अपनी सेना में सम्मिलित किया। भारत पर सिकन्दर के आक्रमण तक उत्तर-पश्चिम भारत के हिस्से ईरानी साम्राज्य का अंग बने रहे।

ईरानी सम्पर्क के परिणाम

भारत और ईरान का यह सम्पर्क लगभग 200 सालों तक बना रहा। इसने भारत और ईरान के बीच व्यापार को बढ़ावा दिया। इस सम्पर्क के सांस्कृतिक परिणाम और भी महत्त्वपूर्ण थे। ईरानी लेखक (कातिब) भारत में लेखन का एक विशेष रूप ले आये थे जो आगे चलकर खरोष्ठी लिपि के नाम से विख्यात हुआ। यह लिपि अरबी की तरह दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी।

ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिमी भारत में अशोक के कुछ अभिलेख इसी लिपि में लिखे गए। यह लिपि तीसरी शताब्दी ईस्वी तक देश में प्रयोग की जाती रही। उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में ईरानी सिक्के भी मिलते हैं जिनसे ईरान के साथ व्यापार होने का संकेत मिलता है। 

मौर्य वास्तुकला पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। अशोक कालीन स्मारक, विशेषकर घंटी के आकार के शीर्ष, कुछ सीमा तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे। अशोक की राजाज्ञाओं की प्रस्तावना और उनमें प्रयोग किए गए शब्दों में भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है।

उदारहण के लिए फारसी शब्द- दिपि के लिए अशोक कालीन लेखकों ने शब्द- लिपि का प्रयोग किया। ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत की महान् सम्पदा के बारे ज्ञात हुआ। इस जानकारी से भारतीय सम्पदा के लिए उनका लालच बढ़ गया और अन्ततोगत्वा भारत पर सिकंदर ने आक्रमण कर दिया।

सिकंदर का भारत पर आक्रमण

चौथी शताब्दी ई.पू. में विश्व पर आधिपत्य को लेकर यूनानियों और ईरानियों के बीच संघर्ष हुए। मकदूनिया (मेसीडोनिया) वासी सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों ने ईरानी साम्राज्य को नष्ट कर दिया। सिकंदर ने न सिर्फ एशिया माइनर (तुर्की) और ईराक को अपितु ईरान को भी जीत लिया।

ईरान पर विजय प्राप्त करने के बाद सिकन्दर काबुल की ओर बढ़ा, जहाँ से 325 ई.पू. में खैबर दर्रा पार करते हुए वह भारत पहुंचा। सिंधु नदी तक पहुँचने में उसे पांच महीने लगे। स्पष्टतः वह भारत के महान् वैभव से आकर्षित था। हेरोडोटस जिसे इतिहास का पिता कहा जाता है तथा अन्य यूनानी लेखकों ने भारत का वर्णन अपार वैभव वाले देश के रूप में किया था।

इस वर्णन को पढ़कर सिकन्दर भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित हुआ। सिकन्दर में भौगोलिक अन्वेषण और प्राकृतिक इतिहास के लिए तीव्र ललक थी। उसने सुन रखा था कि भारत की पूर्वी सीमा पर कैस्पियन सागर ही फैला हुआ है। वह विगत विजेताओं की शानदार उपलब्धियों से भी प्रभावित था।

वह उनका अनुकरण कर उनसे भी आगे निकल जाना चाहता था। उत्तर-पश्चिमी भारत की राजनीतिक स्थिति उसकी योजना के लिए उपयुक्त थी। यह क्षेत्र अनेक स्वतंत्र राजतंत्रों और कबीलाई गण-राज्यों में बंटा हुआ था, जो अपनी भूमि से घनिष्ठ रूप से बंधे हुए थे और जिन रजवाड़ों पर उनका शासन था उनसे उन्हें बड़ा गहरा प्रेम था।

सिकंदर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत में निम्नलिखित राज्य थे-

अस्पेसियन

यह जाति अबिसंग, कुनार और वजौर नदियों की घाटियों में रहती थी। भारत में इन्हें अश्वक कहते थे।

गरेइअन

यह जाति पंजकौर नदी की घाटी में रहती थी।

अस्सेकेनोज

यह सिंधु नदी के पश्चिम में थी। कुछ विद्वानों ने इसे अश्वक कहा है। मस्सग इनकी राजधानी थी।

नीसा

यह राज्य काबुल नदी और सिंधु नदी के बीच स्थित था।

प्यूकेलाटिस

इसका समीकरण पुष्करावती से किया जाता है। जो पश्चिमी गांधार की राजधानी थी।

तक्षशिला

यह राज्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच स्थित था।

असकेज

यह उरशा राज्य था। इसके अंतर्गत आधुनिक हजारा आता है।

अभिसार

इसके अंतर्गत काश्मीर का पश्चिमोत्तर भाग सम्मिलित था।

पुरु राज्य

यह झेलम और चिनाब नदियों के बीच स्थित था। यहां के राजा को यूनानियों ने पोरस कहा है।

ग्लौगनिकाई

इस जाति का राज्य चेनाब नदी के पश्चिम में था।

गैण्डरिस

यह राज्य चेनाब और राबी नदियों के बीच में स्थित था।

अड्रेस्टाई

यह रावी नदी के पूर्व में था।

कठ

यह झेलम और चेनाव के बीच में अथवा रावी और चेनाव के बीच में स्थित था।

सौभूमि राज्य

यह झेलम के तट पर था।

फगलस

यह रावी और व्यास के बीच में था। इसका समीकरण भगल से किया गया है।

सिबोई

यह शिवि जाति थी। यह झेलम और चेनाब के बीच रहती थी।

क्षुद्रक

यह जाति झेलम और चेनाब के संगम के नीचे की भूमि में रहती थी।

मालव

यह रावी के निचले भाग के दाहिनी ओर रहती थी।

अम्बष्ठ

यह मालवों की पड़ौसी जाति थी।

जैथ्राइ

इसका समीकरण क्षत्रि से किया गया है। यह चेनाव और रावी के बीच में रहती थी।

ओस्सेडिआइ

यह वसाति जाति थी जो चिनाव और सिंधु नदियों के बीच में रहती थी।

मौसिकेनोज

यह मूषिक जाति थी जो आधुनिक सिंध में बसी थी।

पैटलीन

यह नगर सिंधु नदी के डेल्टा पर स्थित था।

भारतीय राजाओं में द्वेष

उपरोक्त राज्यों में से अधिकांश राज्य गणराज्य थे। राजतंत्रात्मक राज्यों में तक्षशिला, अभिसार और पुरु राज्य प्रमुख थे। तक्षशिला तथा पुरु राज्य में अत्यधिक द्वेष भाव था। अभिसार नरेश पुरु का मित्र था। अतः अभिसार नरेश की तक्षशिला के राजा अम्भि से शत्रुता थी।

पुरु तथा उसके भतीजे (जो कि उसका पड़ौसी राजा था) में भी अनबन थी। राजतंत्रतात्मक तथा गणतंत्रात्मक राज्यों में भी शत्रुता थी। पुरु और अभिसार नरेशों ने क्षुद्रकों तथा मालव राज्यों से भी शत्रुता कर रखी थी। शाम्ब जाति तथा मूषिक जाति में वैमनस्य था। ऐसी स्थिति में सिकंदर का कार्य सरल हो गया। इस प्रकार सिकंदर ने भारत का प्रवेश द्वार खुला पाया।

सिकंदर का विजयअभियान

327 ई.पू. के बसंत में सिकंदर ने हिन्दुकुश पर्वत को पार कर कोही दामन की शस्य-श्यामला घाटी में प्रवेश किया। बैक्ट्रिया पर आक्रमण करने से पूर्व सिकंदर ने अलेक्जेण्ड्रिया नगर की स्थापना की। यहां से वह निकाई नामक नगर की ओर गया। यहीं पर उसने अपनी सेना का विभाजन किया।

पर्डिक्क्स को पर्याप्त सैन्यबल के साथ काबुल नदी की घाटी के द्वारा सिंधु नदी तक सीधे पहुंचने का आदेश मिला। मार्ग में हस्ती को छोड़कर प्रायः समस्त कबीलों के प्रधानों ने आत्म समर्पण कर दिया। पर्डिक्कस को इस कार्य में तक्षशिला नरेश अम्भी से पर्याप्त सहायता मिली। जब सिकंदर निकाई में ही था, उसी समय तक्षशिला नरेश अम्भी ने हाथियों सहित अनेक बहुमूल्य उपहार नतमस्तक होकर सिकंदर को अर्पित किये और बिना किसी संकोच के उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

दूसरी सेना के साथ सिकंदर ने दुर्गम पार्वतीय पथ का अनुसरण किया। कुनर की विशाल घाटी में स्थित अज्ञात नगर में अज्ञात जाति के लोग रहते थे। उन्होंने सिकंदर का सामना किया तथा एक तीर सिकंदर की बांह में भी लगा। इसके बाद सिकंदर के सेनापति क्रेटरस की सेना ने समस्त नगर वासियों को तलवार के घाट उतार दिया।

वहां से चलकर सिकंदर ने अश्वकों पर आक्रमण किया। अश्वक अपनी राजधानी त्याग कर गिरि कंदराओं में जा छिपे। इसके बाद सिकंदर ने बजौर की घाटी में प्रवेश किया। दूसरे मार्ग से भेजे गये सैन्यदल का भी यहीं पर सिकंदर से मिलन हुआ। इसके बाद सिकंदर न्यासा नगर की ओर बढ़ा। यहां भी सिकंदर का विरोध नहीं हुआ।

न्यासा के लोगों ने सिकंदर की सेना में भर्ती होने की इच्छा प्रकट की। न्यासा के नेता अकुफिस ने सिकंदर को बताया कि मैं तो स्वयं ही यूनानी राजा डियानिस का रक्तवंशी हूँ। इस कारण सिकंदर मेरा सम्राट है। सिकंदर ने न्यासा के पदाति सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती करने से मना कर दिया किंतु उसके तीन सौ अश्वारोही अपनी सेना में भरती कर लिये।

इसके बाद सिकंदर कोहेमूर नामक पर्वत की ओर बढ़ा। गौरी नदी (पंजकौर) अपनी गहराई तथा गति की तीव्रता के कारण सिकंदर का मार्ग रोक कर खड़ी हो गई। बड़ी कठिनाई से सिकंदर इस नदी को पार करके मस्सग पहुंचा। मस्सग नगर उस तरफ का सबसे बड़ा नगर था। मस्सग पर चार दिनों तक घेरा पड़ा रहा।

यहां सिकंदर के पैर में तीर लगा। चौथे दिन यूनानियों ने अपने शस्त्रों से मस्सग के राजा को मार गिराया। अपने राजा की मृत्यु के बाद मस्सग के सात सहस्र सैनिकों ने युद्ध क्षेत्र त्याग कर अपने घर जाने का निश्चय किया। सिकंदर ने इन्हें घर लौट जाने की अनुमति दे दी किंतु जब वे सैनिक मस्सग से बाहर निकले तो सिकंदर की सेना ने उनका पीछा करके उन्हें मार डाला। मस्सग की महारानी तथा राजकुमारी को बंदी बना लिया गया।

स्वाात की घाटी का अंतिम युद्ध बजिरा (वीरकोटि) तथा ओरा (उदेग्रम) पर केन्द्रित था। जिस पर अधिकार करके सिकंदर ने सिंधु के पश्चिम पर पूरी तरह अधिकार कर लिया। सिंध के पश्चिम का समस्त भारतीय क्षेत्र निकेनार को देने के बाद सिकंदर पेशावर की घाटी की ओर अग्रसर हुआ। वहां उसे गांधार की राजधानी पुष्कलावती द्वारा अधीनता स्वीकार कर लिये जाने का समाचार मिला।

सिंधु को पार करने से पूर्व सिकंदर को आर्नो पर्वत पर स्थित अस्सकेनोई लोगों से निबटना था। यह स्थान 6600 फुट ऊँची चट्टान पर स्थित था। इसका घेरा 22 मील था। इसकी दक्षिणी सीमा पर सिंधु बहती थी। सिकंदर इस चट्टान को देखकर हताश हो गया किंतु उसके पड़ौस में रहने वाले लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार करके आर्नोस पर सिकंदर का अधिकार करवाना स्वीकार कर लिया।

सिकंदर ने आर्नोस पर्वत के निकट मिट्टी का एक विशाल टीला तैयार किया तथा उस पर चढ़कर सेना आर्नोस तक पहुंचने में सफल हो गई। अब आर्नोस वासियों ने सिकंदर से संधि वार्ता चलाई। सिकंदर ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब आर्नोस के लोग संधि करके रात्रिकाल में अपने नगर को लौट रहे थे, तब सिकंदर के सात सौ सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें मार दिया और नगर में घुसकर आर्नोस पर भी अधिकार कर लिया। सिकंदर ने वहां पर यूनानी देवताओं की पूजा की।

यहां से सिकंदर ने ओहिन्द के तट पर एक माह का विश्राम किया। यहीं पर तक्षशिला के राजा अम्भि ने सिकंदर को 200 रजत मुद्रायें, 3090 बैल, 1000 भेडें, 700 अश्वारोही एवं 30 हाथी उपहार में भेजे। तक्षशिला का सहयोग मिल जाने से सिकंदर के लिये सिंधु नदी पार करना सुगम हो गया। सिंधु को पार करके सिकंदर निर्भय चलता हुआ तक्षशिला के निकट तक आ गया।

तक्षशिला के द्वार पर उसने रणभेरी बजाने की आज्ञा दी किंतु अम्भि तो पहले से ही उसके स्वागत के लिये खड़ा हुआ था, वह सैन्य रहित होकर अपने मंत्रियों के साथ सिकंदर के शिविर में पहुंचा और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। तीन दिन तक सिकंदर तक्षशिला के राजमहल में बैठकर भोग विलास करता रहा।

तक्षशिला से ही सिकंदर ने पोरस के पास संदेश भेजा कि वह सिकंदर से आकर साक्षात्कार करे। इस पर पोरस ने संदेश भिजवाया कि वह सिकंदर से साक्षात्कार अवश्य करेगा किंतु युद्ध के मैदान में। सिकंदर ने फिलिप को तक्षशिला का क्षत्रप बनाया तथा अपनी सेना को आज्ञा दी कि सिंधु नदी का पुल तोड़कर झेलम पर लगाया जाये।

इसके बाद वह अम्भि के पांच सहस्र सैनिकों को लेकर झेलम की तरफ चल पड़ा। मार्ग में उसने पोरस के भतीजे स्पिटेसीज को पराजित किया तथा झेलम के तट पर जा पहुंचा। झेलम के पूर्वी तट पर सिकंदर की सेना ने अपना शिविर स्थापित किया तथा तट के दूसरी ओर दूर तक पोरस ने अपनी समस्त सेना को एकत्रित किया।

पौरव की सेना 4 सहस्र अश्वारोही, 300 रथ, 200 हाथी तथा 30 हजार पदाति थी। उसके पुत्र की सेना में 2000 पदाति और 120 रथ थे। इस सेना के अतिरिक्त उसकी काफी सेना पीछे के शिविर में थी। सिकंदर की सेना में 35 हजार सिपाही थे जिनमें अश्वारोहियों की संख्या अधिक थी। उस समय पर्वतों पर हिम पिघलने के कारण नदी उफान पर थी। सिकंदर ने पोरस की सेना को भ्रमित किया कि वह नदी में पानी कम होने पर ही नदी पार करेगा।

एक रात जब बहुत वर्षा हो रही थी तब रात्रि में सिकंदर ने अपनी सेना के दो हिस्से किये। एक सेना क्रेटरस के नेतृत्व में नदी के इस ओर पोरस के शिविर के समक्ष खड़ा कर दिया तथा स्वयं 12 हजार सैनिकों को लेकर नदी के किनारे पर स्थित 16 मील दूर चला गया जहां से नदी मुड़ती थी। इससे पोरस की सेना भ्रम में पड़ गई। सिकंदर आराम से 12 हजार सैनिकों को लेकर झेलम के उस पार उतर गया।

वर्षा और रात्रि के कारण पोरस के रथ और धनुष सिकंदर के भाला-धारियों के समक्ष कुछ काम न आ सके। भालों की मार से बचने के लिये पोरस ने राजकुमार के नेतृत्व में अपने हाथियों को सिकंदर के सामने बढ़ाया किंतु सिकंदर के अश्वारोही इस स्थििति के लिये पहले से ही तैयार थे। वे हाथियों के सामने से हट गये तथा दोनों ओर से पार्श्व में आकर पोरव की सेना पर टूट पड़े।

पोरस का पुत्र इस युद्ध में मारा गया। जब यह युद्ध चल ही रहा था तब तक क्रेटरस भी नदी पार करके पोरस की सेना पर टूट पड़ा। हाथियों की जो सेना पोरस ने क्रेटरस का मार्ग रोकने के लिये सन्नद्ध की थी, वे हाथी रात्रि में अचानक आक्रमण हुआ देखकर घबरा गये और पीछे मुड़कर भागे तथा पोरस की सेना को रौंद डाला।

इस पर पोरस ने युद्ध क्षेत्र छोड़ने का निर्णय किया। सिकंदर ने अम्भि को भेजा कि वह पोरस को सम्मान पूर्वक मेरे पास ले आये। अम्भि को देखते ही हाथी पर बैठे पोरस ने उस पर प्रहार किया। इस पर सिकंदर ने अपने यूनानी दूतों को भेजा। उन्होंने पोरस को सिकंदर का संदेश पढ़कर सुनाया। पोरस ने हाथी से नीचे उतर कर पानी पिया। इसके बाद उसे सिकंदर के समक्ष लाया गया।

जिस साहस और विश्वास के साथ पोरस सिकंदर के समक्ष उपस्थित हुआ, उसे देखकर सिकंदर दंग रह गया। सिकंदर ने पूछा कि आपके साथ किस तरह का व्यवहार किया जाये। इस पर पोरस ने जवाब दिया कि जिस तरह का व्यवहार एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।

सिकंदर ने प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटा दिया तथा कुछ अन्य प्रदेश भी उसी को सौंप दिये। यहां पर सिकंदर ने देवों को बलि प्रदान की तथा निकाई एवं बुकेफेला नामक दो नगरों की स्थापना की। उसने क्रेटरस को इस स्थान पर छोड़ दिया ताकि वह यूनानी शासकों के लिये इस स्थान पर एक भव्य दुर्ग का निर्माण कर सके।

चिनाब के तट पर ग्लौचुकायन जाति 37 नगरों में निवास करती थी। सिकंदर ने उन पर आक्रमण करके उन्हें पोरस के अधीन कर दिया। अभिसार के राजा ने अपने भ्राता को उपहारों सहित सिकंदर की सेवा में भेजा किंतु सिकंदर ने निर्देश दिया कि वह स्वयं उपस्थित हो। यहीं पर सिकंदर को संदेश मिला कि अस्सकेनोइ लोगों ने विद्रोह करके वहां के गवर्नर निकेनार को मार डाला।

इस पर सिकंदर ने टिरिस्पेज तथा फिलिप को आदेश दिया कि वह विद्रोह का दमन करे। यहां से सिकंदर ने चिनाब को पार किया। यह नदी काफी चौड़ी थी तथा तीव्र गति से बहती थी। इसलिये इस नदी को पार करने में सिकंदर को भयानक हानि उठानी पड़ी। सिकंदर ने कोनोस को इस क्षेत्र में ही छोड़ दिया। उसने राजा पोरस को आदेश दिया कि वह अपने राज्य को जाये तथा वहां से पांच हजार उत्तम अश्वारोही लेकर आये। इसके बाद सिकंदर रावी की ओर बढ़ा। यह भी काफी चौड़ी नदी थी।

रावी को पार करने के बाद अधृष्ट लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद सिकंदर की मुठभेड़ कठों से हुई। कठ लोग प्रसिद्ध योद्धा थे। वे अपनी राजधानी संगल की रक्षा करने के लिये अपने मित्रों के साथ सिकंदर का मार्ग रोकने के लिये तैयार खड़े थे। सिकंदर ने संगल को घेर लिया। इसी समय पोरस अपने 5000 सैनिकों के साथ आ पहुंचा।

इस पर संगल के नागरिकों ने विचार किया कि वे रात्रि के अंधेरे में झील के रास्ते से जंगलों में भाग जायें। सिकंदर ने रात्रि में भागते हुए नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा नगर पर आक्रमण बोल दिया। इस युद्ध में कठों ने यूनानियों को अच्छी तरह भारतीय तलवार का स्वाद चखाया।

कठ तो नष्ट हो गये किंतु यूनानी भी बड़ी संख्या में मारे गये। क्रोध की अग्नि में जलते हुए सिकंदर ने संगल नगरी को जला कर राख कर दिया। मकदूनिया से जो सैनिक अब तक सिकंदर के साथ थे उनमें से अधिकांश संगल में ही मारे गये। इससे मकदूनिया के शेष सिपाहियों का हृदय कांप उठा।

यहां से सिकंदर व्यास नदी के तट पर पहुंचा। इस नदी के उस पार नंदों का विशाल साम्राज्य स्थित था। सिकंदर इस क्षेत्र पर आक्रमण करने को आतुर था किंतु मकदूनिया से आये सिपाहियों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। कोनोस ने इन सिपाहियों का नेतृत्व किया।

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उसने सिकंदर तथा सेना के समक्ष लम्बा भाषण देते हुए कहा कि मकदूनिया से आये सिपाहियों को घर छोड़े हुए छः साल हो चुके हैं। उनमें से अधिकांश मर चुके हैं। बहुत से मकदूनियावासी नये बसाये गये नगरों में छोड़ दिये गये हैं। कई घायल हैं तथा कई बीमार हैं इसलिये वे अब आगे नहीं बढ़ सकते। यदि इन सिपाहियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध युद्ध के मैदान में धकेला गया तो सिकंदर को अपने सिपाहियों में पहले वाले वे सैनिक देखने को नहीं मिलेंगे जो मकदूनिया से उसके साथ चले थे। सिकंदर ने अपनी सेना को बहुत समझाया किंतु यूरोप से आये सिपाहियों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। इस पर सिकंदर ने कहा कि वह अकेला ही आगे बढ़ेगा। जिसे लौटना हो लौट जाये तथा जाकर अपने देशवासियों को बताये कि वे अपने राजा को शत्रु के सम्मुख अकेला छोड़कर लौट आये हैं। इस पर भी सेना टस से मस नहीं हुई। सिकन्दर ने दुःख भरे स्वर में कहा- ‘मैं उन दिलों में उत्साह भरना चाहता हूँ जो निष्ठाहीन और कायरतापूर्ण डर से दबे हुए हैं।’ पूरे तीन दिन तक सिकंदर अपने शिविर में बंद रहा किंतु सेना अपने निर्णय पर अड़ी रही। अंत में हारकर सिकंदर को प्रत्यावर्तन की घोषणा करनी पड़ी।

व्यास का तट छोड़कर सिकंदर चिनाव पार करके झेलम पर लौटा। यहां पर वह सौभूति नामक राज्य में गया जो कि कठों के पड़ौसी थे। वहां के शिकारी कुत्तों ने सिकंदर को बहुत प्रभावित किया। झेलम के तट पर सिकंदर ने आठ सौ नौकायें तैयार करवाईं। इसी समय कोनोस बीमार पड़ा और मर गया।

यहां सिकंदर ने अपनी सेना के तीन टुकड़े किये। पहला टुकड़ा जल सेना का था जिसे नियार्कस के नेतृत्व में जल मार्ग से रवाना किया गया। दूसरा टुकड़ा हेफशन के नेतृत्व में था जो सिकंदर की सेना के आगे चलता था। जब सिकंदर किसी सुरक्षित पड़ाव पर पहुंच जाता था तो हेफशन की सेनायें आगे बढ़ जाती थीं। जल सेना सिकंदर के साथ-साथ नदी मार्ग से आगे बढ़ती रहती थी। तीसरा टुकड़ा टालेमी के नेतृत्व में था जो हेफशन की सेना के पीछे-पीछे चलता था और सिकंदर के पृष्ठ भाग को सुरक्षित बनाता था।

झेलम के किनारे-किनारे तीन दिन चलने के बाद सिकंदर क्रेटरस और हिफेशन के शिविरों के निकट पहुंचा। वहीं पर फिलिप भी उससे मिलने के लिये आ गया। यहां से चलकर पांच दिन बाद सिकंदर झेलम और चिनाब के संगम पर आ गया। दोनों नदियों के जल ने भीषण रूप धारण कर रखा था जिससे दो नौकायें डूब गईं।

नियार्कस को मालवों की सीमा पर पहुंचने का आदेश मिला। मालवों की सीमा पर पहुंचने से पहले शिबि लोग सिकंदर से मिले और उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया। अलगस्सोई (अग्रश्रेणी) लोगों ने 40 हजार पदाति तथा 3 हजार अश्वारोही सेना के साथ जमकर सिकंदर से मोर्चा लिया। इस युद्ध में भी मकदूनिया के बहुत से सिपाही मरे। उसने अग्रश्रेणी नगर में आग लगवा दी तथा नागरिकों को मार डाला। 3 हजार लोगों ने जीवित रहने की इच्छा व्यक्त की। इस पर उन्हें दास बना लिया गया।

अग्रश्रेणियों को नष्ट करके सिकंदर पचास मील मरुभूमि पार करके मालवों पर जा धमका। मालव गण अचम्भित रह गये। निःशस्त्र लोग निर्दयता पूर्वक तलवार के घाट उतार दिये गये। बहुत से मालवों ने भागने का प्रयास किया। उन्हें पर्डिक्कस ने घेर कर मार डाला। बहुत से मालव भाग कर ब्राह्मणों के नगर ब्राह्मणक में छिप गये।

सिकंदर ने इस नगर पर भी आक्रमण करके बहुत से मालवों एवं ब्राह्मणों को मार डाला। यहां से सिकंदर ने रावी की ओर बढ़ा। सिकंदर ने सुना कि 50 हजार मालव सैनिक रावी के दक्षिणी तट पर खड़े हैं। सिकंदर अपने थोड़े से सैनिकों के साथ रावी को पार करके उस तट पर जा पहुंचा।

मालव उसे देखते ही भाग कर एक दुर्ग में चले गये। दूसरे दिन सिकंदर ने दुर्ग पर आक्रमण किया और दुर्ग को तोड़कर उस पर अधिकार कर लिया। दुर्ग की दीवार पार करते समय सिकंदर मालवों के बाणों की चपेट में आकर घायल हो गया। पर्डिक्क्स ने सिकंदर के शरीर में धंसा बाण खींचकर बाहर निकाला।

इस उपक्रम में इतना रक्त बहा कि सिकंदर मूर्च्छित हो गया। सिकंदर के सैनिकों ने कुपित होकर दुर्ग के भीतर स्थित समस्त पुरुषों, स्त्रियों एवं बच्चों को मार डाला। सिकंदर के ठीक होने के उपरांत भी अफवाह फैल गई कि सिकंदर मर गया। इस पर सिकंदर को घोड़े पर बैठकर अपने सैनिकों के समक्ष आना पड़ा।

इसके बाद सिकंदर के सैनिकों को क्षुद्रकों का सामना करना पड़ा। अंत में क्षुद्रक परास्त हुए। क्षुद्रकों ने एक सौ रथारूढ़ दूतों को सिकंदर से संधि करने के लिये भेजा। प्रत्यावर्तन मार्ग पर अम्बष्ठ, क्षत्रप तथा वसाति लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार की। फिलिप जिस भाग का क्षत्रप नियुक्त किया गया था, उसकी दक्षिणी सीमा पर सिंध और चिनाव का संगम था।

यहां पर एक नगर की स्थापना की गई। इसके बाद सिकंदर ने सिंध प्रदेश में प्रवेश किया। यहां का राजा मुसिकेनस मारा गया। अंत में पाटल नरेश का राज्य आया। सिकंदर का आगमन सुनकर नागरिक पाटल छोड़कर भाग गये।

यहां से सिकंदर दक्षिणी जड्रोशिया (मकरान) गया। सिंध से मकरान तक के रेगिस्तान को पार करने में सिकंदर के और भी बहुत से सैनिक भूख, प्यास एवं बीमारी से मारे गये। जेड्रोशिया की राजधानी पुरा पहुंचकर सिकंदर के सैनिकों ने आराम किया।

जब वह कर्मानिया पहुंचा तो उसे समाचार मिला कि उसके क्षत्रप फिलिप की हत्या कर दी गई। यह सुनकर सिकंदर ने तक्षशिला के राजा अम्भि तथा थ्रेस निवासी यूडेमस को फिलिप के स्थान पर काम संभालने के आदेश भिजवाये। इसी समय क्रेटरस अपनी सैन्य शाखा तथा हाथियों सहित आ मिला। नियार्कस की चार नौकाऐं मार्ग में ही नष्ट हो गईं। वह भी सिकंदर से आ मिला। अंत में समस्त सेनाओं सहित सिकंदर 324 ई.पू. में सूसा पहुंचा।

सिकंदर की मृत्यु एवं राज्य का विभाजन

323 ई.पू. में बेबीलोनिया में अचानक ही सिकंदर की मृत्यु हो गई। सिकंदर ने जिन क्षेत्रों पर अधिकार किया, उस क्षेत्रों को उसने अपनी मृत्यु से पहले पांच भागों में विभक्त किया- पहला पैरोपेनिसडाइ, दूसरा अम्भी का राज्य तथा काबुल की निम्न घाटी का प्रदेश जिसका क्षत्रप फिलिप था। तीसरा पौरव का विस्तृत राज्य था। चतुर्थ पश्चिम में हब नदी तक विस्तृत सिंधु की घाटी का राज्य था जिसका क्षत्रप पैथान था। पांचवा काश्मीर स्थित अभिसार का राज्य था।

सिकन्दर के भारत आक्रमण के परिणाम

यद्यपि अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने सिकंदर केे भारत अभियान के प्रभावों को उल्कापात की तरह क्षणिक तथा महत्वहीन बताया है किंतु सिकंदर के भारत आक्रमण के कुछ परिणाम अवश्य निकले थे जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

(1.) सिकंदर तथा उसकी सेनाओं द्वारा अपनाये गये चार अलग-अलग जल एवं थल मार्गों के माध्यम से पश्चिमी जगत से भारत का व्यापारिक सम्पर्क बढ़ गया तथा भारत में यूनानी मुद्राओं का प्रचार हो गया।

(2.) यूनानियों से हुए सम्पर्क के कारण भारत में बहुत से यूनानी शब्दों यथा पुस्तक, कलम, फलक, सुरंग आदि का संस्कृत भाषा में समावेश हो गया।

(3.) यूनानियों के सम्पर्क से भारतीयों ने यूनानी चिकित्सा पद्धति भी सीखी।

(4.) यूनानी मूर्तिकला के प्रभाव से पश्चिमोत्तर भारत में नवीन शैली का विकास हुआ जो गांधार शैली के नाम से विख्यात हुई। इस कला की विशेषता यह है कि इसमें मूल प्रतिमा तो भारतीय है किंतु उसकी बनावट, सजावट तथा विधि यूनानी है।

(5.) पंजाब में रहने वाली बहुत सी जातियां विशेषकर मालव, अर्जुनायन, शिबि अपने मूल स्थानों को छोड़कर दक्षिण दिशा अर्थात् राजस्थान में भाग आईं। इन जातियों ने राजस्थान में अनेक जनपदों की स्थापना की।

(6.) सीमांत प्रदेश, पश्चिमी पंजाब तथा सिंध में कुछ यूनानी उपनिवेश स्थापित हो गये। इनके माध्यम से भारत में क्षत्रपीय शासन व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण काबुल क्षेत्र में सिकंदरिया, झेलम के तट पर बुकेफाल और सिंध क्षेत्र में सिकंदरिया प्रमुख थे। ये उपनिवेश चंद्रगुप्त और अशोक के समय में भी अस्तित्व में रहे किंतु उसके बाद नष्ट हो गये।

(7.) सिकंदर के द्वारा भारत में कुछ नये नगरों की स्थापना की गई। इन नगरों में बहुत से यूनानी सैनिक तथा उनके परिवारों को बसाया गया। इन यूनानी परिवारों के माध्यम से भारत में यूनानी संस्कृति का प्रसार हुआ।

(8.) सिकंदर के साथ आये लेखकों ने अपनी पुस्तकों में भारतीय विवरण अंकित किये जिससे भारत के तत्कालीन तिथिबद्ध इतिहास का निर्माण करने में सहायता मिली।

(9.) सिकंदर के साथ आये लेखकों ने महत्वपूर्ण भौगोलिक विवरण अंकित किये जिनका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिला।

(10.) सिकंदर ने भारत से 2 लाख बैल यूनान भेजे। भारत से बहुत से बढ़ई भी यूनान ले जाये गये जो नाव, रथ, जहाज तथा कृषि उपकरण बनाते थे। इससे भारतीय हस्तकला का यूनान में भी प्रसार हो गया।

(11.) चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर की सेना की युद्ध-प्रणाली का अध्ययन किया तथा उसके आधार पर अपनी सेनाओं का संगठन तैयार किया। इस युद्ध-प्रणाली का थोड़ा-बहुत उपयोग उसने नंदों की शक्तिशाली सेना के विरुद्ध किया।

(12.) सिकंदर के जाने के बाद पश्चिमोत्तर भारत में राजनीतिक शून्यता व्याप्त हो गई। इस क्षेत्र की कमजोर राजीनतिक स्थिति का लाभ उठाकर विष्णुगुप्त चाणक्य तथा उसके शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत में मौर्य वंश की स्थापना की तथा मगध के शक्तिशाली नंद साम्राज्य को उखाड़ फैंका। मौर्य वंश की स्थापना से भारत में पहली बार राजनीतिक एकता की स्थापना संभव हो सकी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

चंद्रगुप्त मौर्य (अध्याय 12)

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मौर्य कालीन संगीत

इस अध्याय में चंद्रगुप्त मौर्य के इतिहास के साथ-साथ उसकी विजयें एवं प्रशासनिक व्यवस्थाओं का वर्णन किया गया है। चंद्रगुप्त मौर्य ही वह पहला राजा है जिसके समय से भारतीय राजाओं की प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिखित प्रमाण मिलने आरम्भ होते हैं।

मौर्य वंश

मौर्य साम्राज्य के संस्थापक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन अन्धकार में है। यूनानी इतिहासकारों ने उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा है। स्ट्रेबो, एरियन तथा जस्टिन ने उसे ‘सैण्ड्रोकोटस’ लिखा है जबकि एपिअन तथा प्लूटार्क ने उसे ‘ऐण्ड्रोकोटस’ लिखा है। फिलार्कस ने उसे ‘सैण्ड्रोकोप्टस’ कहा है।

भारतीय ग्रंथ उसे प्रायः चंद्रगुप्त मौर्य लिखते हैं। विशाखदत्त के नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में उसे चन्दसिरि (चंद्रश्री), पि अदर्सन (प्रिय दर्शन) और वृषल (राजाओं में प्रधान) कहा गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार उसके लिये ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग उसकी सामजिक हेयता का द्योतक है।

कतिपय ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार ‘मौर्य’ शब्द व्यक्ति-वाचक संज्ञा ‘मुरा’ से बना है जो नन्द-राज की नाइन जाति की शूद्रा पत्नी थी। चूंकि मौर्य-साम्राज्य का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य इसी मुरा के पेट से उत्पन्न हुआ था। इसलिये वह तथा उसके वंशज मौर्य कहलाये। इस व्याख्या के अनुसार ‘मौर्य’ शूद्र तथा निम्न कुल के ठहरते हैं।

इस मत को स्वीकार करने में दो बहुत बड़ी कठिनाइयाँ है। पहली कठिनाई तो व्याकरण सम्बन्धी है। संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार मुरा शब्द से, जो स्त्री-लिंग है, मौरेय शब्द बनेगा न कि मौर्य, अर्थात् मुरा की सन्तान मौरेय कहलायेगी, मौर्य नहीं। इसलिये मौर्यों को मुरा नामक शूद्र वंश का वंशज बताना, संस्कृत व्याकरण के नियम के विपरीत है।

मौर्यों को शूद्र-वंशीय स्वीकार करने में दूसरी कठिनाई यह है कि यदि मौर्य साम्राज्य का संस्थापक अर्थात् चन्द्रगुप्त शूद्र-वंश का होता तो कौटिल्य, जो एक ब्राह्मण था, उसकी सहायता न करता, और उसे राजा स्वीकार नहीं करता।

पुराणों में कहा गया है कि शिशुनाग वंश के विनाश के आगे शूद्र राजा होंगे। इस आधार पर बहुत से इतिहासकार मौर्यों को शूद्र मान लेते हैं जबकि यह निष्कर्ष सही नहीं है क्योंकि मौर्यों के बाद शुंग वंश एवं कण्व वंश ने भी मगध पर शासन किया जो कि ब्राह्मण थे। सातवाहन वंश भी ब्राह्मण था। पुराणों का यह कथन कि शिशुनाग वंश के विनाश के आगे शूद्र राजा होंगे, वस्तुतः नंद वंश के लिये है न कि मौर्यों के लिये।

कतिपय विद्वानों के अनुसार ‘मौर्य’ शब्द संस्कृत भाषा के पुल्लिंग शब्द ‘मुर’ से बना है जो महर्षि पाणिनी के कथनानुसार एक गोत्र का नाम था। इसलिये इस व्याख्या के अनुसार वह लोग जो ‘मुर’ गोत्र के थे ‘मौर्य’ कहलाये।

बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों के अनुसार ‘मौर्य’ शब्द प्राकृत भाषा के ‘मोरिय’ शब्द का संस्कृत रूपान्तर है। ‘मोरिय’ एक क्षत्रिय वर्ग का नाम था जो नेपाल की तराई में ‘पिप्पलिवन’ नामक राज्य में शासन करता था। चूंकि इस प्रदेश में मयूर अर्थात् मोर पक्षियों का बाहुल्य था, इसलिये वहाँ के निवासी तथा उसके वंशज ‘मौरिय’ अथवा ‘मौर्य’ कहलाये।

कतिपय बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के एक मुखिया की कन्या का पुत्र था जो क्षत्रिय-वंश का था। सम्भवतः ये क्षत्रिय शत्रुओं द्वारा जन्मभूमि से भगा दिये गये थे और छिप कर मयूर पलकों के रूप में पाटलिपुत्र के निकट जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब इस क्षत्रिय-वंश के एक व्यक्ति ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो अपने मयूर पालक पूर्वजों की स्मृति में अपने नाम के आगे मौर्य शब्द जोड़ दिया।

सांची के पूर्वी द्वारों पर जो चित्रकारी की गई है उस पर मोर पक्षी के चित्र बने हुए हैं। इससे मार्शल ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सम्भवतः मोर पक्षी मौर्य-वंश का राज्य चिह्न था और इस राज्य चिह्न के कारण ही इस वंश का नाम मौर्य वंश पड़ा। चूंकि राज-वंशों के चिह्न प्रायः पशु-पक्षी हुआ करते थे इसलिये मार्शल का यह अनुमान निराधार नहीं कहा जा सकता।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मौर्य शूद्र तथा अकुलीन नहीं थे। आधुनिक इतिहासकार इसी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय राजकुमार था और ‘मोरिय’ क्षत्रियों का वंशज होने के कारण जो सम्भवतः दुर्दिन आ जाने के कारण मयूर पालक बन गये थे, मौर्य कहलाया। जिस राज-वंश की उसने स्थापना की वह मौर्य-वंश कहलाया। जिस साम्राज्य का उसने निर्माण किया वह मौर्य साम्राज्य और जिस काल में उसने तथा उसके वंशजों ने शासन किया वह मौर्य-काल कहलाया।

भारत के इतिहास में मौर्य-काल का महत्त्व

भारत के इतिहास में मौर्य-काल का विशिष्ट स्थान है। वास्तव में मौर्य-साम्राज्य की स्थापना से भारतीय इतिहास में एक युग का अन्त और दूसरे युग का आरम्भ होता है। जिस युग का अन्त होता है उसे हम अनैतिहासिक युग और जिस नये युग का आरम्भ होता है उसे हम ऐतिहासिक युग कह सकते हैं।

स्मिथ ने इस युग की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘मौर्य राज-वंश का प्रादुर्भाव इतिहासकार के लिए अन्धकार से प्रकाश के मार्ग का निर्देशन करता है। तिथि-क्रम सहसा निश्चित, लगभग-लगभग सुनिश्चित हो जाता है, एक विशाल साम्राज्य का प्रादुर्भाव होता है जो भारत के विच्छिन्न असंख्य टुकड़ों को संयुक्त कर देता है; इस वंश के राजा, जिन्हें वास्तव में सम्राट कहा जा सकता है, महान् व्यक्तित्त्व के तथा लब्ध-प्रतिष्ठ व्यक्ति थे जिनके गुणों के दर्शन समय के कुहासे में मन्द रूप में किये जा सकते हैं।’

इस नये युग की प्रधान विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) शृंखलाबद्ध इतिहास का आरम्भ

मौर्य-काल के पहले का इतिहास प्रायः अन्धकारमय तथा विशृंखलित है अर्थात् इसका कोई क्रम नहीं है। इसके दो प्रधान कारण प्रतीत होते हैं। पहला तो यह कि घटनाओं की तिथियों का ठीक-ठीक निश्चय नहीं है और दूसरा यह कि इस काल के इतिहास को जानने के साधन बहुत कम हैं।

प्रधानतः धार्मिक ग्रन्थों की सहायता से ही इस काल के इतिहास का निर्माण किया गया है। मौर्य-काल के आरम्भ से हम अन्धकार से प्रकाश में आ जाते हैं और भारत का क्रम-बद्ध इतिहास आरम्भ हो जाता है। इसके दो प्रधान कारण हैं। पहला तो यह है कि मौर्य-काल की तिथियाँ निश्चित हैं और दूसरा यह कि मौर्य-काल के इतिहास को जानने के साधन बड़े ही ठोस तथा व्यापक हैं। इस काल का इतिहास जानने के लिए हमें धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य साधन भी अर्थात् ऐतिहासिक ग्रन्थ, विदेशी विवरण, अभिलेख आदि प्राप्त हो जाते हैं।

मौर्य-काल के पूर्व हमें कोई विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता जिसके द्वारा प्राचीन भारत के क्रम-बद्ध, प्रामाणिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया जाय परन्तु मौर्य-काल में और उसके बाद अनेक ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे गये जिनके आधार पर भारत का क्रम-बद्ध प्रमाणित इतिहास तैयार किया जा सकता है।

इन ऐतिहासिक ग्रन्थों में सर्व-प्रथम स्थान कौटिल्य के ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ का है। कौटिल्य को चाणक्य तथा विष्णुगुप्त भी कहा गया है। यद्यपि कौटिल्य के इस ग्रन्थ का नाम ‘अर्थशास्त्र’ है परन्तु इसमें अर्थ अर्थात् धन-सम्बन्धी कोई बात नहीं लिखी गई है। वास्तव में यह एक विशुद्ध राजनीतिक ग्रन्थ है ओर इससे मौर्यकालीन इतिहास का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है।

मौर्यकालीन इतिहास जानने का दूसरा साधन विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक है। यह एक ऐतिहासिक नाटक है और मौर्य-काल के प्रारम्भिक इतिहास को जानने में सहायक है। पुराणों से भी, जो ऐतिहासिक ग्रन्थ माने जाते हैं, मौर्य-युग के इतिहास का बहुत कुछ-ज्ञान प्राप्त होता है। कालिदास के ऐतिहासिक नाटक, काश्मीरी लेखक कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ तथा महर्षि पतन्जलि के ‘महाभाष्य’ से भी मौर्यकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

विदेशी यात्रियों के विवरण भी मौर्यकालीन इतिहास जानने के प्रामाणिक तथा विश्वसनीय साधन हैं। विदेशी लेखकों ने जो कुछ लिखा है वह स्वतंत्र तथा निष्पक्ष भाव से लिखा है और उनमें से अधिकांश ऐसे थे जो स्वयं भारत आये थे। उन्होंने जो कुछ अपनी आँखों से देखा अथवा भारतीयों से सुना, वही लिखा।

विदेशी लेखकों में सबसे पहला स्थान मेगस्थनीज का है जो यूनानी सम्राट सैल्यूकस का राजदूत था और चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र में कई वर्षों तक रहा। कालान्तर में चीन तथा तिब्बत आदि देशों के यात्री भी भारत आये और उन्होंने यहाँ के विषय में लिखा। चीनी यात्रियों में फाह्यान तथा ह्नेनसांग और तिब्बती लेखकों में तारानाथ प्रमुख हैं।

शिला अभिलेख भी मौर्य-कालीन इतिहास जानने के अत्यन्त विश्वसनीय तथा प्रामाणिक साधन हैं। सम्राट अशोक ने स्तम्भों, शिलाओं तथा गुफाओं की दीवारों पर अनेक लेख लिखवाये जो आज भी उसकी कीर्ति का गान कर रहे हैं।

बौद्ध तथा जैन-ग्रन्थ भी मौर्य-कालीन इतिहास जानने के प्रमुख साधन हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन-धर्म को और अशोक ने बौद्ध-धर्म को आश्रय प्रदान किया। इसलिये इन दोनों धर्मों के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में मौर्य-कालीन इतिहास पर प्रकाश डालकर उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की।

उपर्युक्त प्रचुर साधनों की सहायता से इतिहासकारों ने मौर्य काल का प्रामाणिक तथा विश्वासनीय इतिहास तैयार किया है। इस प्रकार ऐतिहासिक साधनों तथा इतिहास निर्माण की दृष्टि से मौर्य-काल का बहुत बड़ा महत्त्व है।

(2) साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का प्रारम्भ

मौर्य-काल का दूसरा महत्त्व यह है कि इस काल के प्रारम्भ से ही भारत में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का प्रारम्भ होता है और यह प्रवृत्ति आगामी शताब्दियों में भी चलती है। भारतवर्ष के राजनीतिक इतिहास में यहीं से एक नये युग का आरम्भ होता है जिसे हम साम्राज्यवाद तथा राजनीतिक एकता का युग कह सकते हैं।

मौर्य-काल के पूर्व भारतवर्ष में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव था और सम्पूर्ण देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। यद्यपि साम्राज्यवाद तथा राजनीतिक एकता का स्वप्न देखना भारतीय राजाओं ने मौर्य-काल के पहले ही आरम्भ कर दिया था, परन्तु इस स्वप्न को सर्वप्रथम मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त ने ही चरितार्थ किया।

उसने पंजाब तथा सिन्ध क्षेत्र से विदेशी यूनानियों को और उत्तरी-भारत के अन्य छोटे-छोटे देशी राज्यों को समाप्त कर सम्पूर्ण उत्तरी-भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांधा। इस प्रकार प्रथम बार भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई। राजनीतिक एकता का यह आदर्श भारत के भावी महत्त्वाकांक्षी सम्राटों को सदैव प्रेरित करता रहा।

(3) प्रशासनिक एकरूपता का प्रादुर्भाव

राजनीतिक एकता तथा शासन की एकरूपता में अटूट सम्बन्ध है। राजनीतिक एकता प्रशासकीय एकता की जननी है। जब मौर्य-सम्राटों ने सम्पूर्ण उत्तरी-भारत में राजनीतिक एकता स्थापित कर दी तब इस विशाल भू-भाग में एक ही प्रकार के सुदृढ़़ तथा सुव्यवस्थित केन्द्रीय शासन की स्थापना हो गई। चंद्रगुप्त मौर्य ने जिस शासन-व्यवस्था का शिलान्यास किया वही भावी शासकों के लिए आदर्श व्यवस्था बन गई और उसी में न्यूनाधिक परिवर्तन करके आगामी शासकों ने शासन-व्यवस्था को चलाया। मौर्य-कालीन शासन व्यवस्था शान्ति बनाये रखने तथा सम्पन्नता प्रदान करने में इतनी सफल रही कि इसे हम शान्ति तथा सम्पन्नता का युग कह सकते हैं।

(4) सांस्कृतिक एकता की स्थापना

राजनीतिक एकता सांस्कृतिक एकता की भी जननी है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने विदेशियों को अपने देश से निष्कासित कर एक विशुद्ध भारतीय संस्कृति के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियॉं उत्पन्न कीं। उसने सम्पूर्ण उत्तरी-भारत में एकछत्र, सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित शासन स्थापित कर सांस्कृतिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया।

अशोक ने बौद्ध-धर्म को राज-धर्म बनाकर, उसके प्रचार की समुचित व्यवस्था की तथा सम्पूर्ण भारत में पत्थरों पर शिक्षाएं तथा उपदेश लिखवा कर सम्पूर्ण राज्य में एक ही प्रकार की संस्कृति के विकास का कार्य किया।

(5) विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना

अशोक ने जिस सभ्यता तथा संस्कृति का सृजन किया, उसे विदेशों में भी प्रचारित कराया। इस प्रकार अशोक विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार का अग्रदूत बन गया। इस सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार की बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि यह कार्य प्रेम तथा सद्भावना से किया गया।

चंद्रगुप्त मौर्य

चंद्रगुप्त मौर्य के भारतीय राजनीति के मंच पर आने की ओर संकेत करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘सिकन्दर के चले जाने के उपरान्त भारत के राजनीतिक गगन-मण्डल में एक नया तारा निकला जिसने शीघ्र ही अपने परम प्रकाश से शेष समस्त को तिमिर-तिरोहित कर दिया।’

स्मिथ ने चंद्रगुप्त मौर्य के भारतीय राजनीति के मंच पर आने के महत्त्व की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘वास्तव में चंद्रगुप्त मौर्य ही प्रथम ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसे हम सचमुच भारत का सम्राट् कह सकते हैं। एक इतिहासकार के लिए मौर्य राज-वंश का प्रादुर्भाव, अन्धकार से प्रकाश के मार्ग की ओर निर्देशन करता है।’

जस्टिन ने भी इस ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त, चन्द्रगुप्त भारत की स्वतन्त्रता का निर्माता था।’

चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई.पू. में मोरिय वंश के क्षत्रिय कुल में हुआ था जो सूर्यवंशी शाक्यों की एक शाखा थी। यह वंश नेपाल की तराई में स्थित पिप्पलिवन के गणतांत्रिक प्रणाली वाले राज्य पर शासन करता था। चन्द्रगुप्त का पिता इन्ही मोरियों का प्रधान था। दुर्भाग्यवश एक शक्तिशाली राजा ने उसकी हत्या कर दी और उसके राज्य को छीन लिया।

चन्द्रगुप्त की माता उन दिनों गर्भवती थी। इस विपत्ति में वह अपने सम्बन्धियों के साथ पिप्पलिवन से निकल गई तथा पाटलिपुत्र में अज्ञात रूप से निवास करने लगी। आजीविका चलाने तथा अपने राजवंश को गुप्त रखने के लिए ये लोग मयूर पालन का कार्य करने लगे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक जीवन मयूर-पालकों के मध्य व्यतीत हुआ।

जब चन्द्रगुप्त बड़ा हुआ तब उसने मगध के राजा के यहाँ नौकरी कर ली। इन दिनों मगध में नन्द-वंश शासन कर रहा था। चंद्रगुप्त उसकी सेना में भर्ती हो गया। चन्द्रगुप्त बड़ा ही योग्य तथा प्रतिभावान् युवक था। अपनी योग्यता के बल से वह मगध की सेना का सेनापति बन गया परन्तु कुछ कारणों से मगध का राजा उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दे दी। चन्द्रगुप्त अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए मगध राज्य से बाहर चला गया। उसने नन्द वंश को नष्ट करने का संकल्प लिया।

चंद्रगुप्त तथा चाणक्य का योग

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यद्यपि चन्द्रगुप्त ने नन्द-वंश को उन्मूलित करने का संकल्प कर लिया था परन्तु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके पास साधन उपलब्ध नहीं थे। वह पंजाब की ओर चला गया और इधर-उधर भटकता हुआ तक्षशिला जा पहुंचा, जहाँ विष्णुगुप्त नामक ब्राह्मण से उसकी भेंट हो गयी। विष्णुगुप्त को चाणक्य भी कहते हैं क्योंकि उसके पितामह (बाबा) का नाम चणक था। उसे कौटिल्य भी कहते है क्योंकि उसके पिता का नाम कुटल था। चाणक्य विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। वह भारत के पश्चिमोत्तर भाग की राजनीतिक दुर्बलता से परिचित था और उसे आंशका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार हो सकता है। वह इस भू-भाग के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर यहाँ एक प्रबल केन्द्रीय शासन स्थापित करना चाहता था, जिससे विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। अपने इस उदेश्य की पूर्ति के लिए यह मगध-नरेश की सहायता प्राप्त करने के लिए पाटलिपुत्र गया परन्तु वह नन्द-राज द्वारा अपमानित किया गया। चाणक्य बड़ा ही क्रोधी तथा उग्र-प्रकृति का व्यक्ति था। उसने नन्द-वंश को नष्ट करने का संकल्प कर लिया। नन्द-वंश के विशाल साम्राज्य का उन्मूलन करने के साधन उसके पास भी नहीं थे। इसलिये वह इस साधन की खोज में संलग्न था। इसी समय चन्द्रगुप्त से उसकी भेंट हुई।

चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनों के उद्देश्य एक ही थे। वे दोनों व्यक्ति, नन्द-वंश का विनाश करना चाहते थे परन्तु दोनों ही के पास साधनों का अभाव था। संयोगवश इन दोनों ने एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति कर दी।

चाणक्य को एक वीर, साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी नवयुवक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चन्द्रगुप्त ने की और चन्द्रगुप्त को एक विद्वान् एवं अनुभवी कूटनीतिज्ञ की सेवाओं की आवश्यकता थी। साथ ही उसे सेना एकत्रित करने के लिये विपुल मात्रा में धन की आवश्यकता थी। उसकी इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति चाणक्य ने कर दी। फलतः इन दोनों में मैत्री तथा गठबन्धन हो गया।

अपने उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी करने के लिए दोनों मित्र विन्ध्याचल के वनों की ओर चले गये। चाणक्य ने अपना सारा धन चन्द्रगुप्त को दे दिया। इस धन की सहायता से उसने भाड़े की एक सेना तैयार की और इस सेना की सहायता से मगध पर आक्रमण कर दिया परन्तु नन्दों की शक्तिशाली सेना ने उन्हें परास्त कर दिया और वे मगध से भाग खड़े हुए। 

अब इन दोनों मित्रों ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए फिर पंजाब की ओर प्रस्थान किया। चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने अनुभव किया कि मगध राज्य के केन्द्र पर प्रहार कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी। वास्तव में उन्हें इस राज्य के एक किनारे पर स्थित सुदूरस्थ प्रदेश पर आक्रमण करना चाहिए था, जहाँ केन्द्रीय सरकार का प्रभाव कम और उसके विरुद्ध अंसतोष अधिक रहता है।

उस समय यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर पंजाब में ही था और वहाँ के छोटे-छोटे राज्यों को जीत रहा था। चन्द्रगुप्त ने नन्दों के विरुद्ध सिकन्दर की सहायता लेने का विचार किया। इसलिये वह सिकन्दर से मिला और कुछ दिनों तक उसके शिविर में रहा।

चन्द्रगुप्त के स्वतन्त्र विचारों के कारण सिकन्दर उससे अप्रसन्न हो गया और उसका वध करने की आज्ञा दी। चन्द्रगुप्त प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ। अब उसने मगध-राज्य के विनाश के साथ-साथ यूनानियों को भी भारत से मार भगाने का निश्चय कर लिया। वह चाणक्य की सहायता से अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने लगा।

चन्द्रगुप्त की विजयें

(1) विजय अभियान का आरम्भ

इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने पहले पंजाब-सिंध से यूनानियों का सफाया किया अथवा मगध राज्य पर आक्रमण करके नंद वंश की सत्ता को समाप्त किया। यूनानी, बौद्ध तथा जैन ग्रंथों से अनुमान होता है कि चंद्रगुप्त ने पहले पंजाब एवं सिंध क्षेत्र को यूनानियों से मुक्त करवाया।

महावंश टीका तथा जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् में एक कथा मिलती है जिसके अनुसार चाणक्य तथा चंद्रगुप्त मौर्य ने पहले मगध राज्य पर आक्रमण किया किंतु वहां से परास्त होकर भाग खड़े हुए। इसके बाद उन्होंने निर्णय लिया कि सीधे ही मगध की राजधानी पर आक्रमण करने के स्थान पर उन्हें मगध राज्य के एक किनारे से अपना विजय अभियान आरम्भ करना चाहिये।

(2) पंजाब और सिंध पर अधिकार

सिकन्दर के भारत से चले जाने के उपरान्त पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में निवास करने वाले भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। चन्द्रगुप्त के लिए यह स्वर्ण अवसर था। उसने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाने का निश्चय किया। महावंश टीका तथा जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् के अनुसार चाणक्य ने धातुशास्त्र के ज्ञान से धन निर्मित करके सैनिक भर्ती किये।

चंद्रगुप्त मौर्य ने इस सेना के बल पर, यूनानियों के विरुद्ध चल रहे आंदोलन का नेतृत्व ग्रहण किया। चंद्रगुप्त ने यूनानियों को पंजाब तथा सिंध क्षेत्र से भगाना आरम्भ किया। यूनानी क्षत्रप यूडेमान, यूनानी सैनिकों के साथ भारत छोड़कर भाग गया। जो यूनानी सैनिक भारत में रह गये, वे तलवार के घाट उतार दिये गये। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब तथा सिंध पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

जस्टिन ने लिखा है- ‘सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् उसके गवर्नरों को मारकर भारत को विदेशियों की दासता से मुक्त करवाने का श्रेय चंद्रगुप्त को है।’

जस्टिन लिखता है- ‘सिकन्दर की मृत्यु के बाद भारत ने मानो अपने गले से दासता का जुआ उतार फेंका और उसके क्षत्रपों को मार डाला। इस मुक्ति का सृष्टा सैंड्रोकोटस था।’

डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार जस्टिन का यह उद्धरण इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। इसमें निश्चित रूप से यह कहा गया है कि चंद्रगुप्त इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नायक था।

(3) मगध राज्य पर आक्रमण

पंजाब तथा सिंध पर अधिकार स्थापित कर लेने के उपरान्त चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध-राज्य पर आक्रमण करने के लिए पूर्व की ओर प्रस्थान किया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मगध-साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर टूट पड़ा। चन्द्रगुप्त की सेना को रोकने के मगध-नरेश के समस्त प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए।

चंद्रगुप्त मौर्य की सेना ने मगध-राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के निकट पहुँचकर उसका घेरा डाल दिया। अन्त में नन्द-राज धनानन्द की पराजय हुई और वह अपने परिवार के साथ युद्ध में मारा गया। इस प्रकार 322 ई.पू. में चन्द्रगुप्त पाटलिपु़त्र के सिंहासन पर बैठा। चाणक्य ने उसका राज्याभिषेक किया।

वायुपुराण में कहा गया है कि ब्राह्मण कौटिल्य नवनंदों का नाश करेगा तथा कौटिल्य ही चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक करेगा। वायुपुराण, कौटिलीय अर्थशास्त्र, महावंशटीका, मत्स्य पुराण एवं भागवत पुराण, नीति शास्त्र, कथासरित्सागर, वृहत्कथा मंजरी, मुद्राराक्षस आदि ग्रंथों में चंद्रगुप्त द्वारा नंदों के उन्मूलन एवं मगध की गद्दी पर चंद्रगुप्त के सिंहासनारोहण का उल्लेख किया गया है।

(4) पश्चिमी भारत पर विजय

उत्तर भारत पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चंद्रगुप्त मौर्य तथा चाणक्य ने पश्चिमी भारत पर भी अपनी विजय-पताका फहराने का निश्चय किया। उन्होंने सर्वप्रथम सौराष्ट्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसके बाद लगभग 303 ई.पू. में उसने मालवा पर अधिकार स्थापित कर लिया और पुष्यगुप्त वैश्य को वहाँ का प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त किया जिसने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया। इस प्रकार काठियावाड़ तथा मालवा पर चन्द्रगुप्त का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

(5) सैल्यूकस पर विजय

चंद्रगुप्त मौर्य का अन्तिम संघर्ष सिकन्दर के पूर्व सेनापति तथा बैक्ट्रिया के शासक सैल्यूकस निकेटार के साथ हुआ। सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त सैल्यूकस उसके साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिकारी बना था। उसने 305 ई.पू. में भारत पर आक्रमण कर दिया, चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा की व्यवस्था पहले से ही कर ली थी।

चंद्रगुप्त मौर्य की सेना ने सिन्धु नदी के उस पार ही सैल्यूकस की सेना का सामना किया। युद्ध में सैल्यूकस की बुरी तरह पराजय हो गई और उसे विवश होकर चन्द्रगुप्त के साथ सन्धि करनी पड़ी। सैल्यूकस ने अपने चार प्रांत- आरकोशिया (कंधार), पैरोपैनिसडाई (काबुल), एरिया (हेरात) तथा गेड्रोशिया (बिलोचिस्तान) चन्द्रगुप्त को दे दिये।

सैल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया। भविष्य पुराण में इस विवाह का उल्लेख मिलता है। इस संधि के बाद सैल्यूकस ने मेगस्थनीज नामक एक राजदूत भी चंद्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र में रहने के लिये भेजा। चन्द्रगुप्त ने भी सैल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये।

चंद्रगुप्त मौर्य और सैल्यूकस के संघर्ष के सम्बन्ध में डॉ. राज चौधरी ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास’ में लिखा है- ‘यह देखा जायेगा कि प्राचीन लेखकों से हमें सैल्यूकस और चन्द्रगुप्त के वास्तविक संघर्ष का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। वे केवल परिणामों को बतलाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आक्रमणकारी अधिक आगे न बढ़ सका और उसने एक सन्धि कर ली जो वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा सुदृढ़़ बना दी गई।

(6) दक्षिणापथ पर विजय

चंद्रगुप्त मौर्य ने सुदूर दक्षिण को छोड़कर दक्षिणापथ के अधिकांश भाग को जीतकर उसे मौर्य साम्राज्य का अंग बना लिया था। इतिहासकारों की धारणा है कि चन्द्रगुप्त का साम्राज्य सम्भवतः मैसूर की सीमा तक फैला हुआ था। कुछ इतिहासकार कृष्णा नदी को उसके राज्य की अंतिम सीमा मानते हैं। जैन संदर्भों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य का राज्य दक्षिण में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) तक विस्तृत रहा होगा।

(7) लगभग सम्पूर्ण भारत पर आधिपत्य

अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैल गया। काश्मीर तथा नेपाल भी उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे। केवल कलिंग तथा दक्षिण भारत का कुछ भाग उसके साम्राज्य के भीतर नहीं थे।

जस्टिन के अनुसार समस्त भारत चंद्रगुप्त के अधिकार में था। मुद्राराक्षस में आये एक श्लोक के अनुसार चंद्रगुप्त का साम्राज्य चतुःसमुद्रपर्यंत था। महावंश टीका में चंद्रगुप्त को सकल जम्बूद्वीप का स्वामी कहा गया है। प्लूटार्क के अनुसार ऐंड्रोकोटस ने छः लाख सैनिकों की सेना लेकर सारे भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया।

मुद्राराक्षस के अनुसार हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक के राजा भयभीत और नतशीश होकर चंद्रगुप्त के चरणों में झुक जाया करते थे और चारों समुद्रों के पार से आये राजागण चंद्रगुप्त मौर्य की आज्ञा को अपने सिरों पर माला की तरह धारण करते थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने अपने बाहु-बल तथा अपने मन्त्री चाणक्य के बुद्धि-बल से भारत की राजनीतिक एकता सम्पन्न की।

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबन्ध

चंद्रगुप्त मौर्य न केवल एक महान् विजेता वरन् एक कुशल शासक भी था। उसने जिस शासन-व्यवस्था का निर्माण किया वह इतनी उत्तम सिद्ध हुई कि भावी शासकों के लिए आदर्श बन गई। वह शासन-व्यवस्था थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ निरन्तर चलती रही। चन्द्रगुप्त का शासन तीन भागों में विभक्त था- (अ) केन्द्रीय शासन, (ब) प्रान्तीय शासन तथा (स) स्थानीय शासन ।

(अ) केन्द्रीय शासन

केन्द्रीय शासन साम्राज्य की राजधानी से संचालित होता था। इसका संचालन सम्राट, उसके परामर्शदाताओं और मन्त्रियों द्वारा होता था। सम्राट तथा उसके मन्त्रियों के अधीन कर-संग्राहक, गुप्तचर-विभाग, सेना, न्यायालय आदि काम करते थे।

(1) सम्राट

केन्द्रीय शासन का प्रधान स्वयं सम्राट होता था। उसकी आज्ञाओं तथा आदेशों के अनुसार सम्पूर्ण देश का शासन चलता था। सम्राट स्वयं नियमों का निर्माण करता था तथा नियमों का पालन करवाने की व्यवस्था करता था। सम्राट नियमों का उल्लंघन करने वालों को दंड भी देता था। इस प्रकार सम्राट स्वयं व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का प्रधान था। वही सम्पूर्ण देश के शासन का केन्द्र-बिन्दु था।

स्मिथ ने लिखा है- ‘ चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से सम्बन्धित विदित तथ्य इस बात को सिद्ध कर देते हैं कि वह कठोर एवं निरंकुश शासक था।’

सम्राट न केवल् प्रशासकीय विभाग का सर्वेसर्वा था वरन् वह सैनिक-विभाग का भी प्रधान था और वह स्वयं सेना के संगठन की व्यवस्था करता था। युद्ध के समय वह स्वयं सेनापति के कार्यों को करता था।

स्पष्ट है कि राज्य की सारी शक्ति सम्राट के हाथ में थी और उसी की इच्छानुसार सम्पूर्ण राज्य का शासन संचालित होता था। इसलिये यदि यह कहें कि चन्द्रगुप्त का शासन एकतंत्रीय, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था तो कुछ अनुचित न होगा परन्तु स्वेच्छाचारी शासन का यह तात्पर्य नहीं है कि सम्राट मनमाने ढंग से शासन करता था और लोकमत की चिन्ता नहीं करता था।

स्वेच्छाचारी शासन का तात्पर्य  केवल इतना है कि सिद्धांततः राजा की शक्ति तथा उसके अधिकारों पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं था परन्तु क्रियात्मक रूप में उसे परम्परागत नियमों, अपने परामर्शदाताओं के परामर्शों तथा नैतिक नियमों का सम्मान करना पड़ता था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ से ज्ञात होता है कि सम्राट् अपनी प्रजा का ऋणी समझा जाता था।

वह अच्छा शासन करके ही इस ऋण से मुक्त हो सकता था। इसलिये स्वेच्छाचारी होते हुए भी प्रजा के हित में शासन करना राजा का परम धर्म था। अपनी प्रजा का अधिक से अधिक कल्याण करने के लिए और अपने शासन को सुचारू रीति से संचालित करने के लिए सम्राट् मन्त्रियों तथा अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था।

(2) मन्त्रि-परिषद

सम्राट् को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यों में परामर्श तथा सहायता देने के लिए एक मन्त्रि-परिषद की व्यवस्था की गई थी। चन्द्रगुप्त के प्रधान परामर्शदाता कौटिल्य का विश्वास था कि शासन की गाड़ी एक पहिए से नहीं चल सकती। सम्राट् उसका एक पहिया है, इसलिये उसके दूसरे पहिये अर्थात् मन्त्रिपरिषद् का होना अनिवार्य है, तभी शासन सुचारू रीति से संचालित होगा और प्रजा का अधिक से अधिक कल्याण हो सकेगा।

मन्त्रि-परिषद् के सदस्यों को सम्राट स्वयं नियुक्त करता था। समस्त मंत्री वेतनभोगी होते थे। केवल वही लोग इस पद पर नियुक्त किये जाते थे जो बुद्धिमान, निर्लोभी तथा सच्चरित्र हों। मन्त्रि-परिषद अपना निर्णय बहुमत से देती थी परन्तु सम्राट अपनी परिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। मन्त्रि-परिषद् राज्य के केवल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयों में परामर्श देने के लिए बुलाई जाती थी। राज्य के दैनिक कार्योंं से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था।

(3) मन्त्रिन्

दैनिक शासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए सम्राट् को परामर्श देने और उसकी सहायता करने के लिए एक दूसरी सभा होती थी जिसके सदस्य मन्त्रिन् कहलाते थे। मन्त्रिन् का पद मन्त्रि-परिषद के सदस्यों से अधिक ऊँचा तथा महत्त्वपूर्ण होता था।

मंत्रिन् की नियुक्ति भी सम्राट् स्वयं करता था और इस पद पर केवल ऐसे ही लोग नियुक्त किये जाते थे जिनके किसी भी प्रकार के प्रलोभन में पड़ने की सम्भावना नहीं होती थी और जिनकी पहले से ही परीक्षा की जा चुकी होती थी। कौटिल्य ने इनकी संख्या तीन-चार बताई है। ये मन्त्रिन् देश-रक्षा, विदेशी विषयों, आकस्मिक आपत्तियों के लिए व्यवस्था करने, शासन को सुचारू रीति से संचालित करने आदि विषयों में सम्राट को परामर्श देते थे। सम्राट मन्त्रिन् के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था।

(4) विभागीय व्यवस्था

मन्त्रि-परिषद तथा मन्त्रिन्, सम्राट को केवल परामर्श देते थे, वे दैनिक शासन को संचालित नहीं करते थे। राज्य के दैनिक शासन को सुचारू रीति से सम्पादित करने के लिए चन्द्रगुप्त ने विभागीय व्यवस्था का निर्माण किया था। इस व्यवस्था में सम्पूर्ण शासन का कार्य विभिन्न विभागों में विभक्त कर दिया गया था।

प्रत्येक विभाग को शासन के एक-दो विषय सौंपे गये थे। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था जो ‘अमात्य’ कहलाता था। चन्द्रगुप्त के शासन-काल में इस प्रकार के कुल अठारह विभाग थे। इसलिये उसने अठारह अमात्यों को नियुक्त कर रखा था। इन अमात्यों के अधीन अनेक पदाधिकारी तथा कर्मचारी होते थे जो दैनिक शासन को सुचारू रीति से संचालित करते थे।

अमात्यों तथा उनके नीचे काम करने वाले समस्त कर्मचारियों की नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था और वे सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे। जिस विभागीय व्यवस्था का सूत्रपात चन्द्रगुप्त मौर्य ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व किया था उसका अनुकरण आज सारे संसार में हो रहा है।

(5) पुलिस व्यवस्था

चन्द्रगुप्त तथा उसके प्रधानमन्त्री चाणक्य ने साम्राज्य में आन्तरिक शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये एक अत्यन्त सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित पुलिस विभाग का प्रबन्ध किया। पुलिस के सिपाही ‘रक्षिन्’ कहलाते थे। समाज की सुरक्षा का भार उन्हीं के ऊपर रहता था।

(6) गुप्तचर व्यवस्था

गुप्तचर उस व्यक्ति को कहते हैं जो गुप्त रूप से विचरण करके सब बातों का पता लगाये। चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने गुप्तचरों की उपयोगिता का अनुभव करके सुदृढ़़ गुप्तचर विभाग का गठन किया। गुप्तचर-विभाग दो भागों में विभक्त था। एक को ‘संस्थान’ करते थे और दूसरे को ‘संचारण’।

संस्थान गुप्तचर एक स्थान पर रहकर अपनी गतिविधियों का संचालन करते थे जबकि संचारण गुप्तचर भ्रमण करके सूचनाएं एकत्रित करते थे। इस प्रकार स्थानीय बातों की सूचना प्राप्त करने के लिए संस्थान विभाग का और दूरस्थ सूचनाओं का पता लगाने के लिए संचारण विभाग का गठन किया गया था।

चंद्रगुप्त मौर्य के गुप्तचर विभाग में स्त्रियाँ भी काम करती थीं। किस समय में और किस स्थान पर कौनसी बात हो रही है इसकी सूचना सम्राट को गुप्तचरों से प्राप्त हो जाती थी। अपने राज्य के बड़े-बड़े कर्मचारियों के कार्यों की सूचना भी उसे गुप्तचरों से मिल जाती थी। इस प्रकार षड्यन्त्रों तथा कुचक्रों का पता लगाने में सम्राट को कोई कठिनाई नहीं होती थी।

(7) न्यायिक व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य ने एक निष्पक्ष, न्याय-प्रिय तथा विवेकशील न्याय व्यवस्था की आवश्यकता का अनुभव किया और अपने विद्वान, अनुभवी तथा नीति-निपुण प्रधान मन्त्री चाणक्य की सहायता से एक ऐसी न्याय-व्यवस्था का निर्माण किया जिसका अनुसरण आज भी सभ्य संसार द्वारा किया जा रहा है।

चन्द्रगुप्त द्वारा स्थापित न्याय-व्यवस्था में सम्राट स्वयं सबसे बड़ा न्यायाधीश था। राजा के नीचे अन्य न्यायाधीश थे। नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीश थे। नगरों के न्यायाधीश ‘व्यवहारिक महामात्य’ और जनपदों के न्यायधीश ‘राजुक’ कहलाते थे। जो न्यायाधीश चार गाँवों के लिए होते थे वे संग्रहण’, जो चार सौ गाँव के लिए होते थे वे ‘द्रोणमुख’ और जो आठ सौ गाँवों के लिए होते थे वे ‘स्थानीय’ कहलाते थे।

न्यायाधीशों को ‘धर्मस्थ’ कहते थे। प्रत्येक न्यायालय में तीन धर्मस्थ तथा तीन अमात्य, न्यायाधीशों का आसन ग्रहण करते थे। न्यायलय दो भागों में विभक्त थे जो न्यायालय धन सम्बन्धी झगड़ों का निर्णय करते थे वे ‘धर्मस्थीय’ कहलाते थे और जो न्यायालय मार-पीट के मुकदमों का निर्णय करते थे वे ‘कंटक शोधन’ कहलाते थे।

छोटी अदालतों के निर्णय की अपीलें बड़ी अदालतों में होती थीं और सम्राट का निर्णय अंतिम माना जाता था। चन्द्रगुप्त के शासनकाल में दंड-विधान बड़ा कठोर था। जुर्माने के साथ-साथ अंग-भंग तथा मृत्युदंड भी दिया जाता था। कठोर दण्ड विधान का परिणाम यह हुआ कि अपराधों में कमी हो गई और लोग प्रायः अपने घरों में ताला लगाये बिना ही बाहर चले जाते थे। राजा की वर्षगांठ, राज्याभिषेक, राजकुमार के जन्म तथा नये प्रदेशों पर विजय प्राप्ति आदि अवसरों पर बंदियों को मुक्त करने की भी व्यवस्था थी।

(8) लोक-मंगलकारी कार्य

चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य के विचार में राजा अपनी प्रजा का ऋणी होता था। लोक-मंगलकारी कार्य करके ही वह प्रजा के ऋण से मुक्त हो पाता था। फलतः उसने अनेक लोक-मंगलकारी कार्य किये। उसने यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था की तथा सड़कों का निर्माण कर बड़े-बड़े नगरों को एक दूसरे से मिला दिया।

इन सड़कों के किनारे उसने छायादार वृक्ष लगवाये और कुएँ तथा धर्मशालाएँ बनवाईं। नदियों को पार करने के लिए उसने पुल बनवाये। चन्द्रगुप्त ने कृषि-क्षेत्रों की सिंचाई के लिए सुन्दर व्यवस्था की। राज्य की ओर से बहुत से तालाब तथा कुएँ खुदवाये गये। उसके पुष्यगुप्त नामक प्रान्तीय शासक ने सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए सुदर्शन नामक विशाल झील का निर्माण करवाया।

चंद्रगुप्त मौर्य ने अनेक ‘भैषज्य-गृह’ अर्थात् औषधालय खुलवाये और उनमें औषधि तथा योग्य वैद्यों की नियुक्ति की। नगरों की स्वच्छता तथा भोजन-सामग्री की शुद्धता के लिए उसने निरीक्षक रखे। शासन की ओर से प्रजा की शिक्षा के लिये समुचित व्यवस्था की गई। शिक्षण कार्य प्रधानमन्त्री अथवा पुरोहित की अध्यक्षता में होता था।

शिक्षालयों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। इन सब लोक हितकारी कार्यों के अतिरिक्त दीन-दुखियों, असहायों तथा अकाल-पीड़ितों की सहायता की भी समुचित व्यवस्था की गई। इन सब कार्यों का परिणाम यह हुआ कि उसके काल में जनता सुखी तथा सम्पन्न हो गई।

(9) सैन्य व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य की बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा करने तथा राज्य विस्तार करने के लिए एक विशाल सेना का गठन किया। चन्द्रगुप्त महत्त्वकांक्षी सम्राट था। वह सम्पूर्ण भारत को अपने अधीन करना चाहता  था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे विशाल, सुसज्जित तथा सुशिक्षित सेना की आवश्यकता थी। इसलिये उसने चतुरंगिणी अर्थात् हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सेनाओं का गठन किया और उनके प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की।

सम्राट स्वयं सेना का प्रधान सेनापति होता था और युद्ध के समय रण-स्थल में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था। चन्द्रगुप्त ने जल सेना का भी संगठन किया। सम्पूर्ण सेना के प्रबन्धन के लिए 30 सदस्यों की एक समिति होती थी। सेना का प्रबन्ध छः विभागों में विभक्त था और प्रत्येक विभाग का प्रबंध पांच सदस्यों के हाथों में रहता था। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था।

पहला विभाग जल सेना का प्रबन्ध करता था। दूसरा विभाग सेना के लिये हर प्रकार की सामग्री तथा रसद जुटाने का प्रबन्ध करता था। तीसरा विभाग पैदल सेना का, चौथा विभाग अश्वारोही सेना का, पाँचवां विभाग हस्ति सेना का और छठा विभाग रथ सेना का प्रबन्ध करता था। सेना के साथ एक चिकित्सा विभाग भी होता था जो घायल तथा रुग्ण सैनिकों की चिकित्सा करता था।

चंद्रगुप्त मौर्य की सेना स्थायी थी, उसे राज्य की ओर से वेतन तथा अस्त्र-शस्त्र मिलता था। अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए राजकीय कार्यालय भी थे।

स्मिथ ने चंद्रगुप्त मौर्य के सैनिक संगठन की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल एवं स्थायी सेना की व्यवस्था की जिसे सीधे राजकोष से वेतन दिया जाता था और जो अकबर की सेना से भी अधिक सुयोग्य थी।’

(10) आय-व्यय का साधन

चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में राज्य की आय का प्रधान साधन भूमि-कर था। राज्य द्वारा किसानों से उपज का चौथा भाग कर के रूप में लिया जाता था। कभी-कभी केवल आठवां भाग लिया जाता था। सम्राट को किसानों से पशु भी भेंट के रूप में मिलते थे। नगरों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के विक्रय-मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के रूप में मिलता था।

शास्ति अथवा जुर्माने से भी राज्य को कुछ धन मिल जाता था। आय का बहुत बड़ा भाग सेना तथा शासन पर व्यय होता था। शिल्पकारों, विद्वानों, दार्शनिकों, अनाथों, वृद्धों, रोगियों, अपाहिजों तथा विपत्तिग्रस्त लोगों को भी राज्य से सहायता मिलती थी। अकाल पीड़ितों की भी सहायता की जाती थी। सिंचाई, नगर की किलेबन्दी, भवन निर्माण तथा विभिन्न प्रकार के लोक मंगलकारी कार्यों पर बहुत सा धन व्यय होता था। 

(ब) प्रान्तीय शासन

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य अत्यंत विशाल था। उस युग में जब यातायात के साधनों का अभाव था तब एक केन्द्र से सम्पूर्ण राज्य का संचालन सम्भव नहीं था। इसलिये चंद्रगुप्त ने साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त कर दिया और प्रत्येक प्रांत के शासन के लिए एक प्रांतपति नियुक्त कर दिया।

प्रांतपतियों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था। प्रांतपति अपने समस्त कार्यों के लिए सीधे सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होते थे। इस पद पर सम्राट् ऐसे ही लोगों को नियुक्त करता था जिनमें उसका पूर्ण विश्वास रहता था। जो प्रान्त अत्यंत महत्त्व के थे उन पर या तो सम्राट स्वयं नियन्त्रण रखता था या राजकुल के राजकुमारों को नियुक्त करता था।

यह शासक ‘कुमार-महामात्य’ कहलाते थे। अन्य प्रांतों के महामात्य ‘राष्ट्रीय’ कहलाते थे। प्रान्त में शांति रखना और वहाँ के शासन को सुचारू रीति से चलाना प्रांतपति का प्रधान कार्य था। युद्ध के समय सम्राट को सैनिक सहायता पहुंचाना भी उसका प्रमुख कर्त्तव्य होता था।

सम्राट् प्रान्तपतियों पर कड़ा नियंत्रण रखता था और गुप्तचरों के माध्यम से उनकी गतिविधियों की सूचना प्राप्त करता था। स्मिथ ने लिखा है- ‘केन्द्रीय मौर्य सरकार का नियन्त्रण सुदूरस्थ प्रान्तों तथा अधीनस्थ पदाधिकारियों पर अकबर द्वारा प्रयुक्त नियन्त्रण से भी अधिक कठोर प्रतीत होता है।’

(स) स्थानीय शासन

स्थानीय शासन का तात्पर्य गाँवों तथा नगरों के शासन से है। चंद्रगुप्त मौर्य ने इस बात का अनुभव किया कि यदि गाँवों तथा नगरों का शासन स्थानीय अर्थात् वहीं के लोगों को सौंप दिया जाय तो अति उत्तम होगा। इसलिये उसने गाँवों तथा नगरों की संस्थाओं का संगठन कर उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता दे रखी थी। इस प्रकार आधुनिक ग्राम-पंचायतों तथा नगरपालिकाओं का बीजारोपण चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में हो चुका था।

(द) गाँव का शासन

गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई होता था। गाँव के प्रबन्ध के लिए एक ‘ग्रामिक’ होता था। वह राजकीय कर्मचारी नहीं होता था वरन् ग्रामवासियों द्वारा चुना जाता था और उनके प्रतिनिधि के रूप में अवैतनिक कार्य करता था। चूंकि ‘ग्रामिक’ वेतन नहीं लेता था इसलिये ऐसा लगता है कि गाँव का प्रतिष्ठित तथा सम्पन्न व्यक्ति इस पद के लिए चुन लिया जाता था।

‘ग्रामिक’ अपने समस्त कार्य, गाँव के अनुभवी वयोवृद्धों के परामर्श तथा सहायता से करता था। प्रत्येक गाँव में राजा का एक कर्मचारी भी होता था जो ‘ग्राम-भृतक’ अथवा ‘ग्राम-भोजक’ कहलाता था। ‘ग्रामिक’ के ऊपर ‘गोप’ होता था, जिसके अनुशासन में पाँच से दस गाँव होते थे। ‘गोप’ के ऊपर ‘स्थानिक’ होता था। उसके अनुशासन में आठ सौ गाँव होते थे ‘स्थानिक’ के ऊपर ‘समाहर्ता’ होता था जो सम्पूर्ण जनपद का प्रबन्ध करता था।

(य) नगर प्रबन्धन

चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में नगर प्रबन्धन के लिए आधुनिक नगरपालिकाओं जैसा संगठन विकसित किया गया था। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने नगर प्रबन्धन का अत्यन्त विस्तृत विवरण दिया है। नगर का प्रधान ‘नगराध्यक्ष’ कहलाता था। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशात्र’ में उसे ‘पौर-व्यावहारिक’ नाम से पुकारा है जो राज्य का एक उच्च पदाधिकरी था।

वह आधुनिक काल के नगर प्रमुख की भांति होता था। मेगस्थनीज के अनुसार नगर के प्रबन्धन के लिए छः समितियाँ होती थीं। प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे। यह कहना उचित होगा कि आधुनिक नगरपालिकाओं का बीजारोपण चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हुआ था।

पहली समिति शिल्प-कला थी। यह समिति शिल्प तथा उद्योग-धन्धों का प्रबन्ध करती थी। कारीगरों की मजदूरी निश्चित करना, उनसे अच्छा काम लेना, उनकी रक्षा का प्रबन्ध करना, कच्चे माल का निरीक्षण करना आदि इस समिति के प्रधान कार्य थे। यदि कोई व्यक्ति कारीगरों का अंग-भंग कर देता था तो उसे प्राणदण्ड दिया जाता था।

दूसरी समिति विदेशियों की देखभाल करती थी। विदेशियों को हर प्रकार की सुविधा देना उसका प्रधान कार्य था। यह समिति विदेशियों के ठहरने तथा बीमार हो जाने पर उनकी चिकित्सा करवाने और मर जाने पर उनकी दाह-क्रिया करने का प्रबन्ध करती थी। मर जाने पर विदेशियों की सम्पत्ति उनके उत्तराधिकारियों को दी जाती थी।

तीसरी समिति जनसंख्या का हिसाब रखती थी। वह जनगणना करवाती थी और जन्म-मरण का हिसाब रखती थी। आजकल भी नगरपालिकाओं को यह कार्य करना पड़ता है। जनगणना कर लेने से करों को वसूलने में बड़ी सुविधा होती थी।

चौथी समिति वाणिज्य व्यवसाय का प्रबन्ध करती थी। नाप-तौल की देखभाल करना, ब्रिक्री की वस्तुओं का भाव निश्चित करना और बाटों की समुचित व्यवस्था करना इस समिति का प्रधान कार्य होता था। व्यापारियों को व्यापार करने के लिए राजकीय आज्ञा-पत्र लेना पड़ता था और उसके लिए कर देना पड़ता था। जो लोग एक से अधिक वस्तुओं का व्यापार करते थे उन्हें दो-गुना कर देना पड़ता था।

पांचवी समिति कारखानों में बनी हुई वस्तुओं की देखभाल करती थी। बेचने वाले नई तथा पुरानी वस्तुओं को मिला नहीं सकते थे। मिलावट करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था।

छठी तथा अन्तिम समिति कर वसूल करने का काम करती थी। विक्रय की हुई वस्तुओं के मूल्य का दसवां भाग, कर के रूप में राज्य को मिलता था। यह कर अथवा चुंगी बड़ी कड़ाई के साथ वसूल की जाती थी। जो लोग कर देने में बेईमानी करते थे उन्हें दण्डित किया जाता था, यहाँ तक कि प्राण-दण्ड भी दिया जा सकता था।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि चंद्रगुप्त मौर्य का शासन सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था। इस कारण उसका शासन आगामी मौर्य शासकों के लिए पथ-प्रदर्शक तथा उनके शासन की आधार-शिला बन गया।

मौर्य-शासन के सम्बन्ध में स्मिथ ने लिखा है- ‘मौर्य शासन बड़ा ही सुसंगठित तथा पूर्ण सुयोग्य एकतन्त्र था जिसमें अकबर से भी अधिक विस्तृत साम्राज्य पर नियन्त्रण रखने की क्षमता थी। बहुत सी बातों में इसने आधुनिक काल की संस्थाओं का पूर्वाभास दिया था।’

मेगस्थनीज का विवरण

सैल्यूकस ने मेगस्थनीज को अपना राजदूत बना कर चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र में रखा था। वह बहुत दिनों तक चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा जिससे उसे मौर्य राज्यतंत्र तथा भारतीय समाज को अपनी आँखों से देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उसने जो कुछ देखा और अन्य लोगों से सुना उसे ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक में लिख दिया।

यद्यपि यह ग्रन्थ अब तक उपलब्ध नहीं हो सका है परन्तु इस ग्रंथ की बहुत सी बातों को अन्य यूनानी लेखकों ने अपने ग्रन्थों में लिखा है। इन सबका संग्रह कर लिया गया है जिसके अध्ययन से मेगस्थनीज के भारतीय विवरण का बोध हो जाता है। कुछ इतिहासकारों ने मेगस्थनीज को नितान्त झूठा तथा ढोंगी बताया है और उसके विवरण को बिल्कुल अविश्वसनीय बताया है।

अनुमान होता है कि जो कुछ उसने अपनी आँखों से देखा, उसमें सत्य का बहुत बड़ा अंश विद्यमान है परन्तु जो कुछ उसने दूसरों से सुनकर लिखा, वे असत्य से भरी हुई हैं। यूनानी होने के कारण वह भारतीय प्रथाओं को ठीक से समझ नहीं सका, इसलिये उनके विषय में उसने भ्रमपूर्ण बातें लिख दीं। कई स्थानों पर उसने भारतीय परम्पराओं को यूनानी परम्पराओं से मिला दिया है।

दक्षिण भारत को उसने देखा ही नहीं था और उसके विषय में दूसरों से सुनकर लिखा है। इसलिये उसमें असत्य की मात्रा अधिक है। जो कुछ उसने भारतीय जनश्रुतियों के आधार पर लिखा, वह भी विश्वसनीय नहीं है। इतनी बातों के होते हुए भी भारतीय इतिहास के निर्माण में मेगस्थनीज के विवरण से बड़ी सहायता मिलती है। उसने भाारत की भौगोलिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है।

(1) भौगोलिक दशा

भारत की सीमा का वर्णन करते हुए मेगस्थनीज ने लिखा है कि इसके उत्तर में हिमालय पर्वत, दक्षिण तथा पूर्व में समुद्र और पश्चिम में सिन्धु, गंगा, सोन आदि नदियाँ विद्यमान हैं। दक्षिण भारत की नदियों का उल्लेख उसने बिल्कुल नहीं किया। चूंकि अफगानिस्तान, चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का अंग था इसलिये उसने अफगानिस्तान की काबुल, स्वात, गोमल आदि नदियों का उल्लेख किया है। उसने भारत की जलवायु के विषय में लिखा है कि गर्मी की ऋतु में बड़ी गर्मी पड़ती है। वर्षा, गर्मी तथा जाड़ा दोनों ही ऋतुओं में होती है, परन्तु गर्मी के दिनों में अधिक वर्षा होती है।

(2) सामाजिक दशा

मेगस्थनीज ने मौर्य कालीन सामाज का वर्णन करते हुए सात वर्गों अथवा जातियों का उल्लेख किया है। पहले वर्ग में उसने ब्राह्मणांे तथा दार्शनिकों को रखा है। यद्यपि इनकी संख्या कम थी परन्तु समाज में ये लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। ये लोग राजा तथा प्रजा के लिए यज्ञ करते थे। इस सेवा के कारण ये लोग राज्य-करों से मुक्त रहते थे।

दूसरा वर्ग कृषकों का था। समाज में इनकी संख्या सर्वाधिक थी। ये लोग खेती करते थे। अपने खेतों की उपज का चौथाई भाग राज्य को कर के रूप में देते थे। लड़ाई के समय में भी इनकी खेती को कोई हानि नहीं पहुंचती थी। तीसरा वर्ग ग्वालों तथा शिकारियों का था। ग्वालों का मुख्य व्यवसाय पशु-पालन तथा दूध बेचना और शिकारियों का जंगली पशुओं का शिकार करना था। ग्वाले पशुओं को बेचते और किराये पर भी देते थे।

शिकारी लोग जंगली पशुओं का शिकार करके खेतों की रक्षा करते थे। इस सेवा के बदले में शिकारियों को राज्य की ओर से धन मिलता था। शिकारी किसी एक स्थान पर नहीं रहते थे वरन् एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमा करते थे। चौथे वर्ग में व्यापारी तथा श्रमजीवी आते थे। व्यापारी विभिन्न प्रकार के व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों में लगे रहते थे।

उन्हें अपनी आय का कुछ भाग राज्य को कर के रूप में देना पड़ता था। विदेशों से व्यापार करने के लिये व्यापारियों को राज्य की ओर से धन उधार मिलता था। श्रमजीवी लोग अन्य वर्गों की सेवा का कार्य करते थे। पाँचवां वर्ग योद्धाओं का था। इस वर्ग का सारा खर्च राजा स्वयं चलाता था।

योद्धा सदैव युद्ध करने के लिये उद्यत रहते थे और शान्ति के समय में आनन्द का जीवन व्यतीत करते थे। छठा वर्ग निरीक्षकों का था। इस वर्ग का कर्त्तव्य राजा के कार्यों का निरीक्षण करना और उसकी सूचना सम्राट को देना होता था। इन निरीक्षकों में से जो सर्वाधिक योग्य तथा विश्वसनीय होते थे, वे राजधानी तथा राज-शिविर के निरीक्षण के लिए रखे जाते थे।

निरीक्षक गुप्तचरों का भी काम करते थे। सातवां वर्ग मन्त्रियों तथा परामर्शदाताओं का था। इस वर्ग की संख्या सबसे कम थी परन्तु यह वर्ग समाज में सर्वाधिक शिक्षित तथा बुद्धिमान होता था। राज्य के उच्च पद इन्हीं को दिये जाते थे।

मेगस्थनीज का कहना है कि यह सातों जातियाँ अपने निश्चित कार्य को ही कर सकती थीं। इन्हें अन्य कार्यों को करने की आज्ञा नहीं थी। इनमें अन्तर्जातीय विवाह भी नहीं हो सकता था। मेगस्थनीज लिखता है कि भारतवासियों को अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का बड़ा शौक था। इनके वस्त्र बहुमूल्य होते थे और उन पर सोने का काम किया जाता था। विवाह का उद्देश्य भोग करना, जीवनसंगी बनाना और पुत्र उत्पन्न करना था।

इस काल में बहु-विवाह की भी प्रथा भी थी परन्तु यह सम्भवतः राजवंशों तक सीमित थी। एक विवाह-प्रथा में वर का पिता एक जोड़ी बैल, कन्या के पिता को देता था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि भारतवासी लेखन-कला नहीं जानते थे। यह बिल्कुल असत्य प्रतीत होता है।

मेगस्थनीज ने ब्राह्मणों, संन्यासियों तथा श्रमणों का भी उल्लेख किया है। ये लोग अत्यन्त सरल जीवन व्यतीत करते थे और सांसारिक जीवन त्याग कर बस्ती से दूर निवास करते थे। ये लोग शाकाहारी होते थे और कुशासन अथवा मृगचर्म पर सोते थे। ये लोग प्रायः घूम कर जनता को उपदेश दिया करते थे। 

(3) राजनीतिक दशा

मेगस्थनीज ने लिखा है कि राजा दिन भर अपनी राजसभा में रहता था और न्याय करता था। उसे अपनी जान का सदैव भय लगा रहता था। इसलिये वह एक कमरे में दो रात से अधिक नहीं रहता था। जब कभी सम्राट शिकार के लिए जाता था तो उसका मार्ग रस्सियों से अलग कर दिया जाता था और यदि कोई इन रस्सियों को लांघने का प्रयत्न करता था तो उसे प्राण-दण्ड दिया जाता था।

मेगस्थनीज ने सम्राट के राज-भवन का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वह लिखता है कि सम्राट के भवन पाटलिपुत्र में बने थे। इनके चारों और सुन्दर उद्यान तथा सरोवर थे। राजभवन के आंगन में पालतू मोर रखे जाते थे। उद्यानों में सुन्दर तोते बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते थे जो राज-भवन के ऊपर मंडराया करते थे। सरोवरों में सुन्दर मछलियाँ रहती थी। मछलियों को पकड़ने की किसी को आज्ञा नहीं थी परन्तु राजकुमार लोग आमोद-प्रमोद के लिए उन्हें पकड़ सकते थे। सम्राट् प्रायः राज-प्रासाद के भीतर ही रहता था। उसकी रक्षा के लिए नारी संरक्षिकाएँ होती थीं।

केवल चार अवसरों पर सम्राट् अपने राज-भवन के बाहर निकलता था- (1) युद्ध के समय, (2) न्यायाधीश का पद ग्रहण करने के लिए, (3) बलि देने के लिए तथा (4) आखेट के लिए। मेगस्थनीज ने राज-दरबार का भी बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उसके कथनानुसार चन्द्रगुप्त का दरबार बड़े ठाट-बाट का था।

सोने-चांदी के सुन्दर बर्तन, जड़ाऊ मेज तथा कुर्सियाँ और कीमखाब के बारीक वस्त्र, देखने वालों की आँख को चकाचौंध कर देते थे। सम्राट मोती की मालाओं से अलंकृत पालकी और सुनहले फूलों से विभूषित हाथी पर बैठ कर राज-भवन के बाहर जाता था। सम्राट को शिकार करने का बड़ा शौक था। उसके आखेट के लिए बड़े-बड़े वन सुरक्षित रखे जाते थे। राजा को पहलवानों के दंगल, घुड़दौड़, पशुओं के युद्ध आदि देखने का बड़ा शौक था।

मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र का भी बड़ा विस्तृत वर्णन किया है। वह लिखता है कि पाटलिपुत्र भारत का सबसे बड़ा नगर है। वह सोन तथा गंगा नदियों के संगम पर स्थित है। यह नगर साढ़े नौ मील लम्बा और पौने दो मील चौड़ा है।

नगर के चारों ओर एक खाई है जिसकी चौड़ाई 606 फुट और गहराई 45 फुट है। उसके चारों ओर एक दीवार है जिसमें 64 द्वार और 570 बुर्ज बने हैं। पाटलिपुत्र के प्रबन्ध के विषय में मेगस्थनीज ने लिखा है कि नगर का प्रबन्ध छः समितियों द्वारा होता था जिनमें से प्रत्येक में पाँच-पाँच सदस्य होते थे।

मोरलैंड ने मेगस्थनीज द्वारा वर्णित शासन की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘जहाँ तक शासन का सम्बन्ध है, मेगस्थनीज के वर्णनांशों से हमें यह पता लग जाता है कि यह सुव्यस्थित तथा पूर्णतया सुंसगठित था।’

चन्द्रगुप्त के अन्तिम दिवस

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार चन्द्रगुप्त ने महावीर स्वामी की शिष्यता ग्रहण कर ली थी। चन्द्रगुप्त ने 24 वर्षों तक शासन करने के उपरान्त राज-वैभव को त्यागकर 298 ई. पू. में संन्यास ग्रहण कर लिया। उसके शासन-काल के अंतिम भाग में उसके राज्य में बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। इसलिये जैन-भिक्षुकों के एक बहुत बड़े दल ने आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में कर्नाटक के लिए प्रस्थान किया। चन्द्रगुप्त को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह अपना राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप कर स्वयं कर्नाटक के पर्वतों की ओर चला गया। वहीं पर एक जैन साधु की भांति उपवास करके उसने प्राण त्यागे।

चन्द्रगुप्त के कार्यों का मूल्याकंन

चन्द्र्रगुप्त मौर्य ऐतिहासिक काल का, भारत का प्रथम सम्राट था। उसे भारत में विशाल साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय प्राप्त है। जिन परिस्थितियों में उसने इस साम्राज्य की स्थापना की वे उसके गौरव को अधिक बढ़ा देती हैं। जिस समय उसने साम्राज्य स्थापित करने की कल्पना की उस समय वह साधनहीन था।

न उसके पास सेना थी और न सेना को संगठित करने के लिए धन था। वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर भटक रहा था। अपनी प्रतिभा के बल से उसने सेना और धन दोनों प्राप्त कर लिये। सौभाग्य से उसे चाणक्य जैसे अद्वितीय प्रतिभा वाले ब्राह्मण का धन तथा बुद्धि प्राप्त हो गई।

अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने दोनों का सदुपयोग किया। नन्दों के विशाल तथा शक्तिशाली साम्राज्य पर विजय प्राप्त करना खेल नहीं था। उसने न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की वरन् यूनानियों को भी अपने देश से मार भगाया और देश को विदेशी शासन से मुक्त करने का यश प्राप्त किया।

चंद्रगुप्त मौर्य प्रथम तथा अन्तिम भारतीय शासक था जिसने अफगानिस्तान तथा बिलोचिस्तान पर भी शासन किया। भारत की प्राकृतिक सीमाओं के बाहर शासन करने का यश उसी को प्राप्त है। उसने भारत के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर देश को राजनीतिक एकता प्रदान की और भारत के भावी महत्त्वाकांक्षी सम्राटों के लिए आदर्श उपस्थित किया।

उसने न केवल सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया वरन् दक्षिण भारत के भी बड़े भाग पर शासन किया। उन दिनों, जब यातायात के साधनों का अभाव था, उसने एक असम्भव कार्य को सम्भव कर दिखाया। चन्द्रगुप्त ने न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की वरन् उसे सुरक्षित तथा स्थायी बनाने की भी व्यवस्था की।

उसने एक ऐसी सुसंगठित तथा सुसज्जित सेना का संगठन किया जिससे उसका साम्राज्य न केवल उसके अपने जीवन-काल में वरन् उसके उत्तराधिकारियों के काल में भी बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहा।

चंद्रगुप्त मौर्य की कीर्ति न केवल सामारिक दृष्टिकोण से अमर है वरन् उसका प्रशासकीय दृष्टिकोण से भी भारतीय इतिहास में उच्च स्थान है। वह प्रजा को शान्ति, सुख तथा सम्पन्नता प्रदान करने में सफल रहा। उसका शासन लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना का आदर्श रूप था।

उसने सत्ता का अत्यधिक विकेन्द्रीकरण करके प्रांतीय तथा स्थानीय शासन को अनेक अधिकार प्रदान किये। उसके शासन का आधार विकसित अधिकारी तंत्र था। उसके राज्य में उचित एवं कठोर न्याय व्यवस्था स्थापित की गई। उसके शासन में कृषि, शिल्प, उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिये राज्य की ओर से कई उपाय किये गये।

चंद्रगुप्त मौर्य ने जिस शासन व्यवस्था को प्रारम्भ किया वह भावी शासकों के लिए आदर्श तथा अनुकरणीय बन गई। उसने जिस मन्त्रिपरिषद् तथा विभागीय व्यवस्था का प्रारम्भ किया वह थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी विश्व के समस्त प्रजातान्त्रिक राज्यों में प्रचलित है। उसके द्वारा स्थापित स्थानीय शासन आज भी ग्राम-पंचायतों, नगर पालिकाओं तथा महापालिकाओं के रूप में कार्य कर रहा है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सैनिक तथा प्रशासकीय दोनों ही दृष्टिकोण से चन्द्रगुप्त मौर्य एक आदर्श तथा अनुकरणीय सम्राट था। भारत के बहुत कम शासकों को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने अपने इतने छोटे से शासन काल (24 वर्ष) में इतनी अधिक सफलताएं अर्जित की हों।

बिन्दुसार (268 ई.पू.-273 ई. पू.)

चंद्रगुप्त मौर्य के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार मगध के सिंहासन पर बैठा। उसने ‘अमित्रघात’ की उपाधि धारण की जिसका अर्थ होता है अमित्रों अर्थात् शत्रुओं का घात अर्थात् विनाश करने वाला। यद्यपि वह अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य की सीमा में वृद्धि नहीं कर सका परन्तु वह आन्तरिक विद्रोहों को शान्त कर साम्राज्य को संगठित रखने में पूर्णरूप से समर्थ रहा।

उसके शासन-काल में पहला विद्रोह तक्षशिला में हुआ। उस समय बिन्दुसार का ज्येष्ठ पुत्र सुसीम वहाँ शासन कर रहा था। बिन्दुसार ने विद्रोह की सूचना पाते ही अपने दूसरे पुत्र अशोक को विप्लव शान्त करने के लिए तक्षशिला भेजा। वहाँ पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि प्रजा ने राजा अथवा राजकुमार के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया है वरन् यह विद्रोह अमात्यों के विरुद्ध था जो प्रजा पर अत्याचार करते थे।

अशोक ने अमात्यों का दमन करके तक्षशिला में शान्ति स्थापित की। विदेशी राज्यों के साथ बिन्दुसार ने अपने पिता की भाँति मैत्री-पूर्ण सम्बन्ध रखा। मिस्र तथा सीरिया के शासकों ने अपने राजदूत पाटलिपुत्र भेजे जहाँ उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ। भारत के बाहर परिचमोत्तर प्रदेश में उसने यूनानियों के साथ मैत्री का व्यवहार किया तथा उनके साथ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध रखा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

अशोक महान् (अध्याय 13)

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अशोक महान्

अशोक महान् मौर्य राजवंश का तीसरा राजा था। वह चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र तथा बिन्दुसार का पुत्र था। उसका वास्तविक नाम अशोक था किंतु जवाहरलाल नेहरू ने अशोक को अशोक महान् तथा अकबर को अकबर महान् लिखा है, इस कारण इतिहास में उसे अशोक महान् के नाम से जाना जाता है।

मौर्य सम्राट बिन्दुसार के कई पुत्र तथा कन्याएँ थीं। अशोक उसका ज्येष्ठ पुत्र था जो बड़ा ही वीर तथा साहसी था। बौद्ध ग्रन्थ ‘दिव्यावदान’ में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगतशोक का उल्लेख मिलता है। सुसीम अशोक का सौतेला और विगतशोक उसका सगा भाई था। 273 ई.पू. में बिन्दुसार का निधन हो गया और उसका ज्येष्ठ पुत्र अशोक मगध के सिंहासन पर बैठा।

अशोक महान् का प्रारम्भिक जीवन

अशोक बिन्दुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त का पौत्र था। उसकी माता चम्पा-निवासी एक ब्राह्मण की कन्या थी। वह ब्राह्मण बिन्दुसार को अपनी रूपवती, दर्शनीय कन्या उपहार (भेंट) के रूप में दे गया था। अन्तःपुर की अन्य रानियाँ उसके असीम सौन्दर्य से आतंकित हो उठीं और उन्होंने उसे नाइन (नौकरानी) के रूप में रनिवास में रखा।

कालान्तर में सम्राट को इस रहस्य का पता लग गया और उसने उसे अपनी पटरानी बना लिया। ब्राह्मण-कन्या से बिन्दुसार के दो पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें से एक का नाम अशोक और दूसरे का विगतशोक रखा गया। अशोक की माँ का नाम कई ग्रन्थों में ‘धम्मा’ मिलता है परन्तु कुछ ग्रन्थों में उसे ‘सुभद्रांगी’ अर्थात् ‘अच्छे अंगों वाली’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका बचपन का नाम ‘धम्मा’ था। अत्यन्त रूपवती होने के कारण उसका नाम ‘सुभद्रांगी’ पड़ गया।

कुछ विद्वानों के विचार में अशोक सैल्यूकस की पुत्री का पुत्र था जिसका विवाह उसने चन्द्रगुप्त से परास्त होने के बाद बिन्दुसार के साथ कर दिया था, परन्तु इस बात का कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं है। अशोक के कई पत्नियाँ थी जिनमें से ‘देवी’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह विदिशा के एक श्रेष्ठी (व्यवसायी) की कन्या थी जिसका नाम देवी था। महेन्द्र तथा संघमित्रा इसी देवी की सन्तान थे जिन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ा योगदान दिया।

अशोक की दूसरी पत्नी का नाम पद्मावती था जिससे कुणाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। अशोक ने अपने पिता के जीवन काल में ही शासन का काफी अनुभव प्राप्त कर लिया था। वह अवन्ति (उज्जयिनी) तथा तक्षशिला का प्रान्तपति रह चुका था। इससे स्पष्ट है कि बिन्दुसार को अशोक की कार्य-कुशलता, विवेकशीलता तथा वीरता में पूरा विश्वास हो गया था अन्यथा वह सुदूरस्थ प्रान्तों में इतने महत्त्वपूर्ण पद पर उसे नियुक्त नहीं करता। 

अशोक महान् का सिंहासनारोहण

महावंश टीका में लिखा है कि बिन्दुसार के एक सौ पुत्र थे जिनमें विगतशोक ही अशोक का सगा भाई था। शेष समस्त भाई उसके सगे भाई न थे। इनमें सुमन अथवा सुसीम सबसे बड़ा था। अशोक सुमन से छोटा और शेष भाइयों से बड़ा था। वह अपने समस्त भाइयों से अधिक तेजस्वी था।

कहा जाता है कि अशोक ने अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या कर समस्त जम्बूद्वीप अर्थात् भारतवर्ष पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। यद्यपि भाइयों की हत्या की कथा कपोल-कल्पित और बौद्ध आचार्यों की मन-गढ़न्त प्रतीत होती है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अशोक को अपने बड़े सौतेले भाई सुसीम के साथ संघर्ष करना पड़ा था।

विभिन्न सूत्रों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार सुसीम को अधिक प्यार करता था और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण नैतिक दृष्टि से भी उसी को सिंहासन मिलना चाहिए था परन्तु अशोक अपने भाइयों में सर्वाधिक योग्य था और अवन्ति तथा तक्षशिला में सफलता पूर्वक शासन करके और तक्षशिला के विद्रोह को शान्त करके अपनी वीरता तथा शासन क्षमता का परिचय दे चुका था।

इसलिये प्रधानमन्त्री खल्वाटक तथा अन्य अमात्य उसी को राजा बनाना चाहते थे। फलतः जब बिन्दुसार की मृत्यु हो गई तब अशोक तथा सुसीम में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष का एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि अशोक का राज्याभिषेक उसके सिंहासनारोहण के चार वर्ष बाद हुआ था। सम्भवतः भाइयों के पारस्परिक संघर्ष के कारण ही यह विलम्ब हुआ।

अधिंकाश विद्वानों की धारणा है कि संभवतः इस युद्ध में सुसीम तथा उसके कुछ अन्य भाइयों की हत्या हुई। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके राज्याभिषेक के बाद भी उसके कई भाई जीवित थे। प्रतीत होता है कि बौद्ध आचार्यों ने इस बात को दिखाने के लिए कि बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लेने पर एक क्रूर तथा हत्यारा व्यक्ति भी उदार तथा दयावान् बन सकता है, अशोक द्वारा अपने 99 भाइयों की हत्या की कथा का आविष्कार किया गया।

अशोक महान् की विजयें

सिंहासनारोहण के उपरान्त अशोक ने अपने पिता बिन्दुसार तथा अपने पितामह चन्द्रगुप्त की साम्राज्य विस्तार नीति को जारी रखा। सैल्यूकस पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने विदेशियों के साथ मैत्री रखने तथा सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने का निश्चय किया था।

अशोक ने भी इसी नीति को अपनाया। उसने यूनानियों के साथ मैत्री भाव रखा और उनके साथ राजदूतों का आदान-प्रदान किया। उसने यूनानियों को राजकीय पदों पर भी नियुक्त किया। सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने के लिए उसने दिग्विजय की नीति का अनुसरण किया। उसने उन पड़ोसी राज्यों पर, जो साम्राज्य के बाहर थे, आक्रमण करना आरम्भ कर दिया।

काश्मीर विजय

राजतरंगिणी के अनुसार अशोक काश्मीर का प्रथम मौर्य  सम्राट था। उसने कश्मीर घाटी में श्रीनगर की स्थापना की थी। इससे कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि अशोक ने ही काश्मीर को जीतकर मगध साम्राजय में मिलाया था परंतु अशोक के बारे में विख्यात है कि उसने कलिंग के अतिरिक्त और कोई विजय नहीं की थी।

बिंदुसार ने भी साम्राज्य का विस्तार नहीं किया था। अतः काश्मीर विजय का श्रेय चंद्रगुप्त मौर्य को ही मिलना चाहिये। राजतरंगिणी के अतिरिक्त और किसी स्रोत से अशोक द्वारा काश्मीर जीतने की पुष्टि नहीं होती।

कंलिग विजय

कंलिग का राज्य अशोक के साम्राज्य के दक्षिण-पूर्व में जहाँ आधुनिक उड़ीसा का राज्य है, स्थित था। अशोक के सिंहासनारोहण के समय वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र था और उसकी गणना शक्तिशाली राज्यों में होती थी। कंलिग के राजा ने एक विशाल सेना का संगठन कर लिया था और अपने राज्य को सुदृढ़ बनाने में संलग्न था। ऐसे प्रबल राज्य का मगध-राज्य की सीमा पर रहना मौर्य साम्राज्य के लिये हितकर नहीं था।

इसलिये अपने सिंहासनारोहण के तेरहवें वर्ष और अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में अशोक ने कलिंग पर एक विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया। यद्यपि कंलिग की सेना बड़ी वीरता तथा साहस के साथ लड़ी परन्तु वह अशोक की विशाल सेना के सामने ठहर न सकी और अन्त में परास्त होकर भाग खड़ी हुई। कलिंग पर अशोक का अधिकार स्थापित हो गया। उसने अपने एक प्रतिनिधि को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया। इस प्रकार कंलिग मगध साम्राज्य का अंग बन गया।

कंलिग युद्ध के परिणाम

कंलिगयुद्ध का पहला परिणाम यह हुआ कि मगध साम्राज्य की सीमा में वृद्धि हो गई और अशोक की साम्राज्यवादी नीति पूर्ण रूप से सफल सिद्ध हुई। अब उसका राज्य पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैल गया।

कंलिग विजय का दूसरा परिणाम यह हुआ कि इसमें भीषण हत्याकांड हुआ। कहा जाता है कि इस युद्ध में हताहतों की संख्या दो लाख पचास हजार से अधिक थी जिनमें सैनिकों के साथ-साथ साधारण जनता भी सम्मिलित थी। इस भीषण रक्तपात के पश्चात् कंलिग में भयानक महामारी फैली जिसने असंख्य प्राणियों के प्राण ले लिये।

अशोक के हृदय पर कंलिग-युद्ध के भीषण नर-संहार का गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सकंल्प किया कि भविष्य में वह युद्ध नहीं करेगाा और युद्ध के स्थान पर धर्म-यात्राएँ करेगाा। अब युद्ध-घोष के स्थान पर धर्म-घोष हुआ करेगा और सबसे मैत्री तथा सद्भावना रखी जायेगी। यदि कोई क्षति भी पहुँचायेगाा तो सम्राट् उसे यथा सम्भव सहन करेगा। अशोक ने न केवल स्वयं युद्ध न करने का निश्चय किया वरन् अपने पुत्र तथा पौत्र को भी युद्ध न करने का आदेश दिया।

कुछ इतिहासकारों के विचार में अशोक की युद्ध न करने की नीति का बुरा राजनीतिक प्रभाव पड़ा। जिससे भारत की सैनिक शक्ति उत्तरोत्तर निर्बल होती गई, विदेशियों को भारत पर आक्रमण करने का दुःसाहस हुआ और उन्होंने विभिन्न भागों पर अधिकार स्थापित कर लिया। भारत पर इस युद्ध का गहरा धार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा।

अशोक ने इस युद्ध के उपरान्त बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया और उसके प्रचार का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् विदेशों में भी प्रचार हो गया। अशोक ने जिन देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार करवाया उनके साथ उसने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इससे उन देशों के साथ भारत का व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और उन देशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हो गया।

कंलिग युद्ध का महत्त्व

कंलिग युद्ध का भारत के इतिहास में बहुत बड़ा महत्त्व है। इसका न केवल राजनीतिक वरन् सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बहुत बड़ा महत्त्व है। वास्तव में यहीं से भारत के इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है।

यह युग है शान्ति तथा सदभावना का, सामाजिक सुधार का, नैतिक उन्नति का, धार्मिक प्रचार का, आर्थिक समृद्धि का, साम्राज्य-विस्तार के विराम का, सैनिक हा्रस का तथा बृहत्तर भारत के प्रसार का। यहीं से उस साम्राज्यवादी नीति का अन्त हो जाता है जिसका प्रारम्भ चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था।

राजनीति में अहिंसा की नीति के अनुसारण से भारत का सैनिक बल समाप्त हो गया और वह पतनोन्मुख हो गया परन्तु अशोक ने अपनी सारी शक्ति प्रजा की आर्थिक तथा आध्यात्मिक उन्नति में लगा दी। भारतीय इतिहास में अन्तर्राष्ट्रीयता का युग यहीं से आरम्भ होता है और भारत की कूप-मण्डूकता समाप्त होती है।

प्रायः युद्ध में विजय प्राप्त करने से विजय-कामना प्रबल हो जाती है परन्तु कंलिग-युद्ध, प्रथम उदाहरण है जब इसके विजेता ने सैनिक सन्यास ले लिया और भविष्य में युुद्ध न करने का निश्चय किया। यहीं से अशेक की महानता का बीजारोपण हुआ और यह भारतीय नरेशों का शिरोमणि बन गया।

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने कंलिग युद्ध का महत्त्व बताते हुए लिखा है- ‘कंलिग युद्ध ने अशोक के जीवन को एक नया मोड़ दिया और भारत तथा सम्पूर्ण विश्व के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।’

डॉ. एन. एन. घोष ने लिखा है- ‘अशोक ने अपनी तलवार को म्यान में रख लिया और धर्म-चक्र को ग्रहण कर लिया।’

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘अब भेरि-घोष के स्थान को धर्म-घोष ग्रहण करेगा।’

अशोक महान् का शासन

अशोक की ‘युद्ध-विराम-नीति’ का बड़ा परिणाम यह हुआ कि सारी शक्ति प्रशासकीय विभागों में नियोजित हो गई। अशोक सिंहासन पर बैठने के पूर्व ही, अवन्ति तथा तक्षशिला के प्रान्तपति के रूप में पर्याप्त प्रशासकीय अनुभव प्राप्त कर चुका था। इसलिये उसे अपने पूर्वजों के शासन को संभालने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

अपने शासन के प्रारम्भिक काल में उसने अपने पूर्वजों की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उनके द्वारा स्थापित शासन-व्यवस्था के अनुसार शासन चलाता रहा। शासन का स्वरूप स्वेच्छाचारी, निरंकुश राजतन्त्र था और केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन पूर्ववत् चलता रहा।

पुरानी मन्त्रि-परिषद तथा विभागीय अध्यक्ष अन्य कर्मचारियों की सहायता से शासन को चलाते रहे परन्तु कलिंग-युद्ध के उपरान्त अशोक ने अपने शासन में नये सिद्धान्तों तथा आदर्शों का समावेश किया। ये आदर्श तथा सिद्धान्त निम्नांकित थे-

अशोक ने अपने शासन का आधार प्रजा-पालन तथा उसके हित-चिन्तन को बनाया। उसने अपनी प्रजा को संतान मानकर उसके अनुकूल आचरण करना आरम्भ किया।

अपने द्वितीय कंलिग शिलालेख में अशोक कहता है- ‘समस्त मनुष्य मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार मैं चाहता हूँ कि मेरी सन्तान इस लोक तथा परलोक में सब प्रकार की समृद्धि तथा सुख भोगे, ठीक उसी प्रकार मैं अपनी प्रजा के सुख तथा उसकी समृद्धि की कामना करता हूँ।’

अपने चौथे स्तम्भ-लेख में अशोक ने पितृत्व की भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है- ‘जिस प्रकार मनुष्य अपनी संतान को अपनी चतुर धाय के हाथ में सौप कर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि वह उस बालक को यथा-शक्ति सुख देने की चेष्टा करेगी, उसी प्रकार अपनी प्रजा के सुख तथा हित-चिन्तन के लिए मैने ‘राजुक’ नामक कर्मचारी नियुक्त किये हैं।’

अशोक अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘मैंने यह प्रबन्ध किया है कि सब समय में, चाहे मैं भोजन करता रहूँ, चाहे अन्तःपुर में रहूँ, चाहे शयनागार में, चाहे उद्यान में, सर्वत्र मेरे ‘प्रतिवेदक’ (संवाददाता) प्रजा के कार्य की सूचना मुझे दें। मैं प्रजा का कार्य सर्वत्र करूंगा। मैं समस्त कार्य इस दृष्टि से करता हूँ कि प्राणियों के प्रति मेरा जो ऋण है उससे मैं उऋण हो जाऊँ और न केवल इस लोक में लोगों को सुखी करूँ वरन् परलोक में उन्हें स्वर्ग-लोक का अधिकरी बनाऊँ।’

इस प्रकार अशोक ने शासन में नैतिक तथा लोक-मंगलकारी सिद्धान्तों तथा आदर्शों का सूत्रपात किया।

अशोक को अपने आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिये अपने पूर्वजों की शासन व्यवस्था में थोड़ा बहुत परिवर्तन भी करना पड़ा। चूँकि प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति करना अशोक के शासन का परम आदर्श था, इसलिये उसने नये पदाधिकारियों की नियुक्ति की जो ‘धर्म-महामात्र’ कहलाये।

इनका प्रधान कार्य अकारण दण्डित व्यक्तियों को दण्ड से मुक्त करवाना, ऐसे दण्डित व्यक्तियों के दण्ड को कम करवाना जो वृद्ध हों अथवा जिनके आश्रित बहुत से बाल-बच्चे हों; और विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के हित की चिन्ता करना था। उसने कुछ पुराने पदाधिकारियों के कार्यों में भी वृद्धि कर दी।

अपने तीसरे शिलालेख में अशोक करता है- ‘राज्य के युक्त, राजुक तथा प्रादेशिक नामक पदाधिकारी भविष्य में अपने नियत कार्यों के अतिरिक्त प्रति पांचवें वर्ष दौरा करके धर्म का प्रचार करें।’

उदार तथा लोक-मंगलकारी नीति के कारण अशोक को न्याय व्यवस्था में भी कई परिवर्तन करने पड़े। उसके पूर्वजों के काल का दण्ड विधान बड़ा कठोर था। अशोक ने उसमें उदारता का संचार कर दिया।

उसके चौथे शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने यह आज्ञा दे रखी थी कि यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदण्ड मिलता हो तो उसे मृत्युदंड देने के पहले तीन दिन का अवकाश देना चाहिये, जिससे वह अवकाश के समय में अपने पापों का प्रायश्चित कर सके, अपने विचारों को सुधार सके तथा कुछ धार्मिक कृत्य कर सके जिससे उसका परलोक सुधर सके। उसके पांचवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह प्रति वर्ष अपने राज्याभिषेक दिवस पर बंदियों को मुक्त करता था।

न्याय व्यवस्था में अशोक ने एक और प्रशंसनीय सुधार किया। उसने ‘राजुकों’ (न्यायाधीशों) को पुरस्कार तथा दण्ड देने की पूरी स्वतन्त्रता दे दी जिससे वे आत्म-विश्वास तथा निर्भीकता के साथ अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकें और जनता की अधिक से अधिक सेवा कर सकें। 

अशोक ने अपनी प्रजा के जीवन तथा सम्पति की रक्षा की समुचित व्यवस्था करने के साथ-साथ उसके नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए समुचित वातावरण तैयार करवाया। उसने राज्य के कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का सदैव ध्यान रखें।

अशोक ने उन समारोहों, उत्सवों तथा अनुष्ठानों को बन्द करवा दिया जिनमें मांस, मदिरा तथा नाच गाने का प्रयोग होता था। इनके स्थान पर उसने धर्म समाजों की स्थापना करवाई जिससे प्रजा में धार्मिक भावना तथा नैतिक बल उत्पन्न हो। विहार (आनन्द) यात्राओं के स्थान पर अब उसने धर्म-यात्राओं को प्रोत्साहन दिया और स्वयं धर्म-यात्राएँ करने लगा। अशोक ने स्वयं अपनी प्रजा के समक्ष अपने उच्च एवं पवित्र नैतिक आचरण का आदर्श रखा, जिसका उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा।

अशोक ने अनेक लोक-मंगलकारी कार्य करवाये। उसने सड़कें बनवाईं, उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये और कुएँ तथा बावलियाँ खुदवाईं। पानी में उतरने के लिए उसने सीढ़ियाँ बनवाईं। राज्य की ओर से आम तथा बरगद के पेड़ लगवाये जाते थे जिससे उनकी सघन छाया में मनुष्य तथा पशु दोनों ही विश्राम कर सकें। सम्राट्, रानी तथा राजकुमारों की अपनी अलग-अलग दानशालाएँ होती थीं जिनमें दीन दुखियों को निःशुल्क भोजन तथा वस्त्र मिलता था।

अशोक की उदारता तथा दया केवल मनुष्यों तक ही सीमित न रही वरन् वह पशु-पक्षियों तक पहुँच गई थी। उसने न केवल मनुष्यों वरन् पशु-पक्षियों के लिए भी औषधालय बनवाये। औषधि की सुविधा के लिए जड़ी-बूटियों के पौधे भी लगवाने का प्रबन्ध किया। उसके प्रथम शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने आदेश दे रखा था कि उसकी राजधानी में किसी पशु की हत्या न की जाय। यह आदेश उसके अंहिसात्मक बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने का फल था।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि अशोक का शासन बड़ा उदार तथा लोक-मंगलकारी था। उसने अपनी प्रजा को न केवल भौतिक सुख प्रदान किया वरन् उनकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का भी यथाशक्ति प्रयत्न किया। स्मिथ ने अशोक को बड़ा ही सफल शासक बताया है।

स्मिथ लिखता है- ‘यदि अशोक योग्य न होता तो अपने विशाल साम्राज्य पर चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन न किये होता और ऐसा नाम न छोड़ गया होता जो दो हजार वर्षों के व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी लोगों की स्मृति में अब भी ताजा बना हुआ है।’

अशोक महान् का धम्म

अशोक के शिलालेखों में धम्म शब्द का बार-बार प्रयोग हुआ है। इस धम्म का वास्तविक अर्थ क्या है तथा वह किस धर्म का अनुयायी था, इस विषय पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है। भिन्न-भिन्न इतिहासकारों ने अशोक के धम्म के बारे में भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये हैं। हेरास के विचार में अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था।

डॉ. एफ. डब्लू. टामस के मतानुसार वह जैन धर्म का अनुगमन करता था। डॉ. फ्लीट ने उसके धम्म को राज-धर्म बताया है तथा भण्डारकर ने उसके धम्म को उपासक बौद्ध-धर्म बताया है जिसे महात्मा बुद्ध ने गृहस्थों के लिए प्रतिपादित किया था और जिसमें केवल व्यावहारिक सिद्धान्तों को ग्रहण किया गया था।

विन्सेंट स्मिथ तथा डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अशोक के धम्म को सार्वभौम धर्म माना है जिसमें समस्त धर्मों के अच्छे गुण सन्निहित हैं और जो किसी भी एक धर्म की सीमा में नहीं समा सकता। इन समस्त मतों में सत्य का थोड़ा-बहुत अंश विद्यमान है परंतु वास्तविकता यह है कि अशोक के धार्मिक विचारों में समय-सम पर क्रमिक विकास होता चला गया।

(1) ब्राह्मण धर्म

अपने जीवन के प्रारंभिक-काल में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। काश्मीरी लेखक कल्हण के मतानुसार वह शिव का उपासक था और पशु तथा मनुष्य की हत्या का विरोधी नहीं था। सम्राट के भेजनालय में शोरबा बनाने के लिए प्रतिदिन सहस्रों पशुओं की हत्या की जाती थी।

अपने पूर्वजों की भांति उसकी भी युद्ध में रुचि थी और उसे मनुष्यों का हत्याकांड कराने में संकोच नहीं होता था। अशोक का इस प्रकार का आचरण केवल कलिंग युद्ध तक ही रहा। इसलिये यह कहा जा सकता है कि अपने प्रारंम्भिक जीवन से कलिंग के युद्ध तक अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था तथा उस युग में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार क्षात्र-धर्म का पालन करता था।

(2) बौद्ध धर्म

कलिंग युद्ध में हुए भीषण हत्याकांड के पश्चात् अशोक ने भविष्य में युद्ध न करने तथा प्राणी मात्र पर दया करने का निश्चय किया। अपने इस निश्चय के फलस्वरूप उसे ब्राह्मण धर्म को, जो शत्रुसंहारक अवधारणा पर आधारित था, त्याग देना पड़ा। उसे ऐसे धर्म में दीक्षित होने की आवश्यकता पड़ी, जो अहिंसक-धर्म हो और प्राणी मात्र पर दया करना सिखलाये।

भारतवर्ष में उस समय दो ऐसे धर्म थे, जो अहिंसा के पोषक थे और सत्कर्म तथा सदाचार पर बल देते थे। ये थे- जैन तथा बौद्ध धर्म। अशोक इन्हीं दोनों में से एक का अनुयायी बन सकता था। जैन-धर्म के कठोर नियमों तथा कठिन तपस्या के कारण अशोक ने इस बात का अनुभव किया कि उसकी प्रजा इसका अनुसरण न कर सकेगी।

इसलिये उसने अत्यंत सरल तथा व्यावहारिक बौद्ध धर्म को स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। ‘दीपवंश’ तथा ‘महावंश’ के अनुसार न्यग्रोध नामक व्यक्ति ने अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। ‘दिव्यावदान’ के अनुसार बालपण्डित अथवा समुद्र ने उसे बौद्ध बनाया था।

विभिन्न साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में अशोक एक उपासक के रूप में बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ था परन्तु कलिंग युद्ध के एक वर्ष उपरान्त अर्थात् अपने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में वह बौद्ध-संघ में सम्मिलत हो गया और उसके नियमों का पालन करने लगा।

बौद्ध-धर्म में दीक्षित होने के उपरान्त अशोक ने पहला काम यह किया कि उसने बुद्ध के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले तीर्थ स्थानों की यात्रा की। सर्वप्रथम वह स्थविर उपगुप्त के साथ लुम्बिनी गया, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। उसने लुम्बनी में लगने वाले धार्मिक कर को बंद कर दिया और अन्य करों को भी 1/2 से घटा कर 1/8 कर दिया।

इस प्रकार अशोक महान् ने उपास्य-देव की जन्म भूमि में अपनी दया तथा उदारता का परिचय दिया। लुम्बिनी से अशोक कपिलवस्तु गया, जहाँ बुद्ध का शैशवकाल व्यतीत हुआ था। यहाँ से वह उपगुप्त के साथ बुद्धगया पहुंचा जहाँ उसने बोधि वृक्ष के दर्शन किये जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।

यहाँ से अशोक महान् काशी के निकट सारनाथ गया, जहाँ बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों को अपना प्रथम उपदेश दिया था। अन्त में वह कुशीनगर गया, जहाँ बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था। वह बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अन्य स्थानों पर भी गया। अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को एकत्र किया और उन्हें फिर से वितरित कर उन पर स्मारक बनवाये।

अशोक महान् ने बौद्ध-संघ में उत्पन्न फूट को दूर करने का प्रयत्न किया। उसने संघ में फूट पैदा करने वाले भिक्षुओं को संघ से निष्कासित करने की व्यवस्था की। उसने राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध-संगीति बुलवाई और बौद्ध-धर्म के अनुयायियों में जो मतभेद उत्पन्न हो गया था उसको दूर करने का प्रयत्न किया।

अशोक महान् ने बौद्ध-धर्म के प्रचार का भी तन-मन-धन से प्रयत्न किया। ये सब बातें तथा उसके हिंसा-निषेधक कार्य सिद्ध करते हैं कि अशोक बौद्धधर्म का अनुयायी था। चीनी यात्रियों ने भी उसे बौद्ध धर्म का अनुयायी स्वीकार किया है।

अशोक को बौद्ध-धर्म का अनुयायी स्वीकार कने में केवल यही कठिनाई हो सकती है कि उसने बौद्ध-धर्म के चार आर्य-सत्यों अर्थात् दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध तथा दुःख निरोध मार्ग का कहीं उल्लेख नहीं किया है। इस आपत्ति को यह कहकर दूर किया जा सकता है कि अशोक बौद्ध-धर्म के केवल उन नियमों का पालन कराना चाहता था, जो गृहस्थों के लिये थे, उनका नहीं जो भिक्षुओं के लिए थे।

(3) जैन धर्म

डॉ. एफ. डब्लू. टामस के मतानुसार अशोक जैन धर्म का अनुगमन करता था। इस मत के पक्ष में कहने के लिये अधिक बातें नहीं हैं। यह मत केवल इस अनुमान पर आधारित है कि अशोक का धम्म पूर्ण अहिंसा के सिद्धांत पर खड़ा था जो कि जैन धर्म के अहिंसा के विचार से मेल खाती हैं।

साथ ही इस मत के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम समय में जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इसलिये अशोक ने अपने पिता द्वारा अपनाये गये धर्म का ही पालन किया किंतु अशोक जैन धर्म का अनुयायी था, इस बात के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(4) अशोक का धम्म

अशोक ने अपने ‘धम्म’ की व्याख्या अपने अभिलेखों में की है जिनका अध्ययन करने से उसके ‘धम्म’ के सार का पता लगता है। अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक स्वयं पूछता है कि धम्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह स्वयं कहता है कि धम्म पापहीनता है, बहुकल्याण है, दया है, दान है, सत्य है, शुद्धि है।

अपने धम्म के अन्यान्य आचार तत्वों का उल्लेख करते हुए अशोक अपने द्वितीय लघु शिलालेख में कहता है कि माता-पिता की उचित सेवा, सर्व प्राणियों के प्रति आदर-भाव तथा सत्यता गुरुतर सिद्धांत हैं। इन धर्म-गुणों की वृद्धि होनी चाहिये। इसी भांति शिष्यों को गुरुओं का उचित आदर करना चाहिये तथा सम्बन्धियों से उचित व्यवहार उत्तम है।

ग्यारहवें शिलालेख में अशोक अपने धम्म के अन्यान्य तत्वों का उल्लेख करते हुए कहता है- ‘दासों, भृत्यों तथा वेतन भोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार, माता-पिता की सेवा, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों ब्राह्मणों, श्रमणों और साधुओं के प्रति उदारता, प्राणियों में संयम तथा पशु बलि से विरतता ही धम्म है।’

अशोक के ‘धम्म’ का स्वरूप दो प्रकार का है, एक आदेशात्मक और दूसरा निषेधात्मक। माता पिता की सेवा करना, गुरुजनों का आदर करना; मित्रों, परिजनों, सम्बन्धियों, दासों, भृत्यों तथा वेतन-भोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार करना, ब्राह्मणों, श्रमण तथा साधुओं के प्रति उदारता दिखलाना और प्राणी-मात्र पर दया करना, अशोक के ‘धम्म’ का अभिलेखीय सार तथा उसका आदेशात्मक स्वरूप है।

अशोक ने कुछ दुर्गुणों तथा कुप्रवृत्तियों का भी निषेध किया है जो धर्म में बाधक सिद्ध होती हैं। ये कुप्रवृत्तियां उग्रता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या आदि हैं। इनको अशोक ने पाप कहा है। इन सब कुप्रभावों को मन में नहीं आने देना चाहिए। यही अशोक के ‘धम्म’ का निषेधात्मक स्वरूप है।

प्रत्येक धर्म के दो स्वरूप होते हैं। एक कर्मकांड मूलक और दूसरा आचार मूलक। कर्मकांड में विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान तथा समारोह किये जाते हैं तथा आचार मूलक में अच्छे आचार पर बल दिया जाता है। अशोक ने अपने ‘धम्म’ में कर्मकांडमूलक रूप को हतोत्साहित और आचार मूलक रूप को प्रोत्साहित किया है।

लोग अनेक प्रकार के मंगल-कार्य करते हैं परन्तु अशोक ने इन्हें निस्सार बताया है। वह इनके स्थान पर धर्म-मंगल करने पर बल देता है जो निश्चित रूप से फलदायक होता है। दासों और वेतन भोगी सेवकों से उचित व्यवहार करना, गुरुजनों का आदर करना, प्रणियों के प्रति अहिंसात्मक व्यवहार करना, ब्राह्मण और श्रमणों को दान देना तथा अन्य ऐसे कार्य धर्म-मंगल कहलाते हैं।

इसी प्रकार अशोक ने धर्म-दान को साधारण दान से अधिक उत्तम बताया है। दासों और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार करना, माता-पिता की सेवा करना, मित्रों, परिचितों, संबंधियों, असहायों, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति उदारता दिखलाना और अहिंसा करना ही धर्म-दान हैं। अपने तेरहवें शिला-लेख में अशोक ने धर्म विजय को साधारण विजय से अधिक कल्याणकारी बताया है।

(i) व्यवहारिक धर्म

अशोक महान् ने अपनी प्रजा से जिन आदेशों का अनुसरण करने के लिए कहा, उन उपदेशों को उसने स्वयं अपने जीवन व्यवहार में लाकर चरितार्थ किया। उसने हिंसात्मक परम्पराओं को बन्द करवाया। अशोक ने उन विहार-यात्राओं को त्याग दिया जिनमें आखेट द्वारा मनोरंजन किया जाता था।

अशोक महान् ने विहार यात्राओं के स्थान पर धर्म-यात्राएं आरम्भ की, जिनमें दर्शन, दान तथा उपदेशों का आयोजन रहता था। अशोक के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पूर्व उसकी पाकशाला में सहस्रों पशुओं तथा पक्षियों की हत्या होती थी।

उसके प्रथम शिलालेख से ज्ञात होता है कि अशोक महान् ने यह आज्ञा दे दी थी कि उसकी पाकशाला में केवल तीन पशुओं अर्थात् दो मोर तथा एक मृग का वध हो। वह भी सदैव नहीं। भविष्य में यह भी बन्द कर दिया जाय। इस प्रकार अपने भोजनागार में भी उसने हिंसा को बन्द करवा दिया। सत्य बात तो यह है कि उसका धर्म उसके शासन तथा जीवन का एक अविच्छिन्न अंग बन गया था।

(ii) राज-धर्म

फ्लीट के अनुसार अशोक ने अपने अभिलेखों में जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वह वस्तुतः राज-धर्म है। भारतीय व्यवस्थाकारों ने राजा के लिये कतिपय कर्तव्याकर्तव्यों अथवा विधि निषेधों का उल्लेख किया है। इनके आधार पर ही राजा को अपना शासन संचालित करना चाहिये। महाभारत में इस राज-धर्म का सविस्तार वर्णन है। अशोक के अभिलेखों में वर्णित धम्म भी महाभारत के उस राजधर्म से मेल खाता है। अतः फ्लीट के अनुसार अशोक के धम्म को भी राज-धर्म ही समझना चाहिये।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार अशोक के अभिलेखों में वर्णित धम्म को राजधर्म मानने में कठिनाई यह है कि राजधर्म राजा के लिये होता है, प्रजा के लिये नहीं, जबकि अशोक के शिलालेखों में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, उनमें राजा ने स्वयं द्वारा किये जा रहे धम्म के पालन के साथ-साथ उन बातों पर भी जोर दिया है जिन बातों का पालन वह प्रजा से करवाना चाहता था।

वास्तव में देखा जाये तो महाभारत में वर्णित राजधर्म के अनुसार राजा को प्रजा की भौतिक उन्नति के साथ उसकी नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का भी प्रयास करना चाहिये। अशोक के स्तम्भ लेखों में वर्णित वे बातें जो प्रजा के पालन के लिये लिखी गई हैं, राजधर्म का ही हिस्सा हैं। अतः निष्कर्ष रूप में अशोक के धम्म को यदि राज-धर्म स्वीकार कर लिया जाये, तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।

(iii) सार्वभौम-धर्म

अशोक का धार्मिक विचार तब उच्चता की पराकाष्ठा को पहुंच जाता है और उसका धर्म सार्वभौम धर्म बन जाता है, जब वह विभिन्न धर्मों की बाह्य विभिन्नता की उपेक्षा करके उनके आन्तरिक तत्त्वों पर बल देता है। अब अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण इतना व्यापक हो जाता है कि वह किसी धर्म-विशेष का अनुयायी नही रह जाता वरन् वह एक नये धर्म का संस्थापक बन जाता है जो अशोक के ‘धम्म’ के नाम से विख्यात हुआ।

अशोक महान् का वह ‘धम्म’ सर्व-मंगलकारी है और उसका उद्देश्य प्राणी-मात्र का उद्धार करना है। यह धर्म अत्यंत सरल, व्यावहारिक, सर्वग्राह्य तथा सर्वमान्य है। दान देना, सब पर दया करना, सत्य बोलना, सबके कल्याण की चिन्ता करना, अपनी आत्मा तथा विचारों को शुद्ध रखना और किसी प्रकार के पापकर्म न करना, यही अशोक के ‘धम्म’ के प्रधान लक्षण थे।

अपने बारहवें शिलालेख में अशोक महान् ने सब धर्मों के सार की वृद्धि की कामना की है। यह सब सर्व धर्म सार समन्वित उसका अपना ‘धम्म’ था। सब धर्मों के सार की वृद्धि तभी हो सकती है जब मनुष्य दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु हो। इसी ध्येय से अशोक ने अपने बारहवें शिलालेख में यह परामर्श दिया है कि मनुष्य को दूसरे के भी धर्म को सुनना चाहिए।

अशोक का कहना है कि जो मनुष्य अपने धर्म को पूजता है और अन्य धर्मों की निन्दा करता है वह अपने धर्म को बड़ी क्षति पहुंचाता है। इसलिये लोगों में वाक्-संयम होना चाहिए अर्थात् संभल कर बोलना चाहिए। यह अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का अभिलेखीय प्रमाण है जो आज भी हमारा पथ प्रदर्शन कर सकता है।

अशोक के इन आदेशों तथा कामनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि वह समस्त धर्मों के मध्य बड़ा है और किसी से अपने को संलग्न न करते हुए उनमें मेल तथा सद्भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है। वह अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘सर्वत्र समस्त धर्म वाले एक साथ निवास करें।’

अशोक महान् के अनेक अभिलेखों में ब्राह्मणों तथा श्रमणों को समान रूप से सम्मानित किया गया है। उसके आठवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि अपनी धर्म यात्राओं में वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों दोनों के ही दर्शन करता था और उन्हें दान देता था। उसके बारहवें अभिलेख में कहा गया है कि देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा सब धर्मों तथा सम्प्रदायों, साधुओं और गृहस्थों को दान तथा अन्य प्रकार की पूजा से सम्मानित करता है।

अशोक महान् के धम्म की उपर्युक्तु विवेचना से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि अशोक कलिंग युद्ध के पूर्व ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। कलिंग युद्ध के उपरान्त वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया और अन्त में उसने अपने नये धर्म की स्थापना की जिसे सार्वभौम धर्म कहने में संकोच नहीं होना चाहिए।

वह धर्म अत्यंत सरल, व्यावहारिक तथा आचार-मूलक था, जिसका अनुगमन उसकी प्रजा आसानी से कर सकती थी। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। अशोक के धर्म को राज धर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें न केवल राजा का वरन् प्रजा का हित भी निहित था।

(iv) प्राणी-मात्र का धर्म

अशोक का ‘धम्म’ मानव-जाति के लिए ही नहीं वरन् समस्त प्राणी-मात्र के लिये था। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा उसके ‘धम्म’ का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धन्त था। वह अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘मार्गों में मैंने वट-वृक्ष लगवाये जिससे वे पशुओं तथा मनुष्यों को छाया दें। मनुष्यों तथा पशुओं को सुख देने के लिए मैने अनेक आम्र-कुंज लगवाये।’

अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक कहता है, ‘मैंने मनुष्यों और पशु-पक्षियों तथा जानवारों के प्रति यथेष्ट तथा अनेक प्रकार से उदारता तथा अनुग्रह किये हैं।’

इस प्रकार अशोक ने प्राणी-मात्र पर दया करके अपने ‘धम्म’ की सर्वव्यापकता का परिचय दिया।

अशोक महान् द्वारा धर्म प्रचार

अशोक ने अपनी प्रजा के कल्याण के लिये न केवल धार्मिक उपदेश प्रस्तुत किये अपितु धर्म के प्रचार के लिये भी विशेष प्रयास किये। उसका उद्देश्य था कि उसका धर्म न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित हो जाये। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने निम्नलिखित कार्य किये-

(1) सम्राट द्वारा धर्म का पालन

अशोक ने जिस धर्म का प्रतिपादन तथा प्रचार किया उसका स्वयं अपने जीवन में पालन भी किया। कलिंग-युद्ध के उपरान्त उसने अहिंसा-धर्म को स्वीकार कर लिया और जीवन-पर्यन्त अहिंसा-धर्म का पालन किया। उपदेशक के रूप में वह बौद्ध-धर्म में प्रविष्ट हुआ। उसने जीवन भर सक्रिय रूप से संघ की सेवा की और एक भिक्षु की भांति त्यागमय जीवन व्यतीत किया। अशोक के त्यागमय जीवन, धर्म-परायणता तथा निष्ठा का उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और प्रजा ने सम्राट् के आदर्शों का अनुगमन करना आरम्भ कर दिया।

(2) धम्म को राज-धर्म बनाना

अशोक ने अपने धर्म को राज-धर्म बना दिया। उसने न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन को धर्ममय बनाया वरन् सम्पूर्ण शासन को धर्ममय बना दिया। राज्य उसके लिए साध्य न था वरन् धार्मिक आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए साधन बन गया। उसने अपने राज्य की सम्पूर्ण शक्ति तथा साधनों को धर्म प्रचार में लगा दिया। राज-धर्म बन जाने से अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी इसको अपनाया तथा आश्रय दिया जिससे अशोक की मृत्यु के उपरान्त भी यह जीता-जागता रहा।

(3) धर्म-विभाग की स्थापना

अपने धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने एक अलग धर्म-विभाग की स्थापना की। इस विभाग के प्रधान पदाधिकारी ‘धर्म-महामात्र’ कहलाते थे। इन धर्म-महामात्रों को यह आदेश दिया गया कि वे प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का अधिक से अधिक प्रयत्न करें। धर्म-महामात्र घूम-घूम कर अशोक के धर्म का प्रचार करते थे।

(4) धर्म यात्राएँ

अशोक महान् ने मनोरंजन के लिए की जाने वाली विहार-यात्राओं को बन्द करवा दिया और उनके स्थान पर धर्म-यात्राएं करने लगा। इन धर्म-यात्राओं में ब्राह्मणों तथा श्रमणों का दर्शन किया जाता था और उन्हें दान दिया जाता था। स्थविरों का दर्शन करके उन्हें स्वर्ण-दान दिया जाता था। इन यात्राओं में लोगों से धर्म की चर्चा की जाती थी और उनके प्रश्नों का उत्तर दिया जाता था।

(5) धर्म-श्रावण

अपने धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने धर्म-श्रावण की व्यवस्था की। उसके सातवें स्तंभ लेख से प्रकट होता है कि अशोक समय-समय पर अपनी प्रजा को धर्म का सन्देश देता था। यही सन्देश धर्म-श्रावण कहलाते थे। ऐसे अवसरों पर धर्म के सम्बन्ध में भाषण आदि दिये जाते थे। राजुक, प्रादेशिक, युक्त आदि राज्य कर्मचारी भी इस कार्य में सहायता देते थे।

(6) धार्मिक प्रदर्शन

प्रजा के हृदय में स्वर्ग प्राप्ति की कामना बढ़े और वे धर्म-निष्ठ होकर सदाचार करें, इस उद्देश्य से अशोक ने प्रजा को दिव्य रूपों का दर्शन कराना आरम्भ किया। उसने स्वर्ग में जाते हुए विमानों आदि का प्रदर्शन कराया और उन्हें स्वर्ग-प्राप्ति का के लिये प्रेरित करने का प्रयास दिया।

(7) धर्म-मंगल

अशोक ने सधारण मंगल को, जिसके अनुसार विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्य तथा अनुष्ठान किये जाते थे, अनुचित तथा निष्फल बताकर धर्म-मंगल करने का उपदेश दिया। धर्म-मंगल को अशोक ने सार्थक तथा लाभदायक बतलाया। धर्म-मंगल सदाचार द्वारा किये जा सकते थे। इसलिये सम्राट ने आचरण की सभ्यता पर सर्वाधिक जोर दिया। बौद्ध-धर्म में आचरण की सभ्यता को प्रधानता दी गई है।

(8) दान-व्यवस्था

अशोक द्वारा धर्म-प्रचार के लिये आरम्भ की गई दान व्यवस्था का प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजधानी तथा अन्य स्थानों पर रोगियों, भूखों तथा दुःखी मनुष्यों को राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था की गई। यह दान व्यक्तियों तक ही सीमित न था, वरन् संस्थाओं को भी दिया जाता था। इन संस्थाओं में धार्मिक संस्थाओं का प्रमुख स्थान था। इस राजकीय सहायता से धर्मिक संस्थाओं को धर्म के प्रचार में बड़ा प्रोत्साहन मिला।

(9) लोक-हित के कार्य

अशोक ने लोक-हित के अनेक कार्यों को करके अहिंसा-धर्म को अत्यंत प्रिय बना दिया। उसने मुनष्य तथा पशुओं की चिकित्सा के लिए देश तथा विदेशों में भी औषधालय बनवाये और औषधियों के उद्यान लगवाये। इसी प्रकार के अन्य लोक-मंगलकारी कार्यों को करके अशोक ने प्राणी-मात्र पर दया दिखाने का उपदेश दिया।

(10) पशु-वध-निषेध

अशोक ने पशुओं के वध का निषेध करके तथा प्राणी मात्र पर दया दिखलाने का उपदेश देकर अहिंसा-धर्म के प्रचार में बड़ा योग दिया। अन्य प्रकार से भी पशु-पक्षियों की जो हिंसा होती थी उसे अशोक ने बन्द करवा दिया। वास्तव में अहिंसा तथा प्राणीमात्र पर दया करना उसके शासन का मूल मन्त्र बन गया था।

(11) निज्झाति अथवा आत्म-चिन्तन

अशोक का विश्वास था कि मनुष्य सदैव अपने सत्कार्मों को देखता है, अपने कुकर्मों पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसका परिणाम यह होता है कि उसके पाप कर्म बढ़ते जाते हैं और वह धर्म पर नहीं चल पाता। इसलिये अशोक ने आत्म-परीक्षण, आत्म निरीक्षण तथा आत्म-चिंतन की व्यवस्था की, जिससे मुनष्य अपने पापों को देख सके और अपना सुधार कर सके। इसी को निज्झाति कहा गया है।

(12) धर्म अनुशासन

अशोक ने ‘धम्म’ के अनुशासन सम्बन्धी कुछ नियम बनाये और उन्हें प्रकाशित करवाया। इन नियमों के प्रचार तथा उसका पालन करवाने के लिए उसके पदाधिकारी भी नियुक्त किये जो राज्य में दौरा किया करते थे और देखते थे कि लोग धर्म के अनुशासन का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं।

(13) बौद्ध-संगीति

अशोक ने अपने शासन-काल में अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध-संगीति बुलवाई। इस संगीति में बौद्ध-धर्म ग्रन्थों का संशोधन किया गया। बौद्ध-संघ में जो दोष आ गये थे उनको दूर करने का प्रयत्न किया गया। इन संशोधनों तथा सुधारों से बौद्ध-धर्म में जो शिथिलता आ रही थी वह दूर हो गई। अशोक के इस कार्य के सम्बन्ध में हण्टर ने लिखा है- ‘इस संगीति के माध्यम से लगभग आधी मानव जाति के लिए साहित्य और धर्म का सृजन किया गया और शेष आधी मानव-जाति के विश्वासों को प्रभावित किया गया।’

(14) मठों का निर्माण तथा उनकी सहायता

अशोक ने देश के विभिन्न भागों में अनेक मठों का निर्माण करवाया और उनकी सहायता की। इन मठों में बहुत बड़ी संख्या में भिक्षु-भिक्षुणी तथा धर्मोपदेशक निवास करते थे जो सदैव धर्म के चिन्तन तथा प्रचार में संलग्न रहा करते थे। ऐसी सुव्यवस्था में धर्म के प्रचार का क्रम तेजी से चलता रहा।

(15) धर्म-लिपि की व्यवस्था

अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए धम्म के सिद्धान्तों तथा आदर्शों को पर्वतों की चट्टानों, पत्थरों के स्तम्भों तथा पर्वतों की गुफाओं में लिखवाकर उन्हें सबके लिए तथा सदैव के लिए सुलभ बना दिया। ये अभिलेख जन-साधारण की भाषा में लिखवाये गये थे जिससे समस्त प्रजा उन्हें समझ सके और उनका पालन कर सके। इस प्रकार के अभिलेखों से धम्म के प्रचार में बड़ी सहायता मिली।

(16) पाली भाषा में ग्रंथ रचना

अशोक के आदेश से बौद्ध-ग्रन्थों की रचना पाली भाषा में की गई जो जन-साधारण की तथा अत्यंत लोकप्रिय भाषा थी। चूंकि इस भाषा को साधारण लोग भी सरलता से समझ लेते थे इसलिये इससे बौद्ध-धर्म के प्रचार में बड़ा योग मिला।

(17) धर्म-विजय का आयोजन

अशोक ने धम्म का दूर-दूर तक प्रचार करने के लिए धर्म विजय का आयोजन किया। उसने भारत के भिन्न-भिन्न भागों तथा विदेशों में अपने धर्म के प्रचार का प्रयत्न किया। उसने दूरस्थ विदेशी राज्यों के साथ मैत्री की और वहाँ पर मनुष्यों तथा पशुओं की चिकित्सा का प्रबंध किया। उसने इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने तथा हिंसा को रोकने के लिये उपदेशक भेजे।

अशोक महान् ने अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म का प्रचार करने के लिए सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका भेजा। अशोक के धर्म प्रचारक बड़े ही उत्साही तथा निर्भीक थे। उन्होंने मार्ग की कठिनाईयों की चिन्ता न कर श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, जापान, कोरिया तथा पूर्वी द्वीप-समूहों में धर्म का प्रचार किया। अशोक द्वारा किये गये प्रयत्नों के फलस्वरूप उसके शासनकाल में बौद्ध-धर्म को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो गया।

भण्डारकर ने इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘इस काल में बौद्ध-धर्म को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया कि अन्य समस्त धर्म पृष्ठभूमि में चले गए… परन्तु इसका सर्वाधिक श्रेय तीसरी शताब्दी ई.पू. के बौद्ध सम्राट, चक्रवर्ती धर्मराज को मिलना चाहिए।’

वर्तमान में यद्यपि बौद्ध-धर्म अपनी जन्मभूमि में उन्मूलित सा हो गया है परन्तु उन देशों में वह अब भी अपना अस्तित्त्व बनाये हुए है।

अशोक महान् के अभिलेख

अशोक ने अपने जीवन-काल में अनेक शिलालेख तथा स्तम्भलेख लिखवाए जिनका बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है। इन स्तम्भलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा निश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती है। इनसे यह भी पता लग जाता है कि किन विदेशी राज्यों के साथ अशोक ने अपना मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया था। ये अभिलेख अशोक महान् के धर्म, उसके चरित्र तथा शासन पर भी बहुत बड़ा प्रकाश डालते हैं।

डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने अशोक के अभिलेखों के महत्त्व को बताते हुए लिखा है- ‘अशोक के अभिलेख लेख-संग्रह अनूठे हैं। उनसे उसकी आन्तरिक भावनाओं और आदर्शों का पता लगता है। वे उस महान् सम्राट के शब्दों को ही शताब्दियों से वहन करते आये हैं।’

अशोक के अभिलेखों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) शिलालेख तथा (2) स्तम्भलेख।

शिलालेख स्तम्भ लेख से अधिक प्राचीन हैं। शिलालेख सीमान्त प्रदेश में पाये जाते हैं जबकि स्तम्भ लेख आन्तरिक प्रान्तों में पाये जाते हैं। विन्सेन्ट स्मिथ ने अशोक के अभिलेखों को तिथि क्रमानुसार आठ भागों में विभक्त किया है-

(1) लघु शिलालेख

इसके अन्तर्गत नं. 1 तथा नं. 2 के शिलालेख आते हैं। ये मैसूर तथा अन्य राज्यों में भी पाये जाते हैं। इनसे सम्राट् के व्यक्तिगत जीवन तथा धर्म के लक्षणों का पता चलता है।

(2) भब्रू शिलालेख

यह शिलालेख जयपुर राज्य में मिला था। इसमें बौद्ध-धर्म ग्रन्थों से लिये गए सात ऐसे उद्धरण हैं जिन्हें अशोक चाहता था कि उसकी प्रजा पढ़े और उसके अनुसार आचरण करे।

(3) चतुर्दश शिलालेख

ये संख्या में चौदह हैं। इन शिलालेखों में अशोक के नैतिक तथा राजनैतिक विचार अंकित किये गए हैं। इनमें तेरहवां शिलालेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कलिंग-युद्ध के उपरान्त अशोक के मन में जो दुःख उत्पन्न हुआ वह इसी अभिलेख में अंकित है।

(4) दो कलिंग शिलालेख

इन शिलालेखों में उन सिद्धन्तों का उल्लेख मिलता है जिनके अनुसार कलिंग के विभिन्न प्रान्तों तथा सीमान्त-प्रदेश के अविजित लोगों के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए था।

(5) तीन गुहा लेख

ये गया के निकट की बराबर नामक पहाड़ी में मिले हैं। इन शिलालेखों में सम्राट अशोक द्वारा दिये गये दानों का उल्लेख है जो उसने आजीवकों को दिये थे। इनसे अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का पता चलता है।

(6) दो तराई स्तम्भ लेख

ये स्तम्भ लेख नेपाल की तराई में विद्यमान हैं। इन स्तम्भ लेखों में सम्राट अशोक की उन तीर्थ-यात्राओं का वर्णन है जो उसने बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थानों के दर्शन के लिए की थी।

(7) सप्त स्तम्भ लेख

ये संख्या में सात हैं और छः स्थानों में पाये गये हैं। इनमें से दो दिल्ली में हैं। इन स्तम्भ लेखों में सम्राट के उन उपायों का उल्लेख है जो उसने धर्म-प्रचार के लिए किये थे।

(8) चार गौरा-स्तम्भ

इनमें से दो लेख सांची तथा सारनाथ की लाटों पर खुदे हुए हैं और दो प्रयाग में हैं। इन स्तम्भ लेखों को सम्भवतः बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर करने के लिये उत्कीर्ण कराया गया था।

क्या अशोक महान् सम्राट था ?

अशोक की गणना न केवल भारत के वरन् विश्व के महान सम्राटों में की जाती है। अशोक के सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन कर लेने के उपरान्त उसकी महानता के कारणों का पता लगाना कठिन नहीं रह जाता।

उसकी महानता उसके साम्राज्य की विशालता, उसकी सेना की अजेयता, उसके शासन की सुदृढ़़ता अथवा उसके राज-वैभव में नहीं पायी जाती वरन् उसकी महानता उसके अलौकिक व्यक्तित्त्व, उसकी अगाध धर्मपरायणता, उसके धार्मिक विचारों की उदारता, उसके सिद्धान्तों तथा आदर्शों की उच्चता, राष्ट्र-निर्माण की योजनाओं, साहित्य तथा कला की अपूर्व सेवाओं तथा उसकी धर्म विजय में पाई जाती हैं।

समस्त मानव-समाज तथा समस्त प्राणियों के कल्याण की विराट चेष्टा उसे न केवल भारत वरन् सम्पूर्ण विश्व के महान सम्राटों में सर्वोत्कृष्ट स्थान प्रदान करती है। अशोक की महानता को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य उपस्थित किये जा सकते हैं-

(1) महान् व्यक्तित्त्व

अशोक की महानता का सबसे प्रथम प्रमाण उसका महान् व्यक्तित्त्व है। कलिंग युद्ध के उपरान्त वह समस्त राजसी सुखों तथा विलासों को त्याग कर सन्त जैसा सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करने लगा। उसका जीवन शुद्ध, पवित्र तथा दयामय बन गया। आत्म-संयम तथा आत्म-नियंत्रण में वह पूर्णरूप से सफल रहा और आत्म-त्याग उसके जीवन का मूलमंत्र बन गया।

वह अहिंसा का पुजारी बन गया। उसने मांस-भक्षण बंद कर दिया। वह सत्यनिष्ठ, दयालु, सहिष्णु तथा शांतिमय बन गया। उसमें उच्च कोटि की कर्त्तव्य परायणता आ गई। वह अपनी प्रजा के हित-चिंतन में संलग्न रहता था और उसकी नैतिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति का अथक प्रयास करता था। शिलाओं तथा स्तम्भों पर अंकित अशोक के उपदेशों से ज्ञात होता है कि वह अपने युग का भद्रतम तथा श्रेष्ठतम व्यक्ति था।

(2) महान् धर्मतत्त्ववेत्ता

अशोक ने धर्म के वास्तविक तत्त्व को समझा था। उसकी महानता का सबसे बड़ा कारण उसकी धर्म-निष्ठा तथा धर्म-परायणता है। उसकी धार्मिक धारणा संकीर्ण न थी। वह कट्टरपंथी अथवा धर्मान्ध नहीं था। उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था। उसकी धार्मिक धारणा का मूलाधार ईश्वर का पितृत्व तथा मानव का भ्रातृत्व था।

वह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त का अनन्य अनुयायी था। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। यद्यपि बौद्ध धर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था और इसके प्रचार के लिए उसने तन-मन-धन से प्रयत्न किया परन्तु अन्य धर्म वालों के साथ उसने किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं किया।

समस्त धर्म तथा सम्प्रदाय अशोक की सहानुभूति तथा सहायता के पात्र थे। समस्त धर्मों के उत्तम तत्त्वों के संग्रह से उसका धम्म, सार्वभौम धर्म बन गया था जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण तथा प्राणी मात्र का उद्धार करना था। अशोक की अगाध धर्म-निष्ठा तथा धर्म-तत्त्व-ज्ञान उसे महान् धर्माचार्यों में स्थान प्रदान करते हैं।

(3) महान् धर्म-प्रचारक

अशोक न केवल एक महान् धर्मोपदेशक था। वरन् वह एक महान् धर्म-प्रचारक भी था। अशोक ने धर्म का प्रचार न केवल भारत के कोने-कोने में किया वरन् उसके धर्म का आलोक विदेशों में भी पहुंचा जहाँ वह अब भी जीवित है और असंख्य व्यक्तियों की आत्मा को शांति दे रहा है। एक स्थानीय धर्म को अशोक ने अन्तर्राष्ट्रीय धर्म बना दिया।

इसी से डॉ. भण्डारकर ने लिखा है- ‘अशोक के आदर्श बड़े ऊँचे थे। उसने अपनी बुद्धिमत्ता तथा कलन-शक्ति को, संकीर्ण प्रांतीय बौद्ध सम्प्रदाय को, विश्वव्यापी धर्म बना देने में लगा दिया।’

धर्म-प्रचार का यह कार्य बाहुबल से नहीं वरन् आत्मबल से शान्तिपूर्वक, प्रेम तथा सद्भावना के साथ किया गया। यही बात अशोक के धर्म प्रचार की विशेषता थी जो उसे धर्म प्रचारकों में सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है।

अशोक ने धर्मप्रचारकों की सहायता से धर्मप्रचार का जो श्लाघनीय कार्य किया उसकी प्रशंसा करते हुए के. जे.सौन्डर्स ने लिखा है- ‘विश्व इतिहास में सम्राट अशोक के धर्म प्रचारकों द्वारा सभ्यता के प्रचार का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया क्योंकि इन लोगों ने ऐसे देशों में प्रवेश किया जो अधिकांशतः बर्बर तथा अन्धविश्वासपूर्ण थे।’

(4) महान् धर्म-विजेता

अशोक एक महान् धर्म-विजेता था। कलिंग युद्ध के उपरान्त उसने भेरिघोष को सदैव के लिए शान्त करके धर्म-घोष करने का संकल्प लिया। उसने रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने के स्थान पर धर्मक्षेत्र में विजय पताका फहराने का निश्चय किया। यह विजय सरल नहीं थी, क्योंकि यह विजय शरीर पर नहीं, वरन् आत्मा पर प्राप्त करनी थी।

यह विजय बाहुबल अथवा सैन्यबल की विजय नहीं थी, वरन् आत्मबल तथा तथा प्रेमबल की विजय थी। यह विजय थोड़े से व्यक्तियों पर नहीं, वरन् प्रणिमात्र पर प्राप्त करनी थी। वह शांति विजय थी, अशांति की नहीं थी। अशोक ने धर्माचार्यों तथा धर्म-प्रचारकों की एक विशाल सेना संगठित की और उन्हें प्रेमायुध से सुसज्जित किया।

सत्य, सत्कर्म, सद्भावना, तथा सद्व्यवहार की यह चतुरंगिणी सेना धर्म-विजय के लिए निकल पड़ी। इस सेना के प्रेमायुद्ध के सामने न केवल सम्पूर्ण भारत नत-मस्तक हो गया वरन् उसकी विजय पताका विदेशों में भी फहराने लगी। यह विजय आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक विजय थी जो स्थायी सिद्ध हुई।

अशोक ने जिन देशों पर धर्म-विजय प्राप्त की उन्हें भारत के साथ प्रेम के ऐसे प्रबल बन्धन में बांध दिया कि अब तक वह अविच्छिन रूप से चलता आ रहा है। यह अशोक की अद्वितीय विजय थी जिसकी समता संसार का अन्य कोई विजयी सम्राट नहीं कर सकता।

(5) महान् शासक

अशोक की गणना विश्व के महान् शासकों में होती है। कलिंग युद्ध के उपरान्त अशोक के राजनीतिक आदर्श अत्यंत ऊँचे हो गये। प्रजा-पालन तथा उसके हित चिन्तन को अशोक ने अपने जीवन का महान् लक्ष्य बना लिया। वह अपनी प्रजा को सन्तानवत् समझने लगा और उसी के कल्याण की चिन्ता में दिन रात संलग्न रहने लगा।

डॉ. हेमचन्द्र राज चौधरी ने लिखा है- ‘वह अपने उत्साह में सुदृढ़़ और प्रयासों में अथक था। उसने अपनी सारी शक्ति अपनी प्रजा की आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति में लगा दी जिसे वह अपनी सन्तान-सदृश समझता था।’

उसने विहार-यात्राएं बन्द करवा दीं जो आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन का साधन थीं और उनके स्थान पर धर्म-यात्राएं आरम्भ कीं जिनमें धर्मिक उपदेश दिये जाते थे। तीर्थ स्थानों के दर्शन किये जाते थे और ब्राह्मणों, श्रमणों तथा दीन-दुःखियों को दान दिये जाते थे।

उसका शासन इतना सुसंगठित, सुव्यवस्थित एवं लोक-मंगलकारी था कि उसके शासनकाल में कोई आन्तरिक उपद्रव नहीं हुआ और प्रजा ने अधिक सुख तथा शान्ति का उपभोग किया। अशोक ने अपनी प्रजा की न केवल भौतिक अभिवृद्धि का भगीरथ प्रयास किया वरन् उसकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का भी यथा शक्ति प्रयास किया।

अशोक ने प्रजा के नैतिक तथा आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए धर्म-महामात्रों को नियुक्त किया और राजकीय कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे घूम-घूमकर प्रजा के आचरण का निरीक्षण करें और उसे सदाचारी तथा धर्म-परायण बनाने का प्रयत्न करें। शासक के रूप में अशोक की महानता इस बात में पायी जाती है कि देश के राजनीतिक जीवन में उसने आदर्श, पवित्रता तथा कर्त्तव्य-परायणता का समावेश किया।

अशोक ने एक भिक्षु जैसा सादा जीवन व्यतीत कर और राज-सुलभ समस्त सुखों का त्याग कर प्रजा के इहलौकिक तथा पारलौकिक हित-चिन्तन में संलग्न रहकर विश्व के सम्राटों के समक्ष ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो सर्वथा अनुकरणीय है। एच. जी. वेल्स ने लिखा है- ‘प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र इस प्रकार के सम्राट को उत्पन्न नहीं कर सकता है। अशोक अब भी विश्व के इतिहास में अद्वितीय है।’

(6) महान् राष्ट्र निर्माता

अशोक महान् राष्ट्र-निर्माता था। उसने राष्ट्र की एकता तथा संगठन के लिए सम्पूर्ण राज्य में एक राष्ट्र-भाषा का प्रयोग किया। इस तथ्य की पुष्टि उसके अभिलेखों में प्रयुक्त पाली भाषा से होती है। अशोक महान् ने अपने साम्राज्य के अधिकांश भाग में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग कराया था। केवल पश्चिमोत्तर प्रदेश में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया जाता था।

इस प्रकार भाषा तथा लिपि की एकता ने राजनीतिक एकता को सजीव बना दिया। देश के कोने-कोने में धर्म का प्रचार कर उसने सांस्कृतिक एकता की चेतना को जागृत किया। सम्पूर्ण राज्य के लिए एक जैसी न्याय व्यवस्था लागू करके उसने समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया था। अशोक ने शिल्प तथा स्थापत्य कला के विकास में भी बड़ा योग दिया। उसके काल के बने स्तंभ आज भी भारतीय कला का मस्तक ऊँचा किये हुए है।

(7) महान् आदर्शवादी

अशोक की महानता उसके उच्चादर्शों तथा महान् सिद्धान्तों में पाई जाती है। अशोक महान् ने राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में ऐसे नवीन आदर्शों की स्थापना की जिनकी कल्पना उस काल का अन्य कोई महान् सम्राट नहीं कर सका।

राजनीतिक क्षेत्र में उसके आदर्श थे- युद्धविराम, शान्ति तथा सद्भावना की स्थापना, पड़ौसियों के साथ मैत्री तथा सहयोग स्थापित करना, विदेशों में युद्ध संदेश के स्थान पर शान्ति तथा सद्भावना के संदेश भेजना, प्रजा के हित-चिन्तन में दिन-रात संलग्न रहना और अपने सम्पूर्ण आमोद-प्रमोद तथा सुखों को प्रजा के हित के लिए त्याग देना, अपनी प्रजा का सच्चा सेवक बनना।

सामाजिक क्षेत्र में अशोक महान् लोकतंत्रवादी था और ‘वसुधैव कुटुम्कम’ अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही परिवार है, सिद्धान्त का अनुयायी था। समानता, स्वतंत्रता तथा विश्व बंधुत्व उसके सामाजिक जीवन की आधार-शिलाएं थीं।

धार्मिक जीवन में अशोक महान् का आदर्श सहिष्णुता तथा समन्वयन था। तत्कालीन प्रचलित धर्मों के उत्तम तथ्यों के संग्रह से उसने एक ऐसे धर्म की स्थापना की जो सर्वमान्य हो। इस धर्म में न कोई दुरूह दर्शन था और न कोई आडम्बर। यह बड़ा ही सरल तथा व्यावहारिक धर्म था जिसमें आचरण की शुद्धता तथा कर्त्तव्य-पालन पर बल दिया जाता था।

सारांश रूप में कहा जा सकता है कि लोक-कल्याण, भौतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति ही अशोक के जीवन के प्रधान लक्ष्य थे। एच.जी वेल्स ने अशोक की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सहस्र सम्राटों के नामों के मध्य, जो इतिहास के पन्नों को भरे हुए हैं अशोक का नाम एक सितारे की भांति प्रकाशमान है।’

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने भी इतिहास में अशोक महान् का स्थान निर्धारित करते हुए लिखा है कि भारत के इतिहास में अशोक दिलचस्प व्यक्ति था। उसमें चन्द्रगुप्त जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी विलक्षण प्रतिभा और अकबर जैसी व्यापक उदारता थी।

अशोक महान् के उत्तराधिकारी

लगभग चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 232 ई.पू. में अशोक महान् की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र कुणाल सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठने से पहले वह गान्धार का शासक रह चुका था। कुणाल के शासनकाल में मगध साम्राज्य का पश्चिमोत्तर भाग स्वतन्त्र हो गया और अशोक के दूसरे पुत्र जालौक ने काश्मीर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।

कुणाल के बाद अशोक का पोता दशरथ मगध के सिंहासन पर बैठा। वह बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने नागार्जुनी की पहाड़ि़यों में आजीवकों के लिए गुहामन्दिर बनवाए। उसके शासनकाल में कलिंग ने मगध साम्राज्य से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।

दशरथ के बाद सम्प्रति मगध के सिंहासन पर बैठा। वह एक योग्य तथा शक्तिशाली शासक था। वह जैन-धर्म का अनुयायी तथा आश्रयदाता था। सम्प्रति के बाद कई अयोग्य एवं शक्तिहीन राजा मगध के सिंहासन पर बैठे जिनके शासन-काल में साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। वृहद्रथ अन्तिम मौर्य सम्राट था जिसकी हत्या उसके ही सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की और स्वयं मगध का शासक बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा संस्थापित साम्राज्य का सदा के लिये अन्त हो गया।

मौर्य-साम्राज्य के पतन के कारण

अशोक महान् की मृत्यु के साथ ही मौर्य साम्राज्य के अंत का प्रारंभ हो गया। इसके लिये स्वयं अशोक से लेकर उसके उत्तराधिकारी भी जिम्मेदार थे। मौर्य-साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1) अशोक की अहिंसा की नीति

अशोक ने अहिंसा की नीति को शासन का आधार बनाया। इस नीति पर चलकर वह अपने जीवनकाल में साम्राज्य को सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित रख सका परन्तु अहिंसा की नीति के अन्तिम परिणाम अच्छे न हुए। उसने जिस आध्यात्मिकता का वायुमंडल उत्पन्न किया, वह सैनिक दृष्टिकोण से साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। अशोक के शासनकाल में ही सैनिक-शक्ति व्यर्थ समझी जाने लगी। इससे वह निश्चय ही क्षीण हो गयी होगी। उसके उत्तराधिकारी भी सैनिक शक्ति को बढ़ा नहीं सके होंगे।

(2) ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया

मौर्य साम्राज्य के समस्त सम्राट प्रायः जैन अथवा बौद्ध धर्म के अनुयायी हुए और इन्हीं दो धर्मों को प्रश्रय तथा प्रोत्साहन देते रहे। इससे ब्राह्मणों में मौर्यों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और वे मौर्य-साम्राज्य के शत्रु हो गये। इससे राज्य की शक्ति निरंतर क्षीण होती चली गई।

(3) अशोक महान् के अयोग्य उत्तराधिकारी

अशोक के उत्तराधिकारियों में एक भी इतना योग्य न था जो उसके विशाल केन्द्रीभूत शासन को संभाल सकता। केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होते ही राज्य के सुदूर भागों के प्रान्तपतियों ने विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया और स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। अशोक के उत्तराधिकारियों में कुछ बड़े ही अत्याचारी हुए। अतः प्रजा की भी मौर्य शासकों के प्रति कोई सहानुभूति न रही। अशोक के कई पुत्र थे जिनमें परस्पर संघर्ष चला करता था। यह सब मौर्य-साम्राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

(4) अन्तःपुर तथा दरबार के षड्यन्त्र

अशोक के अनेक पुत्र तथा रानियां थीं, जो प्रायः एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचा करती थीं। इसका भी साम्राज्य पर अच्छा प्रभाव न पड़ा। वृहदृथ के शासन-काल में राज दरबार में दो दल हो गए थे। एक दल सेनापति का था और दूसरा प्रधानमन्त्री का। यह दल-बन्दी साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। अन्त में सेनापति पुष्यमित्र शुंग, मौर्य-सम्राट वृहद्रथ की हत्या करके स्वयं मगध के सिंहासन पर बैठ गया। इस प्रकार मौर्य-साम्राज्य का दीपक सदैव के लिए बुझ गया।

(5) यवनों के आक्रमण

मौर्य-साम्राज्य की शक्ति को क्षीण होते देख बैक्ट्रिया के यवनों ने भी मगध राज्य के पश्चिमोत्तर प्रदेश पर आक्रमण करना आरम्भ किया और उसको छिन्न-भिन्न करने में बड़ा योग दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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