Saturday, July 5, 2025
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अध्याय – 34 (ब) : मुगल शासन व्यवस्था एवं संस्थाएँ

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मुगलों की सैनिक व्यवस्था

बाबर ने सैनिक शक्ति के बल पर मुगल साम्राज्य की नींव रखी। उसकी सैन्य व्यवस्था तैमूर और चंगेज खाँ के संगठन पर आधारित थी। बाबर की सेना की शक्ति तोपखाने के कारण अत्यधिक बढ़ गई थी। उसने तुर्कों, मंगोलों और उजबेगों की युद्ध प्रणाली की भी अनेक बातें अपना ली थीं। हुमायूँ ने बाबर की व्यवस्था को कायम रखा परन्तु वह अच्छा सेनापति नहीं था। अकबर ने सैनिक शक्ति को सुदृढ़ बनाकर सल्तनत का विस्तार किया। उसने सेना में अनेक सुधार किये। उसने मनसबदारी प्रथा के आधार पर सैनिक व्यवस्था को संगठित बनाया। उस समय में सेना के तीन मुख्य अंग थे- घुड़सवार, तोपखाना और पैदल। अकबर ने नाविक बेड़े का भी गठन किया। सेना के इन समस्त अंगों का महत्त्व एक जैसा नहीं था। बाद में हाथियों का महत्त्व भी बढ़ा। औरंगजेब के शासनकाल तक मुगलों की सेना अपनी धाक को बनाये रख सकी परन्तु पहले मेवाड़ के विरुद्ध असफल रहने पर और बाद में मराठों के विरुद्ध असफल रहने पर उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।

घुड़सवार सेना

मुगल सेना का सबसे प्रमुख अंग घुड़सवार सेना थी। अधिकांश मुगल शासक स्वयं अच्छे घुड़सवार थे। बाबर ने भारत में जिस तुगलमा पद्धति का उपयोग किया और जिसके कारण उसे विजय प्राप्त हुई, वह घुड़सवारों की गति पर आधारित थी। घुड़सवारों की दो श्रेणियाँ थीं- बरगीर और सिलेदार। बरगीर सैनिक को राज्य की तरफ से घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र दिये जाते थे। सिलेदार सैनिक घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र की व्यवस्था स्वयं करता था। घुड़सवारों का एक अन्य वर्गीकरण भी था। जिस सैनिक के पास दो घोड़े होते थे वह दुअस्पा कहलाता था। एक घोड़े वाले सैनिक को एक-अस्पा कहा जाता था। दो सैनिकों के बीच एक घोड़ा होने पर उन्हें निम-अस्पा कहा जाता था। इस वर्गीकरण के आधार पर उनका वेतन भी अलग-अलग होता था।

मुगल घुड़सवार सेना की सर्वाधिक श्रेष्ठ टुकड़ी अहदी सैनिकों की होती थी। इनकी भर्ती सीधे केन्द्र द्वारा की जाती थी और इनका सम्पर्क सीधे बादशाह से होता था। ये लोग बादशाह के निजी सेवक होते थे। इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था राज्य की तरफ से की जाती थी। इनके लिए एक अलग दीवान और बख्शी होता था तथा एक अमीर इनका प्रमुख होता था। विशेष अवसरों पर अहदी सैनिकों को सेना के साथ भेजा जाता था। आरम्भ में एक-एक अहदी के पास आठ-आठ घोड़े रहते थे परन्तु बाद में अकबर के शासन के अन्त में यह संख्या घटाकर पाँच कर दी गई। जहाँगीर ने इस संख्या को और कम करके चार कर दिया। अहदी सैनिकों को 25 रुपये से 500 रुपये प्रतिमाह तक वेतन दिया जा सकता था जबकि अन्य घुड़सवारों को 12 से 15 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था।

पैदल सेना

अकबर के समय में पैदल सेना को प्यादा अथवा पायक कहा जाता था। पैदल सैनिकों की तीन श्रेणियां थीं- (1.) लड़ाकू: इस श्रेणी में बन्दूकची और तलवारिया (शमशीर बाज) आते थे। (2.) अर्द्ध-लड़ाकू: इस श्रेणी में संदेशवाहक, दास, चोबदार आदि आते थे। (3.) गैर लड़ाकू: इस श्रेणी में लुहार, खनिक आदि आते थे। पैदल सेना में बन्दूकचियों की संख्या सबसे अधिक होती थी। उन्हें सेना का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था परन्तु उनका वेतन बहुत कम था। बर्नियर ने लिखा है कि पैदलन सैनिकों को बहुत कम वेतन मिलता था और बन्दूकचियों को अच्छे समय में भी कठिनाई से जीवन यापन करना पड़ता था।

तोपखाना

बाबर ने भारत में सर्वप्रथम तोपखाने का उपयोग किया था परन्तु इसका संगठन अकबर के समय में हो पाया। तोपखाने की व्यवस्था के लिए मीर खानसामा और मीर आतिश नामक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। तोपों की ढलाई के लिए ढलाई खाने बनाये गये। ये तोपें इतनी भारी होती थीं कि उन्हें ढोने के लिए कई हाथियों और पशुओं की आवश्यकता पड़ती थी। औरंगजेब ने तोपखाने में सुधार करने का अथक प्रयास किया। फिर भी इतिहासकारों का मानना है कि मुगल तोपखाना निम्न स्तर का था। इसलिये आगे चलकर यूरोपीय राष्ट्रों की तुलना में भारतीयों का तोपखाना काफी कमजोर सिद्ध हुआ।

नौ-सेना

मुगल सैनिक व्यवस्था में मुगल नौ-सेना सबसे उपेक्षित थी। अकबर ने पहली बार नौ-सेना के लिए मीर-ए-बहर की अध्यक्षता में एक अलग विभाग खोला। जहाँगीर और शाहजहाँ ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। औरंगजेब ने अवश्य ही इस ओर ध्यान दिया। फिर भी मुगलों की नौ-सेना नावों का छोटा बेड़ा मात्र ही रही, जिसका मुख्य काम शाही परिवार के सदस्यों और सैनिकों को इस किनारे से उस किनारे पहुँचाना था।

वित्त और राजस्व व्यवस्था

बाबर और हुमायूँ, दोनों का शासनकाल किसी प्रकार के आर्थिक सुधारों को कार्यान्वित करने के लिए अपर्याप्त रहा। अकबर ने सल्तनत की अर्थव्यवस्था को संगठित करने का प्रयास किया। उसे इस कार्य में सफलता भी मिली। अकबर जनकल्याण को उतना ही महत्त्व देता था जितना कि वह राज्य की सुरक्षा को देता था। उसकी कर पद्धति का उद्देश्य न केवल राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारना था अपितु मोटे तौर पर किसानों, व्यापारियों और आम आदमी के हितों की रक्षा करना भी था। जहाँगीर और शाहजहाँ ने उसकी नीति का पालन किया परन्तु औरंगजेब के समय अकबर द्वारा स्थापित व्यवस्था लड़खड़ाने लगी।

आय के स्रोत

आय का मुख्य साधन भूमि कर था। व्यापारिक कर, खानों पर कर, पैतृक सम्पत्ति कर, नमक कर, चुँगी कर, युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति का 1/5वाँ भाग, टकसाल, अधीनस्थ राज्यों से प्राप्त होने वाले उपहार तथा वार्षिक कर, राजकीय कारखानों से होने वाली आय आदि मुगल राज्य की आय के मुख्य साधन थे। स्थानीय शासन को विभिन्न प्रकार के करों से होने वाली आय का उपयोग स्थानीय शासन के लिए किया जाता था। बाबर ने मुसलमानों से जकात नामक धार्मिक कर और गैर मुसलमानों से जजिया तथा तीर्थयात्रा कर लेने की व्यवस्था की। हुमायूूँ ने यह व्यवस्था जारी रखी। अकबर ने जजिया और तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया। जहाँगीर और शाहजहाँ ने अकबर की नीति को जारी रखा परन्तु औरंगजेब ने बादशाह बनने के कुछ वर्षों बाद इन करों को पुनः आरम्भ कर दिया। मुगलों को व्यय के मुकाबले अधिक आय होती थी।

चुँगी

मुगल शासन की आय का एक प्रमुख साधन चुँगी थी। देश के आंतरिक भागों और विदेशों से आने वाली वस्तुओं पर चुँगी ली जाती थी। विदेशों से आने वाले और विदेशों को भेजे जाने वाले माल पर बन्दरगाहों और सीमाओं पर चुँगियाँ लगा करती थीं। अकबर के समय में उत्तरी भारत में लगभग 21 बन्दरगााह थे। इनमें से लहारीबन्दर, सूरत और बालसौर अधिक प्रसिद्ध थे। बन्दरगाहों से प्राप्त चुँगी का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केवल सूरत के बन्दरगाह से राज्य को तीस लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। सामान्यतः जिले के अधिकारी को शाही फरमान के द्वारा उस जिले में स्थित बन्दरगाहों का नियंत्रण सौंप दिया जाता था। जिन्सों पर राज्य की ओर से कर निर्धारित किये जाते थे। बादशाह के आदेश से समय-समय पर इन दरों में फेरबदल होता रहता था। करों की वसूली का काम जिलाधिकारी अथवा अन्य किसी व्यक्ति को सौंप दिया जाता था। कभी-कभी किसी स्थान से प्राप्त होने वाली चुँगी की आय किसी व्यक्ति विशेष को भी प्रदान कर दी जाती थी। सामान्यतः चुँगी की दर जिन्स के मूल्य पर ढाई से पाँच प्रतिशत ली जाती थी। औरंगजेब के शासनकाल तक यह दर कायम रही। समकालीन विदेशी यात्री लिखते हैं कि सीमा शुल्क अधिकारी बड़े कठोर थे। भारत आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की तलाशी ली जाती थी। थेवेनो ले लिखा है- ‘कभी-कभी व्यापारी को माल छुड़ाने में एक महीना तक लग जाता था।’ देश के भीतरी भागों में माल ले जाने पर भी चुँगी वसूल की जाती थी। इसे राहदारी कहा जाता था।

टकसाल

राज्य के आय के साधनों में टकसाल भी महत्त्वपूर्ण थी। 1577 ई. से पहले तक, प्रान्तीय टकसालें चौधरियों के अधीन कार्य करती थीं। अकबर ने इस व्यवस्था को समाप्त करके टकसालों के लिए अलग अधिकारी नियुक्त किये। इन अधिकारियों के ऊपर एक निदेशक नियुक्त किया। सरकारी खजाना एक प्रकार से विनिमय बैंक था। लोगों को टकसाल में जाकर सिक्के ढलवाने की स्वतंत्रता थी। इससे राज्य को बट्टे के रूप में धन प्राप्त होता था। घिसे हुए सिक्कों को बदलते समय भी राज्य बट्टा वसूल करता था। राज्य को टकसाल से कितनी आय होती थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि औरंगजेब के शासनकाल में केवल सूरत की टकसाल से नौ लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। अधिकांश इतिहासकारों ने मुगलकालीन सिक्कों की विशुद्धता तथा बनावट की सुन्दरता की प्रशंसा की है। मुगलों का चाँदी का रुपया 177.4 ग्राम वजन का होता था।

सम्पत्ति जब्ती

यूरोपीय यात्रियों ने सम्पत्ति जब्ती के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। उनके अनुसार शाही मनसबदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सम्पत्ति पर बादशाह का स्वामित्व हो जाता था। बड़े व्यापारी की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति बादशाह की हो जाती थी। एक यात्री ने लिखा है- ‘बादशाह अपने सामन्त की सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता था। यदि मृतक ने निष्ठापूर्वक सेवा की हो तो उसके बीवी-बच्चों को जीविका निर्वाह योग्य धन दे दिया जाता था, इससे अधिक नहीं।’

मुगलों की न्याय व्यवस्था

मुगलों की न्याय व्यवस्था के सम्बन्ध में इतिहासकारों के मध्य विवाद रहा है। जदुनाथ सरकार ने इस व्यवस्था को सुगम, सक्रिय एवं अपूर्ण बताया है। डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने इसे दोषपूर्ण बताया है जबकि डॉ. हसन ने इसे समयानुकूल माना है। डॉ. जैन का मत है कि मुगलों की न्याय व्यवस्था कम खर्चीली, शीघ्र कार्य करने वाली, सरल तथा तथ्यों पर आधारित थी। वास्तविकता यह है कि मुगलों की न्याय व्यवस्था काफी दुर्बल थी।

बादशाह

बादशाह, सल्तनत का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था जो सप्ताह में एक बार खुले दरबार में बैठकर अपीलों एवं अभियोगों का निर्णय करता था। हुमायूँ ने अपनी न्यायप्रियता का ढिंढोरा पीटने के लिए तबल-अदल अर्थात् न्याय के नगाड़े की स्थापना की थी। अकबर धार्मिक मतभेदों तथा प्रभावों से दूर रहकर न्याय करने का प्रयास करता था। जहाँगीर ने सोने की जंजीर का एक सिरा शाहबुर्ज के कंगूरे में लगाकर और दूसरे सिरे को यमुना नदी के तट तक ले जाकर पत्थरों के खम्भों में बाँधकर अपने न्यायप्रिय होने की घोषणा की। न्याय में देर होने अथवा और किसी प्रकार की कठिनाई के समय इस जंजीर को हिलाकर बादशाह का ध्यान आकर्षित किया जा सकता था। औरंगजेब के लिये कहा जाता है कि तैमूर के वंशजों में न्याय के लिए इतना अधिक सेवानिष्ठ एवं कठोर शासक कोई दूसरा नहीं था।

अधीनस्थ न्यायिक संस्थाएँ

मुगल बादशाह के साथ-साथ सल्तनत में एक ही समय में कार्य करने वाली एक-दूसरे से स्वतंत्र चार तरह की न्यायिक संस्थाएँ थीं-

(1.) काजी एवं मुफ्ती: राजधानी में प्रथम काजी, प्रान्तीय राजधानियों में प्रान्त का प्रधान काजी तथा बड़े-बड़े नगरों और कस्बों में भी काजी लोग न्याय प्रदान करते थे। काजी की अदालतों में धर्मिक विवाद तथा दीवानी मामले प्रस्तुत किये जाते थे। प्रथम न्यायालय में काजी शरीयत के अनुसार न्याय करता था। उसके सामने कुल विधि, आनुवंशिक सम्बन्धी झगड़े, धार्मिक संस्था के पूँजी सम्बन्धी विवाद आदि प्रस्तुत किये जाते थे। काजियों की सहायता करने एवं इस्लामी कानूनों की व्याख्या करने के लिये मुफ्तियों को नियुक्त किया जाता था।

(2.) राजकीय अधिकारी: दूसरे प्रकार के न्यायालय बादशाह एवं केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त सूबेदार, फौजदार, शिकदार और कोतवाल आदि अधिकारियों द्वारा चलाये जाते थे। ये लोग सामान्यतः फौजदारी मामलों की सुनवाई करते थे। दीवान, अमल गुजार, आमिल आदि अधिकारी लगान सम्बन्धी मामलों की सुनवाई करते थे।

(3.) उर्फ: तीसरे प्रकार के न्यायालय को उर्फ कहा जाता था। वे राजद्रोहों तथा संगीन अपराधों के सम्बन्ध में निर्णय देते थे।

(4.) जातीय पंचायतें: चौथे प्रकार के न्यायालय गांवों में परम्परागत रूप से चलने वाली वे जातीय पंचायतें थीं जो अलिखित प्रथाओं अथवा जातीय परम्पराओं की विधि संहिता के अनुसार न्याय करती थीं।

हिन्दुओं के लिये न्याय व्यवस्था

अकबर ने हिन्दुओं के परस्पर दीवानी झगड़ों की सुनवाई के लिये हिन्दू पण्डितों को भी न्यायाधीश नियुक्त किया। ये पण्डित हिन्दू कानूनों, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के आधार पर निर्णय करते थे। गाँवों में न्याय करने का उत्तरदायित्व ग्राम पंचायतों का था। शासक भी उनके निर्णयों को सम्मान देते थे। निम्न अदालतों के निर्णय के विरुद्ध उससे ऊपर की अदालत में अपील की जा सकती थी।

मुगलों की न्याय व्यवस्था के दोष

मुगलों की न्याय व्यवस्था में कई दोष थे-

(1.) एक न्यायालय का दूसरे न्यायालय के साथ पारस्परिक सम्बन्ध और अधिकार क्षेत्र स्पष्ट नहीं था।

(2.) मंगोल न्याय व्यवस्था इस्लामी कानून पर आधारित थी किंतु कानूनों की व्याख्या में काफी अन्तर आ जाता था।

(3.) साम्राज्य में प्रचलित नियमों का संग्रह नहीं था। इससे लोगों को कानूनों की पर्याप्त जानकारी नहीं मिल पाती थी।

औरंगजेब के शासनकाल में इन कानूनों को फतवा-ए-आलमगिरी के रूप में संगृहीत कराने का प्रयास किया गया। इस प्रकार मुगलों की न्याय व्यवस्था में न तो न्यायालयों में कोई नियमित श्रेणी बद्धता थी, न ही समुचित विभाजन था और न न्याय की सुव्यवस्थित प्रणाली ही थी।

दण्ड विधान

मुगलों का दण्ड-विधान काफी कठोर था। चोरी, डकैती, हत्या, राजद्रोह, यौन अपराध तथा घूस आदि लेना-देना प्रमुख अपराध थे। गम्भीर अपराधों तथा राजद्रोह के मामलों में प्राणदण्ड, अंग-विच्छेद, सम्पूर्ण सम्पत्ति का अपहरण आदि दण्ड दिये जाते थे। साधारण अपराधों के लिए कोड़ों से पीटने की सजा, सामाजिक दृष्टि से अपमानित करना, आर्थिक जुर्माना आदि सजाएँ दी जाती थीं।

बंदीगृह

मुगलों के शासन काल में आजकल की भाँति बन्दीगृहों की पृथक् व्यवस्था नहीं थी। ग्वालियर, आगरा, हांसी, इलाहाबाद आदि पुराने दुर्गों को बन्दी गृहों के रूप में काम में लिया जाता था। कैदियों का व्यवहार संतोषजनक पाये जाने पर उनको समय के पूर्व ही रिहा कर दिया जाता था। बादशाहों के राज्यारोहण एवं शहजादों के जन्म आदि अवसरों पर भी कैदियों को रिहा करने की परम्परा थी।

मुगल शासन व्यवस्था का मूल्यांकन

मुगलकालीन शासन व्यवस्था का मूल्यांकन करते समय हमें मध्ययुगीन परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिये। उस युग में धार्मिक कट्टरता की प्रधानता थी और कोई भी संस्था उससे अप्रभावित नहीं रह पाई थी। उस युग में यातायात, आवागमन तथा संचार के साधनों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया था। केन्द्रीय सरकार के लिए शासन की प्रांतीय एवं जिला इकाइयों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना सम्भव नहीं था। अनेक इतिहासकारों ने मुगल शासन व्यवस्था को मध्ययुग की श्रेष्ठ शासन व्यवस्था माना है।

दिल्ली सुल्तानों के समय में केन्द्रीय तथा प्रान्तीय स्तर पर शासन के मूलभूत सिद्धान्त व्यवस्थित नहीं हो पाये थे। उन्होंने इस देश में अब्बासिद संस्थाओं को लागू करने का प्रयास किया था परन्तु खलजी और तुगलक शासकों के अलावा अन्य सुल्तानों के समय में इस दिशा में विशेष प्रगति नहीं हो पाई। लोदी शासनकाल में अमीरों में कबीलाई भावना की प्रधानता तथा सुल्तान के साथ उनके समानता के दावे के कारण शासन व्यवस्था शिथिल पड़ गई थी और मुगल बादशाहों को केन्द्रीय शासन को नये सिरे से मजबूत बनाने के लिये नई व्यवस्थाएँ करनी पड़ीं।

बाबर एवं हुमायूँ की शासन व्यवस्था

बाबर और हुमायूँ को केन्द्रीय एवं प्रांतीय शासन व्यवस्था को संगठित करने का समय नहीं मिल सका। वे राज्य के विजेता तो थे किंतु उन दोनों की शासकीय प्रतिभा संदिग्ध है।

अकबर की शासन व्यवस्था

मुगल सल्तनत में शासन व्यवस्था स्थापित करने का श्रेय अकबर को जाता है। अकबर ने सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था विकसित करने के लिये निम्नलिखित नवाचार किये-

(1.) अधिकारियों के कार्यों एवं अधिकारों का विभाजन: अकबर ने प्रशासन की विभिन्न इकाइयों के कार्यों तथा अधिकारों का स्पष्ट विभाजन करके उनके उत्तरदायित्व को स्पष्ट कर दिया।

(2.) अधिकारियों पर दृष्टि रखने की व्यवस्था: अकबर ने विभागीय कार्यों के लिए विभिन्न अधिकारियों को नियुक्त किया तथा प्रत्येक अधिकारी पर दूसरे अधिकारी द्वारा दृष्टि रखने की व्यवस्था लागू की। प्रान्तीय शासन व्यवस्था इसका सबसे अच्छा उदारहण है। इस प्रकार की व्यवस्था से कोई भी पदाधिकारी अपनी गतिविधियों को केन्द्रीय सरकार से अधिक दिनों तक गुप्त नहीं रख सकता था तथा सामान्यतः विद्रोह करने के सम्बन्ध में भी नहीं सोच सकता था।

(3.) मनसबदारी प्रथा: अलाउद्दीन खलजी के समय से घोड़ों को दागने, सैनिकों का हुलिया नोट करने, दशमलव पद्धति के आधार पर सैनिकों का विभाजन करने आदि प्रथाएँ चली आ रही थीं। अकबर ने उन प्रथाओं को विकसित रूप देकर मनसबदारी प्रथा प्रारम्भ की।

(4.) दहसाला बंदोबस्त: शेरशाह के समय में भी राजा टोडरमल ने भू एवं राजस्व सम्बन्धी सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अकबर के सौभाग्य से उसे भी राजा टोडरमल की सेवाएं प्राप्त हो गईं। राजा टोडरमल ने मालगुजारी के क्षेत्र में पर्याप्त सुधार करके दहसाला बंदोबस्त को लागू किया।

जहाँगीर की शासन व्यवस्था

अकबर द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था को उसके उत्तराधिकारियों ने थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ लागू रखा। जहाँगीर ने शासन व्यवस्था में किसी प्रकार का विशेष सुधार नहीं किया। उसके शासनकाल में अकबर की शासन व्यवस्था अपने मूलरूप में कायम रही।

शाहजहाँ की शासन व्यवस्था

शाहजहाँ के समय में भी अकबर कालीन शासन व्यवस्था चलती रही। शाहजहाँ ने शासन व्यवस्था में परिस्थ्तििवश मामूली सुधार किये।

औरंगजेब की शासन व्यवस्था

औरंगजेब इस्लाम का कट्टर अनुयायी था। अतः उसने इस्लामिक सिद्धान्तों को आधार बनाकर शासन व्यवस्था में कई बदलाव किये। शासन से उदारता लुप्त हो गई। हिन्दुओं को प्रजा का दर्जा नहीं दिया गया। उन पर जजिया एवं तीर्थ कर पुनः आरोपित कर दिये गये। हिन्दुओं के तीर्थस्थलों, देवालयों एवं देवमूर्तियों को भंग करना शासन का कर्त्तव्य हो गया।

परवर्ती मुगल शासकों की शासन व्यवस्था

औरंगजेब की मृत्यु के बाद परवर्ती अयोग्य एवं विलासी मुगल शासकों के समय शासन व्यवस्था में धीरे-धीरे इतने दोष उत्पन्न हो गये कि अन्त में मुगल साम्राज्य और मुगलवंश का ही पतन हो गया। फिर भी, मध्ययुग में लम्बे समय तक मुगल शासन व्यवस्था ने भारत को सुरक्षा तथा शान्ति प्रदान की। बाद में अंग्रेजों ने भी उस शासन व्यवस्था की उपादेयता को ध्यान में रखकर उसकी बहुत सी बातों को अपनाया।

अध्याय – 35 : मुगलों की भू एवं भू-राजस्व सम्बन्धी व्यवस्थाएँ

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भारत पर अधिकार स्थापित करने वाले प्रारम्भिक तुर्क सुल्तानों के समक्ष यह समस्या थी कि वे विजित प्रदेशों में इस्लामी भू-राजस्व व्यवस्था को लागू करें अथवा भारत की प्राचीन भू-राजस्व व्यवस्था को जारी रखें या दोनों का समन्वय कर एक नई व्यवस्था बनायें! तत्कालीन परिस्थितियों में अन्तिम विकल्प ही उचित प्रतीत हुआ और उन्होंने भारतीय तथा इस्लामिक व्यवस्था को मिलाकर नयी व्यवस्था स्थापित की। इस व्यवस्था में हिन्दू और मुस्लिम कृषकों के लिये अलग-अलग भू-राजस्व की दरें निर्धारित की गईं।

दिल्ली सुल्तानों की नीति

दिल्ली सल्तनत की आय का सबसे बड़ा साधन भूमि-कर (लगान) था। मुस्लिम उलेमाओं ने भूमि को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा हैं- (1) उशरी, (2) खराजी, और (3) सुल्ही। उशरी भूमि मोटे तौर पर वह भूमि थी जो मुसलमानों के अधिकार में थी। खराजी वह भूमि थी जिस पर गैर-मुस्लिमों द्वारा काश्त की जाती थी। संधि के अंतर्गत प्राप्त होने वाली भूमि सुल्ही कहलाती थी। दिल्ली के सुल्तानों के पास सुल्ही भूमि नहीं थी। उशरी और खराजी भूमियां उपज के आधार पर पाँच श्रेणियों में विभक्त थीं। उशरी भूमि से उपज का 1/10वाँ भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था परन्तु यदि कृत्रिम साधनों से भूमि की सिंचाई की गई हो तो केवल 1/20 वाँ भाग ही वसूल किया जाता था। खराजी भूमि पर 1/2 से 1/5वाँ भाग तक लगान के रूप में वसूल किया जाता था। लगान नकद अथवा जिन्स, दोनों रूप में दिया जा सकता था।

बाबर और हुमायूँ की नीति

पानीपत के युद्ध के पश्चात् बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली और एक विशाल क्षेत्र को अपने अधीन किया। उसने राजनीतिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करते हुए अफगानों के स्थान पर मुगल, चगताई एवं मिर्जा अमीरों को प्रांतीय शासक बनाया। सल्तनत की समस्त बड़ी जागीरें उन्हें सौंप दी गईं किंतु बाबर ने देश की प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव करना उचित नहीं समझा। उसने लोदियों के समय में लागू मालगुजारी व्यवस्था को ज्यों का त्यों जारी रखा। मुगल अमीरों को दी गई जागीरों की आय से बाबर को एक निश्चित रकम वार्षिक कर के रूप में मिलने लगी। जिन प्रान्तों में खालसा भूमि की घोषणा की गई, वहाँ बाबर ने मालगुजारी वसूलने के लिए शिकदारों की नियुक्ति की। बाबर ने कुछ क्षेत्रों पर स्थानीय जमींदारों की सहायता से भी शासन किया। उसने इन जमींदारों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। इसलिए ये जमींदार भी वार्षिक कर देते रहे।

हुमायूँ के शासनकाल में भू-राजस्व सम्बन्धी सुधार किये गये। सिकन्दरीगज को 41 से बढ़ाकर 42 कर दिया गया। उसके समय में एक खखार (आठ मन से कुछ अधिक) अनाज पर दो बाबरी तथा चार टंक कर लिया जाता था। कुछ विद्वानों का मत है कि हुमाँयू के समय में अकबर के समय से कम लगान लिया जाता था।

शेरशाह की लगान व्यवस्था

शेरशाह ने सल्तनत की समस्त भूमि की नपाई करवाकर प्रत्येक श्रेणी की भूमि का क्षेत्रफल एक रजिस्टर में दर्ज करवाया। भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया- उत्तम, मध्यम, और निम्न। इन तीनों श्रेणियों की भूमि की उपज को जोड़कर, तीन से विभाजित कर प्रति बीघा भूमि की औसत पैदावार निकाली जाती थी। पैदावार का एक तिहाई हिस्सा लगान के रूप में लिया जाता था। किसानों को स्वतंत्रता थी कि वे लगान अनाज अथवा नकदी के रूप मे दें। प्रत्येक किसान को उसकी भूमि का पट्टा दिया जाता था जिसमें किसान की भूमि के क्षेत्रफल, भूमि की स्थिति और किसान द्वारा अदा किया जाने वाला लगान दर्ज होता था। प्रत्येक किसान को कबूलियत नामक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे, जिसमें किसान लगान के नियमों को स्वीकार करता था। भूमि-कर के अलावा किसानों से अन्य कर भी लिये जाते थे।

अकबर के भू-राजस्व सम्बन्धी प्रयोग

मुगलों की लगान व्यवस्था का ढाँचा मूल रूप में अकबर द्वारा किये गये प्रयोगों तथा सुधारों पर आधारित था। अकबर ने आरम्भ में शेरशाह द्वारा निर्धारित अनाज की दरें अपनायीं और इनको नकदी में बदल दिया। यह व्यवस्था असन्तोषजनक सिद्ध हुई। इसके निम्नलिखित कारण थे-

(1.) शेरशाह द्वारा स्थापित भूमि प्रबन्ध अस्त-व्यस्त हो चुका था। हुमायूँ ने दुबारा तख्त प्राप्त होते ही अपने विशाल क्षेत्रों को अपने अमीरों और अधिकारियों में बाँट दिया था परन्तु खालसा भूमि और जागीरी भूमि की स्पष्ट हदबन्दी न होने से अव्यवस्था फैली हुई थी।

(2.) लगान व्यवस्था दोषपूर्ण थी। केन्द्रीय सरकार प्रतिवर्ष उपज एवं परगनों में प्रचलित मूल्य के आधार पर लगान वसूल करती थी। उपज और मूल्यों में परिवर्तन के कारण सरकारी माँग की दर भी बदलती रहती थी। जब तक दर का निर्धारण नहीं हो जाता था तब तक लगान की वसूली भी नहीं हो पाती थी। किसान इस अनिश्चयपूर्ण स्थिति से परेशान थे।

(3.) उपर्युक्त प्रक्रिया के कारण लगान वसूली में काफी विलम्ब हो जाता था। इससे बकाया रकम भी चढ़ जाती थी जिसे वसूल करना कठिन कार्य था।

(4.) उपज और मूल्य का प्रतिवर्ष पता लगाने में सरकार का काफी धन अपव्यय हो जाता था।

(5.) जल्दबाजी में एकत्र की गई सूचनाएँ पूर्णतः विश्वसनीय नहीं होती थीं।

(6.) अमीरों और अधिकारियों को प्रसन्न करने रखने की दृष्टि से उन्हें दी जाने वाली जागीरों की आय को वास्तविक आय से काफी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता था।

अकबर द्वारा किये गये सुधार

उपर्युक्त दोषों से खिन्न होकर अकबर ने राज्य की अर्थव्यवस्था और लगान व्यवस्था को सुधारने के लिये अनेक उपाय किये। 1560 ई. में अकबर ने ख्वाजा अब्दुल मजीद को आसफखाँ की उपाधि देकर भूमि व्यवस्था को संगठित करने के लिए नियुक्त किया परन्तु वह इस काम के लिए सर्वथा अयोग्य सिद्ध हुआ। उसने जागीरों से प्राप्त होने वाली आय के काल्पनिक आँकड़े लिख डाले। उसके इस कृत्य से सरकार, जागीरदारों और प्रजा की हानि हुई। इस पर उसने एतमाद खाँ को वित्तमंत्री नियुक्त किया जो बहलोल मलिक के नाम से भी जाना जाता है।

एतमादखाँ (बहलोल मलिक) के सुधार: 1563 ई. में एतमादखाँ (बहलोल मलिक) को वित्त मंत्री नियुक्त किया गया। एतमादखाँ ने लगान व्यस्था सुधारने के लिये कई उपाय किये-

(1.) शाही भूमि (खालसा) को जागीरी भूमि से अलग किया।

(2.) सिक्कों को मोहर लगी कीमत के अनुसार मंजूर करने का आदेश दिया।

(3.) वित्तीय विभाग तथा खजाने का पुनर्गठन किया।

(4.) खालसा भूमि को इस प्रकार से बाँटा कि प्रत्येक इकाई से एक करोड़ दाम (2.5 लाख रुपया) वसूल हो।

(5.) प्रत्येक इकाई पर करोड़ी नामक अधिकारी नियुक्त किया और उसकी सहायता के लिए बितक्ची तथा एक खजांची रखा गया। इन समस्त अधिकारियों का काम मालगुजारी वसूल करके सरकारी खजाने में जमा कराने का था।

एतमादखाँ द्वारा किये गये उपाय सफल रहे। अबुल फजल ने लिखा है कि इन सुधारों से गबन करना सम्भव नहीं रहा। बदायूँनी के अनुसार इन सुधारों से सरकारी खर्च में काफी कमी आ गई। फिर भी, अभी तक भूमि की उपज का वास्तविक अनुमान लगाने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया।

मुजफ्फरखाँ के सुधार: 1564 ई. में मुजफ्फरखाँ को दीवान नियुक्त किया गया और राजा टोडरमल को उसका सहायक नियुक्त किया गया। डॉ. त्रिपाठी ने लिखा है- ‘मुजफ्फरखाँ, आसफखाँ (भूतपूर्व वित्त मंत्री) के फर्जी आँकड़ों से बहुत परेशान हुआ। उसने रजिस्टरों तथा स्थानीय कानूनगो अधिकारियों से वास्तविक उपज के आँकड़े जमा करने के लिए 10 कानूनगो नियुक्त किये। इन आँकड़ों के आधार पर मालगुजारी का जमाय हाल हासिल नामक नया खाता बना। यह खाता भी बहुत विश्वसनीय नहीं था क्योंकि वह स्थानीय कानूनगो द्वारा लोगों की इधर-उधर से सुनी सूचनाओं पर आधारित था जो स्वयं ही विश्वसनीय नहीं थे। इसके अलावा एक मुख्य दोष यह था कि सम्पूर्ण राज्य में लगान भुगतान की दर तो एक समान थी परन्तु विभिन्न सूबों में अनाज के भाव एक समान नहीं थे। इससे उन सूबों के किसानों को काफी हानि उठानी पड़ती थी जहाँ अनाज के भाव सस्ते थे। इस दोष को दूर करने के लिए मुजफ्फरखाँ ने आदेश दिये कि फसल तैयार होने पर अनाज के स्थानीय भाव राज्य को भेजे जायें और राज्य की स्वीकृति मिलने के बाद उन्हीं दरों के हिसाब से लगान वसूल किया जाय। इससे थोड़ा-बहुत सुधार हुआ।

अकबर ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष (1568-69 ई.) में शहाबुद्दीन अहमदखाँ को दीवान नियुक्त किया। नये दीवान ने अनुभव किया कि प्रतिवर्ष उपज और बाजार भाव के आंकड़े जमा करना खर्चीला और दोषपूर्ण होने के साथ साम्राज्य विस्तार होते रहने के कारण असम्भव भी होने लगा है। अतः उसने प्रतिवर्ष मालगुजारी की रकम नियत की जानी बन्द कर दी और नस्क प्रणाली चालू की जिससे सरकार और जमींदार या भूमि के स्वामी के मध्य पारस्परिक बन्दोबस्त की व्यवस्था हुई। यह एक प्रकार की ठेकेदारी थी तथा सन्तोषप्रद नहीं थी। 1570-71 ई. में मुजफ्फर खाँ को पुनः वित्त मंत्री नियुक्त किया गया और उसने तुरन्त मालगुजारी को ‘नापें और उर्वरा शक्ति’ के आधार पर नियत करने का निर्णय लिया।

टोडरमल का बन्दोबस्त: 1573 ई. में गुजरात विजय के पश्चात् अकबर ने टोडरमल को वहाँ की राजस्व व्यवस्था में सुधार करने भेजा। टोडरमल ने गुजरात में भूमि की पैमाइश करवाई तथा उसका वर्गीकरण करके लगान निश्चित किया। किसानों को यह विकल्प दिया गया कि वे अनाज के रूप में या नकद रुपयों में लगान अदा करें। कुल उपज का मूल्य बाजार भाव से लगाकर उस पर लगान वसूल किया जाता था। टोडरमल ने भ्रष्ट कर्मचारियों को कठोर दण्ड दिये। गुजरात के बन्दोबस्त के आधार पर ही फिर टोडरमल ने सम्पूर्ण साम्राज्य का बन्दोबस्त किया। उसने 1579-80 ई. में सम्पूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में विभाजित किया और प्रत्येक सूबे को अनेक सरकारों में बाँट दिया गया। टोडरमल ने जो व्यवस्था स्थापित की उसे टोडरमल का बन्दोबस्त कहा जाता है। इस बन्दोबस्त की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं-

(1.) भूमि की पैमाइश: सर्वप्रथम 1570-71 ई. से 1579-80 ई. तक की औसत वार्षिक आय का ब्यौरा तैयार किया गया। तत्पश्चात् किसी भूमि के क्षेत्रफल पर उत्पादित फसल के आधार पर लगान का निश्चय किया गया। अतः समस्त भूमि की पैमाइश करवाई गयी। टोडरमल ने शेरशाह के समय से प्रचलित भूमि नापने के लिए रस्सी का प्रयोग त्याग दिया और उसके स्थान पर सात गज लम्बी जरीब (बांॅसांे में लोहे के छल्ले ढलवाकर) द्वारा भूमि की पैमाइश करवाई। इस नाप को पटवारियों के पास लिखवा दिया गया और उसकी एक प्रति माल विभाग में रख ली गयी। 60 गज लम्बी एवं 60 गज चौड़ी भूमि को एक बीघा जमीन माना गया।

(2.) भूमि का वर्गीकरण: भूमि की उर्वरक शक्ति के आधार पर भूमि को चार श्रेणियों में बाँटा गया- (1) पोलज: यह सबसे अधिक उपजाऊ होती थी तथा इसमें एक ही साल में दो फसलें बोयी जाती थीं। (2) पड़ौती: यह पोलज से कम उपजाऊ होती थी तथा इसकी उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिए इसे एक या दो वर्ष खाली छोड़ा जाता था। (3) चाचर: यह बहुत कम उपजाऊ होती थी तथा तीन-चार वर्ष तक खाली छोड़ने के पश्चात् एक बार बोयी जाती थी। (4) बंजर: यह अनउपजाऊ भूमि थी जिसे पाँच वर्ष या इससे भी अधिक समय तक बिना काश्त के छोड़ दिया जाता था।

(3.) कर निर्धारण: 1580 ई. में आइने-दहसाला या दस-साल बन्दोबस्त लागू हुआ जिसमें भूमि की नाप-जोख और वर्गीकरण के अतिरिक्त कर-निर्धारण एवं वसूली के लिए विस्तृत नियमों का उल्लेख किया गया था। कर-निर्धारण के लिए प्रत्येक वर्ग की भूमि (बंजर को छोड़कर) को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। तीनों प्रकार की भूमि की औसत पैदावार निकाली जाती थी, जो प्रत्येक प्रकार की भूमि की स्टेण्डर्ड पैदावार समझी जाती थी। पिछले दस वर्षों की पैदावार के आधार पर प्रत्येक फसल की प्रति बीघा पैदावार का औसत निकाला जाता था और औसत पैदावार का एक-तिहाई भाग लगान के रूप में वसूल किया जाता था। कर निर्धारण के लिए फसलों की किस्म को भी ध्यान में रखा जाता था। अबुल फजल ने लिखा है- ‘प्रत्येक परगने की पिछले दस साल की उपज और प्रचलित कीमतों को इकट्ठा किया गया और उसके दसवें भाग को वार्षिक मालगुजारी के रूप में निश्चित कर दिया गया।’ अनुमान होता है कि मालगुजारी के रूप में उपज का दसवां भाग जमींदार द्वारा केन्द्र सरकार को देने के लिये निश्चित किया गया था क्योंकि किसानों को अपनी उपज का एक तिहाई से आधा हिस्सा तक जमींदार को मालगुजारी के रूप में देना पड़ता था।

(4.) कर वसूली: अकबर भूमि कर नकदी के रूप में वसूल करना पसन्द करता था। इसलिए उसने सूबोें में विभिन्न हलकों के लिए अनाज की नकद दर सूचियाँ तैयार करवायीं। इसके लिए प्रतिवर्ष फसल तैयार होने पर बाजार भाव का पता लगा लिया जाता था। बाजार भाव के आधार पर एक दर स्वीकृत करके इसकी सूचना राजस्व विभाग के कर्मचारियों को दे दी जाती थी। भविष्य में करों को घटाने-बढ़ाने के लिए सरकार प्रतिवर्ष उपज और फसल के मूल्य का ब्यौरा रखती थी। अकबर की इस व्यवस्था को रैयतवाड़ी प्रथा भी कहते हैं, क्योंकि जो किसान भूमि जोतता था, वही कर देता था। यह व्यवस्था अधिक सफल नहीं हुई। अकबर का कर-निर्धारण भी अत्यन्त सख्त था।

आइने अकबरी में लगान वसूली की तीन विधियाँ बताई गई हैं- (1) गल्लाबख्श अथवा बँटाई, नस्क अथवा कनकूत। (2) जब्ती और (3) नकदी। गल्लाबख्शी में जब फसल कट जाती थी तब अनाज को देखकर राजय सरकार और किसान का अलग-अलग भाग निश्चित कर बाँट लिया जाता था। नस्क के अन्तर्गत सारे ग्राम की फसल का अनुमान लगा कर उसके लिए एक साथ ही भूमि-कर निर्धारित कर दिया जाता था। गाँव का मुखिया अपनी इच्छानुसार कृषकों से भूमि-कर वसूल कर सकता था। जब्ती में भूमि का सर्वेक्षण, मालगुजारी निश्चित करने के लिए दस्तूरूल अमल का प्रवर्तन और जब्ती खसरे की तैयारी प्रमुख आधार था। अलग-अलग परगनों में अलग-अलग विधियाँ प्रचलित थीं, किन्तु अधिंकाशतः बँटाई प्रथा प्रचलित थी जिसके अनुसार खलिहान में अनाज का ढेर लगाने के बाद सरकार अपना हिस्सा तुलवाकर ले लेती थी। कभी-कभी भूमि-कर अधिक होने से किसान लगान नहीं दे पाता था और सख्ती के बाद भी सफलता नहीं मिलती थी। अतः प्रतिवर्ष सरकार को कर में छूट देनी पड़ती थी।

यद्यपि अकबर की राजस्व व्यवस्था पूर्णतः संतोषप्रद नहीं मानी जा सकती, फिर भी उसने भारतीयों को राजस्व की एक ऐसी प्रणाली प्रदान की जो न केवल स्थायी थी, अपितु लोगों की समझ में भी सरलता से आ जाती थी। अबुल फजल ने टोडरमल के इन सुधारों की प्रशंसा की है जबकि बदायूँनी ने इनकी आलोचना की है। वस्तुतः इसमें कुछ दोष थे। मालगुजारी की दर मध्यम श्रेणी के किसानों के लिए बोझिल थी क्योंकि भूमि के वर्गीकरण तथा उपज की तालिका के आधार पर औसत निकाल कर वसूली की जाती थी। ऐसी स्थिति में जिन किसानों के पास दूसरी और तीसरी श्रेणी की भूमि थी, उन्हें तुलनात्मक आधार पर प्रथम श्रेणी के किसानों से अधिक मालगुजारी देनी पड़ती थी। कुल मिलाकर उसकी व्यवस्था उत्तम थी।

अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था के दोष: स्मिथ और मोरलैण्ड आदि विद्वानों ने अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था की प्रशंसा की है। फिर भी मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था दोषमुक्त नहीं थी। इस व्यवस्था के नियम केवल खालसा भूमि पर ही सख्ती के साथ लागू किये जाते थे और खालसा भूमि का क्षेत्र काफी कम था। अधिकतर भूमि जमींदारी, जागीरदारी आदि के रूप में थी और वहाँ इन नियमों का अमल नहीं होता था। दूसरा प्रमुख दोष भूमि के वर्गीकरण के आधार पर उपज की तालिका में औसत निकालकर मालगुजारी वसूल करना था। इससे मध्यम एवं निम्न श्रेणी की भूमि वाले किसानों को अधिक लगान देना पड़ता था। राजकीय अधिकारी किसानों से लगान के साथ अनेक गैर-स्वीकृत कर भी वसूल करते थे। उन्हें रोकने के लिये विशेष प्रयत्न नहीं किया गया था।

जहाँगीर के समय में लगान व्यवस्था

जहाँगीर के समय में अकबर की लगान व्यवस्था बिना किसी विशेष परिवर्तन के जारी रही परन्तु उसका प्रबन्धन शिथिल पड़ गया। जागीरदारों के अधिकारों में वृद्धि हो गयी और किसानों की स्थिति खराब होने लगी जिससे राज्य की आय में कमी आने लग गई।

शाहजहाँ के समय में लगान व्यवस्था

शाहजहाँ के शासनकाल में भू-राजस्व व्यवस्था में और गिरावट आई। उसके शासनकाल में राज्य की 70 प्रतिशत भूमि जागीरदारों को दे दी गयी जिससे राज्य का जागीरी किसानों से सम्पर्क टूट गया। लगान की दर में वृद्धि कर दी गई। अब 33 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक लगान लिया जाने लगा। शाहजहाँ के समय में लगान वसूली का काम ठेके पर देने की प्रथा आरम्भ हुई। ठेकेदारी प्रथा से किसानों को काफी क्षति पहुँची क्योंकि ठेकेदार नियम से अधिक लगान वसूल करते थे।

औरंगजेब के समय में लगान व्यवस्था

औरंगजेब के समय उपर्युक्त समस्त दोष तो कायम रहे ही, साथ ही लगान वसूली में कठोरता बरती जाने लगी और किसानों से उनकी सम्पूर्ण भूमि से लगान लिया जाने लगा, चाहे सम्पूर्ण भूमि पर खेती की गयी हो अथवा नहीं। इससे किसानों की स्थिति शोचनीय हो गई।

औरंगजेब के बाद भू-राजस्व व्यवस्था

औरंगजेब के बाद मुगल शासन की भू-राजस्व व्यवस्था बुरी तरह से लड़खड़ा गई। अब भूमि को ठेकेदारों को देने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं किया गया। इससे राज्य की आर्थिक व्यवस्था बुरी तरह बिगड़ गई।

मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था का मूल्यांकन

मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था को ठोस आधार प्रदान करने का श्रेय अकबर को है। उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ उसके उत्तराधिकारियों के काल में भी बनी रही। अकबर के शासनकाल में एक तरफ तो कृषि भूमि के क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयास किया गया और दूसरी तरफ किसानों को अच्छी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इस सम्बन्ध में उन्हें उचित सुविधाएँ भी दी गईं। भूमि की पैमाइश के माप गज, बिस्वा और बीघा में निश्चित किये गये। भूमि की पैमाइश के लिए बाँस के टुकड़ों को लोहे के कड़ों से जोड़कर जरीब बनाई गई। भूमि का वर्गीकरण किया गया। मालगुजारी वसूल करने वाले अधिकारियों को निर्धारित मात्रा से अधिक कर वसूल नहीं करने के आदेश दिये गये। पट्टा तथा कबूलियत के द्वारा किसान के अधिकारों को सुरक्षित किया गया और देय मालगुजारी को निश्चित किया गया। किसान को जब्ती, बँटाई अथवा नस्क में से किसी एक प्रथा को चुनने का विकल्प दिया गया। अकबर को मालगुजारी नकद में लेना पसन्द था, फिर भी किसानों को उपज के रूप में मालगुजारी चुकाने की छूट थी। प्राकृतिक प्रकोपों के समय किसान को भू-राजस्व में छूट दी जाती थी और तकाबी ऋण भी दिया जाता था।

किसानों की स्थिति

मुगलकाल में किसानों के भूमि सम्बन्धी अधिकार क्या थे और उनकी आर्थिक स्थिति कैसी थी? इन सवालों पर इतिहासकारों में काफी मतभेद हैं। बर्नियर समस्त भूमि का मालिक बादशाह को बताता है। प्रो. इरफान हबीब के अनुसार भूमि का स्वामी न तो बादशाह ही था और न किसान। कुछ परिस्थितियों में उसका अधिकार मिलकियत का था, पर सामान्य रूप से किसान न तो अपनी भूमि से अलग हो सकता था और न उसे बेच सकता था। किसान यदि भूमि छोड़कर चला जाता तो सरकारी कर्मचारी उसे समझा-बुझाकर वापस ले आते थे। डॉ. सिद्दीकी का यह भी मानना है कि उस युग में किसान इच्छाहीन किरायेदार नहीं था क्योंकि वह कुछ समझौते और प्रतिबन्धों के अनुसार खेती करता था। किसान जो भूमि-कर चुकाता था उसका विवरण सरकारी लेखों में स्पष्ट था। यद्यपि किसानों को जमीन बेचने अथवा बन्धक रखने का अधिकार नहीं था, किसानों का एक वर्ग मोरूसी कहलाता था जो भूमि को बेचने एवं बंधक रखने के अधिकारों का दावा करता था। अधिकांश विद्वानों का मत है कि सामान्यतः किसानों को अपनी भूमि से बेदखल नहीं किया जाता था और उनके वंशजों को उनके खेतों पर उत्तराधिकार का हक होता था। किसानों का एक वर्ग ऐसा भी था जो जमींदारों की अनुमति से उनकी भूमि पर खेती करता था। ऐसे किसानों को बेदखल भी किया जा सकता था। जिन किसानों को पट्टा और कबूलियत का लाभ मिला हुआ था, उनको कम शोषण और यंत्रण का सामना करना पड़ता था।

जहाँ तक किसानों की आर्थिक स्थिति का प्रश्न है उन्हें अपनी पैदावार का एक-तिहाई से लेकर आधा हिस्सा तक भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। भूमि-कर के अलावा उन्हें चुँगियों और अनुलाभों के रूप में भी कुछ चुकाना पड़ता था। उन्हें जमींदारों और जागीरदारों द्वारा सरकार को चुकाये जाने वाले करों का कुछ बोझ भी सहन करना पड़ता था। फिर भी, डॉ. सिद्दीकी का मत है कि मुगलकाल में किसान खुशहाल थे क्यांेकि आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ सस्ती थीं और सरलता से उपलब्ध होती जाती थीं। अन्य इतिहासकार उनके मत से सहमत नहीं हैं क्योंकि अधिक लगान एवं अधिकारियों की लूटखसोट के कारण किसानों की दशा अत्यंत शोचनीय थी। औरंगजेब के शासनकाल में तो वे जैसे-तैसे अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। पैलसर्ट ने लिखा है कि किसानों की स्थिति बहुत खराब थी। उनके भाग्य में केवल दुःखों और विपत्तियों का स्थान था।

अध्याय – 36 : मुगलों की मनसबदारी प्रथा

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मनसब प्रथा की आवश्यकता

अकबर के शासन के आरम्भिक वर्षों में शाही सेना में मंगोल, तुर्क, उजबेग, अफगान तथा ईरानी आदि विदेशी सैनिकों की भरमार थी। सैनिक दलों के मुखिया भी उसी जाति के होते थे। इन अधिकारियों को अपनी तथा अपने सैनिकों की सेवाओं के बदले में जागीरें प्रदान की जाती थीं। हुमायूँ के विलासी स्वभाव के कारण शासन में शिथिलता आ गई। इस कारण उसके शासनकाल में सैन्य अधिकारी केन्द्रीय सत्ता के पूर्ण नियंत्रण में नहीं रहे। उन्होंने जागीरोें के अनुरूप निर्धारित संख्या में सैनिक रखने भी बन्द कर दिये। इससे मुगलों की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई। ये सैनिक अधिकारी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये गैर-कानूनी काम तथा धोखाधड़ी भी करने लगे। वे सैन्य व्यवस्था में किसी भी प्रकार के सुधार का हमेशा विरोध करते थे। अकबर सैनिक सत्ता का केन्द्रीयकरण करना चाहता था ताकि अनियंत्रित सैन्य अधिकारियों पर अंकुश लगाया जा सके और सैनिक सत्ता सही अर्थों में बादशाह के हाथों में आ जाय। मनसबदारी प्रथा अकबर की इसी विचारधारा का परिणाम था।

मनसब का अर्थ

अकबर द्वारा आरम्भ की गई मनसबदारी प्रथा मुगल व्यवस्था की एक चारित्रिक विशेषता थी। मनसब एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है- ‘निश्चित स्थान’। मनसबदारी प्रथा का उद्देश्य साम्राज्य के अधिकारियों में एक क्रमानुसार पद व्यवस्था स्थापित करना था। साम्राज्य के समस्त अधिकारियों एवं कर्मचारियों की भर्ती सैनिक अधिकारी के रूप में की जाती थी, चाहे उनका काम कुछ भी हो। उनका पद एवं वेतन का निश्चय और शासन तथा दरबार में उनकी श्रेणी एवं मर्यादा का निर्धारण उनके मनसब के आधार पर तय होता था। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने मनसबदारों को मनसब दहववाशी (10 के नायक) से दस हजारी (10,000 सैनिकों का अधिकारी) तक निर्धारित कर दिये परन्तु 5,000 से ऊपर के मनसब अपने श्रेष्ठ पुत्रों के लिये आरक्षित कर दिये। 1585 ई. में मनसब की सर्वोच्च सीमा को बढ़ाकर 12,000 कर दिया गया और अमीरों को 7,000 तक के मनसब दिये जाने लगे। 1605 ई. में राजा मानसिंह को 7,000 जात एवं 6,000 सवार का मनसब दिया गया।

मनसबदारों की किस्में

मनसबदार दो किस्म के थे- स्थायी और अस्थायी। स्थायी मनसब को गैर-मश्रूत कहा जाता था। इस किस्म के मनसबदार जीवनपर्यन्त अपने पद का उपभोग करते थे। परन्तु बादशाह इसमें रद्दोबदल कर सकता था। अस्थायी मनसब को मश्रूत कहा जाता था। यह मनसब किसी विशेष कार्य की पूर्ति तक के लिये प्रदान किया जाता था। कार्य की समाप्ति के साथ ही मनसब भी समाप्त हो जाता था। कई बार स्थायी मनसबदारों को अतिरिक्त कार्य के लिए मश्रूत प्रदान किया जाता था। कार्य समाप्ति के बाद यह समाप्त हो जाता था परन्तु गैर-मश्रूत यथावत् बना रहता था।

मनसबदारों की श्रेणियाँ

मनसबदारों की तीन श्रेणियाँ थीं- (1) मनसबदार, (2) अमीर और (3) उमरा-ए-आजम।

(1.) मनसबदार: एक विशेष पद अथवा कोटि से निम्न अधिकारियों को मनसबदार कहा जाता था।

(2.) अमीर: प्रारंभ में 200 अश्वारोहियों से ऊपर के अधिकारियों को अमीर की श्रेणी में रखा गया। बाद में इस सीमा को बढ़ाकर 500 अश्वारोही कर दिया गया। औरंगजेब ने इस सीमा को बढ़ाकर 1000 कर दिया।

(3.) उमरा-ए-आजम: उमरा-ए-आजम के अन्तर्गत अश्वारोहियों की ठीक संख्या बताना कठिन है क्यांेकि यह सीमा लगातार घटती-बढ़ती रही। इतिहासकारों का मानना है कि 3,000 अथवा उससे ऊपर के जात वाले अमीरों को ‘उमरा-ए-आजम’ (अथवा अमीर-ए-आजम) कहा जाता था। जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में यह सीमा बनी रही परन्तु औरंगजेब ने इसको घटाकर 2,000 जात कर दिया। 1682 ई. में इस सीमा को और कम करके 1,500 कर दिया गया। मनसबदारों के लिए अपने मनसब के हिसाब से सैनिक तथा पशु रखना आवश्यक नहीं था परन्तु उन्हें अपने अधीन अपनी मनसब की संख्या के एक निश्चित भाग तक सैनिक अवश्य रखने पड़ते थे। वस्तुतः ऐसा करके अकबर सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोड़ों सम्बन्धी धोखाधड़ी को समाप्त कर देना चाहता था।

मनसबदारों की नियुक्ति

मनसबदारों की नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी। उनकी पदोन्नति अथवा पदावनति बादशाह की प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता पर निर्भर थी। सामान्यतः बादशाह शुभ अवसरों पर या सैनिक अभियान के आरम्भ में अथवा अंत में मनसबदारों के मनसब में वृद्धि करता था परन्तु ऐसा करना बादशाह के लिए अनिवार्य नहीं था। 1505 ई. में जब राजा टोडरमल बंगाल के सफल अभियान से वापस लौटा तब बादशाह ने उपहार आदि देकर उसका सम्मान तो किया परन्तु उसके मनसब में वृद्धि नहीं की। अबुल फजल के अनुसार मनसबदारों की नियुक्ति सामान्यतः प्रतिदिन होती रहती थी और सम्भवतः ही कोई दिन जाता हो जब किसी को मनसब प्रदान न किया जाता हो अथवा किसी के मनसब में वृद्धि न होती हो। मनसब के उम्मीदवार बख्शी द्वारा बादशाह के सन्मुख प्रस्तुत किये जाते थे और उसकी स्वीकृति के बाद उसकी नियुक्ति का परवाना जारी किया जाता था।

जात और सवार मनसब

1594 ई. में अकबर ने सवार पद आरम्भ किया। इससे पूर्व मनसब के लिये केवल जात शब्द का प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक मनसबदार से यह आशा की जाती थी कि वह अपने मनसब के अनुरूप अश्वारोही सैनिक रखेगा और इसी हिसाब से उसको जागीर भी दी जाती थी परन्तु व्यावहारिक रूप में मनसबदार मनसब के अनुरूप अश्वारोही सैनिक को रखे बिना ही उतने सैनिकों के वेतन तथा जागीर का उपभोग करते रहते थे। इस भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए मनसबदारों के मनसब में जात और सवार पद का उल्लेख किया जाने लगा। स्पष्ट है कि जात और सवार शब्द दो अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त किये जाते थे। दुर्भाग्यवश जात और सवार शब्दों की सही व्याख्या अभी तक नहीं हो पाई है। विभिन्न विद्वानों ने इन शब्दों के विभिन्न अर्थ निकाले हैं।

ब्लाकमैन के अनुसार जात सैनिकों की उस संख्या का बोधक था जिसके रखने की आशा मनसबदारों से की जाती थी और सवार मनसब उस संख्या को बताता है जो वास्तव में मनसबदार रखते थे। मनसबदार के वेतन का भुगतान जात संख्या के आधार पर किया जाता था। इरविन के मतानुसार ‘सवार पद’ एक अतिरिक्त सम्मान था और प्राप्तकर्त्ता को जात की संख्या के अतिरिक्त सवार पद से निश्चित सैनिकों को भी रखना पड़ता था। इरविन के मत में सबसे बड़ा दोष तो यह है कि यदि इस मत के आधार पर सैनिकों की गणना करें तो मुगल सेना की संख्या एक अविश्वसनीय अंक तक पहुँच जाती है। डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार सवार मनसब एक अतिरिक्त सम्मान मात्र था और उसमें जितने सवारों का उल्लेख होता, उन्हें रखने का मनसबदार का कोई बन्धन नहीं होता था। अब्दुल अजीज का मत है कि मनसब के अन्तर्गत मनसबदार एक निश्चित संख्या में हाथी, भारवाहक पशु आदि रखता था जबकि सवार मनसब यह बताता था कि उसके पास कितने सैनिक सवार होने चाहिए। सी. एम. के. राव का मत है कि जात पैदल और सवार मनसब घुड़सवारोें की संख्या को बताता था। जात और सवार सम्बन्धी इन विरोधी विचारों के आधार पर इनका सही अर्थ निकालना अत्यधिक कठिन है।

वेतन और भत्ता

मनसबदारों के वेतन का भुगतान नकदी अथवा जागीर के रूप में किया जाता था। कोई जागीर अथवा मनसब वंशानुगत नहीं थी। वैसे बादशाह बड़े मनसबदारों के पुत्रों को मनसब देकर उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करता था परन्तु उन्हें निम्न मनसब ही दिये जाते थे। यदि उनमें प्रतिभा होती तो वे उन्नति करते-करते बड़े मनसबदार बन जाते थे। मनसबदारों को उनके मनसब के अनुसार वेतन दिया जाता था। कई बार मनसबदारों को वेतन के अलावा पुरस्कार स्वरूप धन भी दिया जाता था।

मनसबदारों को अपने समस्त प्रकार के सैनिकों के बदले में जो वेतन मिलता था उसे तलब कहा जाता था। जात पद के लिए जो वेतन मिलता था उसे खासा अथवा घात कहा जाता था। इस वेतन से मनसबदार अपने परिवार का पोषण करता था। सवार पद के लिए जो वेतन मिलता था उसे ताबीनाल कहा जाता था। इसका उपयोग मनसब के अनुरूप रखे जाने वाले घोड़ों, घुड़सवारों, बोझा ढोने वाले पशुओं आदि पर किया जाता था। अबुल फजल के अनुसार प्रथम श्रेणी के 5,000 के मनसबदार को 30,000 रुपये मासिक मिलते थे। इसी प्रकार, प्रथम श्रेणी के 500 के मनसबदार को 2,500 रुपये प्रतिमाह मिलते थे। 10 के मनसबदार को 100 रुपये प्रतिमाह मिलते थे परन्तु तृतीय श्रेणी के 5000, 500 एवं 10 के मनसबदार को क्रमशः 28,000; 2100 एवं 75 रुपये प्रतिमाह मिलते थे। शाहजादों को उनके मनसब की तुलना में कहीं अधिक वेतन मिलता था।

मनसब की श्रेणियाँ

1595 ई. से पूर्व मनसब की अलग-अलग श्रेणियाँ नहीं थी परन्तु 1595 ई. में मनसबदारों को तीन श्रेणियाँ में बाँटा गया। जिस मनसबदार के पास अपनी मनसब की संख्या के बराबर सैनिक होते थे, वह अपने मनसब का प्रथम श्रेणी का मनसबदार कहलाता था। यदि उसके पास सैनिकों की संख्या उसके मनसब की आधी संख्या से अधिक होती थी तो वह दूसरी श्रेणी का और आधी संख्या से भी कम सैनिक रखने वाला तीसरी श्रेणी का मनसबदार कहलाता था। इसी वर्गीकरण के आधार पर उन्हें वेतन भी दिया जाता था। यह आवश्यक नहीं था कि किसी उच्च मनसब प्राप्त मनसबदार को शाही दरबार में भी उच्च पद प्राप्त हो। उदाहरणार्थ, राजा मानसिंह को सात हजार मनसब प्राप्त था किन्तु उसको दरबार में कभी भी मंत्री पद प्राप्त नहीं हो सका जबकि उससे कम मनसब वाला अबुल फजल कई वर्षों तक मंत्री पद पर बना रहा। असैनिक विभागों के अधिकारी सैनिक नहीं रखते थे परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भी सैनिक सेवा देनी पड़ती थी। कोई भी मनसबदार समस्त मुगल सेना का नायक नहीं था। स्वयं बादशाह ही प्रधान सेनापति था। वह अलग-अलग मनसबदारों को विभिन्न अभियानों का मुख्य सेनापति नियुक्त करता था। उसकी सहायता के लिए उससे भी उच्च मनसब वाले मनसबदारों को नियुक्त कर दिया जाता था।

मनसबदारों द्वारा सैनिकों की भर्ती

मनसबदार अपने सैनिकों की भर्ती करने के लिए स्वतंत्र थे तथा प्रत्येक मनसबदार प्रायः अपनी जाति के लोगों को ही अपनी सेना में भर्ती करता था। उन्हें अपने घोड़े तथा व्यवस्था सम्बन्धी अन्य सामान भी स्वयं जुटाना पड़ता था। मीरबख्शी के विभाग द्वारा मनसबदारों के सैनिकों तथा घोड़ों का निरीक्षण किया जाता था। प्रथम निरीक्षण के समय मनसबदार के घोड़ों तथा सैनिकों की जाँच कर उनकी एक सूची बनाई जाती थी और उनके घोड़ों को दागा जाता था। दो प्रकार के दाग लगाये जाते थे। घोड़े के सीधे पुट्ठे पर सरकारी निशान और बायें पुट्ठे पर मनसबदार का निशान दागा जाता था। निरीक्षण के समय सही संख्या में घोड़े तथा सैनिक प्रस्तुत करने वाले मनसबदारों को पदोन्नति जल्दी मिलती थी। मनसबदारों को पुरस्कृत तथा दण्डित करने की भी व्यवस्था थी ताकि उन्हें अनुशासन में रखा जा सके।

जब्ती प्रथा

मनसबदारी से सम्बन्धित जब्ती प्रथा के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। इस प्रथा के अंतर्गत मनसबदार अथवा अमीर की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति को राज्य जब्त कर लेता था। इसका एक कारण तो यह माना जाता है कि मनसबदार हमेशा ही राज्य के ऋणी रहा करते थे और मनसबदार की मृत्यु के बाद राज्य अपने ऋण की वसूली के लिए उसकी सम्पत्ति को कुर्क कर लेता था। दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि राज्य की सेवा में रहते हुए मनसबदार समस्त धन अर्जित करता था। इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति पर राज्य का अधिकार माना जाता था। इस प्रथा के कारण मुगल काल में कुलीन वर्ग का उत्कर्ष नहीं हो सका। मनसबदार के पुत्रों को नये सिर से अपना जीवन आरम्भ करना पड़ता था।

अबुल फजल ने जब्ती प्रथा के बारे में कोई जानकारी नहीं दी है परन्तु इतिहासकारों का मानना है कि अकबर के शासनकाल में भी यह प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित थी तथा यह प्रथा कुछ विशेष परिस्थितियों में ही लागू की जाती थी जैसे कि- (1) यदि किसी मनसबदार का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था (2) यदि उस पर राज्य का बकाया, निकलता था और (3) जागीर का हिसाब साफ किया हुआ नहीं होता था। ऐसी स्थितियों में मनसबदार की सम्पत्ति जब्त कर ली जाती थी परन्तु जिन मनसबदारों के उत्तराधिकारी होते थे, उन्हें मनसबदार की सम्पत्ति में से काफी कुछ दे दिया जाता था। उन्हें कितना हिस्सा दिया जाये, यह बादशाह की इच्छा पर निर्भर करता था। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं थे। बर्नियर ने इस प्रथा को ‘जंगली’ कहा है।

अकबर के बाद मनसबदारी व्यवस्था

अकबर के बाद मनसब की सीमा में तेजी के साथ वृद्धि होती गई। जहाँगीर के शासनकाल में मनसब की सीमा 40,000 तक पहुँच गई। 1617 ई. में शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को 30,000 जात एवं 20,000 सवार तथा शाहजादा परवेज को 20,000 जात एवं 10,000 सवार का मनसब दिया गया। इसी प्रकार, नगरयार को 12,000 जात एवं 8,000 सवार का मनसब मिला। जब शाहजहाँ ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया तब परवेज का मनसब बढ़ाकर 40,000 जात एवं 30,000 सवार कर दिया गया। शाहजहाँ के शासनकाल में मनसबों की सीमा और अधिक बढ़ाने का प्रयास किया गया। दारा शिकोह को 60,000 जात एवं 40,000 सवार का मनसब दिया गया था। शुजा को 20,000 जात एवं 15,000 सवार, औरंगजेब को 20,000 जात एवं 15,000 सवार और मुराद को 15,000 जात एवं 12,000 सवार के मनसब दिये गये। औरंगजेब ने भी अपने पुत्रों को उच्च मनसब दिये। शाहजादा मुअज्जम को 40,000 जात एवं 40,000 सवार, कामबख्श को 40,000 जात एवं 40,000 सवार, मुहम्मद सुल्तान को 20,000 जात एवं 10,000 सवार, मुहम्मद आजम को 20,000 जात एवं 9,000 सवार के मनसब दिये गये। इसी प्रकार, उसने अपने पौत्रों को भी उच्च मनसब प्रदान किये। मनसब की वृद्धि केवल बादशाह के पुत्र-पौत्रों के मनसबों में ही की गई थी। साम्राज्य के किसी भी अमीर को इतने उच्च मनसब नहीं दिये गये थे।

अकबर के बाद मनसबदारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गई। औरंगजेब के समय में तो विशेष वृद्धि हुई। मनसब की सीमा में तो वृद्धि हुई परन्तु मनसबदारों के वेतन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई। उल्टे उनके वेतन तथा भत्ते कम होते गये। शाहजहाँ के समय से ही यह गिरावट आरम्भ हो गई। औरंगजेब के समय में अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाने से स्थिति और भी विकट हो गई। समय पर वेतन चुकाना भी सम्भव नहीं रहा। अकबर के समय में एक साधारण अश्वारोही को 9,600 दाम (240 रुपये) प्रतिवर्ष वेतन मिलता था। जहाँगीर के समय में यही वेतन बना रहा परन्तु शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में तथा औरंगजेब के शासनकाल में 8,000 दाम (200 रुपये) प्रतिवर्ष वेतन दिया जाता था। वेतन में कटौती के साथ रसद-ए-खुराकी में भी कटौती की गई।

मनसबदारी प्रथा की सफलता

जागीरदारी प्रथा के दोषों को दूर करने तथा राजपूतों पर अंकुश रखने के लिए अथवा उनमें प्रतिस्पर्धा की भावना को उत्पन्न कर एक का दूसरे के विरुद्ध उपयोग करने और अपने विद्रोही उमरावों के विरुद्ध कबीला भावना का उपयोग कर उनको दबाने की दृष्टि से अकबर ने जिस मनसबदारी प्रथा का सूत्रपात किया, वह कई दृष्टियों से सफल रही। इससे मनसबदारों में बादशाह के प्रति स्वामिभक्ति और कर्त्तव्यनिष्ठा की भावना भी बढ़ी क्योंकि उनकी पदोन्नति बादशाह की कृपा पर निर्भर करती थी। इस व्यवस्था से योग्य व्यक्तियों को दायित्वपूर्ण काम सौंपने में सरलता हो गई।

मनसबदारी प्रथा के दोष

उपरोक्त समस्त सफलताओं के उपरान्त भी मनसबदारी प्रथा में कुछ जन्मजात दोष थे, जो इस प्रकार थे-

(1.) मनसबदारों को अपने मनसब के अनुसार जो वेतन मिलता था, वे उसका प्रायः दुरुपयोग करते थे। वे लोग साधारण लोगों को फौजी वर्दी पहनाकर और उनके घोड़ों को अपना बताकर सैनिक निरीक्षण के लिए ले जाते थे और उन्हें मुक्त कर उनके वेतन का स्वयं उपभोग करते रहते थे। इरविन ने लिखा है- ‘झूठी सेना संग्रह एक ऐसी बुराई थी जो मुगल सेना में सबसे अधिक पाई जाती थी। इन सबके हिस्से को पूरा करने के लिए मनसबदार एक-दूसरे को अपने सैनिक उधार दे देते थे अथवा बाजार से लोगों को पकड़ कर उन्हें किसी टट्टू पर बैठाकर दूसरों के साथ उनकी भी गिनती योग्य सैनिकों में करा देते थे।’ इस प्रकार, राज्य जितना खर्च करता था, उतनी योग्य एवं शिक्षित सेना उसे नहीं मिल पाती थी।

(2.) मनसबदार के सैनिक, बादशाह की तुलना में अपने मनसबदार के प्रति अधिक स्वामिभक्त होते थे। सैनिकों को भुगतान यद्यपि शाही खजाने से दिया जाता था परन्तु मनसबदार और बादशाह में संघर्ष छिड़ जाने की स्थिति में वे प्रायः मनसबदार के पक्ष से लड़ते थे।

(3.) मनसबदारों को अपने सैनिक भर्ती करने की स्वतंत्रता थी। धीर-धीरे मनसबदारों का नैतिक पतन होता चला गया और सैनिक भर्ती में भ्रष्टाचार को रोकना असम्भव हो गया। मनसबदार को अपने सैनिक दस्ते का नेतृत्व करना पड़ता था, अतः उसे विभिन्न प्रकार के सैनिकों का नेतृत्व करने के अनुभव से वंचित रह जाना पड़ता था।

(4.) मनसबदारों के लिए यद्यपि नियम बनाये गये परन्तु उनको लागू करना बादशाह की इच्छा पर निर्भर था जो किसी भी मनसबदार को ऊँचे मनसब दे सकता था अथवा महत्त्वपूर्ण सैनिक अभियान का प्रधान सेनापति नियुक्त कर सकता था। इससे मनसबदारों में एक-दूसरे के प्रति प्रतिद्वंद्विता एवं द्वेष भावना पनप गई। वे प्रायः शत्रु का मिलकर सामना करने की अपेक्षा आपस में ही एक-दूसरे को नाकामयाब बनाने में लग जाते थे। मनसबदारों के बीच में बढ़ता हुआ द्वेष मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ।

(5.) मनसबदार की मृत्यु के पश्चात उसका मनसब समाप्त हो जाता था और सरकार उसकी सम्पत्ति भी जब्त कर लेती थी। इसलिए प्रत्येक मनसबदार अपने जीवनकाल में ही समस्त धन को खर्च करने का प्रयत्न करता था ताकि मरने पर राज्य को कुछ न मिले। इस मनोवृत्ति ने एक तरफ तो उन्हें अत्यधिक विलासी बना दिया और दूसरी तरफ वे हमेशा कर्ज में डूबे रहने लगे। अनेक मनसबदार तो युद्ध क्षेत्र की ओर कूच करते समय भी अपने साथ अनेक सेवक, नर्तकियाँ और हरम की स्त्रियों को ले जाते थे। इससे सेना की गति बहुत धीमी पड़ जाती थी।

(6.) मनसबदारी व्यवस्था में केन्द्रीयकरण न होने से उसमें एकता की भावना विकसित नहीं हो पाई जो एक राष्ट्रीय सेना के लिए आवश्यक होती है। विभिन्न मनसबदारों के अन्तर्गत विभिन्न सैन्य-दलांे के रख-रखाव और रणकौशल का स्तर भी भिन्न-भिन्न होता था। इसीलिए उनमें अनुशासन एवं योग्यता की समानता नहीं थी।

(7.) मनसबदार अपने सैनिकों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था नहीं करते थे। मुगल बादशाहों ने भी इसके लिए उन पर दबाव नहीं डाला।

मुगल सेना के अन्य दोष

मनसबदारी प्रथा के अलावा मुगलों की सैन्य व्यवस्था में कुछ अन्य दोष भी थे-

(1.) मुगल शासकों ने पैदल सेना की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया। इससे पैदल सेना का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता चला गया।

(2.) मुगलों का तोपखाना समय की रफ्तार से काफी पीछे रह गया। बड़ी-बड़ी तोपों के होते हुए भी अकबर असीरगढ़ जैसे किले पर कोई सक्रिय प्रभाव नहीं डाल सका। शाहजहाँ के समय में कन्धार में मुगल सेना अपनी तोपों के होते हुए भी असफल रही। औरंगजेब के समय में जब मराठों ने छापामार युद्ध पद्धति का सहारा लिया, तब तोपों की रही-सही उपयोगिता भी समाप्त हो गई।

(3.) मुगलों ने नौ-शक्ति की उपेक्षा कर भारतीय समुद्रों का द्वार यूरोपीय राष्ट्रों के लिए खुला छोड़ दिया जिससे यूरोपीय लोग भारत के समुद्र तटों पर ऐसे जम गये कि बाद में उन्हें हटाना असम्भव हो गया।

(4.) मुगल सेना की धीमी गति भी उनका एक मुख्य दोष थी। औरंगजेब के जीवन के अंतिम भाग में मुगल सेना अपनी शक्ति और साख खो बैठी।

अध्याय – 37 : मुगलों की जागीरदारी प्रथा

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राज्य कर्मचारियों को वेतन के बदले जो भूमि दी जाती थी उसे जागीर कहते थे। मुगलकाल से पहले भी इसी प्रकार से वेतन भुगतान की पद्धति के प्रमाण मिलते हैं परन्तु मुगलकाल में यह व्यवस्था अत्यधिक व्यापक थी।

जागीरों के प्रकार

मुगलकाल में कई प्रकार की जागीरें प्रचलन में थीं। यहाँ तक कि मुगलों के राजस्व अभिलेखों में जोधपुर, जयपुर आदि राज्यों के राजाओं को भी जागीरदार कहकर सम्बोधित किया गया है। प्रमुख जागीरों के प्रकार इस प्रकार से थे-

(1.) तनख्वाह जागीर: जब जागीर वेतन के बदले दी जाती थी तो उसे तनख्वाह जागीर कहा जाता था।

(2.) मशरूत जागीर: जब किसी पद प्राप्ति के कारण जागीर प्रदान की जाती थी तो उसे मशरूत जागीर कहा जाता था।

(3.) इनाम जागीर: 1672 ई. में मुहम्मद अमीन खाँ की गुजरात की सूबेदारी के पद पर नियुक्ति के समय पाटन और बैरम गाँव की जागीर उसके पद के साथ मिला दी गई। ऐसी जागीर जिसके लिए कोई अनुबन्ध नहीं होता था, इनाम कही जाती थी।

(4.) वतन जागीर: अकबर ने भारतीय शासकों और जमींदारों को मनसबदार नियुक्त करने की नीति अपनाई थी। उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र के जमा (मालगुजारी) के बराबर मनसब मिलता था। इसके लिए आवश्यक था कि इस वर्ग के पास जितनी भूमि है उसकी आय का अनुमान लगाया जाये। क्योंकि इन क्षेत्रों के सही आँकड़े उपलब्ध नहीं थे, इसलिए केवल अनुमान के आधार पर इनको निश्चित कर दिया गया। यह जागीर वतन जागीर कहलाती थी।

(5.) तनख्वाह जागीर: मनदसबदार को मनसबदार के रूप में जो जागीर प्रदान की जाती थी वह तनख्वाह जागीर के नाम से सम्बोधित की जाती थी। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह को इसी आधार पर मारवाड़ वतन जागीर के रूप में और हिसार तनख्वाह जागीर के रूप में दिया गया था।

(6.) अल-तमगा जागीर: जहाँगीर ने अल-तमगा नामक नई जागीर व्यवस्था आरम्भ की। इस प्रकार की जागीर की स्वीकृति के फरमान पर बादशाह की मोहर लगाई जाती थी, जो सोने के पानी की होती थी। अल-तमगा जागीर का उद्देश्य तथा स्वरूप जहाँगीर ने स्वयं स्पष्ट किया है- ‘यह मेरी इच्छा थी कि अनेक पदाधिकारी अपनी इच्छाओं को पूर्ण होते देख सकें। मैनें बख्शियों को आदेश दिया कि यदि कोई अपनी मातृभूमि को जागीर के रूप में प्राप्त करना चाहे तो वह इसके लिए निवेदन करे जिससे कि चंगेज के नियमों के अनुसार अल-तमगा के अन्तर्गत उसकी जागीर की सम्पत्ति में परिणत कर दिया जाये जिससे कि वह जागीर तबादले की आशंका से मुक्त हो जाये।’ जहाँगीर की इच्छा थी कि यदि वह किन्हीं अधिकारियों को विशेष रूप से अनुग्रहित करना चाहे तो ऐसा करने में कोई असुविधा न हो। मुगलकाल में अल-तमगा जागीर के छुटपुट प्रमाण ही मिलते हैं।

उत्तराधिकार का नियम

मुगल शासक जागीर के सम्बन्ध में पैतृक उत्तराधिकारी को मानते थे परन्तु उसके बाद भी यह उनका अधिकार था कि वे उत्तराधिकारी को चुनें। 1679 ई. में औरंगजेब ने महाराजा जसवन्तसिंह की मृत्यु होने पर जोधपुर की वतन जागीर को खालसा घोषित कर दिया तो परम्परा के विरुद्ध होने के कारण इसका जबरदस्त विरोध हुआ।

जागीरों का प्रबंधन

जागीरदारी प्रथा से किसानों के अधिकारों पर किसी प्रकार की आँच नहीं आती थी और न ही जमींदार किसी प्रकार से इससे प्रभावित होता था। जागीर का पट्टा मिलने पर स्वयं जागीरदार का यह उत्तरदायित्व था कि वह अपनी जागीर से राजस्व एकत्रित करने का प्रबन्ध करे। बड़े-बडे़ जागीरदार इस कार्य के लिए आमिल, अमीन, कानूनगो आदि रखते थे और उन्हीं के द्वारा वे अपनी जागीर से राजस्व एकत्रित करवा लिया करते थे।

इजारेदारी: छोेटे-छोटे जागीरदारों के लिए जागीर के प्रबंधन के लिये विभिन्न कर्मचारियों की नियुक्ति करना कठिन था। इसलिये वे अपनी जागीर इजारे पर देते थे और इजारेदारों से एक निश्चित धनराशि लेते थे। जब जागीरदार की नियुक्ति ऐसे स्थान पर हो जाती थी जो उनकी जागीर से दूर होता था तब जागीर की समुचित व्यवस्था करना सम्भव नहीं होता था। तब भी जागीर इजारे पर दी जाती थी।

पायबाकी: जब कभी एक जागीरदार का निधन हो जाता था अथवा उसकी जागीर की बदली होती थी तो जागीर को तब तक के लिये पुरानी जागीर के दीवान के अधिकार में पायबाकी के रूप में रख दिया जाता था जब तक कि वह दूसरे जागीरदार को न दे दी जाती। इस पायबाकी में से राज्य के अधिकारियों को उस समय कुछ जागीर दे दी जाती थी, जब वे किसी विशेष काम के लिए नियुक्त किये गये हों। ऐसी जागीर को मशरूत जागीर के नाम से पुकारा जाता था।

जागीरदारों पर नियंत्रण

जागीरदार का स्थानांतरण

अकबर के आरम्भिक वर्षों में जागीरदार स्वयं को जागीर का स्थायी स्वामी समझ बैठे थे। अतः अकबर ने उनकी शक्ति कम करने के लिए जागीरदारों को एक जागीर से दूसरी जागीर में स्थानांतरित करने की नीति बनाई किन्तु जागीर के बदलने के कारण जमा (लगान) की राशि में कमी या अधिकता आ जाती थी। इसलिए उसने जागीर से राजस्व वसूल करने का काम सरकारी कर्मचारियों के हाथों में सौंप दिया। 1581-82 ई. में पुनः नकद वेतन देने की प्रथा भी चलाई परन्तु इसका अत्यधिक विरोध हुआ। अतः जागीर व्यवस्था को पुनः लागू कर दिया गया। इसका लाभ यह हुआ कि अब जागीरदार सतर्क हो गये।

जागीरदारों पर अंकुश

मुगल काल में जागीरदार का अपनी जागीर पर पूर्ण अधिकार नहीं होता था। बादशाह का ही उस पर नियंत्रण रहता था। कानूनगो, चौधरी तथा प्रशासन के दूसरे सहयोगी लगान सम्बन्धी नियमों को लागू करते थे तथा फौजदार जागीर में शान्ति व्यवस्था का कार्य करते थे। बादशाह से जागीर की दुर्व्यवस्था के सम्बन्ध में शिकायत की जा सकती थी और ऐसी स्थिति में जागीरदार को दण्डित भी किया जा सकता था। जागीरदार अपनी उन्नति तथा आर्थिक अस्तित्त्व के लिए बादशाह पर निर्भर रहते थे। बादशाह अधिकतर अपने सम्बन्धी या उच्च कुल के लोगों को जागीर देते थे परन्तु नीचे के वंश वालों को जागीर देने पर प्रतिबन्ध नहीं था। इसलिए जागीरदार को यह भय लगा रहता था कि यदि बादशाह ने उनके समक्ष किसी नीचे के वंश वाले को जागीरदार बना दिया तो यह उनके लिए असम्मानजनक होगा।

औरंगजेब के समय जागीर प्रथा में एक नया संकट आ गया। इस समय तक इतनी जागीरें दी गईं कि राज्य में जागीर देने के लिए भूमि शेष नहीं बची। जागीर मिलने में इतनी देर हो जाया करती थी कि यह कहा जाने लगा कि मनसब मिलने तथा उससे सम्बन्धित जागीर प्राप्त करने में एक नौजवान के बाल सफेद हो जाते थे। ऐसी स्थिति में जागीर का तबादला होना तो और भी अधिक दुःखदायी था। जागीरदार यह नहीं जानते थे कि एक बार जागीर हाथ से निकल जाने पर उन्हें दूसरी जगह जागीर प्राप्त करने में सफलता मिलेगी या नहीं। अतः वे भयभीत रहते थे।

मदद-ए-माश

इस्लामिक प्रथा के अनुसार मुगल शासक भी धार्मिक लोगों, विद्वानों, शेखों, सैयदों आदि को करमुक्त भूमि का अनुदान देते थे जिसे मदद-ए-माश कहा जाता था। अबुल फजल के अनुसार चार वर्गाें के लोगों को मदद-ए-माश भूमि के अनुदान योग्य माना गया था- (1.) पहला वर्ग उन लोगों का था जिन्होंने दुनियादारी का परित्याग कर सत्य की खोज में स्वयं को खपा दिया हो। (2.) दूसरा वर्ग धार्मिक सन्तों का था। (3.) तीसरे वर्ग में वे लोग आते थे जो किसी कारणवश शारीरिक अथवा भौतिक जीविका चलाने में असमर्थ थे। (4.) चौथे वर्ग में वे लोग थे जो कुलीन वंश के थे परन्तु किसी व्यापार अथवा व्यवसाय को करना अपनी मर्यादा के खिलाफ समझते थे।

मदद-ए-माश के प्राप्तकर्त्ताओं को यह अधिकार था कि वे अपनी भूमि किसानों को ठेके पर दे दें अथवा बेच दें अथवा दान में दे दें। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में ऐसे अनुदान को बेचने या हस्तांतरण करने का अधिकार प्राप्तकर्त्ता को था या नहीं, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों के समय में यह प्रथा मौजूद थी। मदद-ए-माश की संस्था को मुगलकालीन सामाजिक एवं कृषि व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सामाजिक रूप से इस संस्था ने ग्रामीण जनता में धार्मिक सहिष्णुता की चेतना विकसित करने में सहयोग दिया।

संस्थाओं को जागीर

व्यक्तियों के साथ-साथ संस्थाओं को भी इस प्रकार का अनुदान दिया जाता था। अनुदान देने तथा उनके पुनर्ग्रहण करने के समस्त अधिकार बादशाह में निहित थे। भू-स्वामित्व का अधिकार वंशानुगत दिया जाता था परन्तु उत्तराधिकारियों को आवधिक सत्यापन कराना आवश्यक था। ऐसे अनुदान अधिकतर भू-राजस्व तथा अन्य करों से मुक्त रहते थे किन्तु ऐसी भूमि पर कर निर्धारण की सम्भावना को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया जा सकता। शाहजहाँ ने 1648-49 ई. में बेगम बिरलास के अनुदान पर कर लगाया था। इसी प्रकार शाहजहाँ के काल में ही भूसरा तथा हैबतपुर गाँवों की अयम्मा भूमि पर भी कर का निर्धारण कर दिया।

अध्याय – 38 राजपूत राज्यों की प्रशासनिक संरचना एवं संस्थाएँ

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राजपूत शासकों ने दिल्ली के सुल्तानों से अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने हेतु अनवरत संघर्ष किया। इस संघर्ष में बार-बार पराजित होने पर भी वे अपने राज्यों को किसी तरह बनाये रखने में सफल हो गये। तुर्क सुल्तानों की प्रशासनिक व्यवस्था का राजपूत राज्यों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। अकबर के समय में राजपूत राज्य अर्धस्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित हुए। मुगलों के साथ सम्पर्क स्थापित हो जाने पर राजपूत शासकों पर मुगल शासन पद्धति का गहरा प्रभाव पड़ा। 17वीं शताब्दी के अन्त तक राजस्थान के समस्त राज्यों में मुगल शासन प्रणाली का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होने लगा। यद्यपि राजपूत शासकों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी तथापि वे अपने राज्यों में स्वायत्तशासी थे।

राजपूत राज्यों में शासन तंत्र

राजपूत राज्यों की प्रशासनिक संरचना परम्परागत क्षत्रिय शासकों के राज्यों की प्रणाली पर आधारित थी जिसमें पूर्ण विकसित शासक वर्ग मौजूद था। शासन के विभिन्न अंग थे जिनकी अलग-अलग भूमिकाएँ थीं। चूंकि शासन का आधार सैनिक शक्ति था, इसलिये क्राक्तिशाली व्यक्ति, दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों का अतिक्रमण करने में संकोच नहीं करते थे।

राजा

सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक रूप से राज्य की समस्त शक्तियाँ राजा में निहित थीं। वह समस्त राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक एवं सैनिक शक्तियों का केन्द्र बिन्दु था। वह अपने मन्त्रियों, राजदूतों और अन्य उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता था और उनकी सहायता से राज्य का शासन संचालित करता था। जघन्य अपराधों के लिए दण्ड व्यवस्था करने तथा उल्लेखनीय राजकीय सेवाओं और बलिदान के लिए जागीरें देने अथवा पदोन्नति करने के समस्त अधिकार राजा में निहित थे। युद्ध के समय सेना का संचालन करना वह अपना महत्त्वपूर्ण व गौरवशाली कर्त्तव्य समझता था। राजा, राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था। दीवानी और फौजदारी के समस्त मामलों में अन्तिम निर्णय उसी का होता था। जनता अपने राजा का सम्मान करती थी और उसे धर्मावतार, श्रीजी, माई-बाप, अन्नदाता आदि सम्मान-सूचक शब्दों से सम्बोधित करती थी। वह उसे ईश्वर की प्रतिनिधि तथा अंश मानती थी।

राज्य का सर्वेसर्वा होते हुए भी राजा पूर्ण रूप से स्वच्छंद अथवा निरंकुश नहीं होता था। उसके अधिकारों को नियंत्रित रखने के लिए अनेक प्रतिबंध थे। उसकी शक्तियों पर परम्परागत नियमों एवं धर्मशास्त्रों का प्रभाव रहता था जिससे उसकी स्वेच्छाचारिता सीमित रहती थी। यदि राजा अत्याचारी हो जाता तो शासन के विभिन्न तत्त्व उसकी सत्ता को चुनौती देते थे। मन्त्रियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे राजा को प्रचलित नियमों एवं परम्पराओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करें। राजा सामान्यतः जनमत का ध्यान रखता था।

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राजपूत राजा अपने धर्म में आस्था रखते हुए अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु बने रहते थे। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने जोधपुर की हवाला बहियों तथा जयपुर के स्याह हजूर के आधार पर लिखा है कि राजस्थान के शासक जिस प्रकार हिन्दू धर्मावलम्बी साधु-सन्तों का आदर करते थे, उसी प्रकार काजियों, मौलवियों, दादू पंथियों, खाखियों, नानक पन्थियों आदि के प्रति उदार थे।

रानी

एक राजा की कई रानियां होती थीं। सबसे पहले ब्याही गई रानी प्रमुख रानी जो कि प्रायः सबसे पहले ब्याही गई रानी होती थी, पट्टरानी अथवा महारानी कहलाती थी। मुगलों के प्रभाव से राजा के रनिवास में रानियों के अतिरिक्त उप-पत्नियां भी होती थीं जिन्हें खवास, पड़दायत तथा पासवान आदि श्रेणियों में विभक्त किया जाता था। राजा द्वारा सम्मानित रानियों एवं पासवानों का शासन पर बड़ा प्रभाव रहता था। उनके प्रभाव के कारण उत्तराधिकार की परम्परा को भंग कर दिया जाता था। सैनिक संकट के समय रानियाँ अपूर्व साहस का परिचय देती थीं। राजा के अल्पवयस्क होने पर राजमाता राज-प्रतिनिधि के रूप में शासन संचालित करती थी। जनहित के कार्यों में भी रानियों का बड़ा योगदान रहता था। रानियों के अलावा युवराज व अन्य राजकुमारों का भी राज्य की राजनीति में सक्रिय योगदान रहता था। राजा स्वयं अपने उत्तराधिकारी को शासन का प्रशिक्षण देता था ताकि समय आने पर वह शासन संचालन का उत्तदायित्व संभाल सके।

युवराज

प्रायः राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता था किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण यह परम्परा भंग होने लगी थी एवं राजा अपनी प्रीतपात्री रानी के पुत्र को भी युवराज अथवा राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने लगा था। राजा के जीवनकाल में ही युवराज को वैधानिक अधिकार दे दिये जाते थे।

सामन्त वर्ग

राज्य प्रशासन में राजा तथा राज परिवार के बाद सामन्तों की महत्ता थी। सामन्त प्रायः राजा के कुटुम्ब अथवा कुल के सदस्य अथवा वैवाहिक सम्बन्धी होते थे। सामन्तों के सहयोग के बिना राजा प्रशासन का कार्य नहीं कर सकता था। राज्य की सुरक्षा का दायित्व सामन्तों पर रहता था। सामंतों को राजा की ओर से जागीरें दी जाती थीं तथा बदले में वे राजा को भू-राजस्व चुकाने के साथ-साथ समय-समय पर वे राज्य की सैनिक सेवा के लिए उपस्थित होते थे। राजधानी से लेकर दुर्ग तथा सीमाओं की देखभाल और सुरक्षा का भार सामन्तों पर रहता था। प्रशासनिक कार्यों के लिये राज्य के उच्च पदों पर भी सामन्तों की नियुक्ति की जाती थी। सेनाध्यक्ष के पद पर भी सामान्यतः किसी प्रभावशाली सामन्त को नियुक्त किया जाता था। राज्य के थानों और प्रमुख दुर्गों पर थानेदार और किलेदार के रूप में भी सामन्तों की नियुक्ति की जाती थी।

सामन्त अपनी जागीर में अर्द्ध-स्वतन्त्र शासक की भाँति कार्य करता था। जागीर क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था, राज्य प्रशासनिक व्यवस्था का लघु प्रतिरूप था। सामन्तों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने क्षेत्रों में शान्ति एवं कानून व्यवस्था बनाये रखें और अपनी प्रजा को सुखी और समृद्ध बनायें। सामन्त अपने क्षेत्र में कर वसूली का कार्य भी करते थे।

जागीर के कर्मचारी

जागीर के प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए जागीरदार द्वारा कामदार, फौजदार, प्रधान, मुसाहिब, वकील, साणी, दरोगा, कोठारी, तहसीलदार आदि कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती थी। बड़ी जागीरों में प्रधान या मुसाहिब का पद होता था। कामदार का पद लगभग समस्त जागीरों में होता था। कामदार जागीर के स्तर पर उन समस्त कार्यों को करता था जो राज्य स्तर पर दीवान द्वारा किये जाते थे। दरोगा, खजान्ची (पोतेदार) व तहसीलदार उसके सहयोगी होते थे। गाँव का चौधरी व पटवारी स्थानीय अधिकारी होते थे, जो कामदार को मालगुजारी वसूल करने में सहयोग देते थे और गाँव को व्यवस्थित रखते थे। जागीर में फौजदार का काम जागीर की सुरक्षा तथा स्थानीय सेना पर नियंत्रण रखना होता था। जागीरों के वकील राजधानी में रहते थे। वे शासक एवं सामन्त के मध्य योजक कड़ी का काम करते थे।

हलका, तहसील एवं गांव

बड़ी जागीरें विभिन्न हलकों एवं तहसीलों में विभक्त रहती थीं। तहसील का अधिकारी तहसीलदार होता था। तहसीलदार के अधीन तफेदार व तोलावटी नामक अधिकारी होते थे। प्रत्येक हलके के प्रशासन के लिए एक प्रधान नियुक्त होता था। इन सब पर एक मुख्य (पाट) प्रधान होता था। जिसका कार्यालय जागीर के मुख्य गाँव में होता था। जागीर की सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई गाँव होती थी। गाँव में एक पटेल या चौधरी होता था। चौधरी के अतिरिक्त कणवारिया और भांभी भी होते थे। कणवारिया गाँव की फसल पर देखरेख रखता था। भांभी या ढेढ़-थोरी आदि गाँव के चाकर होते थे जो जागीरदार के लिए सन्देशवाहक का कार्य करते थे और गाँव की सफाई आदि रखने का दायित्व भी निभाते थे।

मुत्सद्दी वर्ग

मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बाद राजपूताने के शासकों ने अपने राज्यों में केन्द्रीय सत्ता को सुदृढ़ करने के प्रयास किये। मुगल शासन पद्धति का अनुकरण करते हुए उन्होंने केन्द्र और परगनों में अनेक नये पदाधिकारियों की नियुक्ति की। केन्द्रीय व स्थानीय स्तर पर नये-नये विभाग व कारखाने खोले गये और अधिकारी पदों के दायित्व का विभाजन कर नई नियुक्तियाँ की गईं। फलस्वरूप राज्यों में प्रशासन का सुचारू रूप से संचालन करने हेतु एक नवीन प्रभावशाली अधिकारी तन्त्र अस्तित्व में आया जो मुत्सद्दी वर्ग के नाम से विख्यात हुआ।

मुत्सद्दी वर्ग के सदस्यों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई। उनमें वर्ग एकता भी दृढ़ होने लगी। शासकों ने इस वर्ग को सशक्त होने दिया, क्योंकि वे स्वकुलीय आधार पर प्रशासन के विच्छिन्न होने से, असन्तुष्ट सामन्त वर्ग को नियंत्रित करने के लिए इस वर्ग की उपयोगिता को समझ गये थे। फलतः राजपूत राज्यों में अब राजा और सामन्तों के अतिरिक्त एक तीसरी शक्ति के रूप में मुत्सद्दी वर्ग का विकास हुआ।

समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण भी मुत्सद्दी वर्ग शक्ति सम्पन्न होता गया। समस्त राजपूत शासक (मेवाड़ को छोड़कर) मुगल मनसबदार के रूप में अपने राज्य से बहुत दूर बादशाह की चाकरी में रहते थे। उसकी अनुपस्थिति में राज्य प्रशासन को चलाने का दायित्व मुत्सद्दियों पर ही रहता था। इन मुत्सद्दियों को अनेक बार सैनिक दायित्व भी निभाना पड़ता था। इन सब कारणों से मुत्सद्दी वर्ग की शक्ति बढ़ती गई। परन्तु मुत्सद्दी वर्ग राज्य के लिए स्थायी खतरे का कारण नहीं बन सका, क्योंकि इनकी नियुक्तियाँ, पदोन्नतियाँ और सेवा-मुक्ति शासक की इच्छा पर निर्भर थी।

मुत्सद्दी केवल शासक के प्रति उत्तरदायी थे। उनका जनसाधारण में कोई आधार नहीं था। उनके पास कोई निजी सेना नहीं होती थी। उनकी सेवा के बदले जो जागीरें दी जाती थीं, वे सामान्यतः उनके सेवाकाल तक ही सीमित रहती थीं। इसलिए जागीर क्षेत्र में वे अपना स्थायी आधार नहीं बना सकते थे। मुत्सद्दियों की आपसी फूट के कारण भी वे केन्द्रीय शक्ति का विरोध करने की स्थिति में नहीं आ सकते थे।

इस प्रकार राजपूताने में मध्ययुगीन निरंकुश राजतंत्र में अधिकारी तंत्र का उदय हुआ। शासक इसी मुत्सद्दी वर्ग से मन्त्री एवं अन्य पदाधिकारी नियुक्त करता था। राजकीय उच्च पदों पर नियुक्ति करते समय व्यक्ति की योग्यता, अनुभव और निष्ठा को ध्यान में रखा जाता था। प्रधान के पद के अतिरिक्त अन्य पदों पर सामान्यतः गैर-राजपूत जातियों, विशेषकर वैश्य, ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोगों को नियुक्त किया जाता था।

मन्त्रिमण्डल

राज्य के समस्त महत्वपूर्ण कार्यों एवं नीति सम्बन्धी विषयांे पर राजा, राज्य के विभिन्न अधिकारियों से परामर्श करता था। इन पदाधिकारियों से ही मन्त्रिमण्डल का गठन होता था। कहीं-कहीं इन मन्त्रियों का पद वंशानुगत भी हो गया था। इन मन्त्रियों के वेतन व कार्यकाल सम्बन्धी कोई निश्चित नियम नहीं थे। विभिनन राज्यों में मन्त्रियों की संख्या भी एक जैसी नहीं थी। उनकी नियुक्ति के तरीके में भी भिन्नता थी। उन दिनों सतत युद्ध की स्थिति बनी रहती थी, इसलिए सैनिक और शासन कार्य का कोई विभाजन नहीं था। मन्त्री, युद्ध काल में सेना का संचालन करते थे।

प्रधान

केन्द्र में राजा के बाद सर्वोच्च अधिकारी प्रधान होता था। वह राजा का मुख्य सलाहकार होता था। वह सैनिक, असैनिक तथा न्यायिक कार्यों में राजा की सहायता करता था। राजा की अनुपस्थिति में राज्य में प्रशासन चलाने का दायित्व उसी का होता था। मेवाड़ में सलूम्बर के रावत को प्रधान का पद वंशानुगत प्राप्त था जिसे भांजगढ़ कहते थे। मराठों के उपद्रव काल में जब वह महाराणा की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगा तब उसे वंशानुगत प्रधानगी के पद से वंचित कर दिया गया। भूमि के अनुदान पत्रों पर प्रधान के हस्ताक्षर आवश्यक थे। प्रधान किसी भी जागीरदार को जागीर देने अथवा जब्त करने के लिए राजा से अनुशंसा करता था। युद्ध के समय वह सामन्तों की सेना को जुटाने तथा उसका नेतृत्व करने का दायित्व निभाता था। प्रधान को जयपुर राज्य में मुसाहिब तथा कोटा में फौजदार या दीवान कहते थे। बीकानेर और बून्दी में भी उसे दीवान कहते थे। कहीं-कहीं प्रधान और दीवान अलग-अलग व्यक्ति होते थे, लेकिन अधिकांश राज्यों में दोनों पदों पर एक ही व्यक्ति नियुक्त होता था। वह राज्य की समस्त प्रशासनिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था और उनके बारे में राजा को सूचना देता रहता था।

दीवान

राजस्थान के राजपूत राज्यों में प्रशासनिक तंत्र का प्रमुख दीवान होता था जो मुख्य रूप से वित्त एवं राजस्व सम्बन्धी मामलों पर नियंत्रण रखता था। वह राज्य की आय में वृद्धि करके विभिन्न खर्चों की पूर्ति करता था। जहाँ प्रधान के पद का प्रावधान नहीं था, वहाँ दीवान ही प्रधान का कार्य करता था। वह राज्य के शासन सम्बन्धी समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी था। समस्त महत्वपूर्ण राजकीय दस्तावेजों पर दीवान की मुहर लगाई जाती थी। दीवान के पद पर सामान्यतः गैर-राजपूत जाति के व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाता था। राज्य के समस्त पदाधिकारी दीवान के नियंत्रण में कार्य करते थे।

दीवान को आमिल, कोतवाल, अमीन, दरोगा, मुशरिफ, वाकयानवीस, फौजदार आदि को नियुक्त करने का अधिकार था। मारवाड़ में परगनों के हाकिम की नियुक्ति महाराजा द्वारा की जाती थी परन्तु इन नियुक्तियों में दीवान की अनुशंसा रहती थी। राज्य के जमा-खर्च का समस्त कार्य उसके अधीन था। वार्षिक कर, नजराना आदि का विवरण उसके पास रहता था। राज्य में भूमिकर, चुंगीकर, राहदारी, पेशकश, दण्ड-शुल्क व अन्य आय से सम्बन्धित समस्त कागजात दीवान के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किये जाते थे। बाजार में वस्तुओं के भाव व कीमतों की जानकारी प्रतिदिन दीवान को दी जाती थी। समस्त राजकीय कोठारों, भण्डारों एवं कारखानों पर उसका नियंत्रण रहता था। दीवान उपर्युक्त समस्त जानकारी राजा को देता था।

राजपूत राज्यों में दीवान मुगल शासन प्रणाली के दीवान की भाँति केवल राजस्व विभाग का पदाधिकारी नहीं था अपितु वह न्यायिक, वित्तीय, सैनिक, नागरिक प्रशासन से सम्बन्धित समस्त अधिकारों का उपभोग करता था। राजा की अनुपस्थिति में शासन की बागडोर दीवान के हाथ में रहती थी। ऐसे समय में वह देश-दीवान कहलाता था। उसका कार्यक्षेत्र विस्तृत होने के कारण किसी-किसी राज्य में दो सहयोगी दीवानों की नियुक्ति की जाती थी। उन दोनों में से एक प्रशासन की देखभाल करता था और दूसरा राजस्व सम्बन्धी कार्य करता था। दीवान राजा के अधीन होता था तथा राजा की इच्छाओं की पूर्ति करना उसका मुख्य कर्त्तव्य था।

मुसाहिब

कुछ राज्यों में मुसाहिब का पद अत्यंत महत्वपूर्ण पद होता था। बीकानेर राज्य में इस पद के लिए मुख्त्यार शब्द का प्रयोग होता था। इस पद के साथ सम्मान अधिक और उत्तरदायित्व कम था। इस पद पर नियुक्त व्यक्ति महाराजा का विश्वसनीय सलाहकार होता था। कई बार यह पद मान एवं मर्यादा की दृष्टि से दीवान के पद से भी ऊँचा आँका गया है। शक्तिशाली दीवान के समय इस पद पर किसी की भी नियुक्ति नहीं की जाती थी। मुसाहिब के कर्त्तव्य के सम्बन्ध में कहीं विस्तृत विवरण नहीं मिलता। मुसाहिब शासक को सलाह देने का काम करता था। बीकानेर राज्य में मुसाहिब सैनिक विभाग का संचालन करता था दयालदास की ख्यात से ज्ञात होता है कि महाराजा स्वरूपसिंह के काल में मुसाहिब सेना का प्रधान सेनापति था।

बख्शी

दीवान के बाद दूसरा प्रमुख अधिकारी बख्शी था। वह मुख्यतः सेना विभाग का अध्यक्ष होता था। वह सेना की रसद व्यवस्था, अनुशासन, सैनिकों का प्रशिक्षण, युद्ध में घायल सैनिकों का उपचार व पशुओं के उपचार एवं उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करता था। वह सेना को वेतन देता था। सैनिकों की नियुक्ति, पद-वृद्धि और पदावनति का विवरण भी रखता था। राज्य के दुर्गों में किलेदारों और नगर के दरवाजों पर तैनात सिपाहियों के वेतन का प्रबन्ध करना तथा उनकी नियुक्ति करने का कार्य भी बख्शी का होता था। गुप्तचरों का संगठन भी इसी के द्वारा किया जाता था। मुगलकालीन राजपूत राज्यों में कहीं-कहीं तनबख्शी और देश-बख्शी के दो पृथक् पद होते थे। बख्शी का निकट सहायक नायब बक्शी भी होता था। खबरनवीस, किलेदार, मुशरिफ, हवलदार, दरोगा तोपखाना आदि उसके अधीन होते थे। जोधपुर राज्य में इसे फौज बख्शी भी कहते थे। बख्शी के पद पर सामान्यतः गैर-राजपूत नियुक्ति होते थे।

शिकदार

मुगल शासन प्रणाली के अनुरूप कुछ राजपूत राज्यों में शिकदार पद का सृजन हुआ परन्तु इन राज्यों का शिकदार मुगलों के शिकदार से कुछ भिन्न था। वह एक परगने का मुख्याधिकारी न होकर, नगर कोतवाल के समकक्ष था। तनबख्शी से पूर्व सैन्य विभाग का संचालन शिकदार ही करता था। मुसाहिब के न होने पर पट्टायतों से सम्बन्धित समस्त कार्य इस पदाधिकारी द्वारा ही सम्पन्न किये जाते थे। जोधपुर राज्य में शिकदार एक प्रकार से नगर कोतवाल था। नगर प्रशासन का समस्त कार्य उसी के सुपुर्द था। मेवाड़ राज्य में शिकदार का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। वहाँ नगर प्रशासन का अधिकारी कोतवाल होता था।

खानसामां

खानसामां का पद दीवान के अधीन था परन्तु इसका राज-परिवार से सीधा सम्बन्ध होने के कारण खानसामां का राज्य में बहुत महत्व था। वह निर्माण, वस्तुओं के क्रय, राजकीय विभागों के सामान की खरीद और संग्रह से सम्बन्धित कार्य करता था। राजदरबार तथा राजमहल से सम्बन्धी समस्त व्यक्तियों व कार्यों से उसका सम्पर्क रहता था। इस पद पर नियुक्त अधिकारी बहुत ही ईमानदार और राजा का विश्वासनीय व्यक्ति होता था। उसका समस्त राजकीय कारखानों से सीधा सम्बन्ध होता था। उदयपुर राज्य में प्राचीन परम्परा के अनुसार इस पद का नाम पाकाध्यक्ष था। वह राजरसोडे़ का मुख्य अधिकारी था।

वकील

पड़ौसी राज्यों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध बनाये रखने के लिए वकील की नियुक्ति की जाती थी। मुगलकाल में वह शाही दरबार में राजा के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त रहता था और अपने शासक को मुगल दरबार की गतिविधियों से निरन्तर अवगत कराता रहता था। वह अपने राजा के हितों का ध्यान रखता था।

मीर मुंशी

राज्य में कूटनितिक पत्र-व्यवहार की देखरेख के लिए मीरमुंशी का एक अलग विभाग होता था। इस पदाधिकारी की सहायता के लिए एक दरोगा दफ्तरी होता था। आगे चलकर मारवाड़ में मीर मुंशी केवल फारसी में पत्र-व्यवहार करने लगा और वकील पड़ौसी राज्यों में महाराजा का प्रतिनिधित्व करने लगा था।

खजान्ची

खजान्ची खजाने में जमा एवं खर्च की राशि का विवरण रखते थे। मेवाड़ में इस अधिकारी को कोषपति कहते थे। उसके लिए मितव्ययी होना आवश्यक था ताकि वह खजाने की रकम में वृद्धि करता रहे। ईमानदार और विवेकशील होना खजान्ची के प्रमुख गुण माने जाते थे।

अन्य अधिकारी

राज्य में किले का रक्षक या अधिकारी किलेदार कहलाता था। वह किले की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता था। किलेदार अपने पास पर्याप्त सैनिक रखता था। राजा का अत्यन्त विश्सनीय व्यक्ति ही इस पद पर नियुक्त होता था। राज्य का एक अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारी ड्योढ़ीदार होता था। महल की सुरक्षा, देखरेख व निरीक्षण का दायित्व उसी पर निर्भर था। वह राजा से मिलने के लिये आने वाले व्यक्तियों पर दृष्टि रखता था तथा उन्हें राजा से मिलाने की व्यवस्था करता था। राज्य में धार्मिक कार्यों व उत्सवों, त्यौहारों व पर्वों को सम्पन्न करवाने के लिए पुरोहित होता था। पुरोहितों को पड़ौसी राज्यों में संदेश भेजने के लिए भी नियुक्त किया जाता था। पुरोहित का बड़ा सम्मान होता था। शासक उन्हें कर-मुक्त भूमि व गाँव जागीर में देते थे। धर्म-सम्बन्धी कार्यों में पुरोहित के अतिरिक्त राजव्यास और बारहठ का भी बड़ा महत्व था। राजपूत राज्यों में धर्म व दान सम्बन्धी कार्यों के लिए पृथक् विभाग होता था जिसे धर्मार्थ विभाग (देवस्थान धर्मपुरा) या महकमा पुण्यार्थ कहते थे। इस विभाग का कार्य मन्दिरों, गरीबों, अनाथों, विधवाओं आदि को राजकीय अनुदान देना था। उदयपुर राज्य में इस विभाग के अध्यक्ष को दानाध्यक्ष, कोटा राज्य में हाकिम पुण्य और जयपुर राज्य में हाकिम खैरात कहते थे।

उपरोक्त अधिकारियों के अतिरिक्त राज्य में छोटे-बड़े कई अधिकारी होते थे। उदाहरणार्थ- दरोगा-ए-डाकचौकी, दरोगा-ए-सायर, दरोगा-ए-फरासखाना, दरोगा-ए- जवाहरखाना, दरोगा-ए-आवदार (खाने-पीने का अधिकारी), दरोगा-ए-शिकारखाना आदि अधिकारी अपने-अपने विभागों का कार्य करते थे। कहीं-कहीं इन्हें हवलदार कहा जाता था। स्थानीय परिस्थितियों एवं विभिन्नताओं के कारण इन पदाधिकारीयों के पदनामों में अन्तर होता था।

राजपूत राज्यों में स्थानीय प्रशासन

राजपूत राज्य परगनों में विभाजित थे। जयपुर में महाराजा मानसिंह के काल में राज्य को परगनों में विभाजित किया गया था। मेवाड़ में 1621 ई. महाराणा कर्णसिंह के काल में परगनों का होना प्रमाणित होता है। क्षेत्रीय प्रशासन व राजस्व वसूली की दृष्टि से किन्हीं-किन्हीं में चीरा व्यवस्था का गठन किया गया था। दो सौ गाँवों को मिलाकर एक चीरा बनाया गया था। परगनों की इकाईयाँ मुख्यतः वे क्षेत्र थे, जो बीकानेर शासन को मुगल बादशाह की ओर से तनख्वाह जागीर के रूप में प्राप्त हुए थे और बाद में बीकानेर राज्य में मिला लिए गये थे।

विभिन्न परगनों का आकार व विस्तार एक जैसा नहीं था। मारवाड़, मेवाड़ और बीकानेर राज्यों में परगने का मुख्य अधिकारी हाकिम कहलाता था। जयपुर और कोटा राज्यों में उसे क्रमशः फौजदार एवं हवलगिर कहते थे। परगनों के हाकिमों की नियुक्ति सामान्यतः दीवान की सलाह से स्वयं राजा के द्वारा की जाती थी। हाकिम को विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक, सैनिक, न्यायिक और राजस्व सम्बन्धी कार्य करने पड़ते थे। परगने की सुरक्षा का पूर्ण दायित्व उसी का होता था। वह परगने के सरदारों से सम्बन्ध बनाये रखता था। वह परगने में सामन्तों से राजकीय चाकरी हेतु सवार प्राप्त करने, उनसे वार्षिक कर की रकम वसूलने तथा जनता से नियमित कर वसूली का कार्य करता था।

परगने के मुख्यालय पर हाकिम का कार्यालय होता था, जिसे हाकिम की कचहरी कहा जाता था। हाकिम वहाँ बैठकर फौजदारी और दीवानी कार्य करता था। परगने में चुंगीकर की वसूली के लिए केन्द्र की ओर से सायर दरोगा की नियुक्ति की जाती थी। दरोगा की सहायता के लिए हाकिम, अमीन की नियुक्ति करता था। भूमिकर वसूली के लिए परगने में कानूनगों नामक कर्मचारी होता था जिसका मुख्य कार्य भूमि-कर की वसूली करना, परगने के कृषिगत उपज का लेखा-जोखा रखना और भूमि सम्बन्धी दस्तावेजों को सुरक्षित रखना था। इन पदाधिकारियों के अतिरिक्त परगने में कारकून, वाकयानवीस, चौकीनवीस, पोतदार आदि कर्मचारी भी हाकिम के अधीन कार्यरत रहते थे। कहीं-कहीं परगने में सैनिक व पुलिस सम्बन्धी कार्य करने के लिए फौजदार नामक अधिकारी होता था।

वह परगने में सुरक्षा सम्बन्धी कार्यों के लिए उत्तरदायी था तथा मालगुजारी की वसूली में अमीन, मालगुजार तथा आमिल को सहयोग देता था। मेवाड़ और आमेर राज्यों में फौजदार का पद अलग होता था। कोटा में हवलगिर, परगने के हाकिम की भाँति कार्य करता था। परगने में चोरों और डाकुओं पर नियंत्रण रखने के लिए थाने होते थे, जहाँ थानेदार अपने निश्चित सिपाहियों के साथ तैनात रहता था। बीकानेर के चीरे और परगनों में चिरायता या हाकिम प्रधान अधिकारी होता था तथा राजस्व वसूली का कार्य आमिल के स्थान पर हवलदार करता था।

राजपूत राज्यों में नगर प्रशासन

कोतवाल: नगर का मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था। राज्यों की राजधानियों के अतिरिक्त परगनों के बड़े-बड़े कस्बों में कोतवाल नियुक्त किये जाते थे। कोतवाल के प्रमुख दायित्व इस प्रकार से होते थे-

(1.) नगर में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना।

(2.) नगर के प्रवेश एवं निकासी द्वारों पर पुलिस सन्नद्ध करना।

(3.) रात्रि गश्त लगाने की व्यवस्था करना।

(4.) पुलिस कार्य के साथ-साथ नगरपालिका प्रशासन का दायित्व संभालना।

(5.) नगर की सफाई और स्वास्थ्य का ध्यान रखना।

(6.) बाजार में मूल्यों, बाटों व माप का निरीक्षण करना।

(7.) लावारिस सम्पत्ति की व्यवस्था करना।

(8.) नगरवासियों व व्यापारियों पर लगे करों की वसूली करना।

(9.) धार्मिक व सार्वजनिक स्थानों का प्रबन्ध करना।

नगर सेठ: राजपूताने के कई राज्यों में नगर सेठ नियुक्त किये जाते थे। नगर सेठ व्यापारिक संस्थानों के संचालन के साथ-साथ राजकीय ट्रेजरी के रूप में भी काम करते थे। एक नगर में एक ही नगर सेठ हो सकता था। यह पद प्रायः वंशानुगत चलता था। मेवाड़ राज्य के प्रत्येक बड़े नगर में नगर सेठ को राजा के द्वारा न्यायाधीश मनोनीत किया जाता था। राज्य में तथा नगर में नगर सेठ का बड़ा सम्मान होता था।

राजपूत राज्यों में ग्राम प्रशासन

राजस्व वसूली की सुविधा के लिए राज्य को परगनों में विभक्त किया जाता था। प्रत्येक परगना तपों (गाँवों का समूह) में विभाजित किया जाता था। प्रशासन की लघुत्तम इकाई मौजा (गाँव) होती थी। पूर्व मध्यकालीन युग में गाँव या गाँवों के समूह पर ग्रामिक होता था जो गांवों की व्यवस्था देखता था। मुगलों का शासन होने पर ग्रामिक को पटवारी कहा जाने लगा। वह भूमि सम्बन्धी विभिन्न अभिलेख तैयार करता था जिनके आधार पर राजस्व का निर्धारण एवं वसूली होती थी। कनवारिया (खेत का रक्षक), तफेदार (उपज में राज्य के भाग का हिसाब रखने वाला), तोलावटी (उपज को तोलने वाला), साहणे (राज्य का भाग निश्चित करने वाला अधिकारी), चौकीदार (मीणा व बावरी) आदि कर्मचारी पटवारी के सहयोगी होते थे। कहीं-कहीं हवालदार की नियुक्ति की जाती थी। वह गाँवों में जमाबन्दी के आधार पर करों तथा निश्चित भोग के हिस्से के अनुसार मालगुजारी वसूल करता था। गाँव में प्रशासनिक स्तर पर स्थायी रूप से चौधरी या पटेल होते थे, जिनका मुख्य काम गाँव में शान्ति बनाये रखना तथा कर वसूली में राजकीय अधिकारियों को सहयोग देना था। इस सेवा के बदले उसे राज्य की ओर से कर-मुक्त भूमि प्राप्त होती थी। उसे लगान में से भी कुछ हिस्सा दिया जाता था। राजधानी तथा परगना आदि मुख्यालयों से आने वाले अधिकारियों एवं जागीरदारों के गांव में आने पर उनके ठहरने तथा भोजन आदि की व्यवस्था चौधरी के द्वारा की जाती थी।

ग्राम पंचायत

ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतें प्रशासनिक कार्य करती थीं। ग्रामीण दैनंदिनी में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। गाँव का मुखिया (चौधरी या पटेल) तथा गाँव के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति, जिनकी संख्या सामान्यतः पाँच होती थी, गाँव की पंचायत के सदस्य होते थे। गाँव में शान्ति और सुरक्षा बनाये रखना और ग्राम प्रशासन में सहयोग देना पंचायतों के मुख्य कर्त्तव्य थे। पंचायत के समक्ष भूमि सम्बन्धी झगड़े, खेत व गाँव की सीमा के विवाद, चोरी, अपहरण, बलात्कार आदि वाद प्रस्तुत किये जाते थे। पंचायतों के निर्णयों के विरुद्ध परगना अधिकारी, दीवान व राजा के समक्ष अपील की जा सकती थी।

जाति पंचायत

मध्यकालीन राजपूताना राज्यों में जाति पंचायतों का अत्याधिक प्रभाव था। हर जाति की अपनी जाति पंचायत होती थी जिसमंे दूसरी जाति के लोग हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। एक गांव अथवा कुछ गांवों के लिये एक जाति पंचायत होती थी। जाति पंचायतों द्वारा सामाजिक एवं जाति सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया जाता था। इनके द्वारा विवाह एवं परित्याग सम्बन्धी झगड़े, सामाजिक परम्पराओं की अवहलेना, व्यभिचार एवं कुटुम्बीय झगड़े निबटाये जाते थे। जाति पंचायतों द्वारा अपनाई गई दण्ड-व्यवस्था में प्रायश्चित, क्षमायाचना, अर्थ दण्ड, तीर्थयात्रा द्वारा शुद्धिकरण, न्याति भोज, ग्राम भोज, जाति बहिष्कार, ग्राम बहिष्कार, हुक्का-पानी बहिष्कार आदि दण्ड दिये जाते थे। जाति पंचायतों के निर्णय को राज्य द्वारा मान्यता होती थी। राज्य की ओर से भी जाति सम्बन्धी विवाद जाति पंचायतों को सौंपे जाते थे।

व्यावसायिक पंचायतें

नगरों एवं कस्बों में व्यवसायों से सम्बन्धित पंचायतें होती थीं। इनमें व्यापारियों के लेन-देन, लेखा-जोखा, साझेदारी तथा मुकाते आदि के विवाद निबटाये जाते थे।

पंचायत संस्थाओं का महत्व

पंचायत संस्थाएँ राज्य और प्रजा दोनों के लिए लाभप्रद थीं। इन पंचायतों के माध्यम से सामाजिक नियमों और परम्पराओं की पालना होती थी तथा समाज में अनुशासन बना रहता था। किसी भी जातीय अथवा व्यावसायिक पंचायत के लिए सरकारी मान्यता मिलना गौरव की बात होती थी।

राजपूत राज्यों में राजस्व प्रशासन

राजपूताना के विभिन्न राज्यों में राजस्व, कर और भूमि व्यवस्था में कुछ परिवर्तन होते हुए भी कुछ बातें एक जैसी थीं। राज्यों की भूमि सामान्यतः खालसा, हवाला, जागीर, भोम और सासण में विभाजित थी। दीवान खालसा भूमि का प्रबन्धन एवं नियन्त्रण करता था। हवालदार हवाला भूमि की देखरेख करता था। जागीदार जागीर पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रखता था। परगना हाकिम यह देखता था कि जागीरदार निश्चित वार्षिक कर समय पर राजकीय खजाने में जमा करवा रहा है या नहीं! जागीरदारों से वार्षिक कर के अतिरिक्त समय-समय पर पेशकश के रूप में धनराशि एकत्रित की जाती थी। भोमियों के नियंत्रण में स्वामित्व के आधार पर भोम की भूमि होती थी। वे एक निर्धारित राशि फौजबल या भूमबाब के नाम से राज्यकोष में जमा करवाते थे। इसके अतिरिक्त वे किसी अन्य तरह के कर का भुगतान नहीं करते थे परन्तु उन्हें राज्य द्वारा निर्दिष्ट सेवा करनी पड़ती थी। सासण भूमि की उपज का भाग मन्दिरों, ब्राह्मणों, चारणों आदि के उपभोग हेतु पुण्यार्थ दिया जाता था। राजपूत राज्यों में यह मान्यता थी कि भोग रा धणी राज हो, भोम रा धणी म्हाँ छो। अर्थात् भूमि तो जोतने वाले किसान की है, राजा केवल भोग अर्थात् राजस्व का अधिकारी है। राजा व जागीरदारों द्वारा काश्तकारों को पट्टे दिये जाते थे। उनका विवरण राजकीय रजिस्टर में दर्ज रहता था जिसे दाखला कहते थे।

भू-राजस्व का निर्धारण

राजपूत राज्यों में भोग अर्थात् भू-राजस्व निर्धारित करने एवं उसे वसूल करने के विभिन्न तरीके थे। इसका निर्धारण भूमि के स्वरूप, फसल के प्रकार तथा काश्तकार की जाति के आधार पर किया जाता था। भूमि की उत्पादन क्षमता के आधार पर प्रत्येक श्रेणी पर अलग-अलग दरों से राजस्व की वसूली की जाती थी। एक ही राज्य में अलग-अलग परगनों के राजस्व की दरों में भिन्नता होती थी। मालगुजारी सामान्यतः वस्तुओं (जिन्सों) के रूप में ली जाती थी। इसकी वसूल करने के विभिन्न तरीके थे।

लाटा (बटाई): राजपूत राज्यों में लाटा अथवा बटाई पद्धति अधिक प्रचलन में थी। इस पद्धति में, जब फसल पककर तैयार हो जाती थी और खलिहान में अच्छी तरह साफ कर ली जाती थी तब एकत्रित अनाज के ढेर को तौलकर या डोरी (रस्सी) द्वारा नापकर राज्य का हिस्सा निश्चित किया जाता था।

कूंता: कहीं-कहीं अनुमान के आधार पर ही राज्य या भू-स्वामी का हिस्सा निश्चित कर लिया जाता था। इस प्रणाली को कंूता कहते थे।

हलगत: राजस्व निर्धारण के लिये कहीं-कहीं हलगत प्रणाली प्रचलन में थी। इस प्रणाली में, प्रत्येक हल पर अर्थात् एक हल से जोती गई भूमि पर राजकीय कर वसूल किया जाता था। एक हल से 50 से 60 बीघा भूमि जोती जा सकती थी। हल पर लगने वाले कर की दर समस्त जगह समान नहीं थी। कई बार हलगत की रकम सामूहिक रूप से जमा के नाम से पूरे गाँव पर लागू कर दी जाती थी।

मुकाता: मुकाता प्रणाली में राज्य की ओर से निश्चित किया जाता था कि प्रत्येक खेत पर नकदी या जिन्सों के रूप में एकमुश्त कितना लगान देना है।

डोरी: इस प्रणाली में एक डोरी में नापे गये बीघे का हिस्सा निर्धारित करके लगान वसूल किया जाता था।

घुघरी: जब प्रति कुआं अथवा प्रति पैदावार की एक निश्चित मात्रा निर्धारित कर दी जाती थी, तब उसे घुघरी कहते थे। रबी और खरीफ के लिये लगान की दरों में भिन्नता होती थी।

राजस्व का वितरण

जब तक उपज की बटाई नहीं होती थी, तब तक बलाई और सहणा खलिहान में धान की चौकीदारी करते थे। बटाई के समय हवालदार, कनवारिया, चौधरी (पटेल), पटवारी, कामदार (जागीर क्षेत्र में) और काश्तकार उपस्थित रहते थे। कनवारिया, सहणा, बलाई, पटवारी, तोलायत, चौधरी आदि समस्त लोगों को बटाई में से हिस्सा प्राप्त होता था।

नेग: बटाई के समय काश्तकार विभिनन लोगों को अनेक प्रकार के नेग व लाग देता था। सुथार, लुहार, नाई, धोबी, दर्जी, नट, मेहतर, रेगर, चमार आदि को अनाज की ढेरी में से कुछ मुट्ठी अनाज दिया जाता था। कुछ अनाज मन्दिरों में भेंट स्वरूप दिया जाता था। उपज की बटाई करने के बाद प्रायः किसान के पास इतना अनाज नहीं बचता था कि साल भर परिवार का काम चल सके। इसलिये किसान को अन्य कार्यों से आय करनी पड़ती थी।

लाग-बाग: जागीरदार अपनी-अपनी जागीरों में किसानांे, चरवाहों एवं विभिन्न प्रकार के कार्य करने वाले लोगों से विभिन्न प्रकार की लाग-बाग वसूल करते थे जिनकी संख्या कहीं-कहीं तो सौ से भी अधिक थी। लाग कर को तथा बाग बेगार को कहते थे।

विभिन्न प्रकार के कर

राजपूत राज्यों में विभिन्न व्यक्तियों, जातियों और विशेष अवसरों पर विभिन्न प्रकार के कर लगाये जाते थे। गृहकर, घासमरी, व्यवसायिक जातियों पर लगाये गये कर, पेशकशी, नजराना, अंग, फौजबल, रखवाली भाछ, जुर्माना, टकसाल, कारखाना, न्यौता, विवाह, त्यौहार, जकात (सायर), व्यापारियों पर लगाये गये कर, बिक्री कर, वन, खान, नमक आदि पर लगाये गये करों से राज्य को बहुत आय होती थी। इसके अतिरिक्त जागीरदारों से निश्चित राशि उपलब्ध होती थी। राजपूत राज्यों में 70 से 80 प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक भूमि जागीरदारों के अधीन थी। जागीरदार, किसानों एवं अन्य लोगों से वसूल किये गये करों में से राज्य को नजर, हुक्मनामा या खड्गबन्दी, तागीरात, रेख, पेशकशी, नजराना, न्यौता, बेतलबी शुल्क आदि देता था। इस कारण राजपूताने की जनता करों के भार से बुरी तरह दबी हुई थी।

करों में छूट

गाँवों में किसानों तथा विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में लोगों के लिये यह संभव ही नहीं होता था कि वे राजकीय करों का भुगतान करें। ऐसी स्थिति में राजा करों में छूट देता था। अकाल, सूखा, महामारी व अन्य दैवीय प्रकोपों के अवसर पर किसानों को हासल में छूट दी जाती थी। छूट की मात्रा तीन प्रकार की होती थी- (1.) चौथाई, (2.) आधी और (3.) पूरी। नये गाँव बसाने या पुरानी बस्तियों को फिर से बसाने तथा व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य की ओर से विभिन्न प्रकार करों में भी राहत दी जाती थी।

राजकीय आय का व्यय

राजकीय आय मुख्यतः राजा, राज-परिवार के सदस्यों, ड्योढ़ियों की देखभाल, राजकीय कारखानों के संचालन एवं उनकी व्यवस्था, राजकीय कार्यालयों एवं न्यायालयों के संचालन, राज्य-कर्मचारियों के वेतन, महलों व सार्वजनिक निर्माण कार्य, सिरोपाव, ईनाम, दान-पुण्य, षट्दर्शन आदि पर व्यय होती थी। राजा सेना पर बहुत कम धन व्यय करता था, क्योंकि सेना के अधिकांश भाग की पूर्ति सामन्तों की सेना से होती थी। सामन्त अपनी सेना का खर्च स्वयं वहन करते थे।

राजपूत राज्यों में न्याय व्यवस्था

राजपूत राज्यों की न्याय और दण्ड-व्यवस्था का आधार प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र थे। परम्परा, रीति-रिवाज तथा देशाचार को भी मान्यता दी जाती थी।

गाँवों में न्याय व्यवस्था

गाँव में ग्राम चौधरी या पटेल न्याय देने को कार्य करते थे। ग्राम पंचायत और जाति पंचायतों द्वारा भी न्याय का कार्य किया जाता था। पंचायतों के निर्णयों के विरुद्ध परगना अधिकारी या राजा को अपील की जा सकती थी।

परगनों में न्याय व्यवस्था

परगनों में न्याय का कार्य हाकिम, या आमिल या हवलगिर करता था। हाकिम को दीवानी और फौजदारी सम्बन्धी समस्त मामलों की सुनवाई करने का अधिकार था।

नगरों में न्याय व्यवस्था

राजधानी व अन्य बड़े-बड़े नगरों में नियुक्त कोतवाल भी न्यायाधीश का कार्य करते थे।

जागीरों में न्याय व्यवस्था

बड़े जागीरदार को उनकी जागीर सीमा में परगना हाकिमों के समान न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। कहीं-कहीं सामन्त स्वयं दीवानी और फौजदारी मामलों की सुनवाई करता था। कुछ बड़े सामान्तों को अपने क्षेत्र के अपराधियों को मृत्युदण्ड तक देने का अधिकार होता था। राजा या सामन्त किसी भी मामले में मनमाना निर्णय नहीं दे सकता था। राज्य के प्रचलित नियमों एवं स्थापित परम्पराओं के आधार पर निर्णय देना होता था। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों में सामान्यतः राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था।

राजधानी में न्याय व्यवस्था: परगना हाकिम के निर्णय के विरुद्ध दीवान के समक्ष अपील की जा सकती थी। सामान्यतः दीवान, दीवानी मुकदमों की सुनवाई करता था किंतु कुछ मामलों में वह फौजदारी मुकदमों को भी निपटाता था। मेवाड़ राज्य में दंडपति नामक न्यायिक अधिकारी होता था। आम्बेर राज्य में आमिल अपनी कचहरी में प्रतिदिन मुकदमे सुनता था। दीवान, आमिल व फौजदार को विभिन्न प्रकार के अपराधों में दंड देने के सम्बन्ध में निर्देश भेजता था। दीवान के निर्णय के विरुद्ध राजा के समक्ष अपील की जा सकती थी। राजा के समक्ष सीधे ही वाद प्रस्तुत किया जा सकता था। राजद्रोह व अन्य जघन्य अपराधों की जाँच राजा स्वयं करता था। वादी, प्रविवादी और गवाहों को सुनने के बाद राजा न्याय करता था। गवाह को शपथ लेकर बयान देना पड़ता था। आवश्यकता पड़ने पर राजा न्याय-विशेषज्ञों की सलाह लेता था। धार्मिक मामलों में राजा, पुरोहित से परामर्श करता था।

दण्ड व्यवस्था

राजपूत राज्यों की दण्ड व्यवस्था काफी कठोर थी। विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए अलग-अलग दण्ड दिये जाते थे। अंग-भंग, देश-निर्वासन, कारागार, जुर्माना आदि दण्डों के साथ-साथ शिरोच्छेदन तथा मृत्युदण्ड भी दिये जाते थे। राज्य में कारावास बने होते थे। मुसलमानों को शरीअत के अनुसार न्याय मिलता था। राजधानियों व बड़े-बड़े नगरों में काजी नियुक्त किये जाते थे, जिनके परामर्श के अनुसार मुालमानों के अपराधों एवं मुकदमों का निर्णय किया जाता था।

सैनिक प्रशासन

सेना का गठन

मध्यकालीन राजपूत राज्यों में सेना का रख-रखाव सामान्तों द्वारा किया जाता था। राजा को जब सेना की आवश्यकता होती थी तब सामन्त निश्चित संख्या में सैनिकों के साथ राजा की सेवा में उपस्थित होते थे। राजा के पास अपने अंगरक्षकों के रूप में एक छोटी सैनिक टुकड़ी के अतिरिक्त प्रायः स्थाई सेना नहीं होती थी। सेना का सर्वोच्च अधिकारी राजा ही होता था, परन्तु मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद बख्शी की भी नियुक्ति की जाने लगी जो महाराज तथा सामन्तों की सेना का निरीक्षण एवं प्रबंधन करता था। वह सामन्तों की सेना तथा उनकी सेवाओं का विवरण राजा को देता था। बख्शी के पद पर उसी को नियुक्त किया जाता था जिसे घोड़ों की अच्छी जानकारी हो।

युद्ध सामग्री तथा सैनिक साज-सज्जा

राजपूत सैनिक परम्परागत रूप से तलवार, तीर-कमान तथा भालों का प्रयोग करते थे। वे कमर में म्यान बांधते थे जिसमें तलवार रखी जाती थी। पीठ पर तीरों के लिये तरकष एवं शरीर की रक्षा के लिये ढाल बांधते थे। सिर पर लोहे के शिरस्त्राण पहनते थे। मुगलों से सम्पर्क होने के बाद राजपूत सैनिक भी तोप, बारूद के गोले तथा बन्दूकों का प्रयोग करने लगे थे। मुगलों से सम्पर्क होने के बाद राजपूत सैनिकों की पोशाकों में भी बड़ा परिवर्तन हुआ। वे भी मुगल सैनिकों की तरह बख्तरबंद पहनने लगे थे।

सेना के अंग

राजपूतों की सेना परम्परागत रूप से चतुरंगिणी होती थी अर्थात् इसमें रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदल सेना रूपी चार अंग होते थे। मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद रथों का प्रयोग समाप्त-प्रायः हो गया। हाथियों का प्रयोग अब भी आवश्यक रूप से होता था किंतु हाथियों की अपेक्षा घुड़सवारों को अधिक महत्त्व दिया जाता था। पैदल और घुड़सवार, सेना के प्रमुख अंग थे। जिन प्यादों के पास बन्दूकें होती थीं, वे बन्दूकची कहलाते थे। बन्दूकचियों की संख्या में धीरे-धीरे काफी वृद्धि हो गई थी। तोपखाने का महत्त्व भी अपने चरम पर पहुँच गया था। किलों की रक्षा के लिए बड़ी बड़ी तोपें रखी जाती थीं। रणक्षेत्र में प्रयोग के लिये हल्की तोपें बनवाई जाती थीं। गजनाल (जो हाथियों पर ले जाई जाती थी) और शतुरनाल (ऊँटों पर लादी जाती थी) जैसी छोटी तोपें होती थीं। इनसे बड़ी तोपों को बैलगाड़ियों में ले जाया जाता था। तोपखाने का अधिकारी दरोगा-ए-तोपखाना होता था। उसके अधीन छोटे पदाधिकारी होते थे। राजपूत तोपची अथवा गोलन्दाज बनना पसन्द नहीं करते थे, इसलिए मुल्तान, गोडवाना, बुहरानपुर आदि स्थानों से प्रशिक्षित गोलन्दाज बुलाकर सेना में रखे जाते थे।

सैनिक पदाधिकारी

राजपूत राज्यों में सेना के विभिन्न विभागों की व्यवस्था की देखरेख के लिए अलग-अलग पदाधिकारी नियुक्त किये जाते थे जिन्हें पैदलपति, गजपति, अश्वपति आदि कहते थे। मुगलों के प्रभाव से सैनिक अधिकारियों को दरोगा-ए-पोलखाना, दरोगा-ए-सिलहपोसेखाना (अस्त्र-शस्त्र), दरोगा-ए-शुतरखाना, शमशेरबाज, बन्दूकची, किलेदार आदि कहने लगे थे। बीकानेर राज्य में दरोगा के स्थान पर फौजदार होता था। फौजदार की सहायता के लिए तथा हवलदार और दरोगा नियुक्त किये जाते थे। पश्चिमी राजस्थान में ऊँट सवारी के दस्तों का काफी महत्त्व था, क्योंकि रेगिस्तानी क्षेत्र में वे प्रभावशाली सिद्ध होते थे। ऊँटों की सेना का प्रबन्ध शुतरखाना विभाग करता था।

साहसी और रणकुशल सामन्तों व सैनिकों को प्रोत्साहन दिया जाता था। उन्हें समय-समय पर सम्मानित किया जाता था। रणक्षेत्र में यदि कोई पदाधिकारी मारा जाता तो उसकी अन्त्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ की जाती थी। यदि राजकीय सेवा करते हुए किसी सामन्त की मृत्यु हो जाती तो उस सामन्त के उत्तराधिकारी को अतिरिक्त जागीर और कुछ विशेषाधिकार दिये जाते थे।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मध्यकाल में राजपूत राज्यों की प्रशासन व्यवस्था प्राचीन क्षत्रिय राज्यों की शासन व्यवस्था पर आधारित थी किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण उसमें अनेक परिवर्तन आ गये थे। राजपूत राज्यों में एक विकसित शासन तंत्र था जो जागीरदारों एवं सामंती व्यवस्था पर आधारित था। राजा की अपनी सेना न होकर सामंतों की सेना ही राज्य के लिये उपलब्ध होती थी। गाँव से लेकर बड़े नगरों एवं राजधानी में न्याय के लिये भी सुविकसित तंत्र था जो राजा एवं उसके सामंतों एवं मंत्रियों के अधीन काम करता था। शासक के अयोग्य और निर्बल होने पर शासन अव्यवस्थित होने लगता था। राज्य में नौकरशाही के लिए कोई निश्चित सेवा नियम नहीं थे। राजस्व का अधिकांश भाग राजा और राजपरिवार पर खर्च होता था। सामन्तों का जीवन विलासी था जिससे किसानों एवं विभिन्न कामों में लगे लोगों का शोषण होता था। अधिकांश राजपूत शासक धर्मपरायण थे। गाँवों का शासन स्व-संचालित था तथा ग्राम शासन में सामान्यतः शासक हस्तक्षेप नहीं करता था।

अध्याय – 39 : राजपूत राज्यों में समाज एवं अर्थव्यवस्था

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मध्यकालीन समाज

भारत का सामाजिक ढांचा परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित था। मध्यकालीन राजपूताने में यह व्यवस्था और अधिक दृढ़ हो गई थी। समाज में जातियों का महत्त्व उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों एवं व्यवसायों पर निर्भर करता था। युद्ध, पूजा-पाठ एवं व्यापार आदि उच्च व्यवसायों को अपनाने वाली जातियों को सामाजिक संगठन में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। परिश्रम आधारित कार्यों में संलग्न जातियों को समाज में निम्न स्थान प्राप्त था। मृत पशुओं की खाल निकालने, मैला ढोने, जूते बनाने आदि हेय समझे जाने वाले कार्यों को करने वाले अछूत समझे जाते थे। अछूत समझी जाने वाली जातियों को अपने जातीय कर्त्तव्यों का पालन करने अथवा बेगार के मामलों में छूट नहीं मिलती थी। जाति-व्यवस्था को दृढ़ बनाये रखने में सामंती व्यवस्था एवं जाति-पंचायतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। जाति पंचायतें जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिये खान-पान, शादी-विवाह तथा रीति-रिवाजों से सम्बन्धित नियम बनाती थी तथा उनकी पालना करवाती थीं। जातीय नियमों को भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी। उच्च समझी जाने वाली जातियों अर्थात् ब्राह्मण, राजपूत तथा महाजनों को समाज में आदर के साथ-साथ राज्य द्वारा विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं।

विविध जातियाँ और व्यवसाय

जातियों की विविधता और उनकी विभिन्नताओं के मामले में राजस्थान आज की तरह मध्यकाल में भी एक समृद्ध प्रदेश था। जातियों का निर्माण, उनकी सामाजिक प्रथायें तथा उनके आर्थिक क्रिया कलाप इतिहास में गहराई तक जड़ें जमाये हुए हैं। मध्यकालीन राजपूताने में जाति प्रथा का परम्परागत स्वरूप बना रहा किंतु मुगलों के प्रभाव के कारण सामाजिक विन्यास में आर्थिक परिवर्तन आने लग गये थे। इस कारण लोगों को परम्परागत जातीय व्यवसायों के साथ-साथ विविध व्यवसाय अपनाने पर विवश होना पड़ा।

ब्राह्मण

परम्परागत सामाजिक ढांचे में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। ब्राह्मण जाति अनेक उप जातियों में विभाजित थी। समाज में नैतिक जीवन का आधार ब्राह्मण ही माना था। अध्ययन-अध्यापन, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पुरोहिताई आदि उनके परम्परागत जातीय पेशे थे। कुछ ब्राह्मण का व्यवसाय मन्दिरों में पूजा-पाठ करना था। कुछ पढ़े-लिखे ब्राह्मणों ने अध्ययन-अध्यापन को अपना व्यवासय बनाये रखा। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से भूमि अनुदान में दी जाती थी। कई ब्राह्मणों ने कथा-वाचन, ज्योतिष तथा वैदिक अध्यापन को व्यवसाय बना लिया था। ब्राह्मणों के कुछ परिवार, राजकुलों तथा सामन्तों के पारिवारिक पुरोहित बने हुए थे। उन्हें राजगुरू तथा राजव्यास आदि उपाधियों से सम्मानित किया जाता था। गाँवों में रहने वाले अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि कर्म को अपना लिया था। प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर स्थित नगरों तथा कस्बों के कुछ सम्पन्न ब्राह्मणों ने व्यापार-वाणिज्य तथा साहूकारी का व्यवसाय अपना लिया था। ब्राह्मणों को विभिन्न महत्वपूर्ण राजकीय सेवाओं में भी नियुक्त किया जाता था। उन्हें कूटनीतिक तथा प्रशासनिक दायित्व दिये जाते थे। विभिन्न व्यवसायों को अपनाने के उपरांत भी ब्राह्मण अपनी पुरानी परम्पराओं को कायम बनाये रखने पर जोर देते थे। इसीलिए हिन्दू प्रजा उन्हें हिन्दू संस्कृति का संरक्षक समझती थी तथा उन्हें पर्याप्त सम्मान देती थी। कुछ ब्राह्मणों ने निर्धनता के कारण भोजन बनाने का कार्य करना आरम्भ कर दिया था। ऐसे ब्राह्मण समाज में कम आदर से देखे जाते थे। वे ब्राह्मण जो किसी के मरने पर भोजन, कपड़ा व दान स्वीकार करते थे, उनका भी ब्राह्मण समाज में नीचा स्थान माना जाता था।

राजपूत

परम्परागत भारतीय समाज में ब्राह्मणों के बाद क्षत्रियों का स्थान आता था। मध्यकालीन राजपूताना में प्राचीन क्षत्रियों का स्थान राजपूतों ने ले लिया। राजवंश से  सम्बन्धित होने एवं शासक जाति के सदस्य होने के कारण राजपूतों को समाज में विशेष आदर प्राप्त था। उनके पास वंशानुगत रूप से छोटी-बड़ी जागीरें थीं। इस काल के राजपूत अपनी मान-मर्यादा के प्रति अत्यधिक सजग थे। राजकीय सेवा, सैनिक सेवा अथवा सामान्तों की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना वे अपने कुल मर्यादा के प्रतिकूल समझते थे। नागरिक प्रशासन एवं सैनिक व्यवस्था में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। पद्मनाभ कृत कान्हड़दे प्रबन्ध में राजपूत जाति के 36 कुलों का उल्लेख है। ये कुल अनेक उपकुलों व परिवारों में विभाजित हो गये थे। राजपूत कुल चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो गया अथवा कितनी ही पीढ़ियाँ बीत चुकी हों, समान गोत्र में विवाह नहीं हो सकता था। एक गोत्र, एक परिवार ही समझा जाता था। राजपूतों की शादी में लड़की के पिता को टीके व दहेज के रूप में धन देना पड़ता था। इस कारण निर्धन राजपूतों में नवजात कन्या को मार देने की कुप्रथा प्रचलित हो गई।

वैश्य

वैश्यों को समाज में महाजन कहकर आदर दिया जाता था। वाणिज्य कर्म में संलग्न होने के कारण उन्हें बनिया भी कहा जाता था। ब्राह्मणों और राजपूतों की भाँति वैश्य भी अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभाजित थे। राजपूताने में मुख्यतः अग्रवाल, ओसवाल, माहेश्वरी, पोरवाल आदि वैश्य जातियाँ निवास करती थीं। ये लोग व्यापार-वाणिज्य के साथ-साथ साहूकारी का काम अर्थात् सम्पत्ति गिरवी रखकर उसके बदले में नगद राशि ब्याज पर देते थे। इस कारण वैश्य समुदाय अत्यंत धन-सम्पन्न था। समाज में उसकी अत्यंत प्रतिष्ठा थी। समृद्ध वैश्य गांवों एवं नगरों में तालाब, कुएं, धर्मशाला, प्याऊ, पाठशाला एवं मंदिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार करवाते थे। बहुत से सेठ सदाव्रत एवं दानशाला चलाते थे। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न एवं धन सम्पन्न वैश्यों को प्रशासन में उच्च पद दिये जाते थे। राज्यों में हाकिम, दीवान, मुसाहिब, दरोगा, वकील आदि पदों पर अधिकांशतः वैश्य वर्ग के व्यक्ति ही नियुक्त किये जाते थे। प्रतिष्ठित वैश्य मंत्री युद्धक्षेत्र में सैन्य-संचालन का काम भी करते थे। राज्य के बड़े-बड़े सामंत अपनी सेनाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में उपस्थित रहकर वैश्य मंत्री के निर्देशन में युद्ध लड़ते थे। वैश्य समुदाय का मुख्य व्यवसाय व्यापार-वाणिज्य तथा रुपयों का लेन-देन करना था। वे मुख्यतः थोक व्यापारी थे और सामान को एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में लाने-ले जाने और क्रय-विक्रय का काम करते थे। कई वैश्य परिवार खालसा भूमि के राजस्व तथा सायर (चुंगी) की वसूली का इजारा (ठेका) लेते थे तथा साधारण किसान से लेकर शासकों तक को ब्याज पर कर्ज देते थे।

कायस्थ

कायस्थों का समाज में महत्वपूर्ण स्थान था। राजपूताने में भटनागर एवं माथुर कायस्था अधिक प्रभावशाली थे। मुगलों के आगमन के पश्चात् कायस्था कों राजस्व अभिलेख रखने, शासकीय अभिलेख तैयार करने एवं पत्राचार आदि करने के काम में विशेष प्रसिद्धि मिली। वे फारसी के जानकार एवं प्रशासनिक कार्य में दक्ष माने जाते थे। शासन व्यवस्था पर उनका अच्छा प्रभाव होता था इसलिये उन्हें कई बार युद्धों का नेतृृृत्व करने का भी अवसर दिया जाता था। जोधपुर एवं जयपुर राज्य में भी कायस्थों को विशेष महत्व दिया जाता था। उन्हें राजपूत राज्यों की ओर से दूसरे राज्यों में  वकील नियुक्त किया जाता था।

चारण

मध्यकालीन राजपूत शासित समाज में चारणों का भी प्रमुख स्थान था। वे भी काव्य रचना करने, राजा के संदेश वाहक का काम करने, तथा विभिन्न भूमिकाएं निभाने में सिद्धहस्त थे। चारणों को अवध्य माना जाता था। जो राजा चारण का अपमान करता था अथवा हत्या करता था, उसके शासन को पापयुक्त माना जाता था। चारण का पेट भरना शासन का कर्त्तव्य माना जाता था। इसलिये उन्हें ब्राह्मणों की तरह दान दिया जाता था। चारणों को दान में दी गई जागीर राज्य द्वारा वापस नहीं ली जाती थी। चारणों की बारहठ, वीठू, आशिया, दधवाड़िया, खिड़िया, सिंढायच आदि शाखाएं बहुत प्रसिद्ध थीं। चारण स्वामिभक्त जाति होती थी जो युद्ध क्षेत्र में राजा के साथ रहकर उसके मनोबल उन्नयन का कार्य करती थी। चारण जाति ने मध्यकाल में विपुल डिंगल साहित्य की रचना की।

भाट

मध्यकालीन समाज में राजपूताने में हर जाति का भाट होता था। वह परिवार की वंशावली लिखता था। विवाह आदि पर्वों पर भाट उस जाति एवं परिवार का विरुद बखानते थे जिसके बदले उन्हें पुरस्कार मिलता था। भाटों का मुख्य व्यवसाय मांग कर खाना होता था किंतु भाट केवल अपने जजमान के यहां से ही मांगकर खाता था।  कुछ भाट किसान हो गये थे तथा कुछ किसान छोटा-मोटा व्यवसाय भी करते थे। मारवाड़ राज्य में पचपद्रा से नमक ले जाने का काम करने वाले भाट व्यापारियों को बल्दिया कहते थे। जजमान इस बात का ध्यान रखता था कि भाट नाराज होकर सामाजिक रूप से अपने जजमान की बदनामी न कर दे।

राव

चारणों, भाटों की तराह राव जाति के लोग भी वंशावलियां लिखते थे। उन्होंने अपनी बहियों के माध्यम से प्रदेश के इतिहास और रीति रिवाजों को लेखनी बद्ध करके उसे सदियों तक जीवित रखा। रावों ने पिंगल भाषा में काव्य कृतियों एवं लोक गीतों की रचनाएं करके प्रदेश के शासक एवं जन सामान्य वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति की।

कृषक जातियाँ

मध्यकाल में राजपूताने की प्रमुख कृषक जाति जाट थी जो कृषि कर्म में अत्यंत निष्णात मानी जाती थी। जाटों से ही विश्नोई अलग हुए। विश्नोइयों का मुख्य कार्य कृषि कर्म ही था। कृषक वर्ग में कुनबी, कलबी, कीर, धाकड़, गूजर, माली, अहीर आदि जातियां भी थीं। मुसलमानों के आने से पहले भारत की कृषि जातियों में सम्पन्नता थी। मुसलमानों के आक्रमण के बाद किसानों की हालत खराब होने लगी किंतु राजपूताने के कृषक 17वीं शताब्दी तक अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में बने रहे। अठारहवीं शताब्दी में मराठों की लूटमार आरम्भ होने के कारण राजपूताने की कृषि उजड़ने लगी तथा किसानों पर ऋण चढ़ने लगा। अब राजपूताने की कृषक जातियां भी दो आब की जातियों की तरह दुखी हो गईं।

हाथ से काम करने वाली जातियाँ

मध्यकाल में राजपूताने में सैंकड़ों ऐसी जातियां निवास करती थीं जो अपने अलग कार्य के लिये जानी जाती थीं। नाई बाल काटता था। लुहार लोहे के हथियार, उपकरण एवं अन्य सामग्री बनाता था। धुनिया कपास धुनता था। जुलाहा कपड़े बुनता था। छींपा अथवा रंगरेज कपड़े रंगता था। दर्जी कपड़े सिलता था। खाती लकड़ी का काम करता था। धोबी कपड़े धोता था। कुम्हार मिट्टी के बर्तन, मटके, दिये आदि बनाता था। सुनार सोने-चांदी के आभूषण बनाता था। तेली बीजों से तेल निकालता था। लखारा, मणियार, भडभूंजा, कलाल, मोची, भांभी, मेघवाल, सरगरा आदि जातियां अपना-अपना निर्धारित करती थीं।

आभूषण बनाने वाली जातियाँ

मध्यकाल में लखारा, सुनार तथा मणिहार आदि जातियों ने आभूषणों के निर्माण एवं उनके व्यवसाय का विकास किया। राजस्थान में सोने का उत्पादन नहीं होता था, इसलिये सोना बाहर से मंगावाया जाता था। मेवाड़ की खानों से चांदी का उत्पादन होता था। इस कारण चांदी के आभूषण बहुतायत से बनते थे। आदिवासी लोग ताम्बे, सीप, रंगीन पत्थर एवं मिट्टी से बने मनकों के आभूषण भी पहनते थे।

गायक जातियाँ

राजस्थान में रहने वाली गायक जातियों में कलावंत, ढाढ़ी, मिरासी, ढोली, रावल, डोम, राणा, लंगा, भोपा, सांसी, कंजर, जोगी तथा भवई आदि प्रमुख थीं। कालबेलिया, कठपुतली नट, लखारा तथा भाट आदि जातियाँ भी गाकर एवं नाचकर अपना पेट भरती थीं।

घुमक्कड़ जातियाँ

मध्यकाल की प्रमुख घुमक्कड़ जातियों में बनजारे तथा गाड़िया लुहार थीं। बनजारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर सामान बेचते थे। गाड़िया लुहार जाति राजपूतों से निकली थी। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जब अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार किया तब जो राजपूत वीर युद्ध में काम नहीं आ सके उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया और प्रण किया कि जब तक चित्तौड़ पर पुनः हिंदुओं का अधिकार नहीं हो जाता तब तक चित्तौड़ की भूमि पर पैर नहीं रखेंगे। अकबर से चित्तौड़ की पराजय का बदला लेंगे। बसे-बसाये घरों में नहीं रहेंगे। जब चित्तौड़ दुर्ग में हिंदुओं का दिया नहीं जलेगा तब तक रात में दिया नहीं जलायेंगे। कुंओं से पानी भरने के लिये रस्सी नहीं रखेंगे तथा पलंग पर नहीं सोयेंगे। जब तक जियेंगे हथियार बनायेंगे। उन्होंने चित्तौड़ की धरती को वचन दिया कि वे फिर आयेंगे। यही क्षत्रिय गाड़िया लुहार कहलाने लगे। उनका परिवार बैल गाड़ियों पर रहता था तथा। ये लोग दूर-दूर तक घूमते रहते थे। चार सौ वर्ष बीत जाने पर भी गाड़िया लुहार पुनः चित्तौड़ नहीं लौट पाये। गाड़िया लुहार लोहे के छोटे-मोटे उपकरण, कृषि के औजार एवं घरेलू बर्तन बनाकर आजीविका कमाने लगे। आज भी वे यही कार्य कर रहे हैं।

चरवाहा जातियाँ

मध्यकाल में रेबारी, राजपूताने की प्रमुख चरवाहा जाति थी। ये लोग राजा एवं जमींदार के पशु चराया करते थे। कुछ रेबारियों के पास अपने पशु झुण्ड भी थे। भेड़ों एवं ऊँटों के टोले लेकर ये दूर-दूर तक के चारागाहों की यात्रा करते थे। अकाल पड़ने पर मारवाड़ एवं ढूंढाढ़ आदि प्रदेशों से मालवा की ओर चले जाते थे। ये लोग राजा के घोड़े चराने के काम पर भी रखे जाते थे। यह एक उच्च आर्य जाति थी तथा अपनी अलग संस्कृति का निर्वहन करती थी।

आदिवासी जातियाँ

मध्यकालीन राजपूताना में भील, मीणा, गरासिया, काथोड़िया, सहरिया तथा गमेती आदि आदिवासी जातियाँ निवास करती थीं। मेवाड़, आम्बेर, सिरोही, टोंक, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, कोटा, बंूदी तथा झालावाड़ आदि क्षेत्रों में आदिवासी काफी संख्या में निवास करते थे। राजस्थान का दक्षिणी क्षेत्र विशेष रूप से कोटड़ा, झाड़ौल, सलूम्बर, सराड़ा, खेरवाड़ा तहसीलें और सम्पूर्ण डूंगरपुर राज्य आदिवासियों से भरे पड़े थे। आदिवासी लोग जंगलों और पहाड़ों में छितराये हुए मैदानों में खेती करते थे। कृषि वर्षा पर निर्भर थी। जंगलों से घास, चारा, लकड़ी, गांेद, कंदमूल, तेंदूपत्ते, जानवारों की खाल,  आदि एकत्र कर उसे कस्बों और शहरों में लाकर बेचना इनका मुख्य व्यवसाय था। भील जाति मेवाड़ में सैनिक जाति के रूप में भी प्रख्यात थी। मीणा जाति आम्बेर राज्य में जागीरदार एवं चौकीदार के रूप में विख्यात थी। जमींदार मीणा प्रायः खेती एवं पशुपालन करते थे। कुछ लोग लूट-पाट भी करते थे। बारां जिले के शाहबाद और किशनगंज आदि क्षेत्रों में सहरिया जनजाति परम्परागत रूप से निवास करती थी।

दास वर्ग

प्राचीन आर्यों के समय से भारत में दास प्रथा प्रचलन में थी। मौर्य काल में दासों की स्थिति बहुत ही खराब थी। वे समाज में रहते हुुए भी अन्य नागरिकों की तरह जीवन यापन नहीं करते थे। उनका जीवन कष्टों और अभावों से भरा हुआ था। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणों के पश्चात् यह स्थिति और अधिक विकट हो गई। मुसलमान आक्रांता किसी भी व्यक्ति, स्त्री अथवा बच्चे को पकड़कर ले जाते थे और मध्य एशियाई देशों में ले जाकर बेच देते थे। जब मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में अपनी राजसत्ता स्थापित की तो देश में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। राजपूताना भी इससे अछूता नहीं रहा। राजपूताने के दास किसी जाति अथवा वर्ग से सम्बन्धित नहीं थे। न ही वे बाजारों में बेचे अथवा खरीदे गये थे। राजपूताने में दास प्रथा का जन्म शासक परिवारों की अवैध संतानों के रूप में हुआ। राजाओं एवं जमींदारों के महलों में काम करने वाली सेविकाएं इन संतानों की माता हुआ करती थीं। ये संतानें बड़ी होकर महल में सेवा चाकरी करने लगती थीं जिन्हें दास माना जाता था। इन्हें अछूत नहीं माना जाता था। कुछ प्रतिभाशाली दासों की नियुक्ति किलेदारों एवं दरोगा आदि के पदों पर की जाती थी। दासियांे को डावड़ी कहा जाता था। सुंदर दासियां महलों में अच्छा-खासा प्रभाव रखती थीं।

अछूत समझी जाने वाली जातियाँ

आर्यों ने श्रम आधारित जिस चार वर्णीय सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया था, उस व्यवस्था में मुसलमानों के प्रभाव से बहुत बड़ी विकृति उत्पन्न हुई। निम्न समझे जाने वाले कार्यों को करने वाली जातियां अछूत समझी जाने लगीं। इनमें मैला ढोने वाली, चमड़े का काम करने वाली तथा मृत पशुओं की खाल उतारने वाली जातियां सम्मिलित थीं। इस वर्ग में सम्मिलित जातियों में निरंतर विस्तार होता चला गया।

मुसलमान

मध्यकाल में राजपूताने के विभिन्न राज्यों में मुसलमान भी निवास करने लगे थे। इनमें से कुछ मुसलमान शाही सैनिकों एवं अधिकारियों के रूप में राजपूताने के राज्यों एवं मुस्लिम शासित क्षेत्रों में रहते थे किंतु अधिकांश मुसलमान वे थे जो ना-ना कारणों से हिन्दू धर्म त्यागकर मुसलमान हो गये थे। मुसलमानों की विभिन्न शाखाएं मध्यकाल में ही विकसित होने लगी थीं जिनमें कायमखानी, मेव, सैयद, पठान, काजी आदि सम्मिलित थे। इनमें भी जातियां बनने लगी थीं। छींपा जाति के मुसलमान भी राजपूताने में बड़ी संख्या में निवास करते थे। मुसलमानों के साथ ही कसाई भी बसने लगे थे।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मध्यकाल का समाज जटिल जातीय व्यवस्था में विभक्त था। हर जाति का अपना काम था। इस काम के आधार पर ही उन्हें समाज में अधिक या कम आदर प्राप्त होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। हाथ से काम करने वाली जातियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। सतत युद्धों के उपरान्त भी राज्यों की अर्थव्यवस्था संतोषजनक थी किंतु मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद समाज की अर्थव्यवस्था में तेजी से परिवर्तन आया। इस कारण विभिन्न जातियों को अपने परम्परागत कार्यों के साथ-साथ विभिन्न कार्य अपनाने पड़ रहे थे। जाति व्यवस्था को बनाये रखने में सामंती व्यवस्था एवं जातीय पंचायतें प्रमुख भूमिका निभा रही थीं।

सामाजिक जीवन

राजपूत राज्यों में प्राचीन आर्यों द्वारा विकसित पितृ-सत्तात्मक संरचना वाले संयुक्त परिवार निवास करते थे। परिवार का मुखिया अपनी तीन-चार और यहां तक कि पांच-पांच पीढ़ियों के साथ रहता था। भूमि का बंटावारा नहीं किया जाता था इसलिये सब भाई तथा उनकी संतानें मिलकर खेती, पशुपालन एवं विविध कार्य किया करते थे। इसके कारण कुटीर उद्योग एवं पारिवारिक व्यवसाय का प्रचलन था।

सोलह संस्कार

मनुष्य के जीवन के लिये सोलह संस्कार आवश्यक माने जाते थे। इनमें नामकरण, अन्न-प्राशन, चूड़ाकरण (झड़ूला), उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि आदि प्रमुख थे।

विवाह

समाज की संरचना बहुत सरल थी। कन्या का विवाह कम आयु में ही कर दिया जाता था। इसके पीछे धारणा यह थी कि कन्या को अपने पिता के घर में राजस्वला नहीं होना चाहिये। विवाह अपनी ही जाति में होता था किंतु एक ही रक्त वाले स्त्री-पुरुष परस्पर भाई-बहिन समझे जाते थे और उनका परस्पर विवाह नहीं होता था। इसलिये गोत्र आधारित विवाह किये जाते थे। राजपूतों एवं वैश्यों में बहु-विवाह प्रचलित था। राजपूत एवं अन्य धनी लोग उपपत्नियां भी रखते थे जिन्हें उनकी हैसियत के अनुसार रखैल, पासवान, पडदायत अथवा खवास कहा जाता था। विवाह के अवसर पर कुनबे वालों को भोज दिया जाता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलन में नहीं था। जाट, माली, गूजर, कुम्हार आदि श्रम आधारित जातियों में नाता प्रथा प्रचलित थी जिसमें विधवा स्त्री का विवाह उसके ससुराल पक्ष के अथवा किसी अन्य परिवार के पुरुष से कर दिया जाता था। जाति से बाहर विवाह करने वालों को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था।

मृतक संस्कार

मृतक संस्कार को आवश्यक धार्मिक कर्त्तव्य समझा जाता था। शव को अग्नि में जलाया जाता था। उसकी राख एवं हड्डियों को नदियों में प्रवाहित किया जाता था। मृत्यु भोज देना अनिवार्य था। मृतक की आत्मा की शांति के लिये ब्राह्मणों एवं भूखों को भोजन दिया जाता था। समय-समय पर श्राद्ध कर्म भी किया जाता था।

वस्त्राभूषण

मनोरंजन प्रिय संस्कृति होने के कारण राजपूताने में विविध प्रकार के चटख रंगों के वस्त्र पहने जाते थे। शासक एवं सामंत वर्ग के लोग बड़ी धोती, लम्बी अंगरखी तथा रंग-बिरंगी पगड़ियां पहनते थे। कपड़ों पर सोने-चांदी के तारों एवं कसीदे का काम किया जाता था। मध्यम वर्ग के लोग धोती, अंगरखी, दुपट्टा, साफा या पगड़ी पहनते थे। निर्धन लोग कमर में ऊँची धोती तथा सिर पर पोतिया बांधते थे। औरतें घेरदार घाघरा, लम्बी आस्तीन वाली कुर्ती तथा ओढ़नी पहनती थीं। मुगलों के सम्पर्क के बाद बहुत से पुरुष जामा, कमरबंद और पाजामा पहनने लगे थे। स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। सम्पन्न लोग सोने के, मध्यम लोग चांदी के, निर्धन लोग ताम्बे एवं पीतल के आभूषण पहनते थे। स्त्रियां शुभ अवसरों पर हाथ-पैरों पर मेहंदी लगाती थीं। वे आंखों में काजल, माथे पर बिंदी तथा सिर में मांग लगाती थीं।

आमोद प्रमोद

मध्यकालीन राजपूताना में घरों के भीतर एवं चौराहों आदि पर सार्वजनिक रूप से चौपड़, शतरंज, गंजीफा, चर-भर, आदि खेल खेले जाते थे। कुश्ती, पट्टेबाजी, पतंगबाजी, कबूतरबाजी, मुर्गों की लड़ाई, तैराकी, हाथियों की लड़ाई, भैंसों की लड़ाई, आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। गायन, वादन एवं नृत्य के आयोजन पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर आयोजित किये जाते थे। राजपूत लोग शिकारों का आयेाजन करते थे। झूला झूलना, नाटक आयोजित करना, विभिन्न प्रतियोगिताओं तथा मेलों का आयोजन करना भी मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।

खान-पान

समाज में शाकाहार एवं मांसाहार का प्रचलन था। वैश्य एवं ब्राह्मण शाकाहारी थे। अन्य जातियों में प्रायः मांसाहार होता था। दैनिक भोजन में गेहूँ, बाजरा, मक्का, चावल, जौ, चना आदि अनाजों एवं अनेक प्रकार की दालों एवं हरी सब्जियों का प्रयोग होता था। विवाह आदि अवसरों पर अफीम से मनुहार की जाती थी। शराब का भी प्रचलन था। सात्विक प्रवृत्ति के लोग शराब नहीं पीते थे। भोजन के बाद एवं चौपालों पर हुक्के पीने का प्रचलन था। सामान्य दिनों में दाल-रोटी, सब्जी रायता आदि खाया जाता था। विवाह, त्यौहार एवं अतिथि आगमन पर खीर, पुए, लड्डू, गुलगुले आदि बनाये जाते थे। मुरब्बे, अचार, चटनी आदि भी प्रचलन में थे। दूध, दही, घी, छाछ एवं मक्खन का प्रयोग आर्थिक स्थिति के अनुसार होता था। मांसाहारी लोग हिरण, बकरा, भेड़ एवं सूअर आदि पशुओं तथा मुर्गा एवं बत्तख आदि पक्षियों का मांस खाते थे। समस्त राजपूताना में हिन्दू राज्य होने गाय का मांस पूरी तरह निषिद्ध था।

धर्म

मध्यकालीन रापजूताने में वैदिक एवं पौराणिक धर्म का प्रचलन था। विष्णु, लक्ष्मी, शिव, सूर्य, दुर्गा, गणेश, हनुमान आदि देवी-देवताओं की पूजा होती थी। दान करना, यज्ञ करना, तीर्थ यात्राओं पर जाना, कीर्तन एवं रतजगा करना श्रेष्ण धार्मिक कर्त्तव्य माने जाते थे। मंदिर, प्याऊ एवं धर्मशाला बनाना, सदाव्रत बांटना, तालाब खुदवाना भी धार्मिक कर्म के रूप में प्रचलित थे। अमावस्या एवं संक्रांति के अवसरों पर नदियों एवं तालाबों में स्नान करने का महत्व था। समाज में विभिन्न व्रत एवं उपवास भी प्रचलन में थे। वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव एवं शाक्त मत भी प्रचलन में थे। शाक्त लोग देवी को भैंसे एवं बकरे की बलि चढ़ाते थे। शैव धर्म की नाथ शाखा राजपूताने में विशेष रूप से सक्रिय थी। राजपूताने के विभिन्न राज्यों में जैन धर्म का भी प्रभाव था। विभिन्न तीर्थंकरों के मंदिर बने हुए थे जिनमें पूजा होती थी। लोकदेवताओं की भी पूजा प्रचलन में थी। गोगा, पाबू, हड़बू, रामदेव, मल्लीनाथ, वीर तेजा, मांगलिया मेहा आदि लोक देवताओं की पूजा होती थी तथा उनके जन्मदिन एवं निर्वाण दिन पर मेले लगते थे। संतों एवं गुरुओं को विशेष आदर दिया जाता था। समाज पर कबीर, दादू, रैदास, मीरां आदि संतों के भजनों का प्रभाव था। रामस्नेही सम्प्रदाय भी प्रसिद्ध हो गया था। मुस्लिम लोग इस्लाम को मानते थे। अजमेर एवं नागौर में सूफियों के बड़े केन्द्र स्थापित हो गये थे।

सामाजिक एवं धार्मिक पर्व

मध्यकालीन राजपूताना में हिन्दुओं के समस्त छोटे-बड़े सामाजिक एवं धार्मिक पर्व मनाये जाते थे। होली, दीपावली, रक्षा बंधन, गणगौर, तीज, दशहरा, अक्षय तृतीया, नवरात्रि, प्रमुख त्यौहार थे। विभिनन त्यौहारों के अवसर पर मेलों का आयोजन किया जाता था। मुसलमानों में ईदुलफितर, ईदुलजुहा, बारा-बफात, मुहर्रम आदि मनाये जाते थे।

सामाजिक बुराइयाँ

मध्यकालीन राजपूताने में सती प्रथा सबसे बड़ी सामाजिक बुराई थी। यह राजपूतों में अधिक प्रचलन में थीं। राजपूतों में पति के मरने पर उसकी पत्नियां प्रायः सती हो जाती थीं। कई बार अग्रवाल आदि वैश्य स्त्रियां भी सती होती थीं। किसी के मरने पर मृत्युभोज आयोजित किया जाता था। दहेज प्रथा किसी न किसी रूप में हर जाति एवं वर्ग में प्रचलित थी। राजपूत परिवारों द्वारा अपनी पुत्रियों के विवाह के अवसर पर दास-दासी भी दहेज में दिये जाते थे। डाकन-प्रथा का बहुत ही बुरा प्रचलन था। किसी भी आयु की औरत को डाकन घोषित करके उसे जान से मार डाला जाता था। राजपूत जातियों में कन्या-वध का प्रचलन था। राजपूत परिवारों मंे विवाह के अवसर पर चारणों, ढोलियों तथा भाटों को त्याग दिया जाता था। इस प्रथा को त्याग-प्रथा कहा जाता था। त्याग प्राप्त करने वाले, अपने जजमानों से झगड़ा करके अधिक से अधिक त्याग प्राप्त करने की चेष्टा करते थे। इस भय के कारण भी कन्या वध अधिक संख्या में होता था। कुछ लोग लड़कियों से वेश्यावृत्ति करवाने, गृह दासी बनाने के लिये लड़कियों को खरीदते एवं बेचते थे। साधु लोग अपने चेले-चेली बनने के लिये भी लड़के-लड़कियां खरीदते थे। इसे चेला प्रथा कहते थे।

अर्थव्यवस्था

मध्यकाल में राजपूताना के राज्यों में अर्थव्यवस्था जटिल नहीं हुई थी। कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग, खनिज उत्पादन, जंगल के साथ-साथ वाणिज्य एवं व्यापार भी उस काल की अर्थ व्यवस्था में प्रमुख योगदान देते थे।

कृषि

राजा समस्त भूमि का सैद्धांतिक स्वामी था। व्यवहार में काश्तकार तब तक कृषि भूमि का स्वामी था जब तक वह लगान देता रहता था। राजा किसी को भी राज्य की भूमि जागीर, दान एवं अनुदान में दे सकता था। वह जागीर अथवा दान में दी हुई भूमि को वापस भी ले सकता था। राज्य की समस्त भूमि खालसा, जागीर, भोम, सासण के रूप में बंटी हुई थी। खालसा भूमि पर राजा का प्रत्यक्ष नियंत्रण होता था। लगान निर्धारित करने तथा उसकी वसूली का काम राज्य के कर्मचारी करते थे। सामंतों एवं जागीरदारों को राजकीय सेवा के बदले में भूमि जागीर में दी जाती थी। ऐसी भूमि का बेचान अथवा हस्तांतरण राजा की स्वीकृति से ही हो सकता था। भोमिया को दी गई जमीन भोम और ब्राह्मणों, भाटों, चारणों आदि को पुण्यार्थ दी गई भूमि सासण एवं माफी के नाम से जानी जाती थी। पशुओं के लिये रिक्त रखी गई भूमि चरणोत या गोचर कहलाती थी। इस पर पूरे गांव का अधिकार होता था।

भूमि की ऊर्वरता के आधार पर उसका श्रेणीकरण एवं वर्गीकरण किया गया था तथा उसी के आधार पर लगान अथवा भोग तय किया जाता था। एक चमड़े के पात्र (चड़स) से से सींची जाने वाली भूमि को कोशवाहक कहते थे। तालाब की भूमि को तलाई, नदी के किनारे वाली भूमि को कच्छ, कुएं के पास वाली भूमि को डीमडू, गांव के पास वाली भूमि को गोरमो, कहा जाता था। उपज के हिसाब से भी भूमि के अलग-अलग नाम होते थे। सिंचाई वाली भूमि को पीवल, पानी से भरी हुई को गलत हांस, जोती जाने वाली भूमि को हकत-बहत, काली उपजाऊ भूमि को माल, पहाड़ी जमीन को मगरो, गांव से दूर की भूमि को कांकड़, बागवानी में प्रयुक्त भूमि को बाड़ी कहा जाता था। भूमि के टुकड़ों को कातका या बतका कहते थे। खेती के लिये लोहे एवं लकड़ी के हल, कुदाल, फावड़ा, कस्सी एवं जेई आदि उपकरणों का प्रयोग होता था। हल खींचने का काम मुख्यतः बैल करते थे। ऊँटों से भी हल खींचा जाता था।

राजपूताना के राज्यों में सर्दी में होने वाली फसल को सियालू (रबी) एवं गर्मी में होने वाली फसल को उनालू (खरीफ) कहा जाता था। सियालू में गेहूं, जौ, चना तथा उन्हालू में बाजरा, ज्वार, मूंग, मोठ प्रमुखता से होते थे। मालवा से लगने वाले पठारी क्षेत्र में थोड़ा बहुत चावल, गन्ना, कपास एवं उड़द भी पैदा किया जाता था।  प्रतापगढ़ तथा माल की भूमि में अफीम भी पैदा होती थी। सिंचाई के साधन सीमित थे। तालाबों, कुंओं एवं नहरों के माध्यम से सिंचाई होती थी। कुंओं एवं बावड़ियों से रहट, चड़स अथवा ढीकली के माध्यम से पानी खींचकर खेतों में पहुंचाया जाता था।

खालसा भूमि में राजा की ओर से तथा जागीर भूमि में जागीरदार की ओर से भू-राजस्व वसूल किया जाता था। सामान्यतः उपज का एक तिहाई अथवा एक चौथाई कर वसूल किया जाता था। कर निर्धारण की अलग-अलग पद्धतियां प्रचलित थीं। इनमें से लाटा, कूंता, बंटाई आदि अधिक लोकप्रिय थीं। मुगलों से सम्पर्क होने के बाद राहदारी, बाब, पेशकश, जकात, गनीम आदि अनेक नये कर प्रचलन में आ गये थे। अकाल में किसानों की हालत बहुत खराब हो जाती थी। मुगलों से सम्पर्क के बाद राजपूताना राज्यों में इजारेदारी प्रथा आरंभ हो गई थी। इस प्रथा में राज्य द्वारा एक निश्चित अवधि के लिये एक निश्चित राशि के बदले में लगान वसूली का अधिकार किसी भी व्यक्ति को सौंप दिया जाता था। इसे मुकाता भी कहते थे। इजारा उस व्यक्ति को दिया जाता था जो इजारे की राशि की अधिक से अधिक बोली लगाता था।

उद्योग धंधे

राजपूताने में कच्चा माल, सस्ता श्रम तथा सस्ती खनिज सम्पदा उपलब्ध थी। इस कारण तैयार माल अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता था। उस काल में सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, सूतली, सन की रस्सी, मूंझ की रस्सी टाटपट्टी, गलीचे, कम्बल, लकड़ी का सामान, मिठाई, कपड़ा, कागज, नमक, खार, सज्जी आदि के उद्योग अच्छे चलते थे। उद्योगों का स्वरूप प्रायः कुटीर उद्योग था जिसमें परिवार के सब सदस्य मिलकर काम करते थे। भरतपुर, मारवाड़, जयपुर, बीकानेर, मेवाड़ आदि राज्यों में कई जगहों पर नमक बनता था।

सूती कपड़ा उद्योग: देलवाड़ा, पाली, सिरोंज, अजमेर, सांगानेर, आकोला, भरतपुर, उदयपुर, चित्तौड़, कोटा, कैथून, मांगरोल, बूंदी आदि स्थान सूत कातने, कपड़ा बुनने, रंगाई, छपाई और बंधाई के बड़े केन्द्र बन गये। कोटा में मलमल बनाने का काम होता था। यहां की चूंदड़ी और कसूमल पगड़ियां प्रसिद्ध थीं। बूंदी राज्य में डोरिया, शैला, जोड़ा और अंगोछे बनते थे। मारवाड़ राज्य के मारोठ और जालोर परगनों में हाथ से कती और बुनी रेजी (गाढ़ा कपड़ा) बनता था। आम्बेर राज्य में सांगानेर और बगरू की छपाई एवं रंगाई प्रसिद्ध थी। कोटा की सुनहरी-रूपहरी छपाई एवं बारां की चूंदड़ी और पोमचा की बंधाई प्रसिद्ध थी। जयपुर और जोधपुर में भी बंधेज का काम होता था जिससे चूंदड़ी बनती थी।

ऊनी कपड़ा उद्योग: जैसलमेर, मारवाड़, बीकानेर तथा शेखावाटी में ऊनी वस्त्र उद्योग उन्नत अवस्था में था।

लोहे का सामान: नागौर में मुलतान से आये कारीगर लोहे के हथियार, सुनारी एवं लुहारी के उपकरण, खेती के औजार, तराजू के बाट आदि बनाते थे। सिरोही में भी अच्छी तलवारें बनती थीं। बूंदी में कटार, उस्तरे, चाकू तथा तलवारें बनती थीं। जोधपुर, पाली और सोजत में भी लोहे की सामग्री बनती थी। पाली में लोहे के संदूक, कड़ाहियां और बड़े-बड़े कड़ाह बनते थे।

आभूषण उद्योग: जयपुर में हीरे-जवाहरातों से जड़े आभूषण एवं लाल रंग की मीनाकार का काम होता था। जोधपुर में आभूषणों की घड़ाई तथा पटवे का काम (आभूषणों को रेशमी एवं सूती डोरी से बांधने का काम) होता था। जोधपुर में हाथी दांत की चूड़ियां बनती थीं।

बर्तन उद्योग: जयपुर आदि कई नगरों में पीतल, ताम्बे, कांसे एवं लोहे के बर्तन बनते थे। जयपुर में पीतल के बर्तनों पर नक्काशी का काम बहुत सुंदर होता था। नागौर में पीतल के बर्तन बनते थे।

चर्म उद्योग: पशुओं की बहुतायत होने से राजपूताने में चर्म उद्योग काफी विकसित अवस्था में था। चमड़े से मशक, जूते, तिरपाल, तम्बू, पैकिंग थैले, घोड़े की जीन, रस्से, चड़स आदि बनते थे जो देश के विभिन्न राज्यों के साथ-साथ दूसरे देशों को निर्यात किये जाते थे। भीनमाल तथा जोधपुर आदि कई नगरों में जूतों पर कसीदाकारी की जाती थी।

काष्ठ उद्योग: राजपूताने के जंगलों में कई प्रकार की इमारती लकड़ी उपलब्ध होने से काष्ठ उद्योग भी विकसित अवस्था में था। लकड़ी के कृषि उपकरण, बैल गाड़ियां, ऊँट गाड़ियां, कोठियां, बक्से, पलंग, खाट एवं घर में काम आने वाली कई प्रकार की सामग्री बनती थी।

विविध उद्योग: राजपूताने के विविध नगरों में सुगन्धित तेल एवं इत्र बनाने का काम होता था। मुगलों के सम्पर्क के बाद इस काम में और तेजी आई। शरबत और शराब बनाने का उद्योग भी विस्तार पा चुका था। किशनगढ़, सांगानेर, जयपुर, जोधपुर आदि बहुत से स्थानों पर मोटा कागज बनता था। जयपुर एवं जोधपुर में लाख की चूड़ियां बड़े स्तर पर बनती थीं।

व्यापार एवं वाणिज्य

मध्यकाल में स्थानीय, अंतर्राज्यीय एवं अंतर्प्रादेशिक व्यापार खूब उन्नति कर गया था। विश्व के बहुत से देशों से विभिन्न सामग्री भारत लाई जाती थी और यहाँ से दूसरे देशों को ले जाई जाती थी। भारत की राजधानी दिल्ली तथा बहुत से उत्तरी राज्यों को दक्षिण में जाने के लिये राजपूताने से होकर निकलना पड़ता था। इस कारण राजपूताने के विभिन्न राज्यों में व्यापार एवं वाणिज्य की स्थिति बहुत अच्छी थी।

प्रमुख व्यापारिक मार्ग

उन दिनों में सड़कें पक्की नहीं होती थीं। कच्चे मार्गों पर यात्रा करना बहुत कठिन था। वर्षा एवं आंधी के कारण यात्रा बहुत थकाने वाली होती थी। डाकुओं और लुटेरों का खतरा भी बना रहता था। फिर भी पूरे देश में विभिन्न व्यापारिक मार्ग विकसित हो गये थे जिनमें से अनेक मार्ग राजपूताने के विभिन्न राज्यों से होकर निकलते थे। दिल्ली-आगरा से गुजरात और मालवा होकर दक्षिण जाने वाले राज्य राजपूताना से होकर गुजरते थे। दिल्ली से अजमेर के लिये दो प्रमुख मार्ग थे। एक दिल्ली से आगरा, भरतपुर एवं आमेर होकर था और दूसरा दिल्ली से अलवर और आमेर होकर। अजमेर से अहमदाबाद के दो प्रमुख मार्ग थे। एक अजमेर से माण्डलगढ़, चित्तौड़, उदयपुर तथा डूंगरपुर होकर था और दूसरा अजमेर से पुष्कर, पाली तथा पालनपुर होकर था। मुल्तान से अहमदाबाद का मार्ग भावलपुर, लोद्रवा तथा जैसलमेर होकर था। बीकानेर से अहमदाबाद का मुख्य मार्ग नागौर, मेड़ता, पाली और पालनपुर होकर था। दिल्ली से सिन्धु नदी का मुख्य मार्ग बीकानेर होकर था। उदयपुर से बांसवाड़ा और डूंगरपुर होकर भी मालवा जाने का मार्ग था। जयपुर से उज्जैन का मार्ग सांगानेर, टोंक, बूंदी, कोटा और झालरापाटन होकर था। राजपूत राज्यों की समस्त राजधानियां सहायक मार्गों द्वारा प्रमुख मार्गों से जुड़ी हुई थीं। राजपूताने के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र या तो मुख्य मार्गों पर स्थित थे अथवा सहायक मार्गों से सम्बन्न्धित थे। मुख्य तथा सहायक मार्गों पर व्यापारियों तथा अन्य यात्रियों की सुविधा के लिये सराय, कुएं तथा विश्राम स्थल बने हुए थे।

प्रमुख व्यापारिक केन्द्र

राजपूताना के आम्बेर राज्य में मालपुरा, सीकर और चिड़ावा, मारवाड़ में पाली, नागौर और भीनमाल, मेवाड़ में भीलवाड़ा, कमलमीर और रायपुर, बीकानेर राज्य में चूरू, नोहर और राजगढ़, कोटा राज्य में अंता, बारां और मांगरोल प्रमुख मण्डियां थीं। पाली नगर समस्त सम्पूर्ण भारत के प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों में से था। यहां भारत की बनी हुई वस्तुओं के साथ-सााथ अफ्रीका, यूरोप तथा चीन से भी सामान पहुंचता था। पाली के मार्ग से ही मालवा की अफीम चीन और पश्चिमी एशिया को निर्यात की जाती थी। अफीम से लदे हुए लगभग दो हजार ऊँट प्रति वर्ष पाली से होकर निकलते थे। टीन के बक्सों में बंद किया हुआ यूरोप का माल भावनरगर एवं अन्य बंदरगाहों पर उतारकर पाली भेजा जाता था। व्यापारिक करों तथा राहदारी शुल्क द्वारा पाली मण्डी से मारवाड़ राज्य को प्रतिवर्ष अच्छी आय होती थी। बीकानेर राज्य के राजगढ़ में भी प्रमुख व्यापारिक केन्द्र विकसित हो गया था जहाँ विभिन्न दिशाओं से आने वाले व्यापारिक काफिले ठहरते थे। कश्मीर, पंजाब, हांसी, हिसार आदि से माल आता था। दिल्ली की ओर से रेशम, चीनी, लोहा, तम्बाखू मालवा की ओर से अफीम, सिंध की ओर से गेहूँ, चावल, गुजरात की ओर से मसाले, टिन, दवाइयाँ, नारियल, हाथी दांत लेकर व्यापारी यहां से होकर गुजरते थे।

मुल्तान और शिकारपुर से जैसलमेर के मार्ग से छुआरा, गेहूँ, चावल, सूखे मेवे आदि आते थे। जैसलमेर- मुल्तान, शिकारपुर, हैदराबाद (सिन्ध), अमरकोट, खैरपुर, रौरी, बेकर अहमदपुर, भावलपुर आदि व्यावसायिक नगरों से जुड़ा हुआ था। पाली, नागौर, फलौदी, पोकरण, पूगल, बीकानेर, बाड़मेर, शिव, कोटड़ा,  आदि नगरों से हुए हुए व्यापारी जैसलमेर पहुंचते थे। जैसलमेर नगर के मध्य में पूंजीपति लोग व्यापारिक लेन-देन के लिये बनजारों से घिरे हुए रहते थे। वस्त्र, मिष्ठान, आभूषण आदि विभिन्न सामग्रियों के क्रय-विक्रय के अलग-अलग स्थान निर्धारित थे। जैसलमेर में विभिन्न दिशाओं से अनाज से लदे हुए ऊँट आते थे।

व्यापारिक परिवहन

राजपूताना के विभिन्न राज्यों से विविध प्रकार की सामग्री का दुनिया भर के देशों में निर्यात किया जाता था। इसके लिये राजपूताना से सामग्री खरीद कर व्यापारिक काफिले विभिन्न बंदरगाहों तक पहुंचते थे जहां से यह सामग्री अन्य देशों तक पहुंचती थी। स्थलीय परिवहन के लिये बैलगाड़ियों, ऊँटों, ऊँट गाड़ियों, घोड़ों, टट्टुओं, गधों, हाथियों और रथों का उपयोग किया जाता था। व्यापारिक सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का काम बनजारे करते थे। एक सामान्य बनजारे के पास 200 से 500 तक मालवाहक पशु होते थे। बड़े बनजारों के पास इनकी संख्या 2000 तक होती थी। बनजारों के काफिले को बालद कहा जाता था। राजपूत राज्यों के राजा एवं जागीरदार, व्यापारियों से कर एवं शुल्क लेकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते थे। अधिकांश व्यापारी अपने काफिलों के साथ चारणों को रखते थे क्योंकि उस काल में चारणों को अवध्य माना जाता था, उन्हें लूटा नहीं जाता था तथा आदर दिया जाता था। इस कारण बहुत से लुटेरे चारणों का कहना मानकर काफिले को लूटे बिना ही चले जाते थे। व्यापारिक काफिलों के साथ सशस्त्र रक्षक भी चलते थे। फिर भी स्थानीय शासक अथवा जागीरदार से अभय प्राप्त किये बिना व्यापारिक परिवहन संभव नहीं था।

निर्यात

राजपूताना के विभिन्न राज्यों से कपास, सूती कपड़ा, छींट का कपड़ा, रंगा हुआ कपड़ा, चूंदड़ी का कपड़ा, चमड़ा, चमड़े की सामग्री, ऊन, ऊन से बने हुए कम्बल एवं गलीचे, रस्से, नमक, अफीम, भांग, गांजे, विभिन्न प्रकार के उपयोगी पशु तथा पशुओं की खालें, घी, तिलहन, तेल, अनाज आदि विभिन्न प्रकार की जिंसों का निर्यात किया जाता था। मुल्तानी मिट्टी तथा संगमरमर पत्थर भी बंदरगाहों तक पहुंचाये जाते थे। सांभर झील से प्राप्त नमक सांभरी नमक कहलाता था। इसकी मांग उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में अधिक थी। पचपद्रा का नमक कोसिया कहलाता था। इसकी मांग मध्यप्रदेश में अधिक थी। डीडवाना का नमक डीडू कहलाता था। इसकी मांग पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में थी। हाड़ौती तथा मेवाड़ में पोस्त की खेती की जाती थी। इसके रस से अफीम तैयार की जाती थी। जैसलमेर, मारवाड़, बीकानेर तथा शेखावाटी के मरुक्षेत्रों में भेड़पालन बहुतायत से होता था। इन क्षेत्रों से ऊन, ऊनी कम्बल, ऊनी दरियां, ऊन के मोटे रस्से, जहाजों पर बिछाने के लिये मोटे ऊनी गलीचे निर्यात किये जाते थे। आम्बेर राज्य के मालपुरा से ऊनी टोपियां, ऊनी लोई (पतली ऊनी चद्ददर) और कम्बलों का निर्यात होता था। नागौर तथा ओसियां भी ऊन तथा ऊन से बनी सामग्री का बड़ी मात्रा में निर्यात होता था।

आयात

मध्यकाल में मालवा, पंजाब, कश्मीर तथा गुजरात आदि विभिन्न क्षेत्रों के बड़े व्यापारियों की दुकानें मारवाड़ के विभिन्न राज्यों में खुली हुई थीं, उसी प्रकार राजपूताने के व्यापारियों की दुकानें भारत के विभिन्न क्षेत्रों में खुली हुई थीं। इन दुकानों पर दुनिया भर की सामग्री बिकने के लिये आती थी। समय-समय पर हाट बाजारों एवं मेलों का भी आयोजन होता था जिनमें समुद्रों के किनारे एवं पहाड़ी क्षेत्रों में पैदा होने वाली विभिन्न सामग्री यथा खजूर, सूखा मेवा, शराब, दाख, नारियल, नारियल की चटाइयां, मखमल, बुरहानपुरी साड़ियां, बनारसी साड़ियां, गुजराती रेशम, कश्मीरी शॉल, औरंगाबादी कपड़े, सारंगपुर की पगड़ियां, हाथी, घोड़े बिकने के लिये आते थे। इस सामग्री की राजपूताने में भारी मांग थी।

चुंगी एवं राहदारी

मध्यकाल में व्यापारिक आयात-निर्यात पर चुंगी तथा राहदारी लगती थी। विभिन्न राज्यों के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर चुंगी चौकियां स्थापित की हुई थी। राज्य में उत्पादित माल जब राज्य की सीमा से बाहर जाता था तो उसे निकासू कहते थे। इस पर अधिक चुंगी देनी होती थी। इसे सायर कहते थे। राज्यों की सीमा से गुजरने वाले सामान को बहतीवान कहा जाता था। इस पर बहुत कम शुल्क लगता था जिसे राहदारी कहते थे। राज्य में आने वाले माल को आमद कहा जाता था इस पर निकासू माल की अपेक्षा कम चंुगी लगती थी। इनके अतिरिक्त मापा, दलाली तथा परगना शुल्क भी लगता था। जागीरदारों को भी शुल्क देना पड़ता था। हर राज्य में अपनी चुंगी पद्धति होती थी। अनाज आदि वस्तुओं पर प्रति बैल, ऊँट अथवा खच्चर पर लदे हुए बोझ के हिसाब से चुंगी ली जाती थी, न कि सामान के मूल्य के आधार पर। किराणा सम्बन्धी वस्तुओं पर भी सामान के वजन के हिसाब से चुंगी ली जाती थी। मनिहारी के सामान पर सामान के मूल्य के आधार पर चुंगी ली जाती थी।

मुद्रा

व्यापार एवं विपणन के लिये राजपूताने में मुद्रा का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता आया है। मध्यकाल में विभिन्न राज्यों में विभिन्न प्रकार की मुद्राएं प्रचलित थीं। इनके आकार, तोल एवं मूल्य में भिन्नताएं थीं। महारणा कुंभा के समय से पहले भी राजपूताने में सोने, चांदी और ताम्बे के सिक्के प्रचलन में थे जिन्हें टक्का कहते थे। इनका वजन चार माशा होता था। तुर्कों और मुगलों के समय में दिल्ली सल्तनत और मुगलों के सिक्के चलन में आ गये जिनको फिरोज आलमशाही, शालमशाही, नौरंगशाही और अकबरी सिक्के कहते थे। इनमें चांदी की मात्रा अधिक होती थी। उस समय में ताम्बे के पैसे को फदिया, ढीगला तथा ढब्बूशाही सिक्का कहा जाता था। मुगल शासकों के समय में लगभग समस्त राजपूत राजाओं के पास सिक्का ढालने का अधिकार नहीं रहा किंतु मुगलों के कमजोर पड़ते ही समस्त राज्यों ने अपने-अपने सिक्के ढालने आरम्भ कर दिये। बड़े राज्यों में कुछ बड़े जागीरदारों को भी सिक्का ढालने की अनुमति दे दी गई। मेवाड़ में सलूम्बर के जागीरदार को तथा मारवाड़ राज्य में कुचामन के जागीरदार को सिक्का ढालने का अधिकार दिया गया। समस्त राज्यों में राजपूताने के समस्त राज्यों के सिक्कों को स्वीकार किया जाता था किंतु उनकी विनिमय दर अलग-अलग होती थी तथा एक्सचेंज के बदले में सिक्के के वास्तविक मूल्य में से बट्टा काट लिया जाता था। विनिमय दर समय-समय पर घटती-बढ़ती रहती थी। इसका मूल कारण सट्टा होता था। साहूकारों द्वारा सिक्का विनिमय किये जाने के अवसर पर लोगों को ठगा जाता था।

हुण्डी

वस्तुओं के आयात-निर्यात का भुगतान हुण्डी प्रथा से होता था। इसे आज के बैंकरर्स चैक अथवा ड्राफ्ट की तरह समझा जा सकता है। जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर रुपयों की आवश्यकता होती थी तब हुण्डी के द्वारा भुगतान भेजा जाता था। इस राशि पर 16 प्रतिशत मासिक ब्याज देना होता था। हुण्डी प्रायः मुद्दती होती थी इस कारण उस पर ब्याज अधिक लिया जाता था।

ब्याज

उस अवधि में सामान्यतः 9 से 12 प्रतिशत ब्याज दर प्रचलित थी। साहूकार बढ़ी हुई दरों पर कर्ज देकर मूल से देकर मूल से भी अधिक ब्याज वसूल कर लेते थे। और गरीब किसाना का सर्वस्व लूट लेते थे। परंतु कहीं-कहीं आध रुपया तो कहीं एक रुपया प्रति सैंकड़ा के हिसाब से काटा लिया जाता था और कटवामिति ब्याज लिया जाता था। बड़े मंदिरों के पुजारी भी ब्याज पर रुपया उधार दिया करते थे।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मध्यकालीन राजपूताना में कई प्रकार के उद्योग धंधे विकसित अवस्था में थे जिसके कारण लोगों को रोजगार की विशेष कठिनाई नहीं थी तथा लोगों की आय भी संतोषजनक थी।

प्राचीन भारत का इतिहास (पाषाण काल से ई.1200) – अनुक्रमणिका

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भारतीय विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिये स्नातक एवं स्नातकोत्तर उपाधि पाठ्यक्रमों पर आधारित पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास – इस काल खण्ड में भारत में विभिन्न सभ्यताओं का उदय होता है तथा भारतीय संस्कृति मूर्त रूप लेती है।

लेखक : डॉ. मोहनलाल गुप्ता

1. प्राचीन भारत का इतिहास जानने के स्रोत

2. पाषाण-कालीन सभ्यता एवं संस्कृति 

3. ताम्राश्म संस्कृति का उदय

4. हड़प्पा सभ्यता 

5. भारत में लौह युगीन संस्कृति 

6. दक्षिण भारत में महा-पाषाण संस्कृति 

7. भारत में वैदिक सभ्यता का प्रसार 

8. ऋग्वैदिक काल की सभ्यता 

9. उत्तर-वैदिक कालीन सभ्यता 

10. जनपद राज्य और प्रथम मगधीय साम्राज्य 

11. पश्चिमी जगत से भारत का सम्पर्क   

12. चंद्रगुप्त मौर्य  

13. अशोक महान् 

14. मौर्य-कालीन भारत 

15. ब्राह्मण राज्य  

16. विदेशी शासक 

17. गुप्त साम्राज्य  

18. चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य  

19. कुमारगुप्त प्रथम एवं स्कंदगुप्त  

20. गुप्त साम्राज्य का पतन 

21. गुप्त कालीन भारत   

22. भारत भूमि का स्वर्ण-युग: गुप्त काल 

23. हूण 

24. पुष्यभूति वंश अथवा वर्धन वंश 

25. भारतीय संस्कृति में पल्लवों का योगदान 

26 भारतीय संस्कृति में चालुक्यों का योगदान 

28 : भारत में राजपूतों का उदय 

29 : भारत के प्रमुख राजपूत-वंश   

30 : राजपूतकालीन भारत  

31 : सर्वोच्चता के लिए त्रिकोणीय संघर्ष (गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट वंश)

32 इस्लाम का उत्कर्ष 

33 : अरब वालों का भारत पर आक्रमण 

प्राचीन भारत का इतिहास जानने के स्रोत (अध्याय 1)

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प्राचीन भारत का इतिहास जानने के स्रोत

प्राचीन भारत का इतिहास जानने के स्रोत दो हैं- (1.) साहित्यक स्रोत तथा (2.) पुरातात्विक स्रोत। इन दो स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही भारत का प्राचीन इतिहास लिखा गया है।

इतिहासकारों को प्राचीन भारत का इतिहास जानने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि इस काल का कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता जिसमें भारत का क्रमबद्ध इतिहास लिखा हो। प्राचीन भारत में लिखने-पढ़ने का काम ब्राह्मण करते थे जिनकी रुचि इतिहास में न होकर धर्म, दर्शन तथा अध्यात्म में अधिक थी। फिर भी प्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़े हैं जिन्हें जोड़कर इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास का निर्माण किया है।

प्राचीन भारत का इतिहास जानने के स्रोत दो हैं- (1.) साहित्यक स्रोत तथा (2.) पुरातात्विक स्रोत।

साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोतों को दो भागों में रखा जा सकता है (1) भारतीय साहित्यिक स्रोत तथा (2) विदेशी साहित्यिक स्रोत

(1.) भारतीय साहित्यिक स्रोत

भारतीयों को 2500 ई.पू. में लिपि की जानकारी हो चुकी थी परंतु सबसे प्राचीन उपलब्ध हस्तलिपियाँ ईसा पूर्व चौथी सदी की हैं। ये हस्तलिपियाँ मध्य एशिया से प्राप्त हुई हैं। भारत में ये लिपियाँ भोजपत्रों और ताड़पत्रों पर लिखी गई हैं, परन्तु मध्य एशिया में जहाँ भारत की प्राकृत भाषा का प्रचार हो गया था, ये हस्तलिपियाँ मेष-चर्म तथा काष्ठ-पट्टियों पर भी लिखी गई हैं। इन्हें भले ही अभिलेख कहा जाता हो, परन्तु ये हस्तलिपियाँ ही हैं।

चूँकि उस समय मुद्रण-कला का जन्म नहीं हुआ था इसलिए ये हस्तलिपियाँ अत्यधिक मूल्यवान समझी जाती थीं। समस्त भारत से संस्कृत की पुरानी हस्तलिपियाँ मिली हैं, परन्तु इनमें से अधिकतर हस्तलिपियाँ दक्षिण भारत, कश्मीर एवं नेपाल से प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार के अधिकांश हस्तलिपि-लेख, संग्रहालयों और हस्तलिपि ग्रंथालयों में सुरक्षित हैं। ये हस्तलिपियां प्राचीन इतिहास को जानने के प्रमुख स्रोत हैं।

प्राचीन भारत के इतिहास को जानने के भारतीय साहित्यिक स्रोतों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (अ.) धार्मिक ग्रन्थ (ब.) अन्य ग्रन्थ।

(अ.) धार्मिक ग्रन्थ

अधिकांश प्राचीन भारतीय ग्रंथ, धार्मिक विषयों से सम्बन्धित हैं। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, धर्म शास्त्र, बौद्ध-साहित्य, जैन साहित्य आदि धार्मिक ग्रंथों में ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं। बिम्बसार के पहले के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिये ये ग्रंथ ही प्रमुख साधन हैं। इनमें धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक तथ्यों की प्रचुरता के साथ-साथ राजनैतिक तथ्य भी मिलते हैं।

(i) हिन्दू धर्म ग्रंथ

हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य में वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों (रामायण और महाभारत) तथा पुराणों आदि का समावेश होता है। यह साहित्य, प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों पर काफी प्रकाश डालता है किंतु इनके देश-काल का पता लगाना काफी कठिन है।

वैदिक साहित्य

ऋग्वेद सबसे प्राचीन वैदिक ग्रंथ है। इसे 1500-1000 ई.पू. के बीच की अवधि का मान सकते हैं। अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रंथ और उपनिषदों को 1000-500 ई.पू. के लगभग का माना जाता है। प्रायः समस्त वैदिक ग्रंथों में क्षेपक मिलते हैं जिन्हें सामान्यतः प्रारम्भ अथवा अंत में देखा जा सकता है। कहीं-कहीं ग्रंथ के बीच में भी क्षेपक मिलते हैं। ऋग्वेद में मुख्यतः प्रार्थनाएं मिलती हैं और बाद के वैदिक ग्रंथों में प्रार्थनाओं के साथ-साथ कर्मकांडों, जादू टोनों और पौराणिक व्याख्यानों का समावेश मिलता है। उपनिषदों में दार्शनिक चिंतन मिलता है।

पुराण

पुराणों का रचना काल 400 ई.पू. के लगभग का है। प्रमुख पुराण 18 हैं। इनमें विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण, हरिवंश पुराण, भागवत पुराण, गरुड़ पुराण आदि प्रमुख हैं। पुराणों से प्राचीन काल के राज-वंशों की वंशावली का पता चलता है। पुराण, चार युगों का उल्लेख करते हैं- कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। बाद में आने वाले प्रत्येक युग को पहले के युग से अधिक निकृष्ट बताया गया है और यह भी बताया गया है कि एक युग के समाप्त होने पर जब नए युग का आरम्भ होता है तो नैतिक मूल्यों तथा सामाजिक मानदण्डों का अधःपतन होता है।

महाकाव्य

दोनों महाकाव्यों को पौराणिक काल में अर्थात् 400 ई.पू. के लगभग संकलित किया गया। दोनों महाकाव्यों में से महाभारत की रचना पहले हुई। अनुमानतः इसमें दसवीं शताब्दी ई.पू. से चौथी ईस्वी शताब्दी ई.पू. तक की परिस्थितियों को चित्रित किया गया है। मूलरूप से इसमें 8,800 श्लोक थे और इसे यव संहिता कहा जाता था अर्थात् विजय सम्बन्धी संचयन।

आगे चलकर इसमें 24,000 श्लोक हो गए और इसका नाम प्राचीन वैदिक कुल- ‘भरत’ के नाम पर भारत हो गया। अंत में श्लोकों की संख्या बढ़ कर एक लाख तक पहुंच गई और इसे महाभारत अथवा शतसह संहिता कहा जाने लगा। इसमें व्याख्यान, विवरण और उपदेश मिलते हैं।

मुख्य व्याख्यान कौरव-पांडव संघर्ष का है जो उत्तर-वैदिक काल का हो सकता है। विवरण वाला अंश उत्तर-वैदिक काल का और उपदेशात्मक खण्ड उत्तर-मौर्य एवं गुप्तकाल का हो सकता है। इसी प्रकार रामायण में मूलरूप से 12,000 श्लोक थे जो आगे चलकर 24,000 हो गए। इस महाकाव्य में भी उपदेश मिलते हैं जिन्हें बाद में जोड़ा गया है। अनुमान है कि पूरा रामायण काव्य, महाभारत की रचना के बाद रचा गया।

उत्तर वैदिक धार्मिक साहित्य

उत्तर वैदिक काल के धार्मिक साहित्य में कर्मकाण्ड की भरमार मिलती है। राजाओं और तीनों उच्च वर्णों के लिए किए जाने वाले यज्ञों के नियम, स्रोतसूत्र में मिलते हैं। राज्याभिषेक जैसे उत्सवों का विवरण इसी में है। इसी प्रकार जन्म, नामकरण यज्ञोपवीत, विवाह, दाह आदि संस्कारों से सम्बद्ध कर्मकांड गृह्यसूत्र में मिलते हैं।

स्रोतसूत्र और गृह्यसूत्र- दोनों ही लगभग 600-300 ई.पू. के हैं। यहाँ पर शल्वसूत्र का भी उल्लेख किया जा सकता है जिसमें बलिवेदियों के निर्माण के लिए विभिन्न आकारों का नियोजन है। यहीं से ज्यामिति और गणित का प्रारम्भ होता है।

(ii) बौद्ध ग्रंथ

बौद्धों के धार्मिक ग्रंथों में ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रमों की जानकारी मिलती है। प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए हैं, यह भाषा मगध यानी दक्षिणी बिहार में बोली जाती थी। इन ग्रंथों को ईसा पूर्व दूसरी सदी में श्रीलंका में संकलित किया गया। यह धार्मिक साहित्य बुद्ध के समय की परिस्थितियों की जानकारी देता है।

इन ग्रंथों में हमें न केवल बुद्ध के जीवन के बारे में जानकारी मिलती है अपितु उनके समय के मगध, उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ शासकों के बारे में भी जानकारी मिलती है। बौद्धों के गैर धार्मिक साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं रोचक हैं गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों से सम्बन्धित कथाएँ।

यह माना जाता है कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध, 550 से भी अधिक पूर्वजन्मों में से गुजरे। इनमें से कई जन्मों में उन्होंने पशु-जीवन धारण किया। पूर्वजन्म की ये कथाएँ, जातक कथाएँ कहलाती हैं। प्रत्येक जातक कथा एक प्रकार की लोककथा है। ये जातक ईसा पूर्व पांचवी से दूसरी सदी तक की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। ये कथाएँ बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की भी जानकारी देती हैं।

(iii) जैन ग्रंथ

जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वल्लभी नगर में इन्हें संकलित किया गया था। इन ग्रंथों में ऐसे अनेक ग्रंथ है जिनके आधार पर हमें महावीर कालीन बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास की रचना करने में सहायता मिलती है। जैन ग्रंथों में व्यापार एवं व्यापारियों के उल्लेख बहुतायत से मिलते हैं।

(ब.) धर्मशास्त्र

धर्मसूत्र और स्मृतियों को सम्मिलित रूप से धर्मशास्त्र कहा जाता है। धर्मसूत्रों का संकलन 500-200 ई.पू. में हुआ। प्रमुख स्मृतियों को ईसा की आरंभिक छः सदियों में विधिबद्ध किया गया। इनमें विभिन्न वर्णों, राजाओं तथा राज्याधिकारियों के अधिकारों का नियोजन है। इनमें संपत्ति के अधिकरण, विकल्प तथा उत्तराधिकार के नियम दिए गए हैं। इनमें चोरी, आक्रमण, हत्या, जारकर्म इत्यादि के लिए दण्ड-विधान की व्यवस्था है।

(स.) अन्य ग्रन्थ

अर्थशास्त्र, हर्षचरित, राजतरंगिणी, दीपवंश, महावंश तथा बड़ी संख्या में उपलब्ध तमिल-ग्रंथों से भी ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधि-ग्रंथ है। इसमें मौर्य-वंश के इतिहास की जानकारी उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ पन्द्रह अधिकरणों यानी खण्डों में विभक्त है। इनमें दूसरा और तीसरा अधिकरण अधिक प्राचीन हैं।

अनुमान है कि इन अधिकरणों की रचना विभिन्न लेखकों ने की। इस ग्रंथ को ईस्वी सन् के आरंभकाल में वर्तमान रूप दिया गया। इसके सबसे पुराने अंश मौर्यकालीन समाज एवं अर्थतंत्र की दशा के परिचायक हैं। इसमें प्राचीन भारतीय राजतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है।

प्राचीन साहित्य में भास, कालिदास और बाणभट्ट की कृतियाँ उपलब्ध हैं। इनका साहित्यिक मूल्य तो है ही, इनमें कृतिकारों के समय की परिस्थितियाँ भी प्रतिध्वनित हुई हैं। कालिदास ने अनेक काव्यों और नाटकों की रचना की, जिनमें अभिज्ञान शाकुंतलम सबसे प्रसिद्ध है।

कालिदास के इस महान सर्जनात्मक कृतित्त्व में गुप्तकालीन उत्तर तथा मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की भी झलक मिलती है। बाणभट्ट के हर्ष चरित से हर्ष के शासन-काल का तथा कल्हण की राजतरंगिणी से काशमीर के इतिहास का पता चलता है। दीपवंश तथा महावंश से श्रीलंका के इतिहास का पता चलता है।

संगम साहित्य

संस्कृत स्रोतों के साथ-साथ, प्राचीनतम तमिल पाठ्य सामग्री भी उपलब्ध है जो संगम साहित्य के संकलन में निहित है। राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या केन्द्रों में रहने वाले कवियों ने तीन-चार सदियों के काल में इस साहित्य का सृजन किया था। चूँकि ऐसी साहित्य सभाओं को संगम कहते थे, इसलिए यह सम्पूर्ण साहित्य, संगम साहित्य के नाम से जाना जाता है।

यद्यपि इन कृतियों का संकलन ईसा की प्रारंभिक चार सदियों में हुआ, तथापि इनका अंतिम संकलन छठी सदी में होना अनुमानित है। ईसा की प्रारंभिक सदियों में तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य एकमात्र प्रमुख स्रोत है। व्यापार और वाणिज्य के बारे में इससे जो जानकारी मिलती है, उसकी पुष्टि विदेशी विवरणों तथा पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी होती है।

चरित लेखन

चरित लेखन में भारतीयों ने ऐतिहासिक विवेक का परिचय दिया है। चरित लेखन का आरम्भ सातवीं सदी में बाणभट्ट के हर्षचरित के साथ हुआ। हर्षचरित अलंकृत शैली में लिखी गई एक अर्धचरित्रात्मक कृति है। बाद में इस शैली का अनुकरण करने वालों के लिए यह बोझिल बन गई।

इस ग्रंथ में हर्षवर्धन के आरंभिक कार्यकलापों का वर्णन है। यद्यपि इसमें अतिशयोक्ति की भरमार है, फिर भी इसमें हर्ष के राजदरबार की और हर्षकालीन सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की अच्छी जानकारी मिलती है। इसके बाद कई चरित्र ग्रंथ लिखे गए। संध्याकर नंदी के रामचरित में पाल-शासक रामपाल और कैवर्त किसानों के बीच हुए संघर्ष का वर्णन है।

इस संघर्ष में रामपाल की विजय हुई। बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित में अपने आश्रयदाता कल्याण के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1127 ई.) की उपलब्ध्यिों का वर्णन किया है। बारहवीं और तेरहवीं सदियों में गुजरात के कुछ व्यापारियों के चरित लिखे गए।

बारहवीं सदी में रचित कल्हण की राजतरंगिणी ऐतिहासिक कृतित्त्व का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसमें कश्मीर के राजाओं का क्रमबद्ध चरित प्रस्तुत किया गया हैै यह प्रथम कृति है जिसमें आधुनिक दृष्टि युक्त इतिहास की कई विशेषताएँ निहित हैं।

(2.) विदेशी साहित्यिक स्रोत

प्राचीन भारत के इतिहास निर्माण के लिये विदेशी विवरणों का भी उपयोग किया गया है। जिज्ञासु पर्यटक के रूप में अथवा भारतीय धर्म को स्वीकार करके तीर्थयात्री के रूप में, अनेक यूनानी, रोमन तथा चीनी यात्री भारत आए और उन्होंने भारत के सम्बन्ध में आंखों देखे विवरण लिखे।

विदेशी विवरणों से, भारतीय संदर्भों का कालक्रम एवं तिथि निर्धारण करना संभव हो पाया है। अध्ययन की सुविधा से विदेशी विवरण को दो भागों में बांट सकते हैं- (अ.) विदेशी लेखकों के विवरण तथा (ब.) विदेशी यात्रियों के विवरण।

(अ.) विदेशी लेखकों के विवरण

विदेशी लेखकों में यूनानी लेखक एरियन, प्लूटार्क, स्ट्रैबो, प्लिनी, जस्टिन आदि, चीनी लेखक सुमाचीन, तिब्बती लेखक तारानाथ आदि आते हैं। तारानाथ के द्वारा लिखे गये भारतीय वृत्तांत कंग्युर एवं तंग्युर नामक ग्रंथों में मिलते हैं।

(ब.) विदेशी यात्रियों के विवरण

विदेशी यात्रियों में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज, चीनी यात्री फाह्यान, तथा ह्वेनसांग और मुसलमान विद्वान अल्बेरूनी प्रमुख हैं। यूनानी लेखकों से हमें सिकन्दर के भारतीय आक्रमण का, यूनानी राजदूत मेगास्थनीज की पुस्तक इण्डिका से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल का, चीनी लेखकों से शक पार्थियन और कुशाण जातियों के इतिहास का, फाह्यान के विवरण से चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल का, युवान-च्वांड् के ग्रंथ- ‘सि-यू-की’ के विवरण से हर्षवर्धन के शासनकाल का और अल्बेरूनी की पुस्तक- ‘तहकीक-ए-हिन्द’ के विवरण से महमूद गजनवी के आक्रमण के समय के भारत के राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है।

विदेशी विवरणों का मूल्यांकन

भारतीय स्रोतों में 324 ई.पू. में सिकंदर के भारत पर आक्रमण की कोई जानकारी नहीं मिलती। उसके भारत में प्रवास एवं उपलब्धियों के इतिहास की रचना के लिए यूनानी विवरण ही एकमात्र उपलब्ध स्रोत हैं। यूनानी यात्रियों ने, सिकंदर के एक समकालीन भारतीय योद्धा के रूप में सैण्ड्रोकोटस का उल्लेख किया है।

यूनानी विवरणों का यह राजकुमार सैण्ड्रोकोटस और भारतीय इतिहास का चन्द्रगुप्त मौर्य, जिसके राज्यारोहण की तिथि 322 ई.पू. निर्धारित की गई है, एक ही व्यक्ति थे। यह पहचान प्राचीन भारत के तिथिक्रम के लिए सुदृढ़़ आधारशिला बन गई है। इस तिथि क्रम के बिना भारतीय इतिहास की रचना करना सम्भव नहीं है।

चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी दूत मैगस्थनीज की इण्डिका उन उद्धरणों के रूप में संरक्षित है जो अनेक प्रसिद्ध लेखकों ने उद्धृत किए हैं। इन उद्धरणों को मिलाकर पढ़ने पर न केवल मौर्य शासन-व्यवस्था के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है अपितु मौर्यकालीन सामाजिक वर्गों तथा आर्थिक क्रियाकलापों के बारे में भी जानकारी मिलती है। यह कृति आंखें मूँदकर मान ली गई बातों अथवा अतिरंजनाओं से मुक्त नहीं है।

अन्य प्राचीन विवरणों पर भी यह बात लागू होती है। ईसा की पहली और दूसरी सदियों के यूनानी तथा रोमन विवरणों में भारतीय बन्दरगाहों के उल्लेख मिलते हैं और भारत तथा रोमन साम्राज्य के बीच हुए व्यापार की वस्तुओं के बारे में भी जानकारी मिलती है।

यूनानी भाषा में लिखी गई टोलेमी की ‘ज्योग्राफी’और ‘पेरीप्लस ऑफ दि एरीथ्रियन सी’पुस्तकें, प्राचीन भारतीय भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिये प्रचुर सामग्री प्रदान करती हैं। पहली पुस्तक में मिलने वाली आधार सामग्री 150 ईस्वी की और दूसरी पुस्तक 80 से 115 ईस्वी की मानी जाती है। प्लिनी की ‘नेचुरलिस हिस्टोरिका’पहली ईस्वी शताब्दी की है। यह लैटिन भाषा में लिखी गई है और भारत एवं इटली के बीच होने वाले व्यापार की जानकारी देती है।

चीनी पर्यटकों में फाह्यान और युवान-च्वांड् प्रमुख हैं। दोनों ही बौद्ध थे। वे बौद्ध तीर्थों का दर्शन करने तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत आए थे। फाह्यान ईसा की पांचवी सदी के प्रारंभ में आया था और युवान-च्वांड् सातवीं सदी के दूसरे चतुर्थांश में। फाह्यान ने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी दी है, तो युवान-च्वांड् ने हर्षकालीन भारत के बारे में इसी प्रकार की जानकारी दी है।

पुरातात्विक स्रोत

इतिहास जानने के वे साधन जो गुफाओं, नदियों के किनारों, तालाबों के किनारों, टीलों तथा धरती में दबे हुए मिलते हैं उन्हें मोटे तौर पर पुरातात्विक स्रोत कहा जाता है। इन्हें चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) अभिलेख (2) दानपत्र (3) मुद्राएँ और (4) प्राचीन स्मारक तथा भवनों के अवशेष।

(1.) अभिलेख

प्राचीन भारत का इतिहास जानने के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विश्वसनीय साधन अभिलेख हैं। ये प्रधानतः स्तम्भों, शिलाओं तथा गुफाओं पर मिलते हैं परन्तु कभी-कभी मूर्तियों, पात्रों तथा ताम्रपत्रों पर भी अंकित मिलते हैं। ये लेख देशी तथा विदेशी दोनों हैं।

देशी अभिलेखों में अशोक के अभिलेख, प्रयाग का स्तम्भ लेख तथा हाथीगुम्फा के अभिलेख सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। भारत के विभिन्न भागों में शिलांकित ग्रन्थ मिलते हैं। विदेशी अभिलेखों में एशिया माइनर में स्थित बोगजकोई के अभिलेख अधिक प्रसिद्ध हैं। अशोक के अभिलेखों से उसके धर्म तथा उसकी शिक्षाओं का परिचय मिलता है। अशोक के अभिलेख ही उसकी शिक्षाओं तथा राजाज्ञाओं को जानने का एकमात्र साधन हैं।

इसी प्रकार हाथीगुम्फा के अभिलेख खारवेल-नरेश के शासन काल का इतिहास जानने के एकमात्र साधन हैं। बोगजकोई के अभिलेख से भी भारतीय इतिहास पर यत्किंचित प्रकाश पड़ा है। अभिलेखों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘प्रारंभिक हिन्दू इतिहास में घटनाओं की तिथि का जो ठीक-ठीक ज्ञान अभी तक प्राप्त हो सका है वह प्रधानतः अभिलेखों के साक्ष्य पर आधारित है।

पश्चिमी इतिहासकार फ्लीट ने अभिलेखों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास का ज्ञान हमें केवल अभिलेखों के धैर्यपूर्ण अध्ययन से प्राप्त होता है।’

पुरालेख

प्राचीन अभिलेखों को पुरालेख कहते हैं तथा प्राचीन अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र कहते हैं। पुरालेखों तथा अन्य प्राचीन लेखों की प्राचीन लिपियों के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र कहते हैं। मुद्राओं, मुहरों, प्रस्तरों, स्तंभों, चट्टानों, ताम्रपत्रों तथा मंदिरों की भित्तियों के साथ-साथ ईंटों और मूर्तियों पर भी पुरालेख उत्कीर्ण किए गए हैं।

ये पूरे देश में प्राप्त होते हैं। ईसा की आरंभिक सदियों में इस कार्य के लिए ताम्रपत्रों का उपयोग होने लगा था किंतु पत्थरों पर भी भारी संख्या में लेख उत्कीर्ण किये जाते रहे। सम्पूर्ण भारत में मंदिरों की दीवारों पर भी स्थायी स्मारकों के रूप में भारी संख्या में अभिलेख खोदे गए हैं।

विभिन्न स्थानों से लाखों की संख्या में प्राप्त अभिलेख देश के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं, पर सर्वाधिक संख्या में अभिलेख, मैसूर के प्रमुख पुरालेख शास्त्री के कार्यालय में संगृहीत हैं। मौर्य, मौर्याेत्तर तथा गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेख कार्पस् इंस्क्रिप्शओनम् इंडिकारम नामक ग्रंथमाला में संगृहीत करके प्रकाशित किए गए हैं।

गुप्तोत्तर काल के अभिलेख इस प्रकार सुव्यवस्थित रूप से संगृहीत नहीं हो पाए हैं। दक्षिण भारत के अभिलेखों की लिपि-शैलियों की सूचियां प्रकाशित हो चुकी हैं। फिर भी 50,000 से भी अधिक अभिलेखों का, जिनमें अधिकांश दक्षिण भारत के लेख हैं, प्रकाशन अभी शेष है।

पुरालेखों की भाषा

भारत के सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं। ईसा की दूसरी सदी में अभिलेखों के लेखन के लिए संस्कृत भाषा को अपनाया गया। चौथी-पांचवीं सदी में संस्कृत भाषा का सर्वत्र प्रचार-प्रचार हुआ किंतु तब भी प्राकृत भाषा का उपयोग होता रहा। प्रादेशिक भाषाओं में अभिलेखों की रचना नौवीं-दसवीं सदियों से होने लगी।

पुरालेखों की लिपि

हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख, जिनको अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, सम्भवतः एक ऐसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमें विचारों एवं वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था। अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण किये गये हैं, यह लिपि दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी।

पश्चिमोत्तर भारत से प्राप्त अशोक के कुछ लेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं जो दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी। पश्चिमोत्तर भारत के अतिरिक्त शेष प्रदेशों में ब्राह्मी लिपि का ही प्रचार रहा। अफगानिस्तान में अशोक के शिलालेख के लिए यूनानी और ब्राह्मी लिपियों का भी उपयोग हुआ है। गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी लिपी ही बनी रही। गुप्तकाल के बाद ब्राह्मी लिपि की प्रादेशिक शैलियों में बड़ा अंतर आया और उन्हें अलग-अलग नाम दिए गए।

पुरालेखों का कालक्रम

भारत से प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन लेख, हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं। ये लगभग 2500 ई.पू. के हैं। इन पुरालेखों को पढ़ना अब तक सम्भव नहीं हो पाया है। सबसे पुराने जिन अभिलेखों को पढ़ना सम्भव हो पाया है वे ई.पू. तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख हैं।

फिरोजशाह तुगलक ने मेरठ में अशोक के एक स्तम्भलेख का पता लगाया था। उसने यह अशोक-स्तंभ दिल्ली मंगवाया और अपने राज्य के पंडितों से इस पर उत्कीर्ण लेख को पढ़ने का आदेश दिया किन्तु किसी को भी इसमें सफलता नहीं मिली।

अठारहवीं सदी के अंतिम चरण में अंग्रेजों ने जब अशोक के अभिलेखों को पढ़ने का प्रयास किया तो उन्हें भी इसी कठिनाई का सामना कररना पड़ा। ई.1837 में जेम्स प्रिंसेप को इन अभिलेखों को पढ़ने में पहली बार सफलता मिली जो बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी का सिविल अधिकारी था।

पुरालेखों के प्रकार

पुरालेख कई प्रकार के हैं। कुछ अभिलेखों में अधिकारियों और जन सामान्य के लिए जारी किए गए सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों एवं निर्णयों की सूचनाएं हैं। अशोक के अभिलेख इसी कोटि के हैं। दूसरे वर्ग के अन्तर्गत वे आनुष्ठानिक अभिलेख हैं जिन्हें, बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों ने स्तंभों, प्रस्तर-फलकों, मंदिरों अथवा मूर्तियों पर उत्कीर्ण करवाया है।

तीसरे वर्ग में प्रशस्तियों के रूप में लिखे गये अभिलेख हैं जिनमें राजाओं तथा विजेताओं के गुणों और उनकी सफलताओं का विवरण रहता है, पर उनकी पराजयों तथा कमजोरियों का कोई उल्लेख नहीं रहता। चन्द्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति इसी कोटि की है। चौथे वर्ग में दान अभिलेख मिलते हैं। इनमें राजाओं, राजपरिवार के सदस्यों, कारीगरों तथा व्यापारियों के द्वारा, धार्मिक प्रयोजन से धन, स्वर्ण, रत्न, मवेशी, भूमि आदि के रूप में दिए गए विशिष्ट दान का उल्लेख रहता है।

(2.) दानपत्र

राजाओं और सामंतों द्वारा दिए गए भूमिदानों से सम्बन्धित अभिलेख विशेष महत्त्व के हैं। इनसे प्राचीन भारत के भूमिबन्दोबस्त के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है। अधिकांश दानपत्र, ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण हैं। इन अभिलेखों में भिक्षुओं, पुरोहितों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों तथा अधिकारियों को दिए गए गांवांे, भूमियों तथा राजस्व के दानों का उल्लेख रहता है।

(3.) मुद्राएँ

प्राचीन भारत के इतिहास के निर्माण में मुद्राओं से बड़ी सहायता मिली है। इनके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘सिकन्दर के आक्रमण के समय से मुद्राएँ प्रत्येक युग में इतिहास के अन्वेषण के कार्य में अमूल्य सहायता पहुँचाती रही हैं।’ वास्तव में 206 ई.पू. से 300 ई. तक के भारतीय इतिहास को जानने के प्रधान साधन मुद्राएँ ही हैं।

इण्डो-पार्थियन तथा बैक्ट्रियन लोगों के इतिहास का पता हमें मुद्राओं से ही लगता है। मुद्राओं से हमें राजाओं के नाम, उनकी वेष-भूषा, उनके शासन-काल तथा उनके राजनीतिक एवं धार्मिक विचारों के जानने में बड़ी सहायता मिली है। राज्य की सीमा निर्धारित करने में भी कभी-कभी मुद्राओं का सहारा लिया जाता है।

मुद्राओं से राज्य की आर्थिक दशा का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। यदि मुद्राएँ शुद्ध सोने-चांदी की होती हैं तो उनसे देश की सम्पन्नता प्रकट होती है परन्तु यदि वे मिश्रित धातुओं की होती हैं तो उनसे राज्य की विपन्नता का पता लगता है। मुद्राओं के चित्रों तथा अभिलेखों से राज्य की कला तथा साहित्य की अवस्था का भी ज्ञान होता है।

गुप्तकालीन मुद्राएँ बड़ी ही सुन्दर तथा कलात्मक हैं और उन पर शुद्ध तथा गीतमय संस्कृत लेख लिखे हैं जिनसे पता लगता है कि गुप्त-सम्राट् साहित्य तथा कला के प्रेमी थे। प्राचीन भारत में सिक्कों पर धार्मिक चिह्न ओर संक्षिप्त लेख भी अंकित किए जाते थे जिनसे उस समय की कला एवं धार्मिक परिस्थितियों पर प्रकाश पड़ता है।

मुद्राशास्त्र

सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। सबसे प्राचीन सिक्के आग में पकाई हुई मिट्टी के हैं। उसके बाद तांबा, चांदी, सोना और लेड (सीसा) धातुओं से सिक्के बनाये गये। पूरे देश से पकी हुई मिट्टी से बनाए गए सिक्कों के सांचे बड़ी संख्या में मिले हैं। इनमें से अधिकांश सांचे कुषाण काल के अर्थात् ईसा की आरंभिक तीन सदियों के हैं। गुप्तोत्तर काल में ये सांचे लगभग लुप्त हो गए।

प्राचीन काल में लोग अपना पैसा मिट्टी तथा कांसे के बर्तनों में जमा रखते थे। ऐसी अनेक निधियों, जिनमें न केवल भारतीय सिक्के हैं अपितु रोमन साम्राज्य जैसी विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी हैं, देश के अनेक भागों में खोजी गई हैं। ये निधियां अधिकतर कलकत्ता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, बम्बई और मद्रास के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

बहुत से भारतीय सिक्के इंगलैण्ड, नेपाल, बांगलादेश, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के संग्रहालयों में भी रखे गये हैं। ब्रिटेन ने भारत पर लम्बे समय तक शासन किया, इसलिए ब्रिटेन के सार्वजनिक संग्रहालयों के साथ-साथ ब्रिटिश अधिकारियों के निजी संग्रहालयों में भी भारतीय सिक्के संग्रहीत किये गये हैं।

विभन्न संग्राहलयों द्वारा भारत के प्रमुख राजवंशों के सिक्कों की सूचियां तैयार करके प्रकाशित करवाई गई हैं। कलकत्ता के इंडियन म्यूजियम तथा लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम आदि के सिक्कों की सूचियां उपलब्ध हैं परन्तु अब भी सिक्कों के अनेक संग्रहों की सूचियां नहीं बन पायी हैं और न ही प्रकाशित हुई हैं।

हमारे देश के सबसे पुराने सिक्कों पर कुछ चिह्न देखने को मिलते हैं, पर बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवी-देवताओं के नाम तथा तिथियाँ अंकित की गई हैं। जिन-जिन स्थानों पर ये सिक्के मिलते हैं उनके बारे में स्पष्ट हो जाता है कि उस प्रदेश में इनका प्रचलन रहा है।

इस प्रकार खोजे गए सिक्कों के आधार पर कई राजवंशों के इतिहास की पुनर्रचना सम्भव हुई है। विशेषतः उन हिन्द-यवन शासकों के इतिहास की जो उत्तरी अफगानिस्तान से भारत पहुंचे थे और जिन्होंने ईसा पूर्व दूसरी एवं पहली सदियों में भारतीय क्षेत्रों पर शासन किया।

सिक्कों से, क्षेत्र विशेष एवं काल विशेष के आर्थिक हतिहास के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। प्राचीन भारत में राजाओं की अनुमति से, बड़े व्यापारियों एवं स्वर्णकारों की श्रेणियों ने भी अपने सिक्के चलाए। इससे शिल्प और व्यापार की उन्नत व्यवस्था की सूचना मिलती है। सिक्कों के कारण बड़ी मात्रा मे लेन-देन करना सम्भव हुआ और व्यापार को बढ़ावा मिला।

सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर काल के मिले हैं, विशेषतः तांबे, चादी एवं सोने के सिक्के। गुप्त शासकों ने सोने के सबसे अधिक सिक्के जारी किए। इससे पता चलता है कि गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य खूब बढ़ा। गुप्तोत्तर काल के बहुत कम सिक्के मिले हैं, इससे उस समय में व्यापार और वाणिज्य की अवनति की सूचना मिलती है।

(4.) प्राचीन स्मारक तथा भवनों के अवशेष

प्राचीन काल के मन्दिरों, मूर्तियों, स्तूपों, खण्डहरों आदि के अध्ययन से भी प्राचीन भारत के इतिहास के निर्माण में बड़ी सहायता मिली है। यद्यपि इनसे राजनीतिक दशा का विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं होता है परन्तु धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दशा का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है।

प्राचीन स्मारकों का अध्ययन कर विभिन्न कालों की कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया गया है। काल विशेष में किस सामग्री का प्रयोग किया जाता था और किस शैली में इसका निर्माण होता था आदि बातों की जानकारी प्राप्त हुई है। कला-कृतियों की प्राचीनता का अध्ययन कर कालक्रम को भी निर्धारित किया गया है।

मूर्तियों तथा मन्दिरों के अध्ययन से लागों के धार्मिक विचारों तथा विश्वासों का पता लगता है। गुप्तकाल की मूर्तियों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस काल में वैष्णव, शैव, बौद्ध आदि धर्मों का प्रचलन था और उनमें धार्मिक सहिष्णुता थी। मूर्तियों और चित्रों का अध्ययन करने से हमें सामाजिक दशा का भी पता लगता है क्योंकि इनसे लोगों की वेश-भूषा, खान-पान, वनस्पतियों तथा पालतू पशुओं आदि का पता लगता है।

प्राचीन स्मारकों के अध्ययन से हमें स्थानीय शासकों के परस्पर सम्बन्धों तथा विदेशी शासकों के साथ सम्बन्धों का भी ज्ञान होता है। दक्षिण-पूर्व एशिया के स्मारकों से ज्ञात होता है कि भारत का विदेशी शासकों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। पुराने खण्डहरों की खुदाइयों से इतिहास निर्माण में उपयोगी मूल्यवान सामग्री मिलती है। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में जो खुदाइयॉं हुई हैं उनसे भारत की एक अत्यन्त प्राचीन सभ्यता का पता लगा है जिसे सिन्धु घाटी की सभ्यता कहा गया है।

टीलों का उत्खनन

पूरे भारत में प्राचीन समारक एवं भवनों के अवशेष देखने को मिलते हैं। इनमें से अधिकांश स्मारकों एवं भवनों के अवशेषों को मिट्टी के टीलों के नीचे से खोद कर निकाला गया है। दक्षिण भारत में पत्थर के मंदिर और पूर्वी भारत में ईटों से बने विहार, टीलों के नीचे मिले हैं। इनमें से जिन थोड़े से टीलों का उत्खनन हुआ है, उन्हीं से हमें प्राचीन काल के जन-जीवन के बारे में कुछ जानकारी मिली है।

टीलों का उत्खनन दो प्रकार से हो सकता है- (1.) लम्बरूप खुदाई तथा (2.) क्षैतिज खुदाई।

लम्बरूप खुदाई सस्ती पड़ती है। इसलिये भारत में अधिकांश स्थलों की खुदाई लम्बरूप में की गई है। इस खुदाई का लाभ यह है कि इससे एक क्षेत्र पर विभिन्न कालों में होने वाले क्रमिक सांस्कृतिक विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है किंतु इस प्रकार के उत्खनन से प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक चरणों के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र नहीं मिल पाता। किसी भी काल की समग्र जानकारी प्राप्त करने के लिये क्षैतिज खुदाई करना आवश्यक है किंतु अत्यधिक खर्चीली होने के कारण क्षैतिज खुदाईयां बहुत कम की गई हैं।

विभिन्न टीलों के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेष, विभिन्न अनुपातों में सुरक्षित रखे गए हैं। सूखी जलवायु के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष अधिक सुरक्षित बने रहे, परन्तु मध्य गंगा घाटी और डेल्टाई क्षेत्रों की नम और आर्द्र जलवायु में लोहे के औजार भी संक्षारित हो गये। कच्ची मिट्टी से बने भवनों के अवशेषों का दिखाई देना कठिन होता है इस कारण पक्की ईटों और पत्थर के बने हुए भवनों के काल के अवशेष ही नम और जलोढ़ क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं ।

पश्चिमोत्तर भारत में किए गए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चला है जिनकी स्थापना लगभग 2500 ई.पू. में हुई थी। इसी प्रकार के उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित हुई भौतिक संस्कृति के बारे में जानकारी मिली है। इससे पता चलता है कि उस समय के लोग जिस प्रकार की बस्तियों में रहते थे उनका विन्यास क्या था, वे किस प्रकार के मृद्भांडों का उपयोग करते थे, किस प्रकार के घरों में रहते थे, किन अनाजों का उपयोग करते थे, और किस प्रकार के औजारों अथवा हथियारों का उपयोग करते थे।

दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार, मिट्टी के बर्तन आदि चीजें भी रख देते थे और इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े़ पत्थर खडे़ करते थे। ऐसे स्मारकों को महापाषाण कहते हैं। समस्त महापाषाण इस श्रेणी में नहीं आते।

जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत् उत्खनन किया जाता है उसे पुरातत्त्व कहते हैं। उत्खनन और गवशेषणा के फलस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों का विभिन्न प्रकार से वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है जिससे यह पता चलता है कि वे स्थान कहाँ हैं, जहाँ से ये धातुएँ प्राप्त की गईं। इनसे धातु विज्ञान के विकास की अवस्थाओं का पता लगाया जाता है। पशुओं की हड्डियों का परीक्षण कर पालतू पशुओं तथा उनसे लिये जाने वाले कामों के बारे में जानकारी एकत्रित की गई है।

भारतीयों में ऐतिहासिक विवेक

प्राचीन भारतीयों पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें ऐतिहासिक बोध का अभाव था। यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय लेखकों ने वैसा इतिहास नहीं लिखा जैसा आजकल लिखा जाता है, न ही उन्होंने यूनानियों की तरह इतिहास ग्रंथ लिखे किंतु हमारे धर्मग्रंथों में, विशेषकर पुराणों में तत्कालीन इतिहास मिलता है जो वस्तु-तत्त्व की दृष्टि से विश्वकोशीय है और गुप्त साम्राज्य के प्रारंभ तक के राजवंशीय इतिहास को उपलब्ध कराता है।

काल-बोध, जो इतिहास का एक महत्त्वूपर्ण घटक है, अभिलेखों में देखने को मिलता है। इनमें महत्त्वपूर्ण घटनाओं से सम्बन्धित किसी शासक विशेष के शासन वर्षों का उल्लेख रहता है। प्राचीन भारत में कई संवत आरम्भ किये गये जिनके आधार पर घटनाओं को अंकित किया गया।

विक्रम संवत्, 58 ई.पू. में आरम्भ हुआ, शक संवत् 78 ई.पू. में और गुप्त संवत 319 ई.पू. में। अभिलेखों में स्थानों और तिथियों का उल्लेख रहता है। पुराणों और जीवन चरित्रों में घटनाओं के कारण तथा परिणाम दिए गए हैं। इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए ये सब चीजें अपरिहार्य हैं, परन्तु इनके बारे में सुव्यवस्थित जानकारी नहीं मिलती।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

पाषाण-कालीन सभ्यता एवं संस्कृति (अध्याय 2)

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पाषाण-कालीन सभ्यता एवं संस्कृति

धरती पर जहाँ-जहाँ पाषाण-कालीन सभ्यता एवं संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं, वहाँ-वहाँ से इतिहास लेखन को विश्वसनीय सामग्री प्राप्त हो सकी है। इसलिए इस काल की सभ्यता एवं संस्कृति के अवशेषों का अध्ययन किया जाना अत्यंत आवश्यक है। प्रागैतिहासिक कालखण्ड के इतिहास जानने के स्रोत इसके अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकते।

धरती का भूगोल एवं जलवायु, धरती पर जीव जगत का निवास संभव बनाते हैं। धरती का जन्म आग के गोले के रूप में हुआ जो धीरे-धीरे ठण्डा होता हुआ इतना ठण्डा हो गया कि उसमें जीव जगत का पनपना संभव हो गया। धरती पर मानव का पदार्पण एक लम्बी यात्रा है जो भू-पर्पटी के ठण्डे और पर्यावरण के गर्म होने के साथ-साथ आगे बढ़ी है।

पाषाण-कालीन मानव का विकास

आस्ट्रेलोपिथेकस

धरती पर मानव का आगमन हिमयुग अथवा अभिनूतन युग (प्लीस्टोसीन) में हुआ जो एक भूवैज्ञानिक युग है। कहा नहीं जा सकता कि अभिनूतन युग का आरम्भ ठीक किस समय हुआ। पूर्वी अफ्रीका के क्षेत्रों में पत्थर के औजारों के साथ लगभग 35 लाख वर्ष पुराने मानव अवशेष मिले हैं।

इस युग के मानव को आस्ट्रेलोपिथेकस कहते हैं। इस आदिम मानव के मस्तिष्क का आकार 400 मिलीलीटर था। यह दो पैरों पर तो खड़ा होकर चलता था किंतु चूंकि यह सीधा तन कर खड़ा नहीं हो सकता था और यह शब्दों का उच्चारण करने में असमर्थ था, इसलिये इसे आदमी एवं बंदर के बीच की प्रजाति कहा जा सकता है। यह पहला प्राणी था जिसने धरती पर पत्थर का उपयोग हथियार के रूप में किया। उसके द्वारा उपयोग में लाये गये पत्थरों की पहचान करना संभव नहीं है।

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होमो इरेक्टस

होमो इरैक्टस का अर्थ होता है सीधे खड़े होने में दक्ष। इस मानव के 10 लाख वर्ष पुराने जीवाश्म जावा से प्राप्त किये गये हैं। होमो इरैक्टस के मस्तिष्क का आकार 1,000 मिलीलीटर था। इस आकार के मस्तिष्क वाला प्राणी बोलने में सक्षम होता है। इनके जीवाश्मों के पास बहुत बड़ी संख्या में दुधारी, अश्रुबूंद के आकार की हाथ की कुल्हाड़ियां और तेज धारवाले काटने के औजार तथा कच्चे कोयले के अवशेष मिले हैं। अनुमान है कि यह प्राणी कच्चा मांस खाने के स्थान पर पका हुआ मांस खाता था। उसने पशुपालन सीख लिया था तथा वह अपने पशुओं के लिये नये चारागाहों की खोज में अधिक दूरी तक यात्रायें करता था। यह मानव लगभग 10 लाख साल पहले अफ्रीका से बाहर निकला। इसके जीवाश्म चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत में नर्मदा नदी की घाटी में भी मिले हैं। वह यूरोप तथा उत्तरी धु्रव में हिम युग होने के कारण उन क्षेत्रों तक नहीं गया। यूरोप में उसने काफी बाद में प्रवेश किया। लगभग 7 लाख साल पहले तक वह 20 या 30 अलग-अलग प्रकार के उपकरण बनाता था जो नोकदार, धारदार तथा घुमावदार थे।

होमो इरैक्टस से दो जातियों ने जन्म लिया- पहली निएण्डरतल और दूसरी होमो सेपियन।

निएण्डरतल

आज से लगभग ढाई लाख साल पहले निएण्डरतल नामक मानव अस्तित्व में आया जो आज से 30 हजार साल पहले तक धरती पर उपस्थित था। ये लम्बी-लम्बी भौंह वाले, ऐसे मंद बुद्धि पशु थे जिनकी विशेषतायें आदिम प्रकार की अधिक और मानवों जैसी कम थीं। अर्थात् ये भारी भरकम शरीर वाले ऐसे उपमानव थे जिनमें समझ कम थी।

चेहरे मोहरे से नीएण्डरतल आज के आदमी से अधिक अलग नहीं थे फिर भी वे हमसे काफी तगड़े थे। उनका मस्तिष्क भी आज के आदमी की तुलना में भी बड़ा था किंतु उसमें जटिलता कम थी, सलवटें भी कम थीं और वह उसके स्वयं के शरीर के अनुपात में काफी कम था। इस कारण निएण्डरतल अपने बड़े मस्तिष्क का लाभ नहीं उठा पाया। वस्तुतः निएण्डरतल आज की होमोसपियन जाति का ही सदस्य था। आज से 30 हजार साल पहले यह मानव धरती से पूरी तरह समाप्त हो गया।

होमो सेपियन

आज से पांच लाख साल पहले होमो इरेक्टस काफी कुछ हमारी तरह दिखाई देने लगा। इसे होमो सेपियन अर्थात् ‘हमारी जाति के’ नाम दिया गया। इस मानव के मस्तिष्क का औसत आकार लगभग 1300 मिलीलीटर था। भारत में मानव का प्रथम निवास, जैसा कि पत्थर के औजारों से ज्ञात होता है, इसी समय आरम्भ हुआ। इस युग में धरती के अत्यंत विस्तृत भाग को हिम-परतों ने ढक लिया था।

होमोसेपियन सेपियन

आज से लगभग 1 लाख 20 हजार साल पहले आधुनिक मानव अस्तित्व में आ चुके थे। ये होमो सेपियन जाति का परिष्कृत रूप थे। इन्हें होमो सेपियन सेपियन कहा जाता है।

क्रो-मैगनन मैन

आज से लगभग 40 हजार वर्ष पहले होमो सेपियन सेपियन जाति के कुछ मनुष्य यूरोप में जा बसे। वे बौद्धिक रूप में अपने समकालीन नीएण्डरतलों से अधिक श्रेष्ठ थे। उनमें नये काम करने की सोच थी। वे अधिक अच्छे हथियार बना सकते थे जिनके फलक अधिक बारीक थे। वे शरीर को ढकना सीख गये थे।

उनके आश्रय स्थल अच्छे थे और उनकी अंगीठियां खाना पकाने में अधिक उपयोगी थीं। वे बोलने की शक्ति रखते थे। इन्हें क्रो-मैगनन मैन कहा जाता है। यह मानव लगभग 10 हजार वर्षों तक नीएण्डरतलों के साथ रहा जब तक कि नीएण्डरतल समाप्त नहीं हो गये। क्रो-मैगनन का शरीर निएण्डरथल के शरीर से बड़ा था।

इसके मस्तिष्क का औसत आकार लगभग 1600 मिलीलीटर था। आज से 30 हजार साल पहले जब नीएण्डरतल समाप्त हो गये तब पूरी धरती पर केवल क्रो-मैगनन मानव जाति का ही बोलबाला हो गया जो आज तक चल रहा है। वस्तुतः क्रो-मैगनन मानव ही प्रथम वास्तविक मानव है जो आज से लगभग 40 हजार साल पहले अस्तित्व में आया। इस समय धरती पर उत्तरवर्ती हिमयुग आरम्भ हो रहा था तथा लगभग पूरा यूरोप हिम की चपेट में था।

गर्म युग

आज से 12 हजार वर्ष पहले धरती पर होलोसीन काल आरंभ हुआ जो आज तक चल रहा है। यह गर्म युग है तथा वर्तमान हिमयुग के बीच में स्थित अंतर्हिम काल है। इस गर्म युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि, पशुपालन तथा समाज को व्यवस्थित किया।

आज तक धरती पर वही गर्म युग चल रहा है और मानव निरंतर प्रगति करता हुआ आगे बढ़ रहा है। आज से लगभग 10 हजार साल पहले आदमी ने कृषि और पशु पालन आरंभ किया। यह इस गर्म युग की सबसे बड़ी देन है। पश्चिम एशिया से मिले प्रमाणों के अनुसार आज से लगभग 8000 साल पहले अर्थात् 6000 ई.पू. में आदमी ने हाथों से मिट्टी के बर्तन बनाना और उन्हें आग में पकाना आरंभ कर दिया था।

पाषाण काल

पाषाण-काल मानव सभ्यता की उस अवस्था को कहते हैं जब मनुष्य अपने दिन प्रतिदिन के कामों में पत्थर से बने औजारों एवं हथियारों का प्रयोग करता था तथा धातु का प्रयोग करना नहीं जानता था। मनुष्य ने प्रथम बार पृथ्वी पर आखें खोलीं तथा पत्थर को अपना हथियार बनाया। उस काल का मनुष्य, नितांत अविकसित अवस्था में था और जंगली जीवन व्यतीत करता था। जैसे-जैसे उसके मस्तिष्क का विकास होता गया, वह पत्थरों के हथियारों तथा औजारों को विकसित करता चला गया। इसी के साथ वह सभ्य जीवन की ओर आगे बढ़ा।

मानव की इस अवस्था के बारे में सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि मनुष्य औजार प्रयुक्त करने वाला पशु है। निःसंदेह संस्कृति की समस्त उन्नति, जीवन को सुखी एवं आरामदायक बनाने के लिये प्रकृति के साथ चल रहे युद्ध में, औजारों तथा उपकरणों के बढ़ते हुए उपयोग के कारण हुई है। मनुष्य का भौतिक इतिहास, मनुष्य के औजार विहीन अवस्था से निकलकर वर्तमान में पूर्ण मशीनी अवस्था में पहुँचने तक का लेखा जोखा है। 

अध्ययन की दृष्टि से पाषाण युग को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1.) पूर्व-पाषाण काल

(2.) मध्य-पाषाण काल

(3.) नव-पाषाण काल

संस्कृति के ये तीनों काल एक के बाद एक करके अस्तित्व में आये किंतु ऐसे स्थल बहुत कम मिले हैं जहाँ तीनों अवस्थाओं के अवशेष देखने को मिलते हैं। विंध्य के उत्तरी भागों तथा बेलन घाटी में पूर्व-पाषाण-काल, मध्य-पाषाण-काल और नव-पाषाण-काल की तीनों अवस्थाएं क्रमानुसार देखने को मिलती हैं।

पूर्व-पाषाण काल (पेलियोलिथिक पीरियड)

मानव-सभ्यता के प्रारम्भिक काल को पूर्व-पाषाण-काल के नाम से पुकारा गया है। इसे पुरा पाषाण काल तथा उच्च पुरापाषाण युग भी कहते हैं। मानव की ‘होमो सेपियन’ प्रजाति इस संस्कृति की निर्माता थी।

काल निर्धारण

भारत में इस काल का आरम्भ आज से लगभग पाँच लाख वर्ष पहले हुआ। भारत में मानव आज से लगभग दस हजार साल पहले तक संस्कृति की इसी अवस्था में रहा। आज से लगभग दस हजार वर्ष पहले अर्थात् 8000 ई.पू. में, पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का अन्त हुआ।

पूर्व-पाषाण-कालीन स्थल

पूर्व-पाषाण-कालीन स्थल कश्मीर, पंजाब की सोहन नदी घाटी (अब पाकिस्तान), मध्यभारत, पूर्वी भारत तथा दक्षिणी भारत में पाये गये हैं। इस संस्कृति के औजार छोटा नागपुर के पठार में भी मिले हैं। ये 1,00,000 ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। बिहार के सिंहभूमि जिले में लगभग 40 स्थानों पर पूर्व पाषाण कालीन स्थल मिले हैं।

बंगाल के मिदनापुर, पुरुलिया, बांकुरा, वीरभूम, उड़ीसा के मयूरभंज, केऊँझर, सुंदरगढ़ तथा असम के कुछ स्थानों से भी इस काल के पाषाण निर्मित औजार प्राप्त हुए हैं। आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल नगर से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर ऐसे औजार मिले हैं जिनका समय 25,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. के बीच का है।

इनके साथ हड्डी के उपकरण और जानवरों के अवशेष भी मिले हैं। आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले से भी इस युग के औजार मिले हैं। कर्नाटक के शिमोगा जिले तथा मालप्रभा नदी के बेसिन से भी इस युग के औजार मिले हैं। नागार्जुन कोंडा से भी पत्थर के फाल एवं अन्य उपकरण मिले हैं।

लिखित उल्लेख

पुराणों में पूर्व पाषाण कालीन मानवों के उल्लेख मिलते हैं जो कंद-मूल खाकर गुजारा करते थे। ऐसी पुरानी पद्धति से जीविका चलाने वाले लोग पहाड़ी क्षेत्रों में और गुफाओं में आधुनिक काल तक मौजूद रहे हैं।

शैल चित्र

विंध्याचल की पहाड़ियों में भीमबेटका नामक स्थान है जहाँ 200 से अधिक गुफाएं पाई जाती हैं। इन गुफओं में पूर्व-पाषाण कालीन मानव द्वारा बनाये गये कई प्रकार के शैल चित्र प्राप्त हुए हैं। इन चित्रों की संख्या कई हजार है। इनका काल एक लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। इन गुफाओं में वे औजार भी मिले हैं जिनसे ये गुफाएं बनाई गई होंगी तथा इन चित्रों को उकेरा गया होगा। इन गुफाओं से 5000 से भी अधिक वस्तुएं मिली हैं जिनमें से लगभग 1500 औजार हैं।

जीवाश्म

कुर्नूल जिले की गुफाओं से बारहसिंघे, हिरन, लंगूर तथा गेंडे के जीवाश्म भी मिले हैं। ये जीवाश्म पूर्व-पाषाण युग के हैं। इन जीवाश्मों के पाये जाने वाले क्षेत्र में पूर्व-पाषाण कालीन औजार भी मिले हैं।

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति एवं उसकी विशेषताएं

इस काल का मानव पूर्णतः आखेटक अवस्था में था। वह कृषि, पशुपालन, संग्रहण आदि मानवीय कार्यकलापों से अपरिचित था। इस काल के मानव ने जिस संस्कृति का निर्माण किया उसकी विशेषताएं इस प्रकार से हैं-

निवासी

इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं एवं समाजशास्त्रियों की धारणा है कि पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के लोग हब्शी जाति के थे। इन लोगों का रंग काला और कद छोटा था। इनके बाल ऊनी थे और नाक चिपटी थी। ऐसे मानव आज भी अण्डमान एवं निकोबार द्वीपों में पाये जाते हैं।

औजार

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव, पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजार बनाता था। वह कठोर चट्टानों से पत्थर प्राप्त करता था तथा उनसे हथौड़े एवं रुखानी आदि बनाता था जिनसे वह ठोकता, पीटता तथा छेद करता था। ये औजार अनगढ़ एवं भद्दे आकार के होते थे। पत्थर के औजारों से वह पशुओं का शिकार करता था। पत्थर के इन औजारों में लकड़ी तथा हड्डियों के हत्थे लगे रहते थे, लकड़ी तथा हड्डियों के भी औजार होते थे परन्तु अब वे नष्ट हो गये हैं।

आवास

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता था वरन् जहाँ कहीं उसे शिकार, कन्द, मूल, फल आदि पाने की आशा होती थी वहीं पर चला जाता था। प्राकृतिक विषमताओं एवं जंगली जानवरों से बचने के लिये वह नदियों के किनारे स्थित जंगलों में ऊँचे वृक्षों एवं पर्वतीय गुफाओं का आश्रय लेता था। समझ विकसित होने पर इस युग के मानव ने वृक्षों की डालियों तथा पत्तियों की झोपड़ियां बनानी आरम्भ कीं।

आहार

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के लोग अपनी जीविका के लिये पूर्ण रूप से प्रकृति पर निर्भर थे। भोजन प्राप्त करने के लिये जंगली पशुओं का शिकार करते थे और नदियों से मछलियाँ पकड़ते थे। वनों में मिलने वाले कन्द-मूल एवं फल भी उनके मुख्य आहार थे।

कृषि

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव कृषि करना नहीं जानता था।

पशुपालन

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की बेलन घाटी में मिले घरेलू पशुओं के अवशेषों से अनुमान होता है कि 25,000 ई.पू. के आसपास बकरी, भेड़ और गाय-भैंस आदि पाले जाते थे।

वस्त्र

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव पूर्णतः नंगे रहते थे। प्राकृतिक विषमताओं से बचने के लिये उन्होंने वृक्षों की पतियों, छाल तथा पशुओं की खाल से अपने शरीर को ढंकना प्रारम्भ किया होगा।

सामाजिक संगठन

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव टोलियां बनाकर रहते थे। प्रत्येक टोली का एक प्रधान होता होगा जिसके नेतृत्व में ये टोलियॉं आहार तथा आखेट की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाया करती होंगी।

शव-विसर्जन

अनुमान है कि पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के आरंभिक काल में शवों को जंगल में वैसे ही छोड़ दिया जाता था जिन्हें पशु-पक्षी खा जाते थे। बाद में शवों के प्रति दायित्व की भावना विकसित होने पर वे शवों को लाल रंग से रंगकर धरती में गाड़ देते थे।

मध्य-पाषाण काल (मीजोलिथिक पीरियड)

8000 ई.पू. में धरती पर अब तक के अंतिम हिमयुग की समाप्ति हुई। इसी के साथ धरती की जलवायु शुष्क तथा उष्ण हो गई जलवायु में हुए परिवर्तनों के साथ-साथ वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं में भी परिवर्तन हुए। इस काल में धरती पर क्रो-मैगनन मानव का बोलबाला था। उसका मस्तिष्क पूर्वपाषाण कालीन मानव से काफी विकसित था।

इस कारण इस मानव ने तेजी से सभ्यता एवं संस्कृति का विकास किया जिससे उसके जीवन में पहले की अपेक्षा बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। यह मानव अपने अधिवास के लिये अधिक अनुकूल एवं नये क्षेत्रों की तरफ बढ़ा तथा इसने एक नई संस्कृति को जन्म दिया। इस संस्कृति को मध्य-पाषाण-कालीन संस्कृति अथवा उत्तर-पाषाण-कालीन संस्कृति कहते हैं।

काल निर्धारण

मध्य-पाषाण-काल, पूर्व-पाषाण-काल और नव-पाषाण- काल के बीच का संक्रांति काल है। इसे उत्तर पाषाण युग भी कहते हैं। भारत में इस संस्कृति का आरम्भ 8000 ई.पू. के आसपास हुआ और लगभग 4000 ई.पू. तक चला।

मध्य-पाषाण-संस्कृति स्थल

मध्य-पाषाण-संस्कृति के कई स्थल छोटा- नागपुर, मध्य भारत और कृष्णा नदी के दक्षिण में मिले हैं। मध्य भारत में नर्मदा के तटों पर, गोदावरी के नदीमुख-क्षेत्र में और तुंगभद्रा तथा पेन्नार के बीच के क्षेत्र में भी मध्य-पाषाण-कालीन संस्कृति स्थल मिले हैं। बेलन की घाटी में भी इस युग के मानव के आवास मिले हैं। इस संस्कृति के स्थल सोहन नदी घाटी में भी मिले हैं। यहाँ हिमालय क्षेत्र के तृतीय हिमाच्छादन के समकालीन स्तर में हम एक अनगढ़ प्रस्तर उपकरण उद्योग को देखते हैं।

मध्य-पाषाण-कालीन संस्कृति की विशेषताएं

औजार

मध्य-पाषाण-संस्कृति के विशिष्ट औजार लघु-पाषाण हैं। इस संस्कृति के मानव ने प्रमुखतः शल्क औजारों का उत्पादन किया। ये शल्क समस्त भारत में पाए गए हैं और इनमें क्षेत्रीय भेद भी देखने को मिले हैं। इनमें मुख्य औजार शल्कों से निर्मित विभिन्न प्रकार की खुरचनियां हैं। बरमे और धार वाले उपकरण भी भारी संख्या में मिले हैं।

हाथ की कुल्हाड़ियों का उपयोग इस काल की प्रमुख विशेषता है। भारत में प्राप्त ऐसी कुल्हाड़ियाँ काफी सीमा तक वैसी ही हैं जैसी की पश्चिमी एशिया, यूरोप और अफ्रीका में मिली कुल्हाड़ियाँ हैं। पत्थरों के औजारों का उपयोग मुख्यतः काटने एवं छीलने के लिए होता था। भोपाल से 40 किलोमीटर दक्षिण में स्थित भीमबेटका से हाथ की कुल्हाड़ियाँ, विदारक, पत्तियां और खुरचनियां तथा कुछ तक्षणियाँ पायी गयी हैं।

गुजरात के टिब्बों के ऊपरी स्तरों में पत्तियां, तक्षणियां, खुरचनियां आदि मिले हैं। हाथ की कुल्हाड़ियां हिमालय के दूसरे हिमनद निक्षेप में भी मिली हैं। नर्मदा तट के अनेक स्थानों पर और तुंगभद्रा के दक्षिण में भी अनेक स्थानों पर इस युग के औजार मिले हैं।

औजारों का विकास

मध्य-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव भी अपने औजार पत्थर से ही बनाता था परन्तु उसके औजार पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के औजारों की अपेक्षा अधिक साफ तथा सुन्दर होते थे। अब वे उतने भद्दे नहीं रह गये थे। इन औजारों को रगड़ एवं घिस कर चिकना कर लिया जाता था। इससे वे सुडौल तथा चमकीले हो जाते थे।

इस काल में औजार एवं हथियार बनाने के लिये लकड़ी तथा हड्डियों का प्रयोग पहले से भी अधिक होने लगा। इससे औजारों में विविधता आ गई और धनुष, बाण, भाले, चाकू, कुल्हाड़ी के अतिरिक्त हल, हँसिया, घिरनी, सीढ़ी, डोंगी, तकली आदि भी बनायी जाने लगी।

आवास

बेलन घाटी में गुफाओं और चट्टानों से बने शरण-स्थल पाये गये हैं जो विशेष मौसमों में मनुष्यों द्वारा शिविर के रूप में उपयोग किये जाते रहे होंगे। भोपाल से 40 किलोमीटर दक्षिण में भीम बेटका में भी मनुष्यों के उपयोग में आने वाली गुफाएं और चट्टानों से बने शरण-स्थान पाये गये हैं।

जलवायु

हिम काल की समाप्ति के बाद धरती पर शुष्क एवं उष्ण जलवायु आरंभ हुआ था। मध्य-पाषाण काल में धरती की जलवायु कम आर्द्र थी। इस काल के आरंभ होने के बाद से धरती की जलवायु की परिस्थितियों में अब तक कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है।

कृषि का आरम्भ

मध्य-पाषाण-काल के मानव ने हल तथा बैलों की सहायता से कृषि करना आरम्भ कर दिया। वह पौधों को काटने के लिए हँसिया तथा अनाज पीसने के लिए चक्कियों का प्रयोग करने लग गया। इस काल का मानव गेहूँ, जौ, बाजरा आदि की खेती करता था।

पशु-पालन

पशु पालन पूर्व-पाषाण-काल में आरम्भ हो गया था। मध्य-पाषाण-काल के मानव ने पशुओं की उपयोगिता को अनुभव करके पशु-पालन का काम बड़े स्तर पर आरम्भ कर दिया। इस काल का मानव गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, घोड़ा आदि जानवरों को पालता था।

मिट्टी के बर्तनों का निर्माण

मध्य-पाषाण-काल के मानव ने मिट्टी के बर्तन बनाना आरम्भ किया। कृषि तथा पशु-पालन का काम आरम्भ हो जाने से इस संस्कृति के मानव के पास सामान अधिक हो गया। अपने सामान को सुरक्षित रखने के लिए इस युग के मानव ने मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाने आरम्भ किये। इस काल का मानव चाक का अविष्कार नहीं कर पाया था। अतः बर्तन हाथ से ही बनाये जाते थे।

वस्त्र-निर्माण

मध्य-पाषाण-काल के मानव ने पौधों के रेशों तथा ऊन के धागों की कताई आरम्भ की। इन धागों को बुनकर वह वस्त्र बनाने लगा। खुदाई में बहुत-सी तकलियाँ तथा करघे मिले हैं। इस संस्कृति का मानव वस्त्रों को रंगना भी सीख गया था।

गृह-निर्माण

मध्य-पाषाण-काल के मानव ने अपने निवास के लिये स्थाई घर बनाना आरम्भ किया। इस काल के घरों की दीवारें लट्ठों तथा नारियल के तनों से बनी होती थीं और उन पर मिट्टी का लेप लगाया जाता था। इनकी छतें लकड़ी, पत्ती, छाल आदि से बनती थी और फर्श कच्ची मिट्टी से बनता था।

कार्य-विभाजन तथा वस्तु-विनिमय

मध्य-पाषाण-काल के मानव ने भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यों को करना आरम्भ कर दिया था। कोई खेती करता था तो कोई मिट्टी के बर्तन बनाता था और कोई लकड़ी के काम किया करता था। इस प्रकार सबका काम अलग-अलग बंट गया। इससे वस्तु-विनिमय आरम्भ हो गया। एक गाँव के लोग अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने लिए चीजों की अदली-बदली किया करते थे। बढ़ई तथा कुम्हार अपनी वस्तुएँ किसान को देकर उनसे अन्न प्राप्त कर लेते थे।

युद्ध का प्रारम्भ

पुरा-पाषाण-काल का मानव झुण्डों में रहता था जिनमें प्रायः संघर्ष हो जाया करता था। मध्य-पाषाण-काल में विभिन्न मानव बस्तियों के बीच युद्ध होने आरम्भ हो गए। इसलिये आत्म-रक्षा के लिए गांव के चारों और खाई बनाई जाने लगी ताकि शत्रु अचानक गांव में न घुस सकें। इस काल का मानव, युद्ध में पत्थर के हथियारों का प्रयोग करता था।

धर्म

खुदाई में कुछ नारी-मूर्तियाँ मिली हैं जिनसे अनुमान लगाया गया है कि मध्य-पाषाण-संस्कृति का मानव मातृदेवी का उपासक था। देवी को प्रसन्न करने के लिए वह सम्भवतः पशुओं की बलि भी देता था। उसका विश्वास था कि ऐसा करने से पृथ्वी माता प्रसन्न होती है और पशु तथा कृषि में वृद्धि होती है।

शव-विसर्जन

मध्य-पाषाण-काल का मानव भी शवों को धरती में गाड़ता था। इस कार्य के लिये अलग से स्थान निर्धारित किया जाता था। कभी-कभी घर के भीतर अथवा उनके निकट ही शव को गाड़ा जाता था। शव के साथ उपयोगी वस्तुएँ रखी जाती थीं। इस काल में शव को जलाने की प्रथा भी आरम्भ हो गई थी। शव दहन के पश्चात् उसकी राख को मिट्टी के बर्तन में रख कर आदरपूर्वक भूमि में गाड़ा जाता था।

निष्कर्ष

मध्य-पाषण-कालीन संस्कृति में मानव जीवन में आये परिवर्तन अत्यंत क्रान्तिकारी थे। इस काल का मानव, सभ्यता की दौड़ में बहुत आगे बढ़ गया था। कृषि तथा पशु-पालन का कार्य आरम्भ हो जाने के कारण उसमें सहकारिता की भावना विकसित हो गई थी जिससे वह एक स्थान पर गाँवों में स्थायी रूप से निवास करने लगा था। उसे अपनी धरती से प्रेम होने लगा था। इस कारण मध्य-पाषण-कालीन संस्कृति के मानव में मातृभूमि की धारणा विकसित हो गई।

मानव के पास भूमि, घर, पशु, अन्न तथा अन्य उपयोगी वस्तुएँ होने से व्यक्तिगत सम्पत्ति का उदय हो गया और लोगों में सम्पन्नता तथा दरिद्रता का भाव भी जन्म लेने लगा था। अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ भी की जाने लगीं। सारांश यह है कि मध्य-पाषाण-काल, पूर्व-पाषाण-काल की अपेक्षा सभ्यता तथा संस्कृति के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ गया था।

नव-पाषाण-काल (निओलिथिक पीरियड)

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति से निकलकर मध्य-पाषाण-कालीन संस्कृति तक पहुंचने में मानव को लगभग 35 लाख वर्ष लगे। भारत में यह कार्य लगभग 5 लाख साल में हुआ। इतने लम्बे समय तक मानव का संस्कृति के एक ही चरण में बने रहने का कारण यह है कि पूर्वपाषाण कालीन संस्कृति को जन्म देने वाले होमो सेपियन मानव का मस्तिष्क अधिक विकसित नहीं था। जबकि मध्यपाषाण कालीन संस्कृति को जन्म देने वाले क्रोमैगनन मानव अधिक बड़े एवं विकसित मस्तिष्क का स्वामी था। इस कारण उसने लगभग दो से पांच हजार साल में ही मध्यपाषाण-कालीन संस्कृति को त्यागकर नव-पाषाण कालीन संस्कृति को जन्म दिया।

काल निर्धारण

पश्चिमी एशिया के इतिहास में 9000-3000 ई.पू. के बीच की अवधि में पहली प्रौद्योगिक क्रंाति घटित हुई, क्योंकि इसी अवधि में कृषि, कपड़़ा बुनाई, गृह-निर्माण आदि कलाओं का आविष्कार हुआ परन्तु भारतीय प्रायद्वीप में नवपाषाण युग का आरम्भ ईसा पूर्व चौथी सहस्राब्दि के लगभग हुआ। इसी युग में प्रायद्वीप में चावल, गेहूँ और जौ जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण अनाजों की खेती आरम्भ हुई। इस भूभाग में आरंभिक गांवों की स्थापना भी इसी युग में हुई। मानव अब सभ्यता की देहली पर पैर रखने जा रहा था। दक्षिणी भारत और पूर्वी भारत में ऐसी कुछ बस्तियों की स्थापना 1000 ई.पू. में भी होती रही।

नव-पाषाण-कालीन संस्कृति की विशेषताएं

नव-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव का जीवन: नव-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव का जीवन पर्याप्त कष्टमय था। उसे पत्थरों के औजारों और हथियारों पर ही पूर्णतः आश्रित रहना पड़ता था, इसलिए वह पहाड़ी क्षेत्रों से अधिक दूरी पर अपनी बस्तियों की स्थापना नहीं कर पाया। बहुत अधिक परिश्रम करने पर भी वह केवल अपने निर्वहन भर के लिए अनाज पैदा कर पाता था।

नव-पाषाण-कालीन संस्कृति के औजार: नव-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव ने पॉलिशदार पत्थर के औजारों का उपयोग किया। पत्थर की कुल्हाड़ियां उसका प्रमुख औजार थीं जो प्रायः समस्त भारत में बड़ी संख्या में मिली हैं। उस युग के लोगों ने काटने के इस औजार का कई प्रकार से उपयोग किया। कुल्हाड़ी चलाने में प्रवीण वीर परशुराम का प्रचीन आख्यान प्रसिद्ध है। इस युग के पॉलिशदार औजारों में लघुपाषाणों के फलक भी हैं।

नव-पाषाण-कालीन संस्कृति के स्थल

नवपाषाण युग के निवासियों की बस्तियों को, उनके द्वारा प्रयुक्त कुल्हाड़ियों की किस्मों के आधार पर, तीन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बांटा जा सकता है- (1.) उत्तर दिशा में बर्जेहोम, (2.) पूर्व दिशा में चिरंड तथा (3.) दक्षिण दिशा में गोदावरी नदी के दक्षिण में।

(1.) बुर्जहोम

कश्मीर की घाटी में श्रीनगर से 20 किलोमीटर दूर बर्जेहोम नामक स्थान है। यहाँ के नव-पाषाण-कालीन मानव, एक प्लेट पर, गड्ढे वाले घरों में रहते थे। पशुओं और मछलियों के आखेट पर ही उनका जीवन आश्रित था। अनुमान होता है कि वे कृषि अथवा पालतू पशुओं से परिचित नहीं थे। वे पत्थर के पॉलिशदार औजारों का उपयोग करते थे, उनके बहुत से औजार और हथियार हड्ड्यिों से बने हुए हैं।

बुर्जहोम के लोग अपरिष्कृत धूसर मृद्भाण्डों का उपयोग करते थे। बुर्जहोम में पालतू कुत्ते भी स्वामियों के शवों के साथ शवाधानों में गाढ़े जाते थे। गड्ढों वाले घरों में रहने और स्वामी के शव के साथ उसके पालतू कुत्ते को गाढ़ने की प्रथा भारत में नवपाषाण युगीन लोगों में अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलती। बुर्जहोम की बस्ती 2400 ई.पू. की है।

(2.) चिरंड

भारत में दूसरा स्थान चिरंड है जहाँ से पर्याप्त मात्रा में हड्डियों के औजार मिले हैं। यह स्थल पटना से 40 किलोमीटर पश्चिम में गंगा के उत्तर में स्थित है। ये औजार उत्तर नवपाषाण युगीन स्तरों वाले एक ऐसे क्षेत्र में मिले हैं जहाँ लगभग 100 सेंटीमीटर वर्षा होती है। यहाँ पर चार नदियों- गंगा, सोन, गंडक और घाघरा का मिलन-स्थल होने के कारण खुली धरती उपलब्ध थी। इस कारण यहाँ बस्ती की स्थापना सम्भव हुई। चिरंड से प्राप्त हड्डियों के औजार 1600 ई.पू. के लगभग के हैं।

(3.) गोदावरी नदी

नवपाषाण युगीन लोगों के एक समूह का निवास दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में निवास करता था। इन्होंने अपनी बस्तियां सामान्यतः ग्रेनाइट की पहाड़ियों के ऊपर अथवा नदी तट के समीप के टीलों पर स्थापित कीं। ये लोग पत्थर की कुल्हाड़ियों के साथ-साथ एक प्रकार के प्रस्तर-फलकों का भी उपयोग करते थे। आग में पकायी गयी लघु मृण्मूर्तियों को देखने से अनुमान होता है कि वे कई पशुओं को पालते थे। वे गाय-बैल, भेड़ और बकरियां रखते थे। वे सिलबट्टे का उपयोग करते थे, जिससे ज्ञात होता है कि वे अनाज पैदा करने की कला जानते थे।

(4.) अन्य स्थल

भारत के पूर्वोत्तर में स्थित असम की पहाड़ियों से नवपाषाण युगीन औजार प्राप्त हुए हैं। भारत के मेघालय की गारो पहाड़ियों में भी नव-पाषण-संस्कृति के औजार मिले हैं। इनका काल निर्धारित नहीं किया जा सका है। इनके अतिरिक्त विंध्याचल के उत्तरी भागों में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और इलाहाबाद जिलों से भी अनेक नवपाषाण युगीन स्थल मिले हैं। इलाहाबाद जिले के नवपाषाण युगीन स्थलों की विशेषता यह है कि यहाँ ईसा पूर्व की छठी सहस्राब्दी में भी चावल की खेती की जाती थी। बिलोचिस्तान में भी नवपाषाण युग के कुछ स्थल मिले हैं जो सबसे प्राचीन अनुमानित होते हैं।

नव-पाषाण युगीन स्थलों का उत्खनन

भारत में अब तक जिन नवपाषाण युगीन स्थलों अथवा स्तरों का उत्खनन हुआ है, उनमें प्रमुख हैं- कर्नाटक में मास्की, ब्रह्मगिरी, हल्लुर, कीड़कल, संगनकल्लु, टी. नरसीपुर तथा तैक्कलकोट, तमिलनाडु में पेयमपल्ली, आन्ध्रप्रदेश में पिकलीहल और उतनूर। यहाँ नवपाषाण अवस्था का चरण लगभग 2500 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक रहा, यद्यपि उतनूर के लिए प्राचीनतम कार्बन-तिथि 2300 ई.पू. है।

आवास

नव-पाषाण युगीन मानव ने प्राकृतिक आवासों अर्थात् पर्वतीय गुफाओं एवं पेड़ों का आश्रय त्यागकर नदी तटों एवं पर्वतों के समतल स्थानों पर पेड़ों की टहनियों, तनों, सूखी लकड़ियों, घास एवं पशुओं की हड्डियों तथा खालों आदि से आवास बनाने आरम्भ किये। ये आवास झुण्ड में बनते थे।

औजार

इस युग के औजार एवं हथियार पत्थर से ही बनाये जाते थे किंतु अब उनमें पहले की अपेक्षा अधिक वैविध्य, कौशल एवं सौन्दर्य का समावेश किया गया। नव-पाषाण-कालीन औजारों एवं हथियारों पर पॉलिश की जाने लगी। इनके निर्माण के लिये अच्छे दाने के गहरे हरे रंग के ट्रप का उपयोग किया जाने लगा। इस युग के औजारों में कुल्हाड़ियाँ, चाकू, तीर, ओखली, मूसल, पीसने के औजार, स्क्रैपर तथा पॉइण्टर उपलब्ध हुए हैं।

कृषि

नवपाषाण युग की कुल्हाड़ियां उड़ीसा के पहाड़ी क्षेत्रों में भी मिली हैं। देश के इस भाग में चावल की खेती और छोटे पैमाने की बस्तियों की शुरूआत काफी पहले हुई थी। बाद के नवपाषाण युगीन अधिवासी ऐसे कृषक थे जो मिट्टी और सरकंडों से बनाए गए गोलाकार अथवा चौकोर घरों में रहते थे। गोलाकार घरों में रहने वाले लोगों की सम्पत्ति सामूहिक होती थी। यह निश्चित है कि ये लोग स्थायी अधिवासी बन गए थे। ये रागी और कुलथी पैदा करते थे।

पशुपालन

पिकलीहल के नवपाषाण युगीन अधिवासी पशुपालक थे। उन्होंने गाय-बैल, भेड़-बकरी आदि को पालतू बना लिया था। ये लोग मौसमी पड़ाव डालकर इनके इर्द-गिर्द खंभेे और खूँटे गाड़कर गौशालाएं खड़ी करते थे। ऐसे बाड़ों के भीतर वे गोबर का ढेर लगाते थे। फिर इस समस्त पड़ाव स्थल को आग लगाकर आगामी मौसम के पड़ाव के लिए इसे साफ करते थे। पिकलीहल में ऐसे राख के ढेर ओर पड़ावस्थल दोनों ही मिले हैं।

बर्तन

चूँकि नवपाषाण अवस्था के कई अधिवासी समूह अनाजों की खेती से परिचित हो गए थे और पालतू पशु भी रखने लगे थे, इसलिए उन्हें अनाज और दूध आदि रखने के लिए बर्तनों की आवश्यकता थी। पकाने और खाने के लिए भी उन्हे बर्तनों की आवश्यकता थी। चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाना इस युग का महत्त्वपूर्ण अविष्कार था। इसी युग में मानव ने मिट्टी के बर्तनों को आग में पकाकर मजबूत बनाना सीखा।

धर्म

नव-पाषाण-काल में धार्मिक अनुष्ठान प्रारंभ हो गये। चूंकि शवों के साथ दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं भी शवाधानों से प्राप्त हुई हैं इसलिये अनुमान होता है कि इस काल का मानव पुर्नजन्म में अथवा मृत्यु के बाद के किसी विशेष तरह के जीवन में विश्वास करता था।

तीनों सभ्यताओं का तुलनात्मक अध्ययन

काल का अंतर

पूर्व पाषाण काल आज से लगभग पांच लाख साल पहले आरंभ होकर आज से लगभग 10 हजार साल पहले तक अर्थात् 8000 ई.पू. तक चला। मध्य-पाषाण-काल आज से 10 हजार साल पहले आरम्भ होकर आज से लगभग 6 हजार साल पहले तक अर्थात् 4000 ई.पू. तक चला। नव-पाषाण-काल आज से लगभग 6 हजार साल पहले आरंभ हुआ तथा लगभग 1000 ई.पू. तक चलता रहा।

स्थल

पूर्व पाषाण कालीन स्थल कश्मीर, पंजाब, सोहन नदी घाटी, छोटा नागपुर के पठार, विंध्याचल की पहाड़ियों में भीम बेटका, बिहार का सिंहभूम जिला, बंगाल, असम, आंध्र प्रदेश कर्नाटक मालप्रभा नदी बेसिन आदि विस्तृत क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाण कालीन स्थल हिमालय के द्वितीय हिमनद निक्षेप, बेलन घाटी, भीम बेटका, गुजरात, नर्मदा तट तथा तुंगभद्रा के दक्षिण में मिले हैं।

नवपाषाण काल के स्थल कश्मीर की घाटी में बुर्जहोम, पटना के निकट चिरंड, गोदावरी नदी के दक्षिणी क्षेत्र, असम की पहाड़ियां, मेघालय की गारो पहाड़ियां, उड़ीसा, कर्नाटक में मास्की, ब्रह्मगिरि, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि स्थानों पर पाये गये हैं।

औजार

पूर्व-पाषाण-कालीन औजार क्वार्टजाइट से बनते थे। मध्य-पाषाण- कालीन औजार कैल्सेडोनी, जेस्पर, चर्ट और ब्लडस्टोन से बनते थे। नव-पाषाण-काल के औजार अच्छे दाने के गहरे हरे रंग के ट्रप से बनते थे। पूर्व-पाषाण-कालीन औजारों पर किसी तरह की पॉलिश नहीं है। वे अनगढ़, भद्दे और स्थूल हैं।

मध्य-पाषाण-कालीन औजार बहुत छोटे हैं इसलिये इन्हें लघुपाषाण, अणुपाषाण तथा लघु औजार भी कहा जाता है। इनका आकार आधा इंच से पौने दो इंच तक पाया गया है। नव-पाषाण-कालीन औजारों पर पॉलिश पाई गई है। अधिकांशतः पूरे औजारों पर पॉलिश की गई है। कुछ औजारों पर ऊपर तथा नीचे की ओर पॉलिश की गई है।

आवास

पूर्व-पाषाण-कालीन मानव पर्वतीय कंदराओं, वृक्षों एवं प्राकृतिक आवासों में आश्रय लेता था। मध्य-पाषाण- कालीन मानव भी आवास बनाने की कला से लगभग अपरिचित था। वह भी प्राकृतिक आवासों पर निर्भर था। नव-पाषाण-कालीन मानव पेड़ों की टहनियों एवं पशुओं की हड्डियों की सहायता से झौंपड़ियां बनाना सीख गया था।

कृषि

पूर्व-पाषाण-कालीन मानव कृषि करना नहीं जानता था। मध्य-पाषाण- कालीन मानव बैलों एवं मानवों की सहायता से कृषि करना सीख गया था। वह पौधों को काटने के लिये हँसिया तथा अनाज को पीसने के लिये चक्कियों का प्रयोग करता था। वह गेहूँ, जौ बाजरा आदि की खेती करता था। नव-पाषाण-काल का मानव चावल, रागी और कुलथी भी पैदा करने लगा था। इनके पॉलिशदार औजारों में लघुपाषाणों के फलक भी हैं।

पशुपालन

पूर्व-पाषाण-कालीन मानव ने 25,000 ई.पू. के आसपास बकरी, भेड़ और गाय-भैंस आदि पालना आरंभ किया। मध्य-पाषाण-काल का मानव गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, घोड़ा आदि जानवरों को पालता था। पशुओं पर उसकी निर्भरता बढ़ गई। नव-पाषाण काल का मानव पशुपालन पर और अधिक निर्भर हो गया। बोझा ढोने से लेकर हल खींचने तक के काम पशुओं से लिये जाने लगे।

बर्तन

पूर्व-पाषाण-कालीन मानव बर्तन बनाना नहीं जानता था। मध्य पाषाण-काल के मानव ने मिट्टी के बर्तन बनाना आरम्भ किया किंतु इस काल के बर्तन न तो चाक पर बनाये जाते थे और न उन्हें आग में पकाया जाता था। नव-पाषाण काल के मानव ने बर्तन बनाने के लिये चाक का अविष्कार किया तथा उन्हें पक्का बनाने के लिये आग में पकाना आरंभ किया।

सामाजिक संगठन

पूर्व-पाषाण-कालीन मानव टोलियां बनाकर रहता था। उसमें परिवार की भावना विकसित नहीं हुई थी। उनका नेतृत्व एक प्रधान मानव करता था। मध्यपाषाण कालीन मानव में सहकारिता की भावना विकसित हो चुकी थी। उसने परिवार का निर्माण कर लिया था। इसलिये वह कार्य विभाजन एवं वस्तु विनिमय की समझ विकसित कर सका।

अल्मोड़ा के निकट दलबंद की एक गुफा में मिले एक चित्र में दो वयस्क और दो बालक पांव से पांव एवं हाथ से हाथ मिलाकर चलते हुए दिखाये गये हैं। यह चित्र परिवार की एकता एवं सुबद्धता का परिचायक है। नव-पाषाण-काल में दूर-दूर रहने वाले मानवों ने समुदायों का गठन कर लिया जिससे कबीलाई संस्कृति का जन्म हुआ। एक कबीले में कई परिवार एक साथ रहते थे। कबीले का एक मुखिया होता था, जिसने आगे के युगों में चलकर राजा का रूप ले लिया।

कार्य विभाजन

पूर्व-पाषाण-कालीन मानव आखेटजीवी था इसलिये कार्य विभाजन नहीं हुआ था। वह आवास बनाना तथा खेती करना नहीं जानता था। मध्य-पाषाण-काल का मानव आवास निर्माण, कृषि, पशुपालन एवं मिट्टी के बर्तन बनाने से परिचित हो चुका था इसलिये इस युग के मानव ने कार्य विभाजन आरंभ किया। नव-पाषाण काल में कार्य विभाजन और सुस्पष्ट हो गया।

शव विसर्जन

पूर्व-पाषाण-कालीन सभ्यता के आरंभिक चरण में शवों को जंगल में छोड़ दिया जाता था जहाँ वह पशु-पक्षियों द्वारा खा लिया जाता था। बाद में शवों को लाल रंग से रंगकर धरती में गाढ़ना आरंभ किया गया। मध्य-पाषाण-काल का मानव भी शवों को धरती में गाड़ता था। इस कार्य के लिये अलग से स्थान निर्धारित किया जाता था।

कभी-कभी घर के भीतर अथवा उनके निकट ही शव को गाड़ा जाता था। शव के साथ उपयोगी वस्तुएँ रखी जाती थीं। इस काल में शव को जलाने की प्रथा भी आरम्भ हो गई थी। शव दहन के पश्चात् उसकी राख को मिट्टी के बर्तन में रख कर आदरपूर्वक भूमि में गाड़ा जाता था। नव पाषाण काल में भी शव विसर्जन की यही परम्पराएं अपनाई गई।

धर्म

पूर्व-पाषाण-कालीन सभ्यता के बाद के वर्षों में शवों को लाल रंग से रंगकर धरती में गाढ़ना आरंभ कर दिया गया था। इसलिये अनुमान होता है कि उस काल से ही मानव में धार्मिक भावना पनपने लगी। मध्य-पाषाण-संस्कृति का मानव मातृदेवी का उपासक था। देवी को प्रसन्न करने के लिए वह सम्भवतः पशुओं की बलि भी देता था। उसका विश्वास था कि ऐसा करने से पृथ्वी माता प्रसन्न होती है और पशु तथा कृषि में वृद्धि होती है। नव पाषाण काल में धार्मिक भावना और पुष्ट हो गई।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

ताम्राश्म संस्कृति का उदय (अध्याय 3)

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ताम्राश्म संस्कृति का उदय

ताम्राश्म संस्कृति का अर्थ है मानव सभ्यता का वह चरण जिसमें दैनिक उपयोग की वस्तुओं एवं औजारों के निर्माण के लिए ताम्बे एवं पत्थर दोनों का प्रचुरता से उपयोग हो रहा था। जब पाषाण युगीन मानव ने ताम्बे की खोज की तब वह अचानक ही ताम्राश्म संस्कृति में प्रविष्ट हो गया।

धातु काल

पाषाण-काल के बाद धातु-काल आरम्भ हुआ। कुछ विद्वानों का विचार है कि धातु-काल के लोग पाषाणकाल के लोगों से भिन्न थे और उत्तर पश्चिम के मार्गों से भारत में आये थे। कतिपय अन्य विद्वानों का मत है कि धातु-काल के लोग नव-पाषाण-काल के लोगों की ही सन्तान थे।

इस मत के समर्थन में दो बातें कही जाती हैं। पहली बात यह है कि धातु-काल के प्रारम्भ में, पाषाण तथा धातुओं का प्रयोग साथ-साथ होता था और दूसरी यह है कि इस सन्धि-काल की वस्तुओं के आकार तथा बनावट में बड़ी समानता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि नवपाषाणकाल की सभ्यता धीरे-धीरे उन्नति कर धातु-काल की सभ्यता में बदल गयी।

धातु की खोज

अनुमान होता है कि मनुष्य द्वारा भोजन पकाने के लिये बनाये गये चूल्हों में लगे पत्थरों के गर्म होने से उनमें से धातु पिघलकर अलग हो गई होगी, जब यह घटना कई बार हुई होगी तो नव पाषाण कालीन मानव ने धातु की खोज का कार्य सम्पन्न कर लिया होगा। बहुत से विद्धानों का मानना है कि मानव ने सबसे पहले सोने की खोज की, उसके बाद ताम्बे की खोज हुई। चूंकि सोना अत्यंत अल्प मात्रा में मिलता था इसलिये औजार एवं हथियार बनाने में ताम्बे का उपयोग किया गया।

धातु-काल का अर्थ

धातु-काल से तात्पर्य उस कालावधि से है जब मनुष्य ने पत्थर के स्थान पर धातु का प्रयोग करना आरम्भ किया। सबसे पहले ताम्बे का, उसके बाद काँसे का और अन्त में लोहे का प्रयोग आरम्भ हुआ। चूँकि इन धातुओं का प्रयोग निरन्तर आधुनिक काल तक होता चला आ रहा है इसलिये नव-पाषाण-काल के पश्चात् से लेकर आज तक के काल को धातु-काल कहा जाता है।

इस लम्बे काल में मानव-सभ्यता का विकास तेज गति से होता गया है। धातुकाल का मानव, विज्ञान के बल पर इतने आश्चर्यजनक कार्य कर रहा है जो पाषाणकाल में सम्भव नहीं थे।

धातु-काल का विभाजन

धातु-काल को तीन भागों में बांटा जाता है- (1.) ताम्र-काल, (2.) कांस्य-काल तथा (3.) लौह-काल। ताम्र-कांस्य सम्यता का विकास उत्तर भारत में ही हुआ। दक्षिण भारत में ताम्रकाल के बाद सीधे ही लोहे का प्रयोग आरम्भ हो गया।

ताम्र काल

मानव द्वारा, धातुओं में सबसे पहले ताम्बे का प्रयोग आरम्भ हुआ। ताम्र-काल उस काल को कहते है जब मनुष्य ने अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ ताम्बे से बनाना आरम्भ किया। ताम्र-काल का आरम्भ नव-पाषाण काल के अंतिम चरण में हुआ। ताम्बे को प्रयोग में लाने के कई कारण थे। पत्थर को गलाया नहीं जा सकता परन्तु ताम्बे को गलाया जा सकता है। इसलिये ताम्बे को गला कर उससे छोटी बड़ी कई तरह की वस्तुएँ बनाई जा सकती थीं।

पत्थर की अपेक्षा ताम्बे की बनी हुई वस्तुएँ अधिक सुन्दर, सुडौल, सुदृढ़़ तथा चिकनी होती थीं। ताम्बे में यह सुविधा भी थी कि उससे चद्दरें भी बनाई जा सकती थीं और उसके टुकड़़े भी किये जा सकते थे। टूट जाने पर ताम्बे को जोड़ा भी जा सकता था।

छोटा नागपुर के पठार से लेकर उत्तरी गंगा-द्रोणी तक फैले हुए विशाल क्षेत्र में ताम्र-वस्तुओं की चालीस से अधिक निधियां मिली हैं परन्तु इनमें से लगभग आधी निधियां केवल गंगा-यमुना के दोआब से प्राप्त हुई हैं। दूसरे क्षेत्रों से छुटफुट निधियां ही मिली हैं। इन निधियों में कुल्हाड़े, मत्स्यभाले, खड्ग और पुरुषसम आकृतिवाली वस्तुएं हैं।

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इन वस्तुओं का उपयोग न केवल मछली मारने, आखेट करने और लड़ाई करने अपितु दस्तकारी, कृषि आदि अनेक कामों के लिए भी होता था। इन ताम्र-वस्तुओं के निर्माता कुशल शिल्पकार थे। ये वस्तुएं आखेटकों अथवा घुमन्तू लोगों द्वारा निर्मित नहीं हो सकतीं। ऊपरी गंगा की घाटी में कई स्थलों पर ये वस्तुएं गेरुए रंग के बर्तनों और कच्ची मिट्टी के ढांचों के साथ मिली हैं। इससे पता चलता है कि ताम्र-निधियों का उपयोग करने वाले लोग स्थायी बस्तियों में रहते थे। दोआब के काफी बड़े भाग में बसने वाले ये सबसे पुराने आदिम कृषक और कारीगर लोग थे। गेरुए रंग के बर्तनों वाले अधिकांश स्थल दोआब के उत्तरी भाग से मिले हैं परन्तु ताम्र-निधियां प्रायः समस्त दोआब और इसके परे भी मिली हैं। गेरुए रंग के मृदभाण्डों की इस संस्कृति का काल मोटे तौर पर 2000 ई.पू. और 1800 ई.पू. के बीच का है। ताम्र-वस्तुओं का उपयोग करने वाले गेरुए रंग के बर्तनों वाले लोगों की बस्तियां जब गायब हो गईं, तो लगभग 1000 ई.पू. तक दोआब वीरान ही रहा। इस बात का कुछ संकेत मिलता है कि काले और लाल बर्तनों को उपयोग में लाने वाले लोगों की छुटफुट बस्तियां थीं परन्तु अब तक उनके सांस्कृतिक अंतर के सम्बन्ध में सुस्पष्ट धारणा नहीं बन सकी है।

जो भी हो दोआब के उत्तरी भाग तथा ऊपरी गंगा की घाटी में धातु युग का वास्तविक आरम्भ ताम्र वस्तुओं और गेरुए रंग के बर्तनों का उपयोग करने वाले लोगों के साथ ही हुआ परन्तु किसी भी स्थल पर इनकी बस्ती लगभग सौ साल से अधिक समय तक टिकी नहीं रही।

न ही ये बस्तियां बड़ी थीं और न काफी बडेे़ क्षेत्र में फैली हुई थीं। इन बस्तियों का अंत क्यों और कैसे हुआ यह स्पष्ट नहीं है। हिन्दू धर्म में तांबे के बर्तनों और पात्रों आदि को पवित्र तथा धार्मिक दृष्टि से शुद्ध माना जाता है तो इसका कारण सम्भवतः यह है कि तांबा मानव द्वारा खोजी गई प्रथम धातु थी।

ताम्राश्म संस्कृति की विशेषताएँ

ताम्राश्म संस्कृति मानव के बारे में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस संस्कृति के लोग पशुपालक थे, कृषि करते थे, साधारण किस्म के ताम्बे का प्रयोग करते थे और ग्रामीण परिवेश में रहते थे।

ताम्राश्म संस्कृति का काल निर्धारण

कालक्रम के अनुसार ताम्र-पाषाण संस्कृति, सिंधु सभ्यता की कांस्य संस्कृति के बाद आती है। वैज्ञानिक विधि से निर्धारित की गई तिथियों से पता चलता है कि इस संस्कृति का प्रारंभ 2150 ई.पू. के पश्चात् हुआ था। कुछ क्षेत्रों में इस संस्कृति का चरण 1000 ई.पू. तक चला, तो कुछ अन्य क्षेत्रों में 800 ई.पू.तक अथवा उसके बाद 600 ईस्वी (गुप्तकाल) तक भी चलता रहा। जब तक लोहे के औजारों का प्रचलन नहीं हुआ, तब तक पुराने औजारों का उपयोग होता रहा परन्तु अनेक क्षेत्रों में काले-लाल मृदभाण्डों का उपयोग ईसा पूर्व दूसरी सदी तक होता रहा।

ताम्र एवं पाषाण का एक साथ उपयोग

इस काल के मानवों द्वारा ताम्र एवं पाषाण उपकरणों का उपयोग एक साथ किया जाता रहा इसलिये इस संस्कृति को ताम्र-पाषाण संस्कृति भी कहते हैं। इस अवस्था में तांबे का उत्पादन सीमित था। तांबे की भी अपनी सीमाएं थी। केवल तांबे से बनाया गया औजार नरम होता था। तांबे के साथ टिन मिलाकर एक अधिक मजबूत और उपयोगी कांसे की मिश्र धातु बनाने की कला लोगों को ज्ञात नहीं थी। कांसे के औजारों ने कीट, मिò और मेसोपोटामिया में प्राचीनतम सभ्यताओं के उदय में सहायता दी, परन्तु भारत के प्रमुख भाग की ताम्र-पाषाणिक अवस्था में कांसे के औजारों का प्रायः अभाव ही है।

प्रस्तर फलकों का प्रयोग

ताम्र-पाषाण संस्कृतियों के लोगों ने पत्थर के जिन छोटे औजारों और हथियारों का उपयोग किया उनमें प्रस्तर-फलकों का स्थान महत्त्वपूर्ण था। यद्यपि कई स्थलों पर प्रस्तर-फलक उद्योग ने खूब उन्नति की तथापि पत्थर की कुल्हाड़ियों का भी उपयोग होता रहा। ऐसे स्थल पहाड़ियों से अधिक दूर नहीं होते थे, परन्तु ऐसे ही अनेक स्थल नदी मार्गों पर भी खोजे गए हैं।

कुछ स्थलों से तांबे की कई वस्तुएं मिली हैं। आहड़ और गिलूँड ऐसे ही स्थल हैं जो राजस्थान की बनास घाटी के शुष्क क्षेत्र में स्थित हैं। आहड़ से पत्थर की कोई कुल्हाड़ी या फलक नहीं मिला है। इसके विपरीत, यहाँ से तांबे की कई कुल्हाड़ियां और दूसरी वस्तुएं मिली हैं, क्योंकि तांबा स्थानीय रूप से उपलब्ध था। गिलूँड में प्रस्तर-फलक उद्योग मिलता है। महाराष्ट्र के जोर्वे तथा चंदोली स्थानों से तांबे की सपाट तथा आयताकार कुल्हाड़ियां मिली हैं, चंदोली से तांबे की छेनियां भी मिली हैं।

यातायात के साधनों में वृद्धि

पाषाण-काल के आरंभिक चरण में बोझा ढोने का काम मनुष्य स्वयं करता था परन्तु पशुपालन आरंभ होने के साथ-साथ बोझा ढोने का काम पशुओं द्वारा किया जाने लगा। बोझा ढोने के लिए सबसे पहले बैलों का प्रयोग किया गया परन्तु बाद में गधों, घोड़ों तथा ऊँटों का प्रयोग होने लगा। ताम्रकाल में यह कार्य पशुओं के साथ-साथ पशुओं द्वारा खींची जाने वाली पहियेदार गाड़ियों से भी किया जाने लगा। जल यात्राओं के लिये नावों का निर्माण भी आरम्भ हो गया।

कृषि में उन्नति

कृषि का काम मध्य-पाषाण-काल में ही आरम्भ हो गया था परन्तु अब कृषि बहुत बड़े परिमाण में की जाने लगी। पशुओं की संख्या में वृद्धि हो जाने के कारण अब उनके चारे तथा रखने की व्यवस्था करनी पड़ी। पशुओं के लिये मोटे अन्न की खेती की जाने लगी। अनुमान है कि इस काल का मानव कृषि कार्य में हल का उपयोग नहीं करता था।

ये लोग लकड़ी के डण्डे में पत्थर फंसा कर उससे धरती खोदते थे। इस संस्कृति की बस्तियों से हल नहीं मिला है। ये लोग चावल, गेंहूँ, बाजरा, मसूर, उड़द तथा मूँग जैसी कई दालें और मटर पैदा करते थे। महाराष्ट्र में नर्मदा तट पर स्थित नवदाटोली में इन समस्त अनाजों के अवशेष मिले हैं।

सम्भवतः भारत के किसी भी अन्य स्थल के उत्खनन में इतने अधिक अनाज प्राप्त नहीं हुए हैं। नवदाटोली के लोग बेर और अलसी पैदा करते थे। दक्खन की काली मिट्टी में कपास की पैदावार होती थी। निचले दक्खन में रागी, बाजरा और इसी कोटि के दूसरे कई अनाजों की खेती होती थी।

पशुपालन

विद्धानों का मत है कि ताम्र-पाषाणिक काल का मानव पशुओं को दूघ या घी प्राप्त करने के लिये नहीं पालता था अपितु मांस प्राप्ति, बोझा ढोने, कृषि करने तथा यातायात के लिये करता था। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश और पश्चिमी महाराष्ट्र में रहने वाले ताम्र-पाषाण काल के लोगों ने पशुओं को पालतू बनाया था और वे खेती भी करते थे।

वे गाय, बकरी, सूअर और भैंस पालते थे और हिरन का आखेट करते थे। इस काल की बस्तियों से ऊंट के अवशेष भी मिले हैं। पशुओं के कुछ ऐसे अवशेष मिले हैं जो घोड़े या पालतू गधे या जंगली गधे के हो सकते हैं। ये लोग निश्चय ही गोमांस खाते थे, सूअर के मांस का बहुत उपयोग नहीं होता था।

मछली एवं चावल का भोजन: बिहार और पश्चिमी बंगाल से, जहाँ चावल की खेती होती थी, मछली पकड़ने के कांटे भी मिले हैं। इससे पता चलता है कि पूर्वी प्रदेशों में रहने वाले ताम्र-पाषाण के लोग मछली और चावल खाते थे। देश के इस भाग में आज भी मछली और चावल लोकप्रिय भोजन हैं।

ताम्राश्म संस्कृति की हस्तकलायें

इस काल का मानव तांबे की वस्तुएं और पत्थर के औजार बनाने में निपुण था। इस काल के छोटे आकार के बहुत सारे पत्थर के औजार मिले हैं, जिन्हें लघुपाषाण कहते हैं। वे कताई और बुनाई की कला भी जानते थे, क्योंकि मालवा से उस काल की तकली की चक्रियां मिली हैं। महाराष्ट्र से कपास, सन और रेशम के तन्तु मिले हैं। इससे पता चलता है कि वे लोग कपड़ा भी तैयार करते थे।

विभिन्न प्रकार के मृद्भाण्डों का उपयोग: ताम्र-पाषाण काल के लोग विभिन्न प्रकार के मृदभाण्डों का उपयोग करते थे। इनमें से एक प्रकार के बर्तन काले-लाल रंग के थे। अनुमान होता है कि इनका प्रचलन दूर-दूर तक था। इन बर्तनों को चाक पर बनाया जाता था। कभी-कभी इन पर सफेद रैखिक आकृतियां भी चित्रित की जाती थीं।

यह तथ्य न केवल राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की बस्तियों के सम्बन्ध में है अपितु बिहार और पश्चिमी बंगाल में खोजी गई बस्तियों के सम्बन्ध में भी है। मध्य प्रदेेश और महाराष्ट्र में रहने वाले इस काल के लोगों ने टोंटी वाले लोटे, धरनी-युक्त तश्तरियां और धरनी-युक्त कटोरे बनाए थे।

यह सोचना गलत होगा कि जिन भी लोगों ने काले-लाल बर्तनों का उपयोग किया उनकी संस्कृति भी एक ही थी। उनके बर्तनों और औजारों की बनावट में अंतर स्पष्ट दिखाई देता है। इस काल के लोगों ने लोटों तथा तश्तरियों का उपयोग तो किया किंतु थालियों का उपयोग नहीं किया।

कार्य-कुशलता में वृद्धि

धातु के काम में कुशलता की बड़ी आवश्यकता होती है। अतः अपने कार्य में निपुणता प्राप्त करने के लिये अब लोग पूरे समय अपने ही कार्य में लगे रहते थे। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के कार्यों में विशेषज्ञता प्राप्त करने लगे। अब कार्य-विभाजन का सिद्धान्त बहुत आगे बढ़ गया और लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दूसरों पर निर्भर रहने लगे। इस प्रकार मनुष्य स्वावलम्बी से परावलम्बी हो गया।

पक्के भवनों का निर्माण

इस काल से पहले के लोग आम तौर से पकी हुई ईटों से परिचित नहीं थे। धूप में सुखाई तथा आग में पकाई हुई ईटों के भवनों का निर्माण इसी काल में आरम्भ हुआ किंतु इनका उपयोग विरले ही होता था। इस काल में अधिकतर घर टट्टर को लीपकर बनाए जाते थे और इन पर संभवतः छप्पर भी डाले जाते थे।

ये मकान बड़े सुविधाजनक होते थे और इनमें सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहती थी। इन आवासों में मनुष्य, पशु तथा भण्डारण के लिये अलग-अलग प्रबन्ध रहता था। पश्चिमी महाराष्ट्र के इनामगांव स्थान पर आरंभिक ताम्र-पाषाण काल के चूल्हों सहित मिट्टी के बड़े भवन और गोलाकार गड्ढों वाले भवन खोजे गए हैं। बाद की अवस्था (1300-1000 ई.पू.) का पांच कमरों का एक कमरा गोलाकार है। इससे पता चलता है कि इस युग के परिवार बड़े होते थे।

नगरीय सभ्यता के जनक

ताम्र-पाषाणिक अर्थ-व्यवस्था वस्तुतः ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था थी। जैसे कि इनामगांव तथा पश्चिमी मध्य प्रदेश की एरण तथा कयथ बस्तियों की किलेबंदी करके इनके चहुंओर खाइयां खोदी गई थीं जिससे अनुमान होता है कि ताम्राश्म संस्कृति के मानव ने नगरीय सभ्यता को जन्म दिया था।

धार्मिक भावना का सुढ़ढ़ीकरण

इस युग में कृषि कार्य विस्तृत हो जाने के कारण मानव पर प्रकृति की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता अधिक प्रभाव डालने लगी। इस कारण इस काल के मानव ने प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवता के रूप में पूजना आरम्भ किया। पूजा के लिये मन्दिरों का निर्माण आरम्भ हो गया।

धार्मिक भावना के उदय के साथ-साथ इस युग के मानव में अन्धविश्वास भी उत्पन्न हो गया और वह जादू-टोना में विश्वास करने लगा। स्त्रियों की लघु मृण्मूर्तियों से पता चलता है कि ताम्र-पाषाण काल का मानव मातृदेवियों की उपासना करता था। कच्ची मिट्टी की नग्न लघु मूर्तियों की भी पूजा होती थी। इनामगांव से मातृदेवी की एक मूर्ति मिली है जो पश्चिमी एशिया से मिली मातृदेवी की मूर्ति जैसी है। मालवा और राजस्थान से प्राप्त वृषभ की रूढ़ शैली की मृण्मूर्तियों से पता चलता है कि वृषभ की अनुष्ठानिक पूजा होती थी।

ताम्राश्म संस्कृति में शवाधान

ताम्र-पाषाणिक सभ्यता के लोगों के शव-संस्कारों और धार्मिक अनुष्ठाानों के बारे में भी जानकारी मिलती है। इस काल में महाराष्ट्र क्षेत्र में मृतक के शव को अपने भवन के फर्श के नीचे उत्तर-दक्षिण स्थिति में गाढ़ा जाता था। हड़प्पा के लोगों की तरह उनके पृथक समाधि क्षेत्र नहीं होते थे।

कब्र में मिट्टी की हंडिया और तांबे की कुछ वस्तुएं भी रखी जाती थीं, जो परलोक में मृतक के उपयोग के लिए होती थीं। पश्चिमी महाराष्ट्र में चंदोली और नेवासा के शवाधानों में कुछ बच्चों को उनके गलों में तांबे की मणियों की मालाएं पहनाकर गाढ़ा गया था परन्तु दूसरे बच्चों के शवाधानों में केवल मिट्टी के बर्तन देखने को मिलते हैं। इनामगांव के एक वयस्क व्यक्ति को मिट्टी के बर्तनों और कुछ तांबे के साथ गाढ़ा गया है।

ताम्राश्म संस्कृति की दुर्बलताएं

ताम्राश्म संस्कृति में सामाजिक असमानताएं

ताम्र-पाषाण काल में सामाजिक असमानताएं आरंभ होने के प्रमाण मिलते हैं। कायथा के एक भवन से तांबे की 29 चूड़ियां और दो विशिष्ट कुल्हाड़ियां मिली हैं। उसी स्थान से मिट्टी के घड़ों में से सेलखड़ी और कार्नेलियन-जैसे कुछ मूल्यवान पत्थरों की मणियों की मालाएं मिली हैं। अनुमान है कि ये वस्तुएं समृद्ध लोगों की थीं।

ताम्राश्म संस्कृति का कष्टमय जीवन

पश्चिमी महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में गाढ़े गए बच्चों के शवावशेषों से इस ताम्र-पाषाणिक संस्कृति की दुर्बलता स्पष्ट हो जाती है। अन्न-उत्पादक अर्थव्यवस्था के उपरांत भी बच्चों की मृत्यु-दर बहुत ऊंची थी। इसके कारणों का पता लगाना कठिन है। कुपोषण अथवा महामारी के कारण इतनी बड़ी संख्या में बच्चे मरे होंगे। उस काल के ताम्र-पाषाणिक समाज तथा अर्थव्यवस्था में दीर्घायु प्राप्ति को बढ़ावा मिलना सम्भव नहीं था।

हड़प्पा सभ्यता से तकनीकी आदान-प्रदान का अभाव

ताम्र-निधियों वाले ये लोग हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थे, और ये लोग गेरुए रंग के बर्तनों वाले जिस प्रदेश में रहते थे वह भी हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र से अधिक दूर नहीं था। इसलिए दोनों सभ्यताओं में सम्पर्क होना तथा तकनीकी कौशल का आदान प्रदान होना स्वाभाविक था किंतु ताम्र-पाषाणिक सभ्यता के लोगों ने हड़प्पा सभ्यता के लोगों के ज्ञान का लाभ नहीं उठाया। इसलिये वे कांसे के बारे में नहीं जान सके।

भारत में ताम्र बस्तियों की खोज

भारत में ताम्र निर्मित सामग्री सबसे पहले गंगा-यमुना के दोआब में उपलब्ध हुई थी। गुनेरियां नामक स्थान से ताम्बे एवं कांसे की वस्तुओं का विशाल भण्डार मिला है। इस सामग्री में कुल्हाड़ियां, तलवारें, कटारें, हार्पून एवं छल्ले प्रमुख हैं। इतिहासकार मि. पिगट ने इस क्षेत्र से प्राप्त कुल्हाड़ियों को पांच भागों में बांटा है।

तलवारें प्रायः एक जैसी हैं। इन तलवारों के ब्लेड पत्ती के समान हैं एवं मुठिया तथा धार के साथ समूची तलवार एक ही सांचे में ढाली गई है। कटार का निर्माण भी इसी प्रकार से किया गया है। यह समग्र सामग्री सिंधु घाटी से प्राप्त सामग्री से भिन्न है।

प्रमुख ताम्र-पाषाणिक बस्तियाँ

भारत में प्रमुख ताम्र-पाषाणिक बस्तियों का प्रसार लगभग 2150 ई.पू. से 600 ईस्वी (गुप्तकाल) तक रहा। दक्षिण भारत में नवपाषाणिक अवस्था एकाएक ताम्र-पाषाणिक अवस्था में बदल गई। इसलिए इन संस्कृतियों को नवपाषाणिक ताम्र-पाषाणिक नाम दिया गया है।

दूसरे भागों, विशेषतः पश्चिमी महाराष्ट्र और राजस्थान के लोग सम्भवतः उपनिवेशिक थे परन्तु तिथिक्रमानुसार, मालवा और मध्य भारत की कुछ बस्तियां, जैसे कि कायथा और एरण की बस्तियां, सबसे पुरानी थीं, पश्चिमी महाराष्ट्र में कालांतर में स्थापित हुईं। पश्चिमी बंगाल की बस्तियों की स्थापना सम्भवतः सबके अंत में हुई।

1. कायथा संस्कृति (2150 ई.पू. से 1400 ई.पू.)

कायथा संस्कृति की बस्तियां मध्यप्रदेश में कालीसिंध नदी के किनारे स्थित हैं। कायथा टीले से 12 मीटर मोटा सांस्कृतिक जमाव मिला है जिसमें ताम्रपाषाणिक संस्कृति से लेकर गुप्त राजवंश के काल तक के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से मृदभाण्ड बनाने की तीन परम्परायें मिली हैं। प्रथम पात्र परम्परा हल्के गुलाबी रंग की है जिस पर बैंगनी रंग की चित्रकारी मिलती है। दूसरी पात्र परम्परा पाण्डुरंग की है। बर्तनों पर लाल रंग से चित्रण अभिप्राय संजोये गये हैं। तीसरी परम्परा अलंकृत लाल रंग की मृद्भाण्ड परम्परा है जिन पर कंघी की तरह के किसी उपकरण से आरेखण किया गया है।

2. आहड़ संस्कृति (1900 ई.पू. से 1200 ई.पू.)

यह बस्ती राजस्थान के उदयपुर नगर से 4 किलोमीटर दूर आहड़ नामक स्थान पर मिली है। आहड़ का प्राचीन नाम ताम्रवती है। इस स्थान को अब धूलकोट कहते हैं। यहाँ पर कायथा की तुलना में ताम्र उपकरण अधिक मिले हैं। इस संस्कृति के लोग सुखाई गई कच्ची ईंटों की सहायता से भवन बनाते थे।

मकानों में दो-तीन मुंह वाले चूल्हे भी मिले हैं। यहाँ से बड़े-बड़े भाण्ड तथा अन्न पीसने के पत्थर मिले हैं। कपड़़ों पर छपाई के ठप्पे भी प्राप्त हुए हैं। इस संस्कृति में शवों को गाड़ते समय शव का मस्तक उत्तर की ओर तथा पैर दक्षिण की ओर रखे गये हैं। आहड़ संस्कृति को बनास संस्कृति भी कहते हैं क्योंकि इस सभ्यता का प्रसार सम्पूर्ण बेड़च, बनास एवं चम्बल के कांठे में पाया गया है।

3. गिलूण्ड संस्कृति (1700 ई.पू. से 1300 ई.पू.)

आहड़ के निकट गिलूण्ड से भी ताम्रपाषाणिक बस्ती मिली है। यहाँ से चूने के प्लास्टर एवं कच्ची दीवारों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। यहाँ से लाल एवं काले मृदभाण्डों की ही संस्कृति प्राप्त हुई है। यहाँ से 100 गुणा 80 फुट आकार के ईंटों से बने विशाल भवन के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ऐसे भवन आहड़ में देखने को नहीं मिलते।

4. नवदाटोली संस्कृति (1500 ई.पू. से 1200 ई.पू.)

मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में मिलने के कारण इसे मालवा संस्कृति भी कहा जाता है। यह नर्बदा नदी के बायें किनारे पर स्थित है। यहाँ से मिले मृदभाण्ड गुलाबी रंग के हैं। इन पात्रों पर काले रंग से चित्रण किया गया है। यहाँ से ताम्र उपकरण बहुत कम संख्या में प्राप्त हुए हैं। यहाँ से स्वर्ण, ताम्र, मृदा, शंख एवं सेलखड़ी पत्थर से बने आभूषण प्राप्त हुए हैं। कुछ अग्निकुण्ड भी मिले हैं जिनसे अनुमान होता है कि इस संस्कृति में अग्नि पूजा भी होती थी।

5. जोरवे संस्कृति (1400 ई.पू. से 700 ई.पू.)

पश्चिमी महाराष्ट्र में प्रवर नदी तट पर स्थित जोरवे नामक गांव से इस संस्कृति के अवशेष मिले हैं। बाद में नासिक, नेवासा, इनामगांव, दैमाबाद आदि स्थलों से भी इस संस्कृति के अवशेष मिले। इस संस्कृति में बस्तियां बसाने का काम योजनाबद्ध तरीके से होता था।

जोर्वे संस्कृति का प्रत्येेक गांव 35 से भी अधिक गोलाकार अथवा आयताकार भवनों की एक सुगठित बस्ती होती थी। घरों के बीच एक से दो मीटर चौड़ी गलियां छोड़ी गई हैं। यहाँ से कुम्हार, सुनार, हाथीदांत के शिल्पकारों के औजार मिले हैं जो बस्ती की पश्चिमी सीमा पर रहते थे।

समृद्ध किसान गांव के बीच में रहते थे। दस्तकारों के मकानों का आकार, समृद्ध किसानों के घरों के आकार की तुलना में छोटा है। यहाँ से अल्प मात्रा में ताम्बे के उपकरण पाये गये हैं। मृण्मूर्तियां मिली हैं जिनमें मातृदेवी एवं वृषभ की मूर्तियां विशेष हैं। इस संस्कृति में खेती के लिये नहरों एवं बांधों का निर्माण किये जाने के प्रमाण मिले हैं। दैमाबाद से कांसे की वस्तुएं बड़ी संख्या में मिली हैं। दैमाबाद से ताम्बे से निर्मित- रथ चलाते हुए मनुष्य, सांड, गैंडे तथा हाथी की मूर्तियां मिली हैं।

6. पूर्वी भारत की बस्तियां (2000 ई.पू.)

पूर्वी भारत से चावल पर आधारित एक विस्तृत ताम्र-पाषाणिक ग्राम संस्कृति का पता चला है। यह 2000 ई.पू. के आसपास अस्तित्व में रही होगी। उड़ीसा तथा बंगाल प्रांत के वीरभूम, बर्दवाद, मिदनापुर, बांकुरा, पांडु राजार ढिबी, महिषदल आदि में इस संस्कृति की बस्तियां मिली हैं। यहाँ गारे और सरकण्डे से निर्मित घरों के साथ-साथ चावल तथा मंूग सहित तरह-तरह की फसलों का समृद्ध संग्रह देखने को मिलता है।

7. ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना दो-आब की बस्तियां (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.)

इन क्षेत्रों से गेरुए रंग के मृदभाण्डों वाली बस्तियां मिली हैं। उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के बसौली तथा बिजनौर जिले के राजपुर परसू से नई किस्म के बर्तन प्राप्त हुए हैं। ये दोनों ही स्थान ताम्र भण्डार क्षेत्र में स्थित हैं। इस संस्कृति में अतरंजीखेड़ा का प्रमुख स्थान है। यहाँ से धूसर भाण्ड वाली बस्तियां मिली हैं। सहारनपुर से लेकर इटावा तक लगभग 110 स्थल इस संस्कृति के हैं जिन्हें गेरुए रंग के मृदभाण्डों की संस्कृति कहते हैं।

8. ऐतिहासिक कालों की बस्तियां

उत्तर भारत में ताम्र पाषाणिक संस्कृति, जनपद युग एवं मगधीय साम्राज्य (600 ई.पू. से 300 ई.पू.) तथा शुंग, कुषाण एवं गुप्त काल (300 ई.पू. से 600 ई.) तक अस्तित्व में रहीं जबकि पश्चिमी भारत में 4000 ई.पू. के आसपास ताम्रकांस्य संस्कृति जन्म ले चुकी थी।

9. सिंधु नदी घाटी क्षेत्र में ताम्र-पाषाण-कालीन बस्तियाँ

सिंधु नदी घाटी में भी ताम्बे एवं कांसे की अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं किंतु यहाँ पर तलवार एवं हार्पून का अभाव है। इस क्षेत्र से मिले इस काल के हथियार साधारण कोटि के हैं। यहाँ पर धातु के साथ-साथ पाषाण सामग्री का उपयोग भी चलता रहा।

कांस्य की खोज

पाषाण की तुलना में ताम्बा अधिक उपयोगी था किंतु मुलायम होने के कारण इससे कठोर कार्य नहीं लिया जा सकता था। इसलिये मनुष्य ताम्बे से अधिक कठोर धातु की खोज में जुटा तथा उसने कांसे को खोज निकाला। यह मिश्रित धातु थी जो ताम्बे में टिन के मिश्रण से तैयार की जाती थी। दो धातुओं के मिश्रण से तीसरी धातु बनाने की क्षमता अर्जित कर लेना, इस युग के मानव की बौद्धिक परिपक्वता का प्रमाण है।

ताम्र-कांस्य युगीन बस्तियाँ

आज से कुछ हजार वर्ष पहले, सिंध और बिलोचिस्तान के जो प्रदेश आज की तरह रेगिस्तान नहीं थे। इन क्षेत्रों में अच्छी वर्षा होती थी तथा घने जंगलों से परिपूर्ण थे। जल और जंगल के कारण इन क्षेत्रों में मानव सभ्यता ने अच्छा विकास किया। 4000 ई.पू. में भी इस क्षेत्र में ग्रामीण बस्तियां थीं।

इन बस्तियों में पाषाण युग के बाद ताम्र युग का विकास हुआ। इन बस्तियों के लोगांे का पश्चिम एशिया में स्थित मानव बस्तियों से सम्पर्क होने का भी अनुमान है। क्योंकि सिंध एवं बिलोचिस्तान जैसे उपकरण पश्चिम एशियाई बस्तियों में भी प्राप्त हुए हैं।

इतिहासकार मि. पिगट ने इन बस्तियों को चार भागों में विभक्त किया है- (1) क्वेटा संस्कृति (बोलन के दर्रे में प्राप्त अवशेषों के आधार पर), (2) अमरी-नल संस्कृति (सिंध में अमरी नामक स्थान पर तथा बिलोचिस्तान में नल नदी की घाटी में उपलब्ध अवशेषों के आधार पर), (3) कुल्ली संस्कृति (बिलोचिस्तान में कोल्बा नामक स्थान से प्राप्त अवशेषों के आधार पर) तथा (4) झोब संस्कृति (उत्तरी बिलोचिस्तान की झोब घाटी में उपलब्ध अवशेषों के आधार पर)।

राजस्थान की ताम्र-कांस्य युगीन बस्तियाँ

राजस्थान में भी पाषाण काल के अंतिम वर्षों में ताम्रकाल आरंभ हो गया था। राजस्थान के पुरातत्व विभाग ने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के सहयोग से कालीबंगा, आहड़, बागौर, रंगमहल, बैराठ, गिलूण्ड, नोह आदि स्थानों पर उत्खनन किया। इन उत्खननों में हमें सिंधु सभ्यता से भी प्राचीन एवं सिंधु सभ्यता के समकक्ष सभ्यताओं के अवशेष प्राप्त हएु हैं।

ताम्र-पाषाणिक एवं ताम्र-कांस्य संस्कृति में अंतर

ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का मानव पकी हुई ईंटों से घर बनाना नहीं जानता था जबकि एवं ताम्र-कांस्य संस्कृति का मानव पकी हुई ईटों से घर बनाता था।  ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का मानव ताम्र औजारों के साथ-साथ प्रस्तर निर्मित औजारों का प्रयोग करता था जबकि ताम्र-कांस्य संस्कृति का मानव ताम्र एवं कांस्य से बने औजारों का प्रयोग करता था।

ताम्र-पाषाणिक बस्तियां पूर्वी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत एवं महाराष्ट्र में नासिक तक प्राप्त हुई हैं जबकि ताम्र-कांस्य बस्तियां बिलोचिस्तान एवं सिंध क्षेत्र में अधिक प्राप्त हुई हैं। ताम्र-पाषाण-कालीन मानव धातुओं के मिश्रण की कला अर्थात् कांसा बनाने की विधि से अपरिचित था जबकि ताम्र-कांस्य कालीन मानव धातुओं के मिश्रण की कला से अच्छी तरह परिचित हो गया था।

यह एक आश्चर्य की ही बात है कि सिंधु सभ्यता जो कि ताम्र-पाषाण काल से भी पुरानी है, में कांसे का प्रयोग होता था। इससे अनुमान होता है कि ताम्र-पाषाणिक अवस्था में जी रहे लोगों का उन क्षेत्रों से सम्पर्क नहीं था जो उनके समकालीन होते हुए भी कांस्य का उपयोग कर रहे थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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